कुल पेज दृश्य

नैरंतरी छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नैरंतरी छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २६, सॉनेट, हाइकु गीत, राम, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, शरत्पूर्णिमा, चाँद

 सलिल सृजन अक्टूबर २६

*
पूर्णिका
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
बिन पिए ही रहा झूम मैं
मिले नैन जब से गुलाबी
भँवरा रहा गुनगुना बाग में
दुनिया समझती शराबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली सुहाए
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
२६.१०.२०२४
•••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

अक्टूबर २६, सॉनेट, चाँद, हाइकु गीत, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, नूर

सलिल सृजन अक्टूबर २६
*
'लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फसूँ 
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के'

इन अश्आर को क़लमबंद करने वाले शायर कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ने तमाम उम्र लफ़्जों को संजीदगी से तराश कर शायरी की। मुशायरों में कलाम पढ़ने का उनका अंदाज़ भी अन्य शायरों से जुदा था। हालांकि, शुरुआत में वो अपना कलाम तरन्नुम में यानी गाकर पेश करते थे। लेकिन बाद में वह तहत में पढ़ने लगे। ८ नवंबर, १९२५ को लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में पैदा हुए नूर का शुमार लखनऊ की तहज़ीब का मेयार बुलंद करने वाली शख़्सियतों में है। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के साथ कई मुशायरे पढ़नेवाले मुनव्वर राना का उनसे ख़ास राब्ता रहा।

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा 'मीर आ के लौट गया' में मुनव्वर राना शायर नूर के बारे में लिखते हैं, "उन्हीं दिनों की बात है कि जनाब कृष्ण बिहारी नूर जो फ़ज़ल लखनवी के शागिर्द हैं, मुशायरों में बेहद मक़बूल हो रहे थे। इसी मुशायरे में फ़िराक़ साहब भी मौजूद थे और सदारत कर रहे थे। नूर साहब ग़ज़ल पढ़ने के लिए माइक पर आए और सद्रे मुशायरा से कलाम पढ़ने की इजाज़त तलब की। फ़िराक़ साहब ने हस्बे आदत फब्ती कसते हुए कहा कि 'गाओ, गाओ'। नूर साहब ने निहायत अदब के साथ फ़िराक़ साहब से अर्ज़ किया कि आइन्दा आप मुझे कभी गाते हुए नहीं सुनेंगे। वह दिन है और आज का दिन, नूर साहब तहत में अपना कलाम सुनाते हैं और उनके कलाम सुना चुकने के बाद अच्छे से अच्छा तरन्नुम का शायर कामयाब होने के लिए ख़ून थूक देता है।

सरापा शायर

नूर साहब लखनवी शायरी की उसी नस्ल से तअल्लुक़ रखते हैं जो सरापा शायर कहलाती है। लहजे में शाइस्तगी, तबीयत में इन्क़िसारी, मिज़ाज में शराफ़त और होंठों पर हमेशा क़ुर्बान हो जाने वाली मुस्कुराहट। कुर्ते पाजामे और सदरी से पहचान लिए जाते हैं। मुशायरे के स्टेज पर बैठे हों तो महसूस होता है कि लखनऊ बैठा हुआ है। उठें तो महसूस होता है कि लखनऊ उठ रहा है। चलें तो यूं लगता है तहज़ीब चहल क़दमी कर रही है। आहिस्ता से गुफ़्तुगू करना वह भी नपी तुली, ज़बान पर गाली नाम का कोई लफ़्ज़ नहीं... शायद गाली कभी सीखी ही नहीं।"

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की शख़्सियत के बारे में राना लिखते हैं, "छोटों के आदाब पर हमेशा खिल कर ऐसे दुआएं देते हैं जैसे शहद वाला मिट्टी की हंडिया में शहद उंडेलता है। शायरी में चुने लफ़्जों को चुन-चुन कर ऐसा एहतमाम करते हैं जैसे अरब के लोग मेहमान नवाज़ी में अपने ख़ुलूस की आबरू के लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। उनकी तहज़ीब, उनकी गुफ़्तुगू उनकी शायरी और उनके रख-रखाव का सबसे बड़ा ईनाम ये है कि बेश्तर मुसलमान उनको अपना हम मज़हब समझते हैं और क्यों न समझें, जब नूर साहब अपनी ज़बान को पाकीज़ा लफ़्जों से वज़ू कराते हुए शेर पढ़ते हैं कि -

वो मलक हों कि बशर हों कि ख़ुदा हों लेकिन
आपकी सबको ज़रूरत है रसूले अरबी
ख़िज्रो ईसा क बुलन्दी की है दुनिया क़ाएल
हाँ मगर तेरी बदौलत है रसूले अरबी

तो उनका भरम ठीक ही लगता है। लखनऊ की धुली धुलाई उर्दू ज़बान के सहारे जब वह औसाफ़े रसूल (रसूल का गुणगान) बयान करते हैं तो फ़रिश्ते उनके दिल में लगे हुए पेसमेकर की हिफ़ाज़त के लिए बारगाहे ख़ुदाबन्दी में दुआएँ करते होंगे। नूर साहब क़ुदरत की तरफ़ से फ़िरक़ा परस्तों के गाल पर उर्दू तहज़ीब का तमाचा हैं। उन्हे देर तक ज़िन्दा रहना चाहिए क्योंकि लखनऊ से ऐसे लोग जब उठ जाते हैं तो गोमती की आँखों का पानी ख़ुश्क होने लगता है। नूर साहब अपनी हाज़िर जवाबी और तबीयत की शोख़ी की बिना पर भी बहुत पसन्द किए जाते हैं।"

मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’...


मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’ सिगरेट पीने के काफ़ी शौकीन थे। लेकिन लाल किले के मुशायरे में एक बार ऐसा हुआ कि नूर मुशायरा गाह में मौजूद थे और राना मुशायरे में अपने साथ सिगरेट ले जाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। मुनव्वर राना लिखते हैं, "लाल किले पर मुशायरा हो रहा था। दहशत गर्दी के ख़ौफ़ से पुलिस वाले सिगरेट और माचिस वग़ैरह मुशायरागाह में नहीं ले जाने दे रहे थे। मैं जब वी.आई.पी. गेट पर पहुँचा तो वहाँ तक़रीबन डेढ़ सौ सिगरेट के पैकेट और माचिस की डिबियाँ पड़ी हुई थीं। पुलिस वालों ने मेरी तलाशी ली, फिर सिगरेट और माचिस निकाल कर वहीं छोड़ देने का हुक्म दिया। मैं काहे का हुक्म मानने वाला...मैं उन लोगों से उलझ गया और सिगरेटों का पैकेट वहाँ फेंकने से इंकार कर दिया। चूँकि मैं बीचो-बीच खड़ा था लिहाज़ भीढ़ बढ़ती जा रही थी। पुलिस वाले बहुत पसोपेश में पड़े हुए थे। उन्होंने मुझे फिर समझाने की कोशिश की तो मैंने उनको समझाया कि ये बुरी आदतें जब मेरे वालिदैन नहीं छुड़वा सके तो आप क्या छुड़ायेंगे। मैंने उनसे यह भी कहा कि आप जाइए और देख कर आइए कि स्टेज पर एश्ट्रे भी रखे हुए हैं। मैं सिगरेट के पैकेट उसी सूरत में यहाँ रख सकता हूँ कि आप मेरा कुर्ता भी रख लें...मैं नंगे बदन मुशायरा गाह में जाऊँगा। यह कर मैंने अपना कुर्ता तक़रीबन उतार लिया। पुलिस वाले फ़ौरन पहचान गये कि मैं उन लोगों से ज़्यादा नंगा हूँ। लिहाज़ा दिल न चाहते हुए भी उन्होंने मुझे जाने दिया और मैं जंग जीतने वाले सिपाही की तरह अकड़ कर स्टेज पर पहुँचा।

मुशायरे में उस वक़्त दिल्ली के वज़रीआला मदनलाल खुराना, सिकन्दर बख़्त, नजमा हैपतुल्ला और उस वक़्त के मरकज़ी सिविल एविएशन वज़ीर ग़ुलाम नबी आज़ाद मौजूद थे। मैंने हस्बे आदत सिगरेट का पैकेट नूर साहब की तरफ़ बढ़ाया तो नूर साहब ने कहा- ''भई! जीते रहिए। मैं जानता था कि मुनव्वर मियाँ सिगरेट लेकर आयेंगे। उन्होंने तकल्लुफ़ करते हुए एक सिगरेट निकाली और ढेर सारी दुआएँ दीं। फिर कहने लगे, इस वक़्त मुझे सिगरेट पिला कर आपको वही सवाब मिला है जो किसी प्यासे को पानी पिला कर मिलता है।"
***
पूर्णिका
मिले नैन जब से गुलाबी
हुई साँस अपनी शराबी 
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली लुभाए 
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
•••
चंद अशआर
चाँद की क्या मजाल घर आए।
बहुत गुरूर से 'मावस बोली।।
मिट तो सकता हूँ घट नहीँ सकता।
चाँद से रात सितारे ने कहा।।
चाँद बंजर न कुछ वहाँ उगता।
खोपड़ी देख कह रही बीबी।।
पैर में लगा क्या शनीचर है?
चाँद का पैर ही नहीं टिकता।
भाई से जब न भाई-चारा हो।
चाँद-सूरज की तरह हो जाते।।
मिट्टी-पत्थर तो मिट्टी-पत्थर है।
चाँद पे हो या के धरती पर।।
रूठ सागर से हुआ चाँद जुदा।
ऐसा मुँह फेरा फिर मिला ही नहीँ।
२६.१०.२०२४
••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***
बाबू लाल शर्मा, बौहरा सिकंदरा,303326 दौसा,राजस्थान,9782924479 ढूँढाड़ी

शनिवार, 28 अक्टूबर 2023

नीराजना छंद, कविता, कुंडलिया, नैरंतरी छंद,

 

हिंदी के नए छंद १८
नीराजना छंद
*
लक्षण:
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीरजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
२८-१०-२०१७
***
कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपडे पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी. बरतें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिना दलाल के सच्चे मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
***
नैरंतरी छंद
बचपन बोले: उठ मत सो ले
उठ मत सो ले, सपने बो ले
सपने बो ले, अरमां तोले
अरमां तोले, जगकर भोले
जगकर भोले, मत बन शोले
मत बन शोले, बचपन बोले
अपनी भाषा मत बिसराओ, अपने स्वर में भी कुछ गाओ
अपने स्वर में भी कुछ गाओ, दिल की बातें तनिक बताओ
दिल की बातें तनिक बताओ, बाँहों में भर गले लगाओ
बाँहों में भर गले लगाओ, आपस की दूरियाँ मिटाओ
आपस की दूरियाँ मिटाओ, अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ
अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ, अपनी भाषा मत बिसराओ
२८-१०-२०१४

***

: कुंडलिया :

प्रथम पेट पूजा करें
0
प्रथम पेट पूजा करें, लक्ष्मी-पूजन बाद
मुँह में पानी आ रहा, सोच मिले कब स्वाद
सोच मिले कब स्वाद, भोग पहले खुद खा ले
दास राम का अधिक, राम से यह दिखला दे
कहे 'सलिल' कविराय, न चूकेंगे अवसर हम
बन घोटाला वीर, लगायें भोग खुद प्रथम
२८-१०-२०१३
***

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

चित्रगुप्त, सॉनेट, दिवाली, मुक्तक, माहिया, नरक चौदस, नवगीत, नैरंतरी छंद, कायस्थ, ग्रहण

चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आए
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आए
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें, आए
*
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कैसे कब संयोग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएँ
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जयी तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
*
सॉनेट ग्रहण
ग्रहण न लगता सूर्य को
चमके सूर्य बिना रुके
शीश तिमिर का ही झुके
कर न अदेखा तूर्य को।
ग्रहण करे कर्तव्य-पथ
रोके रुके न रवि कभी
पाएँ उजाला हम सभी
सतत सूर्य का बढ़े रथ।
ग्रह न टरे, गृह-शांति हो
शेष न किंचित भ्रांति हो
जन हितकारी क्रांति हो
सूर्य ग्रहण आया-गया
जो होना था वह हुआ
पुरा पुरातन, चिर नया
२५-१०-२०२२
●●●
दीपावली पर मुक्तकांजलि:
*
सत्य-शिव-सुंदर का अनुसन्धान है दीपावली.
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली..
प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल जीवन हो 'सलिल'-
मनुजता को समर्पित विज्ञान है दीपावली..
*
धर्म, राष्ट्र, विश्व पर अभिमान है दीपावली.
प्रार्थना, प्रेयर सबद, अजान है दीपावली..
धर्म का है मर्म निरासक्त कर्म ही 'सलिल'-
निष्काम निष्ठा लगन का सम्मान है दीपावली..
*
पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान है दीपावली.
आँख में पलता हसीं अरमान है दीपावली..
आन-बान-शान से जीवन जियें हिलमिल 'सलिल'-
अस्त पर शुभ सत्य का जयगान है दीपावली..
*
निस्वार्थ सेवा का सतत अभियान है दीपावली.
तृषित अधरों की मधुर मुस्कान है दीपावली..
तराश कर कंकर को शंकर जो बनाते हैं 'सलिल'-
वही सृजन शक्तिमय इंसान हैं दीपावली..
*
सर्व सुख के लिये निज बलिदान है दीपावली.
आस्था, विश्वास है, ईमान है दीपावली..
तूफ़ान में जो अँधेरे से जीतता लड़कर 'सलिल'-
उसी नन्हे दीप का यशगान है दीपावली..
***
पंजाबी छंद माहिया
*
चल दीपक बन जाएँ
धरती माँ बल दे
अँधियारा पी पाएँ
*
वसुधा सबकी माता
करें सफाई सब
चल हाथ मिला भ्राता
*
रजनीश गले मिलता
रश्मि हाथ फैला
झट अरुण भरे भुज में
*
अरविंद पंक में खिल
सलिल साथ मिलकर
देवों के सिर चढ़ता
*
माटी का दीप उठा
स्नेह स्नेह का भर
श्रम बाती बना जला
*
संजीव सृष्टि कण-कण
सबमें प्रभु बसता
सबसे पथ समरसता
*
तम नष्ट नहीं होता
दीपक के नीचे
छिप उजियारा बोता
*
***
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:
गीत
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
२६-१०-२०१९
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
नैरंतरी छंद 
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
*
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
***
मुक्तक
संवेदना का जन्मदिवस नित्य ही मने
दिल से दिल के तार जुड़ें, स्वर्ग भू बने
वेदना तभी मिटे, सौहार्द्र-स्नेह हो-
शांति का वितान दस दिशा रहा तने
*
श्याम घटा बीच चाँद लिये चाँदनी
लालिमा से, नीलिमा से सजी चाँदनी
सुमन गुच्छ से भी अधिक लिए ताजगी-
बिजलियाँ गिरा रही है विहँस चाँदनी
*
उषा की नमी दे रही दुनिया को ज़िंदगी
डिहाइड्रेशन से गयी क्यों अस्पताल में?
सूरज अधिक तपा या चाँदनी हुई कुपित
धरती से आसमान तक चर्चे है आज ये.
*
जग का सारा तिमिर ले, उसे बना आधार
रख दे आशा दीप में, कोशिश-बाती प्यार
तेल हौसले, योजना-तीली बाले ज्योति-
रमा-राज में हो सके ज्योतित सब संसार
*
रूपया हुआ अज़ीज़ अब, रुपया ही है प्यार
रुपये से इरशाद कह, रूपया पा हो शाद
रुपये की दीवानगी हद से अधिक न होय
रुपये ही आबाद कर, कर देता बर्बाद
*
कुछ मुट्ठी भर चेहरे, बासी सोच- विचार
नव पीढ़ी हित व्यर्थ हैं, जिनके सब आचार
चित्र-खबर में छप सकें, बस इतना उद्देश्य-
परिवर्तन की कोशिशें कर देते बेकार.
*
कतरा-कतरा तिमिर पी, ऊषा ले अरुणाई
'जाग' सूर्य से कह रही, 'चल कर लें कुड़माई'
'धत' कह लहना सिंह हुआ, भास्कर तपकर लाल
नेह नर्मदा तीर पर, कलकल पडी सुनाई
*
पंकज को आ गया है सुन सोना पर प्यार
देख लक्ष्मी को चढ़ा पल में तेज बुखार
कहा विष्णु से लीजिये गहने सभी समेट-
वित्तमंत्री चेता रहे भाव करें हद पार
२६-१०-२०१४
***
'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?
विजय राज बली माथुर
विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर के कारण बरेली, शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ में अपना मकान बना कर बस गए) अब अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में बस गए हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां दे
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है.
*
प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है।कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः, यह पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया है। इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिनविभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनकेद्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता थावह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देनेके योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थीको 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे ।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि -वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाति-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुए भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
***