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बुधवार, 4 जुलाई 2012

मुक्तिका: सूना-सूना पनघट हैं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सूना-सूना पनघट हैं

संजीव 'सलिल'
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सूना-सूना पनघट हैं, सूखी-सूखी अमराई है।
चौपालों-खलिहानों में, सन्नाटे की पहुनाई है।।

बरगद बब्बा गुजर गए,  पछुआ की सोच विषैली है।
पात झरे पीपल के, पुरखिन पुरवैया पछताई है।।

बदलावों की आँधी में, जड़ उखड़ी जबसे जंगल की।
हत्या हुई पहाड़ों की, नदियों की शामत आई है।।

कोंवेन्ट जा जुही-चमेली-चंपा के पर उग आये।
अपनापन अंगरेजी से है, हिन्दी  मात पराई है।।

भोजपुरी, अवधी, बृज गुमसुम, बुन्देली के फूटे भाग।
छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी बिसरी, हाडौती  पछताई है।।

मोदक-भोग न अब लग पाए, चौथ आयी है खाओ केक।
दिया जलाना भूले बच्चे, कैंडल हँस  सुलगाई है।।

श्री गणेश से मूषक बोला, गुड मोर्निंग राइम सुन लो।
'सलिल'' आरती करे कौन? कीर्तन करना रुसवाई है।।

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