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सोमवार, 23 अगस्त 2021

जनकछन्दी (त्रिपदिक) गीत

अभिनव प्रयोग
जनकछन्दी (त्रिपदिक) गीत
*
मेघ न बरसे राम रे!
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आये नगरी-गाँव रे!
कहीं न पायी ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे -डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
२३-८-२०१६
*****

रविवार, 13 जून 2021

त्रिपदिक गीत

जनकछंदी  गीत 

ब्यूटी पार्लर में गई
वृद्धा बाहर निकलकर
युवा रूपसी लग रही..
*
नश्वर है यह देह रे!
बता रहे जो भक्त को
रीझे भक्तिन-देह पे..
*
संत न करते परिश्रम
भोग लगाते रात-दिन
सर्वाधिक वे ही अधम..
*
गिद्ध भोज, बारात में
टूटो भूखें की तरह
अब न मान-मनुहार है..
*
पितृ-देहरी छिन गई 
विदा होटलों से हुईं
हाय! हमारी बेटियाँ..
*
करते कन्या-दान जो
पाते हैं वर-दान वे
दे दहेज़ वर-पिता को..
१३-६-२०१०
*

सोमवार, 21 सितंबर 2020

त्रिपदिक (हाइकु) गीत बात बेबात

त्रिपदिक (हाइकु) गीत    

बात बेबात 

संजीव 'सलिल'

*

बात बेबात 

कहते कटी रात 

हुआ प्रभात। 

*

सूर्य रश्मियाँ 

अलस सवेरे आ

नर्तित हुईं। 

*

हो गया कक्ष

आलोकित ज्यों तुम  

प्रगट हुईं। 

*

कुसुम कली

परिमल बिखेरे 

दस दिशा में -

*

मन अवाक  

सृष्टि  मोहती 

छबीली मुई। 

*

परदा हटा 

बज उठी पायल

यादों की बारात। 

*

दे पकौड़ियाँ 

आँखें, आँखों में झाँक

कुछ शर्माईं ?

*

गाल गुलाबी

अकहा सुनकर  

आप लजाईं। 

*

अघट घटा

अखबार नीरस 

लगने लगा- 

*

हौले से लिया    

हथेली को पकड़  

छुड़ा मुस्काईं। 

*

चितवन में  

बही नेह नर्मदा 

सिहरा गात 

*

चहक रही

गौरैया मुंडेर पर 

कुछ गा रही। 

फुदक रही 

चंचल गिलहरी  

मन भा रही। 

*

झोंका हवा का

उड़ा रहा आँचल 

नाचतीं लटें-

*

खनकी चूड़ी  

हाथ न आ, ललचा 

इठला रही। 

*

फ़िज़ा महकी 

घटा घिटी-बरसी 

गुँजा नग़मात 

*

 

रविवार, 17 दिसंबर 2017

geet

त्रिपदिक गीत "झरोखा"
सुनीता सिंह अँधेरे से उजाले की ओर, १७ स्याह से हरियाली की ओर, १६ आस का एक झरोखा खुलता है ।। १९ ५२ मन - तमस के उस पार ही, १४ कालिमा यदि हजार भी, १३ उम्मीद का सवेरा मिलता है।। १८ ४५
खुद ही चमकना सूरज सा, १५ घोर अँधेरा धीरज का, १४
बस यही फ़लसफ़ा चलता है ।। १६ ४४ लाखों आँधियाँ दिया बुझाएँ १७ आग जलाकर भस्म बनाएँ, १६ हर हाल अंतस दीप जलता है।। १८ ५१ उड़ान हौसलों की रखकर १५ पहाड़ मुश्किलों के चढ़कर १५ उपलब्धि का गुल खिलता है।। १५
४५ दिल ख्वाब खोकर आहत हो, १५ जड़ पत्थर सी चाहत हो, १४ वक्त नहीं किसको छलता है।। १६ ४५ ताश की तरह पत्तों का घर १६ या आग के कुछ ऊपर कागज १७ जीवन प्रतिकूल ही में पलता है। १९ ५२ दम घुटता धुआँ हटाओ, १४ खोल झरोखा नूर बुलाओ, १६ एक बार जीवन मिलता है।। १६
४६ छल-कपट का तोहफा लिए, १५ जो झूठा फ़लसफ़ा कहे, १५ इक दिन वो हाथ मलता है।। १५ ४५ गिरने पर जो हाथ बढ़ाए, १६ मन बदले तो साथ न आए, १६ कैसे बयां भी हो कितना खलता है।। २१ ५३ अतिशय पीड़ा सहकर, १२ राह भरोसे ठोकर खाकर, १६ नूर दिल में छुपा निकलता है। १७
४५ घाव जहांँ से रिसे अधिक १४ चोट जहाँ पर सर्वाधिक १४ प्रकाश वहीं प्रवेश करता है।। १७ ४५ उगता सूरज समां सजाये १६ किरणें बंद कोपलें खुलवायें १८ पर चढ़ता सूरज भी ढलता है।। १८
५२

बुधवार, 23 अगस्त 2017

tripadik geet

अभिनव प्रयोग 
जनकछन्दी (त्रिपदिक) गीत 
*
मेघ न बरसे राम रे! 
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आये नगरी-गाँव रे!
कहीं न पायी ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे -डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
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salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 7 जून 2017

navgeet

अंतरजाल पर पहली बार :
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
- संजीव 'सलिल' 
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
.
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
*
७.६.२०१०