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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

द्विपदियाँ,दोहा मुक्तिका,भोजपुरी दोहा,२१ बुंदेली लोक कथाएँ,रामायण एक मुक्तकी, दुर्गा, साधना

देवी गीत -
*
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
नीले गगनवा से उतरो हे मैया! २१
धरती पे आओ तनक छू लौं पैंया। २१
माँगत हौं अँचरा की छैंया। १६
न मो खों मैया बिसारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
खेतन मा आओ, खलिहानन बिराजो २१
पनघट मा आओ, अमराई बिराजो २१
पूजन खौं घर में बिराजो १५
दुआरे 'माता!' गुहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
साजों में, बाजों में, छंदों में आओ २२
भजनों में, गीतों में मैया! समाओ २१
रूठों नें, दरसन दे जाओ १६
छटा संतानें निहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
***
एक मुक्तकी रामायण
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
तार शबरी, मार रावण, सिंधु बाँधा, पूज शिव।
सिय छुड़ा, आ अवध, जन आकांक्षा पूरी करी।।
यह विश्व की सबसे छोटी रामायण है।
'रामायण' = 'राम का अयन' = 'राम का यात्रा पथ', अयन यात्रापथवाची है।
दोहा सलिला
ऊग पके चक्की पिसे, गेहूँ कहे न पीर।
गूँथा-माढ़ा गया पर, आँटा हो न अधीर।।
कनक मुँदरिया से लिपट, कनक सराहे भाग।
कनकांगिनि कर कमल ले, पल में देती त्याग।।
लोई कागज पर रचे, बेलन गति-यति साध।
छंदवृत्त; लय अग्नि में, तप निखरे निर्बाध।।
दरस-परस कर; मत तरस, पाणिग्रहण कर धन्य।
दंत जिह्वा सँग उदर मन, पाते तृप्ति अनन्य।।
ग्रहण करें रुचि-रस सहित, हँस पाएँ रस-खान।
रस-निधि में रस-लीन हों, संजीवित श्रीमान।।
९-४-२०२२
***
कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश : लोक में नैतिकता अब भी हैं शेष
समीक्षक ; प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
*
कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी लेमिनेटेड पेपरबैक, पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स नई दिल्ली।
*
लोक कथाएँ ग्राम्यांचलों में पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रहीं ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें लोक जीवन, लोक मूल्यों और लोक संस्कृति की झलक अंतर्निहित होती है। ये कहानियाँ श्रुतियों की तरह मौखिक रूप से कही जाते समय हर बार अपना रूप बदल लेती हैं। कहानी कहते समय हर वक्ता अपने लिए सहज शब्द व स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करता है। इस कारण इनका कोई एक स्थिर रूप नहीं होता। इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्य साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने देश के केंद्र में स्थित प्रांत मध्य प्रदेश की एक प्रमुख लोकभाषा बुंदेली में कही-सुनी जाती २१ लोक कथाएँ प्रस्तुत की हैं। पुस्तकारंभ में प्रकाशक नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में देश के सभी २८ राज्यों और ९ केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित नारी मन, बाल मन, युवा मन और लोक मन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना की जानकारी दी है।

पुरोवाक के अन्तर्गत सलिल जी ने पाठकों की जानकारी के लिये लोक कथा के उद्गम, प्रकार, बुंदेली भाषा के उद्भव तथा प्रसार क्षेत्र की लोकोपयोगी जानकारी दी है। लोक कथाओं को चिरजीवी बनाने के लिए सार्थक सुझावों ने संग्रह को समृद्ध किया है। लोक कथा ''जैसी करनी वैसी भरनी'' में कर्म और कर्म फल की व्याख्या है। लोक में जो 'बोओगे वो काटोगे' जैसे लोकोक्तियाँ चिरकाल से प्रचलित रही हैं। 'भोग नहीं भाव' में राजा सौदास तथा चित्रगुप्त जी की प्रसिद्ध कथा वर्णित है जिसका मूल पदम् पुराण में है। यहाँ कर्म में अन्तर्निहित भावना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। लोक कथा 'अतिथि देव' में गणेश जन्म की कथा वर्णित है. साथ ही एक उपकथा भी है जिसमें अतिथि सत्कार का महत्व बताया गया है। 'अतिथि देवो भव' लोक व्यवहार में प्रचलित है ही। सच्चे योगी की पहचान संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिए एक राज द्वारा किए गए प्रयास और मिली सीख पर केंद्रित है लोक कथा 'कौन श्रेष्ठ'। 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' का आशीर्वाद नव वधुओं के घर के बड़े देते रहे हैं। छठ मैया का पूजन बुंदेलखंड में बहुत लोक मान्यता रखता है। यह लोक कथा छठ मैया पर ही केंद्रित है।

लोक कथा 'जंगल में मंगल' में श्रम की प्रतिष्ठा और राज्य भक्ति (देश भक्ति) के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा का संदेश समाहित है। राजा हिमालय की राजकुमारी पार्वती द्वारा वनवासी तपस्वी शिव से विवाह करने के संकल्प और तप पर केंद्रित है लोक कथा 'सच्ची लगन'। यह लोक कथा हरतालिका लोक पर्व से जुडी हुई है। मंगला गौरी व्रत कथा में प्रत्युन्नमतित्व तथा प्रयास का महत्व अंतर्निहित है। यह संदेश 'कोशिश से दुःख दूर' शीर्षक लोक कथा से मिलता है। आम जनों को अपने अभावों का सामना कर, अपने उज्जवल भविष्य के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होते हैं। यह प्रेरक संदेश लिए है लोककथा 'संतोषी हरदम सुखी'। 'पजन के लड्डू' शीर्षक लघुकथा में सौतिया डाह तथा सच की जीत वर्णित है। किसी को परखे बिना उस पर शंका या विश्वास न करने की सीख लोक कथा 'सयाने की सीख' में निहित है।

भगवान अपने सच्चे भक्त की चिंता स्वयं ही करते हैं, दुनिया को दिखने के लिए की जाती पिजा से प्रसन्न नाहने होते। इस सनातन लोक मान्यता को प्रतिपादित करती है लोक कथा 'भगत के बस में हैं भगवान'। लोक मान्यता है की पुण्य सलिला नर्मदा शिव पुत्री हैं। 'सुहाग रस' नामित लोक कथा में भक्ति-भाव का महत्व बताते हुए इस लोक मान्यता के साथ लोक पर्व गणगौर का महत्व है। मध्य प्रदेश के मालवांचल के प्रतापी नरेश विक्रमादित्य से जुडी कहानी है 'मान न जाए' जबकि 'यहाँ न कोई किसी का' कहानी मालवा के ही अन्य प्रतापी नरेश राजा भोज से संबंधित है। महाभारत के अन्य पर्व में वर्णित किन्तु लोक में बहु प्रचलित सावित्री-सत्यवान प्रसंग को लेकर लिखी गयी है 'काह न अबला करि सकै'। मनुष्य को किसी की हानि नहीं करनी चाहिए और समय पर छोटे से छोटा प्राणी भी काम आ सकता है। यह कथ्य है 'कर भला होगा भला' लोक कथा का। गोंडवाना के पराक्रमी गोंड राजा संग्रामशाह द्वारा षडयंत्रकारी पाखंडी साधु को दंडित करने पर केंद्रित है लोक कथा 'जैसी करनी वैसी भरनी'। 'जो बोया सो काटो' …
९-४-२०२२
***
मुक्तिका
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मेहनत अधरों की मुस्कान
मेहनत ही मेरा सम्मान
बहा पसीना, महल बना
पाया आप न एक मकान
वो जुमलेबाजी करते
जिनको कुर्सी बनी मचान
कंगन-करधन मिले नहीं
कमा बनाए सच लो जान
भारत माता की बेटी
यही सही मेरी पहचान
दल झंडे पंडे डंडे
मुझ बिन हैं बेदम-बेजान
उबटन से गणपति गढ़ दूँ
अगर पार्वती मैं लूँ ठान
सृजन 'सलिल' का है सार्थक
मेहनतकश का कर गुणगान
२०-४-२१
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दोहा मुक्तिका
*
झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
*
आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
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भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
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खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
द्विपदियाँ
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
९-४-२०१०

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

lekh: sanjiv

लेख:
जन-जन की प्रिय रामकथा 
संजीव
.
राम कथा चिरकाल से विविध अंचलों में कही-सुनी-लिखी-पढ़ी जाती रही है. भारत के अंचलों और देश के बाहर भी पंडित जन रामकथा की व्याख्या अपनि-अपनी रूचि के अनुरूप करते रहे हैं. राम कथा सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि ने रामायण शीर्षक से कही. तुलसी ने इसे रामचरित मानस नाम दिया किन्तु लोक ने ‘रामायण’ को ही अपनाये रखा. राम जिन अंचलों में गये वहाँ उनका प्रभाव स्वाभाविक है किन्तु जिन अंचलों में राम नहीं जा सके वहाँ भी काल-क्रम में राम-कथा क्रमश: विस्तार पाती रही. पंजाब, गुजरात तथा महाराष्ट्र ऐसे ही अंचल हैं जहाँ राम-कथा को प्रभाव आज तक अक्षुण है.

पंजाब में रामकथा
पंजाब भारत के आक्रान्ताओं से सतत जूझता रहा है. यहाँ साहित्य सृजन के अनुकूल वातावरण न होने पर भी संतों ने जन सामान्य में निर्गुण पंथी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया और सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनाकर्षण बनाये रखा. राम का संघर्ष, आततायियों से साधनों के आभाव में भी जूझना और आम जनों के सहयोग से विजय पाना पंजाब के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया. निर्गुणपंथी गुरुओं ने राम-कथा के दृष्टान्तों और प्रतीकों को जन सामान्य में स्थापित कर देशप्रेम, साहस और संघर्ष की अलख जलाये रखी.
कालांतर में राम के जीवन के घटनाक्रम और राम के आचरण को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया. गुरुओं के राम-प्रेम, राम-कथा गायन और राम भक्ति से अनुप्राणित आम जन ने राम को ईशावतार स्वीकार कर लिया. पंजाब को राम के ब्रम्हत्व से अधिक राम का योद्धा रूप भाया.गुरु गोबिंद सिंह ने स्वयं को रघुवंशी बताया और बृज भाषा में ‘रामावतार’ शीषक राम काव्य-कृति की रचना की.
पश्चिमी पंजाब में सन १८६८ में क्षत्रिय परिवार में जन्मे रामलुभाया अणद दिलशाद ने १९१७ में कश्मीर राज्य के पुलिस विभाग से अवकाश प्राप्त कर १९४०-४६ के मध्य वाल्मीकि रामायण में वर्णित राम-कथा के अधर पर फारसी लिपि में ‘पंजाबी रामायण’ की रचना की. कवि के पुत्र विश्वबन्धु ने इसे नागरी लिपि में प्रकाशित किया. कवि ने अप्रासंगिक कथाओं को छोड़कर मुख्या कथा को वरीयता दी. अनावश्यक विस्तार से बचते हुए ताड़का-वध, अहल्या आख्यान जैसे प्रसंगों में शालीनता और मर्यादा का पालन किया गया है. सीता स्वयंवर के प्रसंग में रावण द्वारा शिव-धनुष उठाने का प्रयास और असफल होना वर्णित है. भरत का राम-वियोग प्रसंग बारहमासा शैली में वर्णित है. उत्तर काण्ड की सकल कथा वाल्मीकि रामायण से ली गयी है किन्तु राम द्वारा शूद्र तापस की हत्या के स्थान पर उसे धन-सम्मान दे तप से विरत करना वर्णित है. संभवत: कवि संदेश देना चाहता है कि समाज में अपने दायित्व का निर्वहन करने पर आवश्यकता पूर्ति होती रहे यह देखना शासक का दायित्व है.
पंजाबी रामायण में राम को ब्रम्ह के साथ-साथ सहृदयी, पराक्रमी और सजग शासक भी बताया गया है. किस्सा शैली में रचित इस कृति में मुख्यत: २०-२० पर यति वाला बेंत छंद आदि से अंत तक प्रयोग किया गया है. हिंदी-संस्कृत के अन्य छंदों का प्रयोग अल्प है. ग्रन्थ में अरबी-फारसी के पंजाब में प्रचलित शब्दों का प्रयोग इसे आम जन के अनुकूल बनाता है. विवाहादि प्रसंगों में पंजाबी के स्थानीय प्रभाव की अनुभूति इसे जीवन्तता प्रदान करती है.
गुजरात में राम कथा
गुजरात में राम का जाना नहीं हुआ पर वह राम-कथा के प्रभाव से अछूता न रहा. यह अवश्य है की गुर्जरभूमि में कृष्ण-कथा के पश्चात् राम-कथा का प्रसार हुआ. कृष्ण कथा-प्रसंगों को मुक्तक काव्य के रूप में प्रस्तुत करने की पूर्व परंपरा के प्रभाव में आरम्भ में राम-कथा भी खंड काव्य अथवा घटना विशेष को केंद्र में रखकर मुक्तक काव्य के रूप में रची गयीं. रास शैली की गेयता इन रचनाओं को सरस बनाती है. १५ वीं सदी से जैन मुनियों ने राम-कथा को केंद्र में रखकर सृजन किया. वडोदरा के समीप जन्मे वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित गिरिधर कवि (१७६७-१८५२) ने सन १८३५ में ‘गिरिधर रामायण’ की रचना की. गिरिधर ने उस समय तक उपलब्ध विविध राम कथों का अध्ययन कर अपनी कृति की रचना की और उसमें वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, हनुमन्नाष्टक के साथ कुछ अन्य रामायणों का उल्लेख किया जो अब अप्राप्य हैं.
‘गिरिधर रामायण’ में वर्णित कथा-क्रम में रावण द्वारा कौसल्या हरण, चरु-प्रसन में कैकेयी द्वारा क्लेश, हनुमान का रामानुज होना, राम द्वारा तीर्थ यात्रा, रामाभिषेक में सरस्वती नहीं कल्कि द्वारा विघ्न आदि प्रसंग ‘आनंद रामायण’ की तरह वर्णित हैं. ‘गिरिधर रामायण’ में मंथरा-राम के विवाद का कारण उसके द्वारा झाड़ू लगाते समय उड़ रही धूल से क्षुब्ध राम द्वारा कुबड़ा किया जाना, गुह्यक द्वारा राम के पैर धोकर कंधे पर बैठाकर नाव में चढ़ाना, शूर्पणखा-पुत्र शम्बर का वध लक्ष्मण द्वारा करना तथा सुलोचना-प्रसंग भी वर्णित है. सीता निर्वासन के कारण लोकापवाद, रजक द्वारा लांछन तथा राम द्वारा दशरथ की आयु भोगना बताया गया है. तुलसी कृत गीतावली तथा उडिया रामायण के अनुसार भी इस समय दशरथ की अकाल मृत्यु के कारण राम उनकी आयु भोग रहे थे, अत: सीता के साथ दाम्पत्य जीवन नहीं निभा सकते थे इसलिए सीता को वनवास दिया गया.
जैन कवियों का अवदान चित्र-वृत्तान्त के रूप में स्मरणीय है. गुजराती रामायण में कैकेयी सेता से रावण का चित्र बनाकर दिखने का आग्रह करती है. लव-कुश से राम तथा अन्यों के युद्ध का वर्णन भी है. एक महत्त्व पूर्ण आधुनिक प्रभाव यह है कि राम के पक्ष में अयोध्यावासी हड़ताल करते हैं: ‘नग्र माहे पड़ी हड़ताल’. गिरिधर ने प्रचलित जनश्रुतियों, लोकगीतों आदि को ग्रहण कर कथा को मौलिक, रोचक और लोकप्रिय बनाने में सफलता पायी है. अनेक प्रसंगों में तुल्सो कृत मानस से कथा-साम्य तथा नामकरण ‘रामचरित्र’ उल्लेख्य है. सामाजिक परिवेश, जातियों, संस्कारों, परिधानों आदि दृष्टियों से ‘गिरिधर रामायण’ गुजरात का प्रतिनिधत्व करती है.
महाराष्ट्र में राम कथा
महाराष्ट्र में विद्वज्जनों और सुसंस्कृत परिवारों में वैदिक तथा जैन संतों द्वारा रचित राम कथाओं का प्रचलन पूर्व से होने पर भी आम जन में इसका प्रचार १७ वीं सदी में स्वामी रामदास द्वारा रामभक्ति संप्रदाय का श्री गणेश कर धनुर्धारी राम को आराध्य मानकर राम-हनुमान मंदिरों की स्थापन के साथ-साथ हुआ. नासिक में पंचवटी को राम-सीता के वनवास काल का स्थान कहा गया. संत एकनाथ (१५३३ – १५९९ ई.) कृत ‘भावनार्थ रामायण’ जिसके ७ कांडों में ३७५०० ओवी छंद हैं, महाराष्ट्र की प्रतिनिधि रामायण है. युद्धकाण्ड का कुछ भाग रचने के बाद एकनाथ जी का देहावसान हो जाने से शेष भाग उनके शिष्य गावबा ने पूर्ण किया.
‘भावनार्थ रामायण’ में रामकथा प्रस्तुति करते समय अध्यात्म रामायण, पुराणों, मानस, अन्य काव्य कथाओं तथा नाटकों से कथा सूत्र प्राप्त किये गये हैं. शिशु राम में विष्णु रूप का दर्शन, सीता द्वारा धनुष उठाना, रावण की नाभि में अमृत होना, लक्ष्मण-रेखा प्रसंग, हनुमान व अंगद दोनों द्वारा रावण-सभा में पूंछ की कुंडली बनाकर उस पर आसीन होना, सुलोचना की कथा, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा-पुत्र साम्ब का वध आदि प्रसंगों का मानस से समय है. ‘पउस चरिउ’ में भरत-शत्रुघ्न दोनों कैकेयी के पुत्र वर्णित हैं. राम के असुर संहारक ब्रम्ह रूप को भक्तवत्सल मर्यादा पुरुषोत्तम रूप पर वरीयता दी गयी है. सीता द्वारा मंगलसूत्र धारण करने, जमदग्नि की सेना में पश्चिमी महाराष्ट्र निवासी हब्शियों के होने, मराठा क्षत्रियों के ९६ कुलों के अनुरूप सीता स्वयंवर में ९६ नरेशों की उपस्थिति आदि से स्थानीयता का पुट देने का सार्थक उपक्रम किया गया है. एकनाथ रचित ‘भावनार्थ रामायण’ से प्रेरित समर्थ स्वामी रामदास ने राम, राम मन्त्र, हनुमद-भक्ति तथा जयघोष कर मुग़ल आक्रान्ताओं से पीड़ित-शोषित जन सामान्य में आशा, बल और पौरुष का संचार किया गया. रामभक्तों के जिव्हाग्र पर रहनेवाला मन्त्र ‘श्री राम जय राम जय-जय राम’ का उत्स महाराष्ट्र की रामभक्त संत परंपरा में ही है.
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