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सोमवार, 25 जुलाई 2011

ॐ नर्मदाष्टकं : ३ -श्री मैथिलेन्द्र झा - हिन्दी काव्यानुवाद आचार्य संजीव 'सलिल'

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ॐ नर्मदाष्टकं : ३                   
श्री मैथिलेन्द्र झा रचित नर्मदाष्टक - हिन्दी काव्यानुवाद आचार्य संजीव 'सलिल'
*
भजन्तीं जनुं शैलजाकांतकायद्भवन्तीं बहिर्भूतले विन्ध्यशैलात.
वहन्तीं महीमण्डलेsगस्त्यशस्ते, जयंतीं श्रये शर्मदे नर्मदे! त्वां..१..

नदन्तीं प्ररिन्गत्तरंगा लिभंगेर्लसंतीं, शकुंतावलीमंजु खेलै.
वलंतीं मलं मत्स्यनक्रादिचक्रै:, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..२..

हसंतीं लसत्फेंजालच्छलेन स्फुरंतीं, समृद्धिं नमो निर्झरिण्या:.
सृजंतीं जनानां सुखं स्वर्दुरापं, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..३..

विशंतीं गिरीणां गुहाकुञ्जपुंजे मिलंतीमनेकापगाभिः प्रसन्नां.
सरंतीं समंतात्सरस्वंतमन्ते, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..४..

हरंतीं नरा णां संख्यातजातै: श्वयंतीं महाकिल्विपात्रिं निमेषात.
द्रवंतीमिवैतद्धराभाग्यधारां, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..५..

नयंतीमजस्रं जनानां सहस्रं ज्वलंतीं दिवं दर्शनस्नानपानै:.
दिशंतीमिवाभीतिघोषंतरंगै:, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..६..

पिवंतीं सुधाहारि वारित्वदीयं, वदंतीं च रक्षेंदुकन्ये सुधन्ये.
अजंतीं नरालीं जगद्व्यालभीत, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..७..

भणंतीमपि त्वद्गुणानल्पशक्तै:, व्रजंतीं त्रपामंब! वाचं रुणाघ्मि.
रटंतीं परं मातरेनां समीहे, जयंतीं श्रये: शर्मदे नर्मदे! त्वां..८..

भुजंगंप्रयाताष्ट्कं नर्मदायाः, कृतं मैथिलेनेंद्रनाथेन भक्तया.
हृदा भक्ति भाजांजसा गीयमानं, परां निर्वृत्तिं भावुकानां तनोति..९..

******************************************************
श्री मैथिलेन्द्र झा रचित नर्मदाष्टक  हिंदी काव्यानुवाद संजीव 'सलिल'

भजूँ शैलजाकांतजाया पुनीता, लिया जन्म गिरि-विंध्य-पावन धरा से.
बही हो अगस्त्य साधनास्थली पर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.१.

किलोलित तरंगें करें शब्द सुखकर, पखेरू समूहों सुशोभित हुए तट.
करें दूर मल मक्र-मछली निरंतर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.२.

हँसी हो लगा फेन के व्याज से तुम, नमन निर्झरों को जो देते समृद्धि.
मिले सुख सभी जो न अब तक मिले थे, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.३.

गव्हरों-गुफाओं प्रवेशित हुईं हँस, सरित्धार सुंदर गले से लगीं शत.
बढ़ीं अंत में सिंधु से जा मिलीं तुम, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.४.

असंख्यों जनों के हरे पाप सारे, किये दूर संकट पलों में निवारे.
धरा-भाग्य-धारा दया हो तुम्हारी, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.५.

सहस्त्रों जनों को लगाया किनारे, तरे दर्शनों से, नहा, पान जल कर.
हरें भीति जय घोष करती तरंगें, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.६.

सुधा-श्रेष्ठ जल पी करे प्रार्थना जो, बचाओ, मुझे सोमतनये बचाओ.
उसे मुक्त भय से किया दे सुरक्षा, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.७.

करूँ गान महिमा, न सामर्थ्य मेरी, बचा लाज मेरी न कर मात देरी.
कलकल निनादिनी मुझ पर कृपाकर, विजय-सुख प्रदाता नमन माँ नर्मदे!.८.

भुजंगप्रयाताष्टक नर्मदा का, मिथिलेंद्र झा ने रचा भक्तिपूर्वक.
कृपा मातु तेरी 'सलिल' पर सदा हो, तरा जिसने गया नमन माँ नर्मदे.९.

                     .. ॐ श्री नर्मदाष्टक संपूर्ण ..
छंद: भुजंगप्रयात, दो पद (पंक्ति) २४ मात्रा, चार चरण प्रत्येक ६ मात्रा,
लघु गुरु गुरु लघु. चित्र: धुआंधार जलप्रपात, भेड़ाघाट जबलपुर. 
आभार: गूगल.  
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कविता : -- संजीव 'सलिल'

कविता
संजीव 'सलिल'
*
युग को सच्चाई का दर्पण, हर युग में दिखाती चले कविता.
दिल की दुनिया में पलती रहे, नव युग को बनाती पले कविता..
सूरज की किरणों संग जागे, शशि-किरणों संग ढले कविता.
योगी, सौतन, बलिदानी में, बन मन की ज्वाल जले कविता.
*

बुधवार, 13 जुलाई 2011

नर्मदाष्टक : २ रीवानरेश श्री रघुराज सिंह : हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा संजीव 'सलिल'



हिन्दी काव्यानुवाद सहित नर्मदाष्टक : २                                                                                

            रीवानरेश श्री रघुराज सिंह विरचितं नर्मदाष्टकं

 गिरींद्र मेकलात्मजे गिरीशरूपशोभिते, गिरीशभावभाविते सुरर्षिसिद्धवंदिते.
 अनेकधर्मकर्मदे सदानृणा सदात्मनां, सुरेंद्रहर्षसंप्रदे, नमामि देवी नर्मदे .१. 

रसालताल सुप्रियाल, संविशालमालिते, कदंब निंब कुंद वृंद, भृंगजालजालिते.
शरज्जलाभ्रसंप्लवेह्य, घघ्नजीवशर्मदे, विषघ्नभूषसुप्रिये, नमामि देवी नर्मदे .२.

मलात्मनां घनात्मनां, दुरात्मनां शुचात्मनां, मजापिनां प्रतापिनां प्रयापिनां सुरापिनां.
अनिष्टकारिणां वनेविहारिणां प्रहारिणां, सदा सुधर्म वर्मदे, नमामि देवी नर्मदे .३. 

वलक्षलक्षलक्षिते सकच्छकच्छपान्विते, सुपक्षपक्षिसच्छ्टे ह्यरक्षरक्षणक्षमे.
मुदक्षदक्षवांक्षिते विपक्षयक्षपक्ष्दे, विचक्षणक्षणक्षमे, नमामि देवी नर्मदे .४.

तरंगसंघसंकुले वराहसिंहगोकुले, हरिन्मणीन्द्रशाद्वले प्रपातधारयाकुले.
मणीन्द्रनिर्मलोदके फणीन्द्रसेंद्रसंस्तुते, हरेस्सुकीर्तिसन्निभे, नमामि देवी नर्मदे .५.  

पुराणवेदवर्णिते विरक्तिभक्तिपुण्यदे, सुयागयोग सिद्धिवृद्धिदायिके महाप्रभे.
अनन्तकोटि कल्मशैकवर्तिनां समुद्धटे, समुद्रके सुरुद्रिके, नमामि देवी नर्मदे .६. 

महात्मनां सदात्मनां, सुधर्मकर्मवर्तिनां, तपस्विनां यशस्विनां मनस्विनां मन:प्रिये.
मनोहरे सरिद्वरे सुशंकरेभियांहारे,धराधरे जवोद्भरे, नमामि देवी नर्मदे .७.

शिवस्वरूपदयिके, सरिदगणस्यनायिके, सुवान्छितार्थधायिके, ह्यमायिकेसुकायिके.
सुमानसस्य कायिकस्य, वाचिकस्य पाप्मान:, प्रहारिके त्रितापहे, नमामि देवी नर्मदे .८.

रेवाष्टकमिदं दिव्यं, रघुराजविनिर्मितं, अस्य प्रपठान्माता नर्मदा मे प्रसीदतु.
मितेसंवत्सरेपौषे, गुणब्रम्हनिधींदुभि:, सितेसम द्वितीयायां निर्मितां नर्मदाष्टकं... ९. 

         इति रीवानरेश श्री रघुराज सिंह विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं

रीवानरेश श्री रघुराज सिंह रचित नर्मदाष्टक : हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा संजीव 'सलिल'

              हे कन्या गिरीन्द्र मेकलकी!, हे गिरीश सौंदर्य सुशोभा!!,
            हे नगेश भाव अनुभावित!, सुर-ऋषि-सिद्ध करें नित सेवा.
              सदा सदात्मा बनकर नरकी, नाना धर्म-कर्म की कर्ता!!.
               हर्ष प्रदाता तुम सुरेंद्रकी, नमन हमारा देवि नर्मदा.१.

               मधुर रसभरे वृक्ष आम के, तरुवर हैं सुविशाल ताल के.
            नीम, चमेली, कदमकुञ्ज प्रिय, केंद्र भ्रमर-क्रीडित मराल से.
            सलिल-शरद सम सदा सुशीतल, निर्मल पावन पाप-विनाशक.
            विषपायी शिवशंकर को प्रिय, नमन हमारा देवि नर्मदा.२.
             
            घातक, मलिन, दुष्ट, दुर्जन या, जपी-तपी, पवन-सज्जन हों.
             कायर-वीर, अविजित-पराजित, मद्यप या कि प्रताड़ित जन हों.
              अनिष्टकारी विपिनबिहारी, प्रबलप्रहारी सब जनगण को.
               देतीं सदा सुधर्म कवच तुम, नमन हमारा देवि नर्मदा.३.

           अमल-धवल-निर्मल नीरा तव, तट कच्छप यूथों से भूषित.
             विहगवृंदमय छटा मनोहर, हुए अरक्षित तुमसे रक्षित.
                मंगलहारी दक्षप्रजापति, यक्ष, विपक्षी तव शरणागत.
            विद्वज्जन को शांति-प्रदाता, नमन हमारा देवि नर्मदा.४.

              जल-तरंगके संग सुशोभित, धेनु वराह सिंहके संकुल.
       मरकत मणि सी घास सुकोमल, जलप्रपात जलधार सुशोभित.
          मनहर दर्पण उदक समुज्ज्वल, वंदन करें नाग, सुर, अधिपति.
              हो श्रीहरिस्तुति सी पावन, नमन हमारा देवि नर्मदा.५.

            वेद-पुराणों में यश वर्णित, भक्ति-विरक्ति पुण्य-फलदायिनी.
              यज्ञ-योग-फल सिद्धि-समृद्धि, देनेवाली वैभवशालिनी.
              अगणित पापकर्मकर्ता हों, शरण- करें उद्धार सर्वदा-
             उदधिगामिनी, रूद्रस्वरूपा, नमन हमारा देवि नर्मदा.६.

           करें धर्ममय कर्म सदा जो, महा-आत्म जन आत्मरूप में.
        तपस्वियों को, यशास्वियों को, मनस्वियों को, प्रिय स्वरूपिणे!.
            मनहर पावन, जन-मन-भावन, मंगलकारी भव-भयहारी.
              धराधार हे! वेगगामिनी, नमन हमारा देवि नर्मदा.७.

        श्रेष्ठ सुसरिता, नदी-नायिका, दात्री सत-शिव-सुंदर की जय.
         मायारहित, सुकायाधारिणी,वांछित अर्थ-प्रदाता तव जय!!.
             अंतर्मन के, वचन-कर्म के, पापों को करतीं विनष्ट जो-.
        तीन ताप की हरणकारिणी, नमन हमारा देवि नर्मदा.८.

           रीवा-नृप रघुराज सिंह ने, संवत उन्नीस सौ तेरह में.
         पौष शुक्ल दूजा को अर्पित, किया शुभ अष्टक रेवा पद में.
        भारत-भाषा हिंदी में, अनुवाद- गुँजाती 'सलिल' लहर हर.
        नित्य पाठ सुन देतीं शत वर, नमन हमारा देवि नर्मदा.९.

श्रीमदआदिशंकराचार्य रचित, संजीव 'सलिल' अनुवादित नर्मदाष्टक पूर्ण.

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शुक्रवार, 17 जून 2011

एक कविता: बदलेगा परिवेश.... संजीव 'सलिल'

एक कविता:
बदलेगा परिवेश....
 संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*

शुक्रवार, 3 जून 2011

नवगीत : बिना पढ़े ही... --- संजीव 'सलिल'

नवगीत :
बिना पढ़े ही...
संजीव 'सलिल'
*
बिना पढ़े ही जान, बता दें
क्या लाया अख़बार है?
पूरक है शुभ, अशुभ शीर्षक,
समाचार-भरमार है.....
*
सत्ता खातिर देश दाँव पर
लगा रही सरकार है.
इंसानियत सिमटती जाती
फैला हाहाकार है..
देह-देह को भोग, 
करे उद्घोष, कहे त्यौहार है.
नारी विज्ञापन का जरिया
देश बना बाज़ार है.....
*
ज्ञान-ध्यान में भेद कई पर
चोरी में सहकार है.
सत-शिव त्याज्य हुआ 
श्री-सुन्दर की ही अब दरकार है..
मौज मज़ा मस्ती पल भर की
पालो, भले उधार है.
कली-फूल माली के हाथों
होता नित्य शिकार है.....
*
वन पर्वत तालाब लीलकर
कहें प्रकृति से प्यार है.
पनघट चौपालों खलिहानों 
पर काबिज बटमार है.
पगडन्डी को राजमार्ग ने 
बेच किया व्यापार है.
दिशाहीनता का करता खुद 
जनगण अब सत्कार है...
*


 

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर....

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा मांगता है.
कलियों से कांटा
डरा-कांपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
****************

रविवार, 26 दिसंबर 2010

नव वर्ष पर अग्रिम उपहार: अटल जी की कविताएँ...



नव वर्ष  पर अग्रिम उपहार:

अटल जी की कविताएँ...

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी,
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा,
रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं,
...गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ..

पूर्व प्रधानमन्त्री और महाकवि अटल जी को 86 वें जन्मदिवस की शुभकामनाएं!!





शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

मुक्तिका: कौन चला वनवास रे जोगी? -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                            
कौन चला वनवास रे जोगी?

संजीव 'सलिल'
*

*

कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
*
राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
*

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

कविता: मैत्रेयी / प्रति कविता: संजीव 'सलिल'

कविता:

 
मैत्रेयी
 maitreyi_anuroopa@yahoo.com 
*
फिर आज
लिखने लगी है यह कलम
कुछ शब्द...
कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
और कुछ ऐसे
जिनमें
सोचा था मैने
लिपटा होगा
मेरा अभिप्राय
और समझ सकोगे तुम
वह सब
जो लपेट नहीं पाये
यह शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
ये अजनबी आकार
सोच रही हूँ
कलम से निकलने के बाद
मैं भी
क्यों नहीं पहचानती
इन्हें.
तुम्हारे पास
है क्या उत्तर ?
*
प्रति कविता:                                                                       

संजीव 'सलिल'
*
हाँ,
मुझे ज्ञात हैं
उन प्रश्नों के उत्तर,
जो
तुम्हारे लिये अबूझे हैं
या यूँ कहूँ कि
तुम्हारे अचेतन में होते हुए भी
तुम्हें नहीं सूझे हैं.
ऐसा होना
पूरी तरह स्वाभाविक है.

जब भी कोई
बनी बनायी लीक को
छोड़कर चलता है,
ज़माने की रीत-नीत को
तोड़कर पलता है ,
तो उसे सभ्यता के
तथाकथित ठेकेदार

कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
पाते और बताते हैं.

कलम से उतरे शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
सदियों पहले के
मूल्यों और मानकों को
अंतिम सच मान बैठे हैं.
जो समय के साथ चलेगा
उसे ये शब्द
अजनबी ही लगेंगे.
शुक्र है कि तुम
इन्हें नहीं पहचानतीं.
*************

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

विशेष रचना : षडऋतु - दर्शन -- संजीव 'सलिल'

विशेष रचना :
                                                                                   
षडऋतु-दर्शन                 
*
संजीव 'सलिल'
*
षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
     कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.                           
मुदितकमल सी, विमल-अमल नव,
     सुरभित मलयज नित प्रवहित है.
नभ से धरा निहार-हारकर,
     दिनकर थकित, 'सलिल' विस्मित है.
रूप-अरूप, अनूप, अनूठा,
     'प्रकृति-पुरुष' सुषमा अविजित है.                                  
                   ***
षडऋतु का मनहर व्यापार.
कमल सी शोभा अपरम्पार.
रूप अनूप देखकर मौन-
हुआ है विधि-हरि-हर करतार.

शाकुंतल सुषमा सुकुमार.
प्रकृति पुलक ले बन्दनवार.
शशिवदनी-शशिधर हैं मौन-
नाग शांत, भूले फुंकार.

भूपर रीझा गगन निहार.
दिग-दिगंत हो रहे निसार.
निशा, उषा, संध्या हैं मौन-                                                                 
शत कवित्त रच रहा बयार.

वीणापाणी लिये सितार.
गुनें-सुनें अनहद गुंजार.
रमा-शक्ति ध्यानस्थित मौन-
चकित लखें लीला-सहकार.
                ***
                             शिशिर

स्वागत शिशिर ओस-पाले के बाँधे बंदनवार
   वसुधा स्वागत करे, खेत में उपजे अन्न अपार.         
धुंध हटाता है जैसे रवि, हो हर विपदा दूर-
    नये वर्ष-क्रिसमस पर सबको खुशियाँ मिलें हजार..


                              बसंत
 
आम्र-बौर, मादक महुआ सज्जित वसुधा-गुलनार, 
       रूप निहारें गगन, चंद्र, रवि, उषा-निशा बलिहार.
गौरा-बौरा रति-रतिपति सम, कसे हुए भुजपाश- 
  नयन-नयन मिल, अधर-अधर मिल, बहा रहे रसधार.. 

                              ग्रीष्म 

संध्या-उषा, निशा को शशि संग देख सूर्य अंगार.
         
विरह-व्यथा से तप्त धरा ने छोड़ी रंग-फुहार.
झूम-झूम फागें-कबीर गा, मन ने तजा गुबार-
         चुटकी भर सेंदुर ने जोड़े जन्म-जन्म के तार..
 
                               वर्षा  

दमक दामिनी, गरज मेघ ने, पाया-खोया प्यार,
      रिमझिम से आरम्भ किन्तु था अंत मूसलाधार. 
बब्बा आसमान बैरागी, शांत देखते खेल- 
      कोख धरा की भरी, दैव की महिमा अपरम्पार..

                             शरद

चन्द्र-चन्द्रिका अमिय लुटाकर, करते हैं सत्कार, 
     आत्म-दीप निज करो प्रज्वलित, तब होगा उद्धार. 
बाँटा-पाया, जोड़-गँवाया, कोरी ही है चादर- 
      काया-माया-छाया का तज मोह, वरो सहकार.. 

                            हेमन्त 

कंत बिना हेमंत न भाये, ठांड़ी बाँह पसार. 
    खुशियों के पल नगद नहीं तो दे-दे दैव उधार.
गदराई है फसल, हाय मुरझाई मेरी प्रीत- 
    नियति-नटी दे भेज उन्हें, हो मौसम सदा बहार.. 
                                  ***
बिन नागा सूरज उगे सुबह ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
                                   *
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत. 
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
                                  *
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
                              ***
ढाई आखर पढ़े बिन पढ़े, तज अद्वैत वर द्वैत.  
मैं-तुम मिटे, बचे हम ही हम, जब-जब खेले बैत.. 
                               *
जीत हार में, हार जीत में, पायी हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो सके, सबकी अबकी साल..

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ऋतु - दर्शन एस. एन. शर्मा 'कमल'



ऋतु - दर्शन
 

एस. एन. शर्मा 'कमल' , <ahutee@gmail.com>
 
                           शिशिर नित शीत सिहरता गात                                       
  शिशिर               बन्द वातायन बन्द कपाट
                           दे रही दस्तक झंझावात
                           लिये हिम-खण्डों की सौगात

                          

                            मलय-गंधी मृदु-मंद बयार
बसंत                    निहोरे करते अलि गुंजार                                        
                            न हो कैसे कलि को स्वीकार
                            मदिर ऋतु का फागुनी दुलार

                             


                             ज्येष्ठ का ताप-विदग्ध आकाश
ग्रीष्म                    धरा सहती दिनकर का श्राप                                          
                             ग्रीष्म का दारुणतम संताप
                             विखंडित अणु का सा अनुताप

                           

                             प्रकृति में नव-यौवन संचार
वर्षा                      क्वार की शिथिल सुरम्य फुहार                                  
                            गगन-पथ पर उन्मुक्त विहार
                            श्वेत श्यामल बादल सुकुमार


                           शरदनिशि का सौन्दर्य अपार          
शरद                    पूर्णिमा की अमृत-रस धार                                       
                           दिशाएँ करतीं मधु-संचार
                           धरा सजती सोलह श्रृंगार

                         

 
                           
                           अनोखी है हेमन्त बहार
हेमन्त                 सजें गेंदा गुलाब घर द्वार                                                                      खेत गदराये वक्ष उभार
                          प्रकृति का अदभुत रूप निखार  

         

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गीत: निज मन से हांरे हैं... --संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                                    
निज मन से हांरे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन, किसे, कैसे समझाये
सब निज मन से हारे हैं.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह, खुद को
तीसमारखां पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद-गुब्बारे हैं.....
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनका प्रयोग कर,
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं.....
*
पान, तमाखू, ज़र्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर रखकर-
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस या
दिशाहीन बंजारे हैं.....
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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

घनाक्षरी : जवानी -- संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी :
जवानी
संजीव 'सलिल'
*
१.
बिना सोचे काम करे, बिना परिणाम करे,
व्यर्थ ही हमेशा होती ऐसी कुर्बानी है.
आगा-पीछा सोचे नहीं, भूल से भी सीखे नहीं,
सच कहूँ नाम इसी दशा का नादानी है..
बूझ के, समझ के जो काम न अधूरा तजे-
मानें या न मानें वही बुद्धिमान-ज्ञानी है.
'सलिल' जो काल-महाकाल से भी टकराए-
नित्य बदलाव की कहानी ही जवानी है..
२.
लहर-लहर लड़े, भँवर-भँवर भिड़े,
झर-झर झरने की ऐसी ही रवानी है.
सुरों में निवास करे, असुरों का नाश करे,
आदि शक्ति जगती की मैया ही भवानी है.
हिमगिरि शीश चढ़े, सिन्धु पग धोये नित,
भारत की भूमि माता-मैया सुहानी है.
औरों के जो काम आये, संकटों को जीत गाए,
तम से उजाला जो उगाये वो जवानी है..
३.
नेता-अभिनेता जो प्रणेता हों समाज के तो,
भोग औ'विलास की ही बनती कहानी है.
अधनंगी नायिकाएं भूलती हैं फ़र्ज़ यह-
सादगी-सचाई की मशाल भी जलानी है.
निज कर्त्तव्य को न भूल 'सलिल' याद हो-
नींव के पाषाण की भी भूमिका निभानी है.
तभी संस्कृति कथा लिखती विकास की जब
दीप समाधान का जलती जब जवानी है..

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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

लघु मुक्तिका : -- संजीव 'सलिल'

लघु मुक्तिका                                                                                        


संजीव 'सलिल'
*
नैन
बैन.

नहीं
चैन.

कटी
रैन.

थके
डैन.

मिले
फैन.

शब्द
बैन.



चुभे
सैन.

*

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

मुक्तिका: ख्वाब में बात हुई..... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                       

ख्वाब में बात हुई.....

संजीव 'सलिल'
*
ख्वाब में बात हुई उनसे न देखा जिनको.
कोई कतरा नहीं जिसमें नहीं देखा उनको..

कभी देते वो खलिश और कभी सुख देते.
क्या कहें देखे बिना हमने है देखा किनको..

कोई सजदा, कोई प्रेयर, कोई जस गाता है.
खुद में डूबा जो वही देख सका साजनको..

मेरा महबूब तो तेरा भी है, जिस-तिस का है.
उसने पाया उन्हें जो भूल सका है तनको..

उनके ख्यालों ने भुला दी है ये दुनिया लोगों.
कोरी चादर हुआ बैठा है 'सलिल' ले मनको..

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एक रचना: ऐसा क्यों होता है? -- संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                        
ऐसा क्यों होता है?
संजीव 'सलिल'
*
ऐसा क्यों होता होता है ?...
*
रुपये लेकर जाता है जो वह आता है खाली हाथ.
खाली हाथ गया जो भीतर, धन पा करता ऊँचा माथ..
जो सच्चा वह क़र्ज़ चुकाता, जो लुच्चा खा जाता है-
प्रभु का कैसा न्याय? न हमको तनिक समझ में आता है.

कहे बैंक मैनेजर पहले ने धन अपना जमा किया.
दूजा बचत निकाल खा रहा, जैसे पीता तेल दिया..
क़र्ज़ चुकाकर ब्याज बचाता जो वह चतुर सयाना है.
क़र्ज़ पचा निकले दीवाला जिसका वह दीवाना है..

कौन बताये किसको क्यों, कब कहाँ और क्या होता है?
मन भरमाता है दिमाग कहकर ऐसा क्यों होता है ?...
*
जन्म-जन्म का लेखा-जोखा हमने कभी न देखा है.
उत्तर मिलता नहीं प्रश्न का, पृष्ठ बंद जो लेखा है..
सीमा तन की, काल-बाह्य जो वह हम देख नहीं पाते.
झुठलाते हैं बिन जाने ही, अनजाने ही कतराते..

कर्म न कोई निष्फल होता, वह पाता जो बोता है.
मिले अचानक तो हँसता मन, खो जाये तो रोता है..
विधि निर्मम-निष्पक्ष मगर हम उसको कृपानिधान कहें.
पूजा, भोग, चढ़ावा, व्रत से खुद को छल अभिमान करें..

जैसे को तैसा मिलता है, कोई न पाता-खोता है.
व्यर्थ पूछते हम जिस-तिससे कह ऐसा क्यों होता है ?...
*
जैसा औरों से चाहें हम, अपने संग व्यवहार करें.
वैसा ही हम औरों के संग, लेन-देन आचार करें..
हम सबमें है अंश उसी का, जिसका आदि न अंत कहीं.
सत्य समझ लें तो पायेगा कोई किसी से कष्ट नहीं..

ध्यान, धारणा फिर समाधि से सत्य समझ में आता है.
जो जितना गहरा डूबा वह उतना ऊपर जाता है..
पानी का बुलबुला किस तरह चट्टानों का सच जाने?
स्वीकारे अज्ञान न, लगता सत्य समूचा झुठलाने..

'सलिल' समय-सलिला में बहता ऊपर-नीचे होता है.
जान सके जो सत्य, बताते कब-कैसा-क्यों होता है??
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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मुक्तिका: सच्चा नेह ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                                                                      
सच्चा नेह
संजीव 'सलिल'
*
तुमने मुझसे सच्चा नेह लगाया था.
पीट ढिंढोरा जग को व्यर्थ बताया था..

मेरे शक-विश्वास न तुमको ज्ञात तनिक.
सत-शिव-सुंदर नहीं पिघलने पाया था..

पूजा क्यों केवल निज हित का हेतु बनी?
तुझको भरमाता तेरा ही साया था..

चाँद दिखा आकर्षित तुझको किया तभी
गीत चाँदनी का तूने रच-गाया था..

माँगा हिन्दी का, पाया अंग्रेजी का
फूल तभी तो पैरों तले दबाया था..

प्रीत अमिय संदेह ज़हर है सच मानो.
इसे हृदय में उसको कंठ बसाया था..

जूठा-मैला किया तुम्हींने, निर्मल था
व्यथा-कथा को नहीं 'सलिल' ने गाया था..

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