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शनिवार, 23 मार्च 2013

धरोहर: ब्राह्म मुहूर्त:स्वस्ति वाचन अज्ञेय

धरोहर:
ब्राह्म मुहूर्त:स्वस्ति वाचन अज्ञेय
 *

जिओ उस प्यार में
जो मैंने तुम्हे दिया है,
उस दुःख में नहीं, जिसे
बेझिझक मैंने पिया है|
उस गान में जिओ
जो मैंने तुम्हे सुनाया है,
उस आह में नहीं, जिसे
मैनें तुमसे छिपाया है|
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा;
वो कांटे गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा|
सागर के किनारे तुम्हे पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो,
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वो सब ओ मेरे वर्य! ( श्रेष्ठ )
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो|

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

धरोहर : जीवन की आपाधापी में... स्व. हरिवंश राय बच्चन

धरोहर :

 
स्व. हरिवंश राय बच्चन
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. आनंद लीजिए  धरोहर में स्व. हरिवंश राय बच्चन की रचना का।

जीवन की आपाधापी में...
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

धरोहर : सखि ,वसन्त आया | स्व.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

धरोहर :

इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महीयसी महादेवी वर्मा, स्व. धर्मवीर भारती जी, उर्दू-कवि ग़ालिब, कन्हैयालाल नंदन तथा मराठी-कविवर कुसुमाग्रज के पश्चात् अब आनंद लें कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचना का।

. स्व.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 


*
प्रतिनिधि रचना:
वसन्त पंचमी
               
महाप्राण निराला
सखि ,वसन्त आया |
भरा हर्ष वन के मन ,
नवोत्कर्ष छाया |

किसलय -वसना नव -वय -लतिका 
मिली मधुर प्रिय -उर -तरु -पतिका ,
मधुप -वृन्द बन्दी-
पिक -स्वर नभ सरसाया |

लता -मुकुल -हार -गन्ध -भार भर ,
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर ,
जागी नयनों में वन -
यौवन की माया |

आवृत्त सरसी -उर सरसिज उठे ,
केशर के केश कली के छूटे ,
स्वर्ण -शस्य -अंचल 
पृथ्वी का लहराया |
प्रस्तुति:शिशिर 

*

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

धरोहर :९ कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर -संजीव 'सलिल'

धरोहर :९ संयोजन:  संजीव 'सलिल'


इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महीयसी महादेवी वर्मा, स्व. धर्मवीर भारती तथा मराठी-कवि कुसुमाग्रज के पश्चात् अब आनंद लें कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का।

९. स्व.रवींद्रनाथ ठाकुर


* चित्र-चित्र स्मृति




भौतिकशास्त्री एल्बर्ट आइन्स्टीन के साथ

महात्मा गाँधी के साथ

कविगुरु के साथ इंदिरा गाँधी

स्मारक सिक्के                         डाक टिकिट      नोबल पदक
*
पेंटिंग्स:




*
कृतियाँ:



हस्त लिपि:



*
प्रतिनिधि रचना:
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
यह रचना शांत रस, राष्ट्रीय गौरव तथा 'विश्वैक नीडं' की सनातन भावधारा से ओतप्रोत है. राष्ट्र-गौरव, सब को समाहित करने की सामर्थ्य आदि तत्व इस रचना को अमरता देते हैं. हिंदी पद्यानुवाद में रचना की मूल भावना को यथासंभव बनाये रखने तथा हिंदी की प्रकृति के साथ न्याय करने का प्रयास है. रचना की समस्त खूबियाँ रचनाकार की, कमियाँ अनुवादक की अल्प सामर्थ्य की हैं.
*
 
*
पूजा

हे चिर नूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने
जीवन आमार उठुक विकाशि तोमारि पाने.
तोमर वाणीते सीमाहीन आशा,
चिर दिवसेर प्राणमयी भाषा-
क्षयहीन धन भरि देय मन तोमार हातेर दाने..
ए शुभलगने जागुक गगने अमृतवायु
आनुक जीवने नवजनमेरअमल वायु
जीर्ण जा किछु, जाहा-किछु क्षीण
नवीनेर माझे होक ता विलीन
धुएं जाक जत पुरानो मलिन नव-आलोकेर स्नाने..
(गीत वितान, पूजा, गान क्र. २७३)
*
हे चिर नूतन!गान आज का प्रथम गा रहा.
उठ विकास कर तुझको पाने विनत आ रहा..
तेरी वाणी से मुझको आशा असीम है.
चिर दिवसों की प्राणमयी भाषा नि:सीम है..
तेरे कर से मन अक्षय धन, दान पा रहा...

इस शुभ क्षण में, नभ में अमिय पवन प्रवहित हो.
जीवन- नव जीवन की अमल वायु पूरित हो..
जीर्ण-क्षीर्ण निष्प्राण पुराना या मलीन जो-
वह नवीन में हो विलीन फिर से जीवित हो..
नवालोक में स्नानित शुभ पुनि प्राण पा रहा...
*
देश की माटी
देश की माटी तुझे मस्तक नवाता मैं.
विश्व माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
समाई तन-मन में,  दिखी है प्राण-मन में-
सुकुमार प्रतिमा एकता में देख पाता मैं..
*
कोख से जन्मा, गोद में प्राण निकलें.
करी क्रीड़ा, सुख मिला, दुःख सहा रख आस तुझसे.
कौर दे मुँह में, पिला जल तृप्त करती तू-
चुप सहा जो गहा, माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
*
जो दिया भोगा हमेशा, सर्वस्व तुझसे लिया.
चिरऋणी, किंचित नहीं प्रतिदान कुछ भी किया.
सब समय बीता निरर्थक, किया है कुछ भी न सार्थक-
शक्तिदाता! व्यर्थ कर दी शक्ति मैंने- लेख पाता मैं..
*
मन निडर, निर्भय, आशंकित शीश उन्नत.
ज्ञान हो निस्सीम, गृह अक्षत सदा प्रभु!
कर न खंडित धरा,  लघु आँगन विभाजित.
उद्गमित हो वाक्, अंतर-हृदय से प्रभु!.
हो प्रवाहित सता-अविकल कर्म सलिला.
देश-देशांतर, दसों दिश में परम प्रभु!
तुच्छ आचारों का मरु ग्रास ले न धारा.
शुभ विचारों की न किंचित भी परम प्रभु!
कर्म औ' पुरुषार्थ हों अनुगत तुम्हारे,
करो निज कर ठोकरें देकर परम प्रभु!
हे पिता! वह स्वर्ग भारत में उतारो.
देश भारत को जगा दो, जगा दो प्रभु!


*
गान गल्पो

*
जेते नाहीं दिबो ४ 


*
कविता

*

*