कुल पेज दृश्य

सोमवार, 31 मई 2021

दोहा सलिला, समस्या पूर्ति

दोहा सलिला
दुनिया में नित घूमिए, पाएँ-देकर मान।
घर में घर जैसे रहें, क्यों न आप श्रीमान।।
*
प्राध्यापक से क्यों कहें, 'खोज लाइए छात्र'।
शिक्षास्तर तब उठे जब, कहें: 'पढ़ाओ मात्र।।
*
जो अपूर्व वह पूर्व से, उदित हो रहा नित्य।
पल-पल मिटाता जा रहा, फिर भी रहे अनित्य।।
*
गौरव गरिमा सुशोभित, हो विद्या का गेह।
ज्ञान नर्मदा प्रवाहित, रहे लहर हो नेह।।
*
करे पूँछ से साफ़ भू, तब ही बैठे श्वान।
करे गंदगी धरा पर, क्यों बोले इंसान।।
*
समस्या पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
*
मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
*
मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
*
प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
*
ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
*
मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
***
३१.५.२०१८, ७९९९५५९६१८

हास्य रचना

हास्य रचना 
प्रिय बनकर जब लूटे डाकू
क्या बोलोगे उसको काकू?
जेब काट ले प्राण निकाल
बचो, आप को आप सम्हाल.
घातक अधिक न उससे चाकू
जान बचा छोडो तम्बाकू

दोहा का रंग सिर के संग

 दोहा सलिला:

दोहा का रंग सिर के संग
संजीव
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया काज
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाए कभी, दुश्मन रखिये ध्यान
सरकश का सर झुककर रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न
जो पौरुष करता नहीं, रहता सदा विपन्न
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें फिर शाद
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल
*
अगर न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पांच साल गायब रहे, जाए जमानत डूब
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सर जोड़ें मिल-बैठ
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
*
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान
***

लेख: कुंडली मिलान में गण-विचार

लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
संजीव
*
वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
***

गीता अध्याय ५ यथार्थ हिंदी रूपांतरण


ॐ कृष्ण चिंतन १५ 
गीता अध्याय ५ : कर्म-सन्यास योग
यथार्थ हिंदी रूपांतरण
*
(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६,
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित)
*
पार्थ- ''पूर्व सन्यासकर्म हरि!, फिर कह कर्मयोग अच्छा।
अधिक लाभप्रद दोनों में से, एक मुझे कहिए पक्का''।।१।।
*
हरि- ''सन्यास- कर्म दोनों ही, मुक्ति राह दिखलाते  हैं । 
किन्तु कर्म सन्यास से अधिक, कर्म योग ही उत्तम  है।।२।।
*
जाने वह सदैव सन्यासी, जो न द्वेष या आस करे।
द्विधामुक्त हो बाहुबली! वह, सुख से बंधनमुक्त रहे।।३।।
*
सांख्य-योग को भिन्न बताते, कमज्ञानी विद्वान नहीं। 
रहे एक में भी थिर जो वह, दोनों का फल-भोग करे।।४।।
जो सांख्य से मिले जगह वही, मिले योग के  द्वारा भी। 
एक सांख्य को और योग को, जो देखे वह दृष्टि सही।।५।।
है सन्यास महाभुजवाले!, दुखमय बिना योग जानो। 
योगयुक्त मुनि परमेश्वर को, शीघ्र प्राप्त कर लेता है।।६।।
*
योगयुक्त शुद्धात्मावाले, आत्मजयी इंद्रियजित जो। 
सब जीवों में परमब्रह्म को, जान कर्म में नहीं बँधे।।७।।
*
निश्चय ही कुछ किया न करता, ऐसा सोचे सत-ज्ञानी। 
देखे, सुन, छू, सूँघ, खा, जा, देखे सपना, साँसें ले।।८।।
*
बात करे, तज दे, स्वीकारे, चक्षु मूँद ले या देखे। 
इंद्रिय में इन्द्रियाँ तृप्त हों, इस प्रकार जो सोच रहे।।९।।
*
करे ब्रह्म-अर्पित कार्यों को, तज आसक्ति रहे करता। 
हो न लिप्त वह कभी पाप में, कमल पत्र ज्यों जल में हो।।१०।।
तन से, मन से, याकि बुद्धि से, या केवल निज इंद्रिय से। 
योगी करते कर्म मोह तज, आत्म-शुद्धि के लिए सदा।।११।।
*  
युक्त कर्म-परिणाम सभी तज, शांति प्राप्त नैष्ठिक करते।
दूर ईश से भोग कर्म-फल, मोहासक्त बँधे रहते।।१२।।
सब कर्मों को मन से तजकर, रहे सुखी संयमी सदा।
नौ द्वारों के पुर में देही, करता न ही कराता।।१३।।
कर्तापन को नहिं कर्मों को, लोक हेतु प्रभु सृजित करे। 
कर्मफल संयोग न रचते, निज स्वभाव से कार्य करे।।१४।।
*      
कभी नहीं स्वीकार किसी का, पाप-पुण्य प्रभु करते हैं।
अज्ञान-ढँके ज्ञान की भाँति,  जीव मोहमय रहते हैं।।१५।।
ज्ञान से अज्ञान वह सारा, नष्ट जिसका हो चुका हो।  
ज्ञान उसका प्रकाशित करता, परमेश्वर परमात्मा को।।१६ ।।
*   
उस मति-आत्मा-मन वाले जन, प्रभुनिष्ठा रख आश्रय ले। 
जाते अपनी मुक्ति राह पर, ज्ञान मिटा सब कल्मष दे।।१७।।
*
विद्या तथा विनय पाए जन, ब्राह्मण में गौ-हाथी में।
कुत्ते व चांडाल में ज्ञानी, एक समान दृष्टि रखते।।१८।।
*
इस जीवन में सर्गजयी जो, उसका समता में मन रहता। 
है निर्दोष ब्रह्म जैसे वे, सदा ब्रह्म में वह रहता।।१९।।
*
नहीं हर्षित सुप्रिय पाकर जो, न विचलित पा अप्रिय को हो। 
अचल बुद्धि संशयविहीन वह, ब्रह्म जान उसमें थिर हो।।२०।।
*
बाह्य सुखों से निरासक्त वह, भोगे आत्मा के सुख को। 
ब्रह्म-ध्यान कर मिले ब्रह्म में, मिल भोगे असीम सुख वो।।२१।।
*                         
इंद्रियजन्य भोग दुख के हैं, कारण निश्चय ही सारे।
आदि-अंतयुत हैं कुंतीसुत!, नहीं विवेकी कभी रमे।।२२।।
*
है समर्थ वह तन में सह ले, जो तन तजने के पहले।
काम-क्रोध उत्पन्न वेग को, नर योगी वह सुखी रहे।।२३।।
*
जो अंतर में सुखी; रमणकर अंतर अंतर्ज्योति भरे।
निश्चय ही वह योगी रमता, परमब्रह्म में मुक्ति वरे।।२४।।
*
पाते ब्रह्म-मुक्ति वे ऋषि जो, सब पापों से दूर रहे।
दूर द्वैत से; आत्म-निरत वह, सब जन का कल्याण करे।।२५।।
*
काम- क्रोध से मुक्त पुरुष की, मन पर संयमकर्ता की।
निकट समय में ब्रह्म मुक्ति हो, आत्मज्ञान युत सिद्धों की।।२६।।
*
इंद्रिय विषयों को कर बाहर, चक्षु भौंह के मध्य करे।
प्राण-अपान वायु सम करके, नाक-अभ्यंतर बिचरे।।२७।।
*
संयम इंद्रिय-मन-मति पर कर, योगी मोक्ष परायण हो।
तज इच्छा भय क्रोध सदा जो, निश्चय  सदा मुक्त वह हो।।२८।।
*
भोक्ता सारे यज्ञ-तपों का, सब लोकों के देवों का।
उपकारी सब जीवों का, यह जान मुझे वह वरे सदा।।२९।।
७-६-२०२१ 
***

रविवार, 30 मई 2021

गीता अध्याय ४, यथार्थ हिंदी रूपांतरण

ॐ कृष्ण चिन्तन १४ 
गीता अध्याय ४ 
यथार्थ हिंदी रूपांतरण 
अध्याय ४ 
(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६, 
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित) 
*
प्रभु बोले कल्पादि काल में, यह अविनाशी योग रहा। १६-१४ 
मुझसे रवि मनु इक्ष्वाकु को, मिला लोक ने इसे गहा।।१।। 
  
परंपरा से मिले योग को, जान राज-ऋषि मौन हुए। 
बहुत समय से लुप्त हो गया, क्या-कैसा था कौन कहे?।।२।। 
वही पुरातन योग कहा अब, मैंने तुझसे भक्त-सखे!
अति उत्तम अति गूढ़ विषय है, सरस सरल यह भले दिखे।।३।। 
*
पूछे अर्जुन ''प्रभु! जन्मे हैं, आप आज; रवि पूर्व बहुत।
आदि कल्प में कहा आपने, कैसे जानूँ है यह सत?।।४।। 
भगवन बोले ''मेरे-तेरे, कई जन्म हो पार्थ चुके।
मुझे ज्ञात तू नहीं जानता, इसीलिए यह प्रश्न करे।।५।। 
हूँ अविनाशी भले अजन्मा, सब जीवों का ईश्वर हूँ। 
कर आधीन प्रकृति के खुद को, प्रगट योगमाया से हूँ।।६।। 
जब जब धर्म-हानि होती है, और अधर्म बढ़े भारत!
तब तब खुद को रचता हूँ मैं, तुझे सत्य अब हुआ विदित।।७।। 
साधुजनों का कष्टनिवारण, दुष्टों का विनाश करने।
धर्म प्रतिष्ठा करने फिर से, प्रगट हुआ मैं युग-युग में।।८।। 
जन्म-कर्म यह दिव्य-अलौकिक, जो यह तत्व जानता है।
तज तन फिर न जन्म ले अर्जुन!, लीन मुझी में होता है।।९।। 
वीतराग भय क्रोध से रहित, हों अभिन्न जो जन मुझसे
ज्ञान तपस्या से पावन हो,  वे सब लीन हुए मुझमें।।१०।। 
जो जैसा मुझको पाता है, और जिस तरह है भजता। 
मैं वैसे अपनाता उसको, जान विज्ञ बरता करता।।११।। 
 
जो कर्मों से सिद्धि चाहते, वे देवों को पूज रहे।
शीघ्र मिल सके मनुज लोक में, सिद्धि मनुज को कर्मों से।।१२।। 
 
चारों वर्ण बनाए मैंने, गुण अरु कर्म बाँट कर ही।
उनका कर्ता मैं अविनाशी, मुझको जान अकर्ता ही।।१३।। 
*
लिप्त न होता कभी कर्म में, नहीं कर्मफल की इच्छा। 
जो इस तरह जानता मुझको, नहीं कर्म से वह बँधता।।१४।। 
इसे जानकर कर्म-रती थे, मोक्षाकांक्षी जन पहले। 
कर्म करो तुम तदनुसार ज्यों, किए पूर्वजों ने पहले।।१५।। 
*
क्या है कर्म?, अकर्म कौन सा?, बुद्धिमान मोहित सोचें। 
वही कर्म समझाऊँ तुझको, जान अशुभ से तू छूटे।।१६।। 
*
कर्म स्वरूप जान ले पहले, जान अकर्म रूप भी तू।
जान विकर्म किसे कहते हैं?, गहन कर्म-गति जाने तू।।१७।। 
देख कर्म में जो अकर्म ले, लख अकर्म में कर्म सके। 
वह मनुजों में बुद्धिमान है, योगी कर हर कर्म सके।।१८।।
*   
जिसके कर्म शुरू होते सब, बिन संकल्प कामना के।
ग्यान अग्नि में भस्म कर्म कर, वह पंडित सब ग्यानी में।।१९।।
 *
तजे कर्म सँग फलासक्ति जो, बिन आश्रय भी तृप्त रहे।
दिखे प्रवृत्त कर्म में लेकिन, किंचित् कुछ भी नहीं करे।।२०।।
*
आशा तज चित्तात्मा जीते, सारे परिग्रह भोग तजे।
कर्म करे तन विषयक केवल, हो न पाप को प्राप्त सखे।।२१।।
*
सहज लाभ से तृप्त रहे जो, द्वंद्व सभी जो भूल सके।
सिद्धि-असिद्धि समान जिसे हो, कर्म करे पर बिना बँधे।।२२।।
*
हो आसक्ति नष्ट सब जिसकी, चित्त ग्यान में बसा रहे।
यज्ञ हेतु जो कर्म करे वे, खुद विलीन हों सदा सखे।।२३।।
*
अर्पण-अर्पित ब्रह्म ब्रह्म को, ब्रह्म अग्नि में ब्रह्म करे। 
हो गंतव्य ब्रह्म ही उसका, ब्रह्म कर्म हो प्राप्त उसे।।२४।।
* 
पूजन कर देवों का योगी, बाकी उनको उपासते। 
ब्रह्म अग्नि में दूजे योगी, हवन ब्रह्म का ही करते।।२५।।
*
श्रवणादिक इंद्रिय को योगी, संयमाग्नि में दहन करें। 
शब्दादिक विषयों को योगी, इन्द्रियाग्नि में हवन करें।।२६।।
*
सभी इन्द्रियों को; कर्मों को, प्राणज सकल क्रियाओं को। 
स्व संयम की योग अग्नि में, अर्पित करते ज्ञान दीप को।।२७।। 
*
द्रव्य-तपस्या-योग यज्ञ भी, कई भक्त अर्पित करते। 
स्वाsध्याय-निज ज्ञान यज्ञ को, दृढ़प्रतिज्ञ यति ही करते।।२८।।
*
प्राणापान-अपान प्राण में, करते हवन अन्य योगी। 
प्राण-अपान रोकदें आहुति, प्राणों की प्राणों में ही।।२९।। 
*
कुछ आहार नियत ही करते, अर्पित प्राण प्राण में हों।
सभी यज्ञ में पाप नष्ट कर, लेते जान सुयज्ञों को ।।३०।। 
*
अनुभव करते यज्ञ अमिय का, परमात्मा पाते योगी। 
यज्ञ न करते जो उनको सुख, मिले न किसी लोक में भी।।३१।।
*
कहे गए हैं यज्ञ बहुत से, वेद-ब्रह्म के वचनों से। 
हुए कर्म-उत्पन्न वे सभी, आप मुक्त हो कर्मों से।।३२।।
*
द्रव्य यज्ञ से अधिक श्रेष्ठ ही, ज्ञान यज्ञ अरिदण्डक है।
पृथापुत्र हे! सकल कर्म मिल, विलुप्त ज्ञान यज्ञ में है।।३३।।
*
कर प्रणाम ले पूछ प्रश्न तू, गुरुओं से सेवा करके।
कर उपदेश ज्ञान देंगे वे,  ज्ञान तत्वदर्शी तुझको।।३४।।
*
जिसे जानकर फिर न मोह को, कभी प्राप्त अर्जुन! होगा।
तू संपूर्ण शेष भूतों को, खुदमें मुझमें देखेगा।।३५।।
*
अगर पाप करता भी है तू, ज्यादा शेष पापियों से।
दिव्य ज्ञान नौका के द्वारा, पाप समुद को पार करे।।३६।।
*
जिस प्रकार ईंधन को पावक, पार्थ! राख कर देता है।
ज्ञान अग्नि सारे कर्मों को,  उसी प्रकार भस्म करती।।३७।।
*
ज्ञान सदृश्य नहीं है कोई, अन्य पवित्र-शुद्ध मानो।
उसे आप ही योग सिद्ध जो, यथासमय पाता जानो।।३८।।
*
श्रद्धावान ज्ञान पाता है, इंद्रिय संयम में रत हो।
ज्ञान प्राप्त कर शांति प्राप्त हो, बिना विलंब शीघ्र उसको।।३९।।
*
अविवेकी बिन श्रद्धा है जो, कर संदेह नष्ट होता।
न इस लोक में; न परलोक में, सुख संदेही को मिलता।।४०।।
*
तजे भक्ति से कर्मफलों को, काट ज्ञान से संशय को।
आत्मवंत कर्मों में किंचित्, बँधता नहीं धनंजय है।।४१।।
*
अज्ञानजनित संशय उर में, जो अपने ज्ञानायुध से।
उनको काट योग में स्थिर हो, समर हेतु भारत उठ जा।।४२।।
***
सत्रान्तर्गत दोहे 
किरण ज्ञान की पथ दिखा, करे तिमिर का अंत।
शंभु नाथ आशीष दें, जीवन बने बसंत।।

तन्मय होकर वर्तिका, जला ज्ञान का दीप।
रख मन में संतोष ले, ज्यों मोती ले सीप

बुद्धि रहे सरला सदा, जीवन रहे अशोक। 
साथ रहें छाया-विभा,  स्वर्गोपम हो लोक।।  

अंजु अंजुरी में लिए, अयति भावना पुंज। 
विनय भारती से करें, दो जमुना तट कुञ्ज।।  

श्रीनिवास मन में करें, बने सुदर्शन आत्म। 
सोनू इंद्रा मनाते, सदय रहें परमात्म।।  

नीति पंथ नीतेश चल, तेज प्रताप न छोड़। 
पवन कर्म संदेश दे, संकट सके न तोड़।।  

जीव देखता दोष ही, ईश देख गुण मग्न। 
कंस वृत्ति पहली हुई, मैया अन्य निमग्न।। 

जिज्ञासा ही धर्म है, समाधान है कर्म। 
धर्म कर्म का मेल ही है जीवन का मर्म।। 

सांख्य ज्ञान सन्यास का, मेल जीव का साध्य। 
सतत प्रयास करें सभी, कुछ भी नहीं असाध्य।। 

सत्य ब्रह्म है एक ही, समय बोध भी सत्य। 
धर्म-कर्म के मर्म को, जाने सदा अनित्य।। 

बिन आसक्ति करें सदा, जीवन में सब काम। 
प्रभु अर्पित यदि कर्म है, फल हो कभी न वाम।। 

छंद माध्यम यज्ञ का, दें ईश्वर को भोग। 
ईश सतत रक्षा करें, मणि-कांचन संयोग।। 

कर्म करें मन में नहीं, हो कर्ता का भाव। 
जीव और परमात्म का, पूरम रहे स्वभाव।। 

राम अंश अवतार हैं, कृष्ण पूर्ण अवतार। 
भू पर आकर जीव को, देते गुरु भी तार।। 

गंध न कस्तूरी बिना, कर्म बिना नहिं धर्म। 
शक्ति नहीं तो शिव नहीं, ऐक्य ईश का मर्म।।  

कर्म विकर्म अकर्म का, समझ सकें हम भेद। 
काम करें निष्काम हम, कभी न होगा खेद।। 

कर्म करें तो साथ ही, करें यज्ञ जप नित्य। 
जीव ब्रह्म से जुड़ सके, तभी पा सके सत्य।।  

पथ बनने तक पथिक को, लेना नहीं विराम। 
पथिक बन सके पथ स्वयं, तभी मिलेंगे श्याम।। 

रूचि-प्रवृत्ति तत्वज्ञ प्रति, हो जीवन का साध्य। 
उठ जग पाओ फल सदा, कुछ भी नहीं असाध्य।। 
  
ममता के आलोक में, पा गरिमा आशीष। 
नर नरेश दोनों पढ़ें, गीता बनें मनीष।।  

गीता दीपस्तंभ है, हर लेती अँधियार। 
कर्म धर्म की सीख दे, कर देती उद्धार।। 

काम करे निष्काम जो, उसे कहें धीरेंद्र। 
धर्म हेतु जो जूझता, वह न वीर वीरेंद्र।। 

हुआ योग विस्मृत तभी, हुआ सघन अँधियार। 
कृष्ण तत्व ने प्रगट हो, दिया लोक उजियार।। 

वेद उपनिषद का मिला, गीता में सारांश। 
कृष्णार्जुन संवाद का, शब्द शब्द दिव्यांश।। 

आधारित गुण-कर्म पर, चार वर्ण सच जान। 
नहीं जन्म से वर्ण है, खुद को अब पहचान।। 

ज्ञान कर्म सन्यास का, सम्मिश्रण अनिवार्य। 
गीता जग गुरु ने कही, करें सभी स्वीकार्य।। 

दीपा ज्योति रहे सदा, दस दिश हो आलोक।
प्रभु का जब आशीष हो, रहे न किंचित शोक।।  

इच्छा तज मानव बने, ब्रह्म न जिसे विकार। 
वश में जिसके इन्द्रियाँ, जो गुण का आगार।। 

भ्रान्ति न टिकती ज्ञान के, सम्मुख जाती भाग। 
निर्विकार रवि कर्म कर, तनिक न पाले राग।। 


गीत सत्येन्द्र तिवारी

 **मुस्काती बरखा**

.........................
*
बरखा कर पायल की रुनझुन,
मुस्काती सारी रात रही।
*
टप टप टप छप्पर के नीचे,
नयनों में युग डूबे भीगे
चाहे चुनरी पैबंद कई,
सुधि - तकली धागा कात रही
बरखा कर पायल की रुनझुन,
मुस्काती सारी रात रही।
*
बिजुरी चमकी,घन भी गरजे,
लगता बनियां मांगे कर्जे
इस पर भी बैरन पुरवाई,
तन -मन को देती मात रही
बरखा कर पायल की रुनझुन,
मुस्काती सारी रात रही।
*
भीगी - सिहरन के प्यारे दिन,
चंदनी गांव वाले पल -छिन
महके वासंति खुशबू के,
बिखरे बटोरती पात रही
बरखा कर पायल की रुनझुन,
मुस्काती सारी रात रही।
*
जीवन - नौका बिन पालों की,
नद - सांसे लहर सवालों की
हिचकोले खाती दिशा हीन,
अंधियारों से कर बात रही
बरखा कर पायल की रुनझुन,
मुस्काती सारी रात रही।
................................................
सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ/29*05*2021

नवगीत, बेला, मोगरा, बांस

 नवगीत

संजीव
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*