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बुधवार, 16 जुलाई 2025

जुलाई १६, मात्रा, दोहा विधान, यमक, लघुकथा, मालिनी छंद, जनक छन्द, बाल गीत, हास्य, भोर, भाषा गीत

सलिल सृजन जुलाई १६
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें।
***
दोहा लेखन विधान:
१. दोहा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है कथ्य। कथ्य से समझौता न करें। कथ्य या विषय को सर्वोत्तम रूप में प्रस्तुत करने के लिए विधा (गद्य-पद्य, छंद आदि) का चयन किया जाता है। कथ्य को 'लय' में प्रस्तुत किया जाने पर 'लय'के अनुसार छंद-निर्धारण होता है। छंद-लेखन हेतु विधान से सहायता मिलती है। रस तथा अलंकार लालित्यवर्धन हेतु है। उनका पालन किया जाना चाहिए किंतु कथ्य की कीमत पर नहीं। दोहाकार कथ्य, लय और विधान तीनों को साधने पर ही सफल होता है।
२. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं। हर पद में दो चरण होते हैं।
३. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। सामान्यत: प्रथम चरण में उद्भव, द्वितीय-तृतीय चरण में विस्तार तथा चतुर्थ चरण में उत्कर्ष या समाहार होता है।
४. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
५. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है। पदारंभ में 'इसीलिए' वर्जित, 'इसी लिए' मान्य।
६. विषम चरणांत में 'सरन' तथा सम चरणांत में 'जात' से लय साधना सरल होता है है किंतु अन्य गण-संयोग वर्जित नहीं हैं।
७. विषम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण मेंकल-बाँट ३ ३ २ ३ २ तथा सम कला से आरंभ दोहे के विषम चरण में में कल बाँट ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों की कल-बाँट ४ ४.३ या ३३ ३ २ ३ होने पर लय सहजता से सध सकती है।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी के व्याकरण तथा मात्रा गणना नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
९. आधुनिक हिंदी / खड़ी बोली में खाय, मुस्काय, आत, भात, आब, जाब, डारि, मुस्कानि, हओ, भओ जैसे देशज / आंचलिक शब्द-रूपों का उपयोग न करें। बोलियों में दोहा रचना करते समय उस बोली का यथासंभव शुद्ध रूप व्यवहार में लाएँ।
१०. श्रेष्ठ दोहे में अर्थवत्ता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता, सरलता तथा सरसता होना चाहिए।
११. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथासंभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य। 'न' सही, 'ना' गलत। 'इक' गलत।
१२. दोहे में यथासंभव अनावश्यक शब्द का प्रयोग न हो। शब्द-चयन ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा अधूरा सा लगे।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।
१५. दोहा सम तुकांती छंद है। सम चरण के अंत में सामान्यत: वार्णिक समान तुक आवश्यक है। संगीत की बंदिशों, श्लोकों आदि में मात्रिक समान्त्तता भी राखी जाती रही है।
१६. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। लयभिन्नता स्वीकार्य है लयभंगता नहीं। 
*
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण-आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या व् अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग पद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद, सार्थक-सार्थक यमक
अधरान = अधरों पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
१६-७-२०२१
***
लघुकथा- विकल्प
पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।
सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।
गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
***
दोहा सलिला
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
क्रांति करें संपूर्ण, यह मिलकर किया विचार.
सत्ता पाते ही किए, भ्रांति भरे आचार.
*
सर्वोदय को भूलकर, करें दलोदय लोग.
निज हित साधन ही हुआ, लक्ष्य यही है रोग
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
मालिनी छंद
*
विधान
गणसूत्र : न न म य य
पदभार : १११ १११ २२२ १२२ १२२
*
अमल विमल गंगा ही हमेशा रहेगी
'मलिन न कर' पूछो तो हमेशा कहेगी
जननि कह रहा इंसां रखे साफ़ भी तो -
मलिन सलिल हो तो प्यास से भी दहेगी
*
नित प्रति कुछ सीखो, पाठ भूलो नहीं रे!
रच नव कविताएँ, जाँच भी लो कभी रे!
यह मत समझो सीखा नहीं भूलते हैं-
फिर-फिर पढ़ना होता, नहीं भूलना रे!
*
प्रमुदित जब होते, तो नहीं धैर्य खोते।
नित श्रम कर पाते, तो नहीं आज रोते।
हमदम यदि पाते, हो सुखी खूब सोते।
खुद रचकर गाते, छंद आनंद बोते।
*
नयन नयन में डूबे रहे आज सैंया।
लगन-अगन ऐसी है नहीं लाज सैंया।
अमन न मन में तेरा यहाँ राज सैंया।
ह्रदय ह्रदय से मिला बना काज सैंया।
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
विश्व वाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
****
सुन -सुन मितवा रे,चाँदनी रात आई।
मधुर धुन बजा लें,रागिनी राग लाई।
दमक- दमक देखो,दामिनी गीत गाई
नत -नत पलकों से कामिनी भी लजाई। -सरस्वती कुमारी
*
छमछम कर देखो,सावनी बूँद आती।
विहँसकर हवा में,डोलती डाल पाती।
पुलक-पुलक कैसे,नाचती है धरा भी।
मृदु प्रणय कथा को ,बाँचती है धरा भी। -सरस्वती कुमारी
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
*
अतुलित बल धामं, स्वर्णशैलाभदेहं
दनुज वन कृशाणं ज्ञानिनामग्रगण्यं
सकल गुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामी -तुलसी
१६-७-२०१९
***
बाल गीत:
धानू बिटिया
*
धानू बिटिया रानी है।
सच्ची बहुत सयानी है।।
यह हरदम मुस्काती है।
खुशियाँ खूब लुटाती है।।
है परियों की शहजादी।
तनिक न करती बर्बादी।।
आँखों में अनगिन सपने।
इसने पाले हैं अपने।।
पढ़-लिख कभी न हारेगी।
हर दुश्मन को मारेगी।।
हर बाधा कर लेगी पार।
होगी इसकी जय-जयकार।।
**
***
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब के कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किस्में क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
१४.६.२०१८
***
भोर पर दोहे
*
भोर भई, पौ फट गई, स्वर्ण-रश्मि ले साथ।
भुवन भास्कर आ रहे, अभिनंदन दिन-नाथ।।
*
नीलाभित अंबर हुआ, रक्त-पीत; रतनार।
निरख रूप-छवि; मुग्ध है, हृदय हार कचनार।।
*
पारिजात शीरीष मिल, अर्पित करते फूल।
कलरव कर स्वागत करें, पंछी आलस भूल।।
*
अभिनंदन करता पवन, नमित दिशाएँ मग्न।
तरुवर ताली बजाते, पुनर्जागरण-लग्न।।
*
छत्र छा रहे मेघ गण, दमक दामिनी संग।
आतिशबाजी कर रही, तिमिरासुर है तंग।।
*
दादुर पंडित मंत्र पढ़, पुलक करें अभिषेक।
उषा पुत्र-वधु से मिली, धरा सास सविवेक।।
*
कर पल्लव पल्लव हुए, ननदी तितली झूम।
देवर भँवरों सँग करे, स्वागत मचती धूम।।
*
नव वधु जब गृहणी हुई, निखरा-बिखरा तेज।
खिला विटामिन डी कहे, करो योग-परहेज।।
*
प्रात-सांध्य नियमित भ्रमण, यथासमय हर काम।
जाग अधिक सोना तनिक, शुभ-सुख हो परिणाम।।
*
स्वेद-सलिल से कर सतत, निज मस्तक-अभिषेक।
हो जाएँ संजीव हम, थककर तजें न टेक।।
*
नव आशा बन मंजरी, अँगना लाए बसंत।
मन-मनोज हो मग्न बन, कीर्ति-सफलता कंत।।
*
दशरथ दस इंद्रिय रखें, सिया-राम अनुकूल।
निष्ठा-श्रम हों दूर तो, निश्चय फल प्रतिकूल।।
*
इंद्र बहादुर हो अगर, रहे न शासक मात्र।
जय पा आसुर वृत्ति पर, कर पाए दशगात्र।।
*
धूप शांत प्रौढ़ा हुई, श्रांत-क्लांत निस्तेज।
तनया संध्या ने कहा, खुद को रखो सहेज।।
*
दिनकर को ले कक्ष में, जा करिए विश्राम।
निशा-नाथ सुत वधु सहित, कर ले बाकी काम।।
*
वानप्रस्थ-सन्यास दे, गौरव करे न दीन।
बहुत किया पुरुषार्थ हों, ईश-भजन में लीन।।
१६-७-२०१८
***
विमर्श
प्रेरणा या नकल ?
*
प्रस्तुत हैं शैली और शैलेन्द्र की दो रचनाएँ. शैली की एक पंक्ति ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' और शैलेन्द्र की एक पंक्ति ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें / हम दर्द के सुर में गाते हैं'' के सन्दर्भ में कहा जाता है कि शैलेन्द्र ने शैली की पंक्ति का उपयोग शैली को श्रेय दिए बिना किया है. क्या यह साहित्यिक चोरी है?, क्या ऐसा करना ठीक है? आपकी किसी रचना से एक अंश इस तरह कोई दूसरा उपयोग कर ले तो क्या वह ठीक होगा?
आपका क्या मत है?
*
To a Skylark
BY PERCY BYSSHE SHELLEY
*
Hail to thee, blithe Spirit!
Bird thou never wert,
That from Heaven, or near it,
Pourest thy full heart
In profuse strains of unpremeditated art.
Higher still and higher
From the earth thou springest
Like a cloud of fire;
The blue deep thou wingest,
And singing still dost soar, and soaring ever singest.
In the golden lightning
Of the sunken sun,
O'er which clouds are bright'ning,
Thou dost float and run;
Like an unbodied joy whose race is just begun.
The pale purple even
Melts around thy flight;
Like a star of Heaven,
In the broad day-light
Thou art unseen, but yet I hear thy shrill delight,
Keen as are the arrows
Of that silver sphere,
Whose intense lamp narrows
In the white dawn clear
Until we hardly see, we feel that it is there.
All the earth and air
With thy voice is loud,
As, when night is bare,
From one lonely cloud
The moon rains out her beams, and Heaven is overflow'd.
What thou art we know not;
What is most like thee?
From rainbow clouds there flow not
Drops so bright to see
As from thy presence showers a rain of melody.
Like a Poet hidden
In the light of thought,
Singing hymns unbidden,
Till the world is wrought
To sympathy with hopes and fears it heeded not:
Like a high-born maiden
In a palace-tower,
Soothing her love-laden
Soul in secret hour
With music sweet as love, which overflows her bower:
Like a glow-worm golden
In a dell of dew,
Scattering unbeholden
Its a{:e}real hue
Among the flowers and grass, which screen it from the view:
Like a rose embower'd
In its own green leaves,
By warm winds deflower'd,
Till the scent it gives
Makes faint with too much sweet those heavy-winged thieves:
Sound of vernal showers
On the twinkling grass,
Rain-awaken'd flowers,
All that ever was
Joyous, and clear, and fresh, thy music doth surpass.
Teach us, Sprite or Bird,
What sweet thoughts are thine:
I have never heard
Praise of love or wine
That panted forth a flood of rapture so divine.
Chorus Hymeneal,
Or triumphal chant,
Match'd with thine would be all
But an empty vaunt,
A thing wherein we feel there is some hidden want.
What objects are the fountains
Of thy happy strain?
What fields, or waves, or mountains?
What shapes of sky or plain?
What love of thine own kind? what ignorance of pain?
With thy clear keen joyance
Languor cannot be:
Shadow of annoyance
Never came near thee:
Thou lovest: but ne'er knew love's sad satiety.
Waking or asleep,
Thou of death must deem
Things more true and deep
Than we mortals dream,
Or how could thy notes flow in such a crystal stream?
We look before and after,
And pine for what is not:
Our sincerest laughter
With some pain is fraught;
~Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.
Yet if we could scorn
Hate, and pride, and fear;
If we were things born
Not to shed a tear,
I know not how thy joy we ever should come near.
Better than all measures
Of delightful sound,
Better than all treasures
That in books are found,
Thy skill to poet were, thou scorner of the ground!
Teach me half the gladness
That thy brain must know,
Such harmonious madness
From my lips would flow
The world should listen then, as I am listening now.
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हैं सबसे मधुर वो गीत
शैलेन्द्र
*
~हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें
हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी
आँसू भी छलकते आते हैं
हैं सबसे मधुर...
काँटों में खिले हैं फूल हमारे
रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से
दामन को बचाए जाते हैं
हैं सबसे मधुर...
जब ग़म का अन्धेरा घिर आए
समझो के सवेरा दूर नहीं
हर रात का है पैगाम यही
तारे भी यही दोहराते हैं
हैं सबसे मधुर...
पहलू में पराए दर्द बसा के
(तू) हँसना हँसाना सीख ज़रा
तूफ़ान से कह दे घिर के उठे
हम प्यार के दीप जलाते हैं
हैं सबसे मधुर...
***
जीवन सूत्र
*
श्लोक:
"विषभारसहस्रेण गर्वं नाऽऽयाति वासुकिः।
वृश्चिको बिन्दुमात्रेण ऊर्ध्वं वहति कण्टकम्।।"
*
दोहानुवाद:
अतुलित विष गह वासुकी, गर्व न कर चुपचाप।
ज़हर-बूँद बिच्छू लिए, डंक उठाए नाप।।
*
अर्थ:
वासुकी बिच्छू की तुलना में हजार गुना अधिक ज़हर होने पर भी गर्व नहीं करता। बिच्छू ज़हर की एक बूँद का प्रदर्शन डंक ऊपर उठा कर करता है।
*
कहावत: थोथा चना बाजे घना
*
भावार्थ: ऐश्वर्यवान अपनी प्रचुर संपदा का भी प्रदर्शन नहीं करते जबकि नवधनाढ्य अल्प संपत्ति होते ही उसका भोंडा प्रदर्शन करते हैं।
*
***
दोहा सलिला:
*
कथ्य, भाव, रस, शिल्प, लय, साधें कवि गुणवान.
कम न अधिक कोई तनिक, मिल कविता की जान..
*
कहें चाहते जिया को, नहीं जिया में चाह
निज खातिर जीवन जिया, जिया न कर परवाह
*
मेघदूत के पत्र को, सके न अब तक बाँच.
पानी रहा न आँख में, किससे बोलें साँच..
*
ऋतुओं का आनंद लें, बाकी नहीं शऊर.
भवनों में घुस कोसते. मौसम को भरपूर..
*
पावस ठंडी ग्रीष्म के. फूट गये हैं भाग.
मनुज सिकोड़े नाक-भौं, कहीं नहीं अनुराग..
*
मन भाये हेमंत जब, प्यारा लगे बसंत.
मिले शिशिर से जो गले, उसको कहिये संत..
*
पौधों का रोपण करे, तरु का करे बचाव.
भू गिरि नद से खेलता, ऋषि रख बालक-भाव..
*
मुनि-मन कलरव सुन रचे, कलकल ध्वनिमय मंत्र.
सुन-गा किलकिल दूर हो, विहँसे प्रकृति-तंत्र..
*
पत्थर खा फल-फूल दे, हवा शुद्ध कर छाँव.
जो तरु सम वह देव है, शीश झुका छू पाँव..
*
तरु गिरि नद भू बैल के, बौरा-गौरा प्राण .
अमृत-गरल समभाव से, पचा हुए सम्प्राण..
*
सिया भूमि श्री राम नभ, लखन अग्नि का ताप.
भरत सलिल शत्रुघ्न हैं, वायु- जानिए आप..
*
नाद-थाप राधा-किशन, ग्वाल-बाल स्वर-राग.
नंद छंद, रस देवकी, जसुदा लय सुन जाग..
*
वृक्ष काट, गिरि खोदकर, पाट रहे तालाब.
भू कब्जाकर बेचते, दानव-दैत्य ख़राब..
*
पवन, धूप, भू, वृक्ष, जल, पाये हैं बिन मोल.
क्रय-विक्रय करते असुर, ओढ़े मानव खोल..
*
कलकल जिनका प्राण है, कलरव जिनकी जान.
वे किन्नर गुणवान हैं, गा-नाचें रस-खान..
*
वृक्षमित्र वानर करें, उछल-कूद दिन-रात.
हरा-भरा रख प्रकृति को, पूजें कह पितु-मात..
*
ऋक्ष वृक्ष-वन में बसें, करें मस्त मधुपान.
जो उलूक वे तिमिर में, देख सकें सच मान..
*
रहते भू की कोख में, नाग न छेड़ें आप.
क्रुद्ध हुए तो शांति तज, गरल उगल दें शाप..
*
सीमा की सीमा कहाँ, सकल सृष्टि निस्सीम
मन से लेकर गगन तक, बस्ता वही असीम
*
जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
ज्वाला से बचकर रहें, सब कुछ बारे आग
ज्वाला बिन कैसे बुझे, कहें पेट की आग
***
भारत का भाषा गीत
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
​'सलिल' पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
१६-७-२०१७
***
जनक छन्द सलिला
*
श्याम नाम जपिए 'सलिल'
काम करें निष्काम ही
मत कहिये किस्मत बदा
*
आराधा प्रति पल सतत
जब राधा ने श्याम को
बही भक्ति धारा प्रबल
*
श्याम-शरण पाता वही
जो भजता श्री राम भी
दोनों हरि-अवतार हैं
*
श्याम न भजते पहनते
नित्य श्याम परिधान ही
उनके मन भी श्याम हैं
*
काला कोट बदल करें
श्वेत, श्याम परिधान को
न्याय तभी जन को मिले
*
शपथ उठाते पर नहीं
रखते गीता याद वे
मिथ्या साक्षी जो बने
*
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?
१६-७-२०१६
***
नवगीत
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी
तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई
जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे
१६-७-२०१५
***


मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

२७ फरवरी,तुम,सॉनेट,पंकज उधास,कला त्रयोदशी छंद,दोहा,नवगीत,मुक्तक,अक्षयशैली,महोबिया,शिवताण्डवस्तोत्र

सलिल सृजन २७ फरवरी 
सॉनेट
पंकज उधास
नाद के अनुपम पुजारी,
वाक् के थे धनी अनुपम,
कीर्ति है दस दिश तुम्हारी,
रेशमी आवाज मद्धम।

मर्म छूते तराने गा,
भा गए माँ शारदा को,
लोक ने तुमको सराहा,
वरा गायन शुद्धता को।

गीत ग़ज़लें भजन गाए,
प्राण फूँके भाव रस भर,
विधाता को खूब भाए,
बुलाया अब सुने जी भर।

नाम पंकज का अमर है,
काम पंकज का अमर है।
२७-२-२०२४
•••
कार्यशाला 
एक कुण्डलिया- दो  कवि 
घाट कुआँ खग मृग जगे,तेरी नींद विचत्र।
देख उठाता तर्जनी, सूरज तुझ पर  मित्र। -राजकुमार महोबिया
सूरज तुझ पर मित्र, चढ़ाते जल अंजुरी भर।
नेह नर्मदा सलिल, समर्पित भास्कर भास्वर।।
उजियारो मन-प्राण, प्रकाशित कर घर-बाट।
शत वंदन जग-नाथ, न तम व्यापे घर-घाट।। -संजीव 
***
सॉनेट
शारदा
*
हृदय विराजी मातु शारदा
सलिल करे अभिषेक निरंतर
जन्म सफल करता नित यश गा
सुमति मिले विनती सिर, पग धर
वीणा अनहद नाद गुँजाती
भव्य चारुता अनुपम-अक्षय
सातों स्वर-सरगम दे थाती
विद्या-ज्ञान बनाते निर्भय
अपरा-परा नहीं बिसराएँ
जड़-चेतन में तुम ही तुम हो
देख सकें, नित महिमा गाएँ
तुमसे आए, तुममें गुम हों
सरस्वती माँ सरसवती हे!
भव से तार, दिव्य दर्शन दे
४-२-२०२३
•••
पुस्तक परिचय
श्रीमद्भागवत रसामृतम् - सनातन मूल्यों एवं मान्यताओं का कोष
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण - श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विधा आध्यात्मिक समालोचना, लेखक - व्याकरणाचार्य डॉ. विनोद शास्त्री, आवरण सजिल्द क्लॉथ बाइंडिंग, आकार २५ से.मी. x २१ से.मी., द्वितीय संस्करण बसंत पंचमी २०२१, पृष्ठ संख्या ८००, मूल्य रु ७४०/-, प्रकाशक भागवत पीयूषधाम समिति दिल्ली।]
*
पुस्तकें मनुष्य की श्रेष्ठ मित्र और मार्गदर्शक हैं। मानव जीवन के हर मोड़ पर पुस्तकों की उपादेयता होती है। अधिकांश पुस्तकें जीवन के एक सोपान पर उपयोगी होने के पश्चात् अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं किन्तु कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती है जो सतत सनातन ज्ञान सलिला प्रवाहित करती हैं। ऐसी पुस्तकें मित्र मात्र नहीं पथ प्रदर्शक और व्यक्तित्व विकासक भी होती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है 'श्रीमद्भागवत रसामृतम्'। वास्तव में यह ग्रंथराज है। महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत श्रीमद्भागवत महापुराण पर की कथा को सात भागों में विभाजित कर साप्ताहिक कथा वाचन की उद्देश्य पूर्ति इस ग्रंथ ने की है। ग्रंथकार डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत पर ही शोधोपाधि प्राप्त की है। यह ग्रंथ प्रामाणिक और सरस बन पड़ा है।
ग्रंथारंभ में श्रीगोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती आशीष देते हुए लिखते हैं- 'डॉ. विनोद शास्त्री महाभागके द्वारा विरचित श्रीमद्भागवत रसामृतम् (साप्ताहिक कथा) आस्थापूर्वक अध्ययन, अनुशीलन और श्रवण करने योग्य है। श्री शास्त्री जी ने अत्यंत गहन विषय को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में शब्द विमर्श सहित तात्विक विवेचन के माध्यम से दार्शनिक भाव व्यक्त किए गए हैं।' रमणरेती गोकुल से जगद्गुरु कार्ष्णि श्री गुरु शरणानंद जी महामंडलेश्वर के शब्दों में - 'ग्रंथ में दुरूह स्थलों एवं प्रसंगों को अत्यंत सरल शब्दों एवं भावों में व्यक्त किया गया है। बीच-बीच में संस्कृत श्लोकों की व्याख्या एवं वैयाकरण सौरभ दृष्टिगोचर होता है। रणचरित मानस एवं भगवद्गीता के उद्धरण देने से ग्रंथ की उपादेयता और भी बढ़ गई है। जगद्गुरु द्वाराचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्रदास जी के अनुसार 'श्री वंशीधरी आदि टीकाओं का भाव, सभी प्रसंगों का सरल तात्विक विवेचन, प्रत्येक स्कंध, अध्याय, प्रमुख श्लोकों का व्याख्यान इस ग्रंथ का अनुपम वैशिष्ट्य है। इस अनुपम ग्रंथ की श्री गोदा हरिदेव पीठाधीश्वर जगद्गुरु देवनारायणाचार्य, स्वामी श्री किशोरीरमणाचार्य जी, मारुतिनन्दन वागीश जी, कृष्णचन्द्र शास्त्री जी जैसे विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
ग्रंथ में श्रीमद्भागवद माहात्म्य के पश्चात् बारह स्कन्धों में कथा का वर्णन है। माहत्म्य के अंतर्गत नाद-भक्ति संवाद, भक्ति का कष्ट विमोचन, गोकर्ण की कथा, धुंधकारी की मुक्ति तथा सप्ताह यज्ञ की विधि वर्णित है। प्रथम स्कंध में भगवद्भक्ति का माहात्म्य, अवतारों का वर्ण, व्यास-नारद संवाद, भागवत रचना, द्रौपदी-सुतों का वध, अश्वत्थामा का मान मर्दन, परीक्षित की रक्षा, भीष्म का देह त्याग, कृष्ण का द्वारका में स्वागत, परीक्षित जन्म, धृतराष्ट्र-गांधारी का हिमालय गमन, परीक्षित राज्याभिषेक, पांडवों का स्वर्ग प्रस्थान, परीक्षित की दिग्विजय, कलियुग का दमन, शृंगी द्वारा शाप तथा शुकदेव द्वारा उपदेश वर्णित हैं। दूसरे स्कंध में ध्यान विधि, विराट स्वरूप, भक्ति माहात्म्य, शुकदेव द्वारा सृष्टि वर्णन, विराट रूप की विभूति का वर्णन, अवतार कथा, ब्रह्मा द्वारा चतुश्लोकी भगवत तथा भागवत के दस लक्षण समाहित हैं। तृतीय स्कंध में उद्धव-विदुर भेंट, कृष्ण की बाल लीला, विदुर - मैत्रेय संवाद, ब्रह्मा की उत्पत्ति, सृष्टि व काल का वर्णन, वाराह अवतार, जय-विजय कथा, हिरण्याक्ष- हिरण्यकशिपु प्रसंग, देवहूति-कर्दम प्रसंग, कपिल जन्म, सांख्ययोग, अष्टांग योग, भक्तियोग आदि प्रसंग हैं। चतुर्थ स्कंध में स्वायंभुव मनु प्रसंग, शंकर-दक्ष प्रसंग, ध्रुव की कथा, वेन, पृथु तथा पुरंजन की कथाओं का विवेचन किया गया है। पंचम स्कंध में प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि, ऋषभदेव, भारत, राजा रहूगण के प्रसंग, गंगावतरण, भारतवर्ष, षडद्वीप, लोकलोक पर्वत, सूर्य, राहु तथा नरकादि का वर्णन किया गया है। षष्ठ स्कंध में अजामिल आख्यान, नारद-दक्ष प्रसंग, विश्वरूप प्रसंग, दधीचि प्रसंग, वृत्तासुर वध, चित्रकेतु प्रसंग तथा अदिति व दिति प्रसंगों की व्याख्या की गई है।
नारद-युधिष्ठिर संवाद, जय-विजय कथा, हिरण्यकशिपु-प्रह्लाद-नृसिंह प्रसंग, मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, सन्यास धर्म तथा गृहस्थाश्रम महत्व का वर्णन सप्तम स्कंध में है। आठवें स्तंभ में मन्वन्तरों का वर्णन, गजेंद्र प्रसंग, समुद्र मंथन, शिव द्वारा विष-पान, देवासुर प्रसंग, वामन-बलि प्रसंग तथा मत्स्यावतार की कथा मही गयी है। नौवें स्कंध में वैवस्वत मनु, महर्षि च्यवन, रहा शर्याति, अम्ब्रीश, दुर्वासा, इक्ष्वाकु वंश, मान्धाता, त्रिशंकु, हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, श्री राम, निमि, चन्द्रवंश, परशुराम, ययाति, पुरु वंश, दुष्यंत, भरत आदि प्रांगण पर प्रकश डाला गया है। दसवें स्कंध के पूर्वार्ध में वासुदेव-देवकी विवाह, श्री कृष्ण जन्म, पूतनादि उद्धार, ब्रह्मा को मोह, कालिय नाग, चीरहरण, गोवर्धन-धारण, रासलीला, अरिष्टासुर वध, कुब्जा पर कृपा, भ्रमर गीत आदि पतसंग हैं। दसवें स्कंध के उत्तरार्ध में जरासंध वध, द्वारका निर्माण, कालयवन-मुचुकुंद प्रसंग, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न जन्म, शंबरासुर वध, जांबवती व सत्यभाभा के साथ विवाह, सीमन्तक हरण. भौमासुर उद्धार, रुक्मि वध, उषा-अनिरुद्ध प्रसंग, श्रीकृष्ण-बाणासुर युद्ध, राजसूय यज्ञ, शिशुपाल उद्धार, शाल्व उद्धार, सुदामा प्रसंग, वसुदेव यज्ञोत्सव, त्रिदेव परीक्षा लीलाविहार आदि प्रसंगों का वर्णन है। ग्यारहवें स्कंध में यदुवंश को ऋषि-शाप, कर्म योग निरूपण, अवतार कथा, अवधूत प्रसंग, भक्ति योग की महिमा, भगवन की विभूतियों का वर्णन, वर्ण धर्म, ज्ञान योग, सांख्य योग, क्रिया योग, परमार्थ निरूपण आदि प्रसंगों का विश्लेषण है। अंतिम बारहवें स्कंध में कलियुग के राजाओं का वर्णन, प्रलय, परीक्षित प्रसंग, अथर्ववेद की शाखाएँ, मार्कण्डेय प्रसंग, श्रीमद्भागवत महिमा आदि का समावेश है।
डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत के विविध प्रसंगों का वर्णन मात्र नहीं किया अपितु उनमें अन्तर्निहित गूढ़ सिद्धांतों, सनातन मूल्यों आदि का सहल-सरल भाषा में सम्यक विश्लेषण भी किया है। श्रीमद्भागवत के हर प्रसंग का समावेश इस ग्रंथ में है। अध्यायों में प्रयुक्त श्लोकों का शब्द विमर्श, पाठक को श्लोक के हर शब्द को समझकर अर्थ ग्रहण करने में सहायक है। शब्द विमर्श में श्लोक का अर्थ, समास, व्युत्पत्ति आदि का अध्ययन कर पाठक अपने ज्ञान, भाषा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की गुणवत्ता वृद्धि कर सकता है। विविध प्रांगण पर प्रकाश डालते समय श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामचरित मानस से संबंधित उद्धरणों का समावेश कथ्य के मूलार्थ के साथ-साथ भावार्थ, निहितार्थ को भी समझने में सहायक है। दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों को जन सामान्य के लिए सुग्राह्य तथा सहज बोधगम्य बनाने के लिए विनोद जी ने मुख्य आख्यान के साथ-साथ सहायक उपाख्यानों का यथास्थान सटीक प्रयोग किया है। किसी मांगलिक कार्य का श्री गणेश करने के पूर्व ईश वंदना की सनातन परंपरा का पालन करते हुए कृत्यारंभ में मंगलाचरण के अंतर्गत बारह श्लोकों में देव वंदना की गई है। ग्रंथ की श्रेष्ठता का पूर्वानुमान विद्वान् जगद्गुरुओं द्वारा दिए गए शुभाशीष संदेशों से किया जा सकता है।
विनोद जी द्वारा प्रयुक्त शैली के परिचयार्थ स्कंध १, अध्याय ४ से 'विरक्त' का तात्पर्य प्रसंग प्रस्तुत है-
'विष्णो: रक्त: विरक्त:' अर्थात भगवन की भक्ति में अनुरक्त होकर जीवन यापन करो। 'जीवस्यतत्वजिज्ञासा' (भाग. १/२/१०) - जीवन का लक्ष्य है परमात्मा के स्वरूप (तत्व) का ज्ञान करना।
विवेकेन भवत्किं में पुत्रं देहि ब्लादपि।
नोचेत्तयजाम्यहं प्राणांस्त्वदग्रे शोकमूर्छित:।। ३७
आत्मदेव ने कहा- मुझे विवेक से क्या मतलब है? मुझे तो संतान दें। यदि मेरे भाग्य में संतान नहीं है तो अपने भाग्य से दें, नहीं तो मैं शोक मूर्छित हो प्राण त्याग करता हूँ। आत्मदेव - मरने के बाद मेरा पिंडदान कौन करेगा? सन्यासी ने कहा- केवल इतनी सी बात के लिए प्राण त्याग करना चाहते हो। संतान बुढ़ापे में सेवा करेगी, इसकी क्या गारंटी है? आशा ही दुख का कारण है। दशरथ जी के चार पुत्र थे लेकिन अंतिम समय में कोई पास में नहीं था। २० दिन तक तेल की कढ़ाई में शव रखा रहा। इसलिए इस शरीर रूपी पिंड को भगवद्कार्य (सेवा) में समर्पित करो।
उद्धरेदात्म नात्मानं नात्मानमवसादयेत्। (गीता) ६/५
आत्मा से ही आत्मा का उद्धार होगा। याद रखो संतान से तुम्हें सुख मिलनेवाला नहीं है। सन्यासी ने कहा पुत्र ही पिंडदान करेगा, ऐसी आशा छोड़ दो। परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तमेव विदित्वा अति मृत्युं एति नान्य: पंथा: विद्यते अनयाय। शास्त्रों में कहा है- ऋते ज्ञानान्नमुक्ति: बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं मिलती। अपना पिंडदान अपने हाथ से करो। सन्यासी के उपदेश का आत्मदेव के मन पर कोइ प्रभाव नहीं हुआ। तब सन्यासी को ब्राह्मण पर दया आ गई और उन्होंने आम का एक फल आत्मदेव के हाथ में दिया और कहा- जाओ अपनी पत्नी को यह फल खिला दो।
इदं भक्षय पत्न्या त्वं तट: पुत्रो भविष्यति। ४१
सत्यं शौचं दयादानमेकभक्तं तू भोजनम्।। ४२
इस फल के खाने से तुम्हारी स्त्री के गर्भ से एक सुंदर सात्विक स्वभाववाला पुत्र होगा।
वर्षावधि स्त्रिया कार्य तेन पुत्रोsतिनिर्मल:।। ४२
तुम्हारी स्त्री को सत्य, शौच, दया, एक समय नियम लेना होगा। यह कहकर सन्यासी (योगिराज) चले गए। ब्राम्हण ने घर आकर वह फल अपनी पत्नी (धुंधली) के हाथ में दिया और स्वयं किसी कार्यवश बाहर चला गया। कुटिल पत्नी अपनी सखी से रो-रोकर अपनी व्यथा कहने लगी, बोली- फल खाकर गर्भ रहने पर मेरा पेट बढ़ेगा। मैं अस्वस्थ्य हो जाऊँगी। मेरी जैसी कोमल सुकुमार स्त्री से एक वर्ष तक नियम पालन नहीं होगा। उसने उस फल को नहीं खाया, अपने पति से असत्य कह दिया कि मैंने फल खा लिया है।
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं चेति तयेरितं। ५०
धुंधली को पुत्र (फल) प्राप्त करने की इच्छा तो है किंतु बिना दुःख झेले। मनुष्य पुण्य करना नहीं, फल भोगना चाहता है। शास्त्र न जानने के कारण धुंधली ने अनर्थ किया। आत्मा पर बुद्धि का वर्चस्व आ जाता है तो सर्वनाश हो जाता है। पत्नी यदि परमात्मा की और चले तो कल्याण होता है।
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीमं। (दुर्गा सप्तशती)
सरस्वती की कृपा होने पर गृहस्थ को अच्छी पत्नी मिलती है। संतों पर सरस्वती की कृपा होने पर विद्वान बनते हैं। भारतीय पत्नी को पति में ही नारायण के दर्शन होते हैं। पति की सेवा नारायण सेवा ही है। प्रसंग में आगे धुंधकारी कौन है (दार्शनिक भाव), आत्मदेव का चरित्र (दार्शनिक भाव) जोड़ते हुए अंत में धुंधकारी के चरित्र से शिक्षा वर्णित है। विनोद जी ने पौराणिक प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए व्यावहारिक उपयोगिता बनाये रखने में सफलता पाई है।
•••
सॉनेट 
मानव वह जो कोशिश करता।
कदम-कदम नित आगे बढ़ता।
गिर-गिर, उठ-उठ फिर-फिर चलता।।
असफल होकर वरे सफलता।।
मानव ऐंठे नहीं अकारण।
लड़ बाधा का करे निवारण।
शरणागत का करता तारण।।
संयम-धैर्य करें हँस धारण।।
मानव सुर सम नहीं विलासी।
नहीं असुर सम वह खग्रासी।
कुछ यथार्थ जग, कुछ आभासी।।
आत्मोन्नति हित सदा प्रयासी।।
मानव सलिल-धार सम निर्मल।
करे साधना सतत अचंचल।।
२७-२-२०२२
•••
मुक्तक
हम मतवाले पग पगडंडी पर रख झूमे।
बाधाओं को जय कर लें मंज़िल पग चूमे।।
कंकर को शंकर कर दें हम रखें हौसला-
मेहनत कोशिश लगन साथ ले सब जग घूमे।।
*
मंज़िल की मत फ़िक्र करो हँस कदम बढ़ाओ।
राधा खुद आए यदि तुम कान्हा बन जाओ।।
शिव न उमा के पीछे जाते रहें कर्मरत-
धनुष तोड़ने काबिल हो तो सिय को पाओ।।
*
यायावर राही का राहों से याराना।
बिना रुके आगे, फिर आगे, आगे जाना।।
नई चुनौती नित स्वीकार उसे जय करना-
मंज़िल पर पग धर झट से नव मंज़िल वरना।।
*
काव्य मंजरी छंद राज की जय जय गाए।
काव्य कामिनी अलंकार पर जान लुटाए।।
रस सलिला में नित्य नहा, आनंद पा-लुटा-
मंज़िल लय में विलय हो सके श्वास सिहाए।।
*
मंज़िल से याराना अपना।
हर पल नया तराना अपना।।
आप बनाते अपना नपना।
पूरा करें देख हर सपना।।
२७-२-२०२१
***
छंद सलिला
२९ मात्रिक महायौगिक जातीय, कला त्रयोदशी छंद
*
विधान :
प्रति पद प्रथम / विषम चरण १६ कला (मात्रा)
प्रति पद द्वितीय / सम चरण १३ कला
नामकरण संकेत: कला १६, त्रयोदशी तिथि १३
यति १६ - १३ पर, पदांत गुरु ।
*
लक्षण छंद:
कला कलाधर से गहता जो, शंकर प्रिय तिथि साथी।
सोलह-तेरह पर यति सज्जित, फागुन भंग सुहाती।।
उदाहरण :
शिव आभूषण शशि रति-पति हँस, कला सोलहों धारता।
त्रयोदशी पर व्रत कर चंदा, बाधा-संकट टारता।।
तारापति रजनीश न भूले, शिव सम देव न अन्य है।
कालकूट का ताप हर रहा, शिव सेवा कर धन्य है।।
२२.४.२०१९
*
मुक्तक
सरहद पर संकट का हँसकर, जो करता है सामना।
उसकी कसम तिरंगा कर में, सर कटवाकर थामना।।
बड़ा न कोई छोटा होता, भला-बुरा पहचानना-
वह आदम इंसान नहीं जो, करे किसी का काम ना।।
***
दोहा सलिला
*
नदी नेह की सूखती, धुँधला रहा भविष्य
महाकाल का हो रहा, मानव आप हविष्य
*
दोहा सलिला निर्मला, प्रवहित सतत अखंड
नेह निनादित नर्मदा, रखिए प्रबल प्रचंड
*
कलकल सलिल प्रवाहमय, नदी मिटाती प्यास
अमल विमल जल कमल दल, परिमल हरते त्रास
*
नदी तीर पर सघन वन, पंछी कलरव गान
सनन सनन प्रवहे पवन, पड़े जान में जान
*
नदी न गंदी कीजिए, सविनय करें प्रणाम
मैया कह आशीष लें, स्वर्ग बने भू धाम
*
नदी तीर पर सभ्यता, जन्मे विकसे नित्य
नदी मिटा खुद भी मिटे, अटल यही है सत्य
*
नद निर्झर सर सरोवर, ईश्वर के वरदान
करे नष्ट खुद नष्ट हो, समझ सँभल इंसान
२७-२-२०२०
***
एक रचना
*
जब
जिद, हठधर्मी और
गुंडागर्दी को
मान लिया जाए
एक मात्र राह,
जब
अनदेखी-अनसुनी
बना ली जाए
अंतर्मन की चाह,
तब
विनाश करता है
नंगा नाच
जब
कमर कसकर कोई
दृढ़संकल्पी
उतरता है
जमीन पर,
जब
होता है भरोसा
नायक को
सही दिशा और
गति का
तब
लोगों में सद्भावना
जागती है
भाषणबाज नेताओ
अपने आप पर
शर्म करो
पछताओ
तुम सब सिद्ध हुए
हो नाकारा
और कायर,
अब नहीं है
कोई गाँधी
हम
भारत की संतानें
भाईचारा
मजबूत करें
न डराएँ,
न डरें
राजनीति-दलनीति
जिम्मेदार हैं
दूरियों के लिए
हम बढ़ाएँ
नजदीकियाँ
घृणा की आँधी
रोकें
हमें
अंकित शर्मा के
बलिदान की
कसम है
हम जागें
भड़कानेवाले
नेताओं को
दिखाएँ ठेंगा
देश में कायम करें
अमन-शांति
देश हमारा और
हम देश के हैं
***
कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
तुम्हें पुकारे लेखनी, पकड़ नाम की डोर ।
हे बजरंगी जानिए, तिमिर घिरा चहुँ ओर ।। - आशा शैली
तिमिर घिरा चहुँ ओर, हाथ को हाथ न सूझे
दूर निराशा करें, देव! हल अन्य न सूझे
सलिल बुझाने प्यास, तुम्हारे आया द्वारे
आशा कर दो पूर्ण, लेखनी तुम्हें पुकारे - सलिल
*
२७-२-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
तुम्हें पुकारे लेखनी, पकड़ नाम की डोर ।
हे बजरंगी जानिए, तिमिर घिरा चहुँ ओर ।। - आशा शैली
तिमिर घिरा चहुँ ओर, हाथ को हाथ न सूझे
दूर निराशा करें, देव! हल अन्य न सूझे
सलिल बुझाने प्यास, तुम्हारे आया द्वारे
आशा कर दो पूर्ण, लेखनी तुम्हें पुकारे - सलिल
***
सवैया
विधान : प्रति पद २४ वर्ण, पदांत मगण
*
छंद नहीं स्वच्छंद, नहीं प्रच्छंद सहज छा पाते हैं, मन भाते हैं
सुमन नहीं निर्गंध, लुटाएँ गंध, सु मन मुस्काते हैं, जी जाते हैं
आप करें संतोष, न पाले रोष, न जोड़ें कोष, यहीं रह जाते हैं
छंद मिटाते प्यास, हरें संत्रास, लुटाते हास, होंठ हँस पाते हैं
२७-२-२०२०
***
सावरकर
सावरकर को प्रिय नहीं, रही स्वार्थ अनुरक्ति
उन सा वर कर पंथ हम, करें देश की भक्ति
वीर विनायक ने किया, विहँस आत्म बलिदान
डिगे नहीं संकल्प से, कब चाहा प्रतिदान?
भक्तों! तजकर स्वार्थ हों, नीर-क्षीर वत एक
दोषारोपण बंद कर, हों जनगण मिल एक
मोटी-छोटी अँगुलियाँ, मिल मुट्ठी हों आज
गले लगा-मिल साधिए, सबके सारे काज
२६-२-२०२०
•••
एक रचना
यमराज मिराज ने
*
छोड़ दिए अनलास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
कठपुतली सरकार के
बनकर खान प्रधान
बोल बोलते हैं बड़े,
बुद्धू कहे महान
लिए कटोरा भीख का
साड़ी दुनिया घूम-
पाल रहे आतंक का
हर पगलाया श्वान
भारत से कर शत्रुता
कोढ़ पाल ली खाज ने
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
कोई साथ न दे रहा
रोज खा रहे मार
पाक हुआ दीवालिया
फ़ौज भीरु-बटमार
एटम से धमका रहा
पाकर फिर-फिर मात
पाठ पढ़ा भारत रहा
दे हारों का हार
शांति कपोतों से घिरा
किया समर्पण बाज ने
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
सैबरजेटों को किया
था नैटों ने ढेर
बोफ़ोर्सों ने खदेड़ा
करगिल से बिन देर
पाजी गाजी डुबो दी
सागर में रख याद
छेड़ न, छोड़ेंगे नहीं
अब भारत के शेर
गीदड़भभकी दे रहा
छोड़ दिया क्या लाज ने?
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
२६-२-२०१९
***
एक गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद जो
रण जीते
संसद वह हारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
एक रचना :
मानव और लहर
*
लहरें आतीं लेकर ममता,
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटाती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झण्डे रखता खूब
लहर बहाती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चंदन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
'कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
२७-२-२०१८
***
पुस्तक चर्चा
भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी. x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं। वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं। प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।
कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं।
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार।
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।।
आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं। भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है। छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है। 'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।
विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है। उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।
सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।
विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं। ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।
इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।
संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार
यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश
देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान
शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]
यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप
भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ
लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान
लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह
विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।
इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
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-समन्वयम, विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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नवगीत:
जब तुम आईं
*
कितने रंग
घुले जीवन में
जब तुम आईं।
*
हल्दी-पीले हाथ द्वार पर
हुए सुशोभित।
लाल-लाल पग-चिन्ह धरा को
करें विभूषित।
हीरक लौंग, सुनहरे कंगन
करें विमोहित।
स्वर्ण सलाई ले
दीपक की
जोत मिलाईं।
*
गोर-काले भाल-बाल
नैना कजरारे।
मैया ममता के रंग रंगकर
नजर उतारे।
लिये शरारत का रंग देवर
नकल उतारे।
लिए चुहुल का
रंग, ननदी ने
गजल सुनाईं।
*
माणिक, मूंगा, मोती, पन्ना,
हीरा, नीलम,
लहसुनिया, पुखराज संग
गोमेद नयन नम।
नौरत्नों के नौ रंगों की
छटा हरे तम।
सतरंग साड़ी
नौरंग चूनर
मन को भाईं।
*
विरह-मिलन की धूप-छाँव
जाने कितने रंग।
नाना नाते नये जुड़े जितने
उतने संग।
तौर-तरीके, रीति-रस्म के
नये-नये ढंग।
नीर-क्षीर सी मिलीं, तनिक
पहले सँकुचाईं
२७-२-२०१६
***
*
नवगीत:
.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
महुआ महका,
टेसू दहका,
अमुआ बौरा खूब.
प्रेमी साँचा,
पनघट नाचा,
प्रणय रंग में डूब.
अमराई में,
खलिहानों में,
तोता-मैना झूम
गुप-चुप मिलते,
खुस-फुस करते,
सबको है मालूम.
चूल्हे का
दिल भी हुआ
हाय! विरह से लाल.
कुटनी लकड़ी
जल मरी
सिगड़ी भई निहाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
सड़क-इमारत
जीवन साथी
कभी न छोड़ें हाथ.
मिल खिड़की से,
दरवाज़े ने
रखा उठाये माथ.
बरगद बब्बा
खों-खों करते
चढ़ा रहे हैं भाँग.
पीपल भैया
शेफाली को
माँग रहे भर माँग.
उढ़ा
चमेली को रहा,
चम्पा लकदक शाल.
सदा सुहागन
छंद को
सजा रही निज भाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
२६.२.२०१५
***
रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
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लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
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ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
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सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
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करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
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अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
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प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
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अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
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जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
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दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
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कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
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निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
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इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
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पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
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