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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

तुलसी गाथा, सुनीता सिंह, पुरोवाक

पुरोवाक्
तुलसी गाथा - वैराग्य का सगरमाथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                            काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंधकाव्य। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या कर्ता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।

महाकाव्य के तत्व -

                            महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।

१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सर्गारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्राय: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना, रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपयुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।

२. नायक - महाकाव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (दुर्गा, कैकेयी, सीता, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकाव्य रचा जाए। महाकाव्य में प्राय: एक नायक रखा जाता है किंतु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकाव्य लिखा जाए तो गोखले, तिलक, लाजपत राय, रवीद्रनाथ ठाकुर, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचंद्र बोस आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।

३. रस - काव्य की आत्मा रस को कहा गया है। महाकाव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।

अन्य विधान - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरूप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु स्व. दयाराम गुप्त 'पथिक' ने कर्ण, विदुर तथा रावण पर लिखित महाकाव्यों के शीर्षक क्रमश: 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा 'कालजयी' रखकर नव परंपरा स्थापित की है।

गाथा - वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद ८.३२ .१, ८.७१.१४)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्ति लभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। गाथ शब्द की उपलब्धि होने पर भी आकारान्त शब्द का ही प्रयोग लोकप्रिय है (ऋग्. ९।९९।४)। गाथा शब्द से बने हुए शब्दों की सत्ता इसके बहुल प्रयोग की सूचिका है। गाथानी एक गीत का नायकत्व करनेवाले व्यक्ति के लिये प्रयुक्त है (ऋग्0 १। ४३।१४)। ऋजुगाथ शुद्ध रूप से मंत्रों के गायन करनेवाले के लिये (ऋग. ८। ९। २१२) तथा गाथिन केवल गायक के अर्थ में व्यवहृत किया गया है (ऋग्. ५। ४४। ५)। यद्यपि इसका पूर्वोक्त सामान्य अर्थ ही बहुश: अभीष्ट है, तथापि ऋग्वेद के इस मंत्र में इसका अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट आशय है, क्योंकि यहाँ यह नाराशंसी तथा रैभी के साथ वर्गीकृत किया गया है: 'रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥' -- ऋग्वेद १०।८६।६

                            ऐतरेय ब्राह्मण की दृष्टि में (ऐ. ब्रा. ७। १८) मंत्रों के विविध प्रकार में 'गाथा' मानव से संबंध रखती है, जबकि 'ऋच' देव से संबंध रखता है। अर्थात् गाथा मानवीय होने से और ऋच दैवी होने से परस्पर भिन्न तथा पृथक मंत्र है। इस तथ्य की पुष्टि शुन:शेप आख्यान के लिये प्रयुक्त शतगाथम (सौ गाथाओं में कहा गया) शब्द से पर्याप्तरूपेण होती है, क्योंकि शुन:शेप अजीगर्त ऋषि का पुत्र होने से मानव था जिसकी कथा ऋग्वेद (१। 24; 1। 25 आदि) के अनेक सूक्तों में दी गई है। महावीर तथा गौतम बुद्ध के उपदेशों का निष्कर्ष उपस्थित करनेवाले पद्य गाथा नाम से विख्यात है। विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत भंडार को निरंतर समृद्ध करनेवाली महाकवि सुनीता सिंह ने मानवपुंगव गोस्वामी तुलसीदास पर रचित महाकाव्य का नामकरण ''तुलसी गाथा'' रखकर औपनिषदिक परंपरा को पुनर्जीवित किया है।

हिंदी में महाकाव्य : कल से आज

                            विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अंतर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।

                            हिंदी महाकाव्य परंपरा चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत से उद्गमित है। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक् समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की 'रामचंद्रिका' में पांडित्यजनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत 'साकेत' और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत 'साकेत संत' महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने 'प्रिय प्रवास' और द्वारिका मिश्र ने 'कृष्णायन' की रचना की। 'कामायनी' - जयशंकर प्रसाद, 'वैदेही वनवास' हरिऔध, 'सिद्धार्थ' तथा 'वर्धमान' अनूप शर्मा, 'दैत्यवंश' हरदयाल सिंह, 'हल्दी घाटी' श्याम नारायण पांडेय, 'कुरुक्षेत्र' दिनकर, 'आर्यावर्त' मोहनलाल महतो, 'नूरजहां' गुरभक्त सिंह, 'गाँधी पारायण' अम्बिका प्रसाद दिव्य, 'उत्तर भागवत' तथा 'उत्तर रामायण' डॉ. किशोर काबरा, 'कैकेयी' डॉ. इंदु सक्सेना, 'देवयानी' वासुदेव प्रसाद खरे, 'महीजा' तथा 'रत्नजा' डॉ. सुशीला कपूर, 'महाभारती' डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, 'दधीचि' आचार्य भगवत दुबे, 'वीरांगना दुर्गावती' गोविन्द प्रसाद तिवारी, 'मानव' डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', 'क्षत्राणी दुर्गावती' केशव सिंह दिखित 'विमल', 'कुंवर सिंह' चंद्र शेखर मिश्र, 'वीरवर तात्या टोपे' वीरेंद्र अंशुमाली, 'सृष्टि' डॉ. श्याम गुप्त, 'विरागी अनुरागी' डॉ. रमेश चंद्र खरे, 'राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस' रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध', 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा' कालजयी' दयाराम गुप्त 'पथिक', 'आहुति' बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।

महाकाव्य की प्रासंगिकता

                            समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है। महाकाव्य जीवन जीने के उद्देश्य और विधि बताते हैं। महाकाव्यों के विविध प्रसंग जीवन में घटित हो सकनेवाली घटनाओं का विश्लेषण कर उनपर जयी होने के लिए किए गए आचरण का विश्लेषण कर व्यक्तित्व निर्माण तथा संघर्ष पथ निर्धारण में सहायक होते हैं। महाकाव्य नायक और खलनायक के चरित्र चित्रण द्वारा शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक, वरेण्य-त्याज्य जीवन मूल्यों का विश्लेषण कर समाज को दिशा दिखाते हैं। महाकाव्य हमारे इतिहास और अतीत की संस्कृति के इतिहास हैं। वे हमारी संस्कृति और सभ्यता के विविध चरणों में हुए संघर्ष, जय-पराजय, गतागत से वर्तमान पीढ़ी को परिचित कराकर उन्हें समसामयिक समस्याओं से जूझने का हौसला देते हैं तथा संघर्ष करने की विधि बताते हैं। महाकाव्य परंपराओं का परीक्षण कर, उनकी उपादेयता का परीक्षण करते हैं। संघर्षों और युद्धों के कारणों और परिणामों का विश्लेषण कार वर्तमान समस्याओं को सुलझाने की आधारभूमि देते हैं। महाकाव्य धर्म-आध्यात्म आदि से जुड़े प्रसंगों का विश्लेषण, शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर नई पीढ़ी को राह दिखाते हैं।

महाकाव्य प्रेरणा-स्रोत

                            महाकाव्य में पराक्रम की कहानियाँ होती हैं। वे हमें प्रेरित करते हैं। महाकाव्य हमें बताते हैं कि असंभव कुछ भी नहीं है, बस जरूरत है तो आत्म-विश्वास की। हमें खुद पर भरोसा करने की जरूरत है और फिर हम असंभव कार्यों को संभव कर सकते हैं। महाकाव्य हमें प्रेरणा और आत्म-विश्वास दे सकते हैं। महाकाव्यों से प्रेरणा लेकर हम जीवन में हारी हुई लड़ाइयों को आसानी से जीत सकते हैं। महाकाव्य के कथा प्रसंगों में नायक त्रासदी, घृणा, विश्वासघात, अपयश, उपहास, दुर्भाग्य और शत्रुता का सामना करता है। वही स्थिति हमारे सामने आती है तो उसकी ताकत हमें प्रेरित कर सकती है। हमें ऐसी स्थितियों में अनुसरण करने का मार्ग मिलेगा। उनका जीवन हमें उम्मीद नहीं खोने और हर स्थिति का बुद्धिमानी और निडरता से सामना करने की सीख देता है।

राष्ट्र और विश्व के प्रति कर्तव्य

                            महाकाव्य सीखते हैं कि स्थिति कैसी भी हो राष्ट्र के प्रति कतव्य भाव सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्र हमारी पहली प्राथमिकता हो। एक नागरिक के रूप में, यह हमारा कर्तव्य है कि हम जान देकर भी अपने देश की दुश्मनों से रक्षा करें। सभी नागरिकों और मनुष्यों का समान अधिकार है और किसी को भी इससे वंचित नहीं किया जा सकता। एक नागरिक के रूप में, हमें राष्ट्र के सभी नागरिकों का ध्यान रखना चाहिए। शासक का कोई भी निर्णय स्थानीय जनता के हित के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। महाकाव्य हमें सिखाते हैं कि एक अच्छा शासक वही है जो पहले स्थानीय नागरिकों के बारे में सोचता है। उनके द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम आम लोगों के हित में होना चाहिए और उन्हें किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। यही नहीं महाकाव्य सकल विश्व को एक परिवार दिखाकर हमें प्रकृति, पृथ्वी और सृष्टि के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराता है।

प्रौद्योगिकी की खोज में सहायक

                            महाकाव्यों ने हमारी प्रौद्योगिकी को बहुत अधिक प्रेरित किया है। अधिकांश आविष्कारों का अन्वेषण अथवा परिकल्पना प्राचीन कथाओं में मिलती है। कई महान प्रौद्योगिकियां पुराने युग में अपनी जड़ें जमा कार काल क्रम में विलुप्त चुकी हैं किंतु उनकी चर्चा महाकाव्यों में है, हम उन वर्णनाओं के आधार पर नव अन्वेषण कर खो चुकी तकनीकों को पुन: पा सकते हैं। शिव द्वारा अमरकंटक की झील से नर्मदा तथा मानसरोवर झील से गंगा को प्रवाहित करना, त्रिपुर के तीन उन्नत नरगों को पल भर में नष्ट कार देना, महर्षि अगस्त्य द्वारा उत्तर से दक्षिण जाने के लिए अत्युच्च विंध्याचल पर्वत के अंदर से मार्ग बनाना, समुद्र में छिपे कलके राक्षसों का वध करने के लिए समुद्र को सुखाना आदि परमाणु ऊर्जा के उपयोग बिना असंभव था। त्रेता में राम द्वारा सेतु बंधन, राम-रावण युद्ध में प्रयुक्त दिव्यास्त्रों के उत्पन्न और सैंकड़ों वर्षों के बाद आज तक भारत-लंका के मध्य थोरियम की विशाल मात्रा का होना, उस समय प्रयुक्त शस्त्रास्त्र प्रौद्योगिकी का प्रमाण है। वैज्ञानिक इस तथ्य पर सहमत हैं कि महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध में इस्तेमाल किए गए हथियारों से कई आधुनिक हथियारों, बमों या मिसाइलों का पता लगाया जा सकता है। सबसे विनाशकारी हथियार जो महाभारत में उजागर किया गया ब्रह्मास्त्र है, वह सब कुछ, पूरे जीवन को नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसे परमाणु हथियारों के समकक्ष माना जा सकता है। भगवान विष्णु ने 'विमान' को एक विधा के रूप में इस्तेमाल कियापरिवहन की। यह आधुनिक दुनिया के हवाई जहाजों और हेलीकाप्टरों के अनुरूप है। हाल ही में एक ऐसी मिसाइल का आविष्कार हुआ है जो अपने लक्ष्य के पीछे तब तक दौड़ती है जब तक कि वह उसे ढूंढकर उसे पूरा नहीं कर लेती। इसे भगवान विष्णु और भगवान कृष्ण द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार के बराबर माना जा सकता है, जिसे 'सुदर्शन चक्र' कहा जाता है। महाकाव्यों में वर्णित बातें वैज्ञानिकों के मन को मथ रही हैं और उन्हें वास्तविक जीवन में लाने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

मनोरंजन का स्रोत

                            महाकाव्य, उपन्यास, फिल्म या टीवी श्रृंखला की अपेक्षा मनोरंजन का एक बड़ा और प्रामाणिक स्रोत हैं। उन्हें अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। महाकाव्य अब आसान भाषाओं में ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। अनेक चलचित्र और धारावाहिक इन महाकाव्यों पर आधारित हैं और दर्शकों द्वारा उनकी प्रशंसा की गई है। रामायण और महाभारत पर बने धारावाहिक अपनी मिसाल आप हैं। उन्हें छोटे दर्शकों के लिए भी एनिमेटेड फिल्मों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन महाकाव्यों के आधार पर कई स्टेज शो और नाटकों का आयोजन किया जाता है। यदि आप किसी ऐसी चीज की तलाश कर रहे हैं जो आपका मनोरंजन कर सके, तो महाकाव्य एक अच्छा स्रोत हो सकते हैं। महाकाव्यों में प्यार, कर्तव्य, बलिदान, ड्रामा, सस्पेंस, एक्शन, त्रासदी, स्वार्थ, मोह आदि का भंडार है। महाकाव्य श्रेष्ठ मनोरंजन का कभी न समाप्त होनेवाला स्रोत हैं।

आदर्श एवं प्रेरणा 

                            महाकाव्य में एक उदात्त चरित-नायक होता है। यह नायक और नायिका सामान्यत: अनेक दैवी गुणों से संपन्न होते हैं तथा असाधारण सामर्थ्य का प्रदर्शन कार जीवन के संकटों को जीतकर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ऐसे महामानव पूरे समाज और हर व्यक्ति के लिए आदर्श होते हैं जिनका अनुकरण कर मनुष्य अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकता है। 
 
गोस्वामी तुलसीदास 

                            भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूर्वाञ्चल से गुजरात तक जिन आध्यात्मिक विभूतियों और धार्मिक संतों की लोकप्रियता कालजयी है उनमें गोस्वामी तुलसीदास अग्रगण्य हैं। तुलसीदास जी की जीवन गाथा और उनके द्वारा लिखित महाकाव्य राम चरित मानस दोनों अजर -अमर हैं। मानस केवल भारतीय या हिंदी साहित्य की नहीं अपितु विश्व वांगमय की अनूठी समयजयी कृति है। गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं ने पराभव काल में भारतीय जनमानस की जिजीविषा को मरने नहीं दिया। दीर्घकालिक क्रूर प्रताड़नाओं के बावजूद भारतीय अस्मिता का शीश उठा रहने का कारण तुलसीदास का श्रेष्ठ चरित्र है। जन्म लेते ही माँ का देहावसान, पिता द्वारा त्याग, पोषणकर्त्री का निधन, पत्नी से वियोग, पुत्र का निधन, पंडितों द्वारा निरंतर विरोध, मुगल सम्राट द्वारा प्रलोभन व भय, प्लेग जैसी घातक महामारी से मरणांतक पीड़ा आदि का वीरोचित धैर्य और संतोचित मनोबल से सामना करते हुए अपने उत्थान और जन-कल्याण के लिए अपने पथ पर बिना डिगे चलते हुए, अपने इष्ट के प्रति शिकायत का भाव न मन में लाना तुलसी को तुलसी बनाता है। परम सुंदरी-विदुषी पत्नी के प्रति राग-द्वेष से मुक्त तटस्थ भाव अपनाए रखना और उनका पथ प्रदर्शन करना तुलसी के ही वश की बात है। अपने इष्ट के दर्शन पाकर भी तुलसी के माँ में अहंकार या प्रलोभन नहीं जागता। ऐसे महामानव का महाचरित्र महाकाव्य लेखन के लिए सर्वथा उपयुक्त है। विशेषकर इस काल में जबकि साहित्यकार अपने कर्तव्य पथ पर नहीं चल पा रहे है, पुरस्कारों और सस्ती लोकप्रियता के पीछे भाग रहे हैं, संत आध्यात्मिक साधना भूलकर नारी और कंचन के मोह में लिप्त होकर जनआस्था गँवा चुके हैं, लोक अपने नायकों और शासन-प्रशासन के प्रति अनास्था से ग्रस्त है, हम सब अपनी त्रुटि देखे बिना एक-दूसरे की त्रुटियाँ देख-देखकर देश के सामने विघटन का खतरा उत्पन्न करने में सहायक हो रहे हैं। लोक के आराध्य राम को क्षुद्र राजनैतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है तब तुलसी का चरित्र, तुलसी का संघर्ष, तुलसी की आस्था, तुलसी त्याग, तुलसी की भक्ति का पठन-पाठन लोक को सद्मार्ग पर लाने के लिए अपरिहार्य है। इस काल में महाकाव्य लेखन के लिए तुलसीदास सर्वथा उपयुक्त महानायक हैं। 

महाकवि सुनीता सिंह 

                            किसी महान मनुष्य के चरित्र, कार्यों, संदेश तथा अवदान को सम्यक दृष्टि से देख पाने, विश्लेषित करने, निष्कर्ष निकालने, उसे विविध सर्गों में वर्गीकृत करने, काव्य बद्ध कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। सुनीता गुरु गोरखनाथ की पवित्र भूमि पर जन्म लेने को सौभाग्य पा चुकी है। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक है, तत्पश्चात उन्होंने कराधान से संबंधित विषयों पर शोध कार्य किया है।  हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, नज़्म और ऐतिहासिक कहानियाँ आदि विषयक सुनीता की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे उत्तर प्रदेश में सहायक निर्वाचन अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। सुनीता के अंदर किसी विषय को समझने, विश्लेषण करने, नवाचार की दृष्टि से मूल्यांकन करने और भविष्य की दृष्टि से नव अन्वेषण करने की सामर्थ्य है।  सुनीता न तो श्रद्धाहीन है, न ही अंधश्रद्धा युक्त। यह वैचारिक संतुलन उन्हें महाकाव्य लेखन के लिए सुपात्र बनाता। है संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी जैसे महान व्यक्तित्व के जीवन कार्य और अवदान का सम्यक सर्वोपयोगी तथ्यपरक विश्लेषण करने के साथ-साथ अब तक पर्याय: उपेक्षिता और लोक निंदिता नारी रत्न रत्नावली के दिव्य व्यक्तित्व के अछूते पहलुओं को उद्घाटित कार सुनीता ने महाकवि के रूप में अपनी पात्रता सिद्ध की है।  

                            तुलसी गाथा का श्री गणेश परंपरा अनुसार मंगलाचरण में सरस्वती वंदना (सिंहनी छंद यति १६-१६, पदादि गुरु, पदांत सगण), शिव वंदना (चौपाई गीत, शिव के १२१ नाम), गौरी-गणेश वंदना (दोहा, दोहगीत यति १३-११, पदांत गुरु लघु), श्री राम वंदना (वाचिक नखत छंद २७ मात्रिक, यति बंधन मुक्त, पदांत गुरु) से किया गया है।  ईश वंदना करने का आशय कृति के सृजन-प्रकाशन-पथ में आनेवाली सभी बाधाओं का निवारण कर, रचनाकार को शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करना है कि वह महाकाव्य लेखन के गुरुतर दायित्व का निर्वहन कर सके। 

देश की रज स्वर्ण कर दे, भाल आभा ओज भर दे।
शृंग सा उत्थान कर दे, जोश की अनमिट लहर दे।
नित प्राण करते आचमन हैं, माँ शारदे! तुझको नमन है।।    

हे ललाटाक्ष शिपिविष्ट तमोहर, पुरसाना वागीश मनोहर! 
तुम्हीं सनातन तुम्हीं पुरातन, कर दो सारे शूल विनाशन।।  

दशरथ के सुत राम, त्याग कर महलों के आराम,  
रखेंगे पिता वचन का मान, चले हैं कानन को 
सिया लखन के साथ चले हैं कानन को 

                            महाकाव्य की कथानक की पृष्ठभूमि स्वरूप रचित 'अस्तबोध' शीर्षक प्रथम अध्याय में तुलसी के काल का संदर्भ (बीसा छंद यति २०-२०, पादांत गुरु) है-

कठिन समय की धार दिखाई देती। विधना जैसे कड़ी परीक्षा लेती।।   
जहाँ कभी स्वर्णिम गौरव गाथा थी। शौर्य जहाँ कण-कण की परिभाषा थी।।  
होता रज का तिलक जहाँ माथे पर। रहते थे जन सिर ऊँचा जिसमें कर।।  
आज वहाँ रहती घनघोर निराशा। देख विधर्मी निष्ठुर खोई आशा।।  

                            इस सर्ग का समापन दोहा और किरीट सवैया (८ भगण) से हुआ है और ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि यह जो युगीन विसंगतियाँ हैं, उनका निवारण करें- 

कुछ तो ऐसा कीजिए, हे प्रभु दयानिधान।  
भवसागर की ताड़ना, सहनाहो आसान।। 

देश पड़ी विपदा जब संकट-कष्ट मिटा मन आप बसें जब। 
साज उठे बज जेपी रन दुंदुभि भक्त करे लय-ताल गया कब?
 
                            दूसरे अध्याय 'नंदन सर्ग' में तुलसी-जन्म, माता का निधन, पिता द्वारा त्याग, दासी मुनिया द्वारा तुलसी की प्राण रक्षा, मुनिया का निधन, मुनिया की भिक्षुणी सास द्वारा तुलसी का पोषण, उसका निधन, तुलसी द्वारा हनुमत मढ़िया में शरण, नरहरि गुरु द्वारा आश्रय और शिक्षा का संक्षिप्त वर्णन है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने खंडकाव्य पंचवटी में राम वनवास प्रसंग में लिखा है- 

जितने कष्ट कंटकों में है जिनका जीवन सुमन खिला।  
गौरव गंध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला।।  

                            श्री राम के लिए लिखी गई यह पंक्तियाँ राम के भक्त तुलसी के जीवन पर भी शत प्रतिशत सत्य उतरती हैं। कहते हैं 'सब दिन जात न एक समान' अंततः, तुलसी के बुरे दिन भी बीते, तुलसी को गुरु कृपा प्राप्त हुई और जैसा कबीर कहते हैं- 

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाय।  
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। 

                            अनाथ बालक तुलसी के अंतस में व्याप्त प्रतिभा का अनुमान कर गुरु नरहरि ने उसे अनाथ से सनाथ कर दिया। मेधावी तुलसी ने गुरुकृपा पाकर गुरुसेवा और अध्ययन  प्राण-प्राण से किया। गुरु यज्ञ से अपने ग्राम राजपुर लौटकर तुलसी ने मधुर वाणी से राम कथा सुनाकर ख्याति  और धन अर्जित किया। सर्ग के उत्तरार्ध में सोरोंवासी पं. आत्माराम की सुता रत्नावली के जन्म, शिक्षा, संस्कार, प्रतिभा, सात्विकता, बौद्धिकता, प्रखरता, ख्याति आदि की चर्चा है। विधि का विधान हो तो मणि-कांचन संयोग हो ही जाता है। दूसरे अध्याय का समापन वागीश्वरी छंद (७ यगण + IS) में किया गया है। 

                            'रुचिरा सर्ग' शीर्षक तृतीय अध्याय में ताटंक छंद (यति १६-१४, पदांत मगण) में तुलसी रत्नावली के मिलन, विवाह, प्रगाढ़ अनुराग, रत्ना का अचानक मायके गमन, तुलसी का लुक-छिपकर अर्धरात्रि में रत्ना के कक्ष में प्रवेश, लोकापवाद से भीत रत्ना द्वारा राम-भक्ति का उपदेश, तुलसी द्वारा सन्यास का निश्चय आदि घटनाओं का वर्णन है। तुलसी-रत्ना मिलन की पृष्ठभूमि, दोनों की मनस्थिति, अव्यक्त पारस्परिक अनुराग, मिलन, अत्यधिक प्रेम आदि प्रसंगों में महाकाव्यकार ने मौलिक चिंतन किया है। सर्गांत में दोहा तथा विद्या छंद (यति १४-१४, पदांत यगण)) का प्रयोग किया गया है। लोक ने रत्ना को रूपगर्विता-कटुभाषिणी कहकर निंदा की है किंतु लेखिका ने सहृदयतापूर्वक रत्ना के मनोभावों को व्यक्त करते हुए उसे विदुषी, विनम्र, कर्तव्यपारायण, पति निष्ठ, प्रभु भक्त चित्रित किया है। सामान्य नारी होती तो अपने रूप में आसक्त पति को तृप्त कर कृतार्थ होती किंतु रत्ना पति को सनातन सत्य का दर्शन कराती है- 

हाड़-माँस की बनी देह से प्रेम कर रहे हो जितना।  
प्रभु रामचन्द्र से प्रेम यही, करते होते जो उतना। 
पार सहज भव सागर होता, सता न पाता भय जग का। 
विषय वासना में जगती के, लीन हो गए हो कितना?
मूल स्वरूप विचारो अपना, कुछ जगती का ध्यान करो। 
कल्याण लोक का हो जाए, कुछ अपना उत्थान करो।

                            चतुर्थ अध्याय 'स्नगधरा सर्ग' में तुलसी रत्ना से सन्यास की अनुमति चाहते हैं क्योंकि जीवित पत्नी की अनुमति बिना विवाहित पुरुष सन्यास नहीं ले सकता। तुलसी रत्ना के सामने पहुँचते हैं- 

घर तक पहुँचे गोसवमी जी। अनुमति लेने सन्यासी जी। 
खबर मिली तो भगी आयी। रत्ना चौखट तक आ पायी । 
तुलसी रूप देख स्तब्ध खड़ी । असमंजस या ग्लानि में पड़ी। 
तुरत संयत किया स्वयं को। अब क्या देना स्थान अहं को।
तुलसी पग पर शीष नवाया। आदर से उनको बैठाया।   

                            बहुत प्रयास के बाद जब तुलसी को शब्द नहीं मिल रहे थे कि किस तरह प्राणाधिक प्रिय रही परम सुंदरी पतिनिष्ठ रत्नावली से सन्यास की अनुमति माँगें तब रत्ना ने ही पहल कर अपने ह्रदय पर पत्थर रखते हुए उनका धर्म संकट दूर किया- 

संकोच बिना हे नाथ! कहो। हिय हूक उठे अब चुप न रहो॥ 

                          रत्ना ने बताया कि उसके मन में तुलसी के प्रति कितना अनुराग है, उसका उद्देश्य तुलसी की अवमानना या तुलसी को प्रताड़ित करना नहीं था। तुलसी को उस विषम मौसम में, अर्धरात्रि पर्यंत, उस दुर्दशा में देखकर चिंता की वजह से यह वचन निकले थे-

मुश्किल है तुम बिन जी पाना।  अपराध बोध विष पी जाना॥ 

                         मानव मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। रत्ना भी क्षण भर को विचलित होती है - 

अगर ज्ञात जो होगा मुझको। त्याग दिया जाएगा मुझको॥  
नहीं सत्य-पथ मैं दिखलाती। नहीं त्याग की महिमा गाती॥ 
नहीं भक्ति की अलख जगाती। नहीं मोक्ष की महिमा गाती॥  

                         यह सन्यास प्रसंग महाकाव्यकार की अपनी मौलिक अवधारणा है। यह सर्ग अत्यंत मार्मिक तथा महत्वपूर्ण है। यह रत्नावली की अग्निपरीक्षा की घड़ी है। अपनी गृहस्थी की रक्षा के लिए पति को सन्यास की अनुमति न देकर संसार में रमने के लिए विवश करे या अपने ही वचनों को सत्य प्रमाणित करते हुए पति को सन्यस्त होने देकर आजीवन विरह की व्यथा और संतान के पोषण का गुरुतर दायित्व वहन करे। रत्नावली भली-भाँति जानती थी कि तुलसी के सन्यास ले लेने पर उसे सधवा होते हुए भी विधवा का सा संयम रखना होगा, समाज की प्रतारणा सहनी होगी, शिशु जैसे-जैसे होगा वैसे-वैसे उसके मन में उठते प्रश्नों का और समाज द्वारा बोई जाती शंकाओं का सामना करना होगा तथापि वह पति के मनोरथ को पूर्ण करने में साधक बनने का निर्णय लेकर, बाधक नहीं बनती। वे पुरातन ग्रहस्थ सन्यासियों का उल्लेख कर पति के राम भक्ति पथ पर सहयोगिनी के रूप में सेवा कार पाने का अवसर चाहती हैं- 

नाथ! न लो अब और परीक्षा। शांत हृदय से करो समीक्षा।।
जाप न तप में विघ्न बनूँगी। काँटे पलकों से चुन लूँगी।। 
सहचर बनकर साथ चलूँगी।सारे कंटक धूप सहूँगी।। 
ध्यान करो प्रिय! जितना चाहें। किंतु न मोड़ों अपनी राहें।। 
प्राचीन काल के सन्यासी। गढ़स्थ जीवन के अधिवासी।। 
साथ हमारे रहकर प्रियवर!। चलते जाना भक्ति डगर पर।।

                         तुलसी लोकापवाद के भय से रत्न का प्रस्ताव स्वीकार न कर, अपनी पत्नी के प्रति आभार व्यक्त  करते हुए उनकी किसी एक चाह को पूरा करने का वचन देते हैं-
 
उपकार रहा वो मुझ पर, प्रिय! मान रहा हूँ मैं।।  
मेरे साथ बँधी तुम भी, ये जान रहा हूँ मैं।।  
अगर समय मिल पाया तो, इस पर भी सोचूँगा।। 
एक तुम्हारी किसी चाह को पूरा कार दूँगा।।        

                         इस अध्याय का पूर्व भाग चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में है। उत्तर भाग में महाभागवतजातीय छंद (१४-१२ पर यति) तथा गीतिका छंद (१४-१२, पदांत लघु-गुरु) का उपयोग है। मुछ दोहों के पश्चात सर्गांत में राधा छंद (रतमयग, ८-५) का उपयोग है। 

                         पंचम अध्याय अभिज्ञान सर्ग है जिसमें ३० मात्रिक महातैथिक जातीय कुकुभवत, रुचिरा, ताटंक, कुकुभ, दोहा तथा सोमराजी छंद का उपयोग कर  सन्यासी तुलसी के मन मंथन का शब्दांकन  है। 

                         महत्वपूर्ण संप्लव सर्ग में तुलसीदास के अन्य संतों के साथ मधुर संबंध वर्णित हैं। यह सर्ग लोक श्रुति के अनुसार सूरदास, रसखान , तुलसीदास तथा नाभादासकी भेंट पर केंद्रित है। कवयित्री कालक्रम का ध्यान रखते हुए तथ्य दोष से बचने के प्रति सचेष्ट है। लावणी (१६-१४) छंद का प्रयोग उसे तुकांत बंधन से मुक्त कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। मीराबाई का मार्गदर्शन तुलसी दास द्वारा किया जाना लोक सम्मत है। इस प्रसंगों में इष्ट, पंथ तथा गुरु अलग-अलग होने पर भी संतों में पारस्परिक समादर सनातन धर्म की सहिष्णुता और एकेश्वरवाद के अनुरूप  है। इन प्रसंगों से वर्तमान समाज को प्रेरणा लेकर पारस्परिक टकराव और वैमनस्य भाव का शमन करना चाहिए। अकबर तथा बीरबल से भेंट के समय तुलसी उनसे उम्र में पर्याप्त बड़े रहे होंगे। सत्ता द्वारा संतों को प्रलोभन देकर भ्रष्ट करने के दुष्यप्रयास और तुलसी का श्री राम के प्रति एकांतिक उपास्य भाव अनुकरणीय है। तुलसी द्वारा रामलीला मंचन की परंपरा के श्री गणेश और श्रीकृष्ण दर्शन के समय उनमें श्री राम की छवि का दर्शन करना तुलसी के चरित्र को आदर्श बनाता है।


                         गोस्वामी तुलसीदास के चित्रकूट प्रवास पर केंद्रित है सप्तम प्रमिता सर्ग। श्री राम भक्ति, कवित्व शक्ति का उदय, टोडरमल से मित्रता, रामकथा में शैव-वैष्णवों की समरसता, जनजातियों केवट, निषाद, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जांबवंत आदि से श्री राम का नैकट्य तथा मैत्र भाव आदि नूतन मानवीय सामाजिक आदर्शों का रामकथा में समावेश, हनुमान जी से भेंट, राम-लक्ष्मण के दर्शन आदि महत्वपूर्ण प्रसंग इस अध्याय में वर्णित हैं। महातैथिक जातीय ताटंकवत छंद के साथ दोहा तथा सर्गांत में लवंगलता छंद (अठज ल) का प्रयोग काव्य चारुत्व में वृद्धि करता है। 

सभी कृतियाँ तुलसी कहते प्रभु रामलला सुकुमार सुहावन। 
वही लय ताल गुलाल सजा स्कजहे सब राम लगेन मन भावन।। 
कहाँ तक बूझ सके मन सूझ सके सरिता जल शीतल पावन।
बने रचना कृतियाँ सुलझी उलझी स्वर तान सुखावन सावन।। 
खुली ढलकी गगरी जल की रसकाव्य ललाम सजा हर आँगन।
निहाल हुआ जब काव्य सुना सुन के लगता सुन नाच रहा मन।।   

                         पंचत्व सर्ग में तुलसी की अर्धांगिनी नारीरत्न रत्नावली का महाप्रस्थान वर्णित है। रत्नावली का स्वास्थ्य बिगड़ना, रत्नावली द्वारा  पति का ध्यान कर उनके हाथों अंतिम संस्कार की मनोकामना, तुलसी को अंतर्मन में आभास होना, तत्काल रत्नावली के समीप पहुँचकर सांत्वना देना, अन्त्येष्टि क्रिया करना, राम कथा में कुष्ठ रोगी का वेश रखकर हनुमान जी का आना, तुलसीदास जी की भव मुक्ति आदि प्रसंग लिखते समय महाकाव्यकार ने पारंपरिक तथ्यों के साथ, मौलिक चिंतन का आश्रय लिया है। सर्गांत में सोमराजी छंद (दोय) का प्रयोग हुआ है। 
                         प्रहर्षिणी  सर्ग में तुलसी की विरासत के अंतर्गत रंचरित मानस, रामाज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमंबाहुक, गीतावली, रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, दोहावली, कवितावली, बरवै रामायण, श्रीकृष्ण गीतवली, विनय पत्रिका, सतसई आदि कृतियों पर अपनी काव्य अंजुली चढ़ाकर सुनीता ने काव्य-पूर्वज का तर्पण किया है। किसी महाकाव्य में ऐसा उपक्रम प्रथमत: करने के लिए महाकाव्यकार साधुवाद की पात्र है। भुजंगप्रयात छंद से इस सर्ग का समापन किया गया है। 

                         दसवें तरंगिणी सर्ग में कवयित्री ने तुलसीदास की काव्यगत विशेषताओं का विवेचन महातैथिक जातीय छंद में किया है। तुलसी जैसे युगकवी-महाकवि के काव्य की काव्य-समालोचना कार सुनीता ने नव प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। माया छंद (मतयसग) मे रचित षटपदी से इस सर्ग का समापन हुआ है। 

                         ग्यारहवें मालिनी सर्ग में इस संक्रमण काल में तुलसीदास के रचनात्मक अवदान की प्रासंगिकता का आयाम वर्णित है। इस सर्ग में महातैथिक छंद के साथ २० कुण्डलिया तथा  तुलसी के नीति वचन उपशीर्षक से ४० मुक्तक दिए गए हैं। 

                         कवयित्री सुनीता सिंह ने इस महाकाव्य की रचना करने के पूर्व तुलसी चरित्र, तुलसी साहित्य तथा तुलसी मीमांसा का गहन अध्ययन कर 'तुलसी का रचना संसार' तथा 'तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन' शीर्षक दो कृतियों की रचना की। इसके अतिरिक्त 'भक्ति काल के रंग' काव्य संग्रह में कबीर, तुकाराम, नानक, मीरा के साथ तुलसीदास के काव्य का विवेचन किया है। कालजयी कवि तुलसीदास के व्यक्तित्व-कृतित्व पर सुनीता ने गहन अध्ययन, मनन-चिंतन पश्चात मौलिक दृष्टि से इस महाकाव्य का प्रणयन कर आदर्श-च्युत होते समाज और असहिष्णु होते आम आदमी के पथ प्रदर्शन का गुरुतर दायित्व निभाया है। 'तुलसी गाथा' महाकाव्य का अध्ययन कर तुलसी-साहित्य और तुलसी के अवदान को विविध परिप्रेक्ष्य में बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
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सोमवार, 20 मार्च 2023

अस्तिबोध और संक्रांतिकाल,पुरोवाक,सुनीता सिंह

पुरोवाक् 

                                                         'अस्तिबोध और संक्रांतिकाल" 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

                                                                                *

                                   वर्तमान संक्रांति काल मनुष्य और मनुष्यता दोनों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। ये चुनौतियाँ दैहिक-दैविक और भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक-आत्मिक-तात्विक और नैष्ठिक भी हैं। पञ्च तत्व की देह सप्त स्वरों के संसर्ग से सतरंगे संसार को इतना रमणीय बना लेती है कि स्वयं परमेश्वर को भी अवतार लेकर सर से सराबोर होने में सार्थकता प्रतीत होती है और वह बार-बार धराधाम पर आकर अपने अस्तित्व का बोध अर्थात अस्तिबोध करने के लिए आत्मप्रेरित होता है।  

                                   एक दृष्टि से काल का हर चरण संक्रांति काल होता है क्योंकि वह अतीत की पूर्वपीठिका पर भविष्य के भवन का निर्माण करता है। वर्तमान संक्रांति काल 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात अभूतपूर्व इसलिए है कि यह समस्त पूर्व कालों की तिलाना में अधिक जटिल, अधिक मलिन, अधिक त्वरित मानवीत वृत्तियों से ग्रस्त है। पूर्व में दनुजों, दानवों, असुरों, निशाचरों आदि ने सत-शिव-सुंदर को मिटाने के प्रयास किए किंतु दैवीय और मानवीय शक्तियों ने का सम्मिलन शुभ के विनाश हेतु संकल्पित अशुभ को मिटाने हेतु समर्थ हो सका। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। जलंधर, भस्मासुर, त्रिपुरासुर आदि को परात्पर शिव इसलिए नष्ट कर सके कि वे लोक और सती की अगाध निष्ठा के केंद्र तथा आत्मलीन थे। कनककशिपु के अहंकार के सम्मुख प्रह्लाद की विनयशीलता पराजित नहीं हुई तो केवल इसलिए कि उसकी निष्ठा ध्रुव के संकल्प के तरह अविचलित रही और भक्त के बस में रहनेवाले भगवान को स्तंभ से प्रगट होना पड़ा। शुंभ-निशुंभ के पराक्रमियों सेनापतियों और उनके अपार बल-विक्रम को आदि शक्ति धुलधूल में इसलिए मिटा सकीं कि सकल देवताओं में अपरिमित ऐक्य भाव और देवी के प्रति अटूट निष्ठा थी।   
  
                                   वर्तमान संक्रमण काल विशिष्ट इसलिए है कि शुभत्व उपासक मानव मानवीयता से विमुख होकर दानवीयता की ओर  उन्मुख होता जा रहा है। 'स्व' में लीन होकर सर्व का शुभ करने की नीति को विस्मृत कर वह लोक मांगल्य के आदि देवता शिव और उनकी आदिशक्ति शिवा के शिवत्व से दूर हो गया है। 'कंकर से शंकर' गढ़ सकने की सर्व व्यापकता से सर्वथा दूर होकर संकुचन और विलोपन की कगार पर पहुँचकर असुर विनाशी, विष्णु विनाशक विष्णु की भक्तवत्सलता और शरणागतवत्सलता की रीति को हृदयंगम न कर विष्णुत्व के लिए अस्पर्श्य हो गया है। अमृतत्व की रक्षा करने में असमर्थ होकर मनु-पुत्र सारस्वत साधना में अंतर्निहित अमलता, विमलता और धवलता की त्रिवेणी ही नहीं, शुचिता-साधना और निस्वार्थता की नेह-नर्मदा को प्रदूषित और नष्ट कर प्रजापिता ब्रह्मा के ब्रह्मत्व से हीं हो गया है। फलत:, जन-जीवन के हर अंश और सकल में नकारात्मक ऊर्जाओं (शक्तियों) का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। 

                                   स्वातंत्र्योत्तर काल में धीरे-धीरे 'मानवीय प्रवृत्तियों और आचरण को प्रेरित और नियंत्रित करनेवाले सर्वजन हिताय ,सर्वजन सुखाय' रचे जाने वाले साहित्य की विधाओं से भी ''सत-शिव-सुंदर'' घटते-घटते लगभग ओझल हो गया है। पारंपरिक रचना विधाओं में हास्य-लास्य, लालित्य-चारुत्व, बोध-संदेश, सकारात्मक दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर रचना कर्म किया गया किन्तु इस काल में नवगीत, लघुकथा और व्यंग्य लेख आदि विधाएँ केवल और केवल विसंगतियों, विडंबनाओं और टकरावों को उभाड़कर द्वेष भाव का प्रसार कर रही हैं। फलत:, आत्मानुशासन, बंधुत्व, संयम, सद्भाव, सहकार, सदाचार, आस्था, विश्वास, निष्ठा आदि के लोप होने का खतरा मुँह बाए खड़ा है। विडंबना यह है कि नकारात्मक ऊर्जा प्रधान सृजन ने किशोर युवा ही नहीं बाल मानस तक को प्रदूषित कर दिया है। परिणाम स्वरूप समाज में समाज के सभी वर्गों में हो रहे अपराधों की संख्या और विकरालता में कल्पनातीत वृद्धि हुई है। मनुष्य अपने घर में, अपने निकट संबंधियों में भी खुद को सुरक्षित नहीं पा रहा है। 'विवाह' और 'परिवार' जैसी कालजयी समाजि कसंस्थाएँ खतरे में हैं। मनुष्य- जीवन में लोभ, वासना और असंतोष ने मनुष्य से सुख-चैन छीन लिया है। ऐसे समय में सकारात्मक मूल्यपरक चिंतन अपरिहार्य हो गया है। 

                                  समय की माँग पर युवा साहित्यकार (उच्च प्रशासनिक अधिकारी भी) श्री सुनीता सिंह ने नकारात्मकता के घटाटोप तिमिर को चीरकर उषा की उजास बिखेरने का संकल्प कर ''अस्तिबोध : भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता'' ' शीर्षक कृति की रचना की है। इस अपरिहार्य और मांगलिक कार्य के लिए सुनीता जी साधुवाद की पात्र हैं। तीन भागों (अस्तिबोध : अर्थ और आयाम, भक्ति काव्य में अस्ति  बोध तथा आधुनिक साहित्य में अस्तिबोध) में विभक्त यह कृति त्रिकालिक (विगत, वर्तमान और भावी) साहित्य के मध्य सकारात्मक चिन्तन का सेतु स्थापित करता है। तीन का मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिदेव (विधि-हरि-हर), त्रिकाल (कल-आज-कल), त्रिऋण (देव-पितृ-ऋषि), त्रिअग्नि (पापाग्नि-जठराग्नि-कालाग्नि), त्रिदोष (वात-पित्त-कफ), त्रिलोक (स्वर्ग-धरती-पाताल), त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिताप (दैहिक-दैविक-भौतिक), त्रिऋतु (पावस-शीत-ग्रीष्म), त्रिराम (परशुराम-श्रीराम-बलराम) तथा त्रिमातुल (कंस-शकुनि-माहुल) ही नहीं त्रिपुर, त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिदल, तीज, तिराहा और त्रिभुज भी तीन का महत्व प्रतिपादित करते हैं।  

                                कृति में चौदह अध्याय हैं। इनमें अस्तिबोध की अवधारण, महत्त्व, प्रकृति, विज्ञान, अस्तबोध के साथ संबंध, काव्य में स्थान, भक्ति काल में स्थान, सगुण-निर्गुण भक्ति धरा में स्थान, सामाजिकता, प्रासंगिकता, समाधान, रचनाकार तथा क्रांतिधर्मिता जैसे आवश्यक बिंदुओं की सम्यक विवेचना की गई है। चौदह इंद्र, चौदह मनु, चौदह विद्या और चौदह रत्नों की तरह ये चौदह अध्याय पाठक के ज्ञान चक्षुओं को खोलकर उसे नव चिंतन हेतु प्रवृत्त करते हैं। 

                                अस्ति-बोध अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है। 'अस्ति' का बोध तभी हो सकता है जब 'नास्ति' का बोध हो। 'अस्ति' की अनुभूति ही 'आस्तिकता' की प्रतीति कराती है। जिसे 'अस्ति' का अहसास हो जाता है उसकी हस्ती आम से खास हो जाती है। अस्ति का बोध न हो तो सुर ही असुर हो जाता है, असुर का सुर में रूपांतरण हो सकता है। 'अस्ति बोध' के अभाव में  'उदय' ही 'अस्त' की पटकथा लिख देता है। धर्म और कर्म दोनों का पालन करने में अस्ति-बोध सहायक होता है। राग-विराग, योग-भोग आदि में समन्वय और संतुलन अस्तिबोध से ही संभव है। अस्तिबोध का अभाव 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' के दर पर खड़ा कर देता है। ग़ालिब के अनुसार 'क़र्ज़ की पीते मय अउ' ये समझते की हाँ / रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन'। फाकामस्ती रंग न लेकर बदरंग कर देती है। अस्ति-बोध के आभाव में ज़फ़र लिखता है 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में'। अस्तिबोध होने पर शिव हों या मीरा उनके लिए  गरल भी अमृत बन जाता है।  

                                अस्ति ही 'भक्ति' और 'अनुरक्ति' बनकर आस को विश्वास में रूपांतरित कर देती है, विश्वास ही नीरसता को सरसता में बदल देता है। रस-लीन होकर रस-निधि को पाकर  रस-खान हुआ जा सकता है। अस्ति 'स्व' को 'सर्व' में रूपांतरित कर कंकर में शंकर की प्रतीति कर-करा सकती है। 'अस्ति' ही अहं के वहम से मुक्त  कर भक्ति की और उन्मुख कर देती है। 'भगत के बस में हैं भगवान्' की प्रतीति अस्ति बिना संभव नहीं हो सकती। अस्ति रैदास, कबीर आदि को उच्च वर्णीय जनों का गुरु बना देती है। अस्ति की राह में सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, ऊँच-नीच आदि भेद-भाव स्वत्: ही शून्य हो जाते हैं। 

                                नर के नारायण में रूपांतरण ही नहीं, अस्ति बोध नारायण के नर में अवतरण को भी संभव कर देता है। जड़-चेतन की हर समस्या का समाधान अस्तिबोध से संभव है। अस्ति ही प्रकृति को विकृति होने से बचाकर सुकृति बनने की ओर प्रेरित करती है।  

'अस्ति' राह पर चलते रहिए
तभी रहे अस्तित्व आपका
नहीं 'नास्ति' पथ पर पग रखिए
यह भटकाव कुपंथ शाप का
है विराग शिव समाधिस्थ सम
राग सती हो भस्म यज्ञ में
पहलू सिक्के के उजास तम
पाया-खोया विज्ञ-अज्ञ ने
अस्त उदित हो, उदित अस्त हो
कर्म-अकर्म-विकर्म सनातन
त्रस्त मत करे, नहीं पस्त हो
भिन्न-अभिन्न मरुस्थल-मधुवन

                                अस्ति ही पंच तत्वों की काया को, मोह-माया की छाया से मुक्त कर, माटी को माटी से जुड़े रहने की राह दिखाती है। जड़ से जुड़े बिना जीव संजीव नहीं हो सकता। अस्ति की प्रतीति नीति बनकर रीति का आधार और प्रीति का श्रृंगार हो जाती है। प्रकाश स्तंभ जिस तरह अन्धकार से पथिक को ठोकर खाने से बचाता है, उसे तरह 'अस्तिबोध' जीव के जीवन को सोद्देश्यता प्रदान कर निरर्थक होने से बचाता है। सूर्य, चंद्र हो या जुगनू अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार तम हरकर उजास देने का कार्य यथाशक्ति करते हैं।अस्तिबोध हो तो वे या उनको उच्च-हीन नहीं  कहा जा सकता। अस्तिबोध न तो शोषण करता है, न शोषण होने देता है। इसीलिए अस्तिबोध को आरक्षण भी नहीं चाहिए। अस्तिबोध से कंकर भी शंकर हो है और अस्तिबोध  शंकर को कंकर होने में देर नहीं लगाती। अस्ति का नाद अनहद होकर हर हद को तोड़कर दिग्दिगंत तक है। 

स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
                                ऐसा कोई समय न था, न है और न होगा जब 'अस्ति-दूत' न हों और जब 'अस्ति-शत्रु' न हों। इन दोनों का साथ आत्मा और देह की तरह अविच्छिन्न था, है रहेगा। किसी को पहचानना हो तो मन-प्रतिष्ठा, धन-दौलत, दान-दक्षिणा आदि से नहीं उसको हुआ अस्ति-बोध के आधार पर पहचानिए और उसका मूल्याङ्कन करिए। यह कृति पाठकों को उनका अपना अस्तित्व-बोध करने के पथ पर सहायक होगी। सलिल से अभिषेक करें, पद प्रक्षालन करें अथवा उसका पान करें, लाभ ही होता है किन्तु सलिल धार में अपने कद से अधिक गहराई तक चले जाएँ तो पैर उखड़ने में देर नहीं लगती। इसी तरह अस्ति-बोध को शीश पर, ह्रदय  में,हाथ में अथवा पैरों में हो क्यों न रखें, कलयाण होगा किन्तु उसे अन्य के अस्ति-बोध को नगण्य मानने की भूल न करने दें। 'एस्टी' और 'अस्तित्व' 'अहं' या 'अहंकार' बनने पाए।
                               'अस्तिबोध : भक्ति काव्य की क्रांतिधर्मिता' शीर्षक यह कृति केवल वर्तमान की नहीं अपितु हर देश-काल में मानवीय जिजीविषा और अस्मिता की पहचान और कल्याण के लिए आवश्यक कृति है। वेद, पुराण, उपनिषद आदि तभी रचे जा सकते हैं जब 'अस्तिबोध' हो चुका हो। गीता, बाइबिल, ग्रंथ साहब, सत्यार्थ प्रकाश या कुरआन तभी प्रकाशित हो सकती है जब निमित्त या माध्यम अस्तिबोध संपन्न हो। प्रिय सुनीता जी ने इस सरल-जटिल विषय पर अध्ययन-विमर्श, पठन-पाठन, मनन-चिंतन कर, नीर- परिचय देते हुए, यह कृति प्रस्तुत की है। सुनीता जी के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य संकेतों और सुझावों को सकारात्मक ऊर्जा के साथ ग्रहण करना, एकाग्रचित्त होकर खोज व अध्ययान करना, स्वतंत्र मौलिक चिंतन-मनन कर, विचारों को व्यवस्थित रूप से सम्यक शब्द चयन कर सहज भाषा में प्रस्तुत कर पाठकीय प्रतिक्रिया को समुचित विनम्रता सहित ग्रहण करना है। सुनीता जी अपनी अध्ययन -क्षमता, कार्य-गरिमा और सृजन-श्रेष्ठता की ऐसी त्रिवेणी है जो निकट आनेवाले को मंदिर से उठती मंत्रोच्चार की ध्वनि की लय की तरह अस्तिमयता की प्रतीति करती हैं।

                               वर्तमान संक्रमण काल में अस्ति परक भावधारा की सर्वाधिक आवश्यकता है। महाभारत पश्चात् मूल्यों के संक्रमण काल में 'आस्तीक' ने अशुभ की भावधारा को अवरुद्ध कर शुभत्व की स्थापना की थी। भारत की मूल नाग संस्कृति के प्रदूषित होने पर उसे श्री राम, श्रीकृष्णादि द्वारा दंडित किया गया। खांडव वन में अर्जुन ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर नागों को निकला भागने का अवसर दिए बिना उनका सर्वनाश कर दिया। तक्षक उस समय खांडव वन से बाहर गया था, सो बच गया। कृष्णार्जुन से बदला लेने के लिए उसने कुरुक्षेत्र में कर्ण की अमोघ शक्ति घटोत्कच पर चल जाने के बाद, कर्ण से अनुरोध किया कि उसे बाण के फल पर स्थान देकर कर्ण शर चलाए तो वह अर्जुन का नाश कर देगा। कर्ण न माना और कृष्णार्जुन द्वारा मारा गया। बाद में एक वनवासी ने शर प्रहार कर कृष्ण का देहांत किया। कृष्ण के निर्देशानुसार यादव कुल की स्त्रियों को गोकुल ले जाते समय वनवासियों ने आक्रमण कर अर्जुन को बंदी बनाकर यादव कुल की समस्त स्त्रियों को छीन के अपनी पत्नियाँ बना लिया। तक्षक ने पांडवों के वंशज परीक्षित को डँसकर अपना बदला पूरा किया तो परीक्षित-पुत्र जन्मेजय ने सर्प यज्ञ कर नागों का विनाश करना आरंभ कर दिया। 'नास्ति' की नकारात्मकता से सर्वनाश की आशंका हुई तो शंकारि  शंकर के नाती (जरत्कारु-मनसा के पुत्र ) आस्तीक 'अस्ति' की धर्म ध्वजा थामे  उपस्थित हो गए और नास्ति को नकारते हुए 'स्वस्ति' मय वातावरण की सृष्टि की। श्रावण शुक्ल पंचमी को आस्तीक ने नाग यज्ञ से उपजे कलुष की कालिमा को श्वेत गोरस से शांत किया था। इसलिए तब से श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाकर विषधर के जहरीलापन का दूध अर्पित कर शमन किया जाता है। 'नास्ति' (निगेटिव एनर्जी) पर 'स्वस्ति' (पॉजिटिव एनर्जी) की विजय का ऐसा पर्व अन्यत्र कहीं, किसी सभ्यता में किसी समय नहीं मनाया गया।                                

सॉनेट
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
• 
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।

                               'अस्तिबोध - भक्तिकाव्य की क्रांतिधर्मिता' इस घोर कलिकाल में आस्तीक द्वारा लाई गयी स्वस्ति भावना की पुनरावृत्ति का अनूठा प्रयास है। जीव को संजीव बनाने का यह सात्विक सारस्वत अनुष्ठान और उसकी 'होता' सुनीता जी तो साधुवाद की पात्र हैं ही, वे पाठकगण जो इस 'अस्तियज्ञ' में समिधा अर्पित करेंगे, वे भी 'स्वस्ति' के सारस्वत वाहक बनेंगे। नागों के नाती कायस्थों का वंशज मैं इस 'अस्तियज्ञ' और 'स्वस्ति स्थापन' का पौरोहित्य कर धन्य हूँ। 
***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

गीत, सुरेंद्र पवार, पुरोवाक, सॉनेट, काली, छंद पुनीत

सॉनेट
काली
कल क्यों?, काल आज ला काली
अत्याचारी का विनाश कर
करा पाप से दुनिया खाली
सत्ता-सुख का भवन ताश कर

कलकत्ते की मातु कराली
घर घर आ नैवेद्य ग्रहण कर
हाथों में ले थाम भुजाली
शस्य श्यामला वसुंधरा कर

खप्पर कभी न हो माँ खाली
आतंकी का लहू पान कर
फूल-फलों लद झूमे डाली
सुजला सुफला सलिला हो हर

सींचो बगिया बनकर माली
सदय रहो हे मैया काली
३-१०-२०२२
•••
प्रार्थना

कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।

बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।

सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।

तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
***
छंदशाला ३०
पुनीत छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल व उज्जवला छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SSI ।

लक्षण छंद-
तिथि पुनीत पंद्रहवी खूब।
चाँद-चाँदनी सोहें खूब।।
गुरु गुरु लघु पद का हो अंत।
सरस सरल हो तो ही तंत।।

उदाहरण-
राजा नहीं, प्रजा का राज।
करता तंत्र लोक का काज।।

भूल न मालिक सच्चा- लोक।
सेवक है नहिं नेता- शोक।।

अफसर शोषण करता देख।
न्यायालय नहिं खींचे रेख।।

व्यापारी करता है लूट।
पत्रकारगण डाले फूट।।

सत्ता नहीं घटाती भाव।
जनता सहे घाव पर घाव।।
२-१०-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा :
खुद को 'परख' : साहित्य चख
*
भारतीय सृजन परंपरा सबका हित समाहित होने को साहित्य की कसौटी मानती है। 'सत्यं शिवं सुंदरं' के आदर्श को शब्द के माध्यम से समाज तक पहुँचाना ही साहित्य सृजन का ध्येय रहा है। साहित्य के भाव पक्ष का विवेचन कर उसमें अन्तर्निहित भव्य भावों की दिव्यता का दर्शन कर पाठकों-श्रोताओं को उनसे अवगत कराना समालोचना का उद्देश्य रहा है। साहित्य में लोकोत्तर आनंद का अन्वेषण कर साधक-बाधक तत्वों का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, सामान्य सिद्धांतों का निर्धारण ही समालोचना शास्त्र है। कालांतर में ऐसे सिद्धांत ही किसी रचना के मूल्यांकन हेतु आधार का कार्य करते हैं। ये सिद्धांत देश-काल-परिस्थिति अनुरूप परिवर्तित होते हैं। कालिदास के अनुसार न तो सब पुराण श्रेष्ठ है, न सब नया हेय। श्रेष्ठ जन गुणावगुण के अधरा पर निर्णय करते हैं -
"पुराण मित्येव न साधु सर्वं, न छापी काव्यं नवमित्यवजर्न।
संत: परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते, मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।। - (मालविकाग्निमित्र १-६)
एक बार प्लेटो ने कहा "आयम नो राइटर ऑफ़ हिस्ट्री."
डायोजनीज ने उत्तर दिया- "एव्री ग्रेट राइटर इस राइटर ऑफ़ हिस्ट्री, लेट हिम ट्रीट ऑन ऑलमोस्ट व्हाट सब्जेक्ट ही मे. ही कैरीज विथ हिम फॉर थाउसेंड ऑफ़ इयर्स ए पोरशन ऑफ़ हिज टाइम्स."
कवीन्द्र रवींद्र के शब्दों में "विश्व मानव का विराट जीवन साहित्य द्वारा आत्म-प्रकाश करता आया है।" वस्तुत: साहित्य की सीमा लिखने, पढ़ने और पढ़ने तक सीमित नहीं है, वह मनुष्य के शाश्वत जीवन में आनंद और अमृत का कोष है।
भारतीय वांग्मय में, निबंध अति प्राचीन अभिधान है। वर्तमान में हम जिसे निबंध कहते हैं, वह अपनी भावात्मक व वैचारिक यात्रा में साहित्य की चिर नवीन और सशक्त विधा के रूप में भारतेन्दु काल से अद्यतन स्वीकृत और विकसित होता रहा है। वर्तमान गद्य युग में, नीर-क्षीर विवेक का, समीक्षा-समालोचना का, तर्क-वितर्क (कभी-कभी कुतर्क भी) का और और वैश्विक आदान-प्रदान की हर अनुभूति निबंध में समाहित हो रही है। निबंध गंभीर गद्य साहित्य के अंतर्गत कथानक निरपेक्ष श्रव्य विधा के विशिष्ट रूप में पहचाना जा रहा है। वर्तमान निबंध प्राणवान, गतिशील, सशक्त, साहित्यिक, रसात्मक अभिव्यक्ति से संयुक्त विश्वजनीन वैचारिक परिदृश्य से संपुष्ट विधा के रूप में पाठकार्षण का केंद्र है। आचार्य त्रयी (रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी), लाला भगवान दीन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैनेन्द्र, महादेवी, डॉ, नगेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, गुलाबराय, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ, विवेकी राय, डॉ.जगदीश गुप्त, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, आदि ने विविध विधान में निबंध लेखन कर उसे समृद्ध किया है।
हिंदी को विरासत में "गद्यं कवीनां निकषं वदंति" का मानक मिला है। समीक्षा दृष्टि से निबंध लेखन कलात्मकता और वैज्ञानिकता के साँचे में साहित्यिकता को ढालकर शब्द-सामर्थ्य से अभिषिक्त करने का सारस्वत अनुष्ठान है। समीक्षा में विषय की विवेचना कर आख्यान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिभा, अध्ययन और मनन की पूँजी आवश्यक है। वर्तमान में प्राच्य समीक्षा से संपर्क सहज होने के कारण बिम्ब-विधान, प्रतीक, कल्पना, रस, अलंकार, भाषिक वैशिष्ट्य, अभिव्यक्तात्मक गुण-दोष, लक्षण, व्यंजना आदि को ही आधार मानकर समीक्षा-कर्म की इतिश्री नहीं मानी जा सकती। समीक्षा कर्म हेतु सिद्धांत, नियम और आदर्श की कसौटियों को लेकर पश्चिम में भी कलावादियों और भाववादियों में मतभेद है। समीक्षक का कार्य पाठक को गुण-दोष विषयक मान्यताओं से अवगत करना है, निर्णय देना नहीं। पाठकीय अभिरुचि के परिष्करण, बोधशक्ति और रसास्वादन वृद्धि तक ही समीक्षक का दायित्व है। कला, भाव, कथ्य, भाषा और प्रासंगिकता के पंचतत्वों पर चिंतन हेतु समीक्षक की दृष्टि का पूर्वाग्रहमुक्त होना अपरिहार्य है।
समालोचना के ४ प्रधान मार्ग १. सैद्धान्तिक आलोचना, २. निर्णयात्मक आलोचना, ३. प्रभावाभिव्यजंक आलोचना तथा ४. व्याख्यात्मक आलोचना हैं। सैद्धांतिक समालोचना किसी सिद्धांत को केंद्र में रखकर की जाती है। निर्णयात्मक समीक्षा में रचना के गुण-दोषों का आकलन कर स्थान निर्धारण किया जाता है। प्रभावाभिव्यजंक समीक्षा में रचना से व्युत्पन्न प्रभावों को प्रमुखता दे जाती है। व्याख्यात्मक समीक्षा में रचना के विविध अंगों की विशेषताओं को उद्घाटित करती है। समालोचना के कुछ अन्य प्रकार भी हैं। ऐतिहासिक समीक्षा में सामाजिक, राजनैतिक, अभियांत्रिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विविध परिप्रेक्ष्यों में कृति का मूल्यांकन और अन्य कृतियों से तुलना की जाती है। मनोवैज्ञानिक समीक्षा, दर्शन शास्त्रीय समीक्षा, विज्ञानपरक समीक्षा, अर्थ शास्त्रीय समीक्षा आदि विषय विशेष के अंगोपांगों, मूल्यों, विधानों आदि के अनुरूप होती हैं। निर्णायात्मक समीक्षा अब कालातीत हो गयी है। "द रैंकिंग ऑफ़ राइटर्स इन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट हैस बिकम ओब्सोलीट" - द न्यू क्रिटिसिज़्म, जे. ई. स्प्रिंगन
आधुनिक हिंदी में समीक्षा लेखन का सूत्रपात १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय से हुआ।'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बनी क्रिया 'लोच' से निर्गत है। 'लोच' का अर्थ है 'देखना'। 'लोच' का अर्थ देखना, प्रकाशित करना है। 'लोच' से ही 'लोचन' शब्द बना है। 'लोचन' में 'आ' प्रत्यय लगने पर 'आलोचन' फिर आलोचना बना।' आलोचना में 'सम' प्रत्यय जुड़कर 'समालोचना' बन। व्यवहार में समीक्षा, आलोचना, समालोचना (अंग्रेजी 'क्रिटिसिज्म') समानार्थी हैं।शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है।संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है - "यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"
अर्थात् आलोचना से आशय साहित्यक कृति की विश्लेषणपरक व्याख्या से है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।
लाला भगवान दीन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकमंगलपरक रसाश्रित आलोचना, शास्त्रानुमोदित सामाजिक सामयिकता और सटीक भाषिक अभिव्यक्ति से हिंदी समीक्षा भवन की नींव सुदृढ़ हुई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक गर्वानुभूति की चाशनी और पाण्डुलिपीय शोधपरक व्यावहारिक आदर्श को ध्रुव तारे की तरह समीक्षा जगत में स्थापित किया। डॉ. नगेंद्र की रसग्राही दृष्टि आचार्य नंददुलारे बाजपेई के राष्ट्रीय गौरव के साथ सम्मिश्रित होकर महादेवी की रहस्यात्मकता की ओर उन्मुख हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा ने समीक्षा का साम्यवादी यथार्थवाद और अस्तित्ववाद से परिचय कराया। हिंदी साहित्य के विशिष्ट, अभिजात्य, मौलिक हस्ताक्षर रहे अज्ञेय के अनुसार "यह सब अनुभव अद्वितीय, जो मैंने किया, सब तुम्हें दिया।" - आत्मने पद। वे साहित्य सृजन को 'व्यक्ति' विलयन का माध्यम मानते थे। ऋषिगण अपने 'अहं' को विलीन कर सृजन करते थे, अज्ञेय इस ऋषि बोध के कायल थे। उनके अनुसार - "लेखकों को नहीं, समालोचकों को शिक्षित बनने के प्रयत्न करना चाहिए। लेखक बंधन से परे है और रहेगा.... लेखक बंध सकता है पर रचना-शक्ति को नहीं बाँध सकता, बंधने से वह मर जाएगी।" अज्ञेय ने आलोचना और रचना प्रक्रिया को एक कर दिया। उन्होंने व्याख्यात्मक सैद्धांतिक आलोचना पर कम ध्यान दिया। अज्ञेय ने काव्य की आत्मा को शैली (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य, रस आदि) में न मानकर, मानव को केंद्र में रखा। रचनाकार और आलोचक का विभाजन पश्चिम में भी रहा। आलोचना की पहचान उसका शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, समाजपरक, ऐतिहासिक या सौंदर्यवादी होना है। व्यक्तिपरक, अध्यापकीय, भाषिक लालित्य को ध्येय मानने से आलोचना की शक्ति क्षीण होना स्वाभाविक है। आलोचना को तार्किक, संदर्भयुक्त, मूल्य-पोषित होना होगा। मूल्याश्रित आलोचना वस्तुनिष्ठता और तात्कालिकतापरक हो यह स्वाभाविक है। अज्ञेय के अनुसार "भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें। वही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" - (स्रोत और सेतु, पृष्ठ ९९) वे कहते हैं - "क्या किसी साहित्यकार को समझना, उसकी समीक्षा करना, साहित्य के विकास में उसका स्थान और महत्व निश्चित करना, रचना का मूल्य आँकना, क्या केवल उसी को देखकर संभव है? क्या उसकी तथाकथित विशेषता, भिन्नता को देखने के लिए हम उन्हें पूर्ववर्तियों के बीच रख- तुलना कर, पूर्ववर्तियों साहित्यकारों और कवियों के साथ संबंध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?"
मुक्तिबोध के अनुसार समीक्षा का अनिवार्य गुण जीवन, विवेक व उसकी मर्मज्ञता है। उनके अनुसार "वस्तुत: समीक्षात्मक कला में समीक्षा जीवनगत तथ्यों की हुआ करती है।"-नए साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, पृ. ९९। शारदा प्रसाद सक्सेना, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने मुक्तिबोध के चिंतन को 'मार्क्सवादी पूर्वाग्रह' कहा किन्तु डॉ. नामवर सिंह ने इसे 'प्रस्थान भेद और मूल्य केंद्रित दृष्टि' माना। मुक्तिबोध के अनुसार रचनाकार को "तत्व, अभिव्यक्ति और दृष्टिविकास, तीनों क्षेत्रों में रचनाप्रक्रिया को निरंतर उन्नत करना चाहिए। 'नयी कविता का दायित्व' में मुक्तिबोध मानव मुक्ति के संघर्ष को रचनाकार का सबसे बड़ा दायित्व कहते हैं। उनके अनुसार "रचनाकार की दायित्व चेतना मूलत: सामाजिक दृष्टि का प्रतिफल होती है जिसका सहकार उसकी सौंदर्य प्रतीति में अनिवार्य रूप से रहता है।" मुक्तिबोध 'नवीन समीक्षा का आधार' में जीवन संघर्ष के धरातल पर लेखक और समीक्षक में होड़ देखते हैं। " नि:संगता से सृजन नहीं उपजता" - काव्य की रचना प्रक्रिया। उनके अनुसार आलोचक के कर्तव्य और दायित्व बड़े हैं। उसे अहंकार शून्य होना चाहिए। - एक साहित्यकार की डायरी। "समीक्षा को मानवीय यथार्थ से जोड़े बिना कोई मूल्य नहीं दिया जा सकता।" -नयी कविता का आत्म संघर्ष, पृष्ठ १५८। मुक्तिबोध के अनुसार आलोचक का कार्य कलाकृति के भीतर के तत्वों को हृदयंगम कर तत्वों की समुचित व्याख्या करना है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता और लेखन अभियंता सुरेंद्र सिंह पवार की कृति 'परख' चयनित पुस्तकों पर समीक्षात्मक निबंधों का संकलन है। इस विधा पर हिंदी में अपेक्षाकृत कम कार्य हुआ है। यह कार्य समय, धन, बुद्धि और श्रम साध्य है।संकलन में विविध विधाओं, विविध विषयों, विविध आयुवर्ग और पृष्ठभूमि के रचनाकारों का होना इसका वैशिष्ट्य है। स्वाभाविक है कि हर कृति के साथ न्याय करने के लिए हर निबंध की विषयवस्तु, लेखन आधार, मानक और वर्णन शैली भिन्न रखना होगी। अन्तर्निहित ३२ निबंधों में से १८ पद्य कृतियों पर और १४ गद्य कृतियों पर हैं। पद्य कृतियों में २ दोहा संकलन (दोहा-दोहा नर्मदा - संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - डॉ. साधना वर्मा, बुंदेली दोहे - आचार्य भगवत दुबे), ४ खंड काव्य (जयद्रथ मरण - देवराज गोंटिया 'देवराज', महारानी मंदोदरी - प्रतिमा अखिलेश, कालजयी - अमरनाथ, प्राणमय पाषाण - गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ), २ काव्यानुवाद (धाविका - भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', श्री गीता मानस - उदयभानु तिवारी 'मधुकर'), ३ कविता संग्रह (फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक - बद्रीनारायण सिंह पहाड़ी, प्रेमांजलि - विष्णु प्रसाद पांडेय, खुशियों के रंग - मदन मोहन उपाध्याय,), ३ गीत संग्रह (पंख फिर भीगे सपन के - कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', जंगल राग - अशोक शाह, काल है संक्रांति का - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'), २ ग़ज़ल संग्रह (इन दिनों - कृष्ण कुमार राही, सरगोशियाँ - इंदिरा शबनम ), एक मुक्तक संग्रह (कुछ छाया कुछ धूप - चन्द्रसेन 'विराट') तथा एक महाकाव्य (रानी थी दुर्गावती - केशव सिंह दिखित) हैं। गद्य कृतियों में ३ उपन्यास (नींद क्यों रात भर नहीं आती - सूर्यनाथ सिंह, विक्रमादित्य कथा - प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, कितने पाकिस्तान - कमलेश्वर), ५ कहानी संग्रह (सही के हीरो - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, अपना अपना सच - संतोष परिहार, दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे, अष्टदल - डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', सरेराह - डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव), पर्यटन (नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा - भारती ठाकुर), इतिहास (मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार - शंकर सिंह 'राजन'), निबंध संग्रह (काल क्रीडति - डॉ.श्याम सुंदर दुबे), बाल कहानी संग्रह (अनमोल कहानियाँ - श्रीमती गुलाब दुबे), आत्मकथा (जब मेरी वादी हरी भरी थी - डॉ. कंवर के. कौल), लघुकथा (अंदर एक समंदर - सुरेश 'तन्मय' ) सम्मिलित हैं।
रचनाकारों में ६ अभियंता (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', देवराज गोंटिया 'देवराज', अमरनाथ, गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर', उदय भानु तिवारी 'मधुकर', चन्द्रसेन विराट), २ चिकित्सक (डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल), २ उच्च प्रशासनिक अधिकारी (मदन मोहन उपाध्याय, अशोक शाह), ४ शिक्षा शास्त्री (भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, डॉ.श्याम सुंदर दुबे), प्राध्यापक (डॉ. साधना वर्मा), चिकित्सा कर्मी (आचार्य भगवत दुबे), ३ शिक्षक (विष्णु प्रसाद पांडेय, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', केशव सिंह दिखित, ), शासकीय अधिकारी (सुरेश 'तन्मय'), पत्रकार (कमलेश्वर), गृहस्वामिनी (डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव) हैं। इनमें केवल ६ महिलाएँ (डॉ. साधना वर्मा, प्रतिमा अखिलेश, इंदिरा शबनम, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, भारती ठाकुर, श्रीमती गुलाब दुबे) हैं, शेष २६ पुरुष हैं। लगभग सभी रचनाकार उच्च शिक्षित हैं, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव डी.लिट्, डॉ. साधना वर्मा पीएच. डी. तथा डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल चिकित्सा क्षेत्र में शोधोपाधियाँ प्राप्त हैं। इससे उच्च शिक्षित वर्ग में साहित्य सृजन की बढ़ती रूचि का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। अब कबीर, रैदास आदि की तरह शिक्षा अवसर रहित किन्तु उच्चतम समझ से संपन्न रचनाकार अपवाद ही हैं। इसका प्रभाव रचनाओं में भाषिक शुद्धता, प्रांजल अभिव्यक्ति, विषय और कथ्य के प्रति स्पष्ट समझ तथा विचारों के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसमें स्वाभाविकता पर कृत्रिमता के हावी होने का खतरा भी है। कथ्य पर शिल्प हावी हो सकता है जिसका दुष्परिणाम संवेदनाओं का पाठक / श्रोता तक संवेदनाएँ न पहुँचने के कारण जुड़ न पाने के रूप में होने के रूप में हो सकता है। सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं है और इसीलिये ये कृतियाँ समीक्षक की चयन सूची में आ सकी हैं।
कृतिकार सुरेंद्र जी अभियंता हैं, गुणवत्ता के प्रति सजग रहना उनका स्वभाव है। कृति चयन, पठन और उन पर समीक्षात्मक निबंध लेखन का कार्य रज्जु पर नर्तन की तरह दुष्कर कृत्य है। एक ओर अपनों के नाराज होने की संभावना, दूसरी ओर कृति और कथ्य के साथ न्याय न हो पाने का खतरा, तीसरी और समीक्षा के मानकों का पालन न होने से आलोचना का भय। इन सबके मध्य कृतियाँ विविध विषयों और विधाओं की हों जिनमें कुछ के परिक्षण के मानक ही अस्पष्ट हों तो समीक्षक का कार्य अधिक कठिन हो जाता है। संतोष है की सुरेंद्र जी धुआँधार जलप्रपात से व्युत्पन्न भँवर युक्र नर्मदा सलिल धार की तरह जटिल समीक्षा नद को कुशल तैराक की तरह पार कर सके हैं। इसमें सबसे बड़ी सहायक उनकी तर्क-शक्ति, ग्राह्य सामर्थ्य और निष्पक्षता हुई है। वे संबंधों के शोणभद्र को नैकट्य की जोहिला पर मुग्ध नहीं होने देते और निश्छल नर्मदा की तरह सत्य-शिव-सुंदर को सराहते हुए नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हुए, खूबियों को सराहते, खामियों को इंगित कर समीक्षक धर्म का पालन कर सके हैं।
दोहा संकलन
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग १ 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा की समीक्षा करते हुए वे लगभग १७०० दोहों में से कुछ दोहों को उद्धृत करने के साथ किसी छंद पर अब तक हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्य की हिंदी साहित्य के हिमालय 'तार सप्तक' के साथ जोड़ने में संकोच नहीं करते। प्रत्येक दोहाकार के गुण-दोष संकेतन के साथ एक-एक दोहा उद्धृत कर संतुलित-निष्पक्ष समीक्षा सुरेंद्र जी ने की है।
बुंदेली दोहे में सदाबहार छंद दोहा और सरस बुंदेली का सम्मिलन रसधार की तरह प्रवाहित हो, यह स्वाभाविक है। समीक्षक ने कृति में प्रयुक्त बुंदेली शब्द-संपदा के महत्व को रेखांकित किया है। वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे की यह कृति बुंदेली साहित्य का रत्न है।
खंड काव्य
जयद्रथ मरन अभियंता कवि देवराज गोंटिया 'देवराज' लिखित महत्वपूर्ण बुंदेली खंड काव्य है। इसी प्रसंग पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'जयद्रथ वध' खंड काव्य की रचना हरगीतिका छंद ( ४ x ११२१२) में की है। देवराज ने आल्हा छंद (१६-१५ पर यति, विषम पदांत गुरु, सम पदांत लघु) का प्रयोग किया है। सुरेंद्र जी ने बुंदेलखंड में वाचिक छंद परंपरा, अलंकारों, रसों आदि का उल्लेख करते हुए कृति का सम्यक विवेचन किया है।
प्रतिमा अखिलेश की औपन्यासिक कृति महारानी मंदोदरी पर विमर्श में पंचकन्याओं में परिगणित मंदोदरी द्वारा धर्म या परंपरा के नाम पर वैयक्तिक महत्ता के स्थान पर कर्तव्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने की स्वागतेय वृत्ति को इंगित किया गया है।
लखनऊ के वरिष्ठ कवि अभियंता अमरनाथ द्वारा रचित खंड काव्य कालजयी की समीक्षा में कारण की मनोग्रंथियों, आदर्शों तथा कवि द्वारा प्रयुक्त अभियांत्रिकीय उपमानों झरता - दीवार, घुनता - लकड़ी, रिसता - छत, दीमक - काया, पानी - आँखें आदि की प्रस्तुति परख की सजगता की परिचायक है।
प्राणमय पाषाण खंड काव्य अभियंता कवि गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' की काव्य कृति है। यह मदन महल की शिलाओं से सद्गुरु कृपालु जी महाराज के संवाद की भावभूमि पर आधृत है। समीक्षक ने कवि के कथ्य के साथ न्याय करने के प्रयास करते हुए भी काल क्रम दोष को उचित ही इंगित किया है।
काव्यानुवाद
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बुंदेलखंड के वरिष्ठ शिक्षा विद रहे हैं। उनहोंने सत्य साईं बाबा की शिक्षा संस्था में अध्यापन के समय बाबा का नैकट्य पाया और अंत में बापू की कम भूमि अहमदाबाद में सारस्वत साधना की। आंग्ल कवि विलियम मॉरिस के महाकाव्य 'अर्थली पैरेडाइज' के १२ वे सर्ग 'एटलांटाज रेस' को खंड काव्य के रूप में धाविका शीर्षक से रचकर नियाज़ जी ने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। समीक्षक ने कथानक, प्रकृति चित्रण, चरित्र चित्रण, कला पक्ष आदि अनुच्छेदों में कृति का सम्यक विवेचन किया है।
श्री गीता मानस में उदयभानु तिवारी 'मधुकर' ने गीता के कथ्य को मानस के शिल्प में ढाला है। से मूल ग्रंथ की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए भाषा और भाव की दृष्टि से अद्वितीय काव्यानुवाद ठीक ही कहा गया है।
कविता संग्रह
फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक काव्य संग्रह में बद्रीनारायण सिंह 'पहाड़ी' द्वारा प्रयुक्त आम भाषा की पैरवी करता रचनाकार मानव मूल्यों के ह्रास से चिंतित है।सुरेंद्र कवि द्वारा पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन के प्रति चिंता को उकेरते ही नहीं उभरते भी हैं।
शिक्षक कवि विष्णु प्रसाद पांडेय प्रणीत काव्य कृति प्रेमांजलि प्रकृति को आध्यत्मिक दृष्टिकोण से निहारते हुए उत्पन्न भावों से समृद्ध है। समीक्षक ने 'काम' और 'राम' दोनों को पहचाना है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कवि मदन मोहन उपाध्याय के काव्य संग्रह 'खुशियों के रंग' की १२९ कविताओं में अंतर्निहित अनीश्वरवाद, विषय वैविध्य और हुलास की तलाश समालोचक की दृष्टि से नहीं बचते। कवि ने कथ्य और समीक्षक ने रचनाओं के विवेचन में नीर-क्षीर दृष्टी का परिचय दिया है।
गीत संग्रह
पंख फिर भीगे सपन के संस्कारधानी जबलपुर के सरस्-समर्थ गीतकार कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' के रचनाकर्म की बानगी है। समीक्षक इन गीतों में रजऊ और मीरा की दीवानगी, अनुरागी तन-बैरागी मन देख सका है।
गीत संग्रह 'जंगल राग' के रचयिता अशोक शाह उच्चतम तकनीकी शिक्षा प्राप्त प्रशासकीय अधिकारी हैं। उनका गहन अध्ययन और सुदीर्घ प्रशासनिक अनुभव उनकी अनुभूतियों को सामान्य से इतर अभिव्यक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बनाये, यह स्वाभाविक है। ऐसे रचनाकर को पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। सुरेंद्र जी ने कृति में प्रयुक्त प्राचीन मिथकों, वनवासियों की वाचिक परंपराओं आदि से संपन्न जंगल राग को जीवन राग से ठीक ही जोड़ा है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' अभियंता रचनाकारों द्वारा नई लीक गढ़ने का अन्यतम उदाहरण है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की इस कृति को समीक्षक सुरेंद्र जी ने 'गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीत रूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान' करता पाया है। वे इन गीतों के केंद्र में आम आदमी को देख पाते हैं जो श्रम जीवी है और जिसे हर दिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। उनके अनुसार इन नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और संपन्न रूप में मौजूद है। इन नवगीतों में अन्तर्निहित कसावट, संक्षिप्तता, नूतन बिम्ब, अभिनव प्रतीक और छांदस प्रयोग मिथकों, मुहावरों आदि आदि को भी समीक्षक की सूक्ष्म दृष्टि देख-परख लेती है।
ग़ज़ल संग्रह
हिंदी गीति काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता चंद्रसेन विराट रचित हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह इस सदी का आदमी की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए 'बहरों का दरबार जोर से बोल यहाँ / मिमिया मत, हुंकार जोर से बोल यहाँ' का उल्लेख समालोचक की सुधारात्मक सोच का संकेत करता है।
ग़ज़ल संग्रह 'इन दिनों' की रचनाओं में कृष्ण कुमार 'राही' पर समकलिक अन्य ग़ज़लकारों का प्रभाव देख पाना समीक्षक की पैनी दृष्टि का साक्ष्य है।
सरगोशियाँ ग़ज़ल संग्रह इंदिरा शबनम की कृति है। इन ग़ज़लों के हिन्दुस्तानी तेवर को सराहता समीक्षण उनकी छन्दबद्धता, मौलिकता और भाव प्रवणता को भी परखता है।
मुक्तक संग्रह 'कुछ छाया कुछ धूप' हिंदी के यशस्वी साहित्यकार अभियंता चन्द्रसेन 'विराट' की कीर्ति पताका है। समीक्षक ने विराट जी द्वारा अपनाये गए उर्दू छंद की चर्चा की है जो हिंदी का पौराणिक जातीय छंद का एक प्रकार है।
महाकाव्य
रानी थी दुर्गावती भारतीय इतिहास के उज्वल चरित्र को सामने लता है जिसके उत्सर्ग को वनवासी क्षत्राणी होने के नाते वह महत्व नहीं मिला जो मिलना था। केशव सिंह दिखित ने इस कृति द्वारा दुर्गावती के बलिदान के साथ न्याय किया है। दुर्गावती पाए वृन्दावन लाल वर्मा, हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने उपन्यास और गोविन्द प्रसाद तिवारी ने खंड काव्य पूर्व में लिखा है। समालोचक ने क्षत्रिय राज वंशों की विस्तृत चर्चा करते हुए चंदेल-गोंड विवाह को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार उचित ठहराया है। महाकाव्यत्व के निकष पर कृति खरी है।
उपन्यास
सूर्यनाथ सिंह के मनोवैज्ञानिक उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' की समीक्षा करते समय किस्सागोई की देशज परंपरा का उल्लेख कल को आज से जोड़कर कल के लिए उसकी प्रासंगिकता को इंगित करता है।
'विक्रमादित्य कथा' ज्येष्ठ साहित्यकार प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी लिखित, ६वीं सदी के संस्कृत साहित्य सुमेरु डंडी के अप्राप्य ग्रंथ पर आधारित कृति है। सुरेंद्र जी ने इसे उद्भट विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कालजयी कृति बाणभट्ट की आत्मकथा के समकक्ष रखा है किंतु दोनों के मध्य समानता के बिंदु नहीं दिए हैं।
कितने पाकिस्तान ख्यात साहित्यकार-प्रकार-संपादक कमलेश्वर की बहुचर्चित कृति है। इसे पढ़ते समय सूयरंध्र जी की सजग पाठकीय दृष्टि बुन्देल केसरी छत्रसाल संबंधी तथ्यात्मक चूक की और गयी और उन्होंने निस्संकोच पत्र लिखकर कमलेश्वर को इसकी प्रतीति कराई। यह निबंध उपन्यास की समीक्षा न होकर इस प्रसंग पर सुरेंद्र जी के अध्ययन पर केंद्रित है।
कहानी संग्रह
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल लिखित कहानी संग्रह 'सही के हीरो' में प्रयुक्त अहिन्दी शब्दों से हिंदी की श्रीवृद्धि होने की समझ, ऐसे शब्दों को परे रखने की संकुचित सोच पर करारा प्रहार है। पारंपरिक कहावतों, मुहावरों के प्रासंगिक प्रयोग पर समीक्षकीय दृष्टिपात सजगता का परिचायक है।
अपना अपना सच में संतोष परिहार की कहानियों के मूल में प्रेमचंद-प्रभाव का संकेत और तब से अब तक विसंगतियों का अक्षुण्ण प्रभाव समीक्षक की पैनी निगाह से बचा नहीं है।
दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे का चर्चित कथा संग्रह है। कहानियां खड़ी बोली में होने पर भी पात्रों के संवाद परिवेशानुकूल बुंदेली में होने को समीक्षक ने ठीक ही, ठीक ठहराया है। समकालिक कहानीकारों के प्रभाव का उल्लेख उपयुक्त है।
अष्टदल डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल' की ८ ऐसी कहानियों का संग्रह है जिनमें सामाजिक विसंगतियों और अंतर्द्व्न्दों के बावजूद आदमियत की अहमियत बरक़रार है। समीक्षक इनमें अच्छी कहानी के सब गुण पाता है।
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव विदुषी गृहस्वामिनी हैं। अभियंता पति के साथ व्यस्त रहते हुए भी उन्होंने कायस्थ परिवार की विरासत शब्द संस्कृति को जीवंत रखकर अपनी शोध यात्रा को शिखर पर पहुँचाया है। संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी चारों भाषाओँ में दखल रखने वाली कहानीकार 'सरेराह' की २८ कहानियों में ऑटोरिक्षा में आते-जाते समय होते वार्तालाप को कहानियों का धार बनाती हैं। सुरेंद्र जी अपनी परख में इन कहानियों में अंतर्व्याप्त बहुरंगी जीवंत छवियों को कहानी और लघुकथा के बीच उकेरे गए कथा-चित्र पाते हैं।
पर्यटन
हिंदी में पर्यटन साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है। नर्मदा घाटी पर्यटकों को हमेशा लुभाती रही है। स्व. अमृतलाल वेगड़ कृत 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'तीरे-तीरे नर्मदा' तथा 'नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो', 'नदी तुम बोलती क्यों हो?' - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, 'समय नर्मदा धार सा' - मस्तराम गहलोत, 'नर्मदा की धारा से' - शिव कुमार तिवारी-गोविन्द प्रसाद मिश्र, आदि के क्रम में 'नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा' लिखकर भारती ठाकुर ने सत्प्रयास किया है। कृति के गुण-दोष विवेचन पश्चात् समीक्षक ने बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करने के तथ्य सामने लाकर सामाजिक प्रसंगों के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है।
इतिहास
शंकर सिंह 'राजन' की कृति मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार इतिहास के उस पृष्ठ को समने लाती है जिससे वर्तमान सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुँच सकती है। सुरेंद्र जी ने संक्षिप्त चर्चा कर इस प्रसंग को उचित ही काम महत्व दिया है।
डॉ.श्याम सुंदर दुबे विंध्य क्षेत्र के ख्यात शिक्षाविद, ४० से अधिक कृतियों के रचयिता हैं। उनके ३३ निबंधों का संग्रह 'काल क्रीडति' अपने नाम से ही अंतर्वस्तु का परिचय देता है। प्रकृति के विविध रति रंगों से क्रेडा करता पुरुष, आप ही उसका खिलौना न बन जाए। ऐसी चेतना जगाते इन निबंधों पर विमर्श करते समय उतनी ही संवेदनशीलता का परिचय देता है, जितनी अपेक्षित है।
बाल कहानी संग्रह 'अनमोल कहानियाँ' में श्रीमती गुलाब दुबे ने २८ कहानियों तथा ८ पद्य रचनाओं को स्थान दिया है। ये पारंपरिक कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रही हैं। लेखिका ने पारंपरिक कथ्य को अपने शब्दों का बाना पहनाकर बच्चों को प्रेरित करने के साथ समीक्षकीय समर्थन भी पाया है।
डॉ. कंवर के. कौल की अंगरेजी आत्मकथा 'व्हेन माय वैली वाज ग्रीन' का हिंदी रूपांतर 'जब मेरी वादी हरी थी' को समीक्षक ने आप बीती घटनाओं, यादों, यात्राओं, संस्मरणों, अनुभवों, घटनाओं व परिवर्तनों का पिटारा ठीक ही निरूपित किया है।
लघुकथा
हिंदी और निमाड़ी के समर्थ रचनाकार सुरेश 'तन्मय' का लघुकथा संग्रह 'अंदर एक समंदर' में ८२ लघुकथाएँ हैं। समीक्षक ने लघुकथा के मानकों को लेकर हो रहे अखाड़ेबाजी से दूर रह कर लघुकथाओं को कथ्य के आधार पर परखा है।
समीक्षात्मक निबंधों में कृति के हर पक्ष की चर्चा अनावश्यक विस्तार-भय से नहीं हो पाती है। समीक्षा करते समय उससे होने वाले प्रभावों और प्रतिक्रियाओं का भी ध्यान रखना होता है। कहा गया है 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' अर्थात 'जब सच बोलो प्रिय सच बोलो, अप्रिय सच को कभी न बोलो'। सुरेन्द्र जी ने इसी नीति का अनुसरण किया है। कृतियों के वैशिष्ट्य को यत्र-तत्र उद्घाटित किया है किन्तु न्यूनताओं को प्रे: अनदेख किया है। आलोचना के निकष पर यह नीति आलोचना की पात्र होगी किन्तु सम ईक्षा की दृष्टि से इसे सहनीय मानने में किसी को आपत्ति न होगी। इस तरह की कृतियाँ नव रचनाकारों के लिए पथ दर्शक की भूमिका निभा सकती हैं। गहन और व्यापक अध्ययन हेतु सुरेंद्र जी साधुवाद के पात्र हैं।
***
गीत:
कम हैं...
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
३-१०-२०११
***

रविवार, 28 अगस्त 2022

संगीता भारद्वाज, यादों के पलाश

पुरोवाक्

'यादों के पलाश' : खिलखिलाएँ घोलकर बताश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

'याद बिन किए, याद आते हैं।   
यादें बनते पलाश भाते हैं।।  
श्वास में आस है बंबुलिया सी-
नेह-नर्मदा नित नहाते हैं।।  

                                   'यादों के पलाश' जिसकी  ज़िन्दगी में हों, उसके सदा सुखी होने में किंचित मात्र भी संदेह नहीं हो सकता। उसकी स्वास 'संगीता' और आस पुनीता  होती है। भवसागर के कुरुक्षेत्र में, कर्म की गीता उसे पढ़नी नहीं पड़ती। स्वप्रेरणा से ही उसे फल की फ़िक्र छोड़कर, कर्म करने का अभ्यास होता जाता है। संसार के सफर में 'मुसाफि'र की तरह, राहों और पड़ावों से बिना मोह किए, 'जस की तस धर दीनी चदरिया' का संतोष पा सके 'पथिक' को, चिर 'तरुण' बनाए रखकर, उसकी स्मृतियों को बताशे की तरह मिठास युक्त 'मधुर' बना देता है। उसकी सहजता, सरलता, सुलभता और सरसता उसके स्नेही जनों को संतोष का पाथेय देकर 'यादों के पलाश' से प्राप्त कुसुंबी रंग में रंगकर 'हर दिन होली, रात दिवाली' की सुखद मनस्थिति में रखती है। आत्म को जय कर 'जयंत' हुआ उसका 'मैं' परमात्म को पाकर भी आत्मजों में जीवित रहा आता है। 'यादों के पलाश' में पृष्ठ-पृष्ठ पर, पंक्ति-पंक्ति में, शब्द-शब्द में उस अक्षर की अनुभूति होती है। तरुणात्मजा संगीता पिता को (सप्रयास) याद नहीं करती, उसकी श्वास, आस, हास और प्यास में तरुणाई के बोल स्वयमेव रास करते प्रतीत होते हैं। 'यादों के पलाश' देखकर अंजुरी में भरने का मोह होना स्वाभाविक है। जिसके स्नेह की स्मृतियाँ संजीवित रखकर सलिलता प्रदान करती हैं, उसे अधरों से अधिक मन की आसंदी सुहाती है-  
 
'याद जिसकी भुलाना मुश्किल है,
याद उसका न आना मुश्किल है। 
याद के पाश है पलाशों से -
याद का रंग; जाना मुश्किल है।। 

                                   'जबलपुर के जवाहर', 'तमसा के दिनकरो नमन' कहते हुए यादों की प्रथम रश्मि बनकर 'आस्था के शतदल' ही नहीं खिलाते, 'ज्वालगीत' भी बन जाते हैं। 'मुक्ताबंध' बने 'जीवन के रंग' 'सुधियों के राजहंस' की तरह कर्म-तरंगों पर 'घर-आँगन के रंग' बनकर नीर-क्षीर विवेक की थाती स्वजनों को सौंपने में नहीं हिचकते। 'उनकी कलम' स्नेह सलिला में डूबती-उतराती' पल-पल 'कृपालु' का स्मरण कर धन्य होती है। राष्ट्रभक्ति के पथ पर बढ़ते कदम 'जन्मों के मीत की तरह' 'ह्रदय के दर्पण में यादों के रूप' बनकर अठखेलियाँ करते हैं। जीवन का हर 'नया मोड़' एक 'नया व्याकरण' सिखाता है। उषा की रतनार 'चितवन' का 'प्रथम स्पर्श' ;ज़िंदगी के खूबसूरत पन्ने' लिखते हुए बार-बार याद दिलाता है कि हर 'साँझ नई भोर ले आती है'। 'मन की सरिता' में तैरते 'सपन के फूल' 'धरती की उमंग' को 'प्रकृति के रूप' में चित्रित करती है और 'स्नेह का बदलता स्वरूप' 'अर्पण-समर्पण' के नए अध्याय रच देता है। 'नयन कलश के अर्ध्य' 'ख़ामोशी' से 'इंतजार' करते हैं, 'सारा जग मौन' होकर कह उठता हैं 'कोई तो साज उठाओ' 'धूप ये चाँदनी बन जाएगी'। अनंत हो गए' 'रूप का आकर्षण' कह उठता है भले ही 'यादें कंवल हो गईं' हैं किंतु 'तुम्हारे जीवन का राग हूँ मैं'। 'स्वयंसिद्धा नारी स्वयं शक्ति स्वरूपा' है; यह सनातन 'जीवन सत्य' जानते हुए भी 'मन की अभिलाषा' तन की मुँडेर पर बैठी गौरैया की तरह 'आशा और विश्वास' की 'भावभूमि' में 'सद्यस्नाता चाँदनी' के 'सवाल' सुन 'प्यासी बरसात' में कह उठती है 'आज मैं 'आकाश हो गई'। 'ज़िंदगी और मैं'  'तेरा नाम' लेते-लेते 'कोरा भ्रम' पाल बैठे हैं कि 'शायद तुम पास नहीं हो' पर 'तुम बसंत से आते हो', 'मन का कोना', 'बावरा बादल' बनकर; 'उदासी चाँद की' 'प्यासी रेत पर' उड़ेलकर; 'ख़ामोशी और दर्द' के 'अहसास' जगाते हो और हम संकल्प लेते हैं कि 'अवनि को आकाश बनाएँगे'। 

                                   'माँ' के रूप में 'तेरी याद ज्यों किरण की तरह' गले लगा लेती है। तुम्हारा हर गीत 'खामोश कथन' बनकर 'यात्राओं की तलाश' करता है। किताब के पन्ने 'पीले हो गए है' पर उन पर छपे गीत अब भी 'जीवन सच होता सपना' का उद्घोष करते हैं। 'तुम! जीवन के गीत मेरे'  'दर्द का कथन', 'अश्रु के भाव' तुम्हें समर्पित हैं। आशीषित करो कि नव पीढ़ी 'युवा शक्ति - एक आह्वान' कर सके, तुम्हारे गीतों में अंतर्निहित दिव्यता से अपना जीवन आलोकित कर सके। 'उनकी कलम' 'विरासत का परचम लिए', 'कभी धानी-बासंती चूनर ओढ़ती, कभी सपनों को तमाम रात जागकर अपनी आँखों में समेटती, कभी दरीचों से झाँकती, कभी माँ नर्मदा की लय और तरलता में कुछ तलाशती, कभी जिद्दी बच्चे सी मचल जाती, कभी पाषाण में प्राण का संचार करती। संगीता के भावोद्गारों को पढ़कर प्रतीति होती है कि कलम से आशीषित हो पाना भाग नहीं सौभाग्य का विषय है। 'यादों के पलाश' जितने सुर्खरू होते हैं, खोए को पाने की तलब उतनी ज्यादा होती है और तब यादें कँवल हो जाती हैं -

'एक प्राचीन जर्जर इमारत थी मैं 
उनकी केवल छुअन से नवल हो गई।।

                                  अनुभूत को अभिव्यक्त करने की कला ही कविता करना है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी लय-खण्ड द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छांदस विधानों में ढाली गई हो। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शाब्दिक रमणीयता (शब्दलंकार आदि) मान्य हैं। 'अर्थ' की 'रमणीयता' बहुआयामी है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य के तीन प्रकार ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र कहे गए हैं। ध्वनि में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह जिसमें व्यंजना गौण हो। चित्र या अलंकार में बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। काव्य के दो अन्य भेद  महाकाव्य और खंड काव्य हैं। काव्य को दृश्य और श्रव्य में भी वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य के दो प्रकार गद्य और पद्य हैं। गद्य काव्य के दो भेद कथा और आख्यायिका हैं। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। 'यादों के पलाश' केवल काव्य संग्रह नहीं है, इसमें संगीता के चित्रों के साथ उसके जीवन साथी जयंत जी के बनाए सुंदर रेखाचित्र तथा सुंदर हस्तलिपि 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। इस तरह यह श्रव्य-दृश्य काव्य का रमणीय सम्मिश्रण हो गया है। संगणक के वर्तमान दौर में हस्तलिपि में पुस्तक प्रकाशन का ऐसा प्रयोग हिंदीभूषण अभियंता देवकीनंदन 'शांत' लखनऊ ने अपने ग़ज़ल संग्रह 'तलाश' में भी किया है। रचनाओं और रेखाचित्रों के मणिकांचनी संयोग की यह परंपरा आगे बढ़ती रहनी चाहिए। कलम और कागज़ से नाता तोड़कर चलभाषा और लैपटॉप की गुलाम होती नई पीढ़ी को लिखने के प्रति आकर्षित कर सकते हैं ऐसे प्रयास।   

                                  संगीता किताबी नहीं स्वाभाविक प्राकृतिक-कवयित्री है। वह अनुभूतियों को मात्राओं-वर्णों का बंदी न बनाकर उन्हें भावाकाश में मुक्त उड़ान भरने देती है और फिर शब्द बद्धकर लेती है। इसलिए 'यादों के पलाश' के गीत किसी उद्यान में माली द्वारा काँट-छाँट कर उगाई गई पौधाकृतियों की तरह दिखावटी न होकर वन प्रांतर में पुरवैया और पछुआ के साथ झूलते-झूमते विटप कुंजों की तरह महकते-चहकते हैं। स्वाभाविक है कि ये गीत उसे 'जन्मों के मीत से लगे'। वह कहती है - 'तुममें खुद को पा जाऊँ मैं / तुम ही तुम में छा जाऊँ मैं प्रीत की सच्ची रीत यही है....'। 'हृदय के दरपन में यादों का रूप' 'नया मोड़' आते ही बिटिया की भोली 'चितवन' में नवशा देखती है-

वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ रही है 
नए-नए अपनी कला के कसीदे गढ़ रही है 

                                  जीवन के संबंधों का नया व्याकरण पढ़ती-गढ़ती कवयित्री समुन्दर की रेत के समीकरण हल करते-करते मन मोहते प्रात: अलंकरण तथा खिलखिलाते मुक्तकों के आचरण की जयकार गुँजाती है। 'काँटों के बियाबान' में 'फूलों के गाँव का प्रथम स्पर्श' पाकर 'साँझ' नई भोर ले आती है और 'ज़िंदगी के कुछ खूबसूरत पन्ने', 'मन की सरिता' में प्रवाहित होते 'सपन के फूल' 'धरती के उमंग के साक्षी बन जाते हैं। राजधानी निवासी कवयित्री की रग-रग में संस्कारधानी और नेह नर्मदा रची-बसी है। उसे प्रकृति के सौंदर्य का रसपान कर स्वर्गिक आनंद की प्रतीति होती है-

एक मीठी सी सुगंध छाई है अंग-अंग 
वसुंधरा के तरंग, है नभ के संग-संग 
इस भीगे मौसम में छिपी कहीं आग है 
इन पास ब्वॉयंडों में जीवन का राग है 
मधु भीने रस के फुहार यूँ चल रहे 
सुरभित से पुष्पों में नव स्वप्न पल रहे 

                                  स्नेह का बदलता स्वरूप देखकर साँसों और आसों का, अरमान और मुस्कान का पलाश हो जाना स्वाभाविक है-

उलझी सी अलकों में खुलती सी लड़ियाँ 
सुलझी सी पलकों में खिलती सी कलियाँ 
आधरों में छिपे-छिपे आप ज्यों हँसे 
मारक मुस्कान ही पलाश हो गई 

                                  'सारा जग मौन' रहकर 'इन्तिज़ार' करने के बाद मनमीत का संग-साथ पाकर 'स्व' को बिसर कर 'सर्व' की प्राप्ति की प्रतीति कर सके, जीवन की सार्थकता इसी में है। तभी यह अनंत की अनुभूति होती है और मन संत हो जाता है- 

गुलाबी कपोल हो उठे लाल
टेसू खिलते ज्यों मधुवन में 
जग की खुशियाँ सिमट गईं जब 
प्रिय के मधु अंकित चुंबन में 
लहराया खुशियों का सागर 
सृष्टि-सृजन जब एक हो गए 
तृप्त हुई तृष्णा की गागर 
मन देह प्राण अनंत हो गए 

                                  'अर्पण-समर्पण' के पल 'नयन कलश के अर्ध्य' लिए प्रणयाभूतिक सघनता के पलों में धूप को चाँदनी बनते देखती है- 

लटों से उलझ गई जो धूप कहीं
छनते-छनते धूप ये चाँदनी बन जाएगी 

                                  'रूप का आकर्षण', प्रतिबिंबित हो तुम', 'मन की अभिलाषा', 'प्यासी बरसात', 'जीवन सत्य', 'आशा और विश्वास', 'सद्यस्नाता चाँदनी', भाव भूमि', तुम बसंत से आते हो, बावरा बादल, शायद तुम पास नहीं हो आदिरचनाओं में कवयित्री की कलम श्रृंगार सलिला में डूबती-उतराती विविध भाव भंगिमाओं को शब्दित करती है। श्रृंगार गीतों को काल-बाह्य मानवले कवियों और समीक्षकों को यह कृति आइना दिखाकर घोषणा करती है कि श्रृंगार मानव जीवन का उत्स है जो कभी काल-बाह्य नहीं हो सकता। कृति में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन-और विरह का सम्यक-सरस समावेश है। 

 जब वो दूर जाते हैं अकसर 
उन्हें रागिनी में ढलते देखा है 
उदासी का अँधेरा है फिर भी 
हर नज़र में खवाब पलते देखा है 

                                  गीतों, कविताओं और मुक्तिकाओं (हिंदी ग़ज़लों) के साथ कथ्यानुरूप नयनाभिराम रेखाचित्र भाव-प्रवाह में सहायक हैं। संगीता चंद पारंपरिक छंदों की कैद में अपने कथ्य को विस्तारित होने से नहीं रोकती,  कथ्य के अनुरूप छंद को अपनाती है। वह पदभार की समानता को अनिवार्य न मानकर कथ्यानुरूप शब्द-चयन को वरीयता देती है। यह शैली कहीं-कहीं मात्रा या वर्ण भार की असमानता को सहजता के साथ ग्रहण करती है किन्तु उससे लय भंग नहीं होती। संगीता तत्सम-तद्भव, देशज-अदेशज (अन्य भाषाओँ के) शब्दों के चयन के प्रति दुराग्रही नहीं है। उसके लिए भाव की अभिव्यक्ति प्रधान है। शब्द किस जमीन से, किस भाषा से, किस देश से, किस काल से आया है यह महत्वहीन है। भाषिक शुद्धता के प्रति दुराग्रही, संकीर्ण दृष्टि संपन्न अंधभक्त नाम-भौं सिकोड़ेंगे, कवयित्री इसकी चिंता नहीं करती। यह स्वस्थ्य सुपुष्ट सृजन परंपरा उसे अपने पितामह और पिता श्री से विरासत में पाई है। 'मन का कोना' का 'छायादार दरख्त', 'चटाई', सुगंधित पुष्प बेल, तुलसी का बिरवा, सूर्य को अर्ध्य आदि उस सनातन जीवन पद्धति को पुष्ट करते हैं जिससे हम मुँह मोड़कर पछता रहे हैं किंतु नई पीढ़ी को उससे जोड़ भी नहीं पा रहे हैं। जड़ों से जुड़ने की ऐसी सारस्वत समिधाओं के लिए संगीता साधुवाद की पात्र है। 

                                  ख़ामोशी और दर्द, प्यासी रेत, दर्द का कथन, कोरा भरम आदि रचनाएँ इस कृति को गंगो-जमुनी धूप-छाँव से समृद्ध करती हैं। 'युवा शक्ति एक आह्वान' जैसी सन्देशवाही रचनाएँ, माँ और दादी को समर्पित की गई पारिवारिक नातों को जीती रचनाएँ अनेकता में एकता की प्रतीति कराती हैं। ये यादों के पलाश स्मृतियों की सुगंध से सराबोर हैं। इन्हें समर्पित करता हूँ अपनी कुछ पंक्तियाँ-     

नवगीत : पलाश 
.
खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के...
.
ऊषा के
रंग में
नहाए से,
संध्या को
अंग से
लगाए से। 
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से...
.
लजा रहे
गाल हुए
रतनारे,
बुला रहे
नैन लिये
कजरारे। 
लुक-छिपकर
मिल रहे
भुलावों से...
.
नयनों में 
अश्रु लिए 
मौन रहें,
पीर सहें 
धीर धरें 
पर न बहें। 
गले मिलें 
बचपनी 
लगावों से....

                                  'यादों के पलाश' की रचनाएँ गूँगे के गुड़ की तरह बार-बार याद गुनगुनाई जाएँगी, मौके-बेमौके फिर-फिर याद आएँगी केवल कवयित्री को नहीं; पाठकों को भी। रचनाओं की मर्मस्पर्शिता, निश्छलता। मोहकता और मौलिकता पाठकों को उस परिवेश से जोड़ सके जिसे स्मरण कर इन्हें रचा गया है। 
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