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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जुलाई ३१, तुहिना, हास्य, मुक्तिक, सॉनेट, समीक्षा, पंकज परिमल, सपने, दुनिया

सलिल सृजन जुलाई ३१
*
सॉनेट
सपने
*
दिन में भी दिखते हैं सपने,
सच लगते पर झूठे होते,
नहीं पराए किंतु न अपने,
मरुथल में भी फसलें बोते।
सपने बिना पैर चलते हैं,
उड़ते बिना पंख भी सपने,
बनकर मित्र नहीं छलते हैं,
उगते बिना बीज भी सपने।
शीतलता दें तपते हो तो,
पापी को कर देते पावन,
नया जन्म दें मिटते हो तो,
फागुन कभी; कभी हों सावन।
पद लय गति यति रस तुक के बिन।
सॉनेट रचते सपने निशि -दिन
३१-७-२०२३
***
पंकज परिमल की याद में माहिए
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
३१.७.२०२१
***
सॉनेट
दुनिया
*
दुनिया बहुत सयानी है,
मीठे को बोले तीता,
मत समझो नादानी है,
भरा कोष कहती रीता।
झंडा वही उठाती है,
जो सत्ता तक ले जाए,
गीत उसी के जाती है,
लिए बिना जो दे जाए।
मिले प्रसाद जहाँ ज्यादा,
वही देवता प्यारा है,
फर्क नहीं नर या मादा,
झूठे की पौ बारा है।
दीखते है यह प्रेम पगी।
किंतु किसी सगी।।
***
मुक्तिका:
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
३१-७-२०१७
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
*
३१-७-२०१६
समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम
तुमने जीवन सरस बनाया
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे
नेहिल नाता मन को भाया'
द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।
***
पुस्तक चर्चा -
'मैं पानी बचाता हूँ' सामयिक युगबोध की कवितायेँ
*
[पुस्तक विवरण- मैं पानी बचाता हूँ, काव्य संग्रह, राग तेलंग, वर्ष २०१६, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२३-५, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६]
*
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है किन्तु दर्पण संवेदनहीन होता है जो यथास्थिति को प्रतिबिंबित मात्र करता है जबकि साहित्य सामयिक सत्य को भावी शुभत्व के निकष पर कसते हुए परिवर्तित रूप में प्रस्तुत कर समाज के उन्नयन का पथ प्रशस्त करता है। दर्पण का प्रतिबिम्ब निरुद्देश्य होता है जबकि साहित्य का उद्देश्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय माना गया है। विविध विधाओं में सर्वाधिक संवेदनशीलता के कारण कविता यथार्थ और सत्य के सर्वाधिक निकट होती है। छन्दबद्ध हो या छन्दमुक्त कविता का चयन कवि अपनी रुचि अनुरूप करता है। बहुधा कवि प्रसंग तथा लक्ष्य पाठक/श्रोता के अनुरूप शिल्प का चयन करता है।
'मैं पानी बचाता हूँ' हिंदी कविता के समर्थ हस्ताक्षर राग तेलंग की छोटी-मध्यम कविताओं का पठनीय संग्रह है। बिना किसी भूमिका के कवि पाठकों को कविता से मिलाता है, यह उसकी सामर्थ्य और आत्म विश्वास का परिचायक है। पाठक पढ़े और मत बनाये, कोई पाठक के अभिमत को प्रभावित क्यों करे? यह एक सार्थक सोच है। इसके पूर्व 'शब्द गुम हो जाने के खतरे', 'मिट्टी में नमी की तरह', 'बाजार से बेदखल', 'कहीं किसी जगह कई चेहरों की एक आवाज़', कविता ही आदमी को बचायेगी' तथा 'अंतर्यात्रा' ६ काव्य संकलनों के माध्यम से अपना पाठक वर्ग बना चुके और साहित्य में स्थापित हो चुके राग तेलंग जी समय की नब्ज़ टटोलना जानते हैं। वे कहते हैं- 'अब नहीं कहता / जानता कुछ नहीं / न ही / जानता सब कुछ / बस / समझता हूँ कुछ-कुछ।' यह कुछ-कुछ समझना ही आदमी का आदमी होना है। सब कुछ जानने और कुछ न जानने के गर्व और हीनता से दूर रहने की स्थिति ही सृजन हेतु आदर्श है।
कवि अनावश्यक टकराव नहीं चाहता किन्तु अस्मिता की बात हो तो पैर पीछे भी नहीं हटाता। भाषा तो कवि की माँ है। जब भाषा की अस्मिता का सवाल हो तोवह पीछे कैंसे रह सकता है।
'अब अगर / अपनी जुबां की खातिर / छीनना ही पड़े उनसे मेरी भाषा तो / मुझे पछाड़ना ही होगा उन्हें '
काश यह संकल्प भारत के राजनेता कर सकते तो हिंदी जगवाणी हो जाती। तेलंग आस्तिकता के कवि हैं। तमाम युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं के बावजूद वह मनुष्यता पर विश्वास रखते है। इसलिए वह लिखते हैं- 'मैं प्रार्थनाओं में / मनुष्य के मनुष्य रहने की / कामना करता हूँ। '
'लता-लता हैं और आशा-आशा' शीर्षक कविता राग जी की असाधारण संवेदनशीलता की बानगी है। इस कविता में वे लता, आशा, जगजीत, गुलज़ार, खय्याम, जयदेव, विलायत खां, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां, अल्लारक्खा खां, जाकिर हुसैन, बेगम अख्तर, फरीद खानम,परवीन सुल्ताना सविता देवी आदि को किरदार बनाकर उनके फन में डूबकर गागर में सागर भरते हुए उनकी खासियतों से परिचित कराकर निष्कर्षतः: कहते हैं- "सब खासमखास हैं / किसी का किसी से / कोई मुकाबला नहीं।"
यही बात इस संग्रह की लगभग सौ कविताओं के बारे में भी सत्य है। पाठक इन्हें पढ़ें, इनमें डूबे और इन्हें गुने तो आधुनिक कविता के वैशिष्ट्य को समझ सकेगा। नए कवियों के लिए यह पाठ्य पुस्तक की तरह है। कब कहाँ से कैसे विषय उठाना, उसके किस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना और किस तरह सामान्य दिखती घटना में किस कोण से असाधारणता की तलाश कर असामान्य बात कहना कि पाठक-श्रोता के मन को छू जाए, पृष्ठ-पृष्ठ पर इसकी बानगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्र लेखन परंपरा में 'कम लिखे से ज्यादा समझना' की बानगी 'मार' शीर्षक कविता में देखें-
"देखना / बिना छुए / छूना है
सोचना / बिना पहुँचे / पहुँचना है
सोचकर देखना / सोचकर / देखना नहीं है
सोचकर देखो / फिर उस तक पहुँचो
गागर में सागर की तरह कविता में एक भी अनावश्यक शब्द न रहने देना और हर शब्द से कुछ न कुछ कहना राग तेलंग की कविताओं का वैशिष्ट्य है। उनके आगामी संकलन की बेसब्री से प्रतीक्षा की ही जाना चाहिए अन्यथा कविता की सामर्थ्य और पाठक की समझ दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगने की आशंका होगी।
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
३१-७-२०१६
***
कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
*
[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं.
कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा' शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.'
डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'
विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें' (संस्कारी छंद)
जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति:
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे.
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
.
पैरों में जलता मरुथल है (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
.
आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी (महादेशिक जातीय छंद)
.
किंकर्तव्यविमूढ़ता:
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे?
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें।
.
अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में / कुछ तो नया करें
.
यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?
डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है.
कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला
(यौगिक जातीय छंद)
.
डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
.
एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं.
काँप रहे हैं / गोली कंचे
इधर कटारी / उधर तमंचे
क्यों रोता है? / बोल कबीरा
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी
भोले सपने / हँसी दूधिया
अट्टहास कर / हँसता बनिया
आँख जलाकर / बना ममीरा
(वासव जातीय छंद)
.
अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए)
.
चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.''
यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार (दोहा)
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
.
यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या, स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि.
यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है.
***
हास्य सलिला:
*
लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, थे लिये हाथ में हाथ
हो खूब' थ था हुआ चमत्कृत बोला: 'तुम हो खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र न करते पल भर को भी दूर'
लालू बोले: ''गलत न समझो, हूँ सचमुच मजबूर
गर हाथ छोड़ा तो मेरी आ जाएगी शामत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुदही अपनी आफत?
जैसे छोड़ा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
***
मुक्तिका:
*
कैसा लगता काल बताओ
तनिक मौत को गैर लगाओ
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
३१-७-२०१५
***
हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
*
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।
यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।
मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आए वो भी पछताए...जो न आए वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।
ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।
चाँदनी चौक में चमचम चाची को चाँदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।
जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।
रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।
शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
-- रबडी मलाई
*

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

तुहिना, अशआर, सरस्वती, भोजपुरी, मालवी, मधुकर अष्ठाना, कुण्डलिया, घनाक्षरी, दोहा

बिटिया को पाती

*
प्रिय बिटिया! नव खुशियाँ लाईं, महक गया आँगन-घर
पुरखों के आशीष फले, खुशियाँ उतरीं धरती पर
चहक उठी श्वासों की चिड़िया, आस कली मुस्काई
तुहिना आई साथ बहारें अनगिन सपने लाई
सफल साधना हुई शांति पा आशा पुष्पा फूली
स्नेह किरण सुषमा डोरी पर नव अभिलाषा झूली
वामन पग, नन्हें कर, सपने अगिन लिए थे नैना
मुस्काते अधरों पर सज्जित, कोकिल मीठे बैना
सुनी प्रार्थना प्रभु ने, मन्वन्तर ने बहिना पाई
अचल अर्चना, विनत वंदना संध्या की अरुणाई
राज बहादुर ही करते, बब्बा ने तुम्हें बताया
सत्य सहाय श्रमी का होता, नाना से समझाया
तुममें शारद रमा उमा की झलक नर्मदा हो तुम
भू पर पग रख गगन छू सको वरदा शुभदा हो तुम
तुममें हम हैं, हममें तुम हो, संजीवित हैं सपने
नेह नर्मदा सलिल सरीखे निर्मल नाते अपने
जो चाहो वह पाओ बिटिया! सुख-समृद्धि-संतोष
कभी न रीते किंचित वैभव-कीर्ति-सफलता कोष
शतवर्षी होने तक रहना सक्रिय-स्वस्थ्य हमेश
हर अभिलाषा पूरी हो, पाना न रहे कुछ शेष
***
***
द्विपदियाँ / अशआर
सिगरेट
*
गम सुलगते रहे, दर्द अंगुली हुए
मुफलिसी में बिताई जो ज़िंदगी सिगरेट है.
*
आशिक़ी सिगरेट की लत, छुड़ाए छूटे नहीं
सुकूं देती एक पल को, ज़िंदगी बर्बाद कर
*
फूँकता तुझको रहा, तू फूँकती मुझको रही
जेब खाली स्याह लब, सिगरेट तूने कर दिए
*
ज़िंदगी है राखदानी, हौसले हैं राख सब
कोशिशें सिगरेट जैसे, सुलग दिल सुलगा गईं
*
२१-११-२०२०
***
सरस्वती वंदना
भोजपुरी
संजीव
*
पल-पल सुमिरत माई सुरसती, अउर न पूजी केहू
कलम-काव्य में मन केंद्रित कर, अउर न लेखी केहू
रउआ जनम-जनम के नाता, कइसे ई छुटि जाई
नेह नरमदा नहा-नहा माटी कंचन बन जाई
अलंकार बिन खुश न रहेलू, काव्य-कामिनी मैया
काव्य कलश भर छंद क्षीर से, दे आँचल के छैंया
आखर-आखर साँच कहेलू, झूठ न कबहूँ बोले
हमरा के नव रस, बिम्ब-प्रतीक समो ले
किरपा करि सिखवावलु कविता, शब्द ब्रह्म रस खानी
बरनौं तोकर कीर्ति कहाँ तक, चकराइल मति-बानी
जिनगी भइल व्यर्थ आसिस बिन, दस दिस भयल अन्हरिया
धूप-दीप स्वीकार करेलु, अर्पित दोऊ बिरिया
***
२१-११-२०१९
***
कृति चर्चा:
'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
*
नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
२१.११.२०१८
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
=============
सरस्वती स्तवन:
मालवी
संजीव
*
माँ सरसती! की किरपा घणी
लिखणो-पढ़णो जो सिखई री
सब बोली हुण में समई री
राखे मिठास लबालब भरी
मैया! कसी तमारी माया
नाम तमाया रहा भुलाया
सुमिरा तब जब मुस्कल पड़ी
माँ सरसती! दे मीठी बोली
ज्यूँ माखन में मिसरी घोली
सँग अक्कल की पारसमणि
मिहनत का सिखला दे मंतर
सच्चाई का दे दै तंतर
खुशियों की नी टूटै लड़ी
नादां गैरी नींद में सोयो
आँख खुली ते डर के रोयो
मन मंदिर में मूरत जड़ी
***
२०-११-२०१७

***

क्षणिका
*
मैं हूं
तो ही
हम भी होंगे
इसीलिए
मैं की भी सुन.
.
गीत

*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
लिए चिंतामणि बाँटे प्यार.
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
***
मुक्तिका
शांत हों, प्रशांत हों
किंतु मत अशांत हों
असंतुष्ट?, क्रांत हों.
युवा नहीं भ्रांत हों.
सूर्य बने, तम हरें
अस्त हो दिनांत हों.
कांत कांता सुशांत
शांत सफ़ल कांत हों.
सबद, प्रे, अजान सम
बात कह, दिशांत हों.
...
मुक्तिका
.
लोग हों सब साथ
हाथ में हों हाथ
.
छोड़ दें हम फ़िक्र
साध लें आ नाथ
.
रखो पैर सम्हाल
झुक न जाए माथ
.
लक्ष्य पाते पैर
सहायक हो पाथ
.
फूल बनते माल
डोर ले यदि गाँथ

****

मुक्तक 

कुछ नहीं में भी कुछ तो होता है
मौन भी शोर उर में बोता है
पंक में खिल रहा 'सलिल' पंकज
पग में लगता तो मनुज धोता है
*
शब्द ही करते रहे हैं, नित्य मुझसे खेल.
मैं अकेले ही बिचारा , रहा उनको झेल.
चाहती भाषा रखूँ मैं, भाव का भी ध्यान-
शिल्प चाहे हो डली, कवि नाक में नकेल
*
*
एक पद-
अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
***
मनहरण घनाक्षरी
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए।
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए।।
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए।।
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये।।
*
फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यह बेहतर,
फेस 'बुक' हुआ है तो, छुडाना ही होगा।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो,
फेस की असलियत, जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो, पोल खुल जाएगी ही,
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं, लाइक पे लाइक जो,
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।
*
संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम,
राजनीति सत्ता-नीति, दल-नीति कारा है ।
नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है,
मतदाता घोटालों में, घिर बेसहारा है ।
'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि,
अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।
स्विस बैंक में जमा जो, धन आये भारत में ,
देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।
*
फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान,
दीप बाल अंधकार, ज़िंदगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो,
जीतता सुधीर धर, धीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ,
सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ,
हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
*
घन अक्षरी गाइये, डूबकर सुनाइए,
त्रुटि नहीं छिपाइये, सीखिये-सिखाइए।
शिल्प-नियम सीखिए, कथ्य समझ रीझिए,
भाव भरे शब्द चुन, लय भी बनाइए।।
बिंब नव सजाइये, प्रतीक भी लगाइये,
अलंकार कुछ नये, प्रेम से सजाइए।।
वचन-लिंग, क्रिया रूप, दोष न हों देखकर,
आप गुनगुनाइए, वाह-वाह पाइए।।
*
न चाहतें, न राहतें, न फैसले, न फासले,
दर्द-हर्ष मिल सहें, साथ-साथ हाथ हों।
न मित्रता, न शत्रुता, न वायदे, न कायदे,
कर्म-धर्म नित करें, उठे हुए माथ हों।।
न दायरे, न दूरियाँ, रहें न मजबूरियाँ,
फूल-शूल, धूप-छाँव, नेह नर्मदा बनें।।
गिर-उठें, बढ़े चलें, काल से विहँस लड़ें,
दंभ-द्वेष-छल मिटें, कोशिशें कथा बुनें।।
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो।।
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो।
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो।।
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी।
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी।।
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी।
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी।।
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी।
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी।।
विप्र जब द्वार आये, राखी बाँध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी।
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी।।
*
सच बात जाने बिना, अफ़वाहे सच मान, धमकी जो दे रहे हैं, नादां राजपूत हैं.
सत्य के न न्याय के वे, साथ खड़े हो रहे हैं, मनमानी चाहते हैं, दहशत-दूत हैं.
जातिवादी सोच हावी, जाने कैसी होगी भावी, राजनीति के खिलौने, दंभी भी अकूत हैं.
संविधान भूल रहे, अपनों को हूल रहे, सत्पथ भूल रहे, शांति रहे लूट हैं.
*
हिंदी मैया का जैकारा, गुंजा दें सारे विश्वों, देवों, यक्षों-रक्षों में, वे भी आ हिंदी बोलें.
हिंदी मैया दिव्या भव्या, श्रव्या-नव्या दूजी कोई, भाषा ऐसी ना थी, ना है, ना होगी हिंदी बोलें.
हिंदी मैया गैया रेवा, भू माताएँ पाँचों पूजे, दूरी मेटें आओ भेंटें, एका हो हिंदी बोलें.
हिंदी है छंदों से नाता, हिंदी गीतों की उद्गाता, ऊषा-संध्या चंदा-तारे, सीखें रे हिंदी बोलें.
*
मेरा पूरा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूं गाता, हिंदी गीत हमेशा.
चारण हूं अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा.
नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा.
भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बांधव, पाले नीत हमेशा.
***
दोहा सलिला
लखन-उर्मिला देह-मन, इसमें उसका वास.
इस बिन उसका है कहाँ, कहिए अन्य सु-वास.
.
मन में बसी सुवास है, उर्मि लखन हैं फ़ूल.
सिया-राम गलहार में, शोभित रहते झूल.
.
सिया-सिंधु की उर्मि ला, अँजुरी राम अँजोर.
लछ्मन-मन नभ, उर्मिला, मनहर उज्ज्वल भोर.
.
लखन लक्ष्मण या कहें, लछ्मन उसको आप.
राम-काम सौमित्र का, हर लेता संताप.
.
लक्ष्य रखे जो एक ही, वह जन परम सुजान.
लख न लक्ष मन चुप करे, साध तीर संधान.
.
मैं बोला: आदाब पर, वे समझे आ दाब.
लपक-भागने में गए, रौंदे रक्त गुलाब.
.
समय सूचिका का करें, जो निर्माण-सुधार.
समय न अपना वे सके, किंचित कभी सुधार.
.
किस मिस किस मिस को किया, किस बतलाए कौन?
तिल-तिल कर तिल जल रहा, बैठ अधर पर मौन.
.
जो जगमग-जगमग करे, उसे न सोना जान.
जो जग कर कुछ तम हरे, छिड़क उसी पर जान.
.
बिल्ली जाती राह निज, वह न काटती राह
भरमाता खुद को मनुज, छोड़ तर्क की थाह.
दोहा द्विपदी ही नहीं-
दोहा द्विपदी ही नहीं, चरण न केवल चार
गौ-भाषा दुह अर्थ दे सम्यक, विविध प्रकार
*
तेरह-ग्यारह विषम-सम, चरण पदी हो एक
दो पद मिल दोहा बने, रचते कवि सविवेक
*
गुरु-लघु रखें पदांत में, जगण पदादि न मीत
लय रस भाव प्रतीक मिल, गढ़ते दोहा रीत
*
कहे बात संक्षेप में, दोहा तज विस्तार
गागर में सागर भरे, ज्यों असार में सार
*
तनिक नहीं अस्पष्टता, दोहे को स्वीकार्य
एक शब्द बहु अर्थ दे, दोहे का औदार्य
*
मर्म बेध दोहा कहे, दिल को छूती बात
पाठक-श्रोता सराहे, दोहा-कवि विख्यात
*
अमिधा मन भाती इसे, रुचे लक्षणा खूब
शक्ति व्यंजना सहेली, मुक्ता गहती डूब
*
आधा सम मात्रिक बना, है दोहे का रूप
छंदों के दरबार में, दोहा भूप अनूप
*
गति-यति दोहा-श्वास है, रस बिन तन बेजान
अलंकार सज्जित करें, पड़े जान में जान
*
बिंब प्रतीक मिथक हुए, दोहा का गणवेश
रहें कथ्य-अनुकूल तो, हों जीवंत हमेश
*
कहन-कथन का मेल हो, शब्द-भाव अनुकूल
तो दोहा हो फूल सम, अगर नहीं हो शूल
**
...

 
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
.
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
.
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
.
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
.
द्वैत तज अद्वैत का मिल वरण कर ले
तार दे मुझको शुभान्गी आप तर ले
...
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, वैसा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
***
भोर भई जागो
चीर तम का चीर आता,
रवि उषा के साथ.
दस दिशाएँ करें वंदन
भले आए नाथ.
करें करतल-ध्वनि बिरछ मिल,
सलिल-लहर हिलोर.
'भोर भई जागो' गाती है
प्रात-पवन झकझोर.
२१.११.२०१७
***
गीत
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
चिड़िया चहक-चहककर, नव आस बो रही है
*
तेरा नहीं ठिकाना, मंजिल है दूर तेरी
निष्काम काम कर ले, पल भर भी हो न देरी
कब लौटती है वापिस, जो सांस खो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
दिनकर करे मजूरी, बिन दाम रोज आकर
नागा कभी न करता, पर है नहीं वो चाकर
सलिला बिना रुके ही हर घाट धो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है

***

कुण्डलिया
*
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
***
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
*
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
*
मुक्तक
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
२१.११.२०१६
***
नवगीत:
बग्घी बैठा
सठियाया है समाजवादी
हिन्दू-मुस्लिम को लड़वाए
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाए
आँसू सिसकी चीखें नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर
उढ़ा रहा है समाजवादी
खुद बीबी साले बेटी को
सत्ता दे, चाहे हेटी हो
घपलों-घोटालों की जय-जय
कथनी-करनी में अंतर कर
न्यायालय से
सजा पा रहा समाजवादी
बना मसीहा झाड़ू थामे
गाल बजाये, लाज न आए
कुर्सी मिले छोड़कर भागे
सपना देखे
ठोकर खाए समाजवादी
***
नवगीत:
अंध श्रद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिये
आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप है
कौन गुरुघंटाल हो किसको पता?
बुद्धि को तजकर नहीं करिए खता
गुरु बनायें तो परखिए भी उसे
बता पाये गुरु नहीं तुझको धता
बुद्धि तजना पाप है
नीति-मर्यादा सुपावन धर्म है
आदमी का भाग्य लिखता कर्म है
शर्म आये कुछ न ऐसा कीजिए
जागरण ही ज़िंदगी का मर्म है
देव-प्रिय निष्पाप है
***
नवगीत:
वेश संत का
मन शैतान
छोड़ न पाये भोग-वासना
मोह रहे हैं काम-कामना
शांत नहीं है क्रोध-अग्नि भी
शेष अभी भी द्वेष-चाहना
खुद को बता
रहे भगवान
शेष न मन में रही विमलता
भूल चुके हैं नेह-तरलता
कर्मकांड ने भर दी जड़ता
बन बैठे हैं
ये हैवान
जोड़ रखी धन-संपद भारी
सीख-सिखाते हैं अय्यारी
बेचें भ्रम, क्रय करते निष्ठा
ईश्वर से करते गद्दारी
अनुयायी जो
है नादान
खुद को बतलाते अवतारी
मन भाती है दौलत-नारी
अनुशासन कानून न मानें
कामचोर-वाग्मी हैं भारी
पोल खोल दो
मन में ठान
२१.११.२०१४
***
कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपडे पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी.बर्थें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिना दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
*
२८-१०-२०१४
छंद सलिला :
प्रेमा छंद
*
इस द्विपदीय, चार चरणीय छंद में प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा (१२१ २२१ १२१ २२) तथा तृतीय चरण इंद्रा वज्रा (२२१ २२१ १२१ २२) छंद में होते हैं. ४४ वर्ण वृत्त के इस छंद में ६९ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिलो-जुलो तो हमको तुम्हारे, हसीन वादे-कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों, हमें बहारें नगमे सुनायें
२. कहो कहानी कविता रुबाई, लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें, सदा वही जो खुद भी सहा हो
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई, मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें, बना न बातें भरमा नहीं रे!
२१.११.२०१३

***

गीत सलिला:   

झाँझ बजा रे...

*

झाँझ बजा रे आज कबीरा...

*

निज कर में करताल थाम ले,

उस अनाम का नित्य नाम ले.

चित्र गुप्त हो, लुप्त न हो-यदि

हो अनाम-निष्काम काम ले..

 

ताज फेंककर उठा मँजीरा.

झाँझ बजा रे आज कबीरा...

*

झूम-झूम मस्ती में गा रे!,

पस्ती में निज हस्ती पा रे!

शेष अशेष विशेष सकल बन-

दुनियादारी अकल भुला रे!!

 

हरि-हर पर मल लाल अबीरा.

झाँझ बजा रे आज कबीरा...

*

गद्दा-गद्दी को ठुकरा रे!

माया-तृष्णा-मोह भुला रे!

कदम जहाँ ठोकर खाते हों-

आत्म-दीप निज 'सलिल' जला रे!!

 

'अनल हक' नित गुँजा फकीरा.

झाँझ बजा रे आज कबीरा...

*

***

नव गीत:

मत ठुकराओ

*

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेवा-मिष्ठानों ने तुमको

जब देखो तब ललचाया है.

सुख-सुविधाओं का हर सौदा-

मन को हरदम ही भाया है.

 

ऐश, खुशी, आराम मिले तो

तन नाकारा हो मरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

मेंहनत-फाके जिसके साथी,

उसके सर पर कफन लाल है.

कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-

श्रम आयुध है, लगन ढाल है.

 

स्वेद-नर्मदा में अवगाहन

जो करता है वह तरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

*

खाद उगाती है हरियाली.

फसलें देती माटी काली.

स्याह निशासे, तप्त दिवससे-

ऊषा-संध्या पातीं लाली.

 

दिनकर हो या हो रजनीचर

रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.

मत ठुकराओ तुम कूड़े को

कूड़ा खाद बना करता है.....

२१.११.२०१०

***

दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहरा रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जूड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*
२४-५-२००९