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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

मौलिकता बलराम अग्रवाल

रविवार, 28 अप्रैल 2019
विमर्श 
भारतीय और भारतेतर आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’
बलराम अग्रवाल
*
[प्रस्तुत लेख काव्य के भारतीय और भारतेतर आचार्यों के आलोचना सिद्धांतों पर आधारित है। यहाँ ‘काव्य’ से तात्पर्य साहित्य की समूची भूमि से है, कविता मात्र से नहीं। नाट्य और कथा साहित्य ने भी आलोचना के टूल्स काव्यालोचना से ही लिये हैं। ये सभी विचार पूर्व आचायों के हैं। किसी भी विचार-विशेष के पक्ष में अथवा विपक्ष में इसमें कुछ नहीं लिखा है। किसी भी विचार-विशेष से अपनी सहमति/असहमति व्यक्त करने से यथासम्भव बचा गया है।
प्रस्तुत लेख में काव्य के स्थान पर आवश्यकता और सु्विधा के अनुसार लघुकथा, कहानी, उपन्यास शब्द का प्रयोग करने को पाठक स्वत: स्वतंत्र हैं।]
संपादकीय कार्यालय अपने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ हमेशा ही ‘मौलिक’ रचना की माँग करते हैं। लेकिन ‘मौलिक’ सृजन से उनका तात्पर्य क्या है, इसे वे कितने व्यापक अथवा सीमित अर्थ में जानते हैं, यह एक बड़ा सवाल है। विभिन्न विद्वानों के कथन और शब्दकोशों में दिये गये अर्थों के आधार पर यदि ‘मौलिक’ शब्द पर विचार करें तो इसका मतलब होगा—विचार में स्वतंत्र सृजनात्मक कार्य। रूप और शैली में इस कार्य के भव्य तथा सर्वथा नवीन होने की अपेक्षा की जाती है। यह बात उल्लेखनीय है कि साहित्य में विचार, दृष्टि और विवेचन की नवीनता भी मौलिक ही कही जाती है।
भारतीय आलोचकों का मत :
मौलिकता के संबंध में आनन्दवर्द्धन ने अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में लिखा है—‘जहाँ नवीन स्फुरित होने वाली काव्यवस्तु पुरानी यानी प्राचीन कवि द्वारा निबद्ध वस्तु आदि की रचना के समान निबद्ध की जाती है तो वह निश्चित रूप से दूषित नहीं होती।’ यानी उसे मौलिक ही माना जाता है। इसी प्रकार प्राचीन भाव को अपनी निराली नूतनता द्वारा चमत्कृत करने वाले कवि को भी आनन्दवर्धन ने मौलिक की श्रेणी में रखा है। उन्होंने कहा है कि जहाँ सहृदयों को ‘यह कोई नया स्फुरण है’, ऐसी अनुभूति होती है, तो नयी या पुरानी जो भी हो, वही वस्तु रम्य कहलाती है। उनके अनुसार, पुराने कवियों से कुछ भी अछूता नहीं रह गया है, इसलिए नये कवियों को पुरानी उक्तियों का संस्कार करना चाहिए। इसमें कोई भी बुराई वे नहीं देखते हैं।
अभिनव गुप्त के अनुसार भी—‘पूर्व प्रतिष्ठापितयोजनासु मूल प्रतिष्ठाफलमामनन्ति’ यानी पूर्व आचार्यों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों की मूल प्रतिष्ठा तथा उनकी प्रकृत विवेचना में भी मौलिक सिद्धांतों की विवेचना जैसा फल परिलक्षित होता है।’ राजशेखर ने भी लगभग ऐसा ही मत प्रकट किया है; तथा अन्य विद्वानों ने भी राजशेखर और आनन्दवर्द्धन के सिद्धांत का समर्थन किया है। उन्होंने इसे कवि-प्रतिभा के रूप में स्वीकार किया है। वे तो यह भी मानते हैं कि शब्द भी वही रह सकते हैं, अर्थ विभूति या काव्य विषय भी वही, अन्तर केवल कहने के ढंग यानी शैली में आता है।
मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने कवियों के चार प्रकार गिनाये हैं—
1॰ उत्पादक
2॰ परिवर्तक
3॰ आच्छादक, और
4॰ संवर्गक।
इनमें उत्पादक कवि अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य में नवीन अर्थवत्ता का समावेश करता है। परिवर्तक कवि पूर्व कवि के भावों में इच्छानुरूप परिवर्तन करके उन्हें अपना लेता है। आच्छादक पूर्व कवि की उक्ति को छिपाकर उसी के अनुरूप उक्ति को अपनी रचना के रूप में प्रस्तुत करता है और संवर्गक कवि बिना किसी परिवर्तन के दूसरों की कृति को अपना लेता है। इस चौथे को राजशेखर ने चोर अथवा डकैत की संज्ञा दी है। मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने उत्पादक कवि को ही श्रेष्ठ माना है। अन्य तीन प्रकार के कवियों में, उनका मानना है कि, मौलिकता का अंश नहीं होता। अर्थ का अपहरण करने वाले कवियों का भी राजशेखर ने अपने ग्रंथ में विस्तार से वर्णन किया है।
माना यह जाता है कि भाव-साम्य और अर्थ का अपहरण यदि काव्यगत उक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करने में योग करता है, तो उसे मौलिकता की श्रेणी में रखा जा सकता है। भाव-साम्य के डॉ॰ नगेन्द्र ने तीन प्रकार गिनाये हैं—
1॰ समान मानसिक परिस्थितियाँ, संस्कार, विचार-पद्धति और सामाजिक वातावरण के कारण आया भाव-साम्य।
2॰ दो या दो से अधिक कवियों द्वारा पूर्ववर्ती भावों को ग्रहण किये जाने के कारण आया भाव-साम्य; तथा
3॰ पूर्ववर्ती साहित्य के गम्भीर अध्ययन द्वारा संस्कार ग्रहण करने के कारण आया भाव-साम्य।
कभी-कभी समान मन:स्थिति के कारण समान्तर प्रतीत होने वाली बहुत-सी रचनाओं में एक ही प्रयास और एक ही अन्त:प्रेरणा महसूस हो सकती है।
विद्वानों ने भाव-साम्य के तीन प्रभाव गिनाये हैं—
1॰ सौन्दर्य सुधार
2॰ सौन्दर्य रक्षा, और
3॰ सौन्दर्य संहार।
इनमें से प्रथम दो में भी सौंदर्य सुधार की भूरि-भूरि प्रशंसा होती है, इसलिए साहित्य मर्मज्ञों ने इन्हें ‘अच्छा’ स्वीकार किया है; लेकिन ‘सौंदर्य संहार’ को ‘साहित्यिक चोरी’ बताया है। रीति युग की काव्यगत मौलिक चेतना से असहमति जताने वाले आलोचकों ने रीति कवियों को भाव-साम्य और अर्थ-अपहरण दोनों का दोषी माना है। बावजूद इसके, पुरानी उक्तियों में अपनी सहज रसग्राहिता का समावेश करते हुए रीति-कवियों ने रस-चयन में जो कुशलता दिखायी है, वह अप्रतिम है। इस तथ्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया है।
काव्य की मौलिक चेतना का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट जन्म-नक्षत्र में होता है; और उसी में जन्म लेकर कोई कवि या कथाकार सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति के द्वारा लोकप्रियता को प्राप्त होता है। आचार्यों ने प्रतिभा को लोकोत्तर शक्ति के रूप में चिह्नित किया है; और कवि-प्रतिभा के आधार पर ही उन्होंने किसी रचना में मौलिकता के अंश का विवेचन प्रस्तुत किया है। यह तो निश्चित है कि काव्य सृजन की नव-प्रेरणा प्रतिभा के अभाव में तनिक भी संभव नहीं है। प्रतिभा अंत:करण का वह आलोक है जिसके कारण समस्त रचना मौलिकता के सौंदर्य से जगमगा उठती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों में रुद्रट ने प्रतिभा को ऐसी शक्ति माना है जो चित्त के सम्मिलन से अभिधेय अर्थ को अनेक प्रकार से स्फुरित करती है।
आचार्य कुन्तक ने कहा है—‘वस्तुओं में अन्तर्निहित सूक्ष्म और सुन्दर तत्व को जो अपनी वाणी से खींच लाता है, उसे; और जो वाणी द्वारा ही इस विश्व की बाह्यत: अभिव्यक्ति करता है, उसे भी मैं प्रणाम करता हूँ।’ इस कथन से स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यंजना और अभिधा दोनों पुरातन काल से ही प्रणम्य रही हैं।
प्राचीन रचनाशीलता के आलोक में विद्वानों ने माना है कि विषय की सीमा और शास्त्रीयता के कड़े अंकुश के कारण रचनाकार की अन्तश्चेतना पूरी तरह स्फुटित नहीं हो पाती और भीतर ही भीतर कुण्ठित हो जाती है। ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ में एक स्थान पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लेने के कारण उनमें (यानी पूर्व काल के अनेक कवियों में) अपनी स्वाधीन चिन्ता के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया है।’
भारतेतर आलोचकों का मत :
लगभग इसी मत का प्रतिपादन ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’ के अपने एक अंग्रेजी लेख में मि॰ ग्रीव्स ने भी किया है। वे लिखते हैं—‘मौलिक सृजन की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद के कार्यों में अनेक (पूर्वकालीन कवियों) ने अपनी प्रतिभा को प्राय: नष्ट कर दिया।’
ग्रियर्सन का कहना है कि कवि यदि प्रतिभा सम्पन्न है और उसमें मौलिक रचने की क्षमता है, तो उसे अधिकार है कि वह दूसरों की रचना का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर ले। वह प्रतिभा-शक्ति के अभाव में मौलिकता को अस्वीकार करते हैं। कान्ट और कॉलरिज ने प्रतिभा को ‘कल्पना’ शक्ति (इमेजिनेशन पॉवर) के रूप में स्वीकार किया है।
19वीं सदी के अंतिम चरण की अंग्रेजी समीक्षा, कृति के बजाय कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्व देती थी। वाल्टर पीटर और ऑस्कर वाइल्ड ने ‘कलावाद’ को ही महत्व दिया। टी॰ एस॰ इलियट का मानना था कि ‘परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।’ उसने कहा कि ‘परम्परा को छोड़ देने पर वर्तमान भी हमसे छूट जाता है।’ परम्परा की परिभाषा करते हुए इलियट ने कहा—‘इसके अंतर्गत उन सभी स्वाभाविक कार्यों, स्वभावों, रीति-रिवाजों का समावेश होता है जो स्थान-विशेष पर रहने वाले लोगों के सह-संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। परंपरा के भीतर विशिष्ट धार्मिक आचारों से लेकर आगन्तुक के स्वागत की पद्धति और उसको संबोधित करने का ढंग, सब-कुछ समाहित है। परंपरा अतीत की वह जीवन-शक्ति है जिससे वर्तमान का निर्माण होता है और भविष्य का अंकुर फूटता है।’ अपनी इसी विचारधारा के आधार पर उसने कहा कि कोई भी रचनाकार स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होता, उसका मूल्यांकन परम्परा की सापेक्षता में किया जाना चाहिए। वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकार की तुलना में ही अपनी महत्ता सिद्ध कर सकता है। लेकिन ध्यातव्य यह है परम्परा से इलियट का तात्पर्य प्राचीन रूढ़ियों का मूक अनुमोदन या अनुमोदन कभी नहीं रहा, बल्कि परम्परा से उसका तात्पर्य वस्तुत: प्राचीन काल के इतिहास और धारणाओं का सम्यक् बोध रहा है। वह परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अर्जन और उसके विकास का पक्षधर है। यही परम्परा का गत्यात्मक रूप है। इसके अभाव में हम नहीं जान सकते कि मौलिकता क्या है, कहाँ है? इस सिद्धांत के अनुसार, अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़ि नहीं, मौलिकता की तलाश है। रचना की मौलिकता और श्रेष्ठता का आकलन तत्संबंधी अतीत को जाने बिना संभव नहीं है। इसी बिंदु पर परम्परा का संबंध संस्कृति से जुड़ता है जिसमें किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन आदि के उत्कृष्ट अंश समाहित रहते हैं। परम्परा बोध से ही साहित्यकार को अपने कर्तव्य तथा दायित्व का बोध, और लेखन का मूल्य मालूम रहता है।
इस तरह, इलियट ने मौलिकता को परम्परा-सापेक्ष माना है। उनका कहना है कि परम्परा अपने आप में व्यापक अर्थ से युक्त है। उससे विहीन मौलिकता मूल्यहीन है। अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा’ में उसने स्पष्ट संकेत किया है, कि ‘परम्परा को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं किया जा सकता; इसे कड़े श्रम से कमाना पड़ता है, अर्जित करना पड़ता है’ तथा ‘परम्परा के मूल में एक ऐतिहासिक चेतना (हिस्टोरिकल सेंस) गुँथी रहती है।’
इलियट का सवाल है कि परम्परा की समग्र मान्यताओं को जाने बिना कोई भी व्यक्ति उनके रूढ़ और गलित अंशों को हटाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है?
* संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली मो॰ : 8826499115 ई-मेल : 2611ableram@gmail.com
साभार: 'लघुकथा-वार्ता'

रविवार, 11 अप्रैल 2021

मिथिलेश कुमारी मिश्र -बलराम अग्रवाल

उदात्त प्रेम की सहज कथालेखिका—डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र 
बलराम अग्रवाल
*
1 दिसम्बर 1953 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिलान्तर्गत खद्दीपुर गढ़िया के ग्राम प्रधान श्रीयुत् रामगोपाल मिश्र जी के घर में जन्मी डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक तथा वहाँ से प्रकाशित ‘परिषद पत्रिका’ की सम्पादक रहीं। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में साधिकार लेखन किया। उनके भतीजे श्रीयुत् महेश मिश्र ने उनके कुछेक प्रकाशित ग्रंथों की सूची उनके निधन की सूचना के साथ उपलब्ध करायी थी, जो कतिपय संशोधन के साथ निम्न प्रकार है—
उपन्यास—सुजान, वैरागिन, लवंगी, अंजना, कबीर, अस्थिदान, शीला भट्टारिका (हिन्दी), जिगीषा (संस्कृत) ।

शोकाकुल महेश जी द्वारा प्रदत्त सूची का अधूरी रहना स्वाभाविक है। उसे सन् 2000 में प्रकाशित डॉ॰ मिश्र के प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ में दिए गए परिचय के अनुरूप सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ। उसकी ‘दो बातें अपने पाठकों से’ शीर्षक भूमिका में उन्होंने लिखा है—‘मैंने अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें चार प्रकाशित हो चुके हैं दो प्रकाशक के यहाँ हैं’। बहुत सम्भव है कि सन् 2000 के बाद भी उन्होंने एक-दो उपन्यास और लिखे हों। अत: महेश जी को स्वयं भी अपनी सूची दुरुस्त करनी चाहिए। उन्हें यह सूची इसलिए भी दुरुस्त करनी चाहिए क्योंकि ‘लघुकथाएँ’ शीर्षान्तर्गत उअन्की सूची में न तो ‘अंधेरे के विरुद्ध’ का अंकन है और न ही उनके संस्कृत लघुकथा संग्रह ‘लघ्वी’ का, जिसके 1992-93 में प्रकाशित होने का जिक्र उन्होंने अपनी ऊपर सन्दर्भित भूमिका में किया है।
नाटक—कीचक वध, धनन्जय विजय (हिन्दी), आम्रपाली, दशमस्त्वमसि, तुलसीदास (संस्कृत) तथा इण्डिया तथा द योगी (अंग्रेजी)।
महाकाव्य—देवयानी, दाक्षायणी।
खण्डकाव्य—साकेत सेविका, श्रद्धांजलि।
संस्कृत काव्य संग्रह— सुभाषित सुमनाञ्जलि, व्यास शतकम्, काव्यायनी।
लघुकथा—लघ्वी (संस्कृत), ‘अंधेरे के विरुद्ध’, 101 लघुकथाएँ (हिन्दी)
कहानी—छँटता कोहरा (महिलाओं की कहानियाँ), आधुनिका
गीत संग्रह—कामायनी (संस्कृत), चाँदी के चन्द्रमा
इनके अलावा, महेश जी के कथनानुसार, उनके द्वारा अनूदित और सम्पादित भी अनेक ग्रन्थ हैं। उनके अनुसार डॉ॰ मिश्र की कुल किताबों की संख्या 42 है। अनेक साहित्यिक संस्थाओं से वे सम्मानित व पुरस्कृत होती रहीं। अनेक संस्थाओं की सम्मानित सदस्य, सचिव, उपाध्यक्ष आदि रहीं। अनेक मानद उपाधियों से विभूषित रहीं।
देहावसान : 10 अप्रैल 2017 को पटना में।
पारिवारिक सम्पर्क सूत्र : ‘वाणी वाटिका’, सैदपुर, पटना-800 004 (बिहार)
मोबाइल : 094302 12579 दूरभाष : 0612-2663504


यहाँ उनके प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ से उद्धृत हैं तीन लघुकथाएँ
वहम
सोमा बाबू की पत्नी पार्वती की नींद जैसे ही खुली, अपने पति को वैसे ही बैठे पाया जैसे रात उनके सोने के समय बैठे थे। यह देखकर वह चौंक उठी और उसने पूछा, “आप सोये नहीं? पूरी रात ऐसे ही…!”
“नींद नहीं आयी।”
“क्यों?”
“गर्मी बहुत थी और ऊपर से मच्छरों का प्रकोप!”
“पंखा क्यों नहीं चला लिया?”
“कैसे चलाता… पंखा चलाते ही तुम काँपने लगती थीं!”
“क्यों, मुझे क्या हुआ था?”
“रात तुम्हें बुखार बहुत अधिक था। तुम होश में थी ही कहाँ? तुम्हारा चेहरा मुरझा-सा गया था। तुम्हीं बताओ, ऐसे में मैं भला पंखा कैसे चलाता… कैसे सोता! पूरी रात यही देखता रहा कि जाने कब मेरी जरूरत पड़ जाए।”
“आपको मेरी इतनी चिन्ता है!”
“क्यों न हो? आखिर तुम मेरी पत्नी हो।”
यह वाक्य सुनकर वह चुप हो गयी और सोचने लगी—वह रितेन्द्र बाबू, जो इनके मित्र हैं, झूठे हैं… मक्कार हैं। रोज-रोज आकर कहते थे कि इनका इस लड़की के साथ… उस औरत के साथ…। छि:! इस व्यक्ति का अगर कहीं कोई चक्कर होता तो क्या मेरे लिए यों… मेरी भी क्या मति मारी गयी थी, जो इन पर शक कर बैठी।
“क्या भई! एकाएक चुप क्यों हो गयीं? क्या तबियत फिर कुछ… ”
“नहीं, मुझे कुछ भी तो नहीं है… आप यों ही वहम करते हैं… जाइए, आप भी सो जाइए!”
सोमा बाबू ने पत्नी की ओर प्यार से देखा। उन्हें सन्तोष हुआ—पत्नी का चेहरा खिलने लगा था।


मौन का सच
वह आया और चुपचाप मेरे समक्ष बैठ गया। मैं जो कुछ पूछती गयी, वह यन्त्रवत् उसका ऑब्जेक्टिव टाइप से उत्तर देता गया। मैंने जो कार्य करने को कहा, वह करता गया। न कोई गिला, न कोई शिकवा। मैं बार-बार उसकी ओर देखती, वह गम्भीर बना रहा। मेरे मन में बेचैनी होने लगी। बेचैनी परेशानी की सीमा तक पहुँच गयी। मैंने पूछा, “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं हो?”
“मैंने तुम्हारी किस बात का उत्तर नहीं दिया?”
“तुम सहज नहीं लग रहे हो।”
“ऐसी तो कोई बात नहीं है।”
“मुझसे कोई शिकायत हो… या कोई भूल हो गयी हो, तो मन में मत रखो, कह डालो। मैं कतई बुरा नहीं मानूँगी।”
“कुछ हो तब न!”
“मेरी कसम… कोई बात नहीं है?”
वह तिलमिला उठा, “तुम कसम मत दिया करो। मैं झूठ नहीं बोल सकता।”
“तो फिर कहो—तुम्हारे मौन का कारण क्या है?”
“मैंने जब भी तुम्हारे स्वास्थ्य के विषय में जानना चाहा, तुमने सदैव यही कहा—ठीक हूँ… कोई बात नहीं है। मगर कल, जब तुम अपने लेखपाल से लोन लेने के सम्बन्ध में तथा अपने ऑपरेशन कराने के विषय में बता रही थीं, तो मुझे दुख हुआ। तुमने मुझे क्यों नहीं बताया?”
“मैं तो स्वयं अपनी बीमारी से परेशान हूँ… तुम्हें भी परेशान कर देती!”
“क्यों नहीं!… इसका अर्थ यह हुआ कि मेरा तुम पर… ।” इतना सुनते ही मैं भावुकता की चरमसीमा पर पहुँच गयी और मैंने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। उसने मेरा हाथ चूम लिया। अब मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक सकी। अत: रुँधे स्वर में ही कहा, “देखो, तुम मौन मत हुआ करो!”


अन्धी भावुकता
अपने कार्यालय में बैठी मैं कुछ सोच रही थी कि सत्येन सामने आकर बैठ गया। आज उसने ‘हलो-हाय’ कुछ नहीं कहा। मैंने मौन तोड़ने हेतु कहा, “क्या बात सत्येन! कुछ बोलोगे नहीं? चुप क्यों हो?”
वह फिर भी कुछ नहीं बोला। पहले तो मैंने सोचा कि शायद वह क्रोध में है। मगर आज उसकी आँखों में क्रोध नहीं, अजब-सी बेचैनी थी, जिससे शायद वह उबरने की चेष्टा कर रहा था।
“सत्येन, कुछ बोलो। शिकायत भी हो तो कहो तो सही!”
“मैं इतनी देर से तुम्हें ढूढ़ता फिर रहा हूँ! तुम कहाँ चली गयी थीं?” इस प्रश्न के साथ ही, मैंने देखा—उसकी आँखें भर आई थीं।
“नहीं सत्येन, नहीं… ऐसे नहीं! मैं तो यहीं थी।”
“फिर झूठ!”
“नहीं सत्येन! झूठ नहीं… मैं जरा भण्डार में चली गयी थी। मैं सरकारी नौकर हूँ न?”
“तुम्हारे चपरासी ने तो कहा था कि तुम पिछले कई घंटों से नहीं हो! शायद आज आओ ही नहीं।”
“तुम्हें समय देकर मैं न आऊँ, ऐसा ईश्वर के चाहने के बाद ही सम्भव है। अन्यथा… ”
मैंने देखा—अब धीरे-धीरे उसकी आँखों में खुशी की चमक लौट रही थी। मैंने कहा, “मगर तुम परेशान क्यों हो गये?”
“लो, पूछती हो मैं परेशान क्यों हो गया था! अरी पगली, मेरे मन में कोई ऐसी भी आशंका थी जो इस घंटे भर में मेरे दिलो-दिमाग को हिलाकर न चली गयी हो?…”
“सत्येन! यदि मैं मर गयी तो?”
“देखो मणि! ऐसी अशुभ बातें न बोला करो। जब तक मैं जिन्दा हूँ, ईश्वर की कृपा से तुम मर नहीं सकतीं। तुम्हारे बिना मैं क्या करुँगा इस दुनिया में?”
उसकी इस बात ने मेरी आंखें भी भावुकता से भर दीं। अपने आँसुओं को छिपाने की कोशिश में मैं पकड़ ली गयी। उसने कहा, “मणि! नहीं… नहीं तो देखो, मैं भी… ”
अब मैं शान्त, चुपचाप उसका चेहरा, उसकी आँखें पढ़ने लगी थी जिनमें प्यार का समुद्र लहरा रहा था। मगर, मैं इस पागल को कैसे समझाऊँ कि उसे कुछ भी नहीं दे सकती। मेरे पास उसके लिए है ही क्या! मैं तो स्वयं रीता हूँ। अगर उसे साफ कह दूँगी तो जाने वह अपने आपको क्या कर ले! अन्धी भावुकता में उसे मेरी मांग का सिन्दूर भी दिखाई नहीं देता!!—सोचते-सोचते मेरी आँखें पुन: भर आई थीं। मुझे एकाएक ख्याल आया कि यह घर नहीं, कार्यालय है। अत: मैं सतर्क होकर मेज पर पड़ी फाइलों को इधर-उधर करने लगी और न चाहते हुए भी मैंने कहा, “सत्येन! मुझे कुछ काम निबटाने हैं… फिर किसी दिन आना।”
मैंने देखा कि वह कितने भारी कदमों से लौट रहा है। मेरी आँखें पुन: डबडबा गईं।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

लेख : आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’ बलराम अग्रवाल

रविवार, 28 अप्रैल 2019
भारतीय और भारतेतर आचार्यों की दृष्टि में ‘मौलिकता’
बलराम अग्रवाल
*
[प्रस्तुत लेख काव्य के भारतीय और भारतेतर आचार्यों के आलोचना सिद्धांतों पर आधारित है। यहाँ ‘काव्य’ से तात्पर्य साहित्य की समूची भूमि से है, कविता मात्र से नहीं। नाट्य और कथा साहित्य ने भी आलोचना के टूल्स काव्यालोचना से ही लिये हैं। ये सभी विचार पूर्व आचायों के हैं। किसी भी विचार-विशेष के पक्ष में अथवा विपक्ष में इसमें कुछ नहीं लिखा है। किसी भी विचार-विशेष से अपनी सहमति/असहमति व्यक्त करने से यथासम्भव बचा गया है।
प्रस्तुत लेख में काव्य के स्थान पर आवश्यकता और सु्विधा के अनुसार लघुकथा, कहानी, उपन्यास शब्द का प्रयोग करने को पाठक स्वत: स्वतंत्र हैं।]
संपादकीय कार्यालय अपने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ हमेशा ही ‘मौलिक’ रचना की माँग करते हैं। लेकिन ‘मौलिक’ सृजन से उनका तात्पर्य क्या है, इसे वे कितने व्यापक अथवा सीमित अर्थ में जानते हैं, यह एक बड़ा सवाल है। विभिन्न विद्वानों के कथन और शब्दकोशों में दिये गये अर्थों के आधार पर यदि ‘मौलिक’ शब्द पर विचार करें तो इसका मतलब होगा—विचार में स्वतंत्र सृजनात्मक कार्य। रूप और शैली में इस कार्य के भव्य तथा सर्वथा नवीन होने की अपेक्षा की जाती है। यह बात उल्लेखनीय है कि साहित्य में विचार, दृष्टि और विवेचन की नवीनता भी मौलिक ही कही जाती है।
भारतीय आलोचकों का मत :
मौलिकता के संबंध में आनन्दवर्द्धन ने अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में लिखा है—‘जहाँ नवीन स्फुरित होने वाली काव्यवस्तु पुरानी यानी प्राचीन कवि द्वारा निबद्ध वस्तु आदि की रचना के समान निबद्ध की जाती है तो वह निश्चित रूप से दूषित नहीं होती।’ यानी उसे मौलिक ही माना जाता है। इसी प्रकार प्राचीन भाव को अपनी निराली नूतनता द्वारा चमत्कृत करने वाले कवि को भी आनन्दवर्धन ने मौलिक की श्रेणी में रखा है। उन्होंने कहा है कि जहाँ सहृदयों को ‘यह कोई नया स्फुरण है’, ऐसी अनुभूति होती है, तो नयी या पुरानी जो भी हो, वही वस्तु रम्य कहलाती है। उनके अनुसार, पुराने कवियों से कुछ भी अछूता नहीं रह गया है, इसलिए नये कवियों को पुरानी उक्तियों का संस्कार करना चाहिए। इसमें कोई भी बुराई वे नहीं देखते हैं।
अभिनव गुप्त के अनुसार भी—‘पूर्व प्रतिष्ठापितयोजनासु मूल प्रतिष्ठाफलमामनन्ति’ यानी पूर्व आचार्यों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों की मूल प्रतिष्ठा तथा उनकी प्रकृत विवेचना में भी मौलिक सिद्धांतों की विवेचना जैसा फल परिलक्षित होता है।’ राजशेखर ने भी लगभग ऐसा ही मत प्रकट किया है; तथा अन्य विद्वानों ने भी राजशेखर और आनन्दवर्द्धन के सिद्धांत का समर्थन किया है। उन्होंने इसे कवि-प्रतिभा के रूप में स्वीकार किया है। वे तो यह भी मानते हैं कि शब्द भी वही रह सकते हैं, अर्थ विभूति या काव्य विषय भी वही, अन्तर केवल कहने के ढंग यानी शैली में आता है।
मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने कवियों के चार प्रकार गिनाये हैं—
1॰ उत्पादक
2॰ परिवर्तक
3॰ आच्छादक, और
4॰ संवर्गक।
इनमें उत्पादक कवि अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य में नवीन अर्थवत्ता का समावेश करता है। परिवर्तक कवि पूर्व कवि के भावों में इच्छानुरूप परिवर्तन करके उन्हें अपना लेता है। आच्छादक पूर्व कवि की उक्ति को छिपाकर उसी के अनुरूप उक्ति को अपनी रचना के रूप में प्रस्तुत करता है और संवर्गक कवि बिना किसी परिवर्तन के दूसरों की कृति को अपना लेता है। इस चौथे को राजशेखर ने चोर अथवा डकैत की संज्ञा दी है। मौलिकता की दृष्टि से राजशेखर ने उत्पादक कवि को ही श्रेष्ठ माना है। अन्य तीन प्रकार के कवियों में, उनका मानना है कि, मौलिकता का अंश नहीं होता। अर्थ का अपहरण करने वाले कवियों का भी राजशेखर ने अपने ग्रंथ में विस्तार से वर्णन किया है।
माना यह जाता है कि भाव-साम्य और अर्थ का अपहरण यदि काव्यगत उक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करने में योग करता है, तो उसे मौलिकता की श्रेणी में रखा जा सकता है। भाव-साम्य के डॉ॰ नगेन्द्र ने तीन प्रकार गिनाये हैं—
1॰ समान मानसिक परिस्थितियाँ, संस्कार, विचार-पद्धति और सामाजिक वातावरण के कारण आया भाव-साम्य।
2॰ दो या दो से अधिक कवियों द्वारा पूर्ववर्ती भावों को ग्रहण किये जाने के कारण आया भाव-साम्य; तथा
3॰ पूर्ववर्ती साहित्य के गम्भीर अध्ययन द्वारा संस्कार ग्रहण करने के कारण आया भाव-साम्य।
कभी-कभी समान मन:स्थिति के कारण समान्तर प्रतीत होने वाली बहुत-सी रचनाओं में एक ही प्रयास और एक ही अन्त:प्रेरणा महसूस हो सकती है।
विद्वानों ने भाव-साम्य के तीन प्रभाव गिनाये हैं—
1॰ सौन्दर्य सुधार
2॰ सौन्दर्य रक्षा, और
3॰ सौन्दर्य संहार।
इनमें से प्रथम दो में भी सौंदर्य सुधार की भूरि-भूरि प्रशंसा होती है, इसलिए साहित्य मर्मज्ञों ने इन्हें ‘अच्छा’ स्वीकार किया है; लेकिन ‘सौंदर्य संहार’ को ‘साहित्यिक चोरी’ बताया है। रीति युग की काव्यगत मौलिक चेतना से असहमति जताने वाले आलोचकों ने रीति कवियों को भाव-साम्य और अर्थ-अपहरण दोनों का दोषी माना है। बावजूद इसके, पुरानी उक्तियों में अपनी सहज रसग्राहिता का समावेश करते हुए रीति-कवियों ने रस-चयन में जो कुशलता दिखायी है, वह अप्रतिम है। इस तथ्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया है।
काव्य की मौलिक चेतना का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट जन्म-नक्षत्र में होता है; और उसी में जन्म लेकर कोई कवि या कथाकार सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति के द्वारा लोकप्रियता को प्राप्त होता है। आचार्यों ने प्रतिभा को लोकोत्तर शक्ति के रूप में चिह्नित किया है; और कवि-प्रतिभा के आधार पर ही उन्होंने किसी रचना में मौलिकता के अंश का विवेचन प्रस्तुत किया है। यह तो निश्चित है कि काव्य सृजन की नव-प्रेरणा प्रतिभा के अभाव में तनिक भी संभव नहीं है। प्रतिभा अंत:करण का वह आलोक है जिसके कारण समस्त रचना मौलिकता के सौंदर्य से जगमगा उठती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों में रुद्रट ने प्रतिभा को ऐसी शक्ति माना है जो चित्त के सम्मिलन से अभिधेय अर्थ को अनेक प्रकार से स्फुरित करती है।
आचार्य कुन्तक ने कहा है—‘वस्तुओं में अन्तर्निहित सूक्ष्म और सुन्दर तत्व को जो अपनी वाणी से खींच लाता है, उसे; और जो वाणी द्वारा ही इस विश्व की बाह्यत: अभिव्यक्ति करता है, उसे भी मैं प्रणाम करता हूँ।’ इस कथन से स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति के स्तर पर व्यंजना और अभिधा दोनों पुरातन काल से ही प्रणम्य रही हैं।
प्राचीन रचनाशीलता के आलोक में विद्वानों ने माना है कि विषय की सीमा और शास्त्रीयता के कड़े अंकुश के कारण रचनाकार की अन्तश्चेतना पूरी तरह स्फुटित नहीं हो पाती और भीतर ही भीतर कुण्ठित हो जाती है। ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ में एक स्थान पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लेने के कारण उनमें (यानी पूर्व काल के अनेक कवियों में) अपनी स्वाधीन चिन्ता के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया है।’

भारतेतर आलोचकों का मत :
लगभग इसी मत का प्रतिपादन ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’ के अपने एक अंग्रेजी लेख में मि॰ ग्रीव्स ने भी किया है। वे लिखते हैं—‘मौलिक सृजन की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद के कार्यों में अनेक (पूर्वकालीन कवियों) ने अपनी प्रतिभा को प्राय: नष्ट कर दिया।’
ग्रियर्सन का कहना है कि कवि यदि प्रतिभा सम्पन्न है और उसमें मौलिक रचने की क्षमता है, तो उसे अधिकार है कि वह दूसरों की रचना का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर ले। वह प्रतिभा-शक्ति के अभाव में मौलिकता को अस्वीकार करते हैं। कान्ट और कॉलरिज ने प्रतिभा को ‘कल्पना’ शक्ति (इमेजिनेशन पॉवर) के रूप में स्वीकार किया है।
19वीं सदी के अंतिम चरण की अंग्रेजी समीक्षा, कृति के बजाय कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्व देती थी। वाल्टर पीटर और ऑस्कर वाइल्ड ने ‘कलावाद’ को ही महत्व दिया। टी॰ एस॰ इलियट का मानना था कि ‘परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।’ उसने कहा कि ‘परम्परा को छोड़ देने पर वर्तमान भी हमसे छूट जाता है।’ परम्परा की परिभाषा करते हुए इलियट ने कहा—‘इसके अंतर्गत उन सभी स्वाभाविक कार्यों, स्वभावों, रीति-रिवाजों का समावेश होता है जो स्थान-विशेष पर रहने वाले लोगों के सह-संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। परंपरा के भीतर विशिष्ट धार्मिक आचारों से लेकर आगन्तुक के स्वागत की पद्धति और उसको संबोधित करने का ढंग, सब-कुछ समाहित है। परंपरा अतीत की वह जीवन-शक्ति है जिससे वर्तमान का निर्माण होता है और भविष्य का अंकुर फूटता है।’ अपनी इसी विचारधारा के आधार पर उसने कहा कि कोई भी रचनाकार स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होता, उसका मूल्यांकन परम्परा की सापेक्षता में किया जाना चाहिए। वह अपने पूर्ववर्ती रचनाकार की तुलना में ही अपनी महत्ता सिद्ध कर सकता है। लेकिन ध्यातव्य यह है परम्परा से इलियट का तात्पर्य प्राचीन रूढ़ियों का मूक अनुमोदन या अनुमोदन कभी नहीं रहा, बल्कि परम्परा से उसका तात्पर्य वस्तुत: प्राचीन काल के इतिहास और धारणाओं का सम्यक् बोध रहा है। वह परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अर्जन और उसके विकास का पक्षधर है। यही परम्परा का गत्यात्मक रूप है। इसके अभाव में हम नहीं जान सकते कि मौलिकता क्या है, कहाँ है? इस सिद्धांत के अनुसार, अतीत को वर्तमान में देखना रूढ़ि नहीं, मौलिकता की तलाश है। रचना की मौलिकता और श्रेष्ठता का आकलन तत्संबंधी अतीत को जाने बिना संभव नहीं है। इसी बिंदु पर परम्परा का संबंध संस्कृति से जुड़ता है जिसमें किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन आदि के उत्कृष्ट अंश समाहित रहते हैं। परम्परा बोध से ही साहित्यकार को अपने कर्तव्य तथा दायित्व का बोध, और लेखन का मूल्य मालूम रहता है।
इस तरह, इलियट ने मौलिकता को परम्परा-सापेक्ष माना है। उनका कहना है कि परम्परा अपने आप में व्यापक अर्थ से युक्त है। उससे विहीन मौलिकता मूल्यहीन है। अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा’ में उसने स्पष्ट संकेत किया है, कि ‘परम्परा को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं किया जा सकता; इसे कड़े श्रम से कमाना पड़ता है, अर्जित करना पड़ता है’ तथा ‘परम्परा के मूल में एक ऐतिहासिक चेतना (हिस्टोरिकल सेंस) गुँथी रहती है।’
इलियट का सवाल है कि परम्परा की समग्र मान्यताओं को जाने बिना कोई भी व्यक्ति उनके रूढ़ और गलित अंशों को हटाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है?
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साभार: 'लघुकथा-वार्ता'