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सोमवार, 28 जनवरी 2019

समीक्षा: सड़क पर -अमरेंद्र नारायण


पुस्तक चर्चा-

'सड़क पर'- आशा और कर्मठता का संदेश

अमरेंद्र नारायण
भूतपूर्व महासचिव
एशिया पैसिफिक कम्युनिटी बैंकाक
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[कृति विवरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा सलिल, प्रथम संस्करण २०१८, आकार १३.५ से.मी. x २१.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ ]
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'सड़क पर' अपने परिवेश के प्रति सजग-सतर्क प्रसिद्ध कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी रचित सहज संवेदना की अभिव्यक्ति है। सलिल जी भावुक, संवेदनशील कवि तो हैं हीं, एक अभियंता होने के नाते वे व्यावहारिक दृष्टि भी रखते हैं।
सलिल जी ने पुस्तक के आरंभ में माता-पिता को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए लिखा है:

दीपक-बाती,

श्वास-आस तुम

पैर-कदम सम,

थिर प्रयास तुम

तुमसे हारी सब बाधाएँ

श्रम-सीकर,

मन का हुलास तुम

गयी देह, हैं

यादें प्यारी।

श्रद्धा, कृतज्ञता और कर्मठता की यही भावनाएँ विभिन्न कविताओं में लक्षित होती हैं। साथ-ही-साथ इन रचनाओं में आशावादिता है और कर्मठता का आह्वान भी-

आज नया इतिहास लिखें हम

अब तक जो बीता सो बीता

अब न आस-घट होगा रीता

अब न साध्य हो स्वार्थ-सुभीता

अब न कभी लांछित हो सीता

भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब

हया-लाज-परिहास लिखें हम

आज नया इतिहास लिखें हम।

पुस्तक में सड़क पर शीर्षक से ही ९ कवितायेँ संकलित है जो जीवन के विभिन्न रंगों को चित्रित करती हैं।

सड़क प्रगति और यात्रा का माध्यम तो है, पर सड़क पर तेज गति से चलने वाली गाड़ियाँ, पैदल चलने वालों को किनारे धकेल देती हैं और अपनी सहगामिनी गाड़ियों की प्रतिस्पर्धा में यातायात अवरुद्ध भी कर देती हैं।

प्रगति -वाहिनी सड़क विषमता का पोषण करती रही है। कवि का अंतर्मन इस कुव्यवस्था के विरोध में कह उठता है:

रही सड़क पर

अब तक चुप्पी

पर अब सच कहना ही होगा।

लेकिन कवि के अंतर में आशा का दीपक प्रज्वलित है:

कशिश कोशिशों की

सड़क पर मिलेगी

कली मिह्नतों की

सड़क पर खिलेगी

पर कवि कहता है कि आखिरकार, सड़क तो सबकी है-

सड़क पर शर्म है,

सड़क बेशरम है

सड़क छिप सिसकती

सड़क पर क्षरण है!

इन कविताओं में प्रेरणा का संदेश है और आत्म-परीक्षण का आग्रह भी।

यही आत्म-परीक्षण तो हमें अध्यात्म के आलोक-पथ की ओर ले जाता है-

आँखें रहते सूर हो गए

जब हम खुद से दूर हो गए।

खुद से खुद की भेंट हुई तो

जग-जीवन के नूर हो गए।

'सड़क पर' की कवितायेँ पाठक को आनंद तो देती ही हैं,उसे कुछ सोचने के साथ-साथ कुछ करने की भी प्रेरणा देती हैं। इस संकलन की कविताएँ पाठक की भाव -भूमि पर गहरा प्रभाव डालती हैं!

सलिल जी की इस आशावादिता को नमन।
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समीक्षक संपर्क: १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइंस जबलपुर ४८२००१, अनुडाक: amarnar@gmail.com