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शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: खिलेंगे फूल..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

खिलेंगे फूल.....

संजीव 'सलिल'
*
खिलेंगे फूल-लाखों बाग़ में, कुछ खार तो होंगे.
चुभेंगे तिलमिलायेंगे, लिये गलहार तो होंगे..

लिखे जब निर्मला मति, सत्य कुछ साकार तो होंगे.
पढेंगे शब्द हम, अभिव्यक्त कारोबार  तो होंगे..

करें हम अर्थ लेकिन अनर्थों से बचें, है मुमकिन.
बनेंगे राम राजा, सँग रजक-दरबार तो होंगे..

वो नटवर है, नचैया है, नचातीं गोपियाँ उसको.
बजाएगा मधुर मुरली, नयन रतनार तो होंगे..

रहा है कौन ज़ालिम इस धरा पर हमेशा बोलो?
करेगा ज़ुल्म जब-जब तभी कुछ प्रतिकार तो होंगे..

समय को दोष मत दो, गलत घटता है अगर कुछ तो.
रहे निज फ़र्ज़ से गाफिल, 'सलिल' किरदार तो होंगे..

कलम कपिला बने तो, अमृत की रसधार हो प्रवहित.
'सलिल' का नमन लें, अब हाथ-बन्दनवार तो होंगे..


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शनिवार, 25 सितंबर 2010

मुक्तिका: बिटिया संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

बिटिया

संजीव 'सलिल'
*
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..

कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..

झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती,  तानों से घबराई बिटिया..

नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..

खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..

करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..

राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..

जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..

पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..

फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..

दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..

मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम  

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

मुक्तिका: आँखें गड़ाये... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आँखें गड़ाये...

संजीव 'सलिल'
*
आँखें गड़ाये ताकता हूँ आसमान को.
भगवान का आशीष लगे अब झरा-झरा..

आँखें तरस गयीं है, लबालब नदी दिखे.
जंगल कहीं तो हो सघन कोई हरा-हरा..

इन्सान तो बहुत हैं शहर-गाँव सब जगह.
लेकिन न एक भी मिला अब तक खरा-खरा..

नेताओं को सौंपा था देश करेंगे सरसब्ज़.
दिखता है खेत वतन का सूखा, चरा-चरा..

फूँक-फूँक पी रहे हम आज छाछ को-
नादां नहीं जल चुके दूध से जरा-जरा..

मंदिर हो. काश्मीर हो, या चीन का मसला.
कर बंद आँख कह रहे संकट टरा-टरा..

जो हिंद औ' हिन्दी के नहीं काम आ रहा.
जिंदा भले लगे, मगर है वह मरा-मरा..

देखा है जबसे भूख से रोता हुआ बच्चा.
भगवान का भी दिल है दर्द से भरा-भरा..

माता-पिता गए तो सिर से छाँव ही गई.
बेबस है 'सलिल' आज सभी से डरा-डरा..

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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

मुक्तिका:: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'

                                                मुक्तिका::
                                                                          
कहीं निगाह...

संजीव 'सलिल'
*
कदम तले जिन्हें दिल रौंद मुस्कुराना है.
उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है

कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..

न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

पड़े जो काम तो तू बाप गधे को कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..

जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..

किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
अकेले आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..

चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..

गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मुक्तिका: ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                                                                                                            
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई

संजीव 'सलिल'


*
मुक्तिका:

ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह ग
यी

संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
 
रिश्तों में भी न कुछ हमदमी रह गयी..

गैर तो गैर थे, अपने भी गैर हैं.
 
आँख में इसलिए तो नमी रह गयी..

जो खुशी थी वो न जाने कहाँ खो गयी.
आये जब से शहर संग गमी रह गयी..

अब गरमजोशी ढूँढ़े से मिलती नहीं.
लब पे नकली हँसी ही जमी रह गयी..


गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..  


माँ न मैया न माता न लाड़ो-दुलार.
'सलिल' घर में हावी ममी रह गयी ...


गाँव में थी खुशी, भाईचारा, हँसी. 
अब सियासत 'सलिल' मातमी रह गयी..

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-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 11 सितंबर 2010

मुक्तिका: डाकिया बन वक़्त... --- संजीव 'सलिल'

theek hai abstract Pictures, Images and Photos
मुक्तिका:

                          डाकिया बन  वक़्त...

संजीव 'सलिल'
*

*
सुबह की  ताज़ी  हवा  मिलती  रहे  तो  ठीक  है.
दिल को छूता कुछ, कलम रचती रहे तो ठीक है..

बाग़ में  तितली - कली  हँसती  रहे  तो  ठीक  है.
संग  दुश्वारी  के   कुछ  मस्ती  रहे  तो  ठीक  है..

छातियाँ हों  कोशिशों  की  वज्र  सी  मजबूत तो-
दाल  दल  मँहगाई  थक घटती  रहे  तो ठीक है..

सूर्य  को  ले ढाँक बादल तो न चिंता - फ़िक्र कर.
पछुवा या  पुरवाई  चुप  बहती रहे  तो ठीक  है.. 

संग  संध्या,  निशा, ऊषा,  चाँदनी  के  चन्द्रमा
चमकता जैसे, चमक  मिलती  रहे  तो ठीक है..

धूप कितनी भी  प्रखर हो, रूप  कुम्हलाये  नहीं.
परीक्षा हो  कठिन  पर फलती  रहे  तो ठीक  है..

डाकिया बन  वक़्त खटकाये  कभी कुंडी 'सलिल'-
कदम  तक  मंजिल अगर चलती रहे  तो ठीक है..

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Acharya Sanjiv Salil

शनिवार, 4 सितंबर 2010

मुक्तिका: उज्जवल भविष्य संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



उज्जवल भविष्य



संजीव 'सलिल'

*

उज्जवल भविष्य सामने अँधियार नहीं है.

कोशिश का नतीजा है ये उपहार नहीं है..



कोशिश की कशिश राह के रोड़ों को हटाती.

पग चूम ले मंजिल तो कुछ उपकार नहीं है..



गर ठान लें जमीन पे ले आयें आसमान.

ये सच है इसमें तनिक अहंकार नहीं है..



जम्हूरियत में खुद पे खुद सख्ती न करी तो

मिट जायेंगे और कुछ उपचार नहीं है..



मेहनतो-ईमां का ताका चलता हो जहाँ.

दुनिया में कहीं ऐसा तो बाज़ार नहीं है..



इंसान भी, शैतां भी, रब भी हैं हमीं यारब.

वर्ना तो हम खिलौने हैं कुम्हार नहीं हैं..



दिल मिल गए तो जात-धर्म कौन पूछता?

दिल ना मिला तो 'सलिल' प्यार प्यार नहीं है..



जगे हुए ज़मीर का हर आदमी 'सलिल'

महका गुले-गुलाब जिसमें खार नहीं है..



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divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 29 अगस्त 2010

मुक्तिका: मछलियाँ -----संजीव 'सलिल'


मछलियाँ


मुक्तिका

मछलियाँ

संजीव 'सलिल'

*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..

मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..

मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..

मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..

हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम


Virtual Pet Fish

रविवार, 22 अगस्त 2010

मुक्तिका: समझ सका नहीं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

समझ सका नहीं

संजीव 'सलिल'
*




















*
समझ सका नहीं गहराई वो किनारों से.
न जिसने रिश्ता रखा है नदी की धारों से..

चले गए हैं जो वापिस कभी न आने को.
चलो पैगाम उन्हें भेजें आज तारों से..

वो नासमझ है, उसे नाउम्मीदी मिलनी है.
लगा रहा है जो उम्मीद दोस्त-यारों से..

जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से.. 

वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

'सलिल' न कुछ कहो ये आजकल के नेता हैं.
है इनका नाता महज तोड़-फोड़ नारों से..
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम  

सोमवार, 19 जुलाई 2010

मुक्तिका: सुन जिसे झूमें सभी... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सुन जिसे झूमें सभी...

संजीव 'सलिल'
*
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*

सुन जिसे झूमें सभी वह गान है.
करे हृद-स्पर्श जो वह तान है..

दिल से दिल को जो मिला, वह नेह है.
मन ने मन को जो दिया, सम्मान है..

सिर्फ खुद को सही समझा, था गलत.
परखकर पाया महज अभिमान है..

ज़िदगी भर जोड़ता क्यों तू रहा.
चंद पल का जब कि तू महमान है..

व्याकरण-पिंगल तजा, रचना रची.
'सलिल' तुझ सा कोई क्या नादान है?

******

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

मुक्तिका: ज़ख्म कुरेदेंगे.... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

ज़ख्म कुरेदेंगे....

संजीव 'सलिल'
*

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*
ज़ख्म कुरेदेंगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..

छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..

मत उधेड़-बुन को लादो, फुर्सत ओढ़ो.
होंगे बर्तन चार अगर खन-खन होगी..

फूलों के शूलों को हँसकर सहन करो.
वरना भ्रमरों के हाथों में गन होगी..

बीत गया जो रीत गया उसको भूलो.
कब्र न खोदो, कोई याद दफन होगी..

आज हमेशा कल को लेकर आता है.
स्वीकारो वरना कल से अनबन होगी..

नेह नर्मदा 'सलिल' हमेशा बहने दो.
अगर रुकी तो मलिन और उन्मन होगी..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 24 जून 2010

मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'













आज की रचना : मुक्तिका:
:संजीव 'सलिल'


ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.

कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..


जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना

आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..


वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.

फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..


रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.

किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..


दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.

खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..


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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

शुक्रवार, 18 जून 2010

मुक्तिका मिट्टी मेरी... संजीव 'सलिल'

 मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
संजीव 'सलिल'
*

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*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..


बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..

ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..

कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..

खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..

खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..

गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..

राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती
रही मिट्टी मेरी..

कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही
मिट्टी मेरी..

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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 11 जून 2010

जनक छंदी मुक्तिका: सत-शिव-सुन्दर सृजन कर ---संजीव 'सलिल'

जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
संजीव 'सलिल'
*










*
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम /सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

शनिवार, 5 जून 2010

मुक्तिका :: ....चाहता है.. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :
....चाहता है.
संजीव 'सलिल'
*
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*
हौसले को परखना चाहता है.
परिंदा नभ से लड़ना चाहता है..
*
फूल को शूल से शिकवा नहीं है.
पीर पाकर महकना चाहता है..
*
उम्र बीती समूची सम्हलने में.
पैर अब खुद बहकना चाहता है..
*
शमा ने बहुत रोका पर न माना.
इश्क में शलभ जलना चाहता है..

दोष क्यों हुस्न को देता जमाना?
वाह सुनकर निखरना चाहता है..
*
लाख़ खोजा न पाया शख्स वह जो
अदा कर फ़र्ज़ हक ना चाहता है..
*
'सलिल' क्यों आँख खोले?, जगे क्यों कर?
ख्वाब आकर ठिठकना चाहता है..
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 31 मई 2010

मुक्तिका: प्यार-मुहब्बत नित कीजै.. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*












*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.

जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..

हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..

दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..

कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..

अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै.. 

नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 30 मई 2010

एक वार्ता (चैट) मुक्तिका पर: कुसुम ठाकुर से-

एक वार्ता (चैट) मुक्तिका पर: कुसुम ठाकुर से-

इस वार्ता में कुसुम ठाकुर से मुक्तिका के शिल्प पर चर्चा हुई है. अन्य पाठकों की जिज्ञासा हो तो उस पर भी चर्चा की जा सकती है.











मैं: मुक्तिका

.....डरे रहे.

संजीव 'सलिल'
*
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.



दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.

हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.

रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.



नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.

निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.

सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.

****************

kusum thakur: namaste padh li muktika
रविवार को 12:43 PM पर भेजा गया
मैं: der se padhne kee saja...?
kusum thakur: avashya
sweekar hai
मैं: to ek aur jheliye

मुक्तिका

थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.

संजीव 'सलिल'

थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.
चाहा सुख तो पाया गम.

अधरों पर मुस्कान मिली
लेकिन आँखें पायीं नम.

दूर करो हाथों से बम.
मिलो गले कह बम-बम-बम.

'मैं'-'तू' भूलें काश सभी
कहें साथ मिल सारे 'हम'.

सात जन्म का वादा कर
ठोंक रहे आपस में ख़म.

मन मलीन को ढाँक रहे
क्यों तन को नित कर चम्-चम्.

जब भी बाला दिया 'सलिल'
मिला ज्योति के नीचे तम.

**************
kusum thakur: bahut achha hai achha ab yah shisya kuchh
 poochhana chah rahi hai
मैं: sirf tareef n karen kamee bhee batayen tanhee to sudhar sakoonga.
poochen..
kusum thakur: muktika ke niyam batayen
रविवार को 12:48 PM पर भेजा गया
मैं: muktika urdoo kee gazal की tarah hotee hai. uardoo gazal men 12 tayshudaa bahar (laykhand ) ka hee prayog hota hai.muktika ya hindee gazal men hindi ke kisi bhee chhand ka prayog kar sakte hain ya apna man pasand laykhand lrkar rachna kar sakte hain.
kusum thakur: achha
रविवार को 12:51 PM पर भेजा गया
मैं: pahalee pankti ke padbhar ( wazn ya matrayen) ke saman hee anya sabhee panktiyon ka padbhar hota hai. sanyukt akshar ko deergh (bada ya 2) mante hain.
kusum thakur: achha
रविवार को 12:54 PM पर भेजा गया
मैं: येचारों लघु (छोटे या )  गिने
जाते हैं बाकी सब २.
kusum thakur: achha
मैं: पद का आखिरी शब्द भार तथा तुक में समान होता है
kusum thakur: achha
मैं: मुखड़े में पदांत और तुकांत दोनों समान होता है. अन्य पदों में दूसरी पंक्ति का पदांत तुकांत मुखड़े के
समान
होता है.
रविवार को 12:58 PM पर भेजा गया
मैं: थोड़ा ज्यादा, ज्यादा कम.
चाहा सुख तो पाया गम.
यह मुखड़ा है
पहली पंक्ति मात्राएँ : २+२ २+२ २+२ १+१ कुल १४
दूसरी पंक्ति मात्राएँ : २+२ १+१ २ २+२
१+१ कुल १४
kusum thakur: han yah hai
रविवार को 1:01 PM पर भेजा गया
मैं: दूसरा पद :
दूर करो हाथों से बम. २+१ १+२ २+२ १+१ = १४
मिलो गले कह बम-बम-बम. १+२ १+२ १+१ १+१ १+१ १+१ = १४
रविवार को 1:02 PM पर भेजा गया
kusum thakur: han ab bilkul spasht ho gaya
मैं: कम, गम, नम आदि शब्द पदांत हैं
kusum thakur: han
मैं: और क्या बताऊँ?
अब लिखें मुक्तिका
kusum thakur: jo samajh me nahi ayega poochh lungihan
yah likh sakti hoon
मैं: likhna shuroo kar deejiye... haiku kee tarah....
aapkee pahalee muktika abhee rach jayegee.
kusum thakur: 25th ko main usa ja rahi hoon isliye ajkal thori si vyastata rahti hai
15 th ko ja rahi hoon
jaroor likhungi
मैं: samajh sakta hoon... vahan khoob muktika aur haiku likhen...
fk baat aur
kusum thakur: han wahan jane ke kuchh dino ke bad se jaroor likhungi
मैं: मुक्तिका के हर पद को उर्दू के शे'र की तरह अलग प्रिष्ठ भूमि या विषय पर रचा जाता है.
kusum thakur: apke jaise guru aur utsaah vardhan karne wale mile to avashya likhungi
achha
रविवार को 1:09 PM पर भेजा गया
मैं: nmn.
kusum thakur: naman
रविवार को 1:11 PM पर भेजा गया

*****************************


गुरुवार, 27 मई 2010

मुक्तिका: चाँदनी फसल...... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

चाँदनी फसल..

संजीव 'सलिल'
*

















*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
==दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गुरुवार, 20 मई 2010

मुक्तिका: ...चलो प्रिय --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
...चलो प्रिय.
संजीव 'सलिल'

लिये हाथ में हाथ चलो प्रिय.
कदम-कदम रख साथ चलो प्रिय.

मैं-तुम गुम हो, हम रह जाएँ.
बन अनाथ के नाथ चलो प्रिय.

तुम हो मेरे सिर-आँखों पर.
मुझे बनाकर माथ चलो प्रिय.

पनघट, चौपालें, अमराई
सूने- कंडे पाठ चलो प्रिय.

शत्रु साँप तो हम शंकर हों
नाच, नाग को नाथ चलो प्रिय.

'सलिल' न भाती नेह-नर्मदा.
फैशन करने 'बाथ' चलो प्रिय.

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बुधवार, 19 मई 2010

रचना प्रति रचना : ...क्या कीजे? --महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’, संजीव 'सलिल'

रचना प्रति रचना 
 वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध शायर श्री महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश' रचित यह ग़ज़ल ई-कविता के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई. इसे पढ़कर हुई प्रतिक्रिया प्रस्तुत हैं. जो अन्य रचनाकार इस पर लिखेंगे वे रचनाएँ और प्रतिक्रियाएँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी. उद्देश्य रचनाधर्मिता और पठनीयता को बढाकर रचनाकारों को निकट लाना मात्र है.
 जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे ईकवितामई २०१० 
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे
जब हार गए हों  मैदाँ में, शमशीरी दम-खम क्या कीजे
दुनिया में अकेले आए थे, दुनिया से अकेले जाना है
दुनिया की राहों में पाया हमराह नहीं ग़म क्या कीजे
बिठला कर के अपने दिल में हम उनकी पूजा करते हैं
वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे
दिल में तो उनके नफ़रत है पर  मीठी बातें करते हैं
वो प्यार-मुहब्बत के झूठे लहराएं परचम, क्या कीजे
क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
*
मुक्तिका:
...
क्या कीजे?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे?

सब भुला खलिश, आ नेह-नर्मदा से चुल्लू भर जल पीजे.

दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?

दुनियादारी की वर्षा में तू खुद को तर मत होने दे.
है मजा तभी जब प्यार-मुहब्बत की बारिश में तू भीजे.

जिसने बाँटा वह ज्यों की त्यों चादर निर्मल रख चला गया.
जिसने जोड़ा वह चिंता कर अंतिम दम तक मुट्ठी मीजे.

सागर, नदिया या कूप न रीता कभी पिलाकर जल अपना.
मत सोच 'सलिल' किसको कितना कब-कब कैसे या क्यों दीजे?
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