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रविवार, 20 जुलाई 2025

जुलाई २०, नवगीत, दोहा मुक्तिका, नीरज, समीक्षा, माँ, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सॉनेट, मधुर

सलिल सृजन जुलाई २०
विश्व चाँद दिवस
*
पुस्तक चर्चा-
.संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवि ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
***
सॉनेट
मधुर
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर
पथिक न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना
रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु
धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में
२०-७-२०२२
•••
नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५
***
यादें न जाएँ: नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना: फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***
मुक्तक
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
मुक्तिका:
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
२०-७-२०१८
***
कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
*
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
२३-१०-२०१५
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गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
*
नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
स्व. नीरज के प्रति
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा दुनिया
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख
*
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
*
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश..
*
दोहा मुक्तिका
*
भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
*
सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
*
उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
*
२०-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
***
नवगीत:
*
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
***
नवगीत
*
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
घोर वृष्टि
भू स्खलित
काँप उठे केदार
पशुपति का
भूकंप ने घर
ही दिया उजाड़
महाकाल
थर्रा रहे, देख
प्रलय सा दृश्य
रामेश्वर
पुल पर लगा
ढैया शनि अदृश्य
क्या करते
प्रभु? भक्त गण
रहे भाग्य को झींक
पूजन हित
आ पुजारी
गिरा रहे हैं पीक
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
अमरनाथ
पथ को रहे
आतंकी मिल घेर
बाधाएँ
कैलाश के
मग में आईं ढेर
हिमगिरि भी
विचलित हुआ
धीरज जाता टूट
मनुज नहीं
थमता तनिक
रहा प्रकृति को लूट
कर असगुन
पीढ़ी नयी
रही राह में छींक
घोटाले
हर दिन नये
उद्घाटित हों चीख
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
***
नवगीत
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
२०-७-२०१५
***
दोहा
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश
२०-७-२०११
***

रविवार, 5 जनवरी 2025

जनवरी ५, नीरज, सोरठा, वंदना, सॉनेट, हाइकु गीत, लघुकथा, नवगीत, हंसी छंद, हास्य

सलिल सृजन जनवरी ५
पूर्णिका
पौधे छोटे फूल बड़े हैं।
हिलमिल रहते, नहीं लड़े हैं।।
झुकते हैं, फिर उठ जाते हैं।
नहीं ठूँठ की तरह अड़े हैं।।
जब बेदम हों, गिर जाते हैं।
जिनमें दम सिर उठा खड़े हैं।।
माया-मोह नहीं रत्ती भर।
नहीं स्वार्थ के हेतु भिड़े हैं।।
वर्तमान में जीते हैं हँस
खोद अतीत नहीं झगड़े हैं।।
भेद-भाव से दूर सलिल सम
अगड़े या कि नहीं पिछड़े हैं।।
५.१.२०२५
०००
आधुनिक मंत्र
कराग्रे वसते चलभाषम्,
करमध्ये वाट्स एपम्।
कर मूले तु एन्ड्राइडम्,
प्रभाते तु फेसबुकम्।।
*
दोहे
किया कलेवा जा रहा, अनुज खोजने काम।
नैनों से आशीषती, बहिन न हो कुछ वाम।
*
नचा रहा है मदारी, नचे जमूरा देख।
चमक नयन में आ गई, अधर हँसी की रेख।।
*
ऐ सखि! छिप-छिप मिल रही, भैया जी से आज।
जा अम्मा को बताऊँ, तभी बनेगा काज।
*
भाई जी का मित्र है, सुंदर शिष्ट जवान।
मन करता है छिड़क दूँ, उस पर अपनी जान।।
*
करें प्रतीक्षा द्वार पर, नयन अधर मन प्राण।
झट से आ जा साँवरे!, हो-कर दे संप्राण।।
*
नयन नयन दो घाट हैं, स्नेह-सलिल रस धार।
डूब रही मँझधार में, कौन उतारे पार।।
*
लाज किवड़िया खोलकर, झाँके लज्जा मौन।
बिन बोले क्या बोलती, किससे समझे कौन।।
*
भाव विह्वल मीरा हुई, देख श्याम छवि मूक।
समझ नहीं पाता जगत, ह्रदय उठे जो हूक।।
५.१.२०२४
सोरठा सलिला
भुज भर लिया समेट, तन ने मन की बात कर।
स्वर्ण हिरन आखेट, बनने-करने आ गया।।
लिखा किसी के नाम, संधि-पत्र रूमाल ने।
फल था युद्ध-विराम, घर में घर घर कर गया।।
हिलता हाथ-रुमाल, दिखते-दिखते खो गया।
सुधियों की शत शाम, मन-उपवन में बो गया।।
पाकर लाल गुलाब, मन ही मन में मन हँसा।
आए याद जनाब, साक्षी हृदय-किताब है।।
समय-सफे पर प्रीत, आस कलम से मिल लिखी।
प्यास बन गई गीत, हास-रास सुधियाँ मुई।।
छुईमुई का दर्श, बन सुधियों का मोगरा।
छुईमुई सा स्पर्श, सिहरन याद दिला गया।।
स्मृति के वनफूल, मादक महुआ सम महक।
मनस पटल पर झूल, मन को मधुवन कर रहे।।
●●●
सोरठा सलिला
***
प्रात वंदना
अंगुलियों पर रमा, करतल पर शारद रहें।
हस्त-मूल में उमा, दें दर्शन सुरगण सभी।।
सिंधु वसन नग वक्ष, छत्र नभ पवन श्वास है।
पावक पावन चक्षु, नमन धर-गौ-भारती।।
प्राची दिनकर उषा, दिशा दस अभय कीजिए।
दुपहर संध्या निशा, दिखा कर्म पथ दीजिए।।
काम सभी निष्काम, चित्रगुप्त प्रभु! कर सकूँ।
विधि-हरि-हर हों संग, मातु नंदिनी-दक्षिणा।।
नेह नर्मदा नहा, यथायोग्य सबको नमन।
श्वास-आस सुख-त्रास, ईश-प्रसादी समर्पित।।
५-१-२०२३
***
सॉनेट
दिल हारे दिल जीत
*
मेघ उमड़ते-घुमड़ते लेते रवि भी ढाँक।
चीर कालिमा रश्मियाँ फैलतीं आलोक।
कूद नदी में नहातीं, कोइ सके न रोक।।
कौन चितेरा मनोरम छवि छिप लेता आँक?
रूप देखकर सिहरते तीर खड़े तरु मौन।
शाखाओं चढ़ निहारें पक्षी करते वाह।
करतल ध्वनि पत्ते करें, भरें बेहया आह।।
गगन-क्षितिज भी मुग्ध हैं, संयं साढ़े कौन?
लहर-लहर के हो रहे गाल गुलाबी-पीत।
गव्हर-गव्हर छिप कर करे मत्स्य निरंतर प्रीत।
भ्रमर कुमुदिनी रच रहे लिव इन की नव रीत।
तप्त उसाँसे भर रही ठिठुरनवाली शीत।।
दादुर ढोलक-थाप दे, झींगुर गाता गीत।।
दिल जीते दिल हारकर, दिल हारे दिल जीत।।
५-१-२०२२
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
बहुत हुआ
अब न काम में हो
झोल रे हिंदी
*
सुने न अब
सब जग में पीटें
ढोल रे हिंदी
***
लघुकथा :
खिलौने
*
दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद घर पहुँचते ही पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया तो वह उलटे पैर बाज़ार भागा। किराना लेकर आया तो बिटिया रानी ने शिकायत की 'माँ पिकनिक नहीं जाने दे रही।' पिकनिक के नाम से ही भड़क रही श्रीमती जी को जैसे-तैसे समझाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए हुए बेटा दिखा। उसे बुलाकर पूछ तो पता चला कि खेल का सामान चाहिए। 'ठीक है' पहली तारीख के बाद ले लेना' कहते हुए उसने चैन की साँस ली ही थी कि पिताजी के खाँसने और माँ के कराहने की आवाज़ सुन उनके पास पहुँच गया। माँ के पैताने बैठ हाल-चाल पूछा तो पाता चला कि न तो शाम की चाय मिली है, न दवाई है। बिटिया को आवाज़ देकर चाय लाने और बेटे को दवाई लाने भेजा और जूते उतारने लगा कि जीवन बीमा एजेंट का फोन आ गया 'क़िस्त चुकाने की आखिरी तारीख निकल रही है, समय पर क़िस्त न दी तो पालिसी लेप्स हो जाएगी। अगले दिन चेक ले जाने के लिए बुलाकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया।
आते समय एक अलमारी के कोने में पड़े हुए उस खिलौने पर दृष्टि पड़ी जिससे वह कभी खेलता था। अनायास ही उसने हाथ से उस छोटे से बल्ले को उठा लिया। ऐसा लगा गेंद-बल्ला कह रहे हैं 'तुझे ही तो बहुत जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की। रोज ऊँचाई नापता था न? तब हम तुम्हारे खिलौने थे, तुम जैसा चाहते वैसा ही उपयोग करते थे। अब हम रह गए हैं दर्शक और तुम हो गए हो सबके हाथ के खिलोने।
***
दोहा सलिला
*
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम
*
चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान
*
महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब
वर्मा संरक्षण करे, रहे वीरता डूब
*
मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान
*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत
***
कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
५.१.२०१८
***
मुक्तिका
*
नेह नर्मदा बहने दे
मन को मन की कहने दे
*
बिखरे गए रिश्ते-नाते
फ़िक्र न कर चुप तहने दे
*
अधिक जोड़ना क्यों नाहक
पीर पुरानी सहने दे
*
देह सजाते उम्र कटी
'सलिल' रूह को गहने दे
*
काला धन जिसने जोड़ा
उसको थोड़ा दहने दे
*
मुक्तक-
बिखर जाओ फिजाओं में चमन को आज महकाओ
​बजा वीणा निगम-आगम ​कहें जो सत्य वह गाओ
​अनिल चेतन​ हुआ कैलाश पर ​श्री वास्तव में पा
बनो​ हीरो, तजो कटुता, मधुर मन मंजु ​हो जाओ
***
लघुकथा-
कतार
*
दूरदर्शनी बहस में नोटबन्दी के कारण लग रही लंबी कतारों में खड़े आम आदमियों के दुःख-दर्द का रोना रो रहे नेताओं के घड़ियाली आँसुओं से ऊबे एक आम आदमी ने पूछा-
'गरीबी रेखा के नीचे जी रहे आम मतदातों के अमीर जनप्रतिनिधियों जब आप कुर्सी पर होते हैं तब आम आदमी को सड़कों पर रोककर काफिले में जाते समय, मन्दिरों में विशेष द्वार से भगवान के दर्शन करते समय, रेल और विमान यात्रा के समय विशेष द्वार से प्रवेश पाते समय क्या आपको कभी आम आदमी की कतार नहीं दिखी? यदि दिखी तो अपने क्या किया? क्या आपको अपने जीवन में रुपयों की जरूरत नहीं होती? होती है तो आप में से कोई भी बैंक की कतार में क्यों नहीं दिखता?
आप ऐसा दोहरा आचरण कर आम आदमी का मजाक बनाकर आम आदमी की बात कैसे कर सकते हैं? कालाबाजारियों, तस्करियों और काला धन जुटाते व्यापारियों से बटोर चंदा उपयोग न कर पाने के कारण आप जन गण द्वारा चुनी सरकार से सहयोग न कर जनमत का अपमान करते हैं तो जनता आप के साथ क्यों जुड़े?
सकपकाए नेता को कुछ उत्तर न सूझा तो जन समूह से आवाज आई 'वहां मत बैठे रहो, हमारे दुःख से दुखी हो तो हमारा साथ दो। तुम सबको बुला रही है कतार।
५.१.२०१७
***
सलिल दोहावली -
*
जूझ रहे रण क्षेत्र में, जो उन पर आरोप
लगा रहे हम घरों से, ईश्वर करे न कोप
*
जायज है दुश्मन अगर, पैदा करता विघ्न
कैसे जायज़ मन गढ़ी, कहते हम निर्विघ्न?
*
जान दे रहे देश की, खातिर सैनिक रोज
हम सेना को दोष दे, करते घर में भोज
*
सेंध लगाना हमेशा, होता है आसान
कठिन खोजना-रोकना, सत्य लीजिये मान
*
पिटती पाकी फ़ौज के, साथ रहें वे लोग
विजयी की निंदा? लगा, हमको घातक रोग
*
सदा काम करना कठिन, सरल दिखाना दोष
संयम आवश्यक 'सलिल', व्यर्थ न करिए रोष
५.१.२०१६
***
नवगीत:
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
५.१.२०१५
.
छंद सलिला:
हंसी छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला)
हंसी छंद में २ पद, ४ चरण, ४४ वर्ण तथा ७० मात्राएँ होती हैं. प्रथम-तृतीय चरण उपेन्द्रवज्रा जगण तगण जगण २ गुरु तथा द्वितीय-चतुर्थ चरण में इन्द्रवज्रा तगण तगण जगण २ गुरु मात्राएँ होती हैं.
हंसी-चरण इन्द्रवज्रा में, दूजा-चौथा हों लें मान
हो उपेन्द्रवज्रा में पहला-तीजा याद रखें श्री मान
उदाहरण:
१. न हंस-हंसी बदलें ठिकाना, जानें नहीं वे करना बहाना
न मांसभक्षी तजते डराना, मानें नहीं ठीक दया दिखाना
२. सियासती लोग न जान पाते, वादे किये जो- जनता न भूले
दिखा सके जो धरती अजाने, कोई न जाने उसको बचाना
३. हँसें न रोयें चुपचाप देखें, होता तमाशा हर रोज़ कोई
मिटा न पायें हम आपदाएँ, जीतें हमेशा हँस मुश्किलों को
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हास्य रचना :
एक पहेली
*
लालू से लाली हँस बोली: 'बूझो एक पहेली'
लालू थे मस्ती में बोले: 'पूछो शीघ्र सहेली'
लाली बोली: 'किस पक्षी के सिर पर पैर बताओ?
अकल लगाओ, मुँह बिसूर खोपड़िया मत खुजलाओ,
बूझ सकोगे अगर मिलेगा हग-किस तुमको आज
वर्ना झाड़ू-बर्तन करना, पैर दबा पतिराज'
कोशिश कर हारे लालूजी बोले 'हल बतलाओ
शर्त करूँगा पूरी मन में तुम संदेह न लाओ'
लाली बोली: 'तुम्हें रहा है सदा अकल से बैर'
'तब ही तुमको ब्याहा' मेरी अब न रहेगी खैर'
'बकबकाओ मत, उत्तर सुनकर चलो दबाओ पैर
हर पक्षी का होता ही है देखो सिर, पर, पैर
माथा ठोंका लालू जी ने झुँझलाये, खिसियाये
पैर दबाकर लाली जी के अपने प्राण बचाये।
५.१.२०१४
***
कालजयी गीतकार नीरज के ८९ वें जन्म दिन पर काव्यांजलि:
*
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
नवम दशक में कर प्रवेश मन-प्राण तरुण .
जग आलोकित करता शब्दित भाव अरुण..
कथ्य कलम के भूषण, बिम्ब सखा प्यारे.
गुप्त चित्त में अलंकार अनुपम न्यारे..
चित्र गुप्त देखे लेखे रचनाओं में-
अक्षर-अक्षर में मानवता का वंदन
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
ऊर्जस्वित रचनाएँ सुन मन मगन हुआ.
ज्यों अमराई में कूकें सुन हरा सुआ..
'सलिल'-लहरियों की कलकल ध्वनि सी वाणी.
अन्तर्निहित शारदा मैया कल्याणी..
कभी न मुरझे गीतों का मादक मधुवन.
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
गीति-काव्य की पल-पल जय-जयकार करी.
विरह-मिलन से गीतों में गुंजार भरी..
समय शिला पर हस्ताक्षर इतिहास हुए.
छन्दहीनता मरू गीतित मधुमास हुए..
महका हिंदी जगवाणी का नन्दन वन.
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*

सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

गुलाब, नीरज, सलिल

गीत गुंजन : 

जासौन, मोगरा, गेंदा और सदा सुहागिन के बाद इस सप्ताह लिखिए गुलाब पर।    
प्रस्तुत है महाकवि नीरज का गुलाब पर एक मधुर गीत-  















दो गुलाब के फूल - महाकवि नीरज 
*
दो गुलाब के फूल छू गए, जब से होठ अपावन मेरे 
ऐसी गंध बसी है मन में, सारा जग मधुबन लगता है 

जाने क्या हो गया कि हरदम, बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे, तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे, दु:ख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल, वह अब अभिनंदन लगता है 

तुम्हें चूमने का गुनाह कर, ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी, हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ो, स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो, मगहर वृन्दावन लगता है 

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई, सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई, महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है 

दो गुलाब के फूल छू गए, जब से होठ अपावन मेरे 
ऐसी गंध बसी है मन में, सारा जग मधुबन लगता है 
***
नवगीत:
.
हमने
बोए थे गुलाब
क्यों नागफनी उग आई?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर नींद कहो कब आई?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों तुमने आँख चुराई?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब ‘आप’ न हो रुसवाई.
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊँगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊँ बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
***

एक दोहा
फूलति कली गुलाब की, सखि यहि रूप लखै न।
मनौ बुलावति मधुप कौं, दै चुटकी की सैन॥
एक सखी दूसरी सखी से विकसित होती हुई कली का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि, इस खिलती हुई गुलाब की कली का रूप तो देखो न। यह ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने प्रियतम भौंरे को रस लेने के लिए चुटकी बजाकर इशारा करती हुई अपने पास बुला रही हो।
*
हसरत- ए- दीदार लेकर जाग उठी रात भी
चादर- ए-शबनम में लिपटी एक कली गुलाब की - आलोक सक्सेना
*
मैं गुलाब हूँ 
*
            मैं गुलाब हूँ। मुझसे मिलना है तो किसी बगीचे में चले जाओ। मैं  भारत में सर्वत्र सुलभ हूँ। भारत सरकार ने १२ फरवरी को 'गुलाब दिवस' घोषित कर मुझे सम्मान दिया है। मैं वैश्विक पुष्प हूँ। अमेरिका, इंग्लैंड, ईरान और ईराक का मैं राष्ट्रीय पुष्प हूँ। मुझे प्रेम का प्रतीक मन जाता है। मेरा पौधा झाड़ीदार और कटीला होता है।  मेरी १०० से अधिक जातियाँ हैं जिनमें से अधिकांश एशियाई मूल की हैं। कुछ जातियों के मूल प्रदेश यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी पश्चिमी अफ्रीका भी हैं। मेरी सुंदरता तथा कोमलता के कारण मेरी उपमा बच्चों, सुंदरियों तथा प्रेमिकाओं से की जाति है। मेरे वन्य रूप में चार-पाँच छितराई हुई पंखड़ियों की एक हरी पंक्ति होती है। बगीचों में यत्नपूर्वक लगाने पर पंखुड़ियों की संख्या बढ़ती है पर केसरों की संख्या घट जाती है। कलम पैबंद आदि के द्बारा मेरे भिन्न-भिन्न जातियों संकर रूप उत्पन्न किए जाते हैं। कश्मीर और भूटान में मैं पीले जंगली गुलाब के रूप में मिलता हूँ। तुर्की में मेरा कृष्ण वर्ण देखकर सभ मोहित हो जाते हैं। मैं लता या बेल के रूप में भी मिलता हूँ। 'शतपत्री', 'पाटलि' आदि शब्दों को गुलाब का पर्याय हैं।

इतिहास 
            १४५५ से १४८७ तक अंग्रेजी सिंहासन पर नियंत्रण के लिए  हाउस ऑफ़ लैंकेस्टर और हाउस ऑफ़ यॉर्क के समर्थकों के बीच हुए युद्ध वार्स ऑफ द रोसेस (गुलाब के युद्ध) कहे गए। इसका कारण यार्क हाउस का चिह्न सफेद गुलाब, लंकास्टर हाउस का चिह्न लाल गुलाब तथा ट्यूडर हाउस का चिह्न बीच में सफेद, बाहरी परिधि में लाल पंखुड़ियों का गुलाब होना था।

            मुसलमान लेखक रशीउद्दीन ने चौदहवीं शताब्दी में गुजरात में मेरे सत्तर उगाए जाने का जिक्र किया है। बाबर ने भी गुलाब लगाने की बात लिखी है। मेरी लालिमा पर फ़िदा नूरजहाँ ने १६१२ ईसवी में अपने विवाह के अवसर पर पहले पहल मेरा इत्र निकाला था। सीरिया की शाहजादी को मेरा पीले फूल पसंद थे। मुगलानी जेबुन्निसा अपनी फारसी शायरी में कहती है ‘मैं इतनी सुन्दर हूँ कि मेरे सौन्दर्य को देखकर गुलाब के रंग फीके पड़ जाते हैं।‘ भारत के राजे और सीरिया के बादशाह मेरे खूबसूरत बागीचों में सैर किया करते थे।
साहित्य 
            भारतीय साहित्य में मुझे रंगीन पंखुड़ियों के कारण 'पाटल', सदैव तरूण होने के कारण 'तरूणी', शत पत्रों के घिरे होने पर ‘शतपत्री’, कानों की आकृति से ‘कार्णिका’, सुन्दर केशर से युक्त होने ‘चारुकेशर’, लालिमा रंग के कारण ‘लाक्षा’ और गंध पूर्ण होने से गंधाढ्य कहा गया है। फारसी में मेरा नाम 'गुलाब, अंगरेज़ी में रोज, बंगला में गोलाप, तामिल में इराशा और तेलुगु में गुलाबि, अरबी में ‘वर्दे अहमर' है। शिव पुराण में मुझे देव पुष्प कहा गया है।  मैं अपनी सुगंध और रंग से विश्व काव्य में माधुर्य और सौन्दर्य का प्रतीक हूँ। रोम के प्राचीन कवि वर्जिल ने अपनी कविता में मेरे सीरियाई बसंती रूप की चर्चा की है। अंगरेज़ी कवि टामस हूड ने मुझे समय का प्रतिमान, कवि मैथ्यू आरनाल्ड ने प्रकृति का अनोखा वरदान, टेनिसन ने नारी का उपमान बताया है। हिन्दी के श्रृंगारी कवियों  ने मुझ पर अपनी रसिकता आरोपित की है-  ‘फूल्यौ रहे गंवई गाँव में गुलाब’। महाकवि देव ने अपनी कविता में मुझसे बालक बसन्त का स्वागत कराया, महाकवि निराला ने मुझे पूंजीवादी और शोषक के रूप में देखा जबकि रामवृक्ष बेनीपुरी ने संस्कृति का प्रतीक कहा है। जननायक जवाहर लाल नेहरू मुझे हृदय से लगे रखते थे। राजस्थान की राजधानी जयपुर की इमारतें मेरे रंग में रँगी गईं तो इसे 'गुलाबी नगरी' के खिताब से नवाजा गया।
खेती 
                मेरी खेती और उससे उत्पादन के क्षेत्र  में बुलगारिया, टर्की, रुस, फ्रांस, इटली और चीन से भारत काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में उत्तर प्रदेश के हाथरस, एटा, बलिया, कन्नौज, फर्रुखाबाद, कानपुर, गाजीपुर, राजस्थान के उदयपुर (हल्दीघाटी), चित्तौड़, जम्मू और कश्मीर में, हिमाचल इत्यादि राज्यों में २ हजार हे० भूमि में दमिश्क प्रजाति के गुलाब की खेती होती है। यह गुलाब चिकनी मिट्टी से लेकर बलुई मिट्टी जिसका पी०एच० मान ७.०-८.५ तक में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। दमिश्क गुलाब शीतोष्ण और समशीतोष्ण दोनों ही प्रकार की जलवायु में अच्छी तरह उगाया जा सकता है। समशीतोष्ण मैदानी भागों में जहाँ पर शीत काल के दौरान अभिशीतित तापक्रम (चिल्ड ताप) तापक्रम लगभग १ माह तक हो वहाँ भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। खुशबूदार गुलाबों का इस्तेमाल गुलाब का तेल बनाने के लिए किया जाता है।
उत्पाद 
            भारत में मौसम के अनुसार मेरे दो वर्ग सदागुलाब और चैती (बसरा या दमिश्क जाति के) हैं। गंधहीन सदा गुलाब बारहों महीने फूलता है जबकि सुगंधित चैती गुलाब केवल बसंत में फूलता है। चैती गुलाब से गुलकंद, गुलाब जल, इत्र और दवा बनाई जाती है। गाजीपुर मेरी खेती के लिए मशहूर है। एक बीघा जमीन पर मेरे लगभग १००० पौधे लगे जाते हैं। अलस्सुबह उनके फूल तोड़कर अत्तार उनका जल निकाल लेते हैं। अत्तार पानी के साथ फूलों को देग में रख देते हैं। देग से एक पतली बाँस की नली पानी से भरी नाँद में रखे गए बर्तन 'भभका' में जाती है।  डेग में से सुगंधित भाप उठकर भभके के बर्तन में सरदी से द्रव होकर टपकती है। यही गुलाब जल है।मेरा इत्र तैयार करने के लिए गुलाब जल को गीली जमीन में गड़ाए गए एक छिछले बरतन में रखकर रात भर खुले मैदान में पड़ा रहने देते हैं। सुबह सर्दी से गुलाबजल के ऊपर इत्र की बहुत पतली मलाई सी पड़ जाति है जिसे हाथ से काँछ लिया जाता है। मेरे विकास के लिए छः से आठ घंटे धूप मिलना आवश्यक है। 
वर्गीकरण 
                मेरे पौधों की बनावट, ऊँचाई, फूलों के आकार आदि के आधार पर इन्हें पाँच वर्गों में बाँटा गया है। 
१. हाइब्रिड टी- पौधे झाङीनुमा, लम्बे और फैलनेवाले, प्रत्येक शाखा पर एक सुंदर बड़ा फूल। इस वर्ग की प्रमुख किस्में एम्बेसडर, अमेरिकन प्राइड, बरगण्डा, डबल, डिलाइट, फ्रेण्डसिप, सुपरस्टार, रक्त गंधा, क्रिमसनग्लोरी, अर्जुन, जवाहर, रजनी, रक्तगंधा, सिद्धार्थ, सुकन्या, फस्टे रेड, रक्तिमा और ग्रांडेमाला आदि हैं। 
२. फ्लोरीबण्डा- इसके फूल हाइब्रिड टी किस्मों की तुलना में छोटे और अधिक होते हैं। इस वर्ग की प्रमुख किस्में है- जम्बरा, अरेबियन नाइटस, रम्बा वर्ग, चरिया, आइसबर्ग, फर्स्ट एडीसन, लहर, बंजारन, जंतर-मंतर, सदाबहार, प्रेमा और अरुणिमा आदि। 
३. पॉलिएन्था : इनके पौधों और फूलों का आकार हाइब्रिड डी एवं फ्लोरी बंडा वर्ग से छोटा किंतु गुच्छा आकार में फ्लोरीबंडा वर्ग से भी बड़ा होता है। एक गुच्छे में कई फूल होते हैं। इनमें मध्यम आकार के फूल अधिक संख्या में साल में अधिक समय तक आते रहते हैं।  यह घरों में शोभा बढ़ाने वाले पौधों के रूप में बहुतायत से प्रयोग में लाया जाता है। इस वर्ग की प्रमुख किस्में स्वाति, इको, अंजनी आदि हैं।
४. मिनीएचर : इन्हें बेबी गुलाब, मिनी गुलाब, बटन गुलाब या लघु गुलाब कहा जाता। ये कम लंबाई के छोटे बौने पौधे होते हैं। इनकी पत्तियों व फूलों का आकार छोटा  किंतु संख्या बहुत अधिक होती है। इन्हें ब़ड़े शहरों में बंगलों, फ्लैटों आदि में छोटे गमलों में लगाया जाना उपयुक्त रहता है। इस वर्ग की प्रमुख किस्में ड्वार्फ किंग, बेबी डार्लिंग, क्रीकी, रोज मेरिन, सिल्वर टिप्स आदि हैं।
५. लता गुलाब- इस वर्ग में कुछ हाइब्रिड टी फ्लोरीबण्डा गुलाबोँ की शाखाएँ लताओं की भाँति बढ़ती हैं। इन्हें मेहराब या अन्य किसी सहारे के साथ चढ़ाया जा सकता है। इनमें फूल एक से तीन (क्लाइंबर) व गुच्छों (रेम्बलर) में लगते हैं। लता वर्ग की प्रचलित किस्में गोल्डन शावर, कॉकटेल, रायल गोल्ड और रेम्बलर वर्ग की एलवटाइन, एक्सेलसा, डोराथी पार्किंस आदि हैं। कासिनों, प्रोस्पेरीटी, मार्शलनील, क्लाइबिंग, कोट टेल आदि भी लोकप्रिय हैं।
मेरी नवीनतम किस्में- पूसा गौरव, पूसा बहादुर, पूसा प्रिया, पूसा बारहमासी, पूसा विरांगना, पूसा पिताम्बर, पूसा गरिमा और डा भरत राम आदि हैं। 
पुष्प 
मेरे पौधे में पुष्पासन जायांग से होता हुआ लम्बाई में वृद्धि करता हुआ पत्तियों को धारण करता है। हरे गुलाब के पुष्प पत्ती की तरह दिखाई देते हैं। पुष्पासन छिछला, चपटा या प्याले का रूप धारण करता है। जायांग पुष्पासन के बीच में तथा अन्य पुष्पयत्र प्यालानुमा रचना की नेमि या किनारों पर स्थित होते हैं। इनमें अंडाशय अर्ध-अधोवर्ती तथा अन्य पुष्पयत्र अधोवर्ती कहलाते है। पांच अखरित या बहुत छोटे नखरवाले दल के दलफलक बाहर की तरफ फैले होते हैं। पंकेशर लंबाई में असमान होते है अर्थात हेप्लोस्टीमोनस. बहुअंडपी अंडाशय, अंडप संयोजन नहीं करते हैं तथा एक-दुसरे से अलग-अलग रहते हैं, इस अंडाशय को वियुक्तांडपी कहते हैं और इसमें एक अंडप एक अंडाशय का निर्माण करता है।
आर्थिक महत्व 
फूल के हाट में मेरे लाल-गुलाबी गजरे खूब बिकते हैं।[  गुलाब की पंखुडियों और शक्कर से गुलकन्द बनाया जाता है। गुलाब जल और गुलाब इत्र के कुटीर उद्योग चलते है। उत्तर प्रदेश में कन्नौज, जौनपुर आदि में गुलाब के उत्पाद की उद्योगशाला चलती है।दक्षिण भारत में गुलाब फूलों का खूब व्यापार होता है। मन्दिरों, मण्डपों, समारोहों, पूजा-स्थलों आदि स्थानों में गुलाब फूलों की भारी खपत होती है। यह अर्थिक लाभ का साधन है।
***

फिल्मी गीतों में गुलाब 
एक नज़र डालते हैं हिंदी सिनेमा के कुछ ऐसे ही गानों पर जिसमे गुलाब ने अपनी खुशबू की महक छोड़ी है-

तू कली गुलाब की, १९६४-  अभिनेत्री रेखा पर फिल्माए  गए इस गीत में  महबूबा की तुलना गुलाब के फूल से की गई है। 

गुलाबी आंखे जो तेरी देखीं, १९७०- बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की मूवी ‘द ट्रेन’ में फिल्माया गया गाना ‘गुलाबी आँखें जो तेरी देखीं...’ में गुलाब शब्द का संजीदगी से किया गया उपयोग काबिले तारीफ़ है। इसे मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ दी थी। 

तेरा चेहरा मुझे गुलाब, १९८१- फिल्म ‘आपस की बात’ में अभिनेता राज बब्बर यह गाना गाते हुए दिख रहें हैं. इस गाने में भी बड़ी खूबसूरती से गुलाब शब्द को उपयोग में लाया गया है.

खिलते हैं गुल यहाँ १९८१- इस गाने में  अभिनेता शशि कपूर अपनी महबूबा को रिझाने के लिए गाना गाते हुए दिख रहें हैं. 

कच्ची कली गुलाब की, खुदा कसम १९८१-  ‘जवान होकर बचपना न करिए हुज़ूर, कच्ची कली गुलाब की ऐसे ना तोड़िए’

गुलाब जिस्म का यूंही नही खिला होगा, अंजुमन १९८६, 

फूल गुलाब का- बीवी हो तो ऐसी १०८८ 

भेजा है एक गुलाब, शिकारी २०००- ये गाना किंग ऑफ रोमांस आवाज़ के लिए मशहूर कुमार सानु ने गाया था. 

गुलाबी शुद्ध देसी रोमांस २०१३- इस गाने को सुशांत सिंह राजपूत और वाणी कपूर के ऊपर फिल्माया गया था.

गुलाबो- शानदार २०१५- शाहिद कपूर और आलिया भट्ट की मूवी शानदार में फिल्माया गया गाना ‘गुलाबो’ के इस गाने को लोगों ने जरुर पसंद किया था.
***

शनिवार, 20 जुलाई 2024

जुलाई २०, नवगीत, सॉनेट, केदार, दोहा, मुक्तिका, नीरज, माँ, बांगला-हिंदी, संक्रांति

सलिल सृजन जुलाई २०
*
पुस्तक चर्चा-
.संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवि ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
***
सॉनेट
मधुर
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर
पथिक न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना
रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु
धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में
२०-७-२०२२
•••
नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५
***
यादें न जाएँ: नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना: फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***
मुक्तक
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
मुक्तिका:
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
२०-७-२०१८
***
कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
*
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
२३-१०-२०१५
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गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
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नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
स्व. नीरज के प्रति
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा दुनिया
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख
*
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
*
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश..
*
दोहा मुक्तिका
*
भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
*
सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
*
उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
*
२०-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
***
नवगीत:
*
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
***
नवगीत
*
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
घोर वृष्टि
भू स्खलित
काँप उठे केदार
पशुपति का
भूकंप ने घर
ही दिया उजाड़
महाकाल
थर्रा रहे, देख
प्रलय सा दृश्य
रामेश्वर
पुल पर लगा
ढैया शनि अदृश्य
क्या करते
प्रभु? भक्त गण
रहे भाग्य को झींक
पूजन हित
आ पुजारी
गिरा रहे हैं पीक
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
अमरनाथ
पथ को रहे
आतंकी मिल घेर
बाधाएँ
कैलाश के
मग में आईं ढेर
हिमगिरि भी
विचलित हुआ
धीरज जाता टूट
मनुज नहीं
थमता तनिक
रहा प्रकृति को लूट
कर असगुन
पीढ़ी नयी
रही राह में छींक
घोटाले
हर दिन नये
उद्घाटित हों चीख
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
***
नवगीत
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
२०-७-२०१५
***
दोहा
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश
२०-७-२०११