कुल पेज दृश्य

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

छठ पूजा

छठ पर्व :

 मुल्तान शहर -  उर्वर पंजाब , मरुभूमि बहावलपुर व सभ्यता के सृजक सिंध की भूमि के बीचो बीच स्तिथ है, इसका सूर्य मन्दिर कभी विश्व का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर था।

इस सूर्य मंदिर के भगत उपासक पख्त राजपुत्रों (पख्तून जिन्हें हम पठान भी कहते है) ने महाभारत युद्ध मे भी भाग लिया था। उनकी भूमि काबुल घाटी व अफगानी नांगरहार प्रान्त में  स्तिथ थी यह जून  (सूर्य का अपभ्रंश) के उपासकों की भूमि थी। जून से ही अंग्रेजी 'सन' शब्द का जन्म हुआ वे सब हिन्दू 'तुर्क शाही' और बाद में काबुल की हिन्दू शाही सल्तनत में फलते फूलते रहे। यह बात उन दिनों की हैं जब भारत मे गुर्जर प्रतिहार राजा थे।

फिर अरब आये अफगानी व मुल्तान के सूर्य मन्दिरों को रौंदा मुल्तान पर अरबों का कब्जा हो गया सूर्य प्रतिमा में जड़े सुर्ख लाल रूबी लूट लिए हए सूर्य उपासक मुल्तान इत्यादि से बेदखल हो हिंदुस्तान में यहां वहां बसने लगे उनमे से कुछ सूर्य की वैद्यकीय (मेडिकल इम्पोर्टेंस) के जानकार थे उन्होंने इस परंपरा को बिहार में नन्हे पौधे की तरह रोप दिया जो आज वट वृक्ष (बरगद) बन गया हैं।

जिन लोगो को गप्प लगे वो पढ़ ले कि क्यों अफगानी पठानों का  सूरी राजवंश 'सूरी' कहलाता था। साथ ही वे विकिपीडिया पर मौजूद यह कमेंट पढ़ ले "According to André Wink the cult of this god was primarily Hindu, though parallels have also been noted with pre-Buddhist religious and monarchy practices in Tibet and had Zoroastrian influence in its ritual."

जिनको इतिहास की कम मालूमात हो वे भी शेर शाह सूरी और  ग्रैंड ट्रंक रोड को जानते होंगे। यह भी दिलचस्प बात है सूर्य उपासकों के परिवार से मुस्लिम बने शेरशाह सूरी भी आज बिहार में दफ़न हैं। आज सूर्य उपासना अरबी वहशत में पंजाब से तय उजड़ गयी पर बिहार में स्थापित हो गयी साथ ही अरबों के साथ बसे कूर्द लोगों में भी कहीं कहीं यह प्रथा विद्यमान हैं। जो इन सूर्य उपासना पर पढ़ना चाहे वे सम्राट जयपाल, सम्राट आनन्दपाल व समेत त्रिलोचनपाल के संघर्ष को भी पढ़े पढ़े के कैसे काबुल गंधार मुल्तान में हमारी समृद्ध परम्पराओं के यह क्षत्रिय वीर वाहक थे।
✍🏻साभार 

पूरे विश्व में सूर्य क्षेत्र हैं, केवल बिहार में छठ क्यों होता है?
भारत में ओड़िशा का कोणार्क, गुजरात का मोढेरा, उत्तर प्रदेश का थानेश्वर (स्थाण्वीश्वर), वर्तमान पाकिस्तान का मुल्तान (मूलस्थान)।
सूर्य पूजा के वैदिक मन्त्र में उनको कश्यप गोत्रीय कलिङ्ग देशोद्भव कहते हैं। पर कलिङ्ग में अभी कोई सूर्य पूजा नहीं हो रही है।
जापान, मिस्र, पेरु के इंका राजा सूर्य वंशी थे। इंका प्रभाव से सूर्य को भारतीय ज्योतिष में इनः कहा गया है। 
सोवियत रूस में अर्काइम प्राचीन सूर्य पीठ है जिसकी खोज १९८७ में हुई (अर्क = सूर्य)। पण्डित मधुसूदन ओझा ने १९३० पें प्रकाशित अपने ग्रन्थ इन्द्रविजय में इसके स्थान की प्रायः सटीक भविष्यवाणी की थी।
लखनऊ की मधुरी पत्रिका के १९३१ में पण्डित चन्द्रशेखर उपाध्याय के लेख ’रूसी भाषा और भारत’ में प्रायः ३००० रूसी शब्दों की सूची थी जिनका अर्थ वहां आज भी वही है, जो वेद में होता था। उसमें एक टिप्पणी थी कि रूस में भी सूर्य पूजा के लिए ठेकुआ बनता था।
एशिया-यूरोप सीमा पर हेलेसपौण्ट भी सूर्य पूजा का केन्द्र था। (ग्रीक में हेलिओस = सूर्य)।
प्राचीन विश्व के समय क्षेत्र उज्जैन से ६-६ अंश अन्तर पर थे, जिनकी सीमाओं पर आज भी प्रायः ३० स्थान वर्तमान हैं, जहां पिरामिड आदि बने हैं।

बिहार में छठ द्वारा सूर्य पूजा के अनुमानित कारण-
भारत और विश्व में सूर्य के कई क्षेत्र हैं, जो आज भी उन नामों से उपलब्ध हैं। पर बिहार में ही छठ पूजा होने के कुछ कारण हैं।
मुंगेर-भागलपुर राजधानी में स्थित कर्ण सूर्य पूजक थे। गया जिले के देव में सूर्य मन्दिर है। महाराष्ट्र के देवगिरि की तरह यहां के देव का नाम भी औरंगाबाद हो गया। मूल नामों से इतिहास समझने में सुविधा होती है। गया का एक और महत्त्व है कि यह प्राचीन काल में कर्क रेखा पर था जो सूर्य गति की उत्तर सीमा है। अतः यहां सौर मण्डल को पार करनेवाले आत्मा अंश के लिए गया श्राद्ध होता है। सौर मण्डल को पार करने वाले प्राण को गय कहते हैं (हिन्दी में कहते हैं चला गया)।
स यत् आह गयः असि-इति सोमं या एतत् आह, एष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वान् लोकान् गच्छति-तस्मात् गयस्य गयत्वम् (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, ५/१४)
प्राणा वै गयः (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१५/७, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१४/४)
अतः गया और देव-दोनों प्रत्यक्ष देव सूर्य के मुख्य स्थान हैं।
बिहार के पटना, मुंगेर तथा भागलपुर के नदी पत्तनों से समुद्री जहाज जाते थे। पटना नाम का मूल पत्तन है, जिसका अर्थ बन्दरगाह है, जैसे गुजरात का प्रभास-पत्तन या पाटण, आन्ध्र प्रदेश का विशाखा-पत्तनम्। उसके पूर्व व्रत उपवास द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है जिससे समुद्री यात्रा में बीमार नहीं हों। 
ओड़िशा में कार्त्तिक-पूर्णिमा को बइत-बन्धान (वहित्र - नाव, जलयान) का उत्सव होता है जिसमें पारादीप पत्तन से अनुष्ठान रूप में जहाज चलते हैं। यहां भी कार्त्तिक मास में सादा भोजन करने की परम्परा है, कई व्यक्ति दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। उसके बाद समुद्र यात्रा के योग्य होते हैं।
समुद्री यात्रा से पहले घाट तक सामान पहुंचाया जाता है। उसे ढोने के लिए बहंगी (वहन का अंग) कहते हैं। ओड़िशा में भी बहंगा बाजार है। बिहार के पत्तन समुद्र से थोड़ा दूर हैं, अतः वहां कार्त्तिक पूर्णिमा से ९ दिन पूर्व छठ होता है।
छठ के बारे में कई प्रश्न हैं। इनके यथा सम्भव समाधान कर रहा हूं-
(१) कार्त्तिक मास में क्यों-२ प्रकार के कृत्तिका नक्षत्र हैं। एक तो आकाश में ६ तारों के समूह के रूप में दीखता है। दूसरा वह है जो अनन्त वृत्त की सतह पर विषुव तथा क्रान्ति वृत्त (पृथ्वी कक्षा) का कटान विन्दु है। जिस विन्दु पर क्रान्तिवृत्त विषुव से ऊपर (उत्तर) की तरफ निकलता है, उसे कृत्तिका (कैंची) कहते हैं। इसकी २ शाखा विपरीत विन्दु पर मिलती हैं, वह विशाखा नक्षत्र हुआ। आंख से या दूरदर्शक से देखने पर आकाश के पिण्डों की स्थिति स्थिर ताराओं की तुलना में दीखती है, इसे वेद में चचरा जैसा कहा है। पतरेव चर्चरा चन्द्र-निर्णिक् (ऋक् १०/१०६/८) = पतरा में तिथि निर्णय चचरा में चन्द्र गति से होता है। नाले पर बांस के लट्ठों का पुल चचरा है, चलने पर वह चड़-चड़ आवाज करता है।  
गणना के लिये विषुव-क्रान्ति वृत्तों के मिलन विन्दु से गोलीय त्रिभुज पूरा होता है, अतः वहीं से गणना करते हैं। दोनों शून्य विन्दुओं में (तारा कृत्तिका-गोल वृत्त कृत्तिका) में जो अन्तर है वह अयन-अंश है। इसी प्रकार वैदिक रास-चक्र कृत्तिका से शुरु होता है। आकाश में पृथ्वी के अक्ष का चक्र २६,००० वर्ष का है। रास वर्ष का आरम्भ भी कार्त्तिक मास से होता है जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र में होता है, इसे रास-पूर्णिमा भी कहते हैं। कार्त्तिक मास में समुद्री तूफान बन्द हो जाते हैं, अतः कार्त्तिक पूर्णिमा से ही समुद्री यात्रा शुरु होती थी जिसे ओड़िशा में बालि-यात्रा कहते हैं। अतः कार्त्तिक मास से आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत् विक्रमादित्य द्वारा गुजरात के समुद्र तट सोमनाथ से शुरु हुआ था। पूर्वी भारत में बनारस तक गंगा नदी में जहाज चलते थे। बनारस से समुद्र तक जाने में ७-८ दिन लग जाते हैं, अतः वहा ९ दिन पूर्व छठ पर्व आरम्भ हो जाता है। यात्रा के पूर्व घाट पर रसद सामग्री ले जाते हैं। सामान ढोने के लिये उसे बांस से लटका कर ले जाते हैं जिसे बहंगी (वहन अंगी) कहते हैं। ओड़िशा में भी एक बहंगा बाजार है (जाजपुर रोड के निकट रेलवे स्टेशन)। 
(२) कठिन उपवास क्यों-ओड़िशा में पूरे कार्त्तिक मास प्रतिदिन १ समय बिना मसाला के सादा भोजन करते हैं, जो समुद्री यात्रा के लिये अभ्यस्त करता है और स्वास्थ्य ठीक करता है। बिहार में ३ दिन का उपवास करते हैं, बिना जल का। 
(३) सूर्य पूजा क्यों-विश्व के कई भागों में सूर्य क्षेत्र हैं। सूर्य की स्थिति से अक्षांश, देशान्तर तथा दिशा ज्ञात की जाती है, जो समुद्री यात्रा में अपनी स्थिति तथा गति दिशा जानने के लिये जरूरी है। इन ३ कामों को गणित ज्योतिष में त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। अतः विश्व में जो समय क्षेत्र थे उनकी सीमा पर स्थित स्थान सूर्य क्षेत्र कहे जाते थे। आज कल लण्डन के ग्रीनविच को शून्य देशान्तर मान कर उससे ३०-३० मिनट के अन्तर पर विश्व में ४८ समय-भाग हैं। प्राचीन विश्व में उज्जैन से ६-६ अंश के अन्तर पर ६० भाग थे। आज भी अधिकांश भाग उपलब्ध हैं। मुख्य क्षेत्रों के राजा अपने को सूर्यवंशी कहते थे, जैसे पेरू, मेक्सिको, मिस्र, इथिओपिया, जापान के राजा। उज्जैन का समय पृथ्वी का समय कहलाता था, अतः यहां के देवता महा-काल हैं। इसी रेखा पर पहले विषुव स्थान पर लंका थी, अतः वहां के राजा को कुबेर (कु = पृथ्वी, बेर = समय कहते थे। भारत में उज्जैन रेखा के निकट स्थाण्वीश्वर (स्थाणु = स्थिर, ठूंठ) या थानेश्वर तथा कालप्रिय (कालपी) था, ६ अंश पूर्व कालहस्ती, १२ अंश पूर्व कोणार्क का सूर्य क्षेत्र (थोड़ा समुद्र के भीतर जहां कार्त्तिकेय द्वारा समुद्र में स्तम्भ बनाया गया था), १८ अंश पूर्व असम में शोणितपुर (भगदत्त की राजधानी), २४ अंश पूर्व मलयेसिया के पश्चिम लंकावी द्वीप, ४२ अंश पूर्व जापान की पुरानी राजधानी क्योटो है। पश्चिम में ६ अंश पर मूलस्थान (मुल्तान), १२ अंश पर ब्रह्मा का पुष्कर (बुखारा-विष्णु पुराण २/८/२६), मिस्र का मुख्य पिरामिड ४५ अंश पर, हेलेसपौण्ट (हेलियोस = सूर्य) या डार्डेनल ४२ अंश पर, रुद्रेश (लौर्डेस-फ्र्ंस-स्विट्जरलैण्ड सीमा) ७२ अंश पर, इंगलैण्ड की प्राचीन वेधशाला लंकाशायर का स्टोनहेञ्ज ७८ अंश पश्चिम, पेरु के इंका (इन = सूर्य) राजाओं की राजधानी १५० अंश पर हैं। इन स्थानों के नाम लंका या मेरु हैं। 
अन्तिम लंका वाराणसी की लंका थी जहां सवाई जयसिंह ने वेधशाला बनाई थी। प्राचीनकाल में भी वेधशाला थी, जिस स्थान को लोलार्क कहते थे। पटना के पूर्व पुण्यार्क (पुनारख) था। उसके थोड़ा दक्षिण कर्क रेखा पर देव था। औरंगाबाद का मूल नाम यही था, जैसे महाराष्ट्र के औरंगाबाद को भी देवगिरि कहते थे। अभी औरंगाबाद के निकट प्राचीन सूर्यमन्दिर स्थान को ही देव कहते थे। 
ज्योतिषीय महत्त्व होने के कारण सूर्य सिद्धान्त में लिखा है कि किसी भी स्थान पर वेध करने के पहले सूर्य पूजा करनी चाहिये (अध्याय १३-सूर्योपनिषद्, , श्लोक १)। वराहमिहिर के पिता का नाम भी आदित्यदास था, जिनके द्वारा सूर्य पूजा द्वारा इनका जन्म हुआ था। इस कारण कुछ लोग इनको मग ब्राह्मण कहते हैं। किन्तु स्वयं गायत्री मन्त्र ही सूर्य की उपासना है-प्रथम पाद उसका स्रष्टा रूप में वर्णन करता है-तत् सवितुः वरेण्यं। सविता = सव या प्रसव (जन्म) करने वाला। यह सविता सूर्य ही है, तत् (वह) सविता सूर्य का जन्मदाता ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) का भी जन्मदाता परब्रह्म है। गायत्री का द्वितीय पाद दृश्य ब्रह्म सूर्य के बारे में है-भर्गो देवस्य धीमहि। वही किरणों के सम्बन्ध द्वारा हमारी बुद्धि को भी नियन्त्रित करता है-धियो यो नः प्रचोदयात्।
 मग ब्राह्मण मुख्यतः बिहार के ही थे, वे शकद्वीपी इसलिये कहे जाते हैं कि गोरखपुर से सिंहभूमि तक शक (सखुआ) वन की शाखा दक्षिन तक चली गयी है, जो अन्य वनों के बीच द्वीप जैसा है। सूर्य द्वारा काल गणना को भी शक कहते हैं। यह सौर वर्ष पर आधारित है, किसी विन्दु से अभी तक दिनों की गणना शक (अहर्गण) है। इससे चान्द्र मास का समन्वय करने पर पर्व का निर्णय होता है। इसके अनुसार समाज चलता है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। अग्नि पूजकों को भी आजकल पारसी कहने का रिवाज बन गया है। पर ऋग्वेद तथा सामवेद के प्रथम मन्त्र ही अग्नि से आरम्भ होते हैं जिसके कई अर्थ हैं-अग्निं ईळे पुरोहितम्, अग्न आयाहि वीतये आदि। यजुर्वेद के आरम्भ में भी ईषे त्वा ऊर्हे त्वा वायवस्थः में अग्नि ऊर्जा की गति की चर्चा है।
पृथु के राजा होने पर सबसे पहले मगध के लोगों ने उनकी स्तुति की थी, अतः खुशामदी लोगों को मागध कहते हैं। मागध (व्यक्ति की जीवनी-नाराशंसी लिखने वाले), बन्दी (राज्य के अनुगत) तथा सूत (इतिहास परम्परा चलाने वाले)-३ प्रकार के इतिहास लेखक हैं। भविष्य पुराण में इनको विपरीत दिशा में चलने के कारण मग कहा है (गमन = चलना का उलटा)। मग (मगध) के २ ज्योतिषी जेरुसलेम गये थे और उनकी भविष्यवाणी के कारण ईसा को महापुरुष माना गया।
सूर्य से हमारी आत्मा का सम्बन्ध किरणों के मध्यम से है जो १ मुहूर्त (४८ मिनट) में ३ बार जा कर लौट आता है (ऋग्वेद ३/५३/८)। १५ करोड़ किलोमीटर की दूरी १ तरफ से, ३ लाख कि.मी. प्रति सेकण्द के हिसाब से ८ मिनट लगेंगे। शरीर के भीतर नाभि का चक्र सूर्य चक्र कहते हैं। यह पाचन को नियन्त्रित करता है। अतः स्वास्थ्य के लिये भी सूर्य पूजा की जाती है। इसका व्यायाम रूप भी सूर्य-नमस्कार कहते हैं।
(४) षष्ठी को क्यों-मनुष्य जन्म के बाद ६ठे या २१ वें (नक्षत्र चक्र के २७ दिनमें उलटे क्रम से) बच्चे को सूतिका गृह से बाहर निकलने लायक मानते हैं। 
मनुष्य भी विश्व में ६ठी कृति मानते हैं। इसके पहले विश्व के ५ पर्व हुये थे-स्वयम्भू (पूर्ण विश्व), परमेष्ठी या ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी), सौर मण्डल, चन्द्रमण्डल, पृथ्वी। 
कण रूप में भी मनुष्य ६ठी रचना है-ऋषि (रस्सी, स्ट्रिंग), मूल कण, कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), परमाणु, कोषिका (कलिल = सेल) के बाद ६ठा मनुष्य है।
✍🏻अरुण उपाध्याय

नवंबर, मुक्तिका, गीत, लघुकथा, दंडक छंद, मुक्तक

 कब ? क्या ? नवंबर २०२१

कार्तिक/अगहन (मार्गशीर्ष)
शंकराचार्य संवत २५२८, विक्रम संवत २०७८, ईस्वी २०२१, शक संवत १९४३, हिजरी १४४३, बांग्ला १४२८
*
०१. १८५८ भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कंपनी से ब्रिटिश सरकार ने लिया, १८८१ कोलकाता ट्राम सेवा आरंभ, १९१३ ग़दर आरंभ क्रांतिकारी तारकनाथ दास सैनफ्रांसिस्को कैलीफ़ोर्निया, १९२४ पद्मभूषण रामकिंकर उपाध्याय जन्म जबलपुर, १९२७ चित्रकार दीनानाथ भार्गव, १९४२ प्रभा खेतान जन्म, १९५० भारत का पहला रेल इंजिन चितरंजन रेल कारखाना, १९५४ फ़्राँस ने पांडिचेरी, करिकल, माहे तथा यानोन भारत को सौंपे, तापसी नागराज जन्म, ११९५५ डेल कारनेगी निधन, ९५६ कर्णाटक-केरल गठन, दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश, १९६६ पंजाब-हरियाणा गठन, १९७३ ऐश्वर्या राय जन्म, २००० छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश गठन।
०२. १५३४ चौथे गुरु रामदास जयंती, १७७४ रॉबर्ट क्लाइव आत्महत्या, १८९७ सोहराब मोदी जन्म, १९३६ बी बी सी दूरदर्शन आरंभ, १९४० ममता कालिया जन्म, १९५० जॉर्ज बर्नाड शॉ निधन, १९६५ शाहरुख़ खान जन्म, धनतेरस।
०३. १४९३ कोलंबस ने डोमोनोका द्वीप खोजा, १६८८ सवाई जयसिंह जन्म, १८३९ ब्रिटेन-चीन अफीम युद्ध आरंभ, १९०३ पनामा आज़ाद, १९०६ पृथ्वीराज कपूर जन्म, १९३७ संगीतकार लक्ष्मीकांत जन्म, १९३८ असम हिंदी प्रचार समिति स्थापित, १९४८ प्रधानमंत्री नेहरू संयुक्त राष्ट्र सभा प्रथम संबोधन, १९६२ स्वर्ण बांड योजना लागू, रूप चतुर्दशी (नरक चौदस)।
०४. १६१८ औरंगजेब जन्म, १८२२ दिल्ली जल आपूर्ति योजन आरंभ, १८८३ स्वामी दयानन्द निर्वाण (जन्म १२-२-१८२४), १९३९ गणितज्ञ शकुंतला देवी जन्म, १९४५ आज़ाद हिंद फौजियों पर लाल किला मुक़दमा, १९५४ हिमालय पर्वतारोहण संस्थान दार्जिलिंग स्थापना, १९८४ ओबी अग्रवाल एमेच्योर स्नूकर विश्व चैम्पियन, १९९७ सियाचीन बेस कैम्प विश्व का सर्वाधिक ऊँचा एस.टी.डी. बूथ स्थापित, २००० दूरदर्शन डायरेक्ट टु होम सेवा, २००८ गंगा राष्ट्रीय नदी घोषित, पहला भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्र कक्षा में, बराक ओबामा अफ़्रीकी मूल के प्रथम अमरीकी राष्ट्रपति, दीपावली।
०५. १५५६ पानीपत द्वितीय युद्ध अकबर ने हेमू को हराया, १६३० स्पेन-इंग्लैंड शांति समझौता, १८७० चितरंजन दास जन्म, १९१७ बनारसी दास गुप्ता जन्म, १९२० इंडियन रेडक्रॉस सोसायटी स्थापित, १९३० अर्जुन सिंह जन्म,१९९९ गेंदबाज मैल्कम मार्शल निधन, २००७ प्रथम चीनी यान चंद्र कक्षा में, २०१३ मंगल परिक्रमा अभियान रॉकेट प्रक्षेपण, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा।
०६. १८६० अब्राहम लिंकन अमरीकी राष्ट्रपति, १९०३ पनामा स्वतंत्र, १९१३ द. अफ्रीका गांधी जी बंदी, १९४३ जापान ने अंदमान-निकोबार नेताजी को सौंपे, १९६२ राष्ट्रीय रक्षा परिषद्, १९८५ अभिनेता संजीव कुमार निधन, यम द्वितीया, चित्रगुप्त पूजा, भाई दूज।
०७. १६२७ बहादुरशाह द्वितीय निधन रंगून, १८५८ बिपिनचंद्र पाल जन्म, १८७६ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय वंदे मातरम लिखा, १८८८ चंद्रशेखर वेंकट रमन जन्म, १९१७ रूस बोल्शेविक क्रांति सफल, १९३६ चंद्रकांत देवताले जन्म, १९५४ कमल हासन जन्म, विश्वामित्र जयंती।
०८. १९४५ हॉन्गकॉन्ग नौका दुर्घटना १५५० मरे, १९८८ चीन भूकंप ९०० मरे, २००८ प्रथम भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रकक्षा में, २०१६ भारत नोट विमुद्रीकरण,
०९. १२७० संत नामदेव जयंती, १८१८ इवान तुर्गेनेव जन्म, १८६२ कलकत्ता उच्च न्यायालय उद्घाटन, १८७७ इक़बाल जन्म, १९०४ वनस्पति विज्ञानी पंचानन माहेश्वरी जन्म, १९३६ सुदामा पाण्डे धूमिल जन्म, १९४८ जूनागढ़ भारत में विलय, १९५३ कंबोडिया स्वतंत्र, १९८९ ब्रिटेन मृत्यु दंड समाप्त, २००० उत्तराखंड दिवस, राष्ट्रीय क़ानूनी सेवा दिवस।
१०. १६५९ शिवजी ने प्रतापगढ़ दुर्ग के निकट अफ़ज़ल खान को मारा, १६९८ ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता ख़रीदा, १८४८ सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी जन्म, १८८५ गोटलिएब डेमलेर पहली मोटर साईकिल, १९२० दत्तोपंत ठेंगड़ी जन्म, सदानंद बकरे शिल्पकार-मूर्तिकार जन्म, १९६३ रोहिणी खाडिलकर प्रथम एशियाई शतरंज चैम्पियनशिप १९८१विजेता, १९७० फ़्रांस राष्ट्रपति डगाल दिवंगत, १९७५ अंकोला स्वतंत्र, १९८२ बिल गेट विंडो १ आरंभ, १९८९ बर्लिन जर्मन दीवार गिराना आरंभ, १९९० चंद्रशेखर भारत के प्रधान मंत्री, २००१ भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित किया, २००२ ऑस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड से पहला ऐशेस मैच जीता, छठ पूजा।
११. १६७५ गोबिंद सिंह सिख गुरु बने, १८८८ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद-जे.बी.कृपलानी जन्म, १९१८ पोलैंड स्वतंत्र, १९३६ माला सिन्हा जन्म, १९४३ परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर जन्म, १९६२ कुवैत संविधान दिवस, १९७३ डाक टिकिट प्रथम अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी दिल्ली, १९७५ अंगोला स्वतंत्र, , राष्ट्रीय शिक्षा दिवस, जलाराम बापा जयंती, सहस्त्रबाहु जयंती।
१२. १८४७ सर जेम्स यंग सिमसन क्लोरोफॉर्म का पहला औषधीय प्रयोग, १८९६ पक्षी विज्ञानी सालिम अली जन्म,१९१८ ऑस्ट्रिया गणतंत्र बना, १९३० प्रथम गोलमेज सम्मेलन लंदन, १९३६ केरल मंदिर सब हिन्दुओं हेतु खुले, १०४० अमजद खान जन्म, १९४६ मदनमोहन मालवीय निधन, २००८ बालासोर परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम के १५ का सफल परीक्षण, प्रथम भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की अंतिम कक्षा में स्थापित, २००९ अतुल्य भारत अभियान वर्ल्ड ट्रेवेल अवार्ड २००८ प्राप्त, गोपाष्टमी।
१३. १७८० रंजीत सिंह पंजाब शासक, १८९२ रायकृष्ण दास जन्म, १८९५ सी के नायडू जन्म, १८९८ सारदा माँ ने भगिनी निवेदिता के विद्यालय का उद्घाटन किया, १९१७ मुक्तिबोध जन्म, १९१८ ऑस्ट्रिया गणराज्य, १९६७ मीनाक्षी शेषाद्रि जन्म, १९६७ जुही चावला जन्म, १९७१ नासा मैरीनर ९ यान मंगल कक्षा में, १९७५ विश्व स्वास्थ्य संगठन एशिया चेचक मुक्त, १९८५ पूर्वी कोलंबिया ज्वालामुखी २३,००० मरे, २०१३ हरिकृष्ण देवसरे निधन, आंवला / अक्षय नवमी।
१४. १८८९ जवाहर लाल नेहरू जन्म, १९२२ बी बी सी रेडियो सेवा, १९२६ पीलू मोदी जन्म, १९५५ कर्मचारी राज्य बीमा निगम उद्घाटित, १९५७ बाल दिवस आरंभ, विश्व मधुमेह दिवस, १९७७ श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद दिवंगत।
१५. १८७५ बिरसा मुंडा जन्म, १९२० लीग ऑफ़ नेशंस प्रथम बैठक जिनेवा, १९३७ जयशंकर प्रसाद निधन, १९३८ महात्मा हंसराज निधन, १९४९ नाथूराम गोडसे-नारायम दत्तात्रेय आप्टे को फाँसी,१९८२ विनोबा भावे निधन पवनार, १९८६ सानिया मिर्ज़ा जन्म, १९८८ फिलिस्तीन स्वतंत्र राष्ट्र घोषित, २००७ चिली भूकंप ७.७ रिक्टर, झारखण्ड दिवस, २०१७ कुंवर नारायण निधन, तुलसी विवाह, कालिदास जयंती।
१६. १९०७ शंभु महाराज जन्म, १९२७ श्रीराम लागु जन्म, १९३० मिहिर सेन जन्म, १९७३ पुलेला गोपीचंद जन्म, २०१३ सचिन तेंडुलकर भारत रत्न, राष्ट्रीय प्रेस दिवस, विश्व सहिष्णुता दिवस।
१७. १५५८ एलिजाबेथ प्रथम सत्तासीन, १९०० पद्मजा नायडू जन्म, १९२८ लाला लाजपत राय शहीद, १९३२ तीसरा गोलमेज सम्मलेन, १९६६ रीता फारिया मिस वर्ल्ड, १९७० रुसी लूनाखोद १ चंद्र तल पर, १९९९ अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस। ।
१८. १७२७ जयपुर दिवस वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती, १७३८ फ़्रांस-ऑस्ट्रिया शांति समझौता, १८३३ हालेंड-बेल्जियम जोनहोवेन संधि, १९०१ वी. शांताराम जन्म, १९१० क्रन्तिकारी बटुकेश्वर दत्त जन्म, १९१८ लातविया स्वतंत्र, १९४६ कमलनाथ जन्म, १९४८ पटना स्टीमर नारायणी जलमग्न ५०० मरे, १९५६ मोरक्को स्वतंत्र, १९७२ बाघ राष्ट्रीय पशु, २०१३ नासा मंगल पर यान भेजा, २०१७ मानसी छिल्लर मिस वर्ल्ड।
१९. १८२४ रूस सेंट पीटरसबर्ग बाढ़ १०,००० मरे, १८२८ रानी लक्ष्मी बाई जन्म, १८९५ फ्रेडरिक ई ब्लेसडेल पेंसिल का पेंटेट, १९२८ दारासिंह जन्म,१९३३ स्पेन महिला मताधिकार, १८३८ केशवचन्द्र सेन, १९१७ इंदिरा गाँधी जन्म, १९८२ नौवाँ एशियाई खेल आरंभ, १९९५ कर्णम मल्लेश्वरी भारोत्तोलन विश्व रिकॉर्ड, १९९४ ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड, १९९७ कल्पना चावला प्रथम भारतीय महिला अंतरिक्ष यात्री, २००८ मून इम्पैक्ट प्रोब चाँद पर उतरा, राष्ट्रीय एकता दिवस, गुरु नानक जयंती।
२०. १७५० टीपू सुल्तान जन्म, १९१७ यूक्रेन गणराज्य, १९२९ मिल्खा सिंह जन्म, १९८१ भास्कर उपग्रह प्रक्षेपित, १९८५ माइक्रोसॉफ्ट विंडोस १ जारी, १९१६ नायक यदुनाथ सिंह परमवीर चक्र, १९८९ बबीता फोगाट जन्म, २०१६ पी. वी, सिंधु चाइना ओपन सुपर सीरीज विजेता।
२१. १८७७ प्रथम फोनोग्राम थॉमस एल्वा एडिसन, १८९९ हरेकृष्ण महताब, १९१४ क्रांतिकारी उज्ज्वला मजूमदार, १९३१ ज्ञानरंजन जन्म, १९४७ प्रथम भारतीय डाक टिकिट, १९५६ शिक्षक दिवस प्रस्ताव पारित, १९६२ भारत-चीन युद्ध विराम, १९६३ प्रथम भारतीय रॉकेट प्रक्षेपित थुम्बा, १९७० सी वी रमन निधन।
२२. १८३० झलकारी बाई जन्म, १८६४ रुक्माबाई प्रथम भारतीय महिला चिकित्सक जन्म, १८९२ मीरा बेन जन्म, १९४८ सरोज खान जन्म, १९३९ मुलायम सिंह यादव जन्म, १९६३ अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या, १९९७ डायना हेडेन मिस वर्ल्ड।
२३. १९१४ कृष्ण चंदर जन्म, १९२६ सत्य साईं जन्म, १९३० गीता दत्त, १९३७ जगदीशचंद्र बोस निधन, १९८३ भारत में प्रथम राष्ट्र मंडल शिखर सम्मेलन।
२४. १७५९ इटली विसूवियस ज्वालामुखी विस्फोट, १८५९ चार्ल्स डार्विन ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज प्रकाशित, १८६७ जोसेफ ग्लीडन अमेरिका कंटीले तार का पेटेंट, १९१९ महिपाल जन्म अभिनेता शायर, १९४४ अमोल पालेकर जन्म, १९५५ इयान बॉथम जन्म, १९२६ श्री अरोबिन्दो घोष सिद्धि दिवस, १९६२ अरुंधति रॉय जन्म, २००३ टुनटुन (उमादेवी) निधन, २०१५ महिप सिंह निधन।
२५. १८६६ इलाहाबाद उच्च न्यायालय उद्घाटित, १८६७ अल्फ्रेड नोबल डायनामाइट पेटेंट, १८९० सुनीत कुमार चटर्जी जन्म, १८९८ देवकी बोस जन्म, १९३० जापान भूकंप के ६९० झटके, १९४९ भारतीय संविधान हस्ताक्षरित व प्रभावी, १९७४ यू थांट निधन, १९८२ झूलन गोस्वामी जन्म।
२६. १८७० डॉ. हरिसिंह गौर जयंती, १९२६ प्रो. यशपाल जन्म, १९६० कानपूर-लखनऊ एस टी डी, २०१२ आम आदमी पार्टी गठित।
२७. १७९५ प्रथम बांगला नाटक मंचन, १८८५ उल्कापिंड प्रथम तस्वीर, १८९० ज्योतिबा फुले निधन, १८९५ नोबल पुरस्कार स्थापित, १९०७ हरिवंश राय बच्चन जन्म, १९३२ डॉन ब्रेडमैन दस हजार रन, १९४० ब्रूस ली जन्म, १९४२ मृदुला सिन्हा जन्म।
२८. १८२१ पनामा स्वतंत्र।
२९. १८६९ ठक्कर बापा जन्म, १९१३ अली सरदार ज़ाफ़री जन्म, १९६३ शरद सिंह।
३०. १७३१ बीजिंग भूकंप एक लाख मृत, १८५८ जगदीशचंद्र बोस जन्म, १८८८ क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित जन्म, मायानन्द चैतन्य जयंती, १९३१ रोमिला थापर जन्म, १९४४ मैत्रेयी पुष्पा जन्म, १९६५ गुड़िया संग्रहालय दिल्ली, २००० प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड।
***
मुक्तिका
मापनी - २१२ २२१ २ २२१ २ १२
*
अंत की चिंता न कर; शुरुआत तो करें
मंज़िलों की चाहतें, फौलाद तो करें

है सियासत को न गम, जनता मरे- मरे
चाह सत्ता की न हो, हालात तो करें

रूठना भी, मानना भी, आपकी अदा
दूरियाँ नजदीकियाँ हों, बात तो करें

वायदों का क्या?, कहा क्या-क्या न याद है
कायदों को तोड़ने, फरियाद तो करें

कौन क्या लाया यहाँ?, क्या ले गया कहो?
कैद में है हर बशर, आज़ाद तो करें
३१-१०-२०२२
***
--- : शब्द निर्माण शक्ति : ---
महामहोपाध्याय पण्डित रामावतार शर्मा ( १८७७ -- १९२९ ) पटना कालेज मे पढ़ा रहे थे, गर्मी के दिन थे। पंखा कुली झालरदार पंखा डोरी से खीचकर चला रहा था लेकिन आलस के कारण पंखा रुक जाता। गर्मी से तंग छात्र उसे डाट डपट कर रहे थे। पढ़ाई में व्यवधान देख पंडित जी ने कहा - 'जाने दो उसे। वह बड़ा स्टुपिड (मूर्ख) है। उसी समय कालेज का अंग्रेज प्रिन्सिपल जो बरामदे में थे, उनहोंने छात्रों को शांत कराकर विनोद में कहा कि आपने संस्कृत के पण्डित होकर अंग्रेजी के स्टूपिड ( Stupid ) शब्द का कैसे प्रयोग कर दिया? पण्डित रामावतार जी ने कहा कि प्रयुक्त शब्द संस्कृत का है , अंग्रेजी का नही। शब्द है ' इष्टपिट ' जिसका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है  'इष्टं पिनष्टीति' अर्थात जो इष्ट को पीस दे, मनचाही बात को विनष्ट कर दे , अर्थात- जड़, मूर्ख। प्रिन्सिपल साहब इस असाधरण शब्द चमत्कार  से आश्चर्यचकित रह गए। 
आप शब्दों के संस्कृतीकरण में दक्ष थे। उनके द्वारा कुछ देशों व व्यक्तियों का संस्कृतीकरण दृष्टव्य है-
आरब्य              अरेबिया
औष्ट्रालय            आस्ट्रेलिया
दानव                  डेन्यूब
शर्मण्य                 जर्मनी|
नन्दन                   लण्डन
नवार्क                   न्यूयार्क 
अरिष्टोत्तर              अरिस्टाटल
अलक्षेन्द्र                अलेकजेण्डर
सुक्रतु                    साक्रेटीज ( सुकरात)
उरगजिह्व               औरंगजेब
गीत
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
***
छंद कार्यशाला -
२८ वार्णिक दण्डक छंद
विधान - २८ वार्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही
अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई
शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई
भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
९४२५१८३२४४
३१-१०-२०२१
***
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
३१-१०-२०२०
***
गीत
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
३१-१०-२०१९
***
लघुकथा:
पटखनी
*
सियार के घर में उत्सव था। उसने अतिउत्साह में पड़ोस के नीले सियार को भी न्योता भेज दिया।
शेर को आश्चर्य हुआ कि उसके टुकड़ों पर पलनेवाला वफादार सियार उससे दगाबाजी करनेवाले नीले सियार को को आमंत्रित कर रहा है।
आमंत्रित नीले सियार को याद आया कि उसने विदेश में वक्तव्य दिया था: 'शेर को जंगल में अंतर्राष्ट्रीय देख-रेख में चुनाव कराने चाहिए'।
सियार लोक में आपके विरुद्ध आंदोलन, फैसले और दहशतगर्दी पर आपको क्या कहना है? किसी पत्रकार ने पूछा तो उसे दुम दबाकर भागना पड़ा था।
'शेर तो शेरों की जमात का नेता है, सियार उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानते' नीले सियार ने आते ही वक्तव्य दिया तो केले खा रहे बंदरों ने तुरंत कुलाटियाँ खाते हुए उछल-कूदकर चैनलों पर बार-बार यही राग अलापना शुरू कर दिया।
'हम सियार तो नीले सियार को अपने साथ बैठने लायक भी नहीं मानते, नेता कैसे हो सकता है वह हमारा?' आमंत्रणकर्ता युवा सियार ने पूछा।
'सूरज पर थूकने से सूरज मैला नहीं होता, अपना ही मुँह गन्दा होता है' भालू ने कहा।
'शेर सिर्फ शेरों का नहीं पूरे जंगल का नेता है' कोयल ने कहा 'लेकिन उसे भी केवल शेरों के हितों की बात न कर, अन्य प्रजाति के पशु-पक्षियों के भी हित साधने चाहिए।'
'जानवरों के बीच नफरत फ़ैलाने और दूरियाँ बढ़ानेवाले घातक समाचार बार-बार प्रसारित करनेवाले बिकाऊ बंदरों पर कार्यवाही हो। कोटि-कोटि जनता का अनमोल समय और बर्बाद करने का हक़ इन्हें किसने दिया?' भीड़ को गरम होता देखकर बंदरों और नीले सियार को होना पड़ा नौ दो ग्यारह।
सभी विस्मित रह गये चुनाव का परिणाम देखकर कि मतदाताओं ने कोयल को विजयी बनाकर शेर और नीले सियार दोनों को दे दी थी पटखनी।
***
३१-१०-२०१४
***

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

चित्रगुप्त,बाल गीत,चिड़िया,

लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.
आत्मा क्या है?
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं:
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
२५-१०-२०१४
***

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

दुर्गा पूजा, आरती, महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र,बाल गीत,नवगीत, दोहा, दिवाली

गीत : पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पुजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धन
हरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
८-११-२०२१
*****
दोहा दीप
*
अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
*
कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
*
बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
*
मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
*
पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
*
दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
*
मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
***
नवगीत:
*
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***


***
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II
मूल पाठ-तद्रिन
हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल'
II ॐ II
II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II
नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II
सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत.
शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I
सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II
कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन.
सरे पाप-ताप की हर्ता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I
सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II
सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी.
सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I
मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II
भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया.
सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II
हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा.
योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II
महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा सूक्ष्म-स्थूल.
महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I
परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II
कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे.
जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II
दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया.
जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II
जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र.
पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II
एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल.
पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I
महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II
तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश.
हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं II
तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण.
नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत..
*******************************************
आरती क्यों और कैसे?
संजीव 'सलिल'
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक,अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दे
*****
नवगीत
*
लछमी मैया!
भाव बढ़ रहे, रुपया गिरता
दीवाली है।
*
धन तेरस पर
निर्धन पल-पल देश क्यों हुआ
कौन बताए?
दीवाली पर
दीवाला ही यहाँ हो रहा?
राम बचाए।
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र तो
जी भर लूटे।
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
छाती कूटे।
भरा बताते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*
डाका डालें
जन के धन पर नेता-अफसर
कौन बचाए?
सेठ-चिकित्सक, न्याय व्यवस्था
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र यह
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
भरा दिखाते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*
बाल गीत:
अहा! दिवाली आ गयी
.
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
.
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
.
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
दुर्गा पूजा परंपरा : सामाजिक उपादेयता
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[लेखक परिचय: जन्म २०-८-१९५२, आत्मज - स्व. शांति देवी - स्व. राजबहादुर वर्मा, शिक्षा - डिप्लोमा सिविल इंजी., बी. ई., एम.आई.ई., एम.आई. जी.एस., एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र) विधि स्नातक, डिप्लोमा पत्रकारिता), संप्रति - पूर्व संभागीय परियोजना प्रबंधक/कार्यपालन यंत्री, अधिवक्ता म.प्र. उच्च न्यायालय, प्रकाशित पुस्तकें - ७, सहलेखन ५ पुस्तकें, संपादित पुस्तकें १५, स्मारिकाएँ १७, पत्रिकाएँ ७, भूमिका लेखन ५० पुस्तकें, समीक्षा ३०० पुस्तकें, तकनीकी शोध लेख २०, सम्मान - १२ राज्यों की संस्थाओं द्वारा १५० से अधिक सम्मान। उपलब्धि - इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा तकनीकी लेख ‘वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ’ को राष्ट्रीय स्तर पर सेकेण्ड बेस्ट पेपर अवार्ड। ]
*
सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है।
परमेश्वर ही परम ऊर्जा
सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरिहोती है, उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है। ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है -
'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते'
ॐ पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण है ब्रम्हांड सब
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।
अंशी (पूर्ण) और अंश का नाता ही परमात्मा और आत् का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है। इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं; जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करेंगे। सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है; वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन नव दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है-
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
सब मंगल की मंगलकारी, शिवा सर्वार्थ साधिका
शरण तुम्हारी त्रिलोचने, गौरी नारायणी नमन तुम्हें
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें क्रमश: सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण के अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है।
भारत में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ को बेटी मानकर उनका आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित मायके में उसकी अगवानी करती हैं। पर्वतेश्वर हिमवान की बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है। बुद्धि से विघ्नों का निवारण करनेवाले गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ज्ञान की देवी शारदा व समृद्धि की देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं।
दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहकर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। वे आत्मविश्वासी हैं, एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। वे अपने निर्णय पर पश्चाताप भी नहीं करतीं। पितृग्रह में सब वैभव सुलभ होने पर भी विवाह पश्चात् शिव के अभावों से भरे परिवेश में बिना किसी गिले-शिकवे या क्लेश के सहज भाव से संतुष्ट-सुखी रहती हैं। शुंभ-निशुम्भ द्वारा भोग-विलास का प्रलोभन भी उन्हें पथ से डिगाता नहीं। शिक्षा के प्रसार और आर्थिक स्वावलंबन ने संतानों के लिए मनवांछित जीवन साथी पाने का अवसर सुलभ करा दिया है। देखा जाता है की जितनी तीव्रता से प्रेम विवाह तक पहुँचता है उतनी ही तीव्रता से विवाहोपरांत घटता है और दोनों के मनों में उपजता असंतोष संबंध विच्छेद तक पहुँच जाता है।
शिव-शिवा का संबंध विश्व में सर्वाधिक विपरीत प्रवृत्तियों का मिलन है। शिव सर्वत्यागी हैं, उमा राजा हिमवान की दुलारी पुत्री, राजकुमारी हैं। शिव संसाधन विहीन हैं, उमा सर्व साधन संपन्न हैं। शिव वैरागी हैं, उमा अनुरागी। शिव पर आसक्त होकर उमा प्राण-प्रणसे जतन कर उन्हें मनाती हैं और स्वजनों की असहमति की चिंता किये बिना विवाह हेतु तत्पर होती हैं किंतुपितृ गृह से भागकर पिता की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुँचातीं, सबके सहमत होने पर ही सामाजिक विधि-विधान, रीति-रिवाजों के साथ अपने प्रियतम की अर्धांगिनी हैं। समाज के युवकों और युवतियों के लिये यह प्रसंग जानना-समझना और इसका अनुकरण करना जीवन को पूर्णता प्रदान करने के लिए परमावश्यक है। शिव साधनविहीनता के बाद भी उमा से इसलिए विवाह नहीं करना चाहते कि वह राजकुमारी है। वे उमा की सच्ची प्रीति और अपने प्रति प्रतिबद्धता जानने के पश्चात ही सहमत होते हैं। विवाह में वे कोई दहेज़ या धन नहीं स्वीकारते, केवल उमा के साथ श्वसुरालय से विदा होते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक और पारिवारिक मान-मर्यादा धन-वैभव प्रदर्शन में नहीं, संस्कारों के शालीनतापूर्वक संपादन में है।
विवाह पश्चात नववधु उमा को पितृ-गृह से सर्वथा विपरीत वातावरण प्रिय-गृह में मिलता है। वहाँ सर्व सुविधा, साधन, सेविकाएँ उपलब्ध थीं यहाँ सर्वअसुविधा, साधनहीनता तथा ‘अपने सहायक आप हो’ की स्थिति किंतु उमा न तो अपने निर्णय पर पछताती हैं, न प्रियतम से किसी प्रकार की माँग करती हैं। वे शिव के साथ, नीर-क्षीर तरह एकात्म हो जाती हैं। वे मायके से कोई उपहार या सहायता नहीं लेतीं, न शिव को घर जमाई बनने हेतु प्रेरित या बाध्य करती हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर माँ मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार (पराजय) को हार (माला) की तरह सहज स्वीकार लें तो हार ही जीत बन जाती है। यह ज्ञान लेकर श्वसुरालय जानेवाली बेटी बहू के रूप में सबका मन जीत सकेगी। उमा पराक्रमी होते हुए भी लज्जाशील हैं। शिव भी जान जाते हैं कि उमा ने प्रयास न कर उन्हें जयी होने दिया है। इससे शिव के मन में उनका मान बढ़ जाता है और वे शिव की ह्रदय-साम्राज्ञी हो पाती हैं। पाश्चात्य जीवन मूल्यों तथा चित्रपटीय भूषा पर मुग्ध तरुणियाँ दुर्गा माँ से अंग प्रदर्शन की अपेक्षा लज्जा निर्वहन का संस्कार ग्रहण कर मान-मर्यादा का पालन कर गौरव-गरिमा सकेंगी। उमा से अधिक तेजस्विनी कोई नहीं हो सकता पर वे उस तेज का प्रयोग शिव को अपने वश में करने हेतु नहीं करतीं, वे शिव के वश में होकर शिव का मन जीतती हैं हुए अपने तेज का प्रयोग समय आने पर अपनी संतानों को सुयोग्य बनाने और शिव पर आपदा आने पर उन्हें बचा
उमा अपनी संतानों को भी स्वावलंबन, संयम और स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं। अपनी एक पुत्री को सर्वप्रकार की विद्या प्राप्त करने देती हैं, दूसरी पुत्री को उद्यमी बनाती हैं, एक पुत्र सर्व विघ्नों का शमन में निष्णात है तो दूसरा सर्व शत्रुओं का दमन करने में समर्थ। विश्व-इतिहास में केवल दो ही माताएँ अपनी संतानों को ऐसे दुर्लभ-दिव्य गुणों से संपन्न बना सकी हैं, एक उमा और दूसरी कैकेयी।
लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे अनाचार के प्रतिकार हेतु सिंहवाहिनी होकर महाबलशाली महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपान करती हैं। अत्यधिक आवेश में वे सब कुछ नष्ट करने की दिशा में प्रेरित होती हैं तो शिव प्रलयंकर-अभ्यंकर होते हुए भी उनके पथ में लेट जाते हैं। शिव के वक्ष पर चरण रखते ही उन्हें मर्यादा भंग होने का ध्न आता है और उनके विकराल मुख से जिव्हा बाहर आ जाती है। तत्क्षण वे अपने कदम रोक लेती हैं। उनसे जुड़ा हर प्रसंग नव दंपतियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जरा-जरा सी बात में अहं के कारण राई को पर्वत बनाकर टूटते संबंधों और बिखरते परिवारों को दुर्गा पूजन मात्र से संतुष्ट न होकर, उनके आचरण से सीख लेकर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। एकांगी स्त्री-विमर्श के पक्षधर शिव-शिवा से जीवन के सूत्र ग्रहण कर सकें तो टकराव और बिखराव के कंटकाकीर्ण पथ को छोड़कर, अहं विसर्जन कर समर्पण और सहचार की पगडंडी पर चलकर परिवार जनों को स्वर्गवासी किये बिना स्वर्गोपम सुख पहुँचा सकेंगे।
स्त्री को दासी समझने का भ्रम पालनेवाले नासमझ शिव से सीख सकते हैं कि स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा ही पुरुष के पौरुष का प्रमाण है। शिव अनिच्छा के बाद भी उमा के आग्रह की रक्षा हेतु उनसे उनसे विवाह करते हैं किन्तु विवाह पश्चात् उमा का सुख ही उनके लिए सर्वस्व हो जाता है। लंबे समय तक प्रवास पश्चात् लौटने पर गृह द्वार पर एक अपरिचित बालक द्वारा हठपूर्वक रोके जाने पर शिव उसका वध कर देते हैं। कोलाहल सुनकर द्वार पर आई उमा द्वारा बालक की निष्प्राण देह पर विलाप करते हुए यह बताये जाने पर कि वह बालक उमा का पुत्र है और शिव ने उसका वध कर दिया, स्तब्ध शिव न तो उमा पर संदेह करते हैं, न लांछित करते हैं अपितु अपनी भूल स्वीकारते हुए बालक की चिकित्सा कर उसे नवजीवन देकर पुत्र स्वीकार लेते हैं। समाज में हर पति को शिव की तरह पत्नी के प्रति अखंड विश्वास रखना चाहिए। इस प्रसंग के पूर्व, पूर्वजन्म में शिव द्वारा मना करने के बाद भी सती (उमा का पूर्व जन्म में नाम) पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में गईं, स्वामी शिव की अवहेलना और निंदा न सह पाने के कारण यज्ञ वेदी में स्वयं को भस्म कर लिया। शिव ने यह ज्ञात होने पर यज्ञ ध्वंस कर दोषियों को दंड दिया तथा सती की देह उठाकर भटकने लगे। सृष्टि के हित हेतु विष्णु ने चक्र से देह को खंडित कर दिया, जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वहाँ शक्ति पीठें स्थापित हुईं।
शिव ने समाधि लगा ली। तारकासुर के विनाश हेतु शिवपुत्र की आवश्यकता होने पर कामदेव ने शिव का तप भंग किया किन्तु तपभंग से क्रुद्ध शिव की कोपाग्नि में भस्म हो गए। अति आवेश से स्खलित शिववीर्य का संरक्षण कृतिकाओं ने किया, जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वती ने बिना कोई आपत्ति किये शिव पुत्र को अपना पुत्र मानकर लालन-पालन किया। क्या आज ऐसे परिवार की कल्पना भी की जा सकती है जिसमें पति का पुत्र पत्नी के गर्भ में न रहा हो, पत्नी के पुत्र से पति अनजान हो और फिर भी वे सब बिना किसी मतभेद के साथ हों, यही नहीं दोनों भाइयों में भी असीम स्नेह हो। शिव परिवार ऐसा ही दिव्य परिवार है जहाँ स्पर्धा भी मनभेद उत्पन्न नहीं कर पाती। कार्तिकेय और गणेश में श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर शिव ने उन्हें सृष्टि परिक्रमा करने का दायित्व दिया। कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर उड़ गए, स्थूल गणेश ने मूषक पर जगत्पिता शिव और जगन्माता पार्वती की परिक्रमा कर ली और विजयी हुए। इस प्रसंग से शक्ति पर बुद्धि की श्रेष्ठता प्रमाणित हुई।
दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव, गणेशजी, लक्ष्मीजी, सरस्वती जी और कार्तिकेय जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के द्वितीय अध्याय में देह दुर्ग को जीतकर दुर्गा विरुद से विभूषित शक्ति द्वारा महिषासुर वध के पूर्व उनकी ज्येष्ठ पुत्री महालक्ष्मी का ध्यान किया गया है -
ॐ अक्षस्त्रक्परशुंगदेषुकुलिशम् पद्मं धनुष्कुण्डिकाम्, दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नानां, सेवे सैरभमर्दिनिमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्
ॐ अक्षमाल फरसा गदा बाण वज्र धनु पद्म, कुण्डि दंड बल खड्ग सह ढाल शंख मधुपात्र
घंटा शूल सुपाश चक्र कर में लिए प्रसन्न, महिष दैत्य हंता रमा कमलासनी भजामि
श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान उनकी मनोहर कांति है। वे तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में निम्न श्लोक दृष्टव्य है-
ॐ घंटा शूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुं सायकं, हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्
गौरी देहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीम्
ॐ घंट शूल हल शंख मूसल चक्र धनु बाण, करकमलों में हैं लिए, शरत्चंद्र सम कांति
गौरिज जगताधार पूर्वामत्र सरस्वती, शुम्भ दैत्यमर्दिनी नमन भजूं सतत पा शांति
उल्लेखनीय है कि दुर्गाशप्तशती में माँ की दोनों पुत्रियों को महत्व दिया गया है किन्तु दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश नहीं हैं। सरस्वती जी पर केंद्रित ‘प्राधानिकं रहस्यं’ उपसंहार के अंतर्गत है। स्वयं शिव का स्थान भी माँ के स्वामी रूप में ही है, स्वतंत्र रूप से नहीं। इसका संकेत आरम्भ में अथ सप्तश्लोकी दुर्गा में शिव द्वारा देवताओं को माँ की महिमा बताने से किया गया है। विनियोग आरम्भ करते समय श्री महाकाली, महालक्ष्मी व् महासरस्वती का देवता रूप में उल्लेख है। स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर समाज को विखंडित करनेवाले यदि दुर्गासप्तशती का मर्म समझ सकें तो उन्हें ज्ञात होगा कि सनातन धर्म लिंग भेद में विश्वास नहीं करता किंतु प्रकृति-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर यथावसर यथायोग्य महत्त्व देते है। त्रिदेवियों की महत्ता प्रतिपादित करती दुर्गा सप्तशती और माँ के प्रति भक्ति रखनेवालों में पुरुष कम नहीं हैं। यह भी कि माँ को सर्वाधिक प्यारी संतान परमहंस भी पुत्र ही हैं।
दुर्गा परिवार - विसंगति से सुसंगति
दुर्गा परिवार विसंगति से सुसंगति प्राप्त करने का आदर्श उदाहरण है। शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) उनकी पत्नी के पुत्र नहीं हैं। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव-वरदान पाकर अति शक्तिशाली हुए अधर्मी राक्षस तारकासुर का वध केवल केवल शिवपुत्र ही कर सकता था। वैरागी शिव का पुत्र होने की संभावना न देख तारकासुर तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। त्रस्त देवगण विष्णु के परामर्श पर कैलाश पहुँचे। शिव-पार्वती देवदारु वन में एक गुफा में एकांतवास पर थे। अग्नि देव शिव से पुत्र उत्पत्ति हेतु प्रार्थना करने के उद्देश्य से गुफा-द्वार तक पहुँचे। शिव-शिवा अद्वैतानंद लेने की स्थिति में थे। परपुरुष की आहट पाते ही देवी ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया, वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्ध है। कामातुर शिव का वीर्यपात हो गया। अग्निदेव उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण कर, तारकासुर से बचाकर जाने लगे। वीर्य का उग्र ताप अग्निदेव से सहन नहीं हुआ। अग्नि ने वह अमोघ वीर्य गंगा को सौंप दिया किंतु उसके ताप से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगा ने वह दिव्य अंश शरवण वन में स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते-बहते छह भागों में विभाजित उस दिव्य अंश से छह सुंदर-सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं ने उन बालकों का कृतिकालोक ले जाकर पालन-पोषण किया। नारद जी से यह वृतांत सुन शिव-पार्वती कृतिकालोक पहुँचे। पार्वती ने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगाया कि वे छह शिशु एक शिशु हो गए जिसके छह शीश थे। शिव-पार्वती कृतिकाओं से बालक को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं द्वारा पालित उस बालक को कार्तिकेय (स्कन्द, षडानन, पार्वतीनंदन, तारकजित्, महासेन, शरजन्मा, सुरसेनानी, अग्निभू, बाहुलेय, गुह,विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रचदारण) कहा गया। कार्तिकेय ने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया। देवी अपने गर्भ से उत्पन्न न होने पर भी पति शिव के पुत्र को अपना मान लेती हैं।
पार्वती पुत्र गणेश उनके पति शिव के पुत्र नहीं हैं। शिव पुराण के अनुसार पार्वती जी शिव के प्रवास काल में स्नान करते समय द्वार पर प्रवेश निषेध के लिए अपने शरीर के मैल से पुतले का निर्माण कर प्राण डाल देती हैं। शिव को प्रवेश करने से रोकते हुए युद्ध में गणेश शहीद होते हैं। कोलाहल सुनकर बाहर आने पर वे पुत्र के लिए शोक करती हैं। शिव बिना कोई शंका या प्रश्न किये तुरंत उपचार हेतु सक्रिय होते हैं और मृत बालक के धड़ के साथ गज शिशु का मुख जोड़कर उसे अपना पुत्र बना लेते हैं। सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ बल पर ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है।
युद्ध की देवी दुर्गा पर्व-पूजा के समय पितृ गृह में विश्राम हेतु पधारती हैं। हर बंगाली उन्हें अपनी पुत्री मानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता है जबकि भारत के अन्य हिस्सों में उन्हें मैया मानकर पूजा जाता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी में पति गृह जाने के पूर्व कन्या के मन-रंजन हेतु स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाया जाता है, गायन और नृत्य के आयोजन होते हैं। बंगाल में धुनुची नृत्य और सिन्दूर पूजा का विशेष महत्व है जबकि गुजरात में गरबा और डांडिया नृत्य किया जाता है। विजयादशमी के पश्चात् दुर्गा प्रतिमा बाड़ी या आँगन के बाहर की जाती है तब भावप्रवण बांगला नर-नारियाँ अश्रुपात करते देखे जा सकते हैं। एक अलौकिक शक्ति को लौकिक नाते में सहेजकर उससे शक्ति अर्जित करना सनातन धर्मियों का वैशिष्ट्य है। हमारी सामाजिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज और जीवन मूल्य प्रकृति और पुरुष को एक साथ समेटते हुए जीवंत होते हैं।
२४-१०-२०१९
***
[संपर्क - विश्व वाणी हिंदी संस्थान ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ७९९९५५९६१८ जिओ, ९४२५१८३२४४ वाट्सएप, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com