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बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

अक्तूबर १५, ग़ज़ल, बाल, दोहा, प्रभाती, फिटकरी, आंकिक उपमान, नेपाली, नदी, देवनागरी

सलिल सृजन अक्तूबर १५
विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
पर्यटन प्रकोष्ठ
 गत २ मई २०२५ से ८ मई २०२५ तक मारीशस तथा २६अगस्त २०२५ से ३१ अगस्त २०२५ तक श्री लंका की सफल यात्राओं के पश्चात अब दुबई (२५ दिसंबर २०२५ से ३१ दिसंबर २०२५) तथा उत्तराखंड (१० फरवरी २०२५ से १६ फरवरी २०२५) यात्राएँ प्रस्तावित हैं। 
जो साथी इन स्थानों की यात्रा निर्धारित तारीखों में करने के इच्छुक हैं वे अपना नाम, शहर तथा वाट्स एप क्रमांक अंकित करें।

अ. दुबई यात्रा (२५ दिसंबर २०२५ से ३१ दिसंबर २०२५) 
व्यय अनुमान प्रति व्यक्ति- १.१ लाख रु. 
१. संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर ९४२५१८३२४४
२. दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन' जबलपुर ८८३९२०६३९१
३. 
४. 
५.

आ. उत्तराखंड यात्रा (१० फरवरी २०२६ से १६ फरवरी २०२६)
व्यय अनुमान प्रति व्यक्ति- ३० हजार रु.
१. संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर ९४२५१८३२४४
२. चंद्र शेखर लोहुमी पुणे ९५६१२११९९०
३. 
४.
५.
६. 
००० 
एक रचना: नेपाली अनुवाद :
संजीव वर्मा 'सलिल' विधि गुरुङ्ग
* *
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
एक सच जान लो एउटा सत्य थाहा पाऊ
समय के साथ आती-जाती है समय संग आउञ्छ जान्छ
धूप और छाँव छाया र घाम
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं तर हामी छोर्दैनौ है
अपना घर या गाँव। आफ्नो घर र गाम
परिस्थितियाँ बदलती हैं, परिस्थिति बद्लि रहन्छ
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं दुरी घटी-बढ़ी रहन्छ
लेकिन दोस्त नहीं बदलते तर मित्रता बदलिन्दैन
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मनको नाता तुतिन्दैन
मुँह फुलाकर रूठ जाने से मुख फुलाएर रिसाउने बितिकै
सदियों की सभ्यताएँ सदियौंको सभ्यता
समेत नहीं होतीं। बिलिन हुँदैन।
हम-तुम एक थे, हामी तिमि एक थियौं ,
एक हैं, एक रहेंगे। एक छौं एक रही रहनेछौ
अपना सुख-दुःख आफ्नो सुख-दुःख,
अपना चलना-गिरना हिंद्नु- लड्नु
संग-संग उठना-बढ़ना संग - संग उठ्नु - अघि बढनु
कल भी था, हिजो पनि थियौं,
कल भी रहेगा। आज पनि छौं भोलिनी रहनेछौं
आज की तल्खी आजको कट्तुता
मन की कड़वाहट मनको कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह पानी बिनको बादल सरी
न कल थी, न हिजो थियो
न कल रहेगी। न भोली रहन्छ
नेपाल भारत के ह्रदय में नेपाल भारतको मनमा
भारत नेपाल के मन में भारत नेपालको मनमा
था, है और रहेगा। सदा रहन्छ।
इतिहास हमारी मित्रता की इतिहांस ले हाम्रो मित्रता को
कहानियाँ कहता रहा है, कथा सुनाउंछ
कहता रहेगा। सुनाई रहनेछ
आओ, हाथ में लेकर हाथ आऊ, हाथ मा लिएर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ पाइला चालऊं एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ न निहुराएको थियौं, शिर न झुकाउने छौं
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। हमेसा उच्च थियो शिर उच्चनै राख्ने छौं
नेता आयेंगे-जायेंगे नेता आउँछ - जान्छ
संविधान बनेंगे-बदलेंगे संबिधान बन्छ बद्लिन्छ
लेकिन हम-तुम तर तिमि-हामी,
कोटि-कोटि जनगण करोडौं जनता
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे न छुट छौं, न लड्छौं
दूध और पानी की तरह दूध र पानी जस्तै
शिव और भवानी की तरह शिव र पार्वती जस्तै
जन्म-जन्म साथ थे, जुनी जुनी साथ थियौं
हैं और रहेंगे छौं र रही रहन्छौं
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
*** ***

हिंदी ग़ज़ल
वज़्न: २२ २२ २२ २
अरकान- फेलुन फेलुन फेलुन फा।
बह्र- बहरे मीर (लघु)
० 
पर्वत सागर खाई दे।
गगन पिता भू माई दे।।
.
हँसी उड़ा लूँ खुद की खुद।
तू न मुझे रुसवाई दे।। 
कर लूँ साँसें बाराती।
नव आशा शहनाई दे।। 
.
दिन दोहा होकर झूमे।
रात मुझे चौपाई दे।। 
.
जीते जी जो जान ले ले।
ऐसी मत मँहगाई दे।। 
.
रुपयों ने सुख-चैन हरा
धेला-आना-पाई दे।।
.
मुक्ति दिला दे 'ब्रो-सिस' से।
घर-घर जीजी-भाई दे।।
.
पर सुख की प्रभु चाह न हो
चाहे पीर पराई दे।।
.
जन्म मिला संजीव बनूँ
थोड़ी तो बीनाई दे।।
०००
ब्रो-सिस = ब्रदर-सिस्टर
बीनाई= सत्य देखने की क्षमता
१५-१०-२०२५ 
***
बाल रचना
बोलो कम तुम ज्यादा पढ़ना
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ना
अपने सपने यदि सच करना
कंकर से तुम शंकर गढ़ना
पीछे रहो न धक्का देना
चलना तेज निरंतर बढ़ना
है आसान बैठना घर में
मुश्किल होता बाहर कढ़ना
कोशिश-फ्रेम बना ले पहले
चित्र सफलता का तब मढ़ना
***
एक रचना 
सृष्टि, तप और मुक्ति 
० 
सृष्टि रची क्यों प्रभु ने कौन बताएगा? 
तप में बाधक या साधक समझाएगा?
लक्ष्य मुक्ति या पुनर्जन्म है कौन कहे-
मिले कर्म-परिणाम, नहीं बच पाएगा।। 
*
बाधा होता अगर विश्व यह
क्यों रचता इसको करतार?
साधन है यह साध्य नहीं है
समझ सहायक है संसार।
मन से मन की बात करो रे!
मत औरों को दो उपदेश।
मन ही पालन करे हुक्म का
मन ही दे मन को आदेश।
देख बाहरी दुनिया मन ने
चैन न पाया मूँदे नैन।
देखूँ तनिक भीतरी दुनिया
उजियाली हो मन में रैन।
अपने में डूबूँ, अपने से
आप करूँ साक्षात् तनिक।
आप प्रश्न कर उत्तर खोजूँ
सुनूँ आप की बात तनिक।
कर मस्तक में ऊर्जा केंद्रित
मन में झिलमिल दिखे प्रकाश।
ग्रह नक्षत्र सूर्य शशि भू सह
दिखे सिंधु, सारा आकाश।
हेरे मन को मन ही मन, मन
टेरे मन को मन ही मन।
शांति असीम मिले अंतर को
परम शांत हो निज चेतन।
तप तब ही जब देह-जगत हो
बिन काया-माया तप नाहिं।
छाया ईश्वर की पाना तो
रम कर, मत रम तू जग माहिं।
१५-१०-२०२२
***
कार्य शाला - छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
दोहा में 'दो' मूल है, द्विपदी दो पग जान।
दो-दो हैं सम-विषम पद, कहता चरण जहान।।
*
गौ भाषा को दोहता, दोहा गहता अर्थ।
गागर में सागर भरे, दोहाकार समर्थ।।
*
विषम चरण दो आदि में, पहला-तीजा देख।
दूजा-चौथा सम चरण, दो इनको अवरेख।।
*
दो अक्षर गुरु-लघु रहें, पंक्ति-अंत उच्चार।
दो शब्दों में जगन का, है प्रयोग स्वीकार।।
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल।
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल।।
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष।
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष।।
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर।
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर।।
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़।
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़।।
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र।
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र।।
१५-१०-२०२१
***
प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
१५-१०-२०१९
***
घरेलू नुस्खे / आयुर्वेद
फिटकरी के उपयोग:
१. पिसी फिटकरी चौथाई चम्मच, एक कप कच्चे दूध में डाल,लस्सी बनाकर दो-दो घंटे बाद पिलाने से गर्भपात रुकता है
२. श्वेत प्रदर एवं रक्त प्रदर दोनों में चौथाई चम्मच पिसी फिटकरी पानी से रोजाना 3 बार फाँकें।
३.खूनी बवासीर होने पर फिटकरी को पानी में घोलकर गुदा में पिचकारी दें। साफ कपड़ा फिटकरी के पानी में भिगोकर गुदा-द्वार पर रखें ।
४. सुजाक (पेशाब करते समय जलन) हो तो ६ ग्राम पिसी हुई फिटकरी एक गिलास पानी में घोलकर कुछ दिन पिएँ।
५. सर्दियों में पानी में ज्यादा काम करने से अँगुलियों में सूजन या खाज होने पर पानी में फिटकरी उबालकर उससे धोएँ।
६. ज्यादा सुरापान के बाद ६ग्राम फिटकरी पानी में घोलकर पीने से नशा कम होता है।
७. गले में दर्द होने पर गर्म पानी में फिटकरी और नमक डालकर गरारे करने से टॉन्सिल ठीक होते हैं। मुँह, गला और दाँत भी साफ होते हैं।
८. बार-बार बुखार आने एक ग्राम फिटकरी में दो ग्राम चीनी को मिलाकर २-२ घंटे के अंतर से से दो बार दें।
९. दाँत दर्द हो तो फिटकरी को रूई में रखकर छेद में दबा दें और लार टपकाएँ। दाँत दर्द ठीक हो जाएगा।
१०. फिटकरी को पानी में घोलकर कुल्ले करने से मुँह के छाले ठीक हो जाते हैं।
११. कान में चींटी चली जाए तो फिटकरी को पानी में घोलकर कान में डालें। चींटी बाहर निकल आएगी।
१२. आधा गिलास पानी में ६ ग्राम फिटकरी घोलकर कुछ दिन पिलाने से हैजे में लाभ होता है।
१३. आंतरिक चोट लगने पर ४ ग्राम फिटकरी पीसकर आधा किलो गाय के दूध में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
१४. हाथ-पाँव में पसीना आता हो तो फिटकरी को पानी में घोलकर इससे हाथ-पाँव धोएँ।
१५. फिटकरी के पानी से सिर धोने से जुएँ नष्ट हो जाती हैं।
१६. चार्म रोग से प्रभावित भाग को फिटकरी के पानी से दिन में ३-४ बार धो लें। सभी प्रकार के चर्मरोग मिट जाते हैं।
१७. आधा ग्राम पिसी हुई फिटकरी शहद में मिलाकर चाटने से दमा और खाँसी में आराम मिलता है।
१८. गाय के दूध में थोड़ी-सी फिटकरी घोलकर ३-४-बूँद नाक में डालने से नाक में खून आना बंद हो जाता है।
१९. फिटकरी के चूर्ण में शहद मिलाकर उसमें रूई लपेटकर कान में रखने से कान का घाव भर जाता है।
२०. पिसी हुई फिटकरी पानी में घोलकर दिन में २ बार कुल्ला करने से पायरिया रोग ठीक होता है।
२१. नजला-जुकाम होने पर फिटकरी को गर्म तवे पर फुलाकर महीन पीस लें,एक चुटकी गुनगुने पानी के साथ दिन में तीन बार लें।
२२. अनचाहे बाल हटाने के लिए फिटकरी को पानी के साथ जहाँ से बाल हटाना हैं, वहाँ सप्ताह में दो दिन लगाकर आधे घंटे बाद पानी से धोलें। उसके बाद वेक्स द्वारा बालों को हटा दें। कुछ समय बाद बाल आने बंद हो जाएँगे।
***
कार्य शाला- छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल.
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल.
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर.
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़.
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र.
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र.
***
मुक्तिका
*
२६ मात्रिक राशि-रत्न छंद
विधान- यति १२-१४, पदांत IS
*
पंक जब दे छोड़ तब, पंकज लुटा परिमल सके
रहे लिपटा पंक में, जो वह न पूजित हो सखे!
सिर्फ कमियाँ खोजना, औरों की खुद को श्रेष्ठ कह
आत्म-अवलोकन करे, तो कमी खुद में भी दिखे
और की खूबी नहीं, होती सहन जिस दृष्टि को
मोतिया बन खामियाँ, देखीं वहीं हमने पले
क्लिष्टता आराध्य कह, जो प्रेत हैं कठिनाई के
डर उन्हीं से छंद तज, युव राह ग़ज़लों की चुने
सराहे तुलसी गए, जब जायसी से अधिक तो
विवश खेमेबाज मिल, मानस रखें नीचे लजे
मुक्तिका हिंदी गजल, पर गीतिका जो कह रहे
तेवरी उपहास कर, उनका सतत गुपचुप हँसे
[टिप्पणी- नवाविष्कृत छंद, राशि १२, रत्न १४]
***
छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: ?। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
१५-१०-१०१८
***
दोहा
नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम
***
एक रचना: नेपाली अनुवाद :
संजीव वर्मा 'सलिल' विधि गुरुङ्ग
* *
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
एक सच जान लो एउटा सत्य थाहा पाऊ
समय के साथ आती-जाती है समय संग आउञ्छ जान्छ
धूप और छाँव छाया र घाम
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं तर हामी छोर्दैनौ है
अपना घर या गाँव। आफ्नो घर र गाम
परिस्थितियाँ बदलती हैं, परिस्थिति बद्लि रहन्छ
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं दुरी घटी-बढ़ी रहन्छ
लेकिन दोस्त नहीं बदलते तर मित्रता बदलिन्दैन
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मनको नाता तुतिन्दैन
मुँह फुलाकर रूठ जाने से मुख फुलाएर रिसाउने बितिकै
सदियों की सभ्यताएँ सदियौंको सभ्यता
समेत नहीं होतीं। बिलिन हुँदैन।
हम-तुम एक थे, हामी तिमि एक थियौं ,
एक हैं, एक रहेंगे। एक छौं एक रही रहनेछौ
अपना सुख-दुःख आफ्नो सुख-दुःख,
अपना चलना-गिरना हिंद्नु- लड्नु
संग-संग उठना-बढ़ना संग - संग उठ्नु - अघि बढनु
कल भी था, हिजो पनि थियौं,
कल भी रहेगा। आज पनि छौं भोलिनी रहनेछौं
आज की तल्खी आजको कट्तुता
मन की कड़वाहट मनको कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह पानी बिनको बादल सरी
न कल थी, न हिजो थियो
न कल रहेगी। न भोली रहन्छ
नेपाल भारत के ह्रदय में नेपाल भारतको मनमा
भारत नेपाल के मन में भारत नेपालको मनमा
था, है और रहेगा। सदा रहन्छ।
इतिहास हमारी मित्रता की इतिहांस ले हाम्रो मित्रता को
कहानियाँ कहता रहा है, कथा सुनाउंछ
कहता रहेगा। सुनाई रहनेछ
आओ, हाथ में लेकर हाथ आऊ, हाथ मा लिएर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ पाइला चालऊं एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ न निहुराएको थियौं, शिर न झुकाउने छौं
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। हमेसा उच्च थियो शिर उच्चनै राख्ने छौं
नेता आयेंगे-जायेंगे नेता आउँछ - जान्छ
संविधान बनेंगे-बदलेंगे संबिधान बन्छ बद्लिन्छ
लेकिन हम-तुम तर तिमि-हामी,
कोटि-कोटि जनगण करोडौं जनता
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे न छुट छौं, न लड्छौं
दूध और पानी की तरह दूध र पानी जस्तै
शिव और भवानी की तरह शिव र पार्वती जस्तै
जन्म-जन्म साथ थे, जुनी जुनी साथ थियौं
हैं और रहेंगे छौं र रही रहन्छौं
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
*** ***
महाकवि सूरदास का एक दुर्लभ पद-
...................................................
महराज भवानी, ब्रह्म्भुवन की रानी।
आगे शंकर तांडव करत हैं, भाव करत शूलपानी।।
सुर-नर-गन्धर्व की भीड़ भई है, आगे खड़ा दंडपानी।
‘सूरदास’ प्रभु पल-पल निरखत, भक्तवत्सल जगदानी।।
(नोट- इस पद को पं० भीमसेन जोशी ने गाया है, जिसको ‘म्यूजिक टुडे’ ने अपनी ‘भक्तिमाला’ सीरीज में रिकॉर्ड कर कैसेट संख्या डी-92005 में प्रस्तुत किया है.)
***
नव गीत:
*
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
खिलता हुआ पलाश सुलगता
वॅलिंटाइन पर्व याद कर
हवा बसंती, फ़िज़ां नशीली
बहक रही है लिपट-चिपटकर
घूँघट-बेंदा, पायल-झुमका
झिझक-झेंपती लाज कहाँ है?
सर की, दर की
फ़िक्र जिसे थी, बाट नहीं है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पनघट, नुक्क्ड़, चौपालों से
अपनापन हो गया पराया
खलिहानों ने अमराई को-
लूट-रौंदकर दिल बहलाया
नौ दिन-रात पूज नौ देवी
खुद, जग को छले भक्त ही
बदी बढ़ी पर
हुई न अब तक खाट खड़ी है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पूरा-पुरातन दिव्य सभ्यता
अब केवल बाजार हो गयी
रिश्ते-नाते, ममता-लोरी
राखी, बिंदिया भार हो गयी
जंगल, पर्वत, रेत, शिलाएँ
बेचीं, अब आत्मा की बारी
संसाधन हैं
तबियत मगर उचाट हुई है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
१४- १०-२०१५
***
विमर्श
देवनागरी लिपि में लिखने वालों के लिए कुछ उपयोगी बाते...
हिन्दी लिखने वाले अक़्सर 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...।
कहाँ क्या इस्तेमाल होगा, इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...।
जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं... जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...।
इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है... इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...। इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...। 'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है... मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...।
क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...?
( 'मिलाई' ग़लत है...।)
आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...।
( 'जताई' ग़लत है...।)
उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है...।)
अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।
बच्चों ने प्रतियोगिता के दौरान सुन्दर चित्र बनाये...। ( 'बनाए' नहीं...। )
लोगों ने नेताओं के सामने अपने-अपने दुखड़े गाये...। ( 'गाए' नहीं...। )
दीवाली के दिन लखनऊ में लोगों ने अपने-अपने घर सजाये...। ( 'सजाए' नहीं...। )
तो फिर प्रश्न उठता है कि 'ए' का प्रयोग कहाँ होगा..? 'ए' वहाँ आएगा जहाँ अनुरोध या रिक्वेस्ट की बात होगी...।
अब आप काम देखिए, मैं चलता हूँ...। ( 'देखिये' नहीं...। )
आप लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में सोचिए...। ( 'सोचिये' नहीं...। )
नवेद! ऐसा विचार मन में न लाइए...। ( 'लाइये' ग़लत है...। )
अब आख़िर (अन्त) में 'यें' और 'एँ' की बात... यहाँ भी अनुरोध का नियम ही लागू होगा... रिक्वेस्ट की जाएगी तो 'एँ' लगेगा , 'यें' नहीं...।
आप लोग कृपया यहाँ आएँ...। ( 'आयें' नहीं...। )
जी बताएँ , मैं आपके लिए क्या करूँ ? ( 'बतायें' नहीं...। )
मम्मी , आप डैडी को समझाएँ...। ( 'समझायें' नहीं...। )
अन्त में सही-ग़लत का एक लिटमस टेस्ट... एकदम आसान सा... जहाँ आपने 'एँ' या 'ए' लगाया है , वहाँ 'या' लगाकर देखें...। क्या कोई शब्द बनता है ? यदि नहीं , तो आप ग़लत लिख रहे हैं...।
आजकल लोग 'शुभकामनायें' लिखते हैं... इसे 'शुभकामनाया' कर दीजिए...। 'शुभकामनाया' तो कुछ होता नहीं , इसलिए 'शुभकामनायें' भी नहीं होगा...।
'दुआयें' भी इसलिए ग़लत हैं और 'सदायें' भी... 'देखिये' , 'बोलिये' , 'सोचिये' इसीलिए ग़लत हैं क्योंकि 'देखिया' , 'बोलिया' , 'सोचिया' कुछ नहीं होते...।
रचयिता...अज्ञात...
डॉ Anita Singh की वाल से साभार ।
Sanjiv Verma 'salil' आपके अनुसार तो 'भला हुआ' में 'हुआ' क्रिया होने के कारण स्त्रीलिंग 'हुयी' होगा जो गलत है। मूल बात यह है की 'आ' का 'स्त्रीलिंग 'ई' होगा और 'या' का 'यी' बहुवचन में क्रमश: 'ए' और 'ये' होगा। अपवाद भी हैं। जैसे' तू आ' यह स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में समान रहेगा और बहुवचन में 'तुम सब आओ' होगा। हुआ, हुई, हुए, गया, गयी, गये सही रूप हैं।
***
Book Review
Showers to the Bowers : Poetry full of emotions
(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )
Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.
The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'
'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.
According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'
Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.
Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'
In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.
....
दोहा सलिला
भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..
आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..
मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..
शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..
राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..
दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..
सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..
हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..
कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..
हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..
रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार. स्वार्थ- बैर,
मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
१५-१०-२०१०
***

बुधवार, 4 जून 2025

जून ४, मदनाग छंद , आंकिक उपमान, सॉनेट, मदन मस्त, मानव छंद, मुक्तिका, नवगीत, राजेन्द्र वर्मा

सलिल सृजन जून ४
*
सॉनेट
मदन मस्त तुम महकते
लेकिन नहीं पराग है
मन में तनिक न आग है
ऊँचे-लंबे गमकते।
कभी न देखा चहकते
पर्ण वसन बेदाग है
सुमन सुमन अनुराग है
व्यर्थ न जहँ-तहँ भटकते।।

'मनोरंगिनी' बन इतर
महकाता सारा जगत
काष्ठ चूर्ण समिधा बने।
कवि 'यलंग' का गान कर
पुष्पांजलि देता भगत
सहज, न नाहक झुक-तने ।।
४.६.२०२५
***
मुक्तिका
*
बाँचते सपने कथाएँ
विगत को कैसे भुलाएँ?
*
कहे आगत चूकना मत
जो मिले अवसर भुनाएँ
*
बात मुँह देखी करें सब
क्या सही सच कब बताएँ?
*
हमसफर-हमकदम हैं तो
श्वास-श्वासों में घुलाएँ
*
चाह निजता की विषैली
पाल दूरी मत बढ़ाएँ
*
आप बेगम क्यों न बे-गम
ख़ुशी को हमदम बनाएँ
*
धूप-छाँवी ज़िंदगी है
स्नेह-सलिला नित नहाएँ
***
[मानव जातीय छन्द]
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
दोहा सलिला
सुधा-पान कर इंदु जा, बैठा शिव के शीश
नागनाथ के सिर चढ़ा, देखें चकित गिरीश
*
कर न सकें सरकार क्यों, असरकार कुछ काम?
गलत नीतियाँ बनाकर, कहें विधाता वाम
*
श्री वास्तव में पा सके, जो है वही रमेश
हाथ जोड़ वंदन करे, सुर नर सिद्ध सुरेश
*
वृक्षारोपण हो नहीं, सकता यह लें मान
पौधारोपण हो-बढ़े, तब हो वृक्ष वितान
*
भाषा वाहक भाव की, कहे सत्य अनुभूत
संवेदन हर शब्द में, अन्तर्निहित प्रभूत
*
शर्मा रहे सुधेन्दु क्यों, करें स्नेह संवाद
सीधी-सच्ची बात से, मिटते सभी विवाद
*
दोहा हिंदी बघेली, दोनों से कर प्रीत
भाईचारे की 'सलिल', बना रहा है रीत
४.६.२०२०
***
गीत-
आ! दुख को तकिया कर,
यादों को बिस्तर कर,
खुशियों के हो लें हम।
*
जब-जब खाई ठोकर,
तब-तब भूलें रोकर।
उठें-बढ़ें, मंजिल पा-
सपने नव बोलें हम।
*
मौज, मजा, मस्ती ही
ज़िंदगी नहीं होती।
चलो! श्रम, प्रयासों की-
राहें हँस खोलें हम।
*
तू-मैं को बिसराकर,
आजा हम हो जाएँ।
तू-तू-मैं-मैं भूलें-
स्नेह-प्रेम घोलें हम।
*
बीजे शत उगने दें,
अंकुर हर बढ़ने दें।
पल्लव हों कली-पुष्प-
फल पाएँ तौलें हम।
*
गुल सूखे थामे तू,
खत पीला बाँचूं मैं
फिर डूबें यादो में-
नींद मग्न हो लें हम।
२७.२.२०१८

***
मुक्तिका
*
बाँचते सपने कथाएँ
विगत को कैसे भुलाएँ?
*
कहे आगत चूकना मत
जो मिले अवसर भुनाएँ
*
बात मुँह देखी करें सब
क्या सही सच कब बताएँ?
*
हमसफर-हमकदम हैं तो
श्वास-श्वासों में घुलाएँ
*
चाह निजता की विषैली
पाल दूरी मत बढ़ाएँ
*
आप बेगम क्यों न बे-गम
ख़ुशी को हमदम बनाएँ
*
धूप-छाँवी ज़िंदगी है
स्नेह-सलिला नित नहाएँ
***
[मानव जातीय छन्द]
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोईसमीक्षा

यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
४.६.२०१६
***
नवगीत:
*
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
बब्बा गंज,
कढ़ाई दादी,
बेलन नाना,
झरिया नानी
मँहगाई का रोना रोते
नेह-प्रेम की फसलें बोते
बिना सियासत ताल-मेल कर
मन का संयम तनिक न खोते
आये एक पर
मुश्किल, सब मिल
सिर पर लेते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
आटा-दाल,
मिठाई-रोटी,
पुड़ी-कचौरी ,
ताज़ी मोटी.
जिस मन भाये, जी भर खाये.
बिना मिलावट, पचा न पाये.
फास्ट फुडों की मारामारी
कोल्ड ड्रिंक करता बटमारी.
लस्सी-पनहा
पान-पन्हैया
बिसरा देते
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
खस के परदे,
कूलर निगले,
भीषण ताप,
गैस भी उगले.
सरकारें कर बढ़ा-बढ़ाकर
अपनी ही जनता को लूटें.
अफसर-नेता निज सुविधा पर
बेदर्दी से जन-धन फूंकें.
अच्छे दिन है
अच्छे-अच्छे
हारे-रोते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
***

मुक्तक:
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश
ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
४.६.२०१५
***
छंद सलिला:
मदनाग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति पद - मात्रा २५ मात्रा, यति १७ - ८
लक्षण छंद:
कलाएँ सत्रह-आठ दिखाये, नटवर अपनी
उगल विष नाग कालिया कोसे, किस्मत अपनी
छंद मदनाग निराशाएं कर दूर, मगन हो
मुदित मन मथुरावासी हर्षित, मोद मगन हों
उदाहरण:
१. देश की जयकार करते रहें, विहँस हम सभी
आत्म का उद्धार करते रहें, विहँस हम सभी
बुरे का प्रतिकार करते रहें, विहँस हम सभी
भले का सहकार करते रहें, विहँस हम सभी
२. काम कुछ अच्छा करना होगा, संकल्प करें
नाम कुछ अच्छा वरना होगा, सुविकल्प करें
दाम हर चीज का होता नहीं, ये सच कह दें
जान निज देश पर निसार 'सलिल' हर कल्प करें
३.जीत वही पाता जो फिसलकर, उठ भी सकता
मंज़िल मिले उसे जो सम्हलकर, शुभ कर सकता
होता घना अँधेरा धरा पर, जब-जब बेहद
एक नन्हा दीप खुद जलकर सब, तम हर सकता
***
***
रैप सॉन्ग
सुनो प्रणेता!
बनो विजेता।
कहो कहानी,
नित्य सुहानी।
तजो बहाना,
वचन निभाना।
सजन सजा ना!
साज बजा ना!
लगा डिठौना,
नाचे छौना
चाँद चाँदनी,
पूत पावनी।
है अखंड जग,
आठ दिशा मग
पग-पग चलना,
मंज़िल वरना।

***
शोध
छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
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३३ कोटि देवता
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देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
४.६.२०१४
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