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सोमवार, 3 नवंबर 2025

नवंबर ३, दिया, दिवाली, दोहा, नवगीत, गजल, मुक्तक


सलिल सृजन नवंबर ३
0
ग़ज़ल
काफ़िया -आब
रदीफ़ -होना था
वज़्न -२१२२-१२१२-२२
*
शूल पाए, गुलाब होना था
रात सोएँ न, ख्वाब होना था
.
हाथ लें थाम तो पढ़ें नैना
खत नहीं तो किताब होना था
.
ताकते रोज हम लगा चक्कर
आपको माहताब होना था
.
आँख हो आइना सवाल करे
हुस्न को मिल जवाब होना था
.
साथ देखे अनेक सपने हैं
एक ताबीर ख्वाब होना था
.
ज़िंदगी ने सवाल सौ पूछे
बंदगी इक जवाब होना था
.
आपने नाम ले लिया मेरा
कुछ न कुछ तो हिसाब होना था
.
आज संजीव हो गया नगमा
यों मुझे कामयाब होना था
३.११.२०२५

०००

दोहा दिवाली
*
मृदा नीर श्रम कुशलता, स्वेद गढ़े आकार।
बाती डूबे स्नेह में, ज्योति हरे अँधियार।।
*
तम से मत कर नेह तू, झटपट जाए लील।
पवन झँकोरों से न डर, जल बनकर कंदील।।
*
संसद में बम फूटते, चलें सभा में बाण।
इंटरव्यू में फुलझड़ी, सत्ता में हैं प्राण।।
*
पति तज गणपति सँग पुजें, लछमी से पढ़ पाठ।
बाँह-चाह में दो रखे, नारी के हैं ठाठ।।
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि की सुने, कोई न जग में पीर।
छोड़ गए साथी धरें, कैसे कहिए धीर।।
***
नवगीत
दर्द
*
दर्द होता है
मगर
चुपचाप सहता।
*
पीर नदियों की
सुनाते घाट देखे।
मंज़िलों का दर्द
कहते ठाठ लेखे।
शूल पैरों को चुभे
कितने, कहाँ, कब?
मौन बढ़ता कदम
चुप रह
नहीं कहता?
*
चूड़ियों की कथा
पायल ने कही है।
अचकनों की व्यथा
अनसुन ही रही है।
मर्द को हो दर्द
जग कहता, न होता
शिला निष्ठुर मौन
झरना
पीर तहता।
*
धूप को सब चाहते
सूरज न भाता।
माँग भर सिंदूर
अनदेखा लजाता।
सौंप देता गृहस्थी
लेता न कुछ भी
उठाता नखरे
उपेक्षित
नित्य दहता।
३.११.२०१८
***
दोहा
सदा रहें समभाव से, सभी अपेक्षा त्याग.
भुला उपेक्षा दें तुरत, बना रहे अनुराग.
३-११-२०१७
***
कार्यशाला
मुक्तक लिखें
आज की पंक्ति 'हुई है भीड़ क्यों?'
*
उदाहरण-
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों?
तोड़ती चिड़िया स्वयं ही नीड़ क्यों?
जी रही 'लिव इन रिलेशन' खुद सुता
मायके की उठे मन में हीड़ क्यों?
(हीड़ = याद)
*
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों, यह कौन जाने?
समय है बेढब, न सच्ची बात कोई सुने-माने
कल्पना का क्या कभी आकाश, भू छूती कभी है
प्रेरणा पा समुन्दर से 'सलिल' बहना ध्येय ठाने
३-११-२०१६
***
नवगीत :
*
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
बीज न बोता
और चाहता फसल मिले
नीर न नयनों में
कैसे मन-कमल खिले
अंगारों से जला
हथेली-तलवा भी
क्या होती है
तपिश तभी तो पता चले
छाया-बैठा व्यर्थ
धूप को कोस रहा
घूरे सूरज को
चकराकर आँख मले
लौटना था तो
तूने माँगा क्यों था?
जनगण-मन से दूर
आप को आप छले
ईंट जोड़ना
है तो खुद
को रेती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
गधे-गधे से
मिल ढेंचू-ढेंचू बोले
शेर दहाड़ा
'फेंकू' कह दागें गोले
कूड़ा-करकट मिल
सज्जित हो माँग भरें
फिर तलाक माँगें
कहते हम हैं भोले
सौ चूहे खा
बिल्ली करवाचौथ करे
दस्यु-चोर ईमान
बाँट बिन निज तौले
घास-फूस की
छानी तले छिपाए सिर
फूँक मारकर
जला रहे नाहक शोले
ऊसर से
फल पाने
खुद को गेंती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
३.११.२०१५
...
पुस्तक सलिला –
‘मेरी प्रिय कथाएँ’ पारिवारिक विघटन की व्यथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मेरी प्रिय कथाएँ, स्वाति तिवारी, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN९७८-८३-८२००९-४९-८, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १३२, मूल्य २४९/-, ज्योतिपर्व प्रकाशन, ९९ ज्ञान खंड ३, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद २०१०१२, दूरभाष९८११७२११४७, कहानीकार सम्पर्क ई एन १ / ९ चार इमली भोपाल, चलभाष ९४२४०११३३४ stswatitiwari@gmail.com ]
*
स्वाति तिवारी लिखित २० सामयिक कहानियों का संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएँ’ की कहानियाँ प्रथम दृष्टया ‘स्त्री विमर्शात्मक’ प्रतीत होने पर भी वस्तुत: पारिवारिक विघटन की व्यथा कथाएँ हैं. परिवार का केंद्र सामान्यत: ‘स्त्री’ और परिधि ‘पुरुष’ होते हैं जिन्हें ‘गृह स्वामिनी’ और गृह स्वामी’ अथवा ‘लाज और ‘मर्यादा कहा जाता है. कहानी किसी केन्द्रीय घटना या विचार पर आधृत होती है इसलिए बहुधा नारी पात्र और उनके साथ हुई घटनाओं का वर्णन इन्हें स्त्रीप्रधान बनाता है. स्वाति बढ़ाई की पात्र इसलिए हैं कि ये कहानियाँ ‘स्त्री’ को केंद्र में रखकर उसकी समस्याओं का विचारण करते हुए भी कहीं एकांगी, अश्लील या वीभत्स नहीं हैं, पीड़ा की गहनता शब्दित करने के लिए उन्हें पुरुष को नाहक कटघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं होती. वे सहज भाव से जहाँ-जितना उपयुक्त है उतना ही उल्लेख करती हैं. इन कहानियों का वैशिष्ट्य संश्लिष्ट कथासूत्रता है.
अत्याधुनिकता के व्याल-जाल से पाठकों को सचेष्ट करती ये कहानियाँ परिवार की इकाई को परोक्षत: अपरिहार्य मानती-कहती ही सामाजिककता और वैयक्तिकता को एक-दूसरे का पर्याय पति हैं. यह सनातन सत्य है की समग्रत: न तो पुरुष आततायी है, न स्त्री कुलटा है. दोनों में व्यक्ति विशेष अथवा प्रसंग विशेष में व्यक्ति कदाचरण का निमित्त या दोषी होता है. घटनाओं का सामान्यीकरण बहुधा विवेचना को एकांगी बना देता है. स्वाति इससे बच सकी हैं. वे स्त्री की पैरोकारी करते हुए पुरुष को लांछित नहीं करतीं.
प्रथम कहानी ‘स्त्री मुक्ति का यूटोपिया’ की नायिका के माध्यम से तथाकथित स्त्री-मुक्ति अवधारणा की दिशाहीनता को प्रश्नित करती कहानीकार ‘स्त्री मुक्ति को दैहिक संबंधों की आज़ादी मानने की कुधारणा’ पर प्रश्न चिन्ह लगाती है.
‘रिश्तों के कई रंग’ में ‘लिव इन’ में पनपती अवसरवादिता और दमित होता प्रेम, ‘मृगतृष्णा’ में संबंध टूटने के बाद का मन-मंथन, ‘आजकल’ में अविवाहित दाहिक सम्बन्ध और उससे उत्पन्न सन्तति को सामाजिक स्वीकृति, ‘बंद मुट्ठी’ में आत्मसम्मान के प्रति सचेष्ट माँ और अनुत्तरदायी पुत्र, ‘एक फलसफा जिंदगी’ में सुभद्रा के बहाने पैसे के लिए विवाह को माध्यम बनाने की दुष्प्रवृत्ति, ‘बूँद गुलाब जल की’ में पारिवारिक शोषण की शिकार विमला पाठकों के लिए कई प्रश्न छोड़ जाती हैं. विधवा विमला में बलात गर्भवती कर बेटा ले लेनेवाले परिवार के प्रति विरोधभाव का न होना और सुभद्रा और शीरीन में अति व्यक्तिवाद नारी जीवन की दो अतिरेकी किन्तु यथार्थ प्रवृत्तियाँ हैं.
‘अस्तित्व के लिए’ संग्रह की मार्मिक कथा है जिसमें पुत्रमोह की कुप्रथा को कटघरे में लाया गया है. मृत जन्मी बेटी की तुलना अभिमन्यु से किया जाना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ‘गुलाबी ओढ़नी’ की बुआ का सती बनने से बचने के लिए ससुराल छोड़ना, विधवा सुंदर नन्द को समाज से बहाने के लिए भाभी का कठोर होना और फिर अपनी पुत्री का कन्यादान करना परिवार की महत्ता दर्शाती सार्थक कहानी है.
‘सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है- हम एक खबर की तरह हो गए हैं’, एक ताज़ा खबर कहानी का यह संवाद कैंसरग्रस्त पत्नी से मुक्तिचाहते स्वार्थी पति के माध्यम से समाज को सचेत करती है. ‘अचार’ कहानी दो पिरियों के बीच भावनात्मक जुड़ाव का सरस आख्यान है. ‘आजकल मैं बिलकुल अम्मा जैसी होती जा रही हूँ. उम्र का एक दौर ऐसा भी आता है जब हम ‘हम’ नहीं रहते, अपने माता-पिता की तरह लगने लगते हैं, वैसा ही सोचने लगते हैं’. यह अनुभव हर पाठक का है जिसे स्वाति जी का कहानीकार बयां करता है.
‘ऋतुचक्र’ कहानी पुत्र के प्रति माँ के अंध मोह पर केन्द्रित है. ‘उत्तराधिकारी’ का नाटकीय घटनाक्रम ठाकुर की मौत के बाद, नौकर की पत्नी से बलात-अवैध संबंध कर उत्पन्न पुत्र को विधवा ठकुरानी द्वारा अपनाने पर समाप्त होता है किन्तु कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है. ‘बैंगनी फूलोंवाला पेड़’ प्रेम की सनातनता पर केन्द्रित है. ‘सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है. दोनों वहीं मिलते हैं, बस नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी. कहानी वही होती है. किस्से वही होते हैं.’ साधारण प्रतीत होता यह संवाद कहानी में गुंथकर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है. यही स्वाति की कलम का जादू है.
‘मुट्ठी में बंद चाकलेट’ पीटीआई के प्रति समर्पित किन्तु प्रेमी की स्मृतियों से जुडी नायिका के मानसिक अंतर्द्वंद को विश्लेषित करती है. ‘मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बनकर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा. अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है.’ भाषिक और वैचारिक संयम की तनिक सी चूक इस कहानी का सौन्दर्य नाश कर सकती है किन्तु कहानीकार ऐसे खतरे लेने और सफल होने में कुशल है. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ में नारी के के प्रेम को निजी स्वार्थवश नारी ही असफल बनाती है. ‘स्वयं से किया गया वादा’ में बहु के आने पर बेटे के जीवन में अपने स्थान को लेकर संशयग्रस्त माँ की मन:स्थिति का वर्णन है. ‘चेंज यानी बदलाव’ की नायिका पति द्वारा विव्हेटर संबंध बनने पर उसे छोड़ खुद पैरों पर खड़ा हो दूसरा विवाह कर सब सुख पति है जबकि पति का जीवन बिखर कर रह जाता है. ‘भाग्यवती’ कैशौर्य के प्रेमी को माँ के प्रति कर्तव्य की याद दिलानेवाली नायिका की बोधकथा है. ‘नौटंकीवाली’ की नायिका किशोरावस्था के आकर्षण में भटककर जिंदगीभर की पीड़ा भोगती है किन्तु अंत तक अपने स्वजनों की चिंता करती है. कहानी के अंत का संवाद ‘सुनो, गाँव जाओ तो किसी से मत कहना’ अमर कथाकार सुदर्शन के बाबा भारती की याद दिलाता है जब वे दस्यु द्वारा छलपूर्वक घोडा हथियाने पर किसी से न कहने का आग्रह करते हैं.
स्वाति संवेदनशील कहानीकार है. उनकी कहानियों को पढ़ने-समझने के लिए पाठक का सजग और संवेदशील होना आवश्यक है. वे शब्दों का अपव्यय नहीं करती. जितना और जिस तरह कहना जरूरी है उतना और उसी तरह कह पाती न. उनके पात्र न तो परंपरा के आगे सर झुकाते हैं, न लक्ष्यहीन विद्रोह करते हैं. वे सामान्य बुद्धिमान मनुष्य की तरह आचरण करते हुए जीवन का सामना करते हैं. ये कहानियों पाठक के साथ नवोदित कहानिकारें के सम्मुख भी एक प्रादर्श की तरह उपस्थित होती हैं. स्वाति सूत्रबद्ध लेखन में नहीं उन्मुक्त शब्दांकन में विश्वास रखती है. उनका समग्रतापरक चिंतन कहानियों को सहज ग्राह्य बनाता है. पाठक उनके अगले कहानी संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे ही.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com
***
कविता:
दिया १
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*
दिया २
राजनीति का
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब.
बहुत अँधेरा देखा
दिया एक जलाओ अब..
३-११-२०१०
***

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २०, करवा चौथ, सोरठे, महावीर छंद, उत्प्रेक्षा अलंकार, लघुकथा, दिवाली

सलिल सृजन अक्टूबर २०
*
अनुष्ठान:
लक्ष्मी मंत्र : क्यों और कैसे?
सहस्त्रों वर्ष पूर्व रचित भागवत पुराण के अनुसार कलियुग में एक अच्छा कुल (परिवार) वही कहलाएगा, जिसके पास सबसे अधिक धन होगा। आजकल धन जीवन की आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र नहीं, समाज में सम्मान पाने आधार है। जीवन में सफलता के दो आधार भाग्य और पौरुष हैं। तुलसी 'हुईहै सोहि जो राम रचि राखा / को करि तरक बढ़ावै साखा' के साथ 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा / जो जस करहि सो तस फल चाखा' कहकर इस द्वैत को व्यक्त करते हैं। शास्त्रों में 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति कार्याणि न मनोरथैः / नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुख्य मृगा:' कहकर कर्म का महत्त्व दर्शाया गया है। गीता भी 'कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' अर्थात 'कर्म मात्र अधिकार तुम्हारा, क्या फल होगा सोच न कऱ निष्काम कर्म हेतु प्रेरित करती है।
यह भी देखा जाता है कि भाग्य में धन लिखा है तो किसी न किसी प्रकार मिल जाता है, भाग्य में न हो तो सकल सावधानी के बाद भी सब वैभव नष्ट हो जाता है। सत्य नारायण की कथा के अनुसार अपने पूर्व जन्मों के कर्म का फल भी जीव को भोगना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र तथा धार्मिक कर्मकांड के अनुसार अनेक शास्त्रीय उपाय हैं जिन्हें करने से मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम होता है। ये शास्त्रीय उपाय मंत्र जाप, दान-पुण्य आदि हैं। धनवान बनने हेतु जातक की राशि के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करने से जातक पर धन-वर्षा होकर जीवन से दरिद्रता दूर होती है और वह सुखी बनता है। लक्ष्मी का आशीर्वाद जीवन में धन और खुशहाली दोनों लाते हैं।
मेष राशि- मंगल ग्रह से प्रभावित मेष जातक में कम साधनों में गुजारा करने का गुण नहीं होता। ये हमेशा जीवन से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। मेष जातक को धन हेतु ‘श्रीं’ मंत्र का जाप १०००८ बार करना चाहिए।
वृषभ राशि- परिवार व जीवन के प्रति संवेदनशील वृषभ जातक 'ॐ सर्व बढ़ा विनिर्मुक्तो धन-धान्यसुतान्वित:। मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
मिथुन राशि- दोहरे व्यक्तित्ववाले मिथुन जातक अपनी धुन के पक्के तथा कार्य के प्रति समर्पित होते हैं। इन्हें 'ॐ श्रीं श्रींये नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपनी चाहिए ।
कर्क राशि- परिवार की हर आवश्यकतापूर्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनेवाले कर्क जातक 'ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
सिंह राशि- सम्मान, यश व धन के प्रति बेहद आकर्षित रहनेवाले सिंह जातक 'ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कन्या राशि- समझदार और सभी लोगों को साथ लेकर चलने वाले कन्या जातकों की जीवन के प्रति सोच सरल किन्तु शेष से भिन्न होती है। ये 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी नम:' मंत्र की एक माला नित्य प्रात: जपें।
तुला राशि- समझदार और सुलझे तुला जातक' ॐ श्रीं श्रीय नम:' मंत्र की एक या अधिक माला नित्य जपें।
वृश्चिक राशि- जीवनारंभ में परेशानियाँ झेल, २८ वर्ष के होने तक संपन्न होनेवाले वृश्चिक जातक अधिक उन्नति हेतु 'ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नम:' मन्त्र की एक माला नित्य जपें।
मकर राशि- मेहनती-समझदार मकर जातक जल्दबाजी न कर, हर काम सोच-विचार कर करते हैं। ये ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ह्रीं ॐ सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कुंभ राशि- कुम्भ राशि स्वामी शनि कर्मानुसार फल देने वाला ग्रह है। कुम्भ जातक कर्मानुसार शुभाशुभ फल शीघ्र पाते हैं। इन्हें 'ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्यम्ये ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।' मंत्र की एक माला जाप नित्य जपना चाहिए।
मीन राशि- राशि स्वामी देवगुरु बृहस्पतिधन-धान्य प्रदाता हैं। मीन जातक को ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की दो माला नित्य जपने से फल की प्राप्ति होगी।
***
II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II

नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II

सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत.
शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I
सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II

कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन.
सरे पाप-ताप की हर्ता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I
सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II

सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी.
सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I
मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II

भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया.
सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II

हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा.
योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II

महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा सूक्ष्म-स्थूल.
महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I
परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II

कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे.
जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II

दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया.
जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II

जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र.
पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II

एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल.
पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I
महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II

तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश.
हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं II

तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण.
नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत..

*******************************************
बाल गीत:
अहा! दिवाली आ गयी
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
सॉनेट
दीपांजलि
*
दीपांजलि सत्कार है,
वसुधा प्रमुदित हो कहे,
रश्मि-दीप अनगिन दहे,
दिनकर का आभार है।


किरण किए शृंगार है,
पवन मिलन यादें तहे,
नहीं किसी से कुछ कहे,
ऊषा पर बलिहार है।


प्रकृति प्रणय पटकथा रच,
मौन; मंद मुस्का रही,
मानव कर नित नव सृजन।


है आत्मा की प्रीत सच,
परमात्मा यश गा रही,
चाहे हो पल-पल मिलन।


मुक्तक:
सत्य-शिव-सुंदर अनुसंधान है दीपावली
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली
प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल जीवन हो 'सलिल'
मनुजता को समर्पित विज्ञान है दीपावली
धर्म राष्ट्र विश्व पर अभिमान है दीपावली
प्रार्थना प्रेयर सबद अजान है दीपावली
धर्म का है मर्म निरासक्त कर्म ही सलिल
निष्काम निष्ठा-लगन का सम्मान है दीपावली
पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान है दीपावली
नयन में पलता हसीं अरमान है दीपावली
आन-बान-शान से जीवन जियें हँसकर 'सलिल'
असत पर शुभ सत्य का जयगान है दीपावली
निस्वार्थ सेवा का सतत अभियान है दीपावली
तृषित अधरों की मधुर मुस्कान है दीपावली
सृजित कर कंकर से शंकर जो अचीन्हें रह गए
काय-स्थित ईश्वर कायस्थ है दीपावली
सर्व सुख लिये निज बलिदान है दीपावली
आस्था विश्वास निष्ठा मान है दीपावली
तूफ़ान-तम को जीतता जो 'सलिल' दृढ़ संकल्प से
उसी नन्हें दीप का जयगान है दीपावली
***

२०.१०.२०२५  
***
करवा चौथी सोरठे
चाँद रही है खोज, चंद्रमुखी जा चाँद पर।
करे किस तरह भोज, नहीं गगन में दिखा रहा।।
*
कहे देख लो चाँद, जीवन साथी सिर झुका।
पग-तल नीचे चाँद, चमक गँवा लज्जित हुआ।।
*
तोड़े धरती देख, नई रीत पति व्रत रखे।
तज सिंदूरी रेख, पत्नी जी आशीष दें।।
*
विक्रमनी हैरान, विक्रम उतरा चाँद पर।
मन मसोस मायूस, मिल न सकें नभ फाँद कर।।
*
प्रज्ञानिन हैरान, करवा कैसे बनाए?
बिन पानी प्रज्ञान, व्रत कैसे तुड़वाएगा??
२०.२०.२०२४
***
एक दोहा
पैर जमा ले धरा पर, तब छूना आकाश
मत पतंग; पीपल बनो, खुद को खुदी तराश
२०.१०.२०२१
***
हिन्दी के नए छंद- १४
महावीर छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिणकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद। अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद महावीर
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु गुरु गुरु लघु।
गीत
.
नमस्कार!
निराकार!!
.
रचें छंद
निरंकार।
भरें भाव
अलंकार।
मिटे तुरत
अहंकार।
रहें देव
इसी द्वार।
नमस्कार!
निराकार!!
.
भरें बाँह
हरें दाह।
करें पूर्ण
सभी चाह।
गहें थाह
मिले वाह।
लगातार
करें प्यार
नमस्कार!
निराकार!!
२०-१०-२०१७
***
मुक्तक
आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
२०-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला :
उत्प्रेक्षा अलंकार
*
जब होते दो वस्तु में, एक सदृश गुण-धर्म
एक लगे दूजी सदृश, उत्प्रेक्षा का मर्म
इसमें उसकी कल्पना, उत्प्रेक्षा का मूल.
जनु मनु बहुधा जानिए, है पहचान, न भूल..
जो है उसमें- जो नहीं, वह संभावित देख.
जानो-मानो से करे, उत्प्रेक्षा उल्लेख..
जब दो वस्तुओं में किसी समान धर्म(गुण) होने के कारण एक में दूसरे के होने की सम्भावना की जाए तब वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. सम्भावना व्यक्त करने के लिये किसी वाचक शब्द यथा मानो, मनो, मनु, मनहुँ, जानो, जनु, जैसा, सा, सम आदि का उपयोग किया जाता है.
उत्प्रेक्षा का अर्थ कल्पना या सम्भावना है. जब दो वस्तुओं में भिन्नता रहते हुए भी उपमेय में उपमान की कल्पना की जाये या उपमेय के उपमान के सदृश्य होने की सम्भावना व्यक्त की जाये तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. कल्पना या सम्भावना की अभिव्यक्ति हेतु जनु, जानो, मनु, मनहु, मानहु, मानो, जिमी, जैसे, इव, आदि कल्पनासूचक शब्दों का प्रयोग होता है..
उदाहरण:
१. चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए..
यहाँ श्रीकृष्ण के मुख पर झूलती हुई लटों (प्रस्तुत) में मत्त मधुप (अप्रस्तुत) की कल्पना (संभावना) किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है.
२. फूले कांस सकल महि छाई.
जनु वर्षा कृत प्रकट बुढाई..
यहाँ फूले हुए कांस (उपमेय) में वर्षा के श्वेत्केश (उपमान) की सम्भावना की गयी है.
३. फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन.
फूली रहे तारे मानो मोती अनगन हैं..
४. मानहु जगत क्षीर-सागर मगन है..
५. झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाए.
६. मनु आतप बारन तीर कों, सिमिटि सबै छाये रहत.
७. मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज शोभा.
८. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप, उठे न चलहिं लजाइ.
मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिक-अधिक गुरुवाइ..
९. लखियत राधा बदन मनु विमल सरद राकेस.
१०. कहती हुए उत्तरा के नेत्र जल से भर गए.
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए..
११. उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने लगा.
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा..
१२. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये.
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए..
१३. नित्य नहाता है चन्द्र क्षीर-सागर में.
सुन्दरि! मानो तुम्हारे मुख की समता के लिए.
१४. भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद ऋतु पाइ.
सद्गुरु मिले जाहि जिमि, संसय-भ्रम समुदाइ..
१५. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया।
बीते कल का ये मानो अखबार हो गया।। -श्यामल सुमन
१६. नाना रंगी जलद नभ में दीखते हैं अनूठे
योधा मानो विविध रंग के वस्त्र धारे हुए हैं
१७. अति कटु बचन कहति कैकेई, मानहु लोन जरे पर देई
१८. दूरदर्शनी बहस ज्यों बच्चे करते शोर
'सलिल' न दें परिणाम ज्यों, बंजर भूमि कठोर
***
लघुकथा:
जले पर नमक
*
- 'यार! ऐसे कैसे जेब कट गयी? सम्हलकर चला करो.'
= 'कहते तो ठीक हो किन्तु कितना भी सम्हलकर चलो, कलाकार हाथ की सफाई दिखा ही देता है.'
- 'ऐसा कहकर तुम अपनी असावधानी पर पर्दा नहीं डाल सकते।'
= 'पर्दा कौन कम्बख्त डाल रहा है? जेबकतरे तो पूरी जनता जनार्दन की जेब काट रहे हैं पिछले ६७ सालों से कौन रोक पाया और कौन बच पाया?'
- 'तुम किस की बात कर रहे हो ?'
=' उन्हें की जो चुनाव की चौपड़ पर आश्वासन के पांसे फेंककर जनमत की द्रौपदी का दिल्ली के दरबार में दिन दहाड़े चीरहरण ही नहीं करते, प्यादों को शह देकर दाल, प्याज जैसी चीजों की जमाखोरी कर कई गुना ऊँचे दामों पर बिकवाकर जन गण की जेब कतरते रहते हैं. इतना ही नहीं दु:शासनी जनविरोधी नीतियों के पक्ष में दूरदर्शन पर गरज-गरज कर जन के जले मन पर नमक भी छिड़कते हैं.'
-'तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है .....'
***
लघुकथाः
मुखड़ा देख ले
*
कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी| गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर दो थिगड़े लपेटे कमर मटकाती बंदरिया को ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे|
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुँह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाये तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाये हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| आज प्रैक्टिकल कर रहे हैं कोई कमी रह गयी हो तो बतायें|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
२०-१०-२०१५
***

शनिवार, 16 नवंबर 2024

नवंबर १६, सॉनेट, वेणु, चित्रगुप्त, नवगीत, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, दिवाली, दोहा, पथिक

सलिल सृजन नवंबर १५
*
स्मृति गीत : कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' 
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
'पनिहारिन' पथ विकल हेरती, घर लौटे कर रही दुआ।।
चतुर चितेरा शब्द चित्र गढ़, मढ़ देता था नव रस से।
अलंकार सोपान सतत चढ़, छंद बाँधता था झट से।।
प्यासा चित्त न तृप्त हो रहा, सुख रहा है गीत-कुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।।
'माणिक लाल' सत्य-सत्याग्रह, पथ पर बढ़ा 'मुसाफिर' था।
आजादी था मजहब उसका, प्रेरक 'तरुण जवाहर' था।।
रूखी खा संघर्ष रत रहा, तज सुविधा का मालपुआ।।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
'कृष्ण' दास्तां कारा तोड़े, 'मधुर' स्वप्न आजादी का।
हो साकार कृपालु ईश हो, बाना पहना खादी का।।
धार कलम की मंद न हो, 'कमलेश!' चुगाए गीत-सुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
पढ़े 'पथिक के गीत' समय ने, 'मोर पंख यादों के' ले। 
'अनुपम-अभिनव' 'शोभा' अद्भुत, है 'अनुराग' अनूठा ये।। 
दृढ़ 'अनुरक्ति-अस्मिता' शिक्षा, दंभ-स्वार्थ ने नहीं छुआ।
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
पंक्ति-पंक्ति 'संगीता रच दी, 'नवनीता' अभिव्यक्ति हर एक।
गीति-राज्य 'राजेन्द्र' पथिक की, सृजन-साधना है शुभ-श्रेष्ठ। 
जड़ पत्थर 'संजीव' हुए सुन, गीत गा उठा मूक सुआ। 
गीत पंथ पर अंकित कर पग चिह्न पथिक ही विदा हुआ।
१६.११.२०२४ 
०००
सॉनेट
वेणु
वेणु कृष्ण अधरामृत पीती,
मधुरामृत सब जग को बांटे,
अपना-गैर नहीं वह छांटे,
धुन की पक्की रहे न रीती।
लड़ती नहीं, न हारी-जीती,
सरला, कर संतोष न डांटे,
क्षिप्रा पथ से चुनती कांटे,
वृत्ति सुनीता कहे न बीती।
हरी-भरी थी काट सुखाई,
जला छेद कर बीच बजरिया
बेची गई, न लेकिन रोई।
प्रभु सुमिरन कर पीर भुलाई,
तब प्रभु को प्रिय हुई बँसुरिया,
हरि को पाकर हरि में खोई।
१६.११.२०२३
•••
नीति के दोहे
*
बैर न दुर्जन से करें, 'सलिल' न करिए स्नेह
काला करता कोयला, जले जला दे देह
*
बुरा बुराई कब तजे, रखे सदा अलगाव
भला भलाई क्यों तजे?, चाहे रहे निभाव
*
असफलता के दौर में, मत निराश हों मीत
कोशिश कलम लगाइए, लें हर मंज़िल जीत
*
रो-रो क़र्ज़ चुका रही, संबंधों का श्वास
भूल-चूक को भुला दे, ले-दे कोस न आस
*
ज्ञात मुझे मैं हूँ नहीं, यार तुम्हारा ख्वाब
मन चाहे मुस्कुरा लो, मुझसे कली गुलाब
***
चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आये
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आये
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें आये
***
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
१६.११.२०२०
*
दोहा सलिला
*
रहजन - रहबर रट रहे, राम राम रम राम।
राम रमापति रम रहो, राग - रागिनी राम।।
*
ललित लता लश्कर लहक, लक्षण लहर ललाम।
लिप्त लड़कपन लजीला, लतिका लगन लगाम।।
*
कार्यशाला
अलंकार बताइये
*
अजर अमर अक्षर अजित, अमित असित अनमोल।
अतुल अगोचर अवनिपति, अंबरनाथ अडोल।।
१६-११-२०१९
***
नवगीत
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में
है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में
सत्य नहीं है किसी काम का
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का
समरसता, सद्भाव त्याज्य है
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का
पाल असीमित
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में
चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित
मन अभद्र जो
है तन नागर में
१६-११-२०१९
***
दोहा सलिला
*
मुखड़े को लाइक मिलें, रचना से क्या काम?
भले हुए बदनाम हम, हुआ दूर तक नाम.
*
ले-देकर सुलझा रहे, मंदिर-मस्जिद लोग.
प्रभु के पहले लग रहा, भक्तों को ही भोग.
*
सुमन न देता अंजुमन, कहता लाओ मोल.
चकित हुआ माली रहा, खाली जेब टटोल.
***
मुक्तक
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
***
***
छंद सलिला:
इंद्र वज्रा छंद
*
इस द्विपदिक मात्रिक चतुःश्चरणी छंद के हर पद में २ तगण, १ जगण तथा २ गुरु मात्राएँ होती हैं. इस छंद का प्रयोग मुक्तक हेतु भी किया ज सकता है.
इन्द्रवज्रा एक पद = २२१ / २२१ / १२१ / २२ = ११ वर्ण तथा १८ मात्राएँ
उदाहरण:
१. तोड़ो न वादे जनता पुकारे
बेचो-खरीदो मत धर्म प्यारे
लूटो तिजोरी मत देश की रे!
चेतो न रूठे, जनता न मारे
२. नाचो-नचाओ मत भूलना रे!
आओ! न जाओ, कह चूमना रे!
माशूक अपनी जब साथ में हो-
झूमो, न भूले हँस झूलना रे!
३. पाया न / खोया न / रखा न / रोका
बोला न / डोला न / कहा न / टोंका
खेला न / झेला न / तजा न / हारा
तोडा न / फोड़ा न / पिटा न / मारा
४. आराम / ही राम / हराम / क्यों हो?
माशूक / के नाम / पयाम / क्यों हो?
विश्वास / प्रश्वास / नि:श्वास टूटा-
सायास / आभास / हुलास / झूठा
***
मुक्तक
सूरज आया, नभ पर छाया
धरती पर सोना बिखराया
जग जाग उठा कह शुभ प्रभात
खग-दल ने गीत मधुर गाया
*
पत्ता-पत्ता झूम रहा है
पवन झकोरे चूम रहा है
तुहिन-बिंदु नव छंद सुनाते
शुभ प्रभात कह विहँस जगाते
*
चल सपने साकार करें
पग पथ पर चल लक्ष्य वरें
श्वास-श्वास रच छंद नए
पल-पल को मधुमास करें
१६.११.२०१७
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं
*
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी, छंद विधान- यलग)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
१६.११.२०१६
इस लय पर रचनाओं (सोनेट, मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि) का स्वागत है।
***
कृति चर्चा:
समीक्षा के अभिनव सोपान : नवगीत का महिमा गान
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समीक्षा के अभिनव सोपान, संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, वर्ष २०१४, पृष्ठ १२४, २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण मंडल कोलोनी, होशंगाबाद, चलभाष ९४२५० ४०९२१, संपादक संपर्क- ८/२९ ए शिवपुरी, अलीगढ २०२००१ ]
*
किसी विधा पर केंद्रित कृति का प्रकाशन और उस पर चर्चा होना सामान्य बात है किन्तु किसी कृति पर केन्द्रित समीक्षापरक आलेखों का संकलन कम ही देखने में आता है. विवेच्य कृति सनातन सलिला नर्मदा माँ के भक्त, हिंदी मैया के प्रति समर्पित ज्येष्ठ और श्रेष्ठ रचनाकार श्री गुरुमोहन गुरु की प्रथम नवगीत कृति 'मुझे नर्मदा कहो' पर लिखित समालोचनात्मक लेखों का संकलन है. इसके संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं. युगबोधवाही कृतिकार, सजग समीक्षक और विद्वान संपादक का ऐसा मणिकांचन संयोग कृति को शोध छात्रों के लिये उपयोगी बना सका है.
कृत्यारम्भ में संपादकीय के अंतर्गत डॉ. उपाध्याय ने नवगीत के उद्भव, विकास तथा श्री गुरु के अवदान की चर्चा कर, नवगीत की नव्य परंपरा का संकेत करते हुए छंद, लय, यति, गति, आरोह-अवरोह, ध्वनि आदि के प्रयोगों, चैतन्यता, स्फूर्ति, जागृति आदि भावों तथा जनाकांक्षा व जनभावनाओं के समावेशन को महत्वपूर्ण माना है. नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उद्योगप्रधान नागरिक जीवन की गद्यात्मकता के भीतर जीवित कोमलतम मानवीय अनुभूतियों के छिपे कारणों को गीत के माध्यम से उद्घाटित कर नवगीत आन्दोलन को गति दी. डॉ. किशोर काबरा नवगीत में बढ़ते नगरबोध का संकेतन करते हुए वर्तमान में नवगीतकारों की चार पीढ़ियों को सक्रिय मानते हैं. उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी छ्न्दाश्रित, बीच की पीढ़ी लयाश्रित, नई पीढ़ी लोकगीताश्रित तथा नवागत पीढ़ी लयविहीन नवगीत लिख रही है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है की मैंने लोकगीतों तथा विविध छंदों की लय तथा नवागत पीढ़ी द्वारा सामान्यत: प्रयोग की जा रही भाषा में नवगीत रचे तो डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा इंगित तत्वों को अंतिम कहते हुए कतिपय रचनाकारों ने न केवल उन्हें नवगीत मानने से असहमति जताई अपितु यहाँ तक कह दिया कि नवगीत किसी की खाला का घर नहीं है जिसमें कोई भी घुस आये. इस संकीर्णतावादियों द्वारा हतोत्साहित करने के बावजूद यदि नवागत पीढ़ी नवगीत रच रही है तो उसका कारण श्री गिरिमोहन गुरु, श्री भगवत दुबे, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री किशोर काबरा, श्री राधेश्याम बंधु, कुमार रवीन्द्र, डॉ. रामसनेही लाल यायावर, श्री ब्रजेश श्रीवास्तव जैसे परिवर्तनप्रेमी नवगीतकारों का प्रोत्साहन है.
'मुझे नर्मदा कहो' (५१ नवगीतों का संकलन) पर समीक्षात्मक आलेख लेखकों में सर्व श्री / श्रीमती डॉ. राधेश्याम 'बन्धु', डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. विनोद निगम, डॉ. किशोर काबरा, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. सूर्यप्रकाश शुक्ल, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी, विजयलक्ष्मी 'विभा', मोहन भारतीय, छबील कुमार मैहर, महेंद्र नेह, डॉ. हर्षनारायण 'नीरव', गोपीनाथ कालभोर, अशोक गीते, डॉ. मधुबाला, डॉ. जगदीश व्योम, डॉ. कुमार रविन्द्र, डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, डॉ. शरद नारायण खरे, कृष्णस्वरूप शर्मा, डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, डॉ. विजयमहादेव गाडे, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश श्रीवास्तव, सरिता सुराणा जैन, श्रीकृष्ण शर्मा, राजेंद्र सिंह गहलोत, डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, नर्मदा प्रसाद मालवीय, डॉ. नीलम मेहतो, डॉ. उमेश चमोला, डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. हरेराम पाठक 'शब्दर्षि', रामस्वरूप मूंदड़ा, यतीन्द्रनाथ 'राही', डॉ. अमरनाथ 'अमर', डॉ. ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', डॉ. तिलक सिंह, डॉ. जयनाथ मणि त्रिपाठी, मधुकर गौड़, डॉ. मुचकुंद शर्मा, समीर श्रीवास्तव जैसे सुपरिचित हस्ताक्षर हैं.
डॉ. नामवर सिंह के अनुसार 'नवगीत ने जनभावना और जनसंवादधर्मिता को अपनी अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए वह जनसंवाद धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है.' यह खारापन गुरु जी के नवगीतों में राधेश्याम 'बन्धु' जी ने देखा है. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने गुरु जी के मंगीतों में जीवन की विडंबनाओं को देखा है:
सभा थाल ने लिया हमेशा / मुझे जली रोटी सा
शतरंजी जीवन का अभिनय / पिटी हुई गोटी सा
सदा रहा लहरों के दृग में / हो न सका तट का
गुरु जी समसामयिकता के फलक पर युगीन ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का यथार्थवादी अंकन करने में समर्थ हैं-
सूरज की आँखों में अन्धकार छाया है
बुरा वक्त आया है
सिर्फ भरे जेब रहे प्रजातंत्र भोग
बाकी मँहगाई के मारे हैं लोग
सड़कों को छोड़ देश पटरी पर आया है.
डॉ. किशोर काबरा गुरु जी के नवगीतों में ग्रामीण परिवेश एवं आंचलिक संस्पर्श दोनों की उपस्थिति पूर्ण वैभव सहित पाते हैं-
ढोल की धुन / पाँव की थिरकन / मंजीरे मौन / चुप रहने लगा चौपाल / टेलीविजन पर / देखता / भोपाल
.
डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी इन नवगीतों में सामाजिक विसंगतियों का प्रभावी चित्रण पाती हैं-
बाहर है नकली बहार / भीतर है खालीपन
निर्धनता की भेंट चढ़ गया / बेटी का यौवन
तेल कहाँ उपलब्ध / सब्जी पानी से छौंक रहे
विजयलक्ष्मी 'विभा' को गुरु जी के नवगीतों में अफसरशाही पर प्रहार संवेदनशील मानव के लिए एक चुनौती के रूप में दीखता है-
आओ! प्रकाश पियें / अन्धकार उगलें / साथ-साथ चलें
कुर्सी के पैर बनें / भार वहन करें
अफसर के जूतों की / कील सहन करें
तमतमाये चेहरों को झुकें / विजन झलें
लेखकों ने नीर-क्षीर विवेकपूर्ण दृष्टि से गुरु जी के नवगीतों के विविध पक्षों का आकलन किया है. नवगीत के विविध तत्वों, उद्भव, विकास, प्रभाव, समीक्षा के तत्वों आदि का सोदाहरण उल्लेख कर विद्वान लेखनों और संपादक ने इस कृति को नवगीत लेखन में प्रवेशार्थियों और शोधछात्रों के लिए सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी बना दिया है.
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
***
गीति रचना :
बाद दीपावली के...
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*
***
छंद सलिला:
उपेन्द्र वज्रा
*
इस द्विपदिक मात्रिक छंद के हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७ मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
सरोद सायास गया बजाया
न हाथ रोका नत माथ बोला
तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
हवेलियों ने झुकना न सीखा।
मिटा दिया है सहसा हवा ने-
फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
रखें जमा पैर हटा न पाये-
भले महाकाल हमें मनायें।
१६-११-२०१३

***

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

अक्टूबर ३१, सूर्यमंडलाष्टक, उल्लाला, लघुकथा, स्मरण अलंकार, नर्मदा नामावली, दिवाली, सॉनेट

सलिल सृजन अक्टूबर ३१
*
अभिनव प्रयोग
इतालवी दोहा सॉनेट
सुमनांजलि
*
सुमनांजलि ले सुमन ने, करी सुमन के नाम।
सुरभि सुवासित सुमन की, करे प्राण संप्राण।
ऊँची नाक सुवास को कभी न पाई घ्राण।।
नहीं तौल सकते इसे, चुका न सकते दाम।।
सुमन वाटिका में मिलें सीता से श्री राम।
जनक राज तब पा सके धनु-संकट से त्राण।
हिम्मत हारा दशानन, जैसे हो निष्प्राण।।
जयी काम पर हो गया, वह जो था निष्काम।।
मृदा-बीज से स्वेद मिल, उग अंकुर बन झूम।
नव कोंपल-पत्ता बना, नव आशा की डाल।
तने तने से जुड़ बढ़े, मानो नभ ले चूम।।
कली खिले खिलखिलाकर, भंँवरे करते धूम।
संयम रख प्रभु पर चढ़े, रखें झुकाकर भाल।
प्रेमी से पा प्रेयसी, ले सुमनों को चूम।।
१-११-२०२३
•••
मुक्तिका
मापनी - २१२ २२१ २ २२१ २ १२
*
अंत की चिंता न कर; शुरुआत तो करें
मंज़िलों की चाहतें, फौलाद तो करें
है सियासत को न गम, जनता मरे- मरे
चाह सत्ता की न हो, हालात तो करें
रूठना भी, मानना भी, आपकी अदा
दूरियाँ नजदीकियाँ हों, बात तो करें
वायदों का क्या?, कहा क्या-क्या न याद है
कायदों को तोड़ने, फरियाद तो करें
कौन क्या लाया यहाँ?, क्या ले गया कहो?
कैद में है हर बशर, आज़ाद तो करें
३१-१०-२०२२
***
एक सवैया छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएँ न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
***
मुक्तक
*
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
३१.१०.२०२०
***
एक रचना
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
***
***
छंद कार्यशाला -
२८ वर्णिक दण्डक छंद
विधान - २८ वर्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही
अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई
शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई
भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
३१.१०.२०१९
***
दोहा की दीपावली
*
दोहा की दीपावली, तेरह-ग्यारह दीप
बाल 'सलिल' के साथ मिल, मन हो तभी समीप
*
गो-वर्धन गोपाल बन, करें शुद्ध पय-पान
अन्न-कूट कर पकाकर, खाएँ हो श्री-वान
*
श्री वास्तव में पा सकें, तब जब बाँटें प्रीत
गुण पूजन की बढ़ सके, 'सलिल' जगत में रीत
*
बहिना का आशीष ही, भाई की तकदीर
शुभाशीष पा बहिन का, भाई होता वीर
*
मंजु मूर्ति श्री लक्ष्मी, महिमावान गणेश
सदा सदय हों नित मिले, कीर्ति -समृद्धि अशेष
*
दीप-कांति उजियार दे, जीवन भरे प्रकाश
वामन-पग भी छू सकें, हाथ उठा आकाश
*
दूरभाष चलभाष हो, या सम्मुख संवाद
भाष सुभाष सदा करे, स्नेह-जगत आबाद
*
अमन-चैन रख सलामत, निभा रहे कुछ फर्ज़
शेष तोड़ते हैं नियम, लाइलाज यह मर्ज़
*
लागू कर पायें नियम, भेदभाव बिन मित्र!
तब यह निश्चय मानिए, बदल सकेगा चित्र
*
शशि तम हर उजियार दे, भू को रहकर मौन
कर्मव्रती ऐसा कहाँ, अन्य बताये कौन?
*
यथातथ्य बतला सके, संजय जैसी दृष्टि
कर सच को स्वीकार-बढ़, करे सुखों की वृष्टि
*
खुद से आँख मिला सके, जो वह है रणवीर
तम को आँख दिखा सके, रख दीपक सम धीर
*
शक-सेना को जीत ले, जिसका दृढ़ विश्वास
उसकी आभा अपरिमित, जग में भरे उजास
*
वर्मा वह जो सच बचा लें, करे असत का नाश
तभी असत के तिमिर का, होगा 'सलिल' विनाश
*
हर रजनी दीपावली, अगर कृपालु महेश
हर दिन को होली करें, प्रमुदित उमा-उमेश
*
आशा जिसके साथ हो, होता वही अशोक
स्वर्ग-सदृश सुख भोगता, स्वर्ग बने भू लोक
*
श्याम अमावस शुक्ल हो, थाम कांति का हाथ
नत मस्तक करता 'सलिल', नमन जोड़कर हाथ
*
तिमिर अमावस का हरे, शुक्ल करे रह मौन
दींप वंद्य है जगत में, कहें दूसरा कौन?
३१.१०.२०१६
***
नर्मदा नामावली :
*
सनातन सलिला नर्मदा की नामावली का नित्य स्नानोपरांत जाप करने से भव-बाधा दूर होकर पाप-ताप शांत होते हैं। मैया अपनी संतानों के मनोकामना पूर्ण करती हैं।
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा, शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा।
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला, अमरकंटी शाम्भवी शुभ शर्मदा।।
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी, जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा।
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी, कमलनयना जगज्जननी हर्म्यदा।।
शशिसुता रुद्रा विनोदिनी नीरजा, मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौन्दर्यदा।
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा, नेत्रवर्धिनी पापहारिणी धर्मदा।।
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा, रूपदा सौदामिनी सुख सौख्यदा।
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला, नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा।।
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना, विपाशा मन्दाकिनी चित्रोत्पला।
रूद्रदेहा अनुसुया पय-अम्बुजा, सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा।।
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा, शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा।
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया, वायुवाहिनी ह्लादिनी आनंददा।।
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना, नंदना नम्माडियस भाव-मुक्तिदा।
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा, विराटा विदशा सुकन्या भूषिता।।
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता, मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा।
रतिमयी उन्मादिनी उर्वर शुभा, यतिमयी भवत्यागिनी वैराग्यदा।।
दिव्यरूपा त्यागिनी भयहारिणी, महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा।
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा, कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा।।
तारिणी मनहारिणी नीलोत्पला, क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा।
साधना-संजीवनी सुख-शांतिदा, सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा।।
***
***
अलंकार सलिला: २७
स्मरण अलंकार
*
बीती बातों को करें, देख आज जब याद।
गूंगे के गुण सा 'सलिल', स्मृति का हो स्वाद।।
स्मरण करें जब किसी का, किसी और को देख।
स्मित अधरों पर सजे, नयन अश्रु की रेख।।
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप।
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप।।
जब काव्य पंक्तियों को पढ़ने या सुनने पहले देखी-सुनी वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति की, उसके समान वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति को देखकर याद ताजा हो तो स्मरण अलंकार होता है।
जब किसी सदृश वस्तु / व्यक्ति को देखकर किसी पूर्व परिचित वस्तु / व्यक्ति की याद आती है तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है। स्मरण स्वत: प्रयुक्त होने वाला अलंकार है कविता में जाने-अनजाने कवि इसका प्रयोग कर ही लेता है।
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है।
स्मरण अलंकार सादृश्य (समानता) से उत्पन्न स्मृति होने पर ही होता है। किसी से संबंध रखनेवाली वस्तु को देखने पर स्मृति होने पर स्मरण अलंकार नहीं होता।
स्मृति नामक संचारी भाव सादृश्यजनित स्मृति में भी होता है और संबद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी। पहली स्थिति में स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों हो सकते हैं। देखें निम्न उदाहरण ६, ११, १२।
उदाहरण:
१. देख चन्द्रमा
चंद्रमुखी को याद
सजन आये। - हाइकु
२. श्याम घटायें
नील गगन पर
चाँद छिपायें।
घूँघट में प्रेमिका
जैसे आ ललचाये। -ताँका
३. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है।
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है।
४. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती।
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती।।
५. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा।
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा।।
६. बीच बास कर जमुनहिं आये।
निरखिनीर लोचन जल छाये।।
७. देखता हूँ जब पतला इन्द्र धनुषी हल्का,
रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला।
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
मुझे तब करता अंतर्ध्यान।
८. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरख विमुख लोग
त्यों-त्यों ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है।
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि,
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है।
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बैन
नागर ना चैन परै प्राण अकुलावै है।
थूहर पलास देखि देखि कै बबूर बुरे,
हाय हरे हरे तमाल सुधि आवै है।
९. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी।
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बांकी प्यारी-प्यारी।
१०. सघन कुञ्ज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन व्है जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर।।
११. जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके।
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता।
१२. छू देती है मृदु पवन जो पास आ गाल मेरा।
तो हो आती परम सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
१३. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराए
मुझे तुम याद आये।
जब-जब ये चाँद निकला और तारे जगमगाए
मुझे तुम याद आये।
***
व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*
***
मुक्तक: चाँद
चाँद को केंद्र में रखकर रचिए मुक्तक और लगाइये टिप्पणी में-
*
राकेश खण्डेलवाल
*
प्रज्ज्वलित दीप की चमचमाती विभा, एक पल के लिये आज शरमा गई
हाथ के कंगनों में जड़ी आरसी, दूसरा चाँद लेकर निकट आ गई
व्योम का चाँद छत पर खड़े चाँद को देख कर अपना चेहरा छुपाने लगा
बिम्ब इक चाँद का दूसरे में मिला, ये घड़ी यों सुधा आज बरसा गई
*
संजीव
*
चाँद ने चाँद को देखकर यूँ कहा: 'दाग मुझमें मगर तुम बिना दाग हो.'
चाँद ने सुन कहा: 'आग मुझमें अमित, चाँद! हर ताप लेते, बिना आग हो.'
चाँदनी को दिखे चाँद कुछ झूमते, पूछ बैठी: ' न क्यों केश का लेश है?'
झेंप बोले: 'बना आइना चाँदनी ने सँवारे विहँस मेघ से केश हैं.'
३१-१०-२०१५
***
लघुकथा:
नीले सियार के घर में उत्सव था। उसने अतिउत्साह में पड़ोस के सियार को भी न्योता भेज दिया।
शेर को आश्चर्य हुआ कि उसके टुकड़ों पर पलनेवाला उससे दगाबाजी करनेवाले को आमंत्रित कर रहा है।
आमंत्रित सियार को पिछली भेंट याद आयी. जब उसने विदेश में वक्तव्य दिया था: 'शेर को जंगल में अंतर्राष्ट्रीय देखरेख में चुनाव कराने चाहिए'। सियार लोक में आपके विरुद्ध आंदोलन, फैसले और दहशतगर्दी पर आपको क्या कहना है? किसी ने पूछा तो उसे दुम दबाकर भागना पड़ा था।
'शेर तो शेरों की जमात का नेता है, सियार उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानते' आमंत्रणकर्ता सियार बोला तो केले खा रहे बंदरों ने तुरंत चैनलों पर बार-बार यही राग अलापना शुरू कर दिया।
'हम सियार तो नीले सियार को अपने साथ बैठने लायक भी नहीं मानते, नेता कैसे हो सकता है वह हमारा?' युवा सियार ने पूछा।
'सूरज पर थूकने से सूरज मैला नहीं होता, अपना ही मुँह गन्दा होता है' भालू ने कहा।
'जानवरों के बीच नफरत फ़ैलाने और दूरियाँ बढ़ानेवाले इन बिकाऊ बंदरों पर कार्यवाही हो, बे सर पैर की बातों को चैनलों पर बार-बार दिखाकर खरबों रुपयों का समय और दर्शकों का समय बर्बाद करने का हक़ इन्हें किसने दिया?' भीड़ को गरम होता देखकर बंदर और सियार ने सरकने में ही भलाई समझी।
३१-१०-२०१४
***
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
***
-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*
नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..
जगत-नयन सविते! नमन, रचें-पाल कर अंत.
त्रयी-त्रिगुण के नाथ हे!, विधि-हरि-हर प्रिय कंत..१..
यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..
आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित.
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२..
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..
आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
लो प्रणाम देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३..
यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..
आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित.
सकल तेजमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..४..
यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..
आभा मंडल सूक्ष्मति बोधक, सुधर्मवर्धक पाप विनाशित .
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..
यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..
आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजरित.
भूर्भुवः व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..
आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश-गायित .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..
आभा मंडल सब दिश पूजित, मृत्युलोक को करे प्रभासित.
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८..
यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..
आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाले कर प्रलय-प्रगल्भित.
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९..
यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..
आभा मंडल हरि आत्मा सम, सब जाते जहँ धाम पवित्रित.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..
यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..
आभा मंडल सिद्ध-संघ सम, चारण-भाटों से यश-गायित.
आभा मंडल सुधिजन सुमिरें, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११..
मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..
मण्डलाष्टय पाठ कर, पायें पुण्य अनंत.
पापमुक्त शुद्धतम हो, वर रविलोक दिगंत..
..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं..
..अब श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..
३१-१०-२०१३
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गीत:
दीप, ऐसे जलें...
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दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
३१-१०-२०१३

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