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रविवार, 19 अक्टूबर 2025

हिंदी में तकनीकी शिक्षा

लेख
हिंदी में तकनीकी शिक्षा - क्यों और कैसे?
- संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा वाहक कथ्य की, भाव-तथ्य अनुसार 
शिशु माँ की भाषा समझ, करता है व्यवहार  

            मनोवैज्ञानिकों के अनुसार नवजात शिशु अक्षर, अंक, लिपि आदि का विधिवत ज्ञान न होते हुए भी माँ की कही बात न केवल समझ लेता है अपितु लंबे समय तक याद भी रखता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है।इसका प्रमाण अभिमन्यु को गर्भ-काल में  पिता द्वारा दिया  गया चक्रव्यूह प्रवेश का ज्ञान स्मरण रहने का दृष्टांत है। भाषा वाचक के कथ्य को श्रोता तक पहुँचाने का माध्यम होती है। सामान्यत: आप जिस भाषा को जानते हैं उसमें विषय या कथ्य को आसानी से समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे? अपवादों को छोड़कर किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
शिक्षा हेतु मातृ भाषा सर्वोत्तम 
            संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नत देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं। पराधीनता-काल में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया। 

            इस संदर्भ में एक प्रसंग यह है कि दक्षिण भारत के राजा कृष्ण देव राय के दरबार में पड़ोस के राज्य से एक विद्वान आया जो अनेक भाषाएँ धाराप्रवाह तथा शुद्ध बोलता-लिखता था। उसने चुनौती दी कि राज दरबार के विद्वान उसकी मातृभाषा बताएँ अथवा पराजय स्वीकार करें। कोई दरबारी यह गुत्थी सुलझा नहीं सका तो राजा ने अपने श्रेष्ठ विद्वान तेनालीराम से राज्य की प्रतिष्ठा बचाने का अनुरोध किया। तेनालीराम ने अगले दिन उत्तर देने का वचन दिया। दरबार समाप्त होने के बाद वह विद्वान अपने कक्ष में विश्राम हेतु गया तो सेवकों ने तेनालीराम के निर्देश अनुसार सोते समय उस पर गरम पानी गिर दिया, वह हड़बड़ कर उठा और सेवकों को फटकारने लगा। सेवकों ने क्षमा माँग ली। अगले दिन दरबार में तेनालीराम ने भरे दरबार में अतिथि विद्वान की मातृ भाषा बता दी। अतिथि ने जानना चाहा कि तेनालीराम ने कैसे सही उत्तर का पता लगाया। तेनालीराम ने कहा कि व्यक्ति बिना विचारे मातृ भाषा में ही बोल सकता है, सोते समय अचानक गर्म पानी गिरने पर व्यक्ति को सोचने का समय ही नहीं मिलता और उसके मुँह से केवल मातृ भाषा ही निकल सकती है। अतिथि ने हार मान ली। 

हिंदी में तकनीकी शिक्षा- मध्य प्रदेश प्रथम राज्य 

            स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के द्रुत विकास के लिए बड़ी संख्या  में अभियंताओं, चिकित्सकों तथा वैज्ञानिकों आदि की आवश्यकता हुई। सरकार ने उच्च तकनीकी शिक्षा हेतु शिक्षा संस्थान आरंभ किए किंतु उनमें से अधिकांश में अंग्रेजी माध्यम में अध्यापन, अंग्रेजी की किताबें तथा परीक्षा में अंग्रेजी में ही उत्तर लिखने की बाध्यता के कारण सामान्य पृष्ठभूमि के शहरी-ग्रामीण तथा आदिवासी छात्र बार-बार असफल होकर हौसला हार बैठे। कई ने आत्म हत्या तक कर ली, जो उत्तीर्ण भी हुए वे कम अंकों के कारण व्यवसाय में सफल नहीं हुए। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें ग्रामीण पृष्ठ भूमि के छात्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। उच्च तकनीकी शिक्षा मातृ भाषा में देने की माँग होने पर सरकार ने हिंदी में उच्च तकनीकी शिक्षा देने की नीति बनाई। मध्य प्रदेश अभियांत्रिकी और चिकित्सा शिक्षा हिंदी में देने वाला प्रथम राज्य बना। 

तकनीकी विषयों की भाषा कैसी हो?

             इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेजों में हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित भाषा में अध्यापन होने लगा, प्रश्न पत्र दोनों भाषाओं में आने लगे तथा विद्यार्थी को हिंदी या/और अंग्रेजी में उत्तर लिखने की सुविधा मिली। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने इंजीनियरिंग तथा मेडिकल की किताबें हिंदी में अनुवादित कराकर तथा लिखवाकर इंजीनियारिंग में डिप्लोमा, बी.टेक./एम.टेक., एम.बी.बी.एस. आदि में हिंदी में अध्ययन-अध्यापन करना संभव कर दिया किंतु हिन्दीकरण करते समय शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाने के कारण ये किताबें विद्यार्थियों को विषय का ज्ञान सरलता से कराने के उद्देश्य में असफल हुईं। इनमें संस्कृत निष्ठ शब्दों के अत्यधिक प्रयोग ने जटिल विषयों को और अधिक कठिन बना दिया। परिभाषिक शब्दों की भिन्नता के कारण हिंदी माध्यम से उत्तीर्ण छात्रों के लिए अन्य राज्यों में हो रही संगोष्ठियों में सहभागिता तथा रिक्त स्थानों के लिए हो रहे साक्षात्कारों में चयन की संभावना न्यूनतम कर दी है। इंडियन जिओ-टेक्निकल सोसायटी के जबलपुर चैप्टर चेयरमैन के नाते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों के छात्रों और प्राध्यापकों के साथ निरंतर संपर्क में मैंने पाया कि हिंदी की रोजगार -क्षमता से वे पूरी तरह अपरिचित हैं। यह मिथ्या धारणा कि हिंदी माध्यम से पढ़ने से रोजगार मिलने में कठिनाई होगी फैलने का कारण हिंदी माध्यम की पुस्तकों की भाषा तकनीकी न होकर साहित्यिक होना ही है।  

तकनीकी शब्दकोश 

            विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्याओं का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है। ऐसी समस्याओं का एक मात्र समाधान विषय/शाखा वार ऐसा तकनीकी शब्द कोश बनाया और प्रचलित किया जाना है जिसमें आम जन जीवन में प्रचलित शब्दों को अधिकतम ग्रहण किया जाए, नए शब्द केवल तब ही बनाए जाएँ जब उनका कोई पर्याय लोक में प्रचलित ना हो। अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के जन सामान्य में प्रचलित शब्दों को यथावत लिया जाकर देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो छात्रों को सैंकड़ों शब्दों की स्पेलिंग रटने से मुक्ति मिलेगी। सीमेंट, आर.सी.सी., मशीन, मोटर, स्टेशन, मीटर जैसे लोक-प्रचलित शब्दों का अनुवाद न कर इन्हें  यथावत प्रयोग किया जाना चाहिए। 

हिंदी व भारतीय भाषाएँ अनिवार्य हो अंग्रेजी वैकल्पिक  

            तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, इंडियन अर्थक्वैक सोसायटी, इंडियन रोड कॉंग्रेस, इंडियन बार काउंसिल आदि ऐसी संस्थाएँ हैं जहाँ हिंदी या ने भारतीय भाषाओं का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर भी, सभी महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेजी में किया जाता है। इन संस्थाओं में सभी तकनीकी विमर्श केवल अंग्रेजी में होता है। अंग्रेजी को कार्य कुशलता का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, हिंदी भाषी ग्राहक को भी इंजीनियर और आर्किटेक्ट मूल्यानुमान पत्रक (एस्टिमेट) अंग्रेजी में देता है, हिंदी भाषी मरीज को डॉक्टर दवाई का पर्चा अंग्रेजी में लिखता है। हद यह है कि कई बार अंग्रेजी न पढ़ पाने के करण मेडिकल स्टोर से गलत दवाई दे दी या मरीज दवाई के सेवन संबंधी निर्देश समझ न सके और गलत समय या मात्रा में दवाई खा ली तो मरीजों की जान पर बन आई। कुछ सरकारों ने हिंदी में दवाइयों के नाम लिखने हेतु दवा निर्माताओं तथा डॉक्टरों को निर्देश दिए हैं किंतु उनका पालन नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी पाठ को मानक और हिंदी पाठ को केवल अनुवाद कहा जाता है। इस दिशा में प्रभावी कदम तत्काल आवश्यक है। तकनीकी उत्पाद, यंत्र, निर्माण सामग्री आदि के निर्माताओं को भी उत्पाद तथा प्रचार सामग्री पर हिंदी व अन्य स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करने हेतु कानून बनाकर सख्ती से लागू किए जाने चाहिए। 

देशज तकनीकी शब्द 

                भारत में विश्व की सर्वाधिक प्राचीन और उन्नत संस्कृति रही है। भारत की प्राचीन यांत्रिकी संरचनाओं को देखकर आज भी लोग दाँतों तले अँगुली दबाने के लिए विवश हो जाते हैं। इन निर्माण कार्यों में से कई सैंकड़ों वर्षों बाद भी यथावत हैं। अनेक मंदिर, किले, मीनारें, महल, पल, बाँध आदि भारतीय अभियांत्रिकी की श्रेष्ठता के जीवंत उदाहरण हैं। इन इमारतों को बननेवाले कारीगर अंग्रेजी नहीं जानते, वे निर्माण कार्य की प्रक्रिया और सामग्री के लिए देशज शब्दों का प्रयोग करते हैं। म्यारी (बीम), बड़ेरी (रैफ्टर), कैंची (टीआरएस), मलगा , कवेलू -खपरे (टाइल्स), फर्श (फ्लोर), दीवाल (वाल), ईंट (ब्रिक), गारा (मॉर्टर), गिट्टी (एग्रीगेट), रेत (सैंड), मिट्टी (सॉइल), धूल (सिल्ट), सरिया (बार), तसला (हाड), गेंती (पीक एक्स), फावड़ा (हो), सब्बल (शॉवल), रंदा (प्लेनिंग मशीन), वसूला (ऐडज), हथौड़ी (हैमर), गज, साहुल (प्लमबाब), कुर्सी (प्लिन्थ), परछी (वरांडा), आँगन (कोर्ट यार्ड), बाड़ी (फेंसिंग)  आदि अनगिनत शब्द ग्राम्य अंचलों में मिस्त्री, बढ़ई, कारीगर आदि प्रयोग करते हैं। पुल निर्माण कार्य करवाते समय मैंने पाया है कि लोहा बाँधने वाले कारीगरों का दल अल्प शिक्षित होने पर भी ड्राइंग को अच्छी तरह समझ कर लोहा सही-सही बाँधता है। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कार्य करते आते हैं और काम संबंधी पूरी बात-चीत अपनी बोली में करते हैं। अयोध्या के राम मंदिर का कार्य भी ऐसे ही पारंपरिक कारीगरों के दल ने पूर्ण किया है। ये कारीगर आपस में अंग्रेजी के शब्द जाने बिना देशज शब्दों का प्रयोग करते हैं। तकनीकी शब्द कोशों में ऐसे शब्दों को प्रमुखता दी जानी चाहिए जो जन सामान्य में प्रचलित हैं। 

हिंदी स्वतंत्र भाषा 

                हिंदी का अत्यधिक संस्कृतीकरण किया जाना हिंदी के विकास में बाधक है। हिंदी स्वतंत्र भाषा है। उसका अपना व्याकरण, पिंगल शास्त्र और हर सृजन विधा की समृद्ध विरासत है। भाषाशास्त्री मानते हैं कि हिंदी का उद्भव अपभ्रंश से है, संस्कृत से नहीं किंतु संस्कृत को समस्त भाषाओं की जननी घोषित करने के कारण द्रविड भाषाएँ बोलनेवालों ने संस्कृत के साथ हिंदी का भी विरोध आरंभ कर दिया है। राजनैतिक कारणों से गठित प्रदेशों में उनके नाम के आधार पर ऐसी भाषाओं को राजभाषा घोषित कर दिया गया है जो राज्य गठन से पहले अस्तित्व में ही नहीं थी। राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी ऐसी ही भाषाएँ हैं। इस नीति के कारण इन राज्यों में पूर्व प्रचलित बोलियों (मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावटी, हाड़ौती, हलबी, गोंड़ी , भीली, सरगुजिहा आदि) के समक्ष अस्तित्व का संकट है। साहित्यकार इन बोलियों में निरंतर रचनाकर्म कर रहे हैं पर शासन इन्हें अमान्य कह रहा है। 

हिंदी की रोजगार क्षमता 

                हिंदी की अवहेलना का आरोप युवा पीढ़ी पर लगाया जाता है किंतु यह भुला दिया जाता है की पूर्व में शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य गया वर्धन था जबकि इस पीढ़ी को शिक्षा पाने का उद्देश्य पैरों पर खाद्य होना अर्थात आजीविका अर्जन करना बताया गया है। इसलिए युवा वही भाषा पढ़ेगा जिसमें रोजगार प्राप्ति  में सहायक किताबें उपलब्ध हों। हिंदी उत्पादक-विक्रेता तथा ग्राहक की संपर्क भाषा है यह उसकी रोजगार सामर्थ्य है। जैसे ही हर विषय/शाखा की जन सामान्य में प्रचलित भाषा में तकनीकी किताबें प्रचुर संख्या में उपलब्ध होंगी वैसे ही हिंदी की रोजगार परकता में कल्पनातीत वृद्धि होगी। इस दिशा में हिंदी पत्रिकाओं की भी महती भूमिका है। 

हिंदी पर गर्व 

                हिंदी को मातृ भाषा मानते हुए उस पर गर्व करने के साथ-साथ दैनिक जीवन में अधिकतम प्रयोग करने की दिशा में जन सामान्य को सचेष्ट होना होगा। लोकतंत्र में तंत्र की मंशा न होने पर भी लोकमत का अपना महत्व होता है। जन सामान्य अपनी नाम पट्टिका, हस्ताक्षर तथा लेखन कार्य हिंदी और देवनागरी में करे तो शासन-प्रशासन को भी हिंदी का प्रयोग बढ़ाना होगा। हिंदी के साथ भारतीय बोलिओं और भाषाओं में भाषांतरण, अनुवाद तथा लिप्यंतरण का कार्य निरंतर किया जाना चाहिए। धार्मिक तथा सांस्कृतिक अनुष्ठानों में पूजन आदि हिंदी में हो ताकि सुननेवाले समझ सकें कि क्या कहा जा रहा है? यह समझना होगा कि हिंदी का समर्थन अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा का विरोध कदापि नहीं है। 
००० 
संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४  

 

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

लेख, दोहा है रस-खान

लेख
दोहा है रस-खान
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दोहा छंद की भावाभिव्यक्ति क्षमता अनुपम है। हर रस को दोहा छंद भली-भाँति अभिव्यक्त करता है। हर दिन एक नए रस को केंद्र में दोहा रखकर दोहा रचने का आनंद अनूठा होगा। मैं आज रात्रि से १५ फरवरी तक रायपुर छतीसगढ़, दिल्ली तथा गुडगाँव यात्र्रा पर रहूँगा। यथावसर आप सबसे कुछ सीखता रहूँगा किंतु सुविधा न होने पर आप अपने दोहे प्रस्तुत करते रहें ताकि लौटकर उनका रसास्वादन कर सकूँ।
श्रृंगार रस
रसराज श्रृंगार रसराज अत्यंत व्यापक है। श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर। 'श्रृंग' का अर्थ है "कामोद्रेक", 'आर' का अर्थ है वृद्धि प्राप्ति। श्रृंगार का अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव प्रेम है। पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका द्वारा प्रेम की अभिव्यंजना श्रृंगार रस की विषय-वस्तु है। प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहा है। परकीया प्रिया-चित्रण को रस नहीं रसाभास कहा गया है किंतु 'लिव इन' के इस काल में यह मान्यता अनुपयुक्त प्रतीत होती है। श्रृंगार रस में अश्लीलता का समावेश न होने दें। श्रृंगार रस के २ भेद संयोग और वियोग हैं। प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है, कष्टों में पलता है, प्रिय के प्रति कल्याण-भाव रखकर खुद कष्ट सहता है। ऐसा प्रेम ही उदात्त श्रृंगार रस का विषय बनता है।
३-३-२०१८ संयोग श्रृंगार:
नायक-नायिका के मिलन, मिलन की कल्पना आदि का शब्द-चित्रण संयोग श्रृंगार का मुख्य विषय है।
उदाहरण:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर।
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर। - अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
नयन नयन से मिल झुके, उठे मिले बेचैन।
नयन नयन में बस गए, किंचित मिले न चैन।। - संजीव
४-३-२०१८ वियोग श्रृंगार:
नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो तो वियोग श्रृंगार होता है। यह अलगाव स्थाई भी हो सकता है, अस्थायी भी। कभी मिले बिना भी विरह हो सकता है, मिल चुकने के बाद भी हो सकता है। विरह व्यथा दोनों और भी हो सकती है, एक तरफा भी। प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
१. पूर्व राग पहले का आकर्षण
२. मान रूठना
३. प्रवास छोड़कर जाना
४. करुण विप्रलंभ मरने से पूर्व की करुणा।
उदाहरण:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल। ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल।। - चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
मन करता चुप याद नित, नयन बहाते नीर।
पल-पल विकल गुहरातीं, सिय 'आओ रघुवीर'।। - संजीव
५-३-२०१८ हास्यः
हास्य रस का स्थाई भाव 'हास्य 'है। साहित्य में हास्य रस का निरूपण कठिन होता है,थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक बनकर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए। हास्य और व्यंग्य में अंतर है। दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है। हास्य खिलखिलाता है, व्यंग्य चुभकर सोचने पर विवश करता है।
उदाहरण:
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज।
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।। - काका हाथरसी
'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश।
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश।। - संजीव
व्यंग्यः
उदाहरण:
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच। ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच।। - जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क।
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'।। - संजीव
७-३-२०१८ करुणः
भवभूति: 'एकोरसः करुण' अर्थात करूण रस एक मात्र रस है। करुण रस के दो भेद स्वनिष्ठ व परनिष्ठ हैं।
उदाहरण:
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट। ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट।। - डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
चीर द्रौपदी का खिंचा, विदुर रो रहे मौन।
भीग रहा है अंगरखा, धीर धराए कौन?। - संजीव
८-३-२०१८ रौद्रः
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण:
आगि आँच सहना सुगम, सुगम खडग की धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्यवहार।। -कबीर
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश। ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।। - संजीव
९-३-२०१८ वीरः
स्थाई भाव उत्साह काव्य-वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस अवस्था में आस्वाद योग्य बनकर वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्य चार प्रवृत्तियाँ हैं।
उदाहरण:
१.दयावीर: जहाँ दुखी-पीड़ित जन की सहायता का भाव हो।
देख सुदामा दीन को, दुखी द्वारकानाथ।
गंगा-यमुना बह रहीं, सिसकें पकड़े हाथ।। -संजीव
२. दानवीर : इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता होना अनिवार्य है।
उदाहरण:
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घटो, जो भृगु मारी लात।।
राणा थे निरुपाय झट, उठकर भामाशाह।
चरणों में धन रख कहें, नाथ! न भरिए आह।। - संजीव
३. धर्मवीर : इसके स्थाई भाव में धर्म का ज्ञान प्राप्त करना या धर्म-पालन करना प्रमुख है।
उदाहरण:
माया दुःख का मूल है, समझे राजकुमार।
वरण किया संन्यास तज, प्रिया पुत्र घर-द्वार।। - संजीव
4 युद्धवीर : काव्य व लोक में युद्धवीर की प्रतिष्ठा होती है। इसका स्थाई भाव 'शत्रुनाशक उत्साह' है।
उदाहरण:
रणभेरी जब जब बजे, जगे युद्ध संगीत। ‌
कण कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत।। - डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
धवल बर्फ हो गया था, वीर-रक्त से लाल।
झुका न भारत जननि का, लेकिन पल भर भाल।। -संजीव
१०-३-२०१८ भयानकः
विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के प्रयोग से जब भय उत्पन्न या प्रकट होकर रस में परिणत हो तब भयानक रस होता है। भय केवल मनुष्य में नहीं, समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
उदाहरण:
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश। ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।। - आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
धांय-धांय गोले चले, टैंक हो गए ध्वस्त।
पाकिस्तानी सूर्य झट, सहम हो गया अस्त।। -संजीव
११-३-२०१८ वीभत्सः
घृणित वस्तुओं को देख, सुन जुगुप्सा नामक स्थाई भाव विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व हो वीभत्स रस में परिणत हो जाता है। इसकी विशेषता तीव्रता से प्रभावित करना है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है। इसके आलंबन दुर्गंध, मांस-रक्त है, इनमें कीड़े पड़ना उद्दीपन, मोह आवेग व्याधि ,मरण आदि व्यभिचारी भाव है, अनुभाव की कोई सीमा नहीं है। वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि, अपशब्द, निंदा करना आदि, कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना , थूकना, आँखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना आदि हैं।
उदाहरण:
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। - संजीव
१२-३-२०१८ अद्भुतः
अद्भुत रस के स्थाई भाव विस्मय में मानव की आदिम वृत्ति खेल-तमाशे या कला-कौशल से उत्पन्न विस्मय उदात्त भाव है। ऐसी शक्तियां और व्यंजना जिसमें चमत्कार प्रधान हो वह अद्भुत रस से संबंधित है। अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार कोके क्रिया-कलापों के आलंबन से प्रकट होता है। उनके अद्भुत व्यापार, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन बनती हैं। आँखें खुली रह जाना, एकटक देखना प्रसन्नता, रोमांच, कंपन, स्वेद आदि अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति, गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता आदि संचारी भाव धारणकर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
उदाहरण:
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ।
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार।। -डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
पल में प्रगटे सामने, पल में होता लुप्त।
अट्टहास करता असुर, लखन पड़े चित सुप्त।। - संजीव
१३-३-२०१८ शांतः
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव व वैराग्य से होती है। विभाव, अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणित हो जाता है। आनंदवर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव कहा है। वैराग्यजनित आध्यात्मिक भाव शांत रस का विषय है संसार की अवस्था मृत्यु-जरा आदि इसके आलंबन हैं। जीवन की अनित्यता का अनुभाव, सत्संग-धार्मिक ग्रंथ पठन-श्रवण आदि उद्दीपन विभाव, और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव हैं। शांत रस के संचारी में ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है।
उदाहरण:
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान। ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान।। - स्व. डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
कल तक था अनुराग पर, उपजा आज विराग।
चीवर पहने चल दिया, भिक्षुक माया त्याग।। - संजीव
१४-३-२०१८ वात्सल्यः
वात्सल्य रस के प्रतिष्ठा विश्वनाथ ने की। सूर, तुलसी आदि के काव्य में वात्सल्य भाव के सुंदर विवेचन पश्चात इसे रस स्वीकार कर लिया गया। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सलता है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियाँ, लीलाएँ उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हँसना, उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं। आवेग, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद आदि संचारी भाव हैं।वात्सल्य रस के दो भेद हैं।
१ संयोग वात्सल्य
उदाहरण:
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। ‌
पिला रही पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।। - संजीव
२ वियोग वात्सल्य
उदाहरण:
चपल छिपा कह खोज ले, मैया करें प्रतीति।
लाल कंस को मारकर, बना रहा नव रीति।। - संजीव
१५-३-२०१८ भक्तिः
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की सत्ता स्वतंत्र रूप से नहीं है। मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया। इस रस का संबंध मानव उच्च नैतिक आध्यात्मिकता से है।इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है। भगवान के प्रति समर्पण, कथा श्रवण, दया आदि उद्दीपन विभाव है। अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि हैं। अनेक कायिक, वाचिक, स्वेद आदि अनुभाव हैं। संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य, संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं।इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है |
उदाहरण:
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड। ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड।। - भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", गोहा कुंज
चित्र गुप्त है नाथ का, सभी नाथ के चित्र।
हैं अनाथ के नाथ भी, दीं जनों के मित्र।।
***
करती है तकरार, पर चाह रही मनुहार।
'सलिल' सनातन प्यार, श्वास-आस में पल रहा।।
***

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

जगती छंद, शर्करी छंद, लेख, हिंदी, नवगीत, कुण्डलिया, दोहा,

 

बारह वार्णिक जगती जातीय छंद
*
विद्याधरी
विधान - म म म म।
*
आजा मैया, दे दे छैंया, कैंया ले ले।
राधा-कान्हा, गोपी ग्वाले, तूने पाले।।
क्यों है रूठी?, झूठा-झूठी, लोरी भूली-
माटी प्यारी, सच्ची न्यारी, बच्चे खेले।।
*
चन्द्रवर्त्म
विधान - र न भ स।
देश को नमन, लोग मिल करें।
द्वेष का शमन, आप-हम करें।।
साथ हो चरण, साथ कर रहे-
देश में अमन, मीत सब करें।।
*
सारंग
विधान - त त त त।
बागी सुता आसमां तात नाराज।
भागा उषा को लिए सूर्य खो लाज।।
माता धरा ने लिया मान दामाद-
गाते पखेरू विदा गीत ले साज।।
*
इन्द्रवंशा
विधान - त त ज र।
बाती जली श्रेय कभी नहीं मिला।
पूजा गया दीप करे नहीं गिला।।
ऊँचा रखें शीश इमारतें सदा-
ढोती रही भार कहे नहीं शिला।।
तामरस
विधान - न ज ज य।
दिलवर है दिलदार पुकारा।
मधुवन में रच रास निहारा।
नटखट वेणु बजाकर छेड़े-
जब-सखि रूठ गई मनुहारा।।
कुसुमविचित्रा
विधान - न य न य।
लख कलियों को मधुकर झूमे।
निलज न माने; जब मन चूमे।।
उपवन जाने यह हरजाई-
तन-मन काला; मति भरमाई।।
मालती / यमुना
विधान - न ज ज र।
कृषक धरे धरना न मानते।
सच कहते डरना न जानते।।
जनमत को सरकार मान ले-
अड़कर रार न व्यर्थ ठानते।।
तरलनयन
विधान - न न न न।
कलरव कर खग प्रमुदित।
नभ पर रवि विहँस उदित।।
सलिल सुमन सु-मन सहित-
सुखद पवन प्रवह हँसित।।
*
तेरह अक्षरी जगती जातीय छंद
माया
विधान - म त य स ग। यति - ४-९।
पौधा रोपा; जो तरु होगा फल देगा।
पानी सींचो; आज न दे तो कल देगा।।
बागों में जो; फूल खिलें तो तितली भी-
नाचें भौरों संग विधाता हँस देगा।।
*
विलासी
विधान - म त म म ग। यति - ५-३-५।
तोड़ेंगे तारे; न हारें; मोड़ेंगे राहें।
पूरी होंगी ही; हमारी; जी चाही चाहें।।
बाधाएँ आएँ, न हारें, जीतेंगे बाजी-
जीतें या हारें; न भागें; जूझेगी बाहें।।
*
कंदुक
विधान - य य य य ग।
कहो बात सच्ची इरादे न भूलो रे।
करो कोशिशें भी; मुरादें न भूलो रे।।
सदा साथ दे जो उसीको पुकारो रे -
नहीं भाग्य को रो; उठो आ सँवारो रे।।
*
राधा
विधान - र त म य ग। यति - ८-५।
वायवी वादे तुम्हारे; झूठ हैं प्यारे।
ख्वाब की खेती समूची; लूट है प्यारे।।
'एकता' नारा लगाया; स्वार्थ साधा है-
साध्य सत्ता हेतु डाली; फूट है प्यारे।।
*
रुचिरा / प्रभावती
विधान - ज भ स ज ग। यति - ४-९।
रुको नहीं; पग पथ पे धरे चलो।
झुको नहीं; गिर-उठ के बढ़े चलो।।
कहे धरा; सुख-दुःख को सही चलो-
बनो नदी; कलकल गा बहे चलो।।
*
कंजअवलि
विधान - भ न ज ज ल।
हों कृषक भटकते पथ पे जब।
हों श्रमिक अटकते मग पे जब।।
तो रचकर कविता कह दे सच-
क्यों डर कवि चुप है?; लड़ जा अब।।
*
पुष्पमाला
विधान - न न र र ग। यति - ९-४।
नवल सुमन ले बना; पुष्पमाला।
प्रभु-पग पर दे चढ़ा, पुष्पमाला।।
स्तुति कर तू भुला; छोड़ निंदा -
कवि रच कविता बना; पुष्पमाला।।
*
१४ मात्रिक शर्करी जातीय छंद
वासंती
विधान - म त न म ग ग। यति - ६-८।
होता भ्रष्टाचार; कर रहे दागी नेता।
पाने सत्ता रोज; बन रहे बागी नेता।।
झूठी बातें बोल; ठग रहे हैं लोगों को -
डाकू जैसा चाल-चलन है ढोंगी नेता ।।
*
असंबाधा
विधान - म त न स ग ग। यति - ५-९।
राधा को देखा; झट किशन चला आया ।
कालिंदी तीरे; झटपट न दिखा आया।।
पेड़ों के पीछे; छिप नटखट गुर्राया-
चीखी थी राधा; डर- नटवर मुस्काया।।
*
मंजरी
विधान - स ज स य ल ग। यति - ५-९।
लिखना नहीं; वह जिसे नहीं जानते।
करना नहीं; वह जिसे नहीं मानते।।
कहना नहीं; मन जिसे नहीं चाहता-
मिलता नहीं, तुम जिसे नहीं ठानते।।
*
मंगली
विधान - स स ज र ल ग। यति - ३-६-५।
चल आ; हम साथ-साथ; बाग़ में चलें।
सपने; नव साथ-साथ; आँख में पलें।।
नपने; सब जान-मान; छंद मंगली-
रच दें; पढ़ सीख-सीख; आप भी लिखें।।
*
अनंद
विधान - ज र ज र ल ग।
जहाँ नहीं विचार हों समान; दूर हों।
करें नहीं विवाद आप; व्यर्थ सूर हों।।
रुचे न बात तो उसे भुला हुजूर दें-
न लें सखा उधार; लें चुका जरूर दें ।।
*
इन्दुवदना
विधान - भ ज स न ग ग।
इन्दुवदना विहँस मीत-मन मोहे।
चैन हर ले; सलज प्रीत कर सोहे।।
झाँक नयना नयन में हिचकिचाते-
प्रीत गगरी उलटती; रस बहाते।।
*
अपराजिता
विधान - न न र स ल ग। यति - ७-७।
निरख-परख बात को कहिए सदा।
दरस-परस मौन हो करिए सदा।।
जनगण-मन वृत्ति हो अपराजिता-
अमन-चमन में रखे रहिए सदा।।

२३.१२.२०२०

***

षट्पदी

*
बाँचे कोई तो कभी, अपना लिखा कवित्त।
खुद को कविवर समझकर, खुश हो जाता चित्त।।
खुश हो जाता चित्त, मित्त तालियाँ बजाते।
सुना-दिखाकर कलाकार, रोटियाँ कमाते।।
रुष्ट 'सलिल' कविराय, थमाकर नोटिस नाचे।
करे कमाई वकील, पिटीशन लिखकर बाँचे।।
***
क्षणिका
मैं बोला- आदाब!
वे समझीं- आ दाब।
खाना हुआ खराब
भागा तुरत जनाब
***
गीत -
*
नए साल में
हर दिन देना
बिना टैक्स
मुस्कान नयी तुम
*
हुई नोट-बंदी तो क्या गम?
बिन नोटों के नैन लड़ा लें.
क्या जानें राहुल-मोदीजी
हम बातों से क्या सुख पालें?
माया, ममता, उमा न जानें
द्वैत मिटाया जाता कैसे?
गहें हाथ में हाथ, साथ रह
हम कुटिया में महल बसा लें.
हर दिन मुझको
पडीं दिखाई
नव सद्गुण की
खान नयी तुम
*
यह मुस्कान न काली होती
यह मुस्कान न जाली होती
अधरों की यह शान सनातन
कठिनाई में खुशियाँ बोती
बेच-खरीद न सकता कोई
नहीं जमाखोरी हो सकती
है निर्धन का धन, जाड़े में
ज्यों चैया की प्याली होती
ऋचा-मन्त्र सी
निर्मल पावन
बम्बुलिया की
तान नयी तुम
*
काम न बैंकों की कतार से
कोई न नाता है उधार से
कम से कम में काम चलाना
जग सीखे तुम समझदार से
खर्च किया कम, बचत करी जो
निर्बल का बल बने समय पर
सुने न कोई कान लगाकर
दूरी रखना तुम दिवार से
कभी न करतीं
बहिष्कार जो
गृह-संसद की
शान नयी तुम
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
.
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
***
हाइकु सलिला:
.
मन मोहतीं
धूप-छाँव दोनों ही
सच सोहतीं
.
गाँव न गोरी
अब है सियासत
धनी न धोरी
.
तितली उड़ी
पकड़ने की चाह
फुर्र हो गयी
.
ओस कणिका
मुदित मुकुलित
पुष्प कलिका
.
कुछ तो करें
महज आलोचना
पथ न वरें
***
दोहा सलिला:
.
प्रेम चंद संग चाँदनी, सहज योग हो मीत
पानी शर्बत या दवा, पियो विहँस शुभ रीत
.
रख खातों में ब्लैक धन, लाख मचाओ शोर
जनगण सच पहचानता, नेता-अफसर चोर
.
नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष
.
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार
.
रहें राम-शंकर जहाँ, वहाँ कुशल भी साथ
माता का आशीष पा, हँसो उठकर माथ
***
षट्पदी :
.
है समाज परिवार में, मान हो रहे अंध
जुट समाजवादी गये, प्रबल स्वार्थ की गंध
प्रबल स्वार्थ की गंध, समूचा कुनबा नेता
घपलों-घोटालों में माहिर, छद्म प्रणेता
कथनी-करनी से हुआ शर्मसार जन-राज है
फ़िक्र न इनको देश की, संग न कोई समाज है
*
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
***
नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***
आलेख
हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
रचनाकार परिचय:-
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त
कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के
पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८
आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य,
२०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश
गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय
सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री / संभागीय
परियोजना यंत्री पदों पर कुशलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं.
रचनाकार परिचय: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को हिंदी तथा साहित्य के प्रति लगाव पारिवारिक विरासत में प्राप्त हुआ है. अपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम. आई., एम. ए. (अर्थ शास्त्र, दर्शन शास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डिप्लोमा कप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा किया है. आपकी प्रकाशित कृतियाँ अ. कलम का देव (भक्ति गीत संग्रह), लोकतंत्र का मकबरा तथा मेरे (अछांदस कविताएँ) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (तकनीकी लोकोपयोगी) हैं. आपने ९ पत्रिकाओं तथा १६
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
इस मानसिकता की आधार भूमि पर जब साहित्य रचना की ओर मुड़ता है तो हिन्दी भाषा, व्याकरण और पिंगल का अधकचरा ज्ञान और हिन्दी को हेय मानने की प्रवृत्ति उसे उर्दू की ओर उन्मुख कर देती है जबकि उर्दू स्वयं हिन्दी की अरबी-फारसी शब्द बाहुल्यता की विशेषता समेटे शैली मात्र है.
गत कुछ दिनों से एक और चिंतनीय प्रवृत्ति उभरी है. राजनैतिक नेताओं ने मतों को हड़पने के लिये आंचलिक बोलियों (जो हिन्दी की शैली विशेष हैं) को प्रान्तों की राजभाषा घोषित कर उन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बनाने का कुप्रयास किया है. अंतरजाल (नेट) पर भी ऐसी कई साइटें हैं जहाँ इन बोलियों के पक्षधर जाने-अनजाने हिन्दी विरोध तक पहुँच जाते हैं जबकि वे जानते हैं कि क्षेत्र विशेष के बाहर बोलिओं की स्वीकृति नहीं हो सकती.
मैंने इस के विरुद्ध रचनात्मक प्रयास किया और खड़ी हिन्दी के साथ उर्दू, बृज, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली आदि भाषारूपों में रचनाएँ इन साइटों को भेजीं, कुछ ई कविता के मंच पर भी प्रस्तुत कीं. दुःख हुआ कि एक बोली के पक्षधर ने किसी अन्य बोली की रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई. इस स्थिति का लाभ अंग्रेजी के पक्षधर ले रहे हैं.
उर्दू के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है... वह अंग्रेजों के पहले मुग़ल काल में शासन-प्रशासन की भाषा रही है. हमारे घरों के पुराने कागजात उर्दू लिपि में हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लिखा है. उर्दू की उस्ताद-शागिर्द परंपरा इस शैली को लगातार आगे बढ़ाती और नये रचनाकारों को शिल्प की बारीकियाँ सिखाती हैं. हिन्दी में जानकार नयी कलमों को अतिउत्साहित, हतोत्साहित या उपेक्षित करने में गौरव मानते हैं. अंतरजाल आने के बाद स्थिति में बदलाव आ रहा है... किन्तु अभी भी रचना की कमी बताने पर हिन्दी का कवि उसे अपनी शैली कहकर शिल्प, व्याकरण या पिंगल के नियम मानने को तैयार नहीं होता. शुद्ध शब्द अपनाने के स्थान पर उसे क्लिष्ट कहकर बचता है. उर्दू में पाद टिप्पणी में अधिक कठिन शब्द का अर्थ देने की रीति हिन्दी में अपनाना एक समाधान हो सकता है.
हर भारतीय यह जानता है कि पूरे भारत में बोली-समझी जानेवाली भाषा हिन्दी और केवल हिन्दी ही हो सकती है तथा विश्व स्तर पर भारत की भाषाओँ में से केवल हिन्दी ही विश्व भाषा कहलाने की अधिकारी है किन्तु सच को जानकर भी न मानने की प्रवृत्ति हिन्दी के लिये घातक हो रही है.
हम रचना के कथ्य के अनुकूल शब्दों का चयन कर अपनी बात कहें... जहाँ लगता हो कि किसी शब्द विशेष का अर्थ सामान्य पाठक को समझने में कठिनाई होगी वहाँ अर्थ कोष्ठक या पाद टिप्पणी में दे दें. किसी पाठक को कोई शब्द कठिन या नया लगे तो वह शब्द कोष में अर्थ देख ले या रचनाकार से पूछ ले.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
एक सावधानी रखनी होगी. अंग्रेजी के नये शब्द कोष में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्दकोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दीप्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जाये.
रचनाकारों को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या ने किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
२३-१२-२०१४
***