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सोमवार, 21 अगस्त 2017

मंगल कामनाएँ

आपकी भावनाएँ
- राकेश खंडेलवाल
शारदा के करों से प्रवाहित सलिल, देह धर भू पे उतरा दिवस आज के
बीन के तार झंकार कर भर गये, ज्ञान का कोष उसमें सहज गूंज कर
वो घिरा बादलों की तरह कर रहा, काव्य अमृत की वृष्टि न पल भी रुके
उसको अर्पित हैं शुभकामनायें मेरी, एक मुट्ठी भरे शब्द में गूँथ कर
- डॉ. महेशचंद्र गुप्ता 'खलिश', दिल्ली
जो निरंतर करे काव्य-वृष्टि सदा, जो समर्पित हुआ नागरी के लिए

आज है जन्म दिन, पुण्य वो आत्मा, निस्पृह रह करे जा रही है सृजन

काव्य की है विधा कौन बतलाओ तो जो अछूती सलिल की कलम से रही

है श्रृंगार उसने रचा तो ख़लिश हैं रचे उसने हरि भक्ति के हैं भजन. 

आभार शत-शत 
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है। 
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।। 
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए- 
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***

शनिवार, 1 जुलाई 2017

gazal

एक बहर दो ग़ज़लें
बहर - २१२२ २१२२ २१२
छन्द- महापौराणिक जातीय, पीयूषवर्ष छंद
*
१. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
*
बस दिखावे की तुम्हारी प्रीत है
ये भला कोई वफ़ा की रीत है
*
साथ बस दो चार पल का है यहाँ
फिर जुदा हो जाए मन का मीत है
*
ज़िंदगी की असलियत है सिर्फ़ ये
चार दिन में जाए जीवन बीत है
*
फ़िक्र क्यों हो इश्क़ के अंजाम की
प्यार में क्या हार है क्या जीत है
*
कब ख़लिश चुक जाए ये किसको पता
ज़िंदगी का आखिरी ये गीत है.
*****
२. संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हारिए मत, कोशिशें कुछ और हों
कोशिशों पर कोशिशों के दौर हों
*
श्याम का तन श्याम है तो क्या हुआ?
श्याम मन में राधिका तो गौर हों
*
जेठ की गर्मी-तपिश सह आम में
पत्तियों संग झूमते हँस बौर हों
*
साँझ पर सूरज 'सलिल' है फिर फ़िदा
साँझ के अधरों न किरणें कौर हों
*
'हाय रे! इंसान की मजबूरियाँ
पास रहकर भी हैं कितनी दूरियाँ' गीत इसी बहर में है।
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