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रविवार, 26 जून 2016

samiksha

पुस्तक सलिला-
'दिन बड़े कसाले के' जिजीविषा की जयकार करते नवगीत 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[पुस्तक विवरण- दिन बड़े कसाले के. नवगीत संग्रह, आनंद तिवारी, प्रथम संस्करण अगस्त २०११, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण सजिल्द, बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १२०,  मूल्य १५०/-, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक़्टर २३ राजनगर गाजियाबाद, गीतकार संपर्क समीप साईं मंदिर, छोटी खिरहनी, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९४२५४६४७७९ ] 
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                                      स्वतंत्रता की नवचेतना के साथ करवट बदलता, यथार्थ की नव धरती पर अंकुरित होता हुआ हिंदी गीतिकाव्य साहित्यिक मठाधीशों की खींचतान का माध्यम बनकर तथाकथित प्रगतिशील कविता के व्याल-जाल में दम तोड़ता, इसके पहले ही हिंदी गीत ने नूतन भाव भंगिमा के साथ प्राणवायु देते हुए 'नवगीत' के  नाम से कायाकल्प कर नवजीवन देने में सफलता प्राप्त की। साठ के दशक का नवगीत आरंभिक सीमाओं और मानकों में घुटन अनुभव करते हुए, सीमाओं के पुनर्निर्धारण की चाह करने लगा।  ऐसी स्थिति में जिन नयी कलमों ने नवगीत को नयी जमीन और नया आकाश देने की सम्भावना को मूर्त करने का प्रयास किया उनमें आनंद तिवारी भी हैं।  नर्मदा के अंचल में लीक को तोड़ने और जड़ता को तोड़ने की विरासत नयी नहीं है।  श्री अनूप अशेष के अनुसार- "आनंद तिवारी का नवगीत संग्रह 'दिन बड़े कसाले के' अपने पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़ों की माप दे रहा है। गाँव-गिराँव की दबी, दबाई जीवन नियति की आह है इसमें। सुख-दुःख की यथार्थता और संवेदना परत-दर-परत खुलती गयी है संग्रह की नवगीत कविताओं में।  अदृश्य मुक्ति के आवेग में कहीं-कहीं कवि गीत का लेप भी  लगाता गया है।"

                                      कविता और गीत का सम्मिश्रण यथार्थ और कल्पना के नीर-क्षीर मिलन की तरह होता है जिसमें सत्य और सोच दोनों का समान महत्व होता है। लय सोने में सुगंध की तरह कथ्य को सर्वग्राह्य बनती है।  आनंद जी यह तथ्य भली-भाँति जानते हैं।  इस संग्रह के नवगीत कथ्य, भाषा, शिल्प  की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।  वरिष्ठ नवगीतकार श्री राम सेंगर ने ठीक ही आकलन किया है कि इन "गीतों में शब्द अपने व्यापक अर्थ में भावों को समेटे हुए चलता है।  यह बात अलग है कि कहीं-कहीं यह  उनका यह शब्द-संयोजन कथ्य और भाव से एकात्म होकर, आंतरिकता और एकाग्रता के साथ साधा हुआ प्रतीत नहीं होता, जिससे छन्दानुशासन तो भंग हुआ ही है, साथ ही साथ, लयात्मकता भी प्रभावित हुई है। "

                                      'बुचकी-बुचकी लगे कमरिया' तथा 'दुर्दिन खड़े ओसारे' शीर्षक दो खण्डों में क्रमश: ४५ तथा ३३ नवगीतों का यह गुलदस्ता बुंदेली जन-जीवन की जीवंत झलकियों से समृद्ध है। बुंदेली जन-मन को साहित्यिक फलक पर प्रतिष्ठित होते देखना सुखद है किन्तु बुंदेली भाषा-संस्कृति से अपरिचित पाठक की कठिनाई ठेठ बुंदेली शब्द हिंदी के मानक शब्दकोष में न होने के कारण उनका अर्थ और रस ग्रहण न कर पाना होगा।  इसलिए रचनाओं के साथ पाद टिप्पणी के रूप में देशज शब्दों के अर्थ और पारंपरिक रीतियों के संकेत हों तो इस नवगीतों और गीतकार को व्यापक स्वीकृति मिलेगी। आनंद जी हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र तथा समाज शास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हैं। इसलिए  देशज,  नगरीय, संस्कृतनिष्ठ, उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों का विशाल भण्डार उनकी भावाभिव्यक्ति को पैनापन देने में सहायक होता है। वे अद्भुत अभिव्यक्ति सामर्थ्य के धनी हैं।  खेत में लहलहाती फसलों  सौंदर्य देखकर कवि-मन झूम उठता है -
                                      'गेहूँ के सिर / फबती मौरी।
                                      मौसम करता / नाटक नौरी।
                                      अलसी कटी / पड़ी / निगडौरे।
                                      कलसी / डिगलन-डिगलन / दौरे।
                                      खड़ी / फसल को / चरती धौरी।
                                      अरहर,  चना / झाँझ / अस बाजें।
                                      सेमल-टेसू /  धरती साजें।
                                      विहट गई / रतिया की / गौरी।

                                      नवगीत को केवल विसंगति और विडम्बना तक सीमित देखने के पक्षधर भले ही न सराह सकें किंतु जनगण इन पंक्तियों पर झूम जाएगा।  प्राकृतिक विपदा की मार भारतीय किसान हमेशा सहता है। इस नवगीत में त्रासद विपदा की पीड़ा शब्द-शब्द में मुखरित है-
                                      पाला पड़ा / झुरानी अरहर / मौसम मूठ हुआ।
                                      सहते-सहते / मार ठंड की / बरगद ठूँठ हुआ।
                                      ले डूबा / कोहरा फसलों को / चना-मसूर बिलाये।
                                      अलसी को / लग गया पीलिया / गेहूँ आस बँधाये।
                                      पानी, फिर कर / किये-धरे पर / विष का घूँट हुआ।
                                  यहाँ 'पानि फिरना' तथा 'किया-धरा' मुहावरों का मनोरम प्रयोग दृष्टव्य है। बरगद सबसे अधिक मजबूत पेड़ है, वह ठूँठ हो जाए तो पाले के विभीषिका का अनुमान किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में कोमल पौधे समाप्त हो जायेंगे।  यहाँ 'बिलाना' कम लिखे से अधिक समझना की तरह प्रयुक्त है।

                                      समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता समाजशास्त्र के अध्येता आनंद को खलती ही नहीं चुभती भी है -
                                      ठंडी रातें / बर्फ हो रहीं / सिकुड़ा हुआ शहर है।
                                      लौहपूत / रिक्शेवाला वह / फुलगुंटी से ढाँके तन को।
                                      पैर उपनहे / फ़टी बिमाई / बैरागी सा साधे तन को।
                                      सुविधाओं की / गठरी बाँधे / रिक्शे पर अफसर है।
                                      शीत-लहर के कोड़े खाकर, / रिक्शे को साँसों से खींचे।
                                      'तेज चलो, / देरी होती है', / 'जी हाँ' कह, करता सिर नीचे।
                                      यहाँ पंक्तियाँ शब्द चित्र बन जाती हैं।  कवि की सामर्थ्य पूरे दृश्य को शब्दित कर देती है।  पाठक या श्रोता की आँखों में पूरा दृश्य ज़ीवंत हो उठता है।

                                      आनंद तमाम विडंबनाओं के बाद भी जीवन को निरानन्दित नहीं होने देते।  अपने नाम के अनुरूप वे दुःख में भी सुख, निराशा में भी आशा खोज ही लेते हैं-
                                      बीजों को / नवजीवन देने / आये बादल
                                      रस भरने को / मन में जैसे / बजते मादल
                                      कोयल / मूक हुई / धरती लेती अँगड़ाई
                                      नई उमंगें / लेकर / वर्षा रानी आई 
                                      तैर रहीं / खुशियाँ जीवन में
                                      चमका आँखों का काजल
                                      सपनों सा / लघु जीवन लेकर / उड़ें पतंगें 
                                      नहा रही चिड़िया / प्रफुल्ल / कहती हर गंगे
                                      शीतलता / आई घर-बाहर
                                      छूटे हाथों से छागल 

                                      जीवन के दोनों रंग आनंद के नवगीतों में धूप-छाँव के से रंग बिखेरते हैं-
                                      बुचकी-बुचकी लगे कमरिया / तुचके-तुचके गाल 
                                      निहुरी -निहुरी औचक भौचक / रमकी ठुमकी चाल 
                                      कटी उमरिया भाग दौड़ में / मिले न कमीना
                                      संघर्षों के चक्रव्यूह से / दुर्निवार जीवन
                                      क़र्ज़ कसाई नाचे-गाये / छाती चढ़ प्रतिक्षण
                                      बेघर भर धरती ने / जीवन का सब रस छीना

                                      आनंद छन्द की लय पर शब्द की अर्थवत्ता को वरीयता देते हैं। देशज बुंदेली शब्द, हिंदी के तत्सम-तद्भव तथा उर्दू भाइयों के साथ धमा-चौकड़ी मचाते हुए शब्द-चित्र उपस्थित कर देते हैं। ग्रामीण जीवन की गतिमयता में घुला ठहराव, आगे बढ़ने की आकांक्षा के साथ विरासत से जुड़े रहने का मोह आज ही कल को कल से जोड़ने की चाह इन नवगीतों को आम आदमी की रोजमर्रा की ज़िन्दगी की कशमकश की बानगी देकर मन्त्र मुग्ध कर देती है-
                                      इच्छाएँ / सारी अनब्याही
                                      थका - थका लगता है राही
                                      घुप्प अँधेरा फैला / पथरीले पथ में
                                      कील बिना, धुरी लगी / जीवन के रथ में
                                      एक ठौर रोटी है / एक ठौर ममता है
                                      दोनों की मुस्किल है पाही 

                           ग्रामीण जन मानस की जिजीविषा अभावों की घूटी पीकर भी हर्ष-हुलास की पतंग उड़ाना नहीं भूलती। जहाँ महानगरों में सम्पन्नता हो या विपन्नता सगे नेह-नाते भी दम तोड़ते नज़र आते हैं वहीं गाँवों में मुँहबोले रिश्ते भी पूरे अपनत्व के साथ निबाहे जाते हैं।
                                      भाभी की रसभीनी / नेह भरी बातें
                                      महानदी के तट पर / सिहराती रातें
                                      ...
                                      बाबा का शंख और / पूजा का देवासन
                                      बचपन से चाचा का / गाँठ भरा अनुशासन
                                      ...
                                      छोटी बहना का वह / चेहरा सुकुमार

                                      मौसम मूठ हुआ, दिन बड़े कसाले के, धार नदिया की लगे सुतली, वह अनाम सा परस तुम्हारा, सहज हो लें, चुग्गा भूल रही, संग-साथ की जुगत फगुआरे दिन, बाँध डिठौने, मेकल सुता सी, विंध्य पर अठखेलियाँ करते, पुरइन के पात, डोल रही पुरवाई,  भूंजी भाँगग नहीं, दुर्दिन खड़े ओसारे आदि नवगीत पाठक के मन पर छाप छोड़ते हैं। समय का बदलाव 'मोबाइल पीढ़ी' शीर्षक नवगीत में उभरता है-
                                      शिखरों के / सपने हैं / कटी हुई सीढ़ी
                                      कम्प्यूटर की दुनिया / मोबाइल पीढ़ी
                                      घाल-मेल / बनियों का /  पॅकेज हैं बड़े-बड़े
                                      बाहर से / सजे-धजे / भीतर से सड़े-सड़े  
                                      कोलती / युवाओं को / शोषण की कीड़ी

                                      आनंद के इन नवगीतों में माटी की पीड़ा है तो लोक-जीवन का माधुर्य भी है।  छन्दों को साधने का प्रयास कहीं सयास-कहीं अनायास होना स्वाभाविक है।  नए छन्दों की तलाश का संकेत आश्वस्त करता है कि नर्मदांचल का यह युवा कवि इस सत्य से अवगत है कि 'सितारों के आगे जहां और भी है' । आनंद को आगामी संकलनों में आंचलिक नवगीतकार के ठप्पे से बचना होगा।  इन नवगीतों में बुंदेली नवगीत एक भी नहीं है। ये बुंदेली शब्द समेटे हिंदी नवगीत हैं।  नगरीय या हिंदीतर पाठक इन शब्दों को समझने में  कठिनाई अनुभव कर कवि से दूरी बना ले।  कथ्य के स्तर पर यह संकलन संपन्न है।  अधिकांश सामयिक समस्याओं, घटनाओं और बदलावों पर नवगीतकार की दृष्टि गयी है। धार्मिक पाखण्ड, सांप्रदायिक तनाव, निर्धनता, बेरोजगारी, शोषण, धार्मिक आडम्बर, राजनैतिक भ्रष्टाचार के साथ आशावादिता, संघर्ष की ललक, पारस्परिक स्नेह-सद्भाव, श्रृंगार, सद्भाव आदि के सनातन तत्व भी इन नवगीतों में हैं जो इन्हें सामायिक संघर्ष काल में उपयोगी बनाते हैं। आनंद के आगामी संकलन की प्रतीक्षा की जाना स्वाभाविक है।
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-समन्वय, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

बुधवार, 4 नवंबर 2015

samiksha

कृति चर्चा:

'धरती तपती है' तभी गीत नर्मदा बहती है

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: धरती तपती है, नवगीत संग्रह, आनंद तिवारी, वर्ष २००८, पृष्ठ १५२, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन दिल्ली, कृतिकार संपर्क समीप साईं मंदिर, छोटी खिरहनी, कटनी, ४८३५०१, चलभाष ९४२५४ ६४७७९]
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धरती और मनुष्य का नाता अभिन्न और विशिष्ट है। धरती है तो आधार है, आधार है तो ठोकर है, ठोकर है तो दर्द है, दर्द है तो गीत है। धरती तपती-फटती है उसकी पीड़ा धरती पुत्र को विगलित कर, नव सृजन की चुनौती से जूझने का हौसला देती है। पीड़ा और आनंद के परों पर अनुभूति की कोयल कल्पना की उड़ान भरते हुए अभिव्यक्ति के वृक्ष पर बैठकर नवगीत की कुहु-कुहु से अश्रुओं को बीज बनाकर भविष्य के सपनों की फसल आनंददायी बोती है। युवा कवि आनंद तिवारी का प्रथम नवगीत संग्रह 'धरती तपती है' का वचन ऐसी ही उड़ान का साक्षी होना है। निस्संदेह प्रथम पग लक्ष्य को नहीं छूता किन्तु वह लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा और गति का संकेत तो करता ही है। 

एक सौ पाँच गीति रचनाओं की यह मञ्जूषा बाल भास्कर की निखरती-बिखरती किरण-छटा की तरह आनंदित करती है। भोर के भास्कर से दोपहर के सूर्य  की सी प्रखरता या साँझ के अस्ताचलगामी रवि की तरह परिपक्वता की नहीं, ताजगी की अपेक्षा होती है। यह ताजगी आनंद के गीत-नवगीत की पंक्ति-पंक्ति में समाहित है, जिसका पान कर पाठक-मन आनंदित हो उठता है। बुन्देल-बघेलखण्ड की माटी की तरह खाँटी ईमानदारी से आनंद अपनी बात कहते हैं। वे कृत्रिम भाव मुद्राएँ नहीं बनाते, शब्दों को चुनकर नहीं सजाते, लय को अलंकृत नहीं करते। उनके गीतों में अन्तर्निहित सौंदर्य ब्यूटी पार्लर से सज्जित-अलंकृत रूपसी सा नहीं किसी ग्राम्य बाला की अनगढ़-सरल रूप-छटा सा है। इन गीतों में बाह्य उपादानों का आश्रयकम से कम लेकर गीतकार आतंरिक तत्वों को उद्घाटित करने के प्रति सचेष्ट है।

आनंद अपने चतुर्दिक जो पाते हैं (गाँव-घर, गाँव-क़स्बा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, रहन-सहन, खान-पान, प्रेम-पीड़ा, कार्य-व्यापार, सभ्यता-संस्कार, हाट-बाजार, मंडई-मेला आदि) वह सब उनके गीतों में बिम्बित होता है।
संयोगवश उस अंचल में कुछ दिन कार्य करने का सुअवसर मुझे भी मिला है, इसलिए उस माटी की सौंधी महक, ग्राम्य-श्रमिक के अर्थाभाव, निर्मम शोषण, प्राकृतिक सुषमा, ग्राम्य शब्दों के खुरदरेपन में निहित मिठास, अपनत्व और पिछड़कर आगे आने की जिजीविषा का साक्षी हूँ। 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आनंद पारंपरिक परिवेश में नव्यता तलाश  समय कुछ मानकों का अनुसरण करे, कुछ को छोड़े, कुछ को तोड़-झिंझोड़-मरोड़े और कुछ लो गढ़े इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक हैं, न आपत्ति जनक, विशिष्ट यह  सब करते हुए आनंद अनुभूति की अभिव्यक्ति अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ते। वे विधागत बंधनों पर अभिव्यक्तिगत निजता को वरीयता देते हुए परिवर्तन और परंपरा के दो पाटों के बीच पिसते आम जन के सुख-दुःख, हर्ष-पीड़ा, उतार-चढ़ाव, सुन्दर-असुंदर के प्रति प्रतिबद्धता न छोड़ते हुए इन अनुभूतियों को शब्द देते हैं। लोक गीत कहे, नवगीत कहे, कविता कहे या कुछ न कह खुद को उसमें खोजता-पाता रहे, यही उन्हें अभीष्ट है -

समस्याओं अनायास उत्पन्न हों तो उन्हें सुलझाया जा सकता है किन्तु समस्याओं को आमंत्रित किया जाए तो उनका हल कभी नहीं मिलता-
ददुआ का बबुआ बालू पर / कब्जा किये हुए 
बुनियादी अधिकारों पर / अवरोधक लगे हुए  
आयातित की गईं / समस्याएं हैं शीश लदीं 
जिन पर बाग़ की रखवाली का दायित्व है वे ही कलियों को रौंदने लगें तो किस तरह रोक जाए-

मौसम ने अपनी 
मनमानी कर डाली
निकल न पाई आमों में 
अब तक बाली 
.  
आनंद की विशेषता कथ्य के कैनवास पर परिवेश को शब्द-कूची से अंकित सकना है- 

ठंडी रातें / बर्फ हो रहीं 
सिकुड़ा हुआ शहर 
लौह-पूत / रिक्शेवाला वह 
कुलगुंटी से ढाँके तन को  
 पैर उपनहे / फ़टी बिवाई 
बैरागी सा / साधे मन को 
सुविधाओं की / गठरी बाँधे 
रिक्शे पर अफसर है  
बुचकी-बुचकी लगे कमरिया 
तुचके-तुचके गाल 
निहुरे-निहुरे ऐसे चलती 
जैसे चले श्रृगाल 
उम्र बीत गयी भाग-दौड़ में 
मिले न चैन कमीना 
चहकूं-चूँ तेल बिना गाड़ी सी ज़िंदगी 
पहिए की पूही जो टूटी 
बेटों की बजी अलग ढपली 
पूरे घर की किस्मत फूटी 
बरगद की बर्रोंहों जैसे 
लटके हुए अधर में 
खो-खो खेल रहे हैं चूहे 
भूखे-धँसे उदर में 
धरती तपती है की ठेठ देशज शब्दों से युक्त मुहावरेदार भाषा वनजा षोडशी के चिकुर-जाल के तरह मन मोहने के समर्थ है। गैर बुंदेली-बघेली अंचल के पाठकों के सामने एक समस्या अवश्य होगी, ग्राम्यांचली शब्दों के अर्थ खोजने की। हिंदी के शब्दकोशों में तो ये शब्द मिलने से रहे, इसलिए ऐसे शब्दों के अर्ह पद टिप्पणी में देना एक उपाय हो सकता है।

आनंद अपने कथ्य को इस तरह पेश करते हैं की उसे सूक्ति की तरह कहा जा सके- गर्व से गुर्रा रही है / यह निगोड़ी गंदगी, आयतन मजदूर का / सँकरा गया, सबके अंतर्मन संवेदन / को चंदन करिये, अफ्रीका के मानचित्र सी / खटिया पड़ी उतान, बंजर में बो-बोकर बीज चूक गए, कौन मंत्र / फूकूँ फिर / फेंकू मैं राई आदि।

सामान्य और शहरी पाठक के शब्द भण्डार में यह संकलन निश्चय ही वृद्धि करेगा- टिपिर-टिपिर, तितिर-बिटिर, फुलगुंती, उपनहे, टाटी, धनकुट, पैनारी, ललछौंही, फँलांगी, भब्भड़, पसही, बर्रोंहों, फटोही, उतान, चेंक, पगड़ी, सुआ-चरेरू, नोहरी, ऊना, गोरुआ, सँझबाती जैसे शब्द और 'बीछी रखे डंक पर डेरा' जैसी लोकोक्ति हिंदी की रोटी खा रहे और कॉंवेंटों में बच्चे पढ़ा रहे हिंदी प्राध्यापकों ने सुने ही न होंगे।

'कहते हैं कि ग़ालिब का है तर्ज़े बयां और' की तर्ज पर आनंद की कहन अपनी मौलिक है। वे किसी का नुकरण नहीं करते। समय-शकुनि, क्रूर-कँगूरे, दर्द के वितान, कोदों के पैरे, पुआल का बिछौना, पुआल का वितान, कुहरील प्रभात, अगिन चितेरा, मन के भोजपत्र, गली के कोड़े, भूंजी-भांग, बंजारा मन, चिकन-चांदन, आशा का कचनार, बुद्धि का मछेरा, भावों की फसल, संदेह का सँपेरा, सुधियों के मृग-शावक जैसी अभिव्यक्तियाँ कथ्य की कड़वाहट में चाशनी घोल देती हैं।

इस संकलन में घाघ, भड्डरी, दधीचि, कणाद, वात्स्यायन का होना चकित कर गया। प्रकृति और परिवेश से जुड़े आनंद के इस नवगीत-मंच पर नदियाँ (सोनभद्र, महानदी, खैर), पर्वत (विंध्याचल, हिमालय), नृत्य-गान (राई, कजरी, करमा, ढोल, मंजीरे, मादल), वनस्पति (चन्दन, गेंदा, सोनजुही, जासौंन, कांस, टेसू, महुआ, सेमल, आम), पक्षी (पनडुब्बी, कौआ, सोनचिरैया, पपीहा, कोयल, चकवा-चकवी, चकोर, अबाबील, हंस, खंजन, गौरैया, सुग्गा, चटक, चकोरी, कागा, मैन, बाज मुर्गा और तितली) भी अपनी भूमिका निभाते हैं।

बिम्ब, प्रतीकों, रूपकों की मायानगरी रचने के मूल में जो भाव है उसे आनंद यूं बयां करते हैं:

सबके जीवन में / रस घोलें / ऐसा गीत लिखें 
जीवन की / सच्चाई बोले / ऐसा गीत लिखें 

नर्मदांचल का तरुण नवगीतकार ऐसे गीत लिख सका है यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है।
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-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 
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