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शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

समीक्षा काव्य कालिंदी - अमरेंद्र नारायण

समीक्षा
अमरेन्द्र नारायण शुभ आशीर्वाद, १०५५,रिज रोड,
भूतपूर्व महासचिव एशिया पैसिफिक टेलीकौम्युनिटी साउथ सिविल लाइन्स ,जबलपुर ४८२००१
दूरभाष +९१ ७६१ २६० ४६००, ई मेल amarnar@gmail.com

सर्जन को सामायिक प्रोत्साहन का सुपरिणाम काव्य कालिंदी

साहित्यिक परिवेश में मिले संस्कार जीवन भर साथ तो देते ही हैं, प्रायः वे संघर्ष और सृजन की प्रेरणा भी देते हैं। बढ़ते पारिवारिक दायित्व और बदलते सामाजिक परिवेश में सर्जना को जीवंत बनाये रखना एक चुनौती भी है और अंतःकरण की पुकार भी सर्जक मन भला कब तक सुप्त रह सकता है? वह उचित अवसर, आत्मीय प्रोत्साहन और अनुकूल परिस्थिति पाते ही अपनी मौन अभिव्यक्ति को मुखर करने लगता हैआदरणीय संतोष शुक्ला जी ने अपने परिवार के साहित्यिक परिवेश में साहित्यकार के सकारात्मक सृजन का भी अनुभव किया है और अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाने की उनकी विवशता भी देखी हैI सौभाग्वश आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के कुशल मार्गदर्शन एवं श्री बसंत शर्मा जी और अभियान के मधुर साहित्यिक परिवार ने उनका उत्साहवर्धन करने और उनकी रचनाओं से पाठकों को परिचित कराने का प्रशंसनीय कार्य किया हैI फलस्वरूप काव्य कालिंदी का रसास्वादन करने का सुअवसर हमें प्राप्त हुआ हैसंभवतः इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप कवयित्री शारदा स्तवन में माँ सरस्वती से वरदान मांगती हैं कि –
“कलम मौन चलती रहे,
सृजन नव करती रहे,
कभी न ले रुकने का नाम”
यही उत्साह पूर्ण सृजनशीलता उनकी रचनाओं में देखने को मिलती हैI काव्य कालिंदी की रचनाएँ बारह वर्गों में संग्रहीत हैं। इनमें दोहे, कुण्डलियाँ, सवैया, मुक्तिकाएँ, मुक्तक तो हैं ही, लघु कथा,संस्मरण और यात्रा वर्णन आदि भी सम्मिलित हैंI नर्मदा तट से कालिंदी तीर की भाव -यात्रा में कवयित्री भारत -भारती का गौरव गान करती हुई लिखती हैं-
जन -गण से ही तो बने, अपना देश महान,
सम्मानित हर धर्म हो, यही हमारी शान।।
मात्र दो पंक्तियों में सामाजिक समरसता,स्नेह-सद्भावना और एकता का सन्देश देना सरल नहीं होता पर डॉ.संतोष शुक्ला जी ने अपनी बातें अत्यंत सहजता और प्रभावी ढंग से कह दी हैंI संघर्ष से श्लथ और बोझिल मन जब निरुत्साहित हो जाता है, उसकी गति धीमी हो जाती है और लक्ष्य दूर दीखता है, तब संतोष शुक्ल जी कर्मठता का सन्देश दे कर उत्साह वर्धन करती हैं-
कछुए जैसी चाल है, मंजिल भी अति दूरI
मन में सच्ची लगन तो, मंजिल मिले जरूरII
लक्ष्य भले ही हो कठिन, जुटे रहो दिन रातI
एक समय आ मिलेगी, आप सफलता,तातII
वे अपने दोहों में बड़ी सहजता से, सरल शब्दों में बड़ी बातें कह जाती हैंI जैसे:
होती है गति जीव की, ज्यों नदिया की धारI
रुक जाये तो विष बने, बहती अमृत धारII
सृजनशीलता के सन्दर्भ में सर्जक मन की गति देखें:
अति सुन्दर सार्थक सृजन, रुकने की क्यों बातI
रुकी थकी कब लेखनी, दिन हो चाहे रातII
डॉ.शुक्ला ने अपने दोहों में मुहावरों का आकर्षक प्रयोग किया है:
शीश मुंड़ा ओले पड़े, वर्षा गाती छन्दI
ए टी एम ठेंगा दिखा, कहे बैंक है बंदII
और यह व्यंग्य भी:
नाक सिकोड़े चल रहीं, खुद को मानें हूरI
साथ मिला लंगूर का, सहने को मजबूरII
कवयित्री ने आकर्षक कुण्डलियाँ और सवैये भी लिखे हैंIइनकी विषय वस्तु पारम्परिक भी है और आधुनिक भीI वे देश की वर्तमान अवस्था की ओर ध्यान दिला कर प्रेरणा का सन्देश भी देती हैं:
बढ़े चलो,बढ़े चलो,ध्वजा उठा चलो सभी,रुको नहीं, झुको नहीं
अभी सभी बढ़े चलो सदा लगे रहो वहाँ,मिले जहाँ लक्ष्य हो वही
टिके रहो,टिके रहो भिड़े रहो अड़े रहो जहाँ लक्ष्य मिला वहां
अभी नहीं,कभी नहीं, हिलो नहीं, डुलो नहीं लगे रहो सदा वहीँ
कवयित्री का देश -प्रेम मुक्तिकाओं में भी अभिव्यक्ति पाता है:
भारत भू पर जन्म मिला है / स्वर्गिक सा आनंद मिला है
भाग्य फलित हुआ है मानो / ऐसा मां का प्यार मिला है
सजी रहे यूं ही वीरों से / भारत माँ की यह फुलवारी
सदा धरा हो वीर प्रसूता/ रहें सदा दुश्मन पर भारी
और यह कामना भी:
ईंट नींव की बने रहें हम / नहीं कलश की सज्जा प्यारी
डॉ.संतोष शुक्ला जी ने इस संग्रह में मित्रता शीर्षक एक लघुकथा भी सम्मिलित है जो मानवीय संवेदनाओं की सहज पर सूक्ष्म अभिव्यक्ति हैI अभियान पर अभिमान शीर्षक संस्मरण में उन्होंने अभियान के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित की हैIपुस्तक में अमूल्य उपहार शीर्षक कृतज्ञता अर्पण और मलयेशिया सम्बंधित मनोरंजक यात्रा वर्णन भी संग्रहीत है I ये रचनायें उनकी गद्य लेखन प्रतिभा से पाठकों को परिचित करते हैंI डॉ.शुक्ल ने प्रकृति से सम्बंधित अनेक विषयों, मानवीय संवेदनाओं, आस-पास के परिवेश और दैनिक जीवन के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित कई कवितायेँ लिखी हैं Iउनके दोहों में भी जीवन के विविध रंग दृष्टिगत होते हैं पर उनकी रचनाओं में देश भक्ति की भावना भी सरल और प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है - अभिनन्दन का अभिनन्दन / भारत माँ का है वंदन
उसके माथे पर मानो / लगता वीरता का चन्दन
जब तक आया नहीं अभिनन्दन
भारतीय मन करता रहा क्रंदन
धोखेबाज रहा दुश्मन तो हरदम
कैसे कर पाता विश्वास राष्ट्र मन
‘पूज्य है कोई तो वो है शहीद का ही परिवार
धन्य है जो करें स्व संतान को देश पर निसार

डॉ. संतोष शुक्ला जी का जन्म,स्वतंत्रता दिवस के पाँच वर्ष पूर्व , १५ अगस्त १९४२ को हुआ था और उनके पुण्यश्लोक पतिदेव स्व.विजयकृष्ण शुक्ल जी का ९ अगस्त १९४२ (अगस्त क्रांति) के दिन। वे स्वयं एक कर्मठ देशभक्त थे! संभवतः यही कारण है कि डॉ.संतोष जी के चिंतन में देश भक्ति की भावना प्रबल है।

काव्य कालिंदी का प्रकाशन एक सामयिक और व्यावहारिक सन्देश भी देता हैI रचनाकार को अपनी लेखनी रोकनी नहीं चाहिये, न जाने कब किसी अभियान का प्रोत्साहन उसे मिल जाये और उसकी रचनायें पाठकों तक सुगमता से पहुँच जायें। पाठकों की ओर से आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी,बसंत कुमार शर्मा जी और अभियान के अन्य सहयोगियों को हार्दिक धन्यवादI डॉ.संतोष शुक्ला की लेखनी अविराम चलती रहे, इस शुभकामना के साथ

अमरेन्द्र नारायण

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

समीक्षा - काव्य कालिंदी - मोहन शशि

कृति चर्चा :
''काव्य कालिंदी'' : एक पठनीय कृति 
मोहन शशि 
*
साहित्य के स्वनामधन्य हस्ताक्षर स्मृतिशेष भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कहा है - "कुछ लिख के सो / कुछ पढ़ के सो / जिस जगह जागा सवेरे / उस जगह से बढ़ के सो"। 'काव्य कालिंदी  की स्वनामधन्य रचनाकार डॉ. संतोष शुक्ला के रचना संसार में झाँकने पर ऐसा आभास होता है कि वे मिश्र जी की पंक्तियों को सूजन धर्म में बड़ी गंभीरता के साथ सार्थकता प्रदान करने साधनारत हैं। बृज भूमि में जन्म पाने का सौभाग्य सँजोये, कालिंदी तीर से चंबल का परिभ्रमण कर, पतित पावनी मातेश्वरी नर्मदा के पवन तट की यात्रा में हिमालयी विसंगतियों में भी धैर्य के साथ सृजन और लगातार सृजन का संकल्प साधुवाद का अधिकारी है। 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस कृति की भूमिका में डॉ. संतोष शुक्ला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर घरे डूबकर जो शब्द-चित्र उकेरे हैं, उनके पश्चात् कुछ कहने को शेष नहीं तथापि  'अभिमात्यार्थ' स्नेहानुरोध की रक्षा के लिए पढ़ने पर संतोष जी और दोहा का अभिन्न नाता सामने आया-
दोहे ऐसे सर चढ़े, अन्य न भाती बात।  
साथ निभाते हर समय, दिन हो चाहे रात।। 
दोहा दे संतोष, गुरु वंदन, गोविन्द वंदन, भारत-भारती, कालिंदी तीर, पितर, उसकी आये याद जब, शुभ प्रभात, बसंत, नीति के दोहे, नारी, आँखें, दोहा, मुहावरे, उत्सव, महाबलीपुरम  आदि शीर्षक से दोहों ने मेरे मन -प्राण को बहुत प्रभावित किया। संतोष जी के दोहों में सहजता, सरलता, 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर"की ऐसी बांकी प्रस्तुति है कि "इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा!' समझने की कहीं कोई आवश्यकता नहीं, पढ़ते ही सरे अर्थ पंखुरी-पंखुरी सामने आ जाते हैं। बानगी देखें- 
दुनिया धोखेबाज है, सद्गुण जाते हार। 
दाँव लगाकर छल-कपट, लेते बाजी मार।। 

चलती चक्की अब नहीं, हुआ मशीनी काज। 
महिलाओं की मौज है, पति पर करतीं राज।।

बाल नाक के थे कभी, अब करते हैं घात। 
कैसे अब उनसे निभे, बने न बिगड़ी बात।।

चंचल मन भगा फायर, बस में रखकर योग। 
योग-भोग विनियोग ही, उन्नति का संयोग।।

कवयित्री जी आठवें दशक के करीब हैं किन्तु देखें यह उड़ान- 
वृद्ध न मन होता कभी, नित नव भरे उड़ान। 
जी भर पूर्ण प्रयास कर, मंज़िल पाना ठान।।

व्यक्ति समाज, सड़क, संसद, और टी.व्ही. चैनल्स पर जो दंगल हो रहे हैं, उन्हें ध्यान में रखकर सुनें -
कौन किसी की सुन रहा, सभी रहे हैं बोल। 
दुःख केवल इतना हमें, बोल रहे बिन तोल।।

निम्न दोहा सुनकर हर पाठक को लगेगा कि उसके मन की बात है- 
जग में अपना कौन है, सच्ची किसकी प्रीत। 
अपने धोखा दे रहे, बहुत निराली रीत।।

'काव्य कालिंदी'  में दोहों की दमक भले ही अधिक है तथापि कुण्डलिया, सवैया, मुक्तिका, मुक्तक आदि भी अपनी आभा बिखेर रहे हैं। यही नहीं अंत में परिशिष्ट में लघु कथा, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं का समावेश कर संतोष जी ने बहुआयामी सृजन सामर्थ्य का परिचय दिया है। एक मुक्तक का आनंद लें- 
दौड़ भाग के जीवन में, सुख-चैन सभी की चाहत है। 
मिल जाए थोड़ा सा भी तो, मिलती मन को राहत है।।
अजब आदमी है दुनिया का और अजब उसकी दुनिया-
अपने दुःख से दुखी नहीं , औरों के सुख से आहत है।।

नवगीतकार बसंत शर्मा के अनुसार "संतोष शुक्ल जी की जिजीविषा असाधारण, सीखने की ललक अनुकरणीय और सृजन सामर्थ्य अपराजेय है।" 
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संपर्क : ९४२४६५८९१९