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बुधवार, 6 मार्च 2024

६ मार्च, जीवन आरंभ, सैन्य टोपियाँ, गीत, बसंत, अहीर छंद, हिंदी ग़ज़ल, दोहा, गणपति, लघुकथा, कविता, रामकृष्ण देव

सलिल सृजन ६ मार्च
*
युग तुलसी स्मरण
सुमिर रामकिंकर को रे मन!
मानस मंदाकिनी मनोहर,
जो डूबे भव पार कर जतन,
राम नाम जप तार, आप तर।
राम-श्याम दोउ एक याद रख,
भक्ति भाव रस घोल श्वास में,
हरि-हर में अद्वैत जान ले,
द्वैत मोह मत पाल आस में,
किंकर-पद आराध्य मान ले।
मानस चिंतन, मानस मंथन,
शब्द शब्द रस भाव समुच्चय,
विचर भ्रमर हो मानस मधुवन,
कर परमात्म राम से परिचय।
कृपावंत गुणवंत सदय हों,
किंकर कीर्तन कर निर्भय हों।
६.३.२०२४
•••
विमर्श
जीवन का आरंभ
*
                    पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग ४०० करोड़ साल पहले हुई थी। कहाँ?, इस पर वैज्ञानिकों मेनंतभेद हैं। एक धारणा है कि जीवन की शुरुआत समुद्र की सतह पर हुई थी। पृथ्वी के बनने के बाद बहुत समय तक हमारे गृह की सतह पर उथल-पुथल चलती रही, गरम पिघली धातु और हवाएँ बहती रहीं। ऐसे वातावरण मे कार्बन पर आधारित जीवन का पनपना असंभव था। पृथ्वी का तापमान गिरने पर ही जीवन का आरंभ संभव हुआ। धरती पर आए पहले जीव हैं अंग्रेजी में प्रोकैरेयोट (Prokaryote) कहा जाता है। इन जीवों में केंद्रक/न्यूक्लियस (Nucleus) नहीं होता। ये हमारी कोशिकाओं के मुकाबले मे यह बहुत सरल होते हैं।

                    प्रोकैरेयोट किस्म के बैक्टीरिया वही हैं जिन्हें मारने के लिए हम एंटीबायोटिक (antibiotic) खाते हैं। जीवन आरंभ के समय दो तरह के प्रोकैरेयोट बैक्टीरिया और आर्किया (Archaea) प्रगट हुए। यह दो किस्म की कोशिकाएँ सरल होती हैं। ४०० करोड़ साल पहले धरती पर इन्हीं दोनों का धरती पर बोलबाला रहा। ऐसा लगभग २०० करोड़ साल के लंबे अंतराल के बाद एक आर्किया ने एक बैक्टीरिया को अपने अंदर समा लिया। कब और कैसे इस पर आज भी अनुसंधान जारी है।इस एक घटना ने धरती पर जीवन का रुख बदल दिया। आर्किया के अंदर बैक्टीरिया जाने से एक यूकेरियोट (Eukaryote) कोशिका पैदा हुई जिससे पेड़ , पौधे, जानवर, पक्षी और हम सभी विकसित हुए।

                    आर्किया के अंदर जाने वाला बैक्टीरिया क्रमागत उन्नति की प्रक्रिया के बाद एक कोशिका का वह केंद्र बन गया, जहाँ कोशिका की ऊर्जा का उत्पादन होता है. यह धरती पर जीवन के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण कदम था। इस एक घटना से एक कोशिका की ऊर्जा बहुत बढ़ गई।  उसी कारण से मनुष्यों जैसे जटिल जीवों का धरती पर आना संभव हुआ। ऐसा होने में 200 करोड़ साल क्यों लगे? इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। क्या ब्रह्मांड में अन्यत्र भी  ऐसा होने में इतना ही समय लगा होगा या, कम-अधिक, कोई नहीं जानता। 
***

भारतीय सेना की टोपियाँ 

टोपी, पगड़ी या साफा सम्मान और प्रतिष्ठा की प्रतीक होती है। लोक प्रचलित मुहावरे टोपी पहनाना = मूर्ख बनाना,  टोपी उतारना/उछालना = अपमान करना तथा टोपी रखना / ढकना = इज्जत बचाना आदि टोपी का महत्व दर्शाते हैं। भारतीय सेना के सैनिकों और अधिकारियों के लिए उनकी टोपियों (caps /हेडगियर) कब-कैसी की होगी यह उनकी रेजिमेंट, कार्यक्रम, विशेष ऑपरेशन, रैंक आदि पर निर्भर करता है। सेना के कर्मियों के लिए मुख्यतः ६ अलग-अलग प्रकार के हेडगेयर हैं।


१. .पीक कैप्स: पीक कैप भारतीय सेना के अधिकारियों की औपचारिक वर्दी का हिस्सा है। इसकी शान ही अनूठी है। 

२. बेरेट: यह आम तौर पर सैनिकों के हथियारों और रेजिमेंट के रंग के अनुसार होती है।  विभिन्न हथियारों और रेजिमेंटों में बेरेट के अलग-अलग रंग होते हैं। कई बेरेट कड़ी मेहनत और पसीने से अर्जित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए: पैराशूट रेजिमेंट के मैरून बेरेट। 

३.गोरखा कैप्स: गोरखा राइफल्स, कुमाऊं रेजिमेंट, नागा रेजिमेंट, लद्दाख स्काउट्स, सिक्किम स्काउट्स और गढ़वाल राइफल्स के सैनिक और अधिकारी इस पारंपरिक गोरखा कैप्स पहनते हैं।

४. पगड़ी: भारतीय सेना के सिख सैनिक और अधिकारी अपनी वर्दी और रेजिमेंट के रंग के अनुसार अपनी वर्दी के साथ पगड़ी पहनते हैं। पगड़ी का संबंध सिख धर्म से भी है। पगड़ी पहनने पर कद अधिक लंबा तथा प्रभावशाली दिखता है। 



५. कॉम्बैट यूनिफॉर्म कैप्स: आमतौर पर सैनिक इन कैप्स को अपनी कॉम्बैट या फील्ड यूनिफॉर्म के साथ पहनते हैं।

६ -मैस सेरेमोनियल कैप यूनिफॉर्म के साथ CAPS: यह कैप आमतौर पर आधिकारिक डिनर पर पर्व गणवेश (सेरेमोनियल यूनिफ़ॉर्म) के सतह पहनी  जाती है। 
 

ब्रिगेडियर, मेजर जनरल, लेफ्टिनेंट जनरल और जनरल के रैंक के लिए, उनकी चोटी की टोपी, गोरखा टोपी और पगड़ी में एक समान प्रकार का बैज होता है। अधिकारियों की टोपी लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक समान हैं, लेकिन कर्नल बनने के बाद भारतीय सेना के इन वरिष्ठ अधिकारियों के पीक कैप्स, गोरखा कैप्स और पगड़ी (सिख अधिकारियों के लिए) में लाल रिबन जोड़ा जाता है।
***
फाग-
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
...
होली पर भोजपुरी गीत :
*
कईसे मनाईब होली ? हो मोदी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
*
मीटिंग के गईला त मतदाता अईला
एक गिरउला, तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
दंग विपच्छी तू मौका न दईला
निगली का भंग की गोली? हो मोदी!
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
*
रोएँ बिरोधी मउका तऽ चाही
हाथ मिलाएँ चउका तऽ चाही
सरकारन का रउआ रे टोटा
राहुल की दुनिया में होवे हँसाई
माया की रीती झोली, हो राजा !
खिलके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
मारे ममता दीदी रह-रह के बोली
नीतीश-अखिलेश कऽ बिसरी ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अमित भाई कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल ठाकरे है मुँह लटका
नानी शिंदे ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जमके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
***
फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु की हार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
ढपली-मादल, अम्बर बादल
हरित-पीत पत्ते नच पागल
लाल पलाश कुसुम्बी रंग बन
तन पर पड़े, करे मन घायल
करिया-गोरिया नैन लड़ायें
बैरन झरबेरी
सम भौजी छार हो फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
अररर पकड़ो, तररर झपटा
सररर भागा, फररर लपटा
रतनारी भई सदा सुहागन
रुके न चम्पा कितनऊ डपटा
'सदा अनंद रहे' गा-गाखें
गुझिया-पपड़ी
खाबे खों तकरार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।
***
पुण्य स्मरण
रामकृष्ण देव
*
विश्व के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक रामकृष्ण देव ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण देव मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फ़रवरी १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी का नाम चंद्रमणि देवी था। रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ। उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में प्रकाशपुंज को प्रवेश करते हुए देखा। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को शिक्षण तथा आजीविका के लिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
निरंतर प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। १८५५ में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रासमणि द्वारा बनाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। १८५६ में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया।रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता हैं कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं "घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनंत, तट-विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।
रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यों में लगे रहते थे।परम आध्यात्मिक संत रामकृष्ण देव की बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। अफवाह फ़ैल गयी थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। गदाधर की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर उनका विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आई ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।कालान्तर में बड़े भाई देहावसान से गदाधर व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन न होते हुए भी, गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे पागल समझने लगे। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में स्थित गाँव जयरामबाटी में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर में पा सकते हैं। १८५९ में ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और २३ वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती रहीं और १८ वर्ष की आयु होने होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। गदाधर तब भी संन्यासी का जीवन जीते थे।
इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस। इसके बाद उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। सन् १८८६ ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दी। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
६-३-२०२२
***
लघुकथा
एक अधुनातन अतिबुद्धिजीवी पुत्री ने पिता को भारत में संदेश भेजा - 'डैड! मुझे एक लड़के से प्यार हो गया है। वह रूस में है मैं अमेरिका में। उसके माता-पिता चीन में हैं।हम एक दूसरे का पता मैरिज वेब साइट से मिला। हम डेटिंग वेबसाइट पर मिले। फेसबुक पर मित्र बने। वॉट्सऐप पर हमने कई बार बातचीत की। वीडियो चैट पर एक दूसरे को देखा। स्काइप पर मैंने उसे प्रोपोज़ किया। उसने टेलीग्राम पर एक्सेप्ट किया। हम एक साल से वाइबर पर रिलेशनशिप में हैं। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिता ने झुमरीतलैया से मेटा पर उत्तर दिया - 'क्या वाकई? विचित्र किन्तु सत्य। ट्विटर पर आमंत्रण पत्र भेजो, टैंगो पर विवाह करो, अमेज़न से बच्चे गोद लेकर और पेपाल से भेज दो। पति से मन भर जाए तो उसे ईबे पर बेचने से मत हिचकना।
***
आओ! कविता करना सीखें -
यह स्तंभ उनके लिए है जो काव्य रचना करना बिलकुल नहीं जानते किन्तु कविता करना चाहते हैं। हम सरल से सरल तरीके से कविता के तत्वों पर प्रकाश डालेंगे। जिन्हें रूचि हो वे अपने नाम सूचित कर दें। केवल उन्हीं की शंकाओं का समाधान किया जाएगा जो गंभीर व नियमित होंगे। जानकार और विद्वान साथी इससे जुड़कर अपने समय का अपव्यय न करें।
*
कविता क्यों?
अपनी अनुभूतियों को विचारों के माध्यम से अन्य जनों तक पहुँचाने की इच्छा स्वाभाविक है। सामान्यत: बातचीत द्वारा यह कार्य किया जाता है। लेखक गद्य (लेख, निबंध, कहानी, लघुकथा, व्यंग्यलेख, संस्मरण, लघुकथा आदि) द्वारा, कवि पद्य (गीत, छंद, कविता आदि) द्वारा, गायक गायन के माध्यम से, नर्तक नृत्य द्वारा, चित्रकार चित्रों के माध्यम से तथा मूर्तिकार मूर्तियों के द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। यदि आप अपने विचार व्यक्त करना नहीं चाहते तो कविता करना बेमानी है।
कविता क्या है?
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है।
कविता के तत्व
विषय
कविता करने के लिए पहला तत्व विषय है। विषय न हो तो आप कुछ कह ही नहीं सकते। आप के चारों और दिख रही वस्तुएँ प्राणी आदि, ऋतुएँ, पर्व, घटनाएँ आदि विषय हो सकते हैं।
विचार
विषय का चयन करने के बाद उसके संबंध में अपने विचारों पर ध्यान दें। आप विषय के संबंध में क्या सोचते हैं? विचारों को मन में एकत्र करें।
अभिव्यक्ति
विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त किया जा सकता है। इसे अभिव्यक्त करना कहते हैं।जब विचारों को व्याकरण के अनुसार वाक्य बनाकर बोला या लिखा जाता है तो उसे गद्य कहते हैं। जब विचारों को छंद शास्त्र के नियमों के अनुसार व्यक्त किया जाता है तो कविता जन्म लेती है।
लय
कविता लय युक्त ध्वनियों का समन्वय-सम्मिश्रण करने से बनती है। मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के उपादानों के साहचर्य में विकसित हुई हैं। प्रकृति में बहते पानी की कलकल, पक्षियों का कलरव, मेघों का गर्जन, बिजली की तडकन, सिंह आदि की दहाड़, सर्प की फुफकार, भ्रमर की गुंजार आदि में ध्वनियों तथा लय खण्डों की विविधता अनुभव की जा सकती है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनकर आप उसके सुख या दुःख का अनुमान कर सकते हैं। माँ शिशु के रोने से पहचान जाती है कि वह भूखा है या उसे कोई पीड़ा है।
कविता और लोक जीवन
कविता सामान्य जान द्वारा अपने विचारों और अनुभूतियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करने से उपजाति है। कविता करने के लिए शिक्षा नहीं समझ आवश्यक है। कबीर आदि अनेक कवि निरक्षर थे। शिक्षा काव्य रचना में सहायक होती है। शिक्षित व्यक्ति को भाषा के व्याकरण व् छंद रचना के नियमों की जानकारी होती है। उसका शब्द भंडार भी अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। इससे उसे अपने विचारों को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने में आसानी होती है।
आशु कविता
ग्रामीण जन अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित होने पर भी लोक गीतों की रचना कर लेते हैं। खेतों में मचानों पर खड़े कृषक फसल की रखवाली करते समय अकेलापन मिटाने के लिए शाम के सुनसान सन्नाटे को चीरते हुए गीत गाते हैं। एक कृषक द्वारा गाई गई पंक्ति सुनकर दूर किसी खेत में खड़ा कृषक उसकी लय ग्रहण कर अन्य पंक्ति गाता है और यह क्रम देर रात रहता है। वे कृषक एक दूसरे को नहीं जानते पर गीत की कड़ी जोड़ते जाते हैं। बंबुलिया एक ऐसा ही लोक गीत है। होली पर कबीरा, राई, रास आदि भी आकस्मिक रूप से रचे और गाए जाते हैं। इस तरह बिना पूर्व तैयारी के अनायास रची गई कविता आशुकविता कहलाती है। ऐसे कवी को आशुकवि कहा जाता है।
कविता करने की प्रक्रिया
कविता करने के लिए विषय का चयन कर उस पर विचार करें। विचारों को किसी लय में पिरोएँ। पहली पंक्ति में ध्वनियों के उतार-चढ़ाव को अन्य पंक्तियों में दुहराएँ।
अन्य विधि यह कि पूर्व ज्ञान किसी धुन या गीत को गुनगुनाएँ और उसकी लय में अपनी बात कहने का प्रयास करें। ऐसा करने के लिए मूल गीत के शब्दों को समान उच्चारण शब्दों से बदलें। इस विधि से पैरोडी (प्रतिगीत) बनाई जा सकती है।
हमने बचपन में एक बाल गीत मात्राएँ सीखते समय पढ़ा था।
राजा आ राजा।
मामा ला बाजा।।
कर मामा ढमढम।
नाच राजा छमछम।।
अब इस गीत का प्रतिगीत बनाएँ -
गोरी ओ गोरी।
तू बाँकी छोरी।।
चल मेले चटपट।
खूब घूमें झटपट।।
लोकगीतों और भजनों की लय का अनुकरण कर प्रतिगीत की रचना करना आसान है।
६-३-२०२१
***

गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
६-३-२०२१
***
दोहा-दोहा अलंकार
*
होली हो ली अब नहीं, होती वैसी मीत
जैसी होली प्रीत ने, खेली कर कर प्रीत
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ा भंग में रंग
होली की हड़बोंग है, हुरियारों के संग
*
आराधा चुप श्याम को, आ राधा कह श्याम
भोर विभोर हुए लिपट, राधा लाल ललाम
*
बजी बाँसुरी बेसुरी, कान्हा दौड़े खीझ
उठा अधर में; अधर पर, अधर धरे रस भीज
*
'दे वर' देवर से कहा, कहा 'बंधु मत माँग,
तू ही चलकर भरा ले, माँग पूर्ण हो माँग
*
'चल बे घर' बेघर कहे, 'घर सारा संसार'
बना स्वार्थ दे-ले 'सलिल', जो वह सच्चा प्यार
*
जितनी पायें; बाँटिए, खुशी आप को आप।
मिटा संतुलन अगर तो, होगा पश्चाताप।।
***
हिंदी ग़ज़ल
*
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
६-३-२०२०
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***
छंद सलिला:
अहीर छंद
*
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
***
मुक्तक
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
६-३-२०१४
***
गीत :
किस तरह आए बसंत?...
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आए बसंत?...
*
होरी कैसे छाए टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गई डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाए बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चराए?
सूखी नदिया कहाँ नहाए?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाए.
तकें सियासत चुप मुँह बाए.
खुद से खुद ही हैं शरमाए.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गई 'सलिल' चुप
किस तरह लाए बसंत?...
६-३-२०१०
*

बुधवार, 27 सितंबर 2023

सरस्वती कवच, वक्रोक्ति, नवगीत, विवेकानंद, परमहंस, शिवतांडवस्तोत्र, बुन्देली, मुक्तिका, दोहा,

सरस्वती कवच
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार विश्वविजय सरस्वती कवच का नित्य पाठ करने से साधक में अद्भुत शक्तियों का संचार होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। देवी सरस्वती के इस विश्वविजय सरस्वती कवच को धारण करके ही महर्षि वेदव्यास, ऋष्यश्रृंग, भरद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। यह विश्वविजय सरस्वती कवच इस प्रकार है
*
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वत:।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्र पातु निरन्तरम्।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोवतु।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंक्ती: सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदावतु।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।।
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदावतु।।
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु।
ॐ रागधिष्ठातृदेव्यै सर्वांगं मे सदावतु।।
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।
ॐ सदाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ॐ गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेवतु।।
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोध्र्वं सदावतु।।
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोवतु।।
(ब्र. वै. पु. प्रकृतिखंड ४/७३-८५
२७-९-२०१९
***
नवगीत
सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गिन-गिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
पण्डित वापिस जाएँ-बसाएँ
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएँ
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
२७-९-२०१७
***
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच हुए एक अद्भुत संवाद के अंश...
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स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल पाता। जीवन आपाधापी से भर गया है।
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं, लेकिन उत्पादकता आजाद करती है।
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो। यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को सिर्फ जियो।
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दु:खी क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी आदत बन गई है, इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते।
स्वामी विवेकानंद : अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है। सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है। अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं। इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता।
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां, हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है। पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है।
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने के कारण हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं?
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो। अपने भीतर झांको। आखें दृष्टि देती हैं। हृदय राह दिखाता है।
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है, जो दूसरे लोग तय करते हैं। संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो।
स्वामी विवेकानंद : कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है। जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं।
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, 'मैं ही क्यों?' जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, 'मैं ही क्यों?'
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूं?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफसोस के अपने अतीत का सामना करो। पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो। निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो।
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं?
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती। अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो। जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है। मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है।
***
कार्यशाला
सवाल-जवाब
*
सच कहूँ तो चोट उन को लगती है
झूठ कहने से जुबान मेरी जलती है - राज आराधना
*
न कहो सच, न झूठ मौन रहो
सुख की चाहत जुबान सिलती है -संजीव
***
शिवतांडवस्तोत्र
:: शिव स्तुति माहात्म्य ::
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धारें, कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधना सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विकराल सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम || २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २..
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पर लहरा रही हैं, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं विभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रमकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दहकाएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में रेवा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब नर्मदा जी के कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय: || १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखें हरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर. करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
दोहा-
*
पुरुष कभी स्वामी लगा, कभी चरण का दास
कभी किया परिहास तो, कभी दिया संत्रास
*
चित्र गुप्त जिसका, बनी मूरत कैसे बोल?
यदि जयंती तो मरण दिन, बतला मत कर झोल
***
मुक्तिका बुंदेली में
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।।
*
सूपनखा सें चाल-चलन कर
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
कीचड़ रहो उछाल हंस पर
मैला-बैठो दुष्ट काक है।।
*
अँधरा दहशतगर्द पाल खें
आँखन पे मल रओ आक है।।
*
कल अँधियारो पक्का जानो
बदी भाग में सिर्फ ख़ाक है।।
*
पख्तूनों खों कुचल-मार खें
दिल बलूच का करे चाक है।।
***
विमर्श - चरण स्पर्श क्यों?
*
चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है।
२७-९-२०१६
***
: अलंकार चर्चा १२ :
अर्थ द्वैत वक्रोक्ति है
किसी एक के कथन को, दूजा समझे भिन्न
वक्र उक्ति भिन्नार्थ में, कल्पित लगे अभिन्न
स्वराघात मूलक अलंकारों में वक्रोक्ति का स्थान महत्वपूर्ण है. किसी काव्य अंश में किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी बात में कोई दूसरा व्यक्ति जब मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना करता है तब वक्रोक्ति अलंकार होता है. वक्र उक्ति का अर्थ 'मूल से भिन्न' होता है. एक अर्थ में कही गयी बात को जान-बूझकर दूसरे अर्थ में लेने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२.
मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा होती है. इस आधार पर वक्रोक्ति अलंकार के २ प्रकार श्लेष वक्रोक्ति तथा काकु वक्रोक्ति हैं.
श्लेष वक्रोक्ति:
श्रोता अर्थ विशेष पर, देता है जब जोर
वक्ता ले अन्यार्थ को, ग्रहण करे गह डोर
एक शब्द से अर्थ दो, चिपक न छोड़ें हाथ
वहीं श्लेष वक्रोक्ति हो, दो अर्थों के साथ
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ
वक्ता-श्रोता हँस करें, भिन्न शब्द के अर्थ
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष वक्रोक्ति
श्रोता-वक्ता सजग हों, मत समझें अन्योक्ति
जिस काव्यांश में एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग कर वक्ता का अर्थ एक अर्थ विशेष पर होता है किन्तु श्रोता या पाठक का किसी दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग होने पर वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है.
उदाहरण:
१. हैं री लाल तेरे?, सखी! ऐसी निधि पाई कहाँ?
हैं री खगयान? कह्यौं हौं तो नहीं पाले हैं?
हैं री गिरिधारी? व्है हैं रामदल माँहिं कहुँ?
हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
हैं री सखी कृष्णचंद्र? चंद्र कहूँ कृष्ण होत?
तब हँसि राधे कही मोर पच्छवारे हैं?
श्याम को दुराय चन्द्रावलि बहराय बोली
मोरे कैसे आइहैं जो तेरे पच्छवारे हैं?
२. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस है न कछू हरि हैं तो हरैवे
वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे
दीबे को ल्याये हैं माल तुम्हें, रगुनाथ ले आये हैं माल लरैबे
छोड़िए मान वे पा पकरैं, कहैं, पाप करैं कहैं अबस करैबे
इस उदाहरण में 'हरि' के दो अर्थ 'कृष्ण' और 'हारेंगे', विनती के दो अर्थ 'प्रार्थना' और 'बिना स्त्री के', 'माल' के दो अर्थ 'माला' तथा 'सामान' तथा 'पाप करै' के दो अर्थ 'पैर पकड़ें' तथा 'कुकर्म करें हैं.
३. कैकेयी सी कोप भवन में, जाने कब से पड़ी हुई है
दशरथ आये नहीं मनाने, फाँस ह्रदय में गड़ी हुई है -चंद्रसेन विराट, ओ गीत के गरुड़, ३२
यहाँ कैकेयी के दो अर्थ 'रानी' तथा 'जनता' और दशरथ के दो अर्थ 'राजा' तथा 'शासक' हैं.
काकु वक्रोक्ति:
जब विशेष ध्वनि कंठ की, ध्वनित करे अन्यार्थ
तभी काकु वक्रोक्ति हो, लिखते समझ समर्थ
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य
व्यक्त कंठ की खास ध्वनि, करती- समझें धन्य
किसी काव्य पंक्ति में कंठ से उच्चरित विशेष ध्वनि के कारण शब्द का मूल से भिन्न दूसरा अर्थ ध्वनित हो तो वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. भरत भूप सियराम लषन बन, सुनि सानंद सहौंगौ
पर-परिजन अवलोकि मातु, सब सुख संतोष लहौंगौ
इस उदाहरण में भरतभूप, सानंद तथा संतोष शब्दों का उच्चारण काकु युक्त होने से विपरीत अर्थ ध्वनित होता है.
२. बातन लगाइ सखान सों न्यारो कै, आजु गह्यौ बृषभान किशोरी
केसरि सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी
हे रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाइ कै गोरी
छोड़ि दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि आइयो खेलेन होरी
यहाँ 'बहुरो फिरि आइयो' में काकु ध्वनि होने से व्यंग्यार्थ है कि 'अब कभी नहीं आओगे'.
३. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं?, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं
दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में 'मंज़र', 'गाते', ''चिल्लाने', 'तालाब', 'पानी', 'फूल', तथा 'कुम्हलाने' शब्दों में काकु ध्वनि से उत्पन्न व्यंग्यार्थ ने आपातकाल में सेंसरशिप के बावजूद कवि का शासन परिवर्तन का सन्देश लोगों को दिया.
२७-९-२०१५
***
रचना पर रचना रचें
*
संध्या सिंह:
पूरब से जीवन उगा ,प्राण-वायु चहुँ ओर
बूँद- बूँद अमृत गिरा , सुधा-कलश है भोर
*
संजीव
दोहा:
सतरंगी संध्या सरस, सुधियों संग समेट
सिंह सूर्य तम का करे, 'सलिल'अथक आखेट
*
सोरठा:
अधर धरे मुस्कान, शांत सौम्य सुन्दर छटा
किंचित सके बखान, सीमा कौन असीम की
*
हाइकु:
सूर्य किरण
गगन से धरा का
करे वरण
*
सूरज झाँके
भू की चुनरिया में
किरणें टाँके
*
जनक छन्द:
फूल फूलते झूलते
रवि किरणों को चूमते
नहीं गर्व से फूलते
*
***
विघ्नेश्वर गणेश जी की विदाई-बेला:
प्रस्तुत आरती में जोड़ी गयी अंतिम दो पंक्तियाँ मूल पंक्तियों की तरह निर्दोष नहीं है. इस परंपरागत आरती में हम अपने मनोभाव पिरोएँ इस तरह कि छंद, भाव, बिम्ब निर्दोष रहे.
*
अग्रजवत श्री चंद्रसेन विराट ने प्रचलित आरती में एक पद जोड़ा है. उन्हें हार्दिक बधाई।
प्रथम पूज्य ज्योतिर्मय, बुद्धि-बल विधाता
मंगलमय पूर्णकाम ऋद्धि-सिद्धि दाता
कदली फल मोदक का प्रिय उन्हें कलेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
मेरी समिधा:
जड़-जमीन में जमाये दूबा मन भाये
विपदा को जीतें प्रभु! पूजें-हर्षायें
स्नेह 'सलिल' साँसें हों, जीवन हो रेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
***
कविता:
शेर के बाड़े में
कूदा आदमी
शेर था खुश
कोई तो है जो
न घूरे दूर से
मुझसे मिलेगा
भाई बनकर.
निकट जा देखा
बँधी घिघ्घी
थी उसकी
हाथ जोड़े
गिड़गिड़ाता:
'छोड़ दो'
दया आयी
फेरकर मुख
चल पड़ा
नरसिंह नहीं
नरमेमने
जा छोड़ता हूँ
तब ही लगा
पत्थर अचानक
हुआ हमला
क्यों सहूँ मैं?
आत्मरक्षा
है सदा
अधिकार मेरा
सोच मारा
एक थप्पड़
उठा गर्दन
तोड़ डाली
दोष केवल
मनुज का है
२७-९-२०१४
***

बुधवार, 8 जुलाई 2020

दृष्टांत कथा गुरु क्यों?

पारंपरिक लघु कथा : दृष्टांत कथा 
गुरु क्यों?
*
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की खेती सुनकर तरुण नरेन्द्र ने एक दिन उनसे कहा, " स्वामीजी! मैं रामायण जानता हूँ , भगवद्गीता जानता हूँ, सारे वेद पढ़े हैं और हर विषय पर अच्छा व्याख्यान दे लेता हूँ, फिर मुझे गुरु की आवश्यकता क्यों ?"
परमहंस ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर्फ मुस्कुरा दिए। 
कुछ दिनों बाद परमहंस ने नरेन्द्र को बुलवाया, कुछ सामान और मान-पते की एक पर्ची देकर कहा, " इसे नदी के पार इनको कल दे आओ।"
नरेन्द्र ने सामान ले लिया। दूसरे दिन सवेरे उस गाँव की तरफ निकल पड़े ताकि जल्दी से देकर वापस आ सकें। रास्ते में एक नदी पड़ती थी जहाँ नाव तैयार थी, नाविक उन्हें लेकर चल पड़ा। नदी के पार उतर कर उन्होंने देखा कि घाट से कई सारे रास्तेे, कई गाँवों की तरफ जाते हैं। उन्होंने नाविक से पूछा, "भैया ! इस गाँव तक पहुँचने का रास्ता कौन सा है ? 
नाविक ने कहा, "मुझे नहीं मालुम। "
नरेन्द्र असमंजस में पड़ गए।  अब क्या करें ? यहाँ तो कई रास्ते हैं,  किससे जाएँ कि बिना भटके सही गाँव में पहुँच जाएँ। काफी देर तक देखते रहे, कोइ अन्य जानकार नहीं आया तो नाववाले से बोले, "भैया, मुझे वापस ले चलो।  बिना रास्ता जाने ही चला आया। इस बार पूछ कर आऊँगा।"
वापस आकर नरेन्द्र स्वामी परमहंस के पास रास्ता पूछने गए तो उन्होंने रास्ता बताने के स्थान पर सामान वापिस ले लिया और कहा की अब पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है यह तो तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है।  गंतव्य स्थान पर जाने के लिए तुम्हारे पास माध्यम (नाव) है, संसाधन (नाविक) है, यह भी मालूम है कि क्या करना है (सामान देना है), कहाँ जाना है, लेकिन रास्ता नहीं मालूम ! बिना मार्गदर्शन के किस रास्ते से भटकते रह जाएगा। 
नरेंद्र समझ गए कि गुरु मार्गदर्शक होता है। उसे पता होता है कि किस शिष्य को कौन सा सामान देना है, कौन सी राह बतानी है? 
***