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गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

अप्रैल १७, रेवा, चामर छंद, नव गीत, सामी, गोपाल प्रसाद व्यास, भजन, सॉनेट

सलिल सृजन अप्रैल १७
पूर्णिका
प्रभु को भज पा परमानंद
गुरु पद रज पा परमानंद
.
पंचतत्व-पंचेंद्रिय देह
पंचामृत पा परमानंद
.
बहा स्वेद, कर श्रम-पूजन
कलरव सुन पा परमानंद
.
नदी जननि रखना निर्मल
पौध लगा पा परमानंद
.
जा दरिद्र नारायण तक
सेवा कर पा परमानंद
.
कविता शारद की बिटिया
चरण-शरण पा परमानंद
.
शब्द ब्रह्म आराधन कर
स्वार्थ त्याग पा परमानंद
०००
मुक्तिका
बेला कहि रह्यौ बेला भई रे जे साजन कें आवन की।
फगुनाई में महक रह्यो मन जैसें ऋतु हो सावन की।।
नैन बोल रए निशा निमंत्रन पाल्यो साँसें धन्न भईं -
मिल आँखन से आँख बसा लईँ मन में छब मनभावन की।।
कई, नें सुनीं कछू काऊ की, मनमानी मन करत रओ 
महाकुंभ श्वासों का न्हा कें, कान्हा  आसें पावन की।।
नेह नरमदा भईं कालिंदी, अमरित जमुना जल लल्ला! 
कालिय नाग मार संका को, बात नें करियों जावन की।।
सौतन बंसी लगी अधर सें, देख जले जी गुइँया री!
बिन बंसी धुन सुने बिकल जी, चहे चाप प्रिय आवन की।।  
प्रात राधिका, दिवस द्रौपदी, साँझ रुक्मनी, कुब्जा रात
खड़ी घड़ा ले घड़ी-घड़ी पथ, हेरत हृदय लुभावन की।।   
१५.४.२०२५
०००    
सॉनेट
कौन?
कौन है तू?, कौन जाने?
किसी ने तुझको न देखा।
कहीं तेरा नहीं लेखा।।
जो सुने जग सत्य माने।।
देह में है कौन रहता?
ज्ञात है क्या कुछ किसी को?
ईश कहते क्या इसी को?
श्वास में क्या वही बहता?
कौन है जो कुछ न बोले
उड़ सके पर बिना खोले
जगद्गुरु है आप भोले।।
कौन जो हर चित्र में है?
गुप्त वह हर मित्र में है।
बन सुरभि हर इत्र में है।।
१७-४-२०२२
•••
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी दया दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
***
नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
***
चलते-फिरते विश्वविद्यालय महादेव प्रसाद 'सामी'
*
प्रोफेसर महादेव प्रसाद 'सामी' एक ऐसी शख्सियत का नाम जो आदमी के चोले में चलता-फिरता विश्वविद्यालय था। बीसवीं सदी के चंद चुनिंदा शायरों की फहरिस्त में सामी जी का नाम अव्वल हो सकता है। सामी साहब का जन्म बाबू देवीप्रसाद (सुपरिन्टेन्डेन्ट कमिश्नर ऑफिस लखनऊ) के घर में २० जुलाई १८९५ को कस्बा जैदपुर, हरदोई उत्तर प्रदेश में तथा निधन २ अक्टूबर १९७१ को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ। वे गोमती और नर्मदा के बीच की ऐसी अदबी कड़ी थे जो शायरी को पूजा की तरह मुकद्द्स मानते थे। उनका एक मात्र दीवान 'कलामे सामी' उनके इंतकाल के २ साल बाद साल १९७३ में अंजुमन तरक्किये उर्दू ने साया किया। इसका संपादन मशहूर शायर, वकील जनाब पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' (मेयर जबलपुर) और भगवान दयाल डग ने किया। दीवान की शुरुआत में 'दो शब्द' लिखते हुए हिंदी-संस्कृत-अंग्रेजी के विद्वान् कृष्णायनकार द्वारका प्रसाद मिश्र (मुख्य मंत्री मध्य प्रदेश, कुलपति सागर विश्वविद्यालय) ने लिखा - 'प्रोफेसर सामी में काव्य प्रतिभा एवं आचार्यत्व का सुंदर समागम था। आजीवन आत्म प्रकाशन से दूर रहकर उनहोंने काव्य रचना की थी..... उनकी रचनाओं में उनके भाषा पर असाधारण अधिकार के साथ ही उनकी मौलिक सूझ-बूझ एवं हृदयानुभूति के भी दर्शन होते हैं। यत्र-तत्र उनके कलाम में दार्शनिकता की भी झलक है जो किसी भी भारतीय कवि के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा का कवि हो सर्वथा स्वाभाविक है। ग़ज़लों के विषय प्राय: परंपरागतबपरंपरागत तो होते ही हैं फिर भी 'सामी' के काव्य में अनेक नवीन उद्भावनाएँ हैं। भाषा में अभिव्यंजन कौशल के साथ प्रवाह है और अर्थ गांभीर्य के साथ सरलता। कल्पना की उड़ान के साथ पार्थिव जीवन की सच्चाई उनके काव्य को उनकी निजी विशेषता प्रदान करती है।'
सामीजी ने शाने अवध कहे जानेवाले शहर लखनऊ में मैट्रिक तक उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया। आपने स्वध्याय से दोनों भाषाओँ का इतना गहन एवं व्यापक ज्ञान अर्जित किया कि आपकी गिनती 'उस्तादों' में होने लगी। विद्यार्थी काल में पढ़ने के साथ साथ अपने ट्यूशन भी लीं। आपके विद्यार्थियों में मशहूर शायर जोश मलीहाबादी भी थे। जोश ने आपने शायरी कफ़न नहीं विज्ञान सीखा। वे ऐसी शख्सियत थे की सिर्फ मैट्रिक होते हुए भी सागर विश्वविद्यालय द्वारा विशेष अनुमति से हितकारिणी सिटी कॉलेज जबलपुर में उर्दू-फ़ारसी' के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनाए गए। उर्दू अदब में 'उस्ताद परंपरा' है मगर सामी जी अपने उस्ताद आप ही थे। रायबरेली उत्तर प्रदेश निवासी मुंशी नर्मदा प्रसाद वर्मा (इंस्पेक्टररजिस्ट्रेशन विभाग जबलपुर) की पुत्री लक्ष्मी देवी के साथ ८ मई १९१८ को आपका विवाह संपन्न हुआ। १९२१ में आप नार्मल स्कूल बिलासपुर में गणित तथा विज्ञान के शिक्षक होकर आए। पहले साल में ही इनकी विद्वता, योगयता और कुशलता की धाक ऐसी जमी की आपको टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज जबलपुर में चुन लिया गया और आप ट्रेनिंग का २ वर्ष का कोर्स एक वर्ष में पूर्ण कर परीक्षा में अव्वल आए। आपको मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में नियुक्त कर दिया गया। आप १९४० तक लगभग २० वर्ष मॉडल हाई स्कूल में ही रहे। विज्ञान और गणित पढ़ाने में आपका सानी नहीं था। आपने शृंगारिक ग़ज़लों के साथ देश हुए समाज की गिरी हुई हालत को सुधारने के नज़रिए से नैतिकता और दार्शनिकता से भरपूर ग़ज़लें लिखकर नाम कमाया। इसके अलावा आपने अरबी-फ़ारसी व संस्कृत सीखकर उसके साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। आप अपनी विद्वता गणित, विज्ञान के अतिरिक्त अरबी-फ़ारसी-उर्दू विषयों के लिए भी बोर्ड तथा विश्वविद्यालय की कमेटियों में परीक्षक बनाए जाते थे। वे अलस्सुबह उठाकर पढ़ना शुरू कर देते हुए देर रात तक पढ़ते-पढ़ाते रहते थे। उनके घर पर दिन भर किसी स्कूल की तरह पढ़नेवाले आते रहते। वे किसी को खाली हाथ लौटाते नहीं थे।
खुद केवल मैट्रिक तक पढ़ाई करने के बाद भी वे बी.ए,. एम. ए. के विद्यार्थियों को गणित, विज्ञान, भौतिकी, उर्दू तथा फारसी आदि पढ़ाते थे। और तो और की बार खुद प्रफेसर आदि भी अपनी मुश्किलात आपसे हल कराते थे। हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्यकारों को भी आपसे लगातार मदद मिलती रहती थी। आपने अपना एक भी दीवान साया नहीं कराया। पूछने पर कहते 'पढ़ने-पढ़ाने-सोचने से ही फुरसत नहीं मिलती'। आपके मार्गदर्शन में केशव प्रसाद पाठक ने उमर खय्याम के साहित्य का हिंदी अनुवाद किया। आपने पत्रिका प्रेमा के संपादक रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' का महाकवि अनीस और महाकवि ग़ालिब की टीका करने में मार्गदर्शन किया। आप हिंदी छंद शास्त्र के विद्वान् थे। सेठ गोविंददास और सुभद्रा कुमारी चौहान आदि आपके प्रशंसक थे।
भारत की लालफीताशाही की ताकत का पार नहीं है। सामी जी भी इसके शिकार हुए। एक तरफ जहाँ आपकी विद्वता की धाक पूरे प्रान्त में थी, दूसरी और १८ साल नौकरी करते हुए अपने पद और वेतन से ऊपर का काम करने पर भी आप को कोई पदोन्नति नहीं गई। गज़ब तो यह की १९४० में जबलपुर में पहला कॉलेज हितकारिणी सिटी कॉलेज स्थापित होने पर विश्वविद्यालय से विशेष अनुमति लेकर आपको उर्दू-फारसी का प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष बनाया गया, दूसरी और समय से पूर्व शालेय शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्ति के कारन आपको पेंशन नहीं दी गई। उन्हें अपने घर का खर्च चलने के लिए ट्यूशन करनी पड़ी। तब बिजली नहीं थी। जमीन पर बैठकर लगातार झुककर पढ़ने के कारण आपकी कमर झुक गई और आप को लकड़ी का सहर लेना पड़ा। कॉलेज से आप १०७० में सेवा मुक्त हुए। अपनी खुद के संतान न होने पर भी आपने दिवंगत बड़े भाई के ३ पुत्रों तथा १ पुत्र की पूरी जिम्मेदारी उठाई। उन्हें पढ़ा-लिखकर, विवाहादि कराए।
निरंतर कमजोर होती विवाह और परिवार संस्थाओं के इस संक्रमण काल में सामी जी का जीवन एक उदाहरण है की किस तरह अपना जीवन खुद की सुख-सुविधा तक सीमित ना रखकर सूर्य की तरह सबको प्रकाशित कार जिया जाता है। वैदुष्य, समर्पण, निष्ठा, मेधा, और वीतरागता के पर्याय महादेव प्रसाद सामी जी दर्शन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, धर्म शास्त्र, तर्क शास्त्र, इतिहास आदि में अपनी विद्वत के लिए सर्वत्र समादृत थे।
***
विरासत :
कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
***
मुक्तिका
*
कबिरा जो देखे कहे
नदी नरमदा सम बहे
जो पाये वह बाँट दे
रमा राम में ही रहे
घरवाली का क्रोध भी
बोल न कुछ हँसकर सहे
देख पराई चूपड़ी
कभी नहीं किंचित् दहे
पल की खबर न है जरा
कल के लिये न कुछ गहे
राम नाम ओढ़े-बिछा
राम नाम चादर तहे
न तो उछलता हर्ष से
और न गम से घिर ढहे
*
मुक्तक
*
है प्राची स्वर्णाभित हे राधेमाधव
दस दिश कलरव गुंजित है राधेमाधव
कोविद का अभिशाप बना वरदान 'सलिल'
देश शांत अनुशासित है राधेमाधव
*
तबलीगी जमात मजलिस को बैन करो
आँखें रहते देखो बंद न नैन करो
जो कानून तोड़ते उनको मरने दो
मत इलाज दो, जीवन काली रैन करो
*
मतभेदों को सब हँसकर स्वीकार करें
मनभेदों की ध्वस्त हरेक दीवार करें
ये जय जय वे हाय हाय अब बंद करें
देश सभी का, सब इसके उद्धार करें
*
जीवन कैसे जिएँ मिला अधिकार हमें
हानि न औरों को हो पथ स्वीकार हमें
जो न चिकित्सा चाहें, वे सब साथ रहें
नहीं शेष से मिलें, न दें दीदार हमें
*
कोरोना कम; ज्यादा घातक मानव बम
सोच प्रदूषित ये सारे हैं दानव बम
बिन इलाज रह, आएँ-जाएँ कहीं नहीं
मर जाएँ तो जला, कहो बम बम बम बम
१७-४-२०२०
***
मुक्तक
चीर तिमिर को प्रकट हुई शुचि काव्य कामिनी।
दिप-दिप दमक रही मेघों में दिव्य दामिनी।
दिखती लुकती चपल चंचला मन भरमाती-
उषा-साँझ सखियों सह शोभित 'सलिल' यामिनी।।
***
नव गीत
आओ भौंकें
*
आओ भौंकें
लोकतंत्र का महापर्व है
हमको खुद पर बहुत गर्व है
चूक न जाए अवसर भौंकें
आओ भौंकें
*
क्यों सोचें क्या कहाँ ठीक है?
गलत बनाई यार लीक है
पान मान का नहीं सुहाता
दुर्वचनों का अधर-पीक है
मतलब तज, बेमतलब टोंकें
आओ भौंकें
*
दो दूनी हम चार न मानें
तीन-पाँच की छेड़ें तानें
गाली सुभाषितों सी भाए
बैर अकल से पल-पल ठानें
देख श्वान भी डरकर चौंकें
आओ भौंकें
*
बिल्ला काट रास्ता जाए
हमको नानी याद कराए
गुंडों के सम्मुख नतमस्तक
हमें न नियम-कायदे भाए
दुश्मन देखें झट से पौंकें
आओ भौंकें
*
हम क्या जानें इज्जत देना
हमें सभ्यता से क्या लेना?
ईश्वर को भी बीच घसीटे-
पालेे हैं चमचों की सेना।
शिष्टाचार भाड़ में झौंकें
आओ भौंकें
१७-४-२०१९
*
छंद बहर का मूल है: ५
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SIS ISI SIS
सूत्र: रजरजर।
पन्द्रह वार्णिक अतिशर्करी जातीय चामर छंद।
तेईस मात्रिक रौद्राक जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
*
देश का सवाल है न राजनीति खेलिए
लोक को रहे न शोक लोकनीति कीजिए
*
भेद-भाव भूल स्नेह-प्रीत खूब बाँटिए
नेह नर्मदा नहा, न रीति-प्रीति भूलिए
*
नीर के बिना न जिंदगी बिता सको कभी
साफ़ हों नदी-कुएँ सभी प्रयास कीजिए
*
घूस का न कायदा, न फायदा उठाइये
काम-काज जो करें, न वक्त आप चूकिए
*
ज्यादती न कीजिए, न ज्यादती सहें कभी
कामयाब हों, प्रयास बार-बार कीजिए
*
पीढ़ियाँ न एक सी रहीं, न हो सकें कभी
हाथ थाम लें गले लगा, न आप जूझिए
*
घालमेल छोड़, ताल-मेल से रहें सुखी
सौख्य पालिए, न राग-द्वेष आप घोलिए
*
१७.४.२०१७
***
***
रेवा मैया
*
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
जग-जीवन की नाव खिवैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
भव सागर से पार लगैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
रोग-शोक भव-बाधा टारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
सब जनगण मिल जय उच्चारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
अमृत जल है जीवनदाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पुण्य अनंत भक्त पा जाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
ब्रम्हा-शिव-हरि तव गुण गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संत असुर सुर नर तर जाएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
विन्ध्य, सतपुड़ा, मेकल हर्षित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
निंगादेव हुए जन पूजित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नरसिंह कनककशिपु संहारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
परशुराम ने क्षत्रिय मारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
राम-सिया तव तीरे आये
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हनुमत-जामवंत मिल पाए
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बाणासुर ने रावण पकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
काराग्रह में जमकर जकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पांडवगण वनवास बिताएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गुप्तेश्वर के यश जन गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी घाट तीर्थ अतिसुन्दर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
घाट लम्हेटा परम मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
तिलवारा बैठे तिल ईश्वर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी-गौरा भेड़े तप कर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
धुआंधार में कूद लगाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
चौंसठ योगिनी नाचें माई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संगमरमरी छटा सुहाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नौकायन सुख-शांति प्रदाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बंदर कूदनी कूदे हनुमत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
महर्षि-ओशो पूजें विद्वत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
कलकल लहर निनाद मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हो संजीव हरो विपदा हर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
१७-४-२०१७
***
कृति परिचय:
आधुनिक अर्थशास्त्र: एक बहुउपयोगी कृति
चर्चाकार- डॉ. साधना वर्मा
सहायक प्रध्यापक अर्थशास्त्र
शासकीय महाकौसल स्वशासी अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर
*
[कृति विवरण: आधुनिक अर्थशास्त्र, डॉ. मोहिनी अग्रवाल, अकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, लेमिनेटेड, जेकेट सहित, पृष्ठ २१५, मूल्य ५५०/-, कृतिकार संपर्क: एसो. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, महिला महाविद्यालय, किदवई नगर कानपुर, रौशनी पब्लिकेशन ११०/१३८ मिश्र पैलेस, जवाहर नगर कानपूर २०८०१२ ISBN ९७८-९३-८३४००-९-६]
अर्थशास्त्र मानव मानव के सामान्य दैनंदिन जीवन के अभिन्न क्रिया-कलापों से जुड़ा विषय है. व्यक्ति, देश, समाज तथा विश्व हर स्तर पर आर्थिक क्रियाओं की निरन्तरता बनी रहती है. यह भी कह सकते हैं कि अर्थशास्त्र जिंदगी का शास्त्र है क्योंकि जन्म से मरण तक हर पल जीव किसी न किसी आर्थिक क्रिया से संलग्न अथवा उसमें निमग्न रहा आता है. संभवतः इसीलिए अर्थशास्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है. कला-वाणिज्य संकायों में अर्थशास्त्र विषय का चयन करनेवाले विद्यार्थी सर्वाधिक तथा अनुत्तीर्ण होनेवाले न्यूनतम होते हैं. कला महाविद्यालयों की कल्पना अर्थशास्त्र विभाग के बिना करना कठिन है. यही नहीं अर्थशास्त्र विषय प्रतियोगिता परीक्षाओं की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. उच्च अंक प्रतिशत के लिये तथा साक्षात्कार में सफलता के लिए इसकी उपादेयता असिंदिग्ध है. देश के प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों में अनेक अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं.
आधुनिक जीवन प्रणाली तथा शिक्षा प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग उत्पादन, श्रम, पूँजी, कौशल, लगत, मूल्य विक्रय, पारिश्रमिक, माँग, पूर्ति, मुद्रा, बैंकिंग, वित्त, विनियोग, नियोजन, खपत आदि अर्थशास्त्र की पाठ्य सामग्री में समाहित होते हैं. इनका समुचित-सम्यक अध्ययन किये बिना परिवार, देश या विश्व की अर्थनीति नहीं बनाई जा सकती.
डॉ. मोहिनी अग्रवाल लिखित विवेच्य कृति 'आधुनिक अर्थशास्त्र' एस विषय के अध्यापकों, विद्यार्थियों तथा जनसामान्य हेतु सामान रूप से उपयोगी है. विषय बोध, सूक्ष्म अर्थशास्त्र, वृहद् अर्थशास्त्र, मूल्य निर्धारण के सिद्धांत, मजदूरी निर्धारण के सिद्धांत, मांग एवं पूर्ति तथा वित्त एवं विनियोग शीर्षक ७ अध्यायों में विभक्त यह करती विषय-वस्ती के साथ पूरी तरह न्याय करती है. लेखिका ने भारतीय तथा पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के मताभिमतों की सरल-सुबोध हिंदी में व्याख्या करते हुए विषय की स्पष्ट विवेचना इस तरह की है कि प्राध्यापकों, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों को विषय-वस्तु समझने में कठिनाई न हो.आमजीवन में प्रचलित सामान्य शब्दावली, छोटे-छोटे वाक्य, यथोचित उदाहरण, यथावश्यक व्याख्याएँ, इस कृति की विशेषता है. विषयानुकूल रेखाचित्र तथा सारणियाँ विषय-वास्तु को ग्रहणीय बनाते हैं.
विषय से संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों, प्रमुख वाद-निर्णयों, दंड के प्रावधानों आदि की उपयोगी जानकारी ने इसे अधिक उपयोगी बनाया है. कृति के अंत में परिशिष्टों में शब्द सूची, सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि तथा प्रमुख वाद प्रकरणों की सूची जोड़ी जा सकती तो पुस्तक को मानल स्वरुप मिल जाता. प्रख्यात अर्थशास्त्रियों के अभिमतों के साथ उनके चित्र तथा जन्म-निधन तिथियाँ देकर विद्यार्थियों की ज्ञानवृद्धि की जा सकती थी. संभवतः पृष्ठ संख्या तथा मूल्य वृद्धि की सम्भावना को देखते हुए यह सामग्री न जोड़ी जा सकी हो. पुस्तक का मूल्य विद्यार्थियों की दृष्टि से अधिक प्रतीत होता है. अत: अल्पमोली पेपरबैक संस्करण उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
सारत: डॉ. मोहिनी अग्रवाल की यह कृति उपयोगी है तथा इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए वे साधुवाद की पात्र हैं.
१७-४-२०१५
***
मुक्तक
सूर्य छेडता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलटा चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
*
वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
*
मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरार-
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
*
श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाये हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*
व्यथा--कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिये व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
१७-४-२०१४
***
विमर्श
भारत में प्रजातंत्र, गणतंत्र और जनतंत्र की अवधारणा और शासन व्यवस्था वैदिक काल में भी थी. पश्चिम में यह बहुत बाद में विकसित हुई, वह भी आधी-अधूरी. पश्चिम की डेमोक्रेसी ग्रीस में 'डेमोस' आधारित शासन व्यवस्था की भौंडी नकल है, जो बिना डेमोस के बिना ही खड़ी की गई है.
१७-४-२०१०

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

फरवरी २५, राम किंकर, शिव, भजन, ममता, फागें, होली, दोहा ग़ज़ल, सुभाषित, सोरठे

सलिल सृजन फरवरी २५
*
सुभाषित 
स हि भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। 
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:।। 
है दरिद्र वह, जिसकी तृष्णा बहुत अधिक है। जिसका मन संतुष्ट, उसे सम धनी-निधन हैं।।
२५.२.२०२५
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स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय
२५.२.२०२४
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार
*
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान
*
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
२५.२.२०२४
***
सोरठे
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा आ।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।
नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।
पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।
मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३
***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुणगान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
***
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
***
रंगों का नव पर्व बसंती
*
गीत
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
***

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

दिसंबर २४, जनक छंद, मुक्तिका, नवगीत, दोहा, भजन, हिंदी, बड़ा दिन, गंगोदक सवैया, सॉनेट

सलिल सृजन दिसंबर २४ 
*
स्मृति गीत
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई।
उद्योगों से नव उन्नति की राह देश को दिखलाई...
*
भू-सुत एम.व्ही. खुद बाढ़ों की विभीषिका से जूझे थे।
जलप्लावन का किया सामना, दृढ़ निर्माण अबूझे थे॥
'बाढ़-द्वार' से बाढ़ नियंत्रण कर जनहित की अगुआई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
जल-प्रदाय का किया प्रबंधन, बाधाओं से टकराए।
आंग्ल यंत्रियों की प्रभुता से कभी न किंचित घबराए।।
जन्म जात प्रतिभा-क्षमता का लोहा जग माना की पहुनाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
कार-वस्त्र-उद्योग-नीतियाँ बना क्रियान्वय करवाया।
पचसाला योजना बनाकर जग में झन फहराया।।
कर्मवीर ने कर्मयोग की विजय दुंदुभि गुंजाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
बापू से आदेश मिल तो कोसी नद की बाढ़ से।
बचने के उपाय बतलाए, देश बच यम-दाढ़ से ।।
अंग्रेजों ने भेजी निधि तो ग्रहण न कार थी लौटाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
सजग रेल यात्राओं में रह टूटी पटरी पहचानी।
सेतु-खंब की तिरछाई भी, दूर कराने की ठानी।।
शासकीय सुविधाएँ न लेकर, नैतिकता थी दर्शाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
सीख एम.व्ही. की भूले हम कच्चे पर्वत खोद दिए।
सेतु-सुरंगें-मार्ग बनाकर संकट अनगिन खड़े किए।।
घिरे श्रमिक जन गण विपदा में हुई देश की रुसवाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
*
अभियंता मिल आज शपथ लें, प्रकृति को माँ समझेंगे।
तदनुसार निर्माण नए कर गुणवत्ता को परखेँगे ।।
'सलिल' एम.व्ही. के पथ पर अब चले देश की तरुणाई
प्रकृति के अनुरूप यांत्रिकी, एम.व्ही. ने थी सिखलाई...
***
सॉनेट
चित्रगुप्त मन में बसें, हों मस्तिष्क महेश।
शारद उमा रमा रहें, आस-श्वास- प्रश्वास।
नेह नर्मदा नयन में, जिह्वा पर विश्वास।।
रासबिहारी अधर पर, रहिए हृदय गणेश।।
पवन देव पग में भरें, शक्ति गगन लें नाप।
अग्नि देव रह उदर में, पचा सकें हर पाक।
वसुधा माँ आधार दे, वसन दिशाएँ पाक।।
हो आचार विमल सलिल, हरे पाप अरु ताप।।
रवि-शशि पक्के मीत हों, सखी चाँदनी-धूप।
ऋतुएँ हों भौजाई सी, नेह लुटाएँ खूब।
करतल हों करताल से, शुभ को सकें सराह।
तारक ग्रह उपग्रह विहँस मार्ग दिखाएँ अनूप।।
बहिना सदा जुड़ी रहे, अलग न हो ज्यों दूब।।
अशुभ दाह दे मनोबल, करे सत्य की वाह।।
२४-१२-२०२१
*
नव प्रयोग
दोहा सॉनेट
*
दल के दलदल में फँसा, बेबस सारा देश।
दाल दल रहा लोक की, छाती पर दे क्लेश।
सत्ता मोह न छूटता, जनसेवा नहिं लेश।।
राजनीति रथ्या मुई, चाह-साध्य धन-एश।।
प्रजा प्रताड़ित तंत्र से, भ्रष्टाचार अशेष।
शुचिता को मिलता नहीं, किंचित् कभी प्रवेश।।
अफसर नेता सेठ मिल, साधें स्वार्थ विशेष।।
जनसेवक खूं चूसते, खुद को मान नरेश।।
प्रजा-लोक-गण पर हुआ, हावी शोषक तंत्र।
नफरत-शंका-स्वार्थ का, बाँट रहा है मंत्र।
मान रहा नागरिक को, यह अपना यंत्र।।
दूषित कर पर्यावरण, बढ़ा रहे संयंत्र।।
लोक करे जनजागरण, प्रजा करे बदलाव।
बनें अंगुलियाँ मुट्ठियाँ, मिटा सकें अलगाव।।
२४-१२-२०२१
***
गंगोदक सवैया (स्त्रग्विणी द्विरावृत्त मराठी)
विधान - ८ रगण।
[मूल स्त्रग्विणी गालगाx4 होती है।]
*
राम हैं श्याम में, श्याम हैं राम में, ध्याइए-पाइए, कीर्ति भी गाइए।
कौन लाया कभी साथ ले जा सका, जोड़ जो जो मरा, सोच ले आइए।।
कल्पना कामना, भावना याचना, वासना हो छले, भूल मुस्काइए।
साधना वंदना प्रार्थना अर्चना नित्य आराधिए, मुक्त हो जाइए।।
स्त्रग्विणी
आइए! आइए! रूठ क्यों जाइए।
बोलिए डोलिए भेंटते जाइए।।
आ गले से मिलें या मिला जाइए।
स्नेह के फूल भी तो खिला जाइए।।
***
२४-१२-२०२०
*
गीत
*
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
तकिया ले तेरी बाँहों का,
सुधियों की नव फसलें बोएँ।
*
अपनेपन की गरम रजाई,
शीत-दूरियाँ दूर भगा दे.
मतभेदों की हर सलवट आ!
एक साथ मिल परे हटा दे।
बहुत बटोरीं खुशियाँ अब तक
आओ! लुटाएँ, खुशियाँ खोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
हँसने और हँसाने का दिन
बीत गया तो करें न शिकवा।
मिलने, ह्रदय मिलाने की
घड़ियों का स्वागत कर ले मितवा!
ख़ुशियों में खिलखिला सके तो
दुःख में मिलकर नयन भिगोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
.*
प्रतिबंधों का मठा बिलोकर
अनुबंधों का माखन पा लें।
संबंधों की मिसरी के सँग
राधा-कान्हा बनकर खा लें।
अधरों-गालों पर चिपका जो
तृप्ति उसी में छिपी, न धो लें।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
२४-१२-२०१७
*
गीत:
'बड़ा दिन'
*
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
कविता
हिंदी भाषी
*
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
*
कविता -
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
दरख्तों से बँध रहें तो हर्ज़ क्या
भटकने का आपको है मर्ज़ मया?
परिंदे बोले न बंधन चाहिए
नशेमन के संग आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न बंदिश हो वहाँ
बिना गलती क्यों गिरें हम डाल से?
करें कोशिश जूझ लें हर हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तौल कर पर नाप लें हम गगन को
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झटपट गगन में उड़ गया
२४-१२-२०१५
*
भजन
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
*
गीत
चलो हम सूरज उगायें
*
चलो! हम सूरज उगायें...
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलायें...
आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूँजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...
*
मुक्तिका
तुम
*
सारी रात जगाते हो तुम
नज़र न फिर भी आते हो तुम.
थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.
पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?
रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम
नित नटवर नटनागर नटखट
नचते नाच नचाते हो तुम
'सलिल' बाँह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.
*
दोहा सलिला:
चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
*
मुक्तक
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया।
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया।
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया।
*
दिल लिया दिल बिन दिए ही, दिल दिया बिन दिल लिए।
देखकर यह खेल रोते दिल बिचारे लब सिए।
फिजा जहरीली कलंकित चाँद पर लानत 'सलिल'-
तुम्हें क्या मालूम तुमने तोड़ कितने दिल दिए।
*
*
नवगीत:
खोल दो खिड़की
हवा ताजा मिलेगी
.
ओम की छवि
व्योम में हैं देखना
आसमां पर
मेघ-लिपि है लेखना
रश्मियाँ रवि की
तनिक दें ऊष्णता
कलरवी चिड़ियाँ
नहीं तुम छेंकना
बंद खिड़की हुई तो
साँसें डँसेंगी
कब तलक अमरस रहित
माज़ा मिलेगी
.
घर नहीं संसद कि
मनमानी करो
अन्नदाता पर
मेहरबानी करो
बनाकर कानून
खुद ही तोड़ दो
आप लांछित फिर
भी निगरानी करो
छंद खिड़की हुई तो
आसें मिलेंगी
क्या कभी जनता
बनी राजा मिलेगी?
.
*
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
२४-१२-२०१४
*
जनक छंदी सलिला :
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
सब मतलब के मीत हैं.
नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
देश बेचकर खा गये.
थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
सभी सदा निर्भय रहें.
हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुन्दर है जगत,
सत-चित -आनंद ईश्वर.
हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
अहित किसी का मत करें.
स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
वह असीम-निस्सीम भी.
वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
जन की चिंता का विषय.
लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
जनमत अनदेखा करे.
कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
क़ैद कैमरे में हुए.
ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
कुर्बानी कहता उसे.
शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
गगन चूमते भाव ने.
काँप रहा है हर जिया..
*
आत्म दीप जलता रहे,
तमस सभी हरता रहे.
स्वप्न मधुर पलता रहे..
*
उगते सूरज को नमन,
चतुर सदा करते रहे.
दुनिया का यह ही चलन..
*
हित-साधन में हैं मगन,
राष्ट्र-हितों को बेचकर.
अद्भुत नेता की लगन..
*
सांसद लेते घूस हैं,
लोकतन्त्र के खेत की.
फसल खा रहे मूस हैं..
*
मतदाता सूची बदल,
अपराधी है कलेक्टर.
छोडो मत दण्डित करो..
*
बाँधी पट्टी आँख में,
न्यायालय अंधा हुआ.
न्याय न कर, ले बद्दुआ..
*
पहने काला कोट जो,
करा रहे अन्याय नित.
बेच-खरीदें न्याय को..
*
हरी घास पर बैठकर,
थकन हो गयी दूर सब.
रूप धूप का देखकर..
*
गाल गुलाबी लाल लख़,
रवि ऊषा को छेड़ता.
भू-माँ-गृह वह जा छिपी..
*
ऊषा-संध्या-निशा को
चन्द्र परेशां कर रहा.
सूर्य न रोके डर रहा..
*
चाँद-चाँदनी की लगन,
देख मुदित हैं माँ धरा.
तारे बाराती बने..
*
वर से वधु रूठी बहुत,
चाँद मुझे क्यों कह दिया?
गाल लाल हैं क्रोध से..
*
लहरा बल खा नाचती,
नागिन सी चोटी तेरी.
सँभल, न डस ले यह तुझे..
*
मन मीरा, तन राधिका,
प्राण स्वयं श्री कृष्ण हैं.
भवसागर है वाटिका..
२४.१२.२०१०
***