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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

dwipadiyaan:

द्विपदियाँ: 

इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए 
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया 

दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मारा 
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ 

दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ 
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ 

दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठ है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया 
*

शुक्रवार, 24 जून 2011

दोहा सलिला : मन भरकर करिए बहस संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
मन भरकर करिए बहस
संजीव 'सलिल'
*
मन भरकर करिए बहस, 'सलिल' बात-बेबात.
जीत न मानें जीतकर, हार न मानें मात..

मधुर-तिक्त, सच-झूठ या, भला-बुरा दिन रात.
कुछ न कुछ तो बोलिए, मौन न रहिये तात..

हर एक क्रिया-कलाप पर, कर लेती सरकार.
सिर्फ बोलना ही रहा, कर-विमुक्त व्यापार..

नेता, अफसर, बीबियाँ, शासन करते बोल.
व्यापारी नित लूटते, वाणी में रस घोल..

परनिंदा सुख बिन लगे, सारा जीवन व्यर्थ.
निंदा रस बिन काव्य में, मिलता कोई न अर्थ..

द्रुपदसुता, मंथरा की, वाणी जग-विख्यात.
शांति भंग पल में करे, लगे दिवस भी रात..

सरहद पर तैनात हो, महिलाओं की फ़ौज.
सुन चख-चख दुश्मन भगे, आप कीजिये मौज..

सुने ना सुने छात्र पर, शिक्षक बोलें रोज.
क्या कुछ गया दिमाग में, हो इस पर कुछ खोज..

पंडित, मुल्ला, पादरी, बोल-बोल लें लूट.
चढ़ा भेंट लुटता भगत, सुनकर बातें झूठ..

वाणी से होती नहीं, अधिक शस्त्र में धार.
शस्त्र काटता तन- फटे, वाणी से मन यार..

बोल-बोल थकती नहीं, किंचित एक जुबान.
सुन-सुन थक जाते 'सलिल', गुमसुम दोनों कान..

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बुधवार, 23 जून 2010

कुछ द्विपदियाँ : संजीव 'सलिल'

कुछ द्विपदियाँ :

संजीव 'सलिल'

वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.
राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..      
*
चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.
शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..
*
रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.
रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..
*
मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.
'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..
*
खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी राहतें.
झुग्गियों में जो बसे, सुधरी नहीं उनकी गतें..
*
थक गए उपदेश देकर, संत मुल्ला पादरी.
सुन रहे प्रवचन मगर, छोड़ें नहीं श्रोता लतें.
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 20 मई 2010

दोहा का रंग प्रभु त्रिवेदी के संग:

दोहा का रंग प्रभु त्रिवेदी के संग:


बन्दूकों से हल नहीं, होते कभी विवाद.
ऐसी राह निकालिए, दुनिया हो आबाद..
*
फूलों की शैया तजी, मात-पिता घर धाम.
स्वर्ण अक्षरों में लिखे उन वीरों के नाम..
*
जल संस्कृति का मूल है, जल से है निर्माण.
जल से जीवित जन्तु सब, जल प्राणों का प्राण..
*
कठिन राह का हो गया, सरल-सफल आधार.
संकल्पों की मुद्रिका, पहुँची सागर-पार..
*
वर्तमान बनकर चला, सुख-दुःख भरा अतीत.
भावी-सम्मुख है खड़ा, लिये हाथ में जीत..
*
स्वर्ण-कटोरा हाथ में, ले निकला दिनमान.
दिशा-दिशा सुख बाँटता, यही महा अभियान..
*
जागृत हो संवेदना, देश-भक्ति का भाव.
परिलक्षित होगा तभी, शनैः-शनैः बदलाव..
*
स्वस्थ्य होड़ हो आपसी, सभी बनें संपन्न.
हित साधन साधते रहें, अंतस रहे प्रसन्न..
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धरती पाकर खुश रहें, करते रहें तलाश.
समभाव है सब कुछ यहाँ, नीचा है आकाश..
*

रविवार, 27 सितंबर 2009

विजया दशमी पर दोहे

विजया दशमी पर दोहे




आचार्य संजीव 'सलिल'



भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.

स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..



आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.

फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..



मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.

हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..



शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.

जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..



राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.

जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..



दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.

दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..



सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.

पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..



हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.

विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..



कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.

परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..



हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.

इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..



रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.

स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..



अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच.

धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच..



राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत.

सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत..



दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.

राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.



आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास.

द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास..



रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति.

राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति..



मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम.

शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम..



शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्.

शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात..



माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.

लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..



सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व.

'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व..



कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब.

उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब..



सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन.

बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन..



शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य.

सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य..



सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार.

अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार..



जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ.

कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ.



जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल.

छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल..



रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ.

रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ..



देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ.

बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ..



निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम.

रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम..



राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम.

'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम..



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