दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 23 मई 2021
गीत
बुधवार, 28 अप्रैल 2021
नव गीत: झुलस रहा गाँव
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
२८-४-२०१०
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शुक्रवार, 23 जून 2017
mukatak
बुधवार, 17 अगस्त 2016
laghukatha
बुधवार, 26 अगस्त 2009
गीत: अमन dalal
जो हम संवर रहे हैं..
भावो की हर छुवन में,
अब हम सिहर रहे हैं....….रिश्तो के इस शहर में,
राहे-गुजर बड़ी थी,
गमो की इक झडी थी,
के मन ही मन में खिलने
अब हम ठहर रहे हैं,
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
ये फूल और ये कलियाँ,
ये गाँव और गलियां,
न जाने क्यों यहाँ पर,
हैं कहते हमको छलियाँ,
पर कुछ कहो यहाँ की,
अब हम खबर रहे हैं....... रिश्तो के इस शहर में
हैं फिर से माँ की लोरी,
रेशम की सुर्ख डोरी,
बचपन के सारे वादे,
जो सच हैं वो बता दें,
बनते बिगड़ते कैसे,
ये हम सुधर रहे हैं..... रिश्तो के इस शहर में,
जब जाओं तुम वहां पर,
मैं गा रहा जहाँ पर,
ये वादा बस निभाना
तुम सबको ये बताना,
सपनो के इस नगर में,
हम कैसे रह रहे हैं......
रिश्तो को इस शहर में,
जो हम सँवर रहे हैं...
सोमवार, 20 जुलाई 2009
नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।
मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्चा चूल्हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
शुक्रवार, 15 मई 2009
नव गीत: -आचार्य संजीव 'सलिल'
कहीं छाँव क्यों??...
सबमें तेरा
अंश समाया।
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब
खोते हैं क्यों?,
जब खोते-
तब पाते- पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
नीचे-ऊपर
ऊपर-नीचे।
झूलें सब,
तू डोरी खींचे।
कोई हँसता,
कोई डरता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता,
चुप सर धुनता।
तू परखे, दे
संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
चंद अशआर : सलिल
इन्तिज़ार
कोशिशें मंजिलों की राह तकें।
मंजिलों ने न इन्तिज़ार किया।
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बूढा बरगद कर रहा है इन्तिज़ार।
गाँव का पनघट न क्यों होता जवां?
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जो मजा इन्तिजार में पाया।
वस्ल में हाय वो मजा न मिला।
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मिलन के पल तो लगे, बाप के घर बेटी से।
जवां बेवा सी घड़ी, इन्तिज़ार सी है 'सलिल'।
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इन्तिज़ार दिल से करोगे अगर पता होता।
छोड़कर शर्म-ओ-हया मैं ही मिल गयी होती।
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009
कविता
बूढे सपने !
प्रदीप पाठक
(हाल ही मे हुए बम्ब धमाकों से प्रेरित यह रचना उस गाँव का हाल बताती है जिसे खाली करवा दिया गया है क्योंकि वहाँ कभी भी जंग हो सकती है। वो सारे गाँव के लोग हर दम खानाबदोश की ज़िन्दगी जीते हैं। मै सोचता हूँ हम हर बार क्या खो रहे हैं, इसका ज़रा सा भी इल्म नहीं हमको-सं.)
वो देखो !
गाँव की मस्जिद।
आज भी नमाज़ को
तरस रही है।
फूलों के पेड़ -
बच्चों के स्कूल,
सब सूने पड़े हैं।
लगता है-आज फिर
काफिला आया है।
सिपाहियों का दस्ता लाया है।
गाँवों की पखडंडियाँ
फिर से उजाड़ हो गई।
मौलवी की तमन्ना,
फिर हैरान हो गई।
फिर मन को टटोला है।
जंग ने फिर से कचौला है।
दर्द भी पी लिया है।
अपनों से जुदा हुए-
पर अरमानों को सी लिया है।
खामोश आँखों ने-
फिर ढूँढा है सपनों को।
नादान हथेलियों में-
फिर तमन्ना जागी है।
पर क्यों सरफरोश हो गई,
आशायें इस दिल की।
क्यों कपकपी लेती लौ,
मोहताज़ है तिल तिल की।
टिमटिमाते तारे भी,
धूमिल से हैं।
बारूद के धुएँ में जुगनू भी,
ओझल से हैं.
बस करो भाई!
अब घुटन सी हो रही है।
न करो जंग का ऐलान फिर-
चुभन सी हो रही है।
बड़ी मुश्किलों से,
रमजान का महीना आया है।
मेरी तकदीर की
आखिरी ख्वाहिश को,
संग अपने लाया है।
कर लेने दो अजान
फिर अमन की खातिर,
बह लेने दो पुरवाई
बिखरे चमन की खातिर.
यूँ खून न बरसाओ !
अबकी सुबह निराली है।
हर पतझड़ के बाद मैंने-
देखी हरियाली है।
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