कुल पेज दृश्य

शिव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शिव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 30 जुलाई 2025

जुलाई ३०, शिव, भारत, माहिया, हाड़ौती मुक्तिका, दोहा यमक, नवगीत

सलिल सृजन जुलाई ३०
*
नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
३०-१-२०२०
***
द्विपदी
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.
**
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, रेप पर उसकी जीत हो कैसे??
*
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने 'सलिल' गिला न किया.
तोड़्ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन रह सहयोग दिया.
***
गले मिले दोहा यमक
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
*****
हाड़ौती मुक्तिका:
*
आस नरमदा तैर भायला
बह जावैगो बैर भायला
.
गेलो आपूँ आप मलैगो
मंज़िल की सुण टेर भायला
.
मुसकल है हरदा सूं खड़बो
तू आवैगो फेर भायला
.
घणू कठण है कविता करबो
आकासां की सैर भायला
.
सूल गइल पर यार सलिल' तू
चाल मेलतो पैर भायला
***
दोहा:
नेह वॄष्टि नभ ने करी, धरा गयी हँस भींज
हरियायी भू लाज से, 'सलिल' मन गयी तीज
३०-७-२०१७
***
मुक्तक:
कोशिशें करते रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
***
नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
*
३०-७-२०१६
पुस्तक चर्चा
''एक सच्चाई यह भी'' - अपनी सोच अपना नज़रिया
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- एक सच्चाई यह भी, विद्या लाल, लेख संग्रह, ISBN ९७८-९३-८५९४२-१२-९, वर्ष २०१६, २०.७ से.मी. x १४ से. मी., पृष्ठ १८८, मूल्य १५०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७]
*
'एक सचाई यह भी' असामयिक विषयों पर लिखे गए ५४ लेखों के संग्रह है। लेखिका विद्या लाल की ५ पुस्तकें जूठन और अन्य लघुकथाएँ २०१३, किसको सोचा तुमने चाँद २०१३, नीला समंदर २०१४, बिगड़ैल लड़की २०१४, तथा ज़ख्म २०१६ प्रकाशित हो चुकी हैं। विवेच्य कृति में अधिकांश लेख स्त्री विमर्श पर हैं। सामान्यतः: स्त्रियों को शोषित, पीड़ित बताने की लीक पर चलते हुए भी लेखिका ने स्त्रियाँ क्या वाकई त्याग की मूतियाँ हैं? नहीं, पुरुष नारी सहयोग के मुखापेक्षी, पुरुष प्रधान समाज पुरुषों को ही रास नहीं आता, नारी का मोहताज पुरुष दम्भ, राजनीति: खुद कितने योग्य हैं पुरुष?, पुरुष कब करेंगे स्त्री की बराबरी?, लाचार पिता आदि लेखों में पुरुष की कमी, दुर्बलता को उभारा है अर्थात स्त्री को अबला समझने की भूल पुरुष को नहीं करनी चाहिए।
स्त्रियाँ स्वर्ग रचें तो कैसे?, स्त्रियाँ कैसे कहें मेरा भारत महान? में अनेक विचारोत्तेजक प्रश्न इंगित किये गए हैं। जातीय श्रेष्ठता के भूमिसात होते स्तंभों, दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों को हीन मानने, अपने घर की और अन्य स्त्रियों के प्रति पुरुषों की दृष्टि में भेद आदि अनेक संवेदनशील प्रश्नों को लेखिका ने स्पर्श किया है और अपने दृष्टिकोण को सामने रखा है। इन लेखों के विषय रुचिकर, शैली सहज बोधगम्य तथा प्रस्तुति शालीन है। इन्हीं विषयों पर अन्य लेखिकाएँ अश्लील भाषा का प्रयोग करती हैं किन्तु विद्या जी ने तल्ख सारे तल्ख बात कहने के लिए भी शालीनता और शिष्टता को ताक पर नहीं रखा है।
सामान्य पाठक के पढ़ने और सोचने के लिए इस पुस्तक में बहुत कुछ है। किशोरों और तरुणों को इस लेखों से अपनी मानसिकता को व्यापक और स्वास्थ्य बनाने में सहायता मिलेगी।
क्या जरूरत है छूट्टियों में राष्ट्रीय होने की?, श्री राम और अल्लाह दोनों अगर लाचार नहीं हैं, इक्कीसवीं सदी विज्ञान की या आस्था की?, पुरुष भी असहाय हैं, परमाणु परीक्षण, दोष विवेक में कमी और परवरिश की आदि लेख सर्वोपयोगी और तथ्यपरक हैं। विद्या जी की लेखन शैली 'कम लिखे को अधिक समझना की' देशज विरासत की तरह है। उनकी आगामी कृतियों की प्रतीक्षा पाठकों को बनी रहेगी।
***
शिव का माहिया पूजन
*
भोले को मना लाना,
सावन आया है
गौरी जी संग आना।
*
सब मिल अभिषेक करो
गोरस, मधु, घृत से
नहलाओ प्रभु जी को।
*
ले अभ्रक भस्म गुलाल
भक्ति सहित करिए
शंकर जी का शृंगार।
*
जौ गेहूँ अक्षत दाल
तिल शर्करा सहित
शिव अर्पित करिए माल।
*
ले बिल्व पत्र ताजा
भाँग धतूरा फूल-
फल मिल चढ़ाँय आजा।
*
नागेंद्र रहे फुफकार
मुझको मत भूलो
लो बना गले का हार।
*
नंदी पूजन मत भूल
सुख-समृद्धि दाता
सम्मुख हर लिए त्रिशूल।
*
मद काम क्रोध हैं शूल
कर में पकड़ त्रिशूल
काबू करिए बिन भूल।
*
लेकर रुद्राक्ष सुमाल
जाप नित्य करिए
शुभ-मंगल हो तत्कल।
*
हे कार्तिकेय-गणराज!
ग्रहण कीजिए भोग
मन मंदिर सदा विराज।
*
मन भावन सावन मास
सबके हिया हुलास
भर गौरी-गौरीनाथ।
***
हर मुख शोभित मास्क कह रहा मैं भारत हूँ।
देश-प्रगति का टास्क कह रहा मैं भारत हूँ।।
मत अतीत को कोसो, उससे सबक सीख लो-
मोर करो कम आस्क, कहो तब मैं भारत हूँ।।
***
शिव पर दोहे
*
शंभु नाथ हैं जगत के, रूप सुदर्शन दिव्य।
तेज प्रताप सुविदित है, शंकर छवि है भव्य।।
*
अंबर तक यश व्यापता, जग पूजित नागेंद्र।
प्रिया भवानी शिवानी, शीश सजे तारेंद्र।।
*
शिवाधार पा सलिल है, धन्य गंग बन तात।
करे जीव संजीव दे, मुक्ति सत्य विख्यात।।
*
सत्-शिव-सुंदर सृजनकर, अहंकार तज नित्य।
मैं मेरा से मुक्त हो, बहता पवन अनित्य। ।
*
शंका-अरि शंकारि शिव, हैं शुभ में विश्वास।
श्रद्धा हैं मैया उमा, सुत गणपति हैं श्वास।।
*
कार्तिकेय संकल्प हैं, नंदी है श्रम मूर्त।
मूषक मति चातुर्य है, सर्प गरल स्फूर्त। ।
*
रुद्र अक्ष सह भस्म मिल, करे काम निष्काम।
काम क्रोध मद शूल त्रय, सिंह विक्रम बलधाम।।
----------------------
वंदे भारत भारती! कहता जगकर भोर।
उषा किरण ला परिंदे, मचा रहे हैं शोर।।
मचा रहे हैं शोर, थक गया अरुणचूर भी।
जागा नहीं मनुष्य, मोह में रहा चूर ही।।
दिन कर दिनकर दुखी, देख मानव के धंधे।
दुपहर संझा रात, परेशां नेक न बंदे।।
----------------------
। मैं भारत हूँ बोलिए ।
। ऐक्य भावना घोलिए।
*
। मैं भारत, मैं भारतवासी ।
। हर दिन होली, रात दिवाली।
*
। पीहू पोंगल बैसाखी ।
। गुड़ीपाड़वा संक्रांति ।
। मैं भारत हूँ, नदियाँ मेरी ।
। जय गुंजातीं सदियाँ मेरी ।
*
। मेरा हर दिन मेहनत पर्व।
।हूँ भारतवासी, है गर्व ।
*
। भारत होली-दीवाली ।
। ऊषा-संध्या रसवाली ।
। गेहूँ-मक्के की बाली ।
। चैया की प्याली थाली ।
*
। मुझको भारत बोले दुनिया ।
। मैया पप्पा मुन्नू मुनिया ।
*
। था, हूँ सदा रहूँगा भारत ।
। सब मिल बोलो मैं हूँ भारत।
*
। रसगुल्ला इडली दोसा ।
। छोला अरु लिट्टी चोखा ।
। पोहा दूध-जलेबी खा ।
। मैं भारत हूँ मिल गुंजा ।
*
। है आरंभ, नहीं यह अंत ।
। भारत कहते सुर-नर-संत।
*
। मैं भारत हूँ सभी कहें ।
। ऐक्य भाव में सभी बहें ।
*
। एक देश है, नाम एक है ।
। मैं भारत हूँ, नियत नेक है ।
***
शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
। देश हमारा भारत है ।
। इसे सदा भारत कहें।
*
। एक देश एक नाम।
। अपना भारत महान।
*
। जन जन का यह नारा है ।
।। भारत नाम हमारा है ।।
*
। ज़र्रे ज़र्रे की हुंकार ।
। मुझको है भारत से प्यार।
*
है प्रकाश पाने में जो रत ।
। नाम इसी देश का भारत ।
*
। कल से कल को आज जोड़ता ।
। भारत देश न सत्य छोड़ता ।
*
। भारत माता की संतान ।
। भारत नाम हमारी आन ।
*
। हिमगिरि से सागर तक देश ।
। भारत महिमावान विशेष ।
*
। ध्वजा तिरंगी अपनी आन ।
। भारत नाम हमारी शान ।
*
। सिंधु नर्मदा गंगा कृष्णा ।
। भारत प्यारा रंग-बिरंगा ।
*
। जनगण-मन की यही पुकार ।
। भारत बोले सब संसार ।
***
आदरणीय की पसंद
------------------
धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्णजी भी पधारे । वे कहने लगे - "मुझे भी कुछ काम दो।"
युधिष्ठिर ने कहा- "आपको क्या काम दें? आप हमारे लिए आदरणीय हैं। आपके लायक हमारे पास कोई काम नहीं है ।"
श्रीकृष्ण ने कहा - "मैं आदरणीय हूँ तो क्या अयोग्य भी हूँ ? भई! मैं भी काम कर सकता हूँ ।"
"आप ही अपना काम ढूँढ लीजिए ।"
तो श्रीकृष्ण ने क्या काम लिया ?
जूठी पत्तलें उठाने और यज्ञ परिसर को लीपने का ।
- आचार्य विनोवा भावे

शनिवार, 26 जुलाई 2025

जुलाई २६ , पोयम, रिवर, मुहब्बतनामा, शिव, सॉनेट, दीप्ति, मैंग्रोव, गीत, दोहा, मुक्तिका

सलिल सृजन जुलाई २६  
० 
विश्व मैंग्रोव दिवस 
मैंग्रोव लेट क्रेटेशियस से पेलियोसीन युगों के मध्य दिखे झाड़ी या पेड़ हैं जो मुख्य रूप से त टीय खारे या खारे पानी में , भूमध्यरेखीय जलवायु में समुद्र तट और ज्वार की नदियों के किनारे उगते हैं। उनमें अतिरिक्त ऑक्सीजन लेने और नमक को हटाने के लिए विशेष अनुकूलन होते हैं, जिससे वे अधिकांश पौधों को मारने वाली स्थितियों को सहन कर सकते हैं। कई पौधों के परिवारों में अभिसरण विकास के कारण मैंग्रोव वर्गीकरण की दृष्टि से विविध हैं। वे दुनिया भर में उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय और कुछ समशीतोष्ण तटीय क्षेत्रों में मिलते हैं । अक्षांश ३० ° उत्तर और ३० ° दक्षिण  के बीच, भूमध्य रेखा के ५ ° के भीतर सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। मैंग्रोव लवण-सहिष्णु (हेलोफाइटिक) होते हैं और कठोर तटीय परिस्थितियों में रहने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनमें एक जटिल लवण निस्पंदन प्रणाली और खारे पानी में डूबने और लहरों की क्रिया का सामना करने के लिए एक जटिल जड़ प्रणाली होती है। ये जलभराव वाली मिट्टी की कम ऑक्सीजन वाली परिस्थितियों के लिए अनुकूलित होते हैं।इनके अंतर्ज्वारीय क्षेत्र के ऊपरी आधे भाग में पनपने की सबसे अधिक संभावना होती है। 

मैंग्रोव बायोम (मैंग्रोव वन या मंगल) एक विशिष्ट खारा वुडलैंड या झाड़ीदार क्षेत्र है, जिसकी विशेषता तटीय वातावरण । वहाँ उच्च ऊर्जा वाली लहरों की क्रिया से सुरक्षित क्षेत्रों में महीन तलछट (अक्सर उच्च कार्बनिक सामग्री के साथ) जमा होती हैं। मैंग्रोव वन जलीय प्रजातियों की एक विविध सरणी के लिए महत्वपूर्ण आवास के रूप में काम करते हैं, एक अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र की पेशकश करते हैं जो समुद्री जीवन और स्थलीय वनस्पति के जटिल परस्पर क्रिया का समर्थन करता है। विभिन्न मैंग्रोव प्रजातियों द्वारा सहन की जाने वाली खारी स्थिति खारे पानी से लेकर शुद्ध समुद्री जल (३% से ४% लवणता) तक, वाष्पीकरण द्वारा केंद्रित पानी से लेकर समुद्री समुद्री जल की लवणता ९% लवणता तक होती है।  २०१० से शुरू होकर, रिमोट सेंसिंग तकनीकों और वैश्विक डेटा का उपयोग दुनिया भर में मैंग्रोव के क्षेत्रों, स्थितियों और वनों की कटाई की दरों का आकलन करने के लिए किया गया है। २०१८ में, ग्लोबल मैंग्रोव वॉच इनिशिएटिव ने एक नई वैश्विक आधार रेखा जारी की, जो २०१० तक दुनिया के कुल मैंग्रोव वन क्षेत्र का अनुमान १३,६० वर्ग किमी  (५३,१०० वर्ग मील) लगाती है, जो ११देशों और क्षेत्रों में फैला है।ज्वारीय आर्द्रभूमि के नुकसान और लाभ पर २०२२ के एक अध्ययन में १९९९ से २०१९ तक वैश्विक मैंग्रोव विस्तार में ३,७०० वर्ग किमी  (१४ वर्ग मील) की शुद्ध कमी का अनुमान लगाया गया है। मानव गतिविधि के कारण मैंग्रोव का नुकसान जारी है शेष मैंग्रोव की गुणवत्ता में गिरावट भी एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। मैंग्रोव स्थायी तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का समर्थन करते हैं। वे आसपास के क्षेत्रों को सुनामी और चरम मौसम की घटनाओं से बचाते हैं। मैंग्रोव वन कार्बन पृथक्करण और भंडारण में भी प्रभावी हैं। मैंग्रोव पुनर्स्थापन की सफलता स्थानीय हितधारकों के साथ जुड़ाव और यह सुनिश्चित करने के लिए सावधानीपूर्वक मूल्यांकन पर निर्भर हो सकती है कि चुनी गई प्रजातियों के लिए विकास की परिस्थितियाँ उपयुक्त होंगी।  मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल २६  जुलाई को मनाया जाता है।

***
सॉनेट
दीप्ति
दीप्ति तम मिटा दे प्रकाश नव
आत्म दीप प्रज्ज्वलित करें हम
जीवन में व्यापे हुलास नव
कर पाएँ जग से कुछ गम कम
दीप्त रहे मन-प्राण हमारा
शांति पा सकें, स्नेह लुटाकर
कभी किसा का बनें सहारा
द्वेष-घृणा को दूर भगाकर
बाती जले, तेल चुक जाए
किंतु श्रेय दीपक को मिलता
जग उजियारे की जय गाए
जीवन तम से मगर जनमता
दीप्तिमान हों मैं-तुम, हम सब
देख सकें सबके भीतर रब
२६-७-२०२२
•••
शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
साहित्य संगम को समर्पित
जबलपुर में हो रहा 'साहित्य संगम' सफल हो
शारदा की हो कृपा, साहित्य महिमा अचल हो
श्रावणी वातावरण में, 'ज्ञानश्री' सब मिल वरें
'तृप्ति' पायें; छंद 'छाया' बैठ कर कवि मन तरें
स्नेह दें-लें, 'मंत्र' जीवन में यही पल-पल जपें
हों अनंत 'बसंत' रच साहित्य सुंदर हम तपें
'कलावती' हो 'मनीषा'; सृजन 'उमा' 'पूजा' सदृश
देख 'सुषमा' संग 'गीता' , 'सुरेखा' प्रगटे अदृश
'मुकुल' मुकुल कर मेघ, कहें कीर्ति साहित्य की
'रश्मि' 'दीप्ति' 'सुशील', 'ममता' मय आदित्य की
'स्वर्ण लता' लख छंद की, 'मनसिज' आप प्रबुद्ध हो
हों 'भगवान सहाय' आ, बुद्धि 'विनीता' सिद्ध हो
'राजेश्वरी' 'आशीष' दें, 'लवकुश' 'रामप्रकाश' पा
'शिवशंकर' हो आत्म, कर 'परिहार' 'नरेंद्र' आ
'राजन' हो 'राजेश', जब हो 'प्रियंक' 'सुधीर'
'विक्रम' का 'अभिषेक' कर, 'प्रांशु' बने मतिधीर
आ 'सुनील' 'जगदीश' भी, करता रस का पान
पूजे सदा 'सतीश' को, बन 'दिलीप' रसखान
२६-७-२०२१
***
नवगीत
*
फ्रीडमता है बोल रे!
हिंगलिश ले आनंद
अपनी बोली बोलते
जो वे हैं मतिमंद
होरी गारी जस भुला
बंबुलिया दो त्याग
राइम गाओ बेसुरा
भूलो कजरी फाग
फ़िल्मी धुन में रेंककर
छोड़ो देशी छंद
हैडेक हो रओ पेट में
कहें उठाके शीश
अधनंगी हो लेडियाँ
परेशान लख ईश
वेलेंटाइन पूज तू
बिसरा आनंदकंद
*
२७-७-२०२०
***
द्विपदियाँ
न केवल बात में, हालात में भी है वहाँ सीलन
जहाँ फौजों के साए में, चुनावी जीत होती है
न बारिश तुम इसे समझो, गिरा है आँख से पानी.
जो आहों का असर होगा, कहाँ जाओगे ये सोचो.
ग़ज़ल कहती न तू आ भा, ग़ज़ल कहती है जी मुझको
बताऊँ मैं उसे कैसे, जिया है हमेशा तुझको
नेता नौटंकी करे, कहकर आम चुनाव.
जिसको चाहे लड़ा दे, डगमग है अब नाव.
चमक रहे चमचे चतुर, गोल-मोल हर बात
पोल ढोल की खुल रही, नाजुक हैं हालात
शोक न करता जो कभी, कहिए उसे अशोक.
जो होता होता रहे, कोई न सकता रोक.
वही द्विवेदी जो पढ़े, योग-भोग दो वेद.
अंत समय में हो नहीं, उसको किंचित खेद.
मन के मनसबदार! तुम, कहो हुए क्यों मौन?
तनकर तन झट झुक गया, यहाँ किसी का कौन?
डर से डर ही उपजता, मिले स्नेह को स्नेह.
निष्ठा पर निष्ठा अडिग, सम हो गेह-अगेह.
***
नवगीत
*
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
बाबा गाये कूटो, लूटो मौज मजा
वनवासी के रहे न
जंगल सरकारी
सोने सम पेट्रोल
टैक्स दो हँस भारी
कोरोना प्रतिबंध
आम लोगों पर है
पार्टी दें-लें नेता
ऊँचे अधिकारी
टैक्स चुरा चंदा दो, थामे रहो ध्वजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
चौथा खंबा बिका
नींव पोली बचना
घुली कुएँ में भाँग
पियो बहको सजना
शिक्षक हेतु न वेतन
सांसद लें भत्ता
तंत्र हुआ है हावी
लोक न जी, मरना
जो होता, होने दो, मानो ईश रजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
२७-७-२०१८
***
नवगीत:
संजीव
*
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
ना माँगेंगे पानी-राशन
ना चाहेंगे प्यार
नहीं लगायेंगे वे तुमको
अनचाहे फटकार
शिकवे-गिले-शिकायत
तुमसे?, होगी कभी नहीं
न ही जतायेंगे वे तुम पर
कभी तनिक अधिकार
काम पड़े पर नहीं
आचरण
प्रेम-पगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
अगर न चाहो तो वे किंचित
निकट नहीं आते
काम पड़े तो अ
अपनापन दे
तनिक न भरमाते
लेन-देन साँसों के
आने-जाने सा व्यापार
कहो कभी क्या किंचित भी वे
तुमको तरसाते?
नाम न उनके, मन-
खूँटी पर
कभी टँगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
सगा कह रहे जिनको वे ही
रहे निभाते बैर
सम्राटों की शहजादों से
कहो रही कब खैर?
जन्मा, गोद खिलाया-पाला
जिसको देता फूँक
बाप गधे को कहता, कहिए
जीते जी क्या गैर?
वे न जगेंगे,
जिनकी खातिर
आप जगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
***
समीक्षा
काल है संक्रांति का
चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
शब्द, अर्थ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार जिनका अनुगमन करते हैं और जो सदा सत्य की सेवा में अनुरत हैं, ऐसे मनीषी के परिचय को शब्दों में बाँधना कठिन है। इनकी कविताओं को प्रयोगवादी कविता कहा जा सकता है। काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल’ जी की नवीन कृति है। २०१५ में प्रकाशित इस गीत, नवगीत संग्रह में कवि ने कई नए प्रयोग किये हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। नवीन की चाह में इन्होंने शाश्वत मूल्यों को तिलांजलि नहीं दी क्योंकि इस संग्रह में आरंभ में ही 'वंदन' नामक कविता में सब प्रकार से अभिनंदन किया है:
‘शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए।’
अब वे ’स्तवन’ के अंतर्गत शारदा माँ की स्तुति करते हैं:
‘सरस्वती शारद ब्रह्माणी!
जय-जय वीणापाणी!'
एक आध्यात्मिक यात्री की तरह वे अपने पूर्वजों का स्मरण भी करते हैं:
कलश नहीं आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ करे प्रणाम।
समाज हमें प्रभावित करता है और समाज की विद्रूपताओं को देख कवि हृदय विचलित हो काव्य रचना करता है। चारों और फैले आतंक को महसूस करते कवि कहता है:
‘झोंक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
तुम मत झुको सूरज।’
कवि कहता है विकास के,प्रकाश के, नई उड़ान के सूरज तुम मत थकना। यहाँ सूरज प्रतीक है शुभ संकल्प का, उदित श्रेष्ठ संभावनाओं का और कहीं भी भ्रष्टाचार का अँधेरा न हो।
अपने भीतर के सूरज को संबोधित करते हर कवि कहता है:
'तुम रुको नहीं
थको नहीं।'
क्योंकि काल है संक्रांति का ।इस काल में चलते हुए कवि कहता है:.
खरपतवार न शेष रहे,
कचरा कहीं न लेश रहे।
सच में संक्रांति काल से गुजरना निश्चय ही पीड़ादायक है लेकिन कवि की निश्चयात्मक बुद्धि कहती है:
‘प्रणति है आशीष दो रवि
बाँह में कब घेरते हैं
प्रतीक्षा है उन पलों की।’
'काल है संक्राति का’ नामक काव्य संग्रह में यही स्वर उद्घोषित होता है: 'तुम रुको तुम थको नहीं। हम नये युग की ओर बढ़ रहे हैं। पुराना छूट रहा है,नये का आगमन है।
'सिर्फ सच में
धांधली अब तक चली
अब रोक दे।
सुधारों के लिए खुद को
झोंक दे।'
आक्रोश भी है उम्मीद भी। यह भाव लगभग सभी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है:
'सुंदरिये मुंदरिये' की तर्ज़ पर अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है:
‘झूठी लड़े लड़ाई होय
भीतर करें मिताई होय।'
सदा शुभ की प्रेरणा देते हुए ‘करना सदा’ में कवि कहता है:
'हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे।
तुम बन्दूक चलाओ तो.
दीन-धर्म की तुम्हें न चाह
अमन-चैन को देते दाह
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस, फिर फूल खिलाएँगे।'
स्थिति कोई भी हो, मनुष्य को उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। समाज में रहते हुए भी भीड़ के साथ होना पड़ता है। 'राम बचाए' में कवि प्रश्न करते हैं:
'दुश्मन पर कम, करे विपक्षी पर
ही क्यों ज्यादा प्रहार हम?
कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम
राम बचाए।'
'कब होंगे आजाद' में क्षोभ है, स्वतंत्र होने की अभीप्सा है:
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान।
समझ बढ़े तो सीखें, रुचिकर धर्म नीति विज्ञान।
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो हो पाएगा, धरती पर आबाद।
कब होंगे आजाद?
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। ‘काल है संक्राति का’ का उद्घोष सभी
रचनाओं में परिलक्षित होता है। सभी रचनाओं की अपनी एक अलग पहचान है। जैसे: उठो पाखी, संक्रांति
काल है, उठो सूरज, छुएँ सूरज, सच की अर्थी, लेटा हूँ, मैं लडूंगा, उड़ चल हंसा, लोकतंत्र का पंछी आदि
विशेष उल्लेखनीय हैं।
अधिकांश बिंब व प्रतीक नए व मनोहारी हैं। कवि ने अपनी भावनाओं को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है।इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है घोर अन्धकार में भी आशावादी होना। प्रस्तुत संग्रह हमें साहित्य के क्षेत्र में आशावादी बनाता है। यह पुस्तक अमूल्य देन है साहित्य को। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' जी को बहुत-बहुत बधाई।
***
मुहब्बतनामा
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.
गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.
अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.
महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.
पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.
सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.
नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.
माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.
नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.
जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.
उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.
सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.
दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.
न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.
जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.
न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.
अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.
बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.
कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.
पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.
चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.
सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.
रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.
लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.
कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.
दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.
दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.
सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.
बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.
तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.
नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.
कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.
अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.
शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.
धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.
जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.
कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.
मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.
तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.
चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.
बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.
निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.
भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.
नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.
महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.
हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६.
.
कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.
उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.
न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.
कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.
नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.
करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.
लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.
अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.
तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.
कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.
न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.
मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.
तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.
है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू खिला री मुहब्बत.६०.
न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री मुहब्बत.६१.
न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.
समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.
खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.
तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.
अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.
सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.
जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.
तरसती हैं आँखें झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.
भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.
सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.
न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.
उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३.
मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..
न तनकी, न मनकी, न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.
नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.
सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.
बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.
कभी देवता की, कभी देश-भू की
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.
पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.
हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.
हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.
ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.
मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.
फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.
गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.
पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.
मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.
न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.
कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.
कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.
महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.
लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.
मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.
रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.
पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.
जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.
समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.
काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.
नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.
शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.
न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.
'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.
'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.
नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.
जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.
नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.
नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.
'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.
बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.
ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा री मुहब्बत.११०.
'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.
अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.
'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.
'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.
'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.
'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.
चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.
कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.
छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.
उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.
'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.
लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.
तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.
रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.
प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.
***
Poem:
RIVER
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
२६.७.२०१५
***
मुक्तक
खिलखिलाती रहो, चहचहाती रहो
जिंदगी में सदा गुनगुनाती रहो
मेघ तम के चलें जब गगन ढाँकने
सूर्य को आईना हँस दिखाती रहो
*
दोहा सलिलाः
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*
२७-७-२०१४

रविवार, 13 जुलाई 2025

जुलाई १३, शिव, पोयम, कुण्डलिया, हाइकु, धूप, द्वि इंद्रवज्रा सवैया, व्याकरण, सॉनेट, उच्चारण

सलिल सृजन जुलाई १३
शिला दिवस 
*
सोरठे
हृदय लिली के नाम, जब से किया गुलाब ने।
खुशियों के पैगाम, तबसे नित मिलने लगे।।
.
चैनो-अमन हराम, रजनीगंधा ने किया।
मुफ्त हुआ बदनाम, अमलतास बाजार में।।
.
कान पकड़ गुलफाम, माफी माँगे रात-दिन।
कर दी नींद हराम, नागफनी ने धौंस दे।।
.
करती काम तमाम, शौहर का दे सुपारी।
सबकी नींद हराम, कर दी गाजर घास ने।।
.
हुए विधाता वाम, भाग गई घर छोड़कर।
डुबा दिया कुलनाम, लिव इन में जा जुही ने।।
.
हाथ गैर का थाम, ठगी जा रही चमेली।
रुचा नहीं गृह-धाम, डायवोर्स खुश रही ले।
.
हैरां खासो-आम, हवा बदलती देखकर।
बहुएँ नींद हराम, करें ननदियां सांस की ।।
१२.७.२०२५
०0०

श, ष, स भेद , उच्चारण स्थान
--------------------------
श ष स के उच्चारण भेद को बहुधा लोग नहीं जानते, यदि जानते भी होंगे तो जानबूझ त्रुटि करते हैं अथवा स्वाभविक सुगमतावश गलत उच्चारण होता है। संस्कृत ही एक मात्र व्यवस्थित जिसका विज्ञानपरक व्याकरण को समूचा विश्व अपनी आवश्यकतानुकूल ग्रहण कर रहा है। हमें समझना होगा उच्चारण स्थान को -
1 अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः
क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) अ, आ, ह और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है।
2 इचुयशानां तालुः
च वर्ग (च, छ, ज, झ, ´) इ, ई, य, श का उच्चारण स्थान तालु है। इसी आधार पर श के तालव्यी होने की पहचान सर्व विदित है।
3 ऋटुरषानां मूर्घाः
ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) ऋ, र, ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है। इसी आधार पर ष के मूर्धन्नी होने की पहचान सर्व विदित है।
4 लृतुलसानां दन्तः
त वर्ग (त, थ, द, ध, ना) लृ, ल, स का उच्चारण स्थान दंत है। इसी आधार पर स के दन्ती होने की पहचान सर्व विदित है।
5 उपूपध्मानीयानामोष्ठौ
प वर्ग (प, फ, ब, भ, म) )( उ, ऊ का उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
तालव्यी, मूर्धन्नी, दन्ती रूपी पहचान ही श,ष,स के भेद को प्रकट करती है। च वर्ग के फ्लो में जीभ का तालु से स्पर्श होते हुए निकलने वाली शकार ध्वनि तालव्यी है। टवर्ग के फ्लो में मुंह के खुलने से निकलने वाली षकार ध्वनि मूर्धन्नी है, जबकि त वर्ग के फ्लो में दंतपंक्तियों के परस्पर मिलने से होने वाली सकार ध्वनि दन्ती है।
*
सॉनेट
गट्टू
नटखट-चंचल है गट्टू,
करे शरारत जी भरकर,
सीधा-साधा है बिट्टू,
रहे मस्त पुस्तक पढ़कर।
तुहिना जीजी के प्यारे,
भैया सनी लड़ाते लाड़,
दादी के चंदा-तारे,
बब्बा करते जान निसार।
शैंकी जी को दुलराते,
धमाचौकड़ी करते खूब,
मिल चिंकी को दुलराते,
हिल-मिल रहें स्नेह में डूब।
खड़ी करें मिल सबकी खाट।
एक एक से बढ़कर ठाठ।।
१३-७-२०२३
•••
सॉनेट
प्राण निकलते गर्मी से, नवगीतों में गाया,
धरती की छाती फटती, सुन इंद्र देव पिघले,
झुलस रहा लू से तन-मन, सूरज को गरियाया,
रूठा छिपा मेघ पीछे, बोला जी भर जल ले।
हुई मूसलाधार वृष्टि, हो कुपित गिरी बिजली,
वन काटे रूठे पर्वत, हो गीले फिसल गिरे,
कर विनाश कहकर विकास, हँस राजनीति पगली,
अच्छे सोच बुरे दिन पा, जुमलों से लोग घिरे।
पानी मरा आँख का तो, तू पानी-पानी हो,
रौंद प्रकृति को ठठा रहा, पानी आँखों में भर,
भोग कर्म का दंड न अब, तुझसे नादानी हो,
हाय हाय क्यों करता है, गलती करने से डर।
गीत खुशी के मत बिसरा, गा बंबुलिया कजरी।
पूज प्रकृति को सुत सम तब देखे हालत सुधरी।।
१३-७-२०२३
•••
सॉनेट
गुरु
गुरु को नतशिर नमन करो रे!
गुरु की महिमा कही न जाए
गुरु ही नैया पार लगाए
गुरु पग रज पा अमन वरो रे!
गुरु वचनामृत पान करो रे!
गुरु शब्दों में सत्य समाहित
गुरु वाणी में अर्थ विराजित
गुरु का महिमा-गान करो रे!
गुरु का मन में मान करो रे!
गुरु-दर्पण में निज छवि देखो
गुरु-परखे तो निज सच लेखो
गुर-वचनों का ध्यान धरो रे!
गुरु को सत्-शिव सुंदर मानो
गुरु का खुद को चाकर मानो
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
•••
सॉनेट
गुरु
गुरु गुर सिखलाता है उत्तम
दिखलाता है राह हमेशा
हरता है अज्ञानजनित तम
दिलवाता है वाह हमेशा
लेता है गुरु कड़ी परीक्षा
ठोंक-पीटकर खोट निकाले
देता केवल तब ही दीक्षा
दीप-ज्योति अंतर में बाले
कहे दीप अपना खुद होओ
गिरकर रुको न, उठ फिर भागो
तम पी, उजियारा बो जाओ
खुद समर्थ हो भीख न माँगो
गुरु-वंदन कर शिष्य तर सके
अपनी मंजिल आप वर सके
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
•••
नवान्वेषित द्वि इंद्रवज्रा सवैया
२ x (त त ज ग ग), २२ वर्ण, सम पदांत।
*
दूरी मिटा दे मिल ले गले आ, श्वासें करेंगी मनुहार तेरा।
आँखें मिलीं तो हट ही न पाई, आसें बनेंगी गलहार तेरा।
तू-मैं किनारे नद के भले हों, है सेतु प्यारी शुभ प्यार तेरा।
पूरा करेंगे हम वायदों को, जीना मुझे है बन हार तेरा।
१३-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण
*
*ध्वनि*
कान सुन रहे वह ध्वनि, जो प्रकृति में व्याप्त।
अनहद ध्वनि गुंजरित है, सकल सृष्टि में आप्त।।
*
*रसानुभूति*
ध्वनि सुनकर प्रतिक्रिया हो, सुख-दुख की अनुभूति।
रस अनुभूति सजीव को, जड़ को हो न प्रतीति।।
*
*उच्चार*
जो स्वतंत्र ध्वनि बोलते, वह ही है उच्चार।
दो प्रकार लघु-गुरु कहें, इनको मात्रा भार।।
*
*अर्थ*
ध्वनि सुनकर जो समझते, उसको कहते अर्थ।
अगर न उसका भान तो, बनता अर्थ अनर्थ।।
*
*सार्थक ध्वनि*
कलकल कलरव रुदन में, होता निश्चित अर्थ।
शेर देख कपि हूकता, दे संकेत न व्यर्थ।।
*
*निरर्थक ध्वनि*
अंधड़ या बरसात में, अर्थ न लेकिन शोर।
निरुद्देश्य ध्वनि है यही, मंद या कि रव घोर।।
*
*सार्थक ध्वनि*
सार्थक ध्वनियाँ कह-सुनें, जब हम बारंबार।
भाव-अर्थ कह-समझते, भाषा हो साकार।।
*
*भाषा*
भाषा वाहक भाव की, मेटे अर्थ अभाव।
कहें-गहें हम बात निज, पड़ता अधिक प्रभाव।।
*
*लिपि*
जब ध्वनि को अंकित करें देकर चिन्ह विशेष।
चिन्ह देख ध्वनि विदित हो, लिपि विग्यान अशेष।।
*
*अक्षर*
जो घटता-कमता नहीं,
ऐसा ध्वनि-संकेत।
अक्षर अथवा वर्ण से,
यही अर्थ अभिप्रेत।।
*
*मात्रा*
लघु-गुरु दो उच्चार ही, लघु-गुरु मात्रा मीत।
नीर-क्षीर वत वर्ण से, मिल हों एक सुनीत।।
*
*वर्ण माला*
अक्षर मात्रा समुच्चय, रखें व्यवस्थित आप।
लिख-पढ़ सकते हैं सभी, रखें याद कर जाप।।
*
*शब्द*
वर्ण जुड़ें तो अर्थ का, और अधिक हो भान।
अक्षर जुड़कर शब्द हों, लक्ष्य एकता जान।।
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मधु-रस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
.
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
.
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
*
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
.
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
.
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
.
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
*
*ध्वनि खंड*
कुछ सार्थक उच्चार मिल, बनते हैं ध्वनि खंड।
ध्वनि-खंडों के मिलन से, बनते छंद अखंड।।
*
*छंद*
कथ्य भाव रस बिंब लय, यति पदांत मिल संग।
अलंकार सज मन हरें, छंद अनगिनत रंग।।
*
*पिंगल*
वंदन पिंगल नाग ऋषि, मिला बीन फुँफकार।
छंद-शास्त्र नव रच दिया, वेद-पाद रस-सार।।
*
*पाद*
छंद-पाद हर पंक्ति है, पग-पग पढ़-बढ़ आप।
समझ मजा लें छंद का, रस जाता मन व्याप।।
*
*चरण*
चरण पंक्ति का भाग है, कदम-पैर संबंध।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, करें सहज अनुबंध।।
*गण*
मिलें तीन उच्चार जब, तजकर लघु-गुरु भेद।
अठ गण बन मिल-जुल बनें, छंद मिटा दें खेद।।
.
यमत रजभ नस गण लगग, गगग गगल के बाद।
गलग लगल फिर गलल है, ललल ललग आबाद।।
*वाक्*
वाक् मूल है छंद का, ध्वनि-उच्चार स-अर्थ।
अर्थ रहित गठजोड़ से, रचना करे अनर्थ।।
*
*गति*
निर्झर-नीर-प्रवाह सम, तीव्र-मंद हो पाठ।
गति उच्चारों की सधे, कवि जनप्रियता हों ठाठ।।
.
कथ्य-भाव अनुरूप हो, वाक्-चढ़ाव-उतार।
समय कथ्य जन ग्राह्य हो, करतल गूँज अपार।।
*
*यति*
कुछ उच्चारों बाद हो, छंदों में ठहराव।
है यति इसको जानिए, यात्रा-मध्य पड़ाव।।
.
यति पर रुककर श्वास ले, पढ़िए लंबे छंद।
कवित-सवैया का बढ़े, और अधिक आनंद।।
.
श्वास न उखड़े आपकी, गति-यति लें यदि साध।
शुद्ध रखें उच्चार तो, मिट जाए हर व्याध।।
*
*उप यति*
दो विराम के मध्य में, निश्चित जो न विराम।
स्थिर न रहें- जो बदलते, उपरति उनका नाम।।
*
*विराम चिह्न*
मध्य-अंत में पाद के, यति संकेत-निशान।
रखता कवि पाठक सके, उनको झट पहचान।।
*
विस्मय संबोधन कहाँ, कहाँ प्रश्न संकेत।
कहाँ उद्धरण या कथन, चिन्हों का अभिप्रेत।।
१२-७-२०१९
***
एक रचना:
*
मन-वीणा पर चोट लगी जब,
तब झंकार हुई.
रिश्तों की तुरपाई करते
अँगुली चुभी सुई.
खून जरा सा सबने देखा
सिसक रहा दिल मौन?
आँसू बहा न व्यर्थ
पीर कब,
बाँट सका है कौन?
१३-७-२०१८
*
दोहा सलिल- रूप धूप का दिव्य
*
धूप रूप की खान है, रूप धूप का दिव्य।
छवि चिर-परिचित सनातन, पल-पल लगती नव्य।।
*
रश्मि-रथी की वंशजा, या भास्कर की दूत।
दिनकर-कर का तीर या, सूर्य-सखी यह पूत।।
*
उषा-सुता जग-तम हरे, घोर तिमिर को चीर।
करती खड़ी उजास की, नित अभेद्य प्राचीर।।
*
धूप-छटा पर मुग्ध हो, करते कलरव गान।
पंछी वाचिक काव्य रच, महिमा आप्त बखान।।
*
धूप ढले के पूर्व ही, कर लें अपने काम।
संध्या सँग आराम कुछ, निशा-अंक विश्राम।।
*
कलियों को सहला रही, बहला पत्ते-फूल।
फिक्र धूप-माँ कर रही, मलिन न कर दे धूल।।
*
भोर बालिका; यौवना, दुपहर; प्रौढ़ा शाम।
राग-द्वेष बिन विदा ले, रात धूप जप राम।।
*
धूप राधिका श्याम रवि, किरण गोपिका-गोप।
रास रचा निष्काम चित, करें काम का लोप।।
*
धूप विटामिन डी लुटा, कहती- रहो न म्लान।
सूर्य-़स्नान कर स्वस्थ्य हो, जीवन हो वरदान।।
*
सलिल-लहर सँग नाचती, मोद-मग्न हो धूप।
कभी बँधे भुजपाश में, बाँधे कभी अनूप।।
*
रूठ क्रोध के ताप से, अंशुमान हो तप्त।
जब तब सोनल धूप झट, हँस दे; गुस्सा लुप्त।।
*
आशुतोष को मोहकर, रहे मेघ ना मौन।
नेह-वृष्टि कर धूप ले, सँग-सँग रोके कौन।।
*
धूप पकाकर अन्न-फल, पुष्ट करे बेदाम।
अनासक्त कर कर्म वह, माँगे दाम न नाम।।
*
कभी न ब्यूटीपारलर, गई एक पल धूप।
जगती-सोती समय पर, पाती रूप अनूप।।
*
दिग्दिगंत तक टहलती, खा-सो रहे न आप।
क्रोध न कर; हँसती रहे, धूप न करे विलाप।।
१३-७-२०१८
***
कुंडलिया
*
विधान: एक दोहा + एक रोला
अ. २ x १३-११, ४ x ११-१३ = ६ पंक्तियाँ
आ. दोहा का आरंभिक शब्द या शब्द समूह रोला का अंतिम शब्द या शब्द समूह
इ. दोहा का अंतिम चरण, रोला का प्रथम चरण
*
परदे में छिप कर रहे, हम तेरा दीदार।
परदा ऐसा अनूठा, तू भी सके निहार।।
तू भी सके निहार, आह भर, देख हम हँसे।
हँसे न लेकिन फँसे, ह्रदय में शूल सम धँसे।।
मुझ पर मर, भर आह, न कहना कर में कर दे।
हो जा तू संजीव, हटाकर आ जा परदे।।
१४-७-२०१७
***
हाइकु सलिला
*
कल आएगा?
सोचना गलत है
जो करो आज।
*
लिखो हाइकु
कागज़-कलम ले
हर पल ही।
*
जिया में जिया
हर पल हाइकु
जिया ने रचा।
*
चाह कलम
मन का कागज़
भाव हाइकु।
*
शब्द अनंत
पढ़ो-सुनो, बटोरो
मित्र बनाओ।
*
शब्द संपदा
अनमोल मोती हैं
सदा सहेजो।
*
श्वास नदिया
आस नद-प्रवाह
प्रयास नौका।
*
ध्यान में ध्यान
ध्यान पर न ध्यान
तभी हो ध्यान।
*
मुक्ति की चाह
रोकती है हमेशा
मुक्ति की राह।
*
खुद से ऊब
कैसे पायेगा राह?
खुद में डूब।
***
एक कुण्डलिया
औकात
अमिताभ बच्चन-कुमार विश्वास प्रसंग
*
बच्चन जी से कर रहे, क्यों कुमार खिलवाड़?
अनाधिकार की चेष्टा, अच्छी पड़ी लताड़
अच्छी पड़ी लताड़, समझ औकात आ गयी?
क्षमायाचना कर न समझना बात भा गयी
रुपयों की भाषा न बोलते हैं सज्जन जी
बच्चे बन कर झुको, क्षमा कर दें बच्चन जी
१३-७-२०१७
***
मुक्तक
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
१३-७-२०१६
***
पुस्तक सलिला-
स्व. श्याम़ श्रीवास्तव गीत-नवगीत ‘यादों की नागफनी’
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[पुस्तक परिचय- यादों की नागफनी, गीत संग्रह, स्व. श्याम़ श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, पृष्ठ ६२, मूल्य १५० रु., शैली प्रकाशन, २०सहज सदन, शुभम विहार, कस्तूरबा मार्ग, रतलाम, संपादन- डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव sumanshrivastava2003@yahoo.com ]
00000
‘यादों की नागफनी’सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर के लाड़ले रचनाकार स्व. श्याम़ श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन है जिसे उनके स्वजनों ने अथक प्रयास कर उनके ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाशित कर उनके सरस-सरल व्यक्तित्व को पुनः अपने बीच महसूसने का श्लाघ्य प्रयास किया। स्व. श्याम ने कभी खुद को कवि, गायक, गीतकार नहीं कहा या माना, वे तो अपनी अलमस्ती में लिखते - गाते रहे। आकाशवाणी ए ग्रेड कलाकार कहे या श्रोता उनके गीतों-नवगीतों पर वाह-वाह करें, उनके लिये रचनाकर्म हमेशा आत्मानंद प्राप्ति का माध्यम मा़त्र रहा। आत्म में परमात्म को तलाशता-महसूसता रचनाकार विधाओं और मानकों में बॅंधकर नहीं लिखता, उसके लिखे में कहाॅं-क्या बिना किसी प्रयास के आ गया यह उसके जाने के बाद देखा-परखा जाता है।
यादों की नागफनी में गीत-नवगीत, कविता तीेनों हैं। श्याम का अंदाज़े-बयाॅं अन्य समकालिकों से जुदा है-
‘‘आकर अॅंधेरे घर में / चौंका दिया न तुमने
मुझको अकेले घर में / मौका दिया न तुमने
तुम दूर हो या पास /क्यों फर्क नहीं पड़ता?
मैं तुमको गा रहा हूॅं / हूॅंका दिया न तुमने
‘जीवन इक कुरुक्षेत्र’ में श्याम खुद से ही संबोधित हैं- "जीवन / इक कुरुक्षेत्र है / मैं अकेला युद्ध लड़ रहा /अपने ही विरुद्ध लड़ रहा ......... शांति / अहिंसा क्षमा को त्याग / मुझमें मेरा बुद्ध लड़ रहा।"
यह बुद्ध आजीवन श्याम की ताकत भी रहा और कमजोरी भी। इसने उन्हें बड़े से बड़े आघात को चुपचाप सहने और बिल्कुल अपनों से मिले गरल को पीने में सक्षम बनांया तो अपने ‘स्व’ की अनदेखी करने की ओर प्रवृत्त किया। फलतः, जमाना ठगकर खुश होता रहा और श्याम ठगे जाकर।
श्याम के नवगीत किसी मानक विधान के मोहताज नहीं रहे। आनुभूतिक संप्रेषण को वरीयता देते हुए श्याम ‘कविता कोख में’ शीर्षक नवगीत में संभवतः अपनी और अपने बहाने हर कवि की रचना प्रक्रिया का उल्लेख करते हैं।
तुमने जब / समर्पण किया
धरती आसमान मुझे / हर जगह क्षितिज लगे।
छुअन - छुअन मनसिज लगे।
कविता आ गई कोख में।
वैचारिक लयता / उगी /मिटटी पगी
राग के बयानों की/भाषा जगी
छंद-छंद अलंकार- पोषित हुए
नव रसों को ले कूदी /चिंतन मृगी
सृष्टि का / अर्पण किया
जनपद की खान मुझे
समकालिक क्षण खनिज लगे।
कथ्य उकेरे स्याहीसोख में।
कविता आ गई कोख में।
श्याम के श्रृंगारपरक गीत सात्विकता के साथ-साथ सामीप्य की विरल अनुभूति कराते हैं। ‘नमाज़ी’शीर्षक नवगीत श्याम की अन्वेषी सोच का परिचायक है-
पूर्णिमा का चंद्रमा दिखा
विंध्याचल-सतपुड़ा से प्रण
पत्थरों से गोरे आचरण
नर्मदा का क्वांरापन नहा
खजुराहो हो गये हैं क्षण
सामने हो तुम कुरान सी
मैं नमाज़ी बिन पढ़ा-लिखा
‘बना-ठना गाॅंव’ में श्याम की आंचलिक सौंदर्य से अभिभूत हैं। उरदीला गोदना, माथे की लट बाली, अकरी की वेणी, मक्का सी मुस्कान, टिकुली सा फूलचना, सरसों की चुनरिया, अमारी का गोटा, धानी किनार, जुन्नारी पैजना, तिली कम फूल जैसे कर्णफूल, अरहर की झालर आदि सर्वथा मौलिक प्रतीक अपनी मिसाल आप हैं। समूचा परिदृश्य श्रोता/पाठक की आॅंखों के सामने झूलने लगता है।
गोरी सा / बना-ठना गाॅंव
उरदीला गोदना गाॅंव।
माथे लट गेहूॅं की बाली
अकरी ने वेणी सी ढाली,
मक्का मुस्कान भोली-भाली
टिकुली सा फूलचना गाॅंव।
सरसों की चूनरिया भारी
पल्लू में गोटा अमारी,
धानी-धानी रंग की किनारी
जुन्नारी पैंजना गाॅंव।
तिली फूल करनफूल सोहे
अरहर की झालर मन मोहे,
मोती अजवाइन के पोहे।
लौंगों सा खिला धना गाॅंव।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार स्व, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने श्याम की रचनाओं को ‘विदग्ध, विलोलित, विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ, पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ नई उदभावनाओं को सॅंजोने में समर्थ तथा भावना की आॅंच में ढली भाषा से संपन्न‘’ ठीक ही कहा है। किसी रचनाकार के महाप्रस्थान के आठ वर्ष पश्चात भी उसके सृजन को केंद्र में रखकर सारस्वत अनुष्ठान होना ही इस बात का परिचायक है कि उसका रचनाकर्म जन-मन में पैठने की सामथ्र्य रखता है। स्व. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार ‘‘कवि का निश्छल सहज प्रसन्न मन अपनम कथ्य के प्रति आश्वस्त है और उसे अपनी निष्ठा पर विश्वास है। पुराने पौराणिक प्रतीकों की भक्ति तन्मयता को उसने अपनी रूपवर्णना और प्रमोक्तियों में नये रूप् में ढालकर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान की हैं।’’
श्याम के समकालीन चर्चित रचनाकारों सर्व श्री मोहन शशि, डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, संजीव वर्मा ‘सलिल’ की शब्दांजलियों से समृद्ध और श्रीमती पुष्पलता श्रीवास्तव, माधुरी श्रीवास्तव, मनोज श्रीवास्तव, रचना खरे तथा सुमनलता श्रीवास्तव की भावांजलियों से रससिक्त हुआ यह संग्रह नयी पीढ़ी के नवगीतकारों ही नहीं तथाकथित समीक्षकों और पुरोधाओं को नर्मदांचल के प्रतिनिधि गीतकार श्याम श्रीवास्तव के अवदान सें परिचित कराने का सत्प्रयास है जिसके लिये शैली निगम तथा मोहित श्रीवास्तव वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं।
श्याम सामाजिक विसंगतियों पर आघात करने में भी पीछे नहीं हैं। "ये रामराजी किस्से / जनता की सुख-कथाएॅं / भूखे सुलाते बच्चों को / कब तलक सुनायें", "हम मुफलिस अपना पेट काट / पत्तल पर झरकर परस रहे", "गूँथी हुई पसीने से मजदूर की रोटी, पेट खाली लिये गीत गाता रहा" आदि अनेक रचनाएॅं इसकी साक्षी हैं।
तत्सम-तदभव शब्द प्रयोग की कला में कुशल श्याम श्रीवास्तव हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को भाव-भंगिमाओं की टकसाल में ढालकर गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कविता के खरे सिक्के लुटाते चले गये। समय आज ही नहीं, भविष्य में भी उनकी रचनाओं को दुहराकर आश्वस्ति की अनुभूति करता रहेगा।
***
मुक्तिका:
*
जिसे भी देखिये वो बात कर रहा प्रहार की
नहीं किसी को फ़िक्र तनिक है यहाँ सुधार की
सुबह से शाम चीखते ही रह गये न बात की
दूरदर्शनी बहस न आर की, न पार की
दक्षिणा लिये बिना टले न विप्र द्वार से
माँगता नगद न बात मानता उधार की
सियासती नुमाइशें दिखा रही विधायिका
नफरतों ने लीं वसूल कीमतें गुहार की
बाँध बनाने की योजना बना रहे हो तुम
ज़िक्र कर नहीं रहे हो तुम तनिक दरार की
***
1. Water
There is an ocean
In every drop of water.
Can you see it?
There is a life
In every drop of water
Can you live it?
There is a civilization
In every drop of water
Can you save it?
If not:
See by Heart and not through Eyes
You will certainly notice that
There is Past
There is Present
There is Future
There is Culture
In every drop of water.
If You will forget Heart
And will see through Eyes
You will say with fear that
There is flood
There is death
There is an end.
It depend upon you
What do you want to see?
Try to be neat, clean and
Transparent as Water.
Then only You will be
Able to witness
Water in it's reality & totality.
***
विमर्श
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१. हिंदी साहित्य कोष, सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. धर्मवीर भारती, श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार,
१३-७-२०१५
***
गीतः
सुग्गा बोलो
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
***
गीत:
हम मिले…
*
हम मिले बिछुड़ने को
कहा-सुना माफ़ करो...
*
पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े
उन्नत माथ रहे
गैरों से चाहो क्योँ?
खुद ही इन्साफ करो...
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा
अक्षर ने क्षर गाया
का खा गा, ए बी सी
सीन अलिफ काफ़ करो…
*
नर्मदा मचलती है
गोमती सिहरती है
बाँहों में बाँह लिये
चाह जब ठिठकती है
डाह तब फिसलती है
वाह तब सँभलती है
लहर-लहर घहर-घहर
कहे नदी साफ़ करो...
१३-७-२०१४
***
एक कविता:
सीखते संज्ञा रहे...
*
सीख पाए हम न संज्ञा.
बन न पाए सर्वनाम.
क्रिया कैसी?
क्या विशेषण?
कहाँ है कर्ता अनाम?
कर न पाए
साधना हम
वंदना ना प्रार्थना.
किरण आशा की लिये
करते रहे शब्द-अर्चना.
साथ सुषमा को लिये
पुष्पा रहे रचना कमल.
प्रेरणा देती रहें
नित भावनाएँ नित नवल.
****
१३-७-२०११