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सोमवार, 11 मार्च 2019

नव गीत

नव गीत: 
ऊषा को लिए बाँह में, 
संध्या को चाह में. 
सूरज सुलग रहा है- 
रजनी के दाह में... 
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल कहीं
पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*

११-३-२०१० 

शनिवार, 19 अगस्त 2017

geet

गीत:
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
संजीव 'सलिल'
*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....













*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.
धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.
मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
*
कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.
मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति, देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
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salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
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