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मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

मुक्तक

मुक्तक
संजीव
*
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिला लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..
*
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
*

रविवार, 30 जुलाई 2017

muktika

मुक्तिका:
संजीव
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
खुद को कहता रहा मसीहा जो
इसका इंसान होना मुश्किल है
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस

आग में डूबा समंदर, नहीं तो फ़िर क्या है,
ज़ीस्त आहों का बवंडर, नहीं तो फ़िर क्या है

तू भी खोया है सनम, माज़ी की रानाईयों में,
आँख में तेरी, वो मंज़र, नहीं तो फ़िर क्या है

मौत की हर अदा, तकलीफ़-ज़दा हो शायद
ज़िन्दगी भी गमे-महशर, नहीं तो फ़िर क्या है

आज आमादा है तू क्यूँ, इसे ढहाने पे
अब मेरा दिल तेरा मन्दिर, नहीं तो फ़िर क्या है

न उजाडो, के हजारों निगाहें रो देंगी,
शज़र, परिंदों का इक घर, नहीं तो फ़िर क्या है

हर शै अरजां है, उस आतिश-निगाह के आगे
हर अदा गोया इक शरर, नहीं तो फ़िर क्या है

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

ग़ज़ल : समीर लाल

ग़ज़ल


सुधीर लाल 'उड़नतश्तरी'


मौत से दिल्लगी हो गयी।


जिन्दगी अजनबी हो गयी।


दोस्तों से तो शिकवा रहा।


गैरों से दोस्ती हो गयी।


उसके हंसने से जादू हुआ।


तीरगी रौशनी हो गयी


साँस गिरवी है हर इक घड़ी।


कैसी ये बेबसी हो गयी?


रात भर राह तकता रहा।


गुम कहाँ चांदनी हो गयी।


आपका नाम बस लिख दिया।


लीजिये शायरी हो गयी


अपने घर का पता खो गया।


कैसी दीवानगी हो गयी?


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