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रविवार, 7 जुलाई 2019

शोध लेख कृषि डॉ अनामिका राॅय

शोध लेख कृषि - रसायन अभियांत्रिकी
माइक्रोइनकेपसुलेशन: कृषि एवं कीटनाकों पर प्रभावी तकनीक

डॉ अनामिका राॅय
परिचयः

​डॉ अनामिका राॅय प्राध्यापक, रसायन एवं पर्यावरण विभाग, ओरिंयटल 
​इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर। पसंदीदा  क्षेत्र कृषि रसायन एवं पर्यावरण विज्ञान एवं पाॅलीमर कैमिस्ट्री । कई विख्यात 
​अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोधलेध प्रकाशित।  इन्होने कुछ पुस्तकें भी  लिखी हैं। फरवरी 2010 में म. प्र. काउंसिल आॅफ साइंस  एंड  टेक्न¨लाॅजी द्वारा कृषि विज्ञान क्षेत्र केे यंग साइंटिस्ट अवार्ड से पुरस्कृत।
वर्तमान में कृषि की सेहत, पोषण एवं अर्थषास्त्र की दृष्टि से पृथ्वी में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिये, उर्वरक, कीटनाषक, उन्नत मषीनें एवं उच्च तकनीकें उपयोग में लाई जाती है, पर यह सभी वातावरण प्रदूषण भूजल ,प्रदूषण मृदा क्षरण एवं वनों के विनाश को बढ़ावा देती हैं। जिसमें कीटनाकों के विषैले अणु वातावरण में मिल जाते हैं और मानव ​शरीर तथा पादप वर्ग के लिये हानिकारक सिध्द होते हैं। कीटनाक आज हमारे भोजन तक अपनी पहुँचबना चुके हैं क्योंकि कृषि एवं उच्च तकनीकें कीटनाषकों के उपयोग पर निर्भर हो चुकी है।
             कृषक वर्ग मानव निर्मित कीटनाषकों, जैसे साइपरमैथिरान, क्लोरपायरिफॅास ए इंडोसल्फान, डाइक्लोरोवॅास, एल्डिकार्ब का बहुत इस्तेमाल करता है। इस कारण कैंसर, किडनी, वमन, अवसाद एवं एलर्जी जैसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। कीटनाक केवल कीटों को ही नहीं वरन जलीय जीव, तितलियों ,पक्षियों को भी हानि पहुँचाते हैं। कीटनाकों की सांद्रता खाद्य श्रंखला का संतुलन भी बिगाड़ती है। कीटनाशक को सीधे छिड़काव द्वारा फसल में डाले जाने पर उसका कुछ भाग भूजल तकएवं जलीय जीवों द्वारा खाद्य श्रृंखला के हर चरण तक पहुँचता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर हर जीव तक कीटनाक का प्रभाव हो रहा है। जैवविविधता में भी कीटनाकों का असर दिखायी दे रहा है। संश्लेषित कीटनाषकों के अणु काफी लंबे समय तक विघटित नहीं होते हैं एवं उपयोग के बाद मृदा और वातावरण में उपस्थित रहते हैं, डीडीटी पाॅंच वर्ष तक, लिण्डेन सात वर्ष तक एवं आर्सेनिक तथा फ्लोरीन अनिश्चित समय तक वातावरण में उपस्थित रहते हैं। यूरोपियन यूनियन (ई.यू.) के अनुसार एकल कीटनाक की पर्यावरण जल में साॅंद्रता 0.1 प्रतिशत अधिकतम हो सकती है।कीटनाक एवं उनसे प्रभावित अंग:
क्र       खाद्यान्न        कीटनाक                                    प्रभावित अंग
1.       सेब ​                 क्लोरडेन               लीवर, फेफड़े, किडनी, आॅंख, तंत्रिका तंत्र
2.       दूध ​          क्लोरपायरिफास                   कैंसर, तंत्रिका तंत्र

​3.      अंडे               इंडोसल्फान                         तंत्रिका तंत्र, लीवर 


4.      चाय            फेनप्रोपथ्रिन ​                    तंत्रिका तंत्र, माॅंसपेशियाँ
5.        गेहूँ​                एल्ड्रिन                              कैंसर, अवसाद

​6.       चाँवल        क्लोरफेनविनफास                       कैंसर, एलर्जी ​

​7.       बैगन                हेप्टाक्लोर                      लीवर एवं तंत्रिका तंत्र
​                कीटनाकों की सांद्रता से होनेवाले दुष्परिणामों से बचाव के लिये वैज्ञानिकों द्वारा ‘‘कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी’’ की खोज की गयी। यह वह तकनीक है जिसमें कीटनाक की सांद्रता को हम नियंत्रित रूप में निश्चित समय में निर्धारित लक्ष्य तक पहॅुचा सकते हैं। आज इस तकनीक का उपयोग कृषि, चिकित्सा, पोषण एवं फार्मेसी में हो रहा है।कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी में बहुलक की उपयोगिताजैव बहुलक कृषि के लिये वरदान साबित हुआ है क्योंकि इसकी संरचना, अणुभार, आकार, एवं पार्शववर्तीश्रंखला की लंबाई किसी भी कीटनाशक को जुड़ने के लिये आधार प्रदान करती है।
          ‘‘कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी’’ में मूलतः जैव बहुलक का उपयोग होता है क्योंकि यह अपघटित होने पर कोई भी अप
​शि
ष्ट पदार्थ उत्सर्जित नहीं करते एवं जल में घुलन
​शी
ल होने के कारण मृदा में 
​शेष
 नहीं बचता। बहुलक से कीटना
​श
क कैरियर के रूप में माइ
​क्रो
कैप्सूल, माइक्रो स्फीयर्स, कोटेड ग्रेन्यूल्स एवं ग्रेन्यूलर मेट्रिसेस बनायी जाती है। इन सभी कैरियर्स में कीटना
​श
क को बहुलक द्वारा निर्मित झिल्ली में डाल दिया जाता है और यह बहुलक झिल्ली, द्रव, गैस या ठोस रूप में हो सकता है, इस तरह से कीटनाषक को वातावरण के सीधे संपर्क में आने से रोका जा सकता है।
कीटना
​श
क युक्त बहुलक का निर्माण
कीटना
​श
क युक्त बहुलक कई विधियों द्वारा बनाया जा सकता है।
1
​. 
 रासायनिक आबंधन द्वारा:- इस विधि को दो भागों में बाॅंटा जा सकता है।
- किसी एकलक को बहुलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बहुलक में परिर्विर्तत करके उसमें कीटना
​श
क को जोड़कर।
- इस विधि में कीटना
​श
क को सीधे बहुलक में मिला दिया जाता है।
2
​. 
 मैट्रिक्स इनकैपसुले
​श
न द्वारा
यह सबसे ज्यादा प्रचलित सरल विधि हैं। इसमें कीटनाषक किसी आवरण से घिरा नहीं होता है, अपितु कीटना
​श
क का मैट्रिक्स में छिड़काव या अव
​शो
षण कराया जाता है।
3
​.
 माइक्रो इनकैप्सुले
​श
इस तकनीक में कीटनाषक को ठोस कण, द्रव या गैस के बुलबुलों के रूप मे उपयोग में लिया जाता हैं इस विधि में सामान्यतः कार्बनिक बहुलक, वसा एवं मोम का उपयोग किया जाता है। माइक्रोकैप्सूल का व्यास सामान्यतः 3 से 800 मिली माइक्रोन के बीच होता है। इस तकनीक के द्वारा किसी भी द्रव को आसानी से उपयोग हेतु बनाया जा सकता है। माइक्रो इनकैप्सुले
​श
न की तकनीक फार्मास्यूटिकल्स, डाई, इत्र निर्माण, कृषि, प्रिंट्रिग, सौंदर्य प्रसाधन एवं चिकित्सा में उपयोग में लायी जाती है।
कृषि में जैव बहुलक
                   कृषि में फसल की गुणवत्ता एवं मात्रा को बढ़ाने के लिये जैव बहुलक सबसे अच्छे विकल्प साबित हुए हैं, क्योंकि यह जैव अपघटनीय होते हैं इस कारण वातावरण में कोई हानिकारक प्रभाव नहीं डालते हैं। सबसे ज्यादा प्रचलित बहुलक एमाईलोज, सैल्यूलोज, काबौक्सी मिथाइल सैल्यूलोज, एलजिनेट, स्टार्च, काइटोसिन, जिलेटिन इत्यादि हैं। जैव बहुलक का मृदा में अपघटन रासायनिक एवं सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है, और इस प्रकार का अपघटन एक या एक से अधिक पदों में होता है। रायायनिक अपघटन, सूक्ष्मजीवी अपघटन की तुलना में तीव्र गति से होता है। वैज्ञानिकों द्वारा पिछले कुछ वर्षों में 
​संश्लेषित
 बहुलकों पर भी कार्य किया जा रहा था, प
​रं
तु 
 
​संश्लेषित
 बहुलक के अपघटनीय उत्पाद विषैले होने की वजह से अब जैव बहुलकों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है क्योंकि जैव बहुलक काई भी ऐसे अपघटनीय उत्पाद 
​नहीं
 देते जिससे कि वातावरण या जीव जंतुओं पर काई दुष्प्रभाव हो। सूक्ष्मजीव जैसे कि फंजाई, बैक्टीरिया, एल्गी, जैव बहुलक के अपघटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सूक्ष्मजीव जैव बहुलक का अपघटन एंजायमैटिक श्रॅंखला को तोड़कर करते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण जैव बहुलक इस प्रकार हैं।
गवारपाठा:यह एक जैव बहुलक है जो मरूत्भिद पौधा होने के कारण जल संचयन की क्षमता रखता है। इसकी मांसल पत्ती का आॅंतरिक भाग साफ, मुलायम, नम एवं 
​श्लेष्मी
 ऊतकों से मिलकर बना होता है।
एल्जिनेटः यह भी एक जैव बहुलक है जो कि सोडियम, पौटे
​शि
यम एवं अमोनियम एल्जिनेट के रूप में पाया जाता है एवं गर्म एवं ठंडे दोनों प्रकार के जल घुलनषील होता है यह गंधहीन इमल्सिफायर के रूप में खाद्य पदार्थों की ष्यानता बढ़ाने में उपयोग में आता है।
काइटोसिन: यह एक जैव अपघटनीय बहुलक है। यह पौधों के प्रतिरक्षीतंत्र को नियॅंत्रित करता है एवं पौधों की रोगों तथा कीटों से रक्षा करता है। यह बिना किसी रासायनिक उर्वरक के सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृध्दि कर सकता है।
सैल्यूलोज: यह पौ
​धों​
 के 50 प्रति
​श 
त 
​शुष्क
 भार एवं 50 प्रतिषत 
​कृषि 
 के अप
​शि
ष्ट पदार्थों से मिलाकर बनाया जाता है। सॅल्यूलोज का संपूर्ण अपघटन तीन कोएन्जाईम एक्सो β-1-4 ग्लूकेनेज, इंडो  β -1-4 ग्लूकेनेज एवं β.ग्लकोसाइडेज द्वारा होता हैं।
पैक्टिन: इस जैव बहुलक की संरचना बहुत जटिल होती है, इसकी निर्माण विधि इस बात पर निर्भर करती है कि यह किस विधि से उत्पादित है।
चित्रण् जैव बहुलक के प्रकार
माइ
​क्रो
इनकेप्सुले
​श
न द्वारा कीटना
​श
क युक्त माइक्रो स्फीयर्स का निर्माण
सर्वप्रथम जैव बहुलक को जल में घोलकर उसमें कीटना
​श
क मिलाकर एक विलयन बना लेते हैं, तैयार विलयन को सिरिन्ज की सहायता से क्र्रॅासलिंकर में डालकर इसके छोटे छाटे दानेनुमा आकृति के माइक्रोस्फीयर्स बना लेते हैं, इन माइक्रोस्फीयर्स को 24 घंटों के लिये 
​क्रो
सलिंकर में ही रहने देते हैं, बाद में इन्हें फिल्टर पेपर की सहायता से छानकर 48 घंटों के लिए 40ं
​से.
 पर ओवन में रख देते हैं, 
​शुष्क
 अवस्था में प्राप्त माइक्रोस्फीयर्स को पैक करके रख लेते हैं
​ . 
चित्रण् कीटना
​श
क युक्त माइक्रो स्फीयर्स का निर्माण
कंट्रोल रिलीज टेक्नालाॅजी से लाभ:
1
​.
​ ​
​की​
टना
​श
क का प्रभाव फसल पर 45 दिन तक रहता है अर्थात 45 दिन तक कीटना
​श
क के छिड़काव की जरूरत नहीं होती।

2. की
टना
​श
क सूर्य के प्रका
​श 
 में 
​ऊर्ध्व
पातित नहीं होता
3
​. भू
जल प्रदूषण नहीं होता।

4. जै
व बहुलक मृदा में अपने आप घुल जाता है, अर्थात कोई भी प्रदूषक 
​शे
ष नहीं बचता।
5
​. त
कनीक सस्ती एवं सुलभ है।
        कीटना
​श
क का हर अणु प्रकृति को बिगाड़ने के लिये क्रिया
​शी
ल रहता है। कृषक वर्ग की अज्ञानता एवं कीटना
​श
कों के विषैले प्रभाव का समुचित ज्ञान न हो पाने के कारण कई कृषकों की मृत्यु भी हो जाती है। सरकार द्वारा प्रतिबंधित कुछ कीटना
​श
क आज भी खुले आम बेचे जा रहै हैं। इन प्रतिबंधित कीटना
​श
कों के बारे में न ही कीटना
​श
क विक्रेता को कोई जानकारी है और न ही कृषकों को। आज के 
​शि
क्षित युवा वर्ग की यह जवाबदारी होना चाहिये कि हम किसानों को कीटना
​श
कों के प्रयोग  
​से ​
होनेवाले विषैले प्रभावों से हम उन्हें अवगत करायें एवं कंट्रोल रिलीज टैकनोलाजी से होने वाले लाभ को समझायें। इस तकनीक को व्यापारिक तौर पर अपनाने के पहले कुछ तथ्यों को जरूर ध्यान में रखना चाहिये।
1
​, मृ
दा उर्वरकता, भूजल एवं फसल की गुणवत्ता को नजरअंदाज न करते हुए केवल जैव बहुलक ही उपयोग करना चाहिये।
2
​. 
उत्पाद सस्ता होना चाहिये अगर उत्पाद सस्ता होगा तभी कृषक वर्ग इसे उपयोग कर सकेगा।

​३. य
दि प्रकृति में उपलब्ध कीटना
​श
क का उपयोग किया जावे तो उचित होगा, एवं इनकेप्सुले
​श
न के जरिए कीटना
​श
क लंबे समय तक प्रभावी रहेगा।
4
​.
 स्थानीय मृदा, पर्यावरण एवं मौसम को देखकर उत्पाद बनाया जावे तो अच्छे परिणाम मिलेंगे।
5
​अ. 
गर उत्पाद में कीटनाशक, उर्वरक, पोषक तत्व एवं जल मिला जावे तो यह ज्यादा प्रभाव
​शा
ली एवं सस्ती तकनीक साबित होगी।
              कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी, कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली तकनीक है, जिसमें कीटनाशक एवं अन्य पदार्थों का माइ
​क्रो
इनकेपसुले
​श
न कराकर उस सक्रिय पदार्थ की धीमी एवं वि
​शि
ष्ट साॅंद्रता प्राप्त की जाती है। इस तकनीक के द्वारा किसी भी कीटना
​श
क से होने वाले विषैले प्रभाव से बचा जा सकता है।

​सं
दर्भ:-
ए. राॅय, ए,के. बाजपेयी, जे बाजपेयी - कार्बोहाइड्रेट पाॅलीमर 2009, 76,221-231ण्
ए. राय, एस. के ंिसग, जे बाजपेयी, ए.के. बाजपेयी - सेन्ट्रल यूरोपियन जर्नल आफ कैमिस्ट्री- 2014  12ए453.469
आर. नायर, एस. एच. वर्गीस, बी. जी. नायर, टी. मेकावा, वाय. यौशिदा, डी. एम. कुमार -प्लांट साइंस 2010, 179, 154-163
पी.जे. फलोरी 1953, प्रिंसिपल आॅफ पाॅलीमर कैमिस्ट्री, इथाका, एन.वाय.कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रे
​स ​
वाय. एच. ली, जे. सूकिम, एच. डोकिम की इंजी. मटेरियलस 2005, 217, 450- 454
​. ​

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परिचय: प्राध्यापक, रसायन शास्त्र, ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलोजी, जबलपुर। अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध-लेख प्रकाशित। 
​संपर्क: DR.ANAMIKA ROY, L.T.S.R.T.-391, A.C.C.COLONY,NEAR BUS STAND
POST-KYMORE,DISTT-KATNI PIN-483880 M.P.  CONT.No.-9425466270, 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

shodhlekh - kalpana ramani

नवगीत परिसंवाद-२०१५ में पढ़ा गया शोध-पत्र
कुमार रवीन्द्र के नवगीत संग्रह 'पंख बिखरे रेत परमें 

धूप की विभिन्न छवियाँ
- कल्पना रामानी


यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति साहित्य के हर काल और हर वाद में हर विधा की कविताओं का विशेष अंग रही है, इसे नवगीत में भी देखा और महसूस किया जा सकता है। आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी के नवगीत-संग्रह 'पंख बिखरे रेत पर' में इस तथ्य को पर्याप्त विस्तार मिला है।

उन्होंने अपने नवगीतों में धूप की विभिन्न छवियों को व्यापक अर्थों में विस्तार से व्यक्त किया है। कहीं धूप उत्साह है, कहीं गति तो कहीं आशा। कहीं वह उजाला है, कहीं प्राण तो कहीं नवता। धूप केवल धूप नहीं, सम्पूर्ण जीवन दर्शन है। अनेकानेक बिम्बों और उपमाओं द्वारा इसे जीवन की अनेक गतिविधियों में पिरोया गया है।

संग्रह के पन्ने खुलते ही हमारे सामने हर पृष्ठ के साथ धूप की विभिन्न छबियों के चित्र खुलते चले जाते हैं।


'धूप की हथेली पर मेहंदी रेखाएँ!
आओ इन्हें सीपी के जल से नहलाएँ' (पृष्ठ १३)

ये पंक्तियाँ अपने बिंब के कारण आकर्षित करती हैं जिनमें धूप का मानवीयकरण हुआ है। लहरों वाली किसी जलराशि के किनारे बैठे हुए धूप के किसी टुकड़े पर, जिस पर वृक्ष आदि की गहरी छाया हो जो मेंहदी की तरह सुंदर दिखाई देती हो... जहाँ सीपियाँ हों और जहाँ सूर्य जल में प्रतिबिंबित हो रहा हो- ऐसे दृश्य की कल्पना सहज ही मन में हो जाती है। लेकिन इसमें एक निहितार्थ भी है। युवावस्था में जब जीवन के रंगमंच का पर्दा धीरे धीरे खुल रहा होता है, जब तेजी से आगे बढ़ने के दिन होते हैं, जब सफलता की ओर कदम रखने का भरपूर समय साहस और उत्साह होता है तब धूप जैसे उजले खुशनुमा सफर में कभी कभी अँधेरे और निराशा के दर्शन भी हो जाते हैं लेकिन हम सहज ही उन कठिनाइयों को सुलझाते हैं जैसे सीप के जल से मेंहदी को नहला रहे हों।
-दिन ‘सोनल हंस की उड़ान’ शीर्षक गीत में दिन सोनल हंस की उड़ान हैं, कहकर वे धूप के सुनहरे रंग की सुंदरता से दिन को भरते हुए कहते हैं-

“दोपहरी अमराई में लेटी हुई छाँव है
भुने हुए होलों की खुशबू के ठाँव हैं” (पृष्ठ १४, १५)

-एक अन्य गीत ‘खूब हँसती हैं शिलाएँ’ में हंस जोड़ों को धूप लेकर अमराइयों में उड़ने की बात कही गई है। इंसान के सुख के दिन इतनी तेज़ी से गुज़र जाते हैं जैसे कोई सोनल-हंस बिना थके उड़ता चला जा रहा हो। उमंगें इतनी होती हैं कि थकान का पता ही नहीं चलता और जब दोपहर भी किसी अमराई की छाँव में भुने हुए होलों की खुशबू के साथ व्यतीत हो तो सुख कई गुना बढ़ जाता है। राह में बहती हुईं बिल्लौरी हवाएँ, खुशबुएँ, साथ चलती नदी, नदी के जल में सूरज और धूप, किरणों की शरारत, गुज़रते हुए हंस जोड़े मिलकर एक उत्सव का वातावरण निर्मित कर देते हैं।

-संग्रह के अगले ही गीत में धूप-नदियों की बात की गई है।

“आँच दिन की बड़ी नाज़ुक
सह रही हैं धूप नदियाँ” (पृष्ठ १६)


यह एक उत्सवी गीत है जिसमें सुबह की अंतर्कथाएँ, नाचती हुईं सोन-परियाँ, मछलियों के जलसे, रोशनी की शरारत और मोती जड़ी घटा के सुंदर बिंब हैं।


-अगले ही गीत -'धूप एक लड़की है' में (पृष्ठ १७)

धूप, पार-जंगल के राजा की लड़की है। एक ऐसी राजकुमारी, जो अपनी इच्छा से दिन भर कहीं भी आ-जा सकती है, उसे अपने राज्य में सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं। भोर में परियों के समान सुगन्धित हवाओं के साथ आकर झील के पानी से खेलती है और नदी तट पर नहाती है खुलकर हँसती है, उसके मन में कोई डर नहीं होता लेकिन रात होते ही अँधेरे से डर कर दुबक जाती है।

-‘खुशबू है जी भर’ शीर्षक गीत में कुमार रवीन्द्र जी कहते हैं-
'नन्हीं सी धूप घुसी चुपके’  (पृष्ठ १८)

गीत की इन पंक्तियों में गौरैया के माध्यम से नए साल के आगमन का सुन्दर बिम्ब दृश्यमान हुआ है। कमरे की खिड़की खुलते ही गौरैया का नज़र आना, नन्हीं यानी प्रातः कालीन शीतल धूप का चुपके से अन्दर प्रवेश करना, कुर्सी पर बैठना, दर्पण को छेड़ना और छाँव का मेज के पीछे छिप जाना, सूरज की छुवन से नए कैलेण्डर का सिहरना, बाहर उजालों की चुप्पी यानी सन्नाटा और आँगन में बेला का खिलना और बच्चों के खेलने की आहट, चौखट पर लिखे हुए सन्देश आदि बिम्ब सर्दी का मौसम शुरू होने का संकेत दे रहे हैं।

इस संग्रह की लगभग हर रचना में धूप की बात है।

-अगली रचना पन्ने पुरानी डायरी के में वे कहते हैं-
“छतों से ऊपर उड़ीं नीली पतंगें
धूप की या खुशबुओं की हैं उमंगें” (पृष्ठ १९)

इस नवगीत में ‘पुरानी डायरी के पन्ने’ खुलना और नेह के रिश्तों का याद आना धूप और उसकी खुशबू के साथ जुड़ा हुआ है। कच्ची गरी का मौसम, छतों से उड़ती हुई पतंगें देखकर मन भूली बिसरी स्मृतियों में डोलने लगता है। यह धूप ही तो जन-मन की आस है, जिसकी कामना में कवि ने पूरी गीतावली रच दी है।

-अगले नवगीत ‘साथ हैं फिर’ में एक पंक्ति है-

“धूप की पग-डंडियाँ
नीलाभ सपनों की ऋचाएँ
साथ हैं फिर” (पृष्ठ २०)

गीत का भाव यही है कि अगर इंसान के साथ असीम पुलक से भरे पल बाँटते हुए सपने साथ हैं तो लक्ष्य प्राप्ति में बाधा क्योंकर आएगी। उजालों से भरपूर पहाड़, जंगल की हवाएँ, जीवन पथ पर नदी, झरने, चट्टानें, ऋषि-तपोवन, अप्सराएँ आदि बिम्ब इसी बात का संकेत कर रहे हैं


-अगली रचना ‘सुनहरा चाँद पिघला’ में दो पंक्तियाँ हैं...
“धूप लौटी देखकर खुश हो रहे जल
पास बैठी हँस रही चट्टान निश्छल” (पृष्ठ २१)

सुबह की आस में नदी, उसके घाट, नावें रात भर जागे हैं और जैसे ही भोर की धूप नई उम्मीद के साथ लौटती है, लगता है जैसे सुनहरा चाँद पिघल रहा है।
गीत में प्रयुक्त दिन को छूने और अँधेरे को उजाले में बदलने का आह्वान करते हुए शब्द, रेत पर पड़ी शंखी, जल पाखियों के नए जोड़े आदि मन में स्फूर्ति भर देते हैं। उजाले देखकर चट्टान जैसे मजबूत चेहरों पर भी मासूम हास्य प्रस्फुटित होने लगता है।


-अगली रचना ‘दिन नदी गीत फिर’ में कवि कहते हैं-
‘आओ धूप नदी में तैरें’।  (पृष्ठ २२-२३)

यह धूप की नदी उमंगों का पर्याय है, उस पार से दिन बुला रहे हैं तो उनके साथ ही नीली हवा भी धूप के सुर में खुशबुएँ यानी उमंगें बाँट रही है, आम और चीड़ के पेड़ों से बाँसुरी की धुन मन मोह रही है। कवि जन-मन को संबोधित करते हुए कहते हैं, टापू तक सूरज की छाँव, चन्दन की घाटी, नीले जलहंस, रूप की कथाएँ सुनाती हुई किरणें, इन सबके रूप में कितना सुख बिखरा हुआ है, फिर क्यों न इन सबका जी भर आनंद उठाएँ।

-‘नदी के जल में उतर कर’ शीर्षक रचना में धूप नदी के जल में उतर कर साँझ से बात करती है तो ‘गर्म आहट खुशबुओं की’ में वह दबे पाँव कमरे में घुसती है। ‘छाँव के सिलसिले हों’ में कवि खुशबुओं के शहर से गुज़रते हुए धूप की घाटियों में उतरते हैं  (पृष्ठ २७

कुल मिलाकर सार यह कि जीवन में अगर सफलता प्राप्त करनी हो तो साधन होते हुए भी पूरे सब्र और लगन के साथ कर्म-पथ पर चलना होगा साथ ही दिनचर्या में मधुरता और मन के विचारों को हरा-भरा यानी परिष्कृत रखना भी आवश्यक है तभी आसानी से जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

धूप के विभिन चित्रों में कहीं धूप की यादें हैं कहीं सूरज के घर हैं और कहीं गीली हवाओं वाली धूप है। कभी रचनाकार सूरज के पंख हिलते हुए देखता है तो कभी स्वयं को हवा के द्वीप पर बैठा हुआ सूरज अनुभव करता है।
     

“मैं हवा के द्वीप पर बैठा हुआ हूँ
कभी सूरज हूँ, कभी कड़वा धुआँ हूँ” (पृष्ठ ३०)

एक और बिंब देखें-

“कमरे में दिन है, धूप है, भोला टापू है
जिस पर हैं यादें और सूरज के घर”  (पृष्ठ ३१)

एक उदासी वाले गीत में वे कहते हैं-
“सिर्फ आधी मोमबत्ती और धूप की यादें!
पंख टूटे सोचते हैं किस जगह सूरज उतारें” (पृष्ठ ३२-३३)

ये पंक्तियाँ आधा जीवन गुज़र जाने का संकेत देती प्रतीत होती हैं, जब थकान भरे क्षणों में उमंगें दम तोड़ने लगती हैं सिर्फ पुरानी यादें ही उजालों के रूप में विद्यमान होती हैं। तब मन सोचता है काश! वे दिन फिर से लौट आएँ लेकिन जीवन रूपी धूप को विदा होना ही है तो इसी क्षीण होते उजाले में ही यादों रूपी ख़त बाँचते हुए दिन गुज़ारने पड़ते हैं।

अम्मा के व्रत उपवास शीर्षक रचना में धूप का एक नया रूपक सामने आता है-
“पीपल के आसपास, धूप की कनातें
पता नहीं कब की हैं बातें” (पृष्ठ-४०)

शहरों की भीड़ में इंसान जब बहुत कुछ खो चुकता है तो उसके मन को गाँव के पुराने दिनों की यादें अक्सर पीड़ा पहुँचाती रहती हैं। त्यौहारों पर पीपल की परिक्रमा करती हुईं महिलाएँ, माँ के व्रत-उपवास, त्यौहारों की सौगातें, तुलसी की दिया-बाती, नेह की मिठास से भरा भोजन आदि यादें एक चलचित्र के समान गुज़रती हैं।

“तचे तट पर धूप नंगे पाँव लौटी
परी घर में प्रेतवन की छाँव लौटी (पृष्ठ ४४)

निराशा को प्रतिबिंबित करती ये पंक्तियाँ गीत को नया अर्थ दे रही हैं। जब सपनों की नदी सूख जाती है, तो मन उदासी की गर्त में उतरता चला जाता है। ज्यों सूखी रेत पर बिखरे हुए शंख-सीपियाँ व्यथा कथा कह रहे हों और उनकी सुनने वाला कोई नहीं।

‘धूप नंगे पाँव लौटी’ में आखिरी धूप का क्षण आशा की अंतिम किरण के रूप में वर्णित हुआ है।
“खुशबुओं का महल काँप कर रह गया
आखिरी धूप क्षण झील में बह गया” (पृष्ठ ४६)

जिस तरह व्यापार के लिए मोतियों की तलाश में निकले हुए सिंदबाद की नावें किनारों से टकरा-टकरा कर खो जाती हैं, उसी तरह इंसान जब उल्लास रूपी धूप के साथ कुछ पाने की चाह में घर से निकलता है और उसे राह में आँख होते हुए अंधे और संकुचित विचारों वाले लोग मिलते हैं और वांछित फल न मिलने की स्थिति में आशाएँ धूमिल हो जाती हैं, तो वह यहाँ वहाँ भटकता हुआ निराश लौट आता है
आगे-
“फूल भोले क्या करें अंधे शहर में
एक काली झील में डूबे रहे दिन
खुशबुओं की बात से ऊबे रहे दिन
आँख मूँदे धूप लौटी दोपहर में”  (पृष्ठ ४९)

जहाँ शासक ही अंधे, यानी जनता पर होने वाले अत्याचार से बेखबर हों वहाँ फूलों जैसे भोले-भाले मन के लोग क्या कर सकते हैं? अच्छे दिनों की सिर्फ बातें सुनकर वे ऊबने लगते हैं और आशा रूपी उजाले, सीढ़ियों की धूप जैसे ठोकर खाए हुए और टूटे हुए चौखट की तरह खंडहर में बदलते नज़र आते हैं ऐसे में निराश मन गीत कैसे गुनगुना सकता है।

“धूप के पुतले, खड़े हैं छाँव ओढ़े
दिन हठीले, अक्स धुँधले, हुए पोढ़े
शहर गूँजों का यहाँ चुपचाप रहिये
इन्हें सहिये”  (पृष्ठ ५१)

यहाँ धूप के पुतले ऐसे शासकों या सरकारों के प्रतीक हैं जो कपड़े तो उजले पहने हैं लेकिन कर कुछ नहीं सकते। इसलिये चुपचाप अंधेर सहन करना ही जनता की नियति है।

“क्या गज़ब है, छाँव ओढ़े
सो रहे हैं घर
धूप सिर पर चढ़ी
बस्तियों में आग के जलसे हुए हैं
नए सूरज पर चढ़े गहरे धुएँ हैं” (पृष्ठ ५२)

जहाँ धूप के सिर पर चढ़ जाने तक जनता छाँव ओढ़कर सो रही हो वहाँ बेहतर भविष्य की कल्पना करना संभव ही नहीं है। बस्तियों में तबाही मची हुई है और नए सूरज रूपी शासक की आँखों पर धुआँ छाया हुआ है। यहाँ धूप सिर पर चढ़ना मुहावरे का प्रयोग किया गया है।

-“मुँह छिपाए धूप लौटी काँच की बारादरी से
हाल सड़कें पूछती हैं भोर की घायल परी से” (पृष्ठ ५८)

धूप का काँच की बारादरी से लौटना एक रोचक प्रयोग है। जनता न्याय की आस में समर्थों के द्वार पर लगातार गुहार लगाती तो है लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती, उनकी आवाजें दीवारों से सिर फोड़कर इस तरह लौट आती हैं जैसे सुबह की सुखद धूप काँच की बारादरी से टकराकर अन्दर जाने का रास्ता न पाकर वापस चली जाती है।

कुछ नवगीतों में धूप परी है, राजकुमारी है, सोने के महल वाली है, कहीं वह लोगों की मुट्ठी में बंद है, कहीं वह हाँफ रही है और कहीं चतुर बाजीगर धूप के सपने बेच रहे हैं।

-“बाहर से चुस्त चतुर बाजीगर आए हैं
धूप के सपने वे लाए हैं
रेती पर नाव के चलाने का खेल है
बड़ा गज़ब सूरज का सपनों से मेल है”(पृष्ठ ६९)

बाहर से आए चतुर बाजीगर धूप से चमकीले उत्पाद विदेशी कंपनियों के वे आकर्षण हैं जिसमें हम सब फंसते जा रहे हैं।
-“ज़हर पिए दिन लेकर लौटे
जादुई सँपेरे हैं
धूप में अँधेरे हैं”

ये पंक्तियाँ एक ऐसे राज्य का हाल बयाँ कर रही हैं जहाँ नाम को तो मीनारें, गुम्बज आदि रूपी सुख सुविधाएँ मौजूद हैं लेकिन शासक स्वयं इनको निगलकर इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी सँपेरे ने उजले दिनों को विष पिलाकर अँधेरे में बदल दिया हो।

-“धूप ऊपर और नीचे छाँव’  (पृष्ठ ७२)
ये पंक्तियाँ सुविधा संपन्न शासकों और असुविधाजनक जीवन जीते जन साधारण की ओर इशारा करती हैं। एक स्थान पर वे पदच्युत राजनयिक के बारे में बात करते हुए कहते हैं –

-“काँच घरों की चौहद्दी में, कैद हुए सूरज
जश्न धूप के ज़िन्दा कैसे, यही बड़ा अचरज” (पृष्ठ ७५)

यहाँ यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि पद पर रहते समय ही कुछ लोग इतना संग्रह कर लेते हैं कि पद छिन जाने के बाद भी उनके ऐशो आराम में कोई कमी नहीं आती।

अगली रचना में धूप एक बच्चा है जो दिन के मसौदे अपने हाथ में पकड़े हुए है। एक नवगीत में धूपघर की छावनी है लेकिन फिर भी गहरा अँधेरा हर ओर बिखरा है। कहीं रचनाकार धूप लेकर ऐसे शहर में आने की बात करता है’ जहां सूरज मुँह ढँक कर सोए हुए हैं, तो कहीं लोग घने सायों से घिरे धूप से ऊबे हुए हैं। एक गीत में धूप एक बूढ़ी किताब है और एक अन्य गीत में धूप की हथेली पर राख के दिठौने लगे हैं।

-“धूप में छाँव में
जल रहीं पत्तियाँ
हर गली-गाँव में”  (पृष्ठ ८७)

जैसे पतझर में पेड़-पौधों की पत्तियों पर धूप या छाँव का कोई असर नहीं होता और वे सूखकर या जलकर गिर जाती हैं, इसी तरह अब लोगों पर अच्छी या बुरी किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।

कुमार रवीन्द्र जी के इस संग्रह में ७५ गीत संकलित हैं। सुगठित शिल्प, सटीक बिम्ब, सुन्दर उपमाओं और सार्थक भावों के साथ धूप की विभिन्न छबियाँ प्रतिबिंबित करते हुए ये गीत-पंख किसी मनोरंजक उपन्यास के अनेक पात्रों की तरह पाठक के मन के साथ चलते हुए जीवन जीने के नए रास्ते तलाश करने की जिज्ञासा पैदा कर, पाठक को जीवन का सार सौंपकर विदा लेते हैं।

ये न केवल कल्पना की आकर्षक छवियाँ बुनते हैं बल्कि समकालीन शासक वर्ग, समाज, संस्कृति, निराशा, उदासी और उत्साह की विभिन्न समस्याओं को भी ईमानदारी से अपने शब्द देते हैं।

यह जीवन प्रकृति का एक अनमोल उपहार है, उजाले हमें विरासत में मिले हैं। इनसे ही जीवन में उर्जा है, संगीत है, पर्व हैं, ओज है, मौज है, जहाँ उजालों की रवानी होगी वहीं ज़िन्दगी में जवानी भी होगी। कुल मिलाकर यह कि इस संग्रह में नवगीतकार कुमार रवीन्द्र द्वारा रचित धूप की अनंत छवियाँ हमें प्रेरित करती है, सचेत करती हैं और आशान्वित भी करती है। हम सब इस उजली धूप के गुणों को, उसकी खुश्बू को पहचानें, अपने जीवन में उतारें और उम्मीदों के नए पंख पहनकर संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ान भरें, इन पंखों को टूटने या बिखरने न दें।


१५ दिसंबर २०१५