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बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

navgeet

नवगीत
*
बचपन का
अधिकार
उसे दो
याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने
अब अपना
स्वीकार
उसे दो
.
पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें
देखो हँस
मनुहार
उसे दो
.
इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें
आओ!
नवल निखार
इसे दो
***
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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत

बचपन का
अधिकार
उसे दो

याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने

अब अपना
स्वीकार
उसे दो

पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें

देखो हँस
मनुहार
उसे दो

इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें

आओ!
नवल निखार
इसे दो

*** 

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

sansmaran: sanjay sinha

कल और आज: कैसा बचपन

संजय सिन्हा

आज पोस्ट लिखने से पहले मैं कई बार रोया। कई बार लगा कि क्या इस अपराध में मैं भी शामिल रहा हूं? क्या जिस चुटकुले को मैं आज आपसे मैं साझा करने जा रहा हूं, उसका पात्र मैं भी हूं? 
फेसबुक के मेेरे भाई श्री Avenindra Mann जी ने यूं ही चलते फिरते ये चुटकुला मुझसे साझा किया था, शायद हंसाने के लिए या फिर हम सबको आइना दिखाने के लिए लेकिन ये इतना मार्मिक चुटकुला था कि इसे पढ़कर मैं खुद अपराधबोध में चला गया। चुटकुला इस तरह है-
एक छोटे से बच्चे ने सुबह अपनी दादी मां से पूछा, "दादी दादी कल रात जब मैं सोने गया था तो एक औरत और एक मर्द जो हमारे घर में आए थे, वो कौन थे? मैंने देखा कि वो चुपचाप भीतर आए और उस कमरे में चले गए थे। फिर सुबह वो दोनों चले भी गए।"
दादी ने कहा, "ओह! तो तूने उन्हें देख ही लिया?"
बच्चे ने कहा, "हां, सोते-सोते मेरी नींद खुल गई थी, और मैंने जरा सी झलक देख ली थी।"
दादी ने कहा, "मेरे बच्चे वो तेरे माता-पिता हैं, दोनों नौकरी करते हैं न! "
अब है तो ये चुटकुला ही। लेकिन मेरे मन में ये बात कुछ ऐसे समा गई कि क्या मेरे बच्चे ने भी बहुत छोटे होते हुए ऐसा सोचा होगा कि रोज रात में घर आने वाला ये आदमी कौन है?
मैंने पुरानी यादों में जाने की जरा सी कोशिश की तो मुझे इतना याद आया कि ये सच है कि अपनी बहुत व्यस्त नौकरी में कई बार मैं अपने घर वालों की एक झलक देखने के लिए सचमुच बहुत तरसा हूं। सुबह जल्दी दफ्तर चले जाना, फिर देर रात तक दफ्तर में रहना, यकीनन मेरे बेटे ने भी कभी न कभी ऐसा सोचा होगा कि रोज रात में घर आने वाला ये है कौन?।
मैं तो जब छोटा था तब बहुत सी कहानियां अपनी मां से सुनी थीं। लेकिन जब मेरा बेटा छोटा था तब मैं उसके लिए बच्चों की कहानियों के कई कैसेट और एक टेपरिकॉर्डर खरीद लाया था। उसे मैंने चंदा मामा की, चिड़िया और दाना की, खरगोश और कछुए की कहानियां उसी कैसेट से सुनाई हैं।
शुरू-शुरू में तो मेरी पत्नी या मैं, उस कैसेट को टेपरिकॉर्डर में लगा कर उसे ऑन कर देते और उसे बिस्तर पर लिटा कर कहते कि ये कहानी सुनो। लेकिन जल्दी ही उसने खुद ही कैसेट लगाना सीख लिया और मुझे याद है कि एक बार मैं घर आया तो वो चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट गया और अपने आप कहानी सुनने लगा। मैंने उसे बुलाने की कोशिश की तो उसने कहा कि ये कहानी टाइम है। वो कहानियां सुनते-सुनते सो जाता।
शुरू-शुरू में हम अपने घर और परिवार में फख्र से बताते कि कल सुबह की फ्लाइट से मैं मुंबई जा रहा हूं। वहां मीटिंग है। देर शाम मैं वहीं से कोलकाता के लिए निकलूंगा।
जिस दिन सिंगापुर, हांगकांग, मलेशिया निकलना होता उस दिन तो ऐसे इतराते हुए भाव में रहता कि पूछिए मत। अड़ोसी-पड़ोसी हैरत भरी निगाहों से देखते और सोचते कि मिस्टर सिन्हा कितने भाग्यशाली हैं जो रोज-रोज हवाई जहाज में जाते हैं, फिर आते हैं। मैं भी खुद को हाई फ्लायर कहता। दिल्ली एयरपोर्ट पर नाश्ता करता, मुंबई में खाना खाता। कभी फोन करता कि बस अभी-अभी चेन्नई पहुंचा हूं, अभी कल सुबह लंदन के लिए निकलना है।
ये सब नौकरी के हिस्सा हुआ करते थे। संसार के सभी अति व्यस्त पिताओं की तरह मैं भी व्यस्त रहने को अपनी खूबी मानता था। शायद पहले भी कभी लिखा है कि एक समय ऐसा भी आया था जब मेरी पत्नी एक सूटकेस मेरी कार में रख दिया करती थी, कि पता नहीं मुझे कब कहां जाना पड़ जाए?
एक दिन जब मैं घर आया तो मैंने देखा कि मेरे बेटे के बाल काफी बढ़ गए हैं। वो बहुत छोटा था और पास के उस सैलून में मैं नहीं चाहता था कि पत्नी जाए, इसलिए उसके बाल नहीं कट पाए थे। उसके बढ़े हुए बाल देख कर मैं बहुत दुखी हुआ।
सोचने लगा कि भला ऐसी नौकरी का क्या फायदा, जिसमें अपने बेटे के बाल भी महीने में एकदिन उसे साथ ले जाकर नहीं कटवा सकता?
उस दिन मैं सचमुच बहुत िवचलित हुआ। मुझे याद आने लगा कि जब मैं छोटा था, महीने के आखिरी रविवार को आमतौर पर पिताजी की उंगली पकड़ कर मैं उस सैलून में जाया करता था, जहां बाल काटने वाले को पता होता था कि आज संजू आएगा, और उसके समझाने के बाद भी वो अपने सिर को कभी इधर हिलाएगा, कभी उधर हिलाएगा और फिर पकड़-पकड़ कर वो उसके बाल काटेगा।
मेरे लिए बाल कटवाना उत्सव जैसा होता था। बाल काटने वाला कहता कि इधर देखो नहीं तो कान कट जाएंगे। मैं अपने दोनों हाथों से कानों को पकड़ लेता। फिर शुरू होता मान मनव्वल और धमकाने का दौर। और मैं आखिर में तब मानता जब पिताजी मुंह में एक टॉफी रख देते।
बाल कटने के बाद पिताजी सब्जी खरीदते, मेरे लिए चंपक खरीदते, एक दो टॉफियां एक्स्ट्रा खरीदते जैसे कि मैंने बाल कटवा कर उन पर अहसान किया हो।
कभी-कभी बाटा की दुकान पर ले जाकर जूते खरीदवाते। मतलब ये कि उस रविवार मैं और पिताजी भाई-भाई हो जाते। फिर जब हम घर आते तो मां बहुत देर तक प्यार करती। पिताजी को दुलार से डपटती कि इतने छोटे बाल क्यों करा दिए। पहले एकदम कन्हैया जैसा लगता था मेरा बेटा, और आपने इतने छोटे करा दिए।
फिर मां मुझे खुद नहलाती, बालों में खूब साबुन लगाती, कहती कि बाल कटा कर बिना नहाए कुछ और नहीं करना चाहिए।
ऐसे दोपहर होते होते खाना लगता। पिताजी अखबार पढ़ते उतनी देर में खाना लग जाता।
रविवार का दिन, मतलब अलग तरह का व्यंजन। चावल, दाल, रोटी, आलू की भुंजिया, सब्जी, दही, पापड़, चटनी, कभी-कभी पकौड़े… न जाने कितनी सारी चीजें।
मन में आता कि काश रोज ये रविवार होता। मैं और पिताजी साथ-साथ यूं ही रोज खाना खाते। पिताजी खाना खाते-खाते मेरी ओर देखते और कहते कि दही तो खा ही नहीं रहे तुम। मैं कहता कि आखिर में चीनी डाल कर खाउंगा। पिताजी मुस्कुराते और कहते चीनी ज्यादा नहीं खानी चाहिए, तुमने वैेसे भी दो-दो टॉफियां खाई हैं।
और तब तक मां वहां आ जाती, कहती कि बच्चे चीनी नहीं खाएंगे तो भला कौन खाएगा?
और ऐसे ही हम सारा दिन मस्ती करते।
रविवार के अलावा दो अक्तूबर, पंद्रह अगस्त, दशहरा जैसी छुट्टियों की तो बात ही निराली होती।
दशहरा मेें आस-पास बजने वाले लाउड स्पीकर माहौल के ऐसा खुशनुमा बना देते कि लगता घर में किसी की शादी है। पिताजी हर बार दशहरे पर पास के मेेले में ले जाते। मां खूब सुंदर सी साड़ी पहन कर तैयार होती। मेरे लिए भी हर दशहरे पर नए कपड़े आते।
पर मुझे नहीं याद कि किस दो अक्तूबर और किस दशहरे पर मैं अपने बेटे के लिए घर रहा हूं। मुझे नहीं याद कि कब आखिरी बार मैं अपने बेटे की उंगली पकड़ कर उसे पार्क ले गया हूं। अब बेटा बड़ा हो गया है, उसे शायद याद हो या न हो, लेिकन मुझे उस चुटकुले को पढ़ कर सबकुछ याद आ रहा है।
उन मां-बाप के बारे में याद आ रहा है जो मजाक में ही कहते हैं कि अरे वो तो बहुत व्यस्त हैं, बहुत ज्यादा व्यस्त हैं और वो जब घर आते हैं, तो उनका संजू सो चुका होता है।
पर मेरा यकीन कीजिए कई संजू सोए नहीं होते। वो चुपचार आंखें खोल कर ये जानने की कोशिश करते हैं कि उसके घर आने वाले ये दोनों लोग कौन हैं, जो रोज रात में आते हैं, और सुबह-सुबह चले जाते हैं?
अगर आपका संजू भी छोटा हो तो इस चुटकुले को चुटकुला मत समझिएगा। इस पर हंसिएगा भी मत।
सोचिएगा और सिर्फ सोचिएगा कि क्या सचमुच हर सुबह हम जो घर से निकल पड़ते हैं अपनी खुशियों की तलाश में, वो खुशियां ही हैं?

शुक्रवार, 31 मई 2013

virasat: bachpan -subhadra kumari chauhan


विरासत :

बचपन
सुभद्रा कुमारी चौहान
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी
चिंतारहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय-स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी
बनी हुई थी वहाँ झोपड़ी और चीथड़ों में रानी
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे?
बड़े-बड़े मोती से आँसू जयमाला पहनाते थे
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आई मुझको उठा लिया
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम गीले गालों को सुखा दिया
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चेहरे चमक उठे
यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल-छबीली थी
दिल में एक चुभन सी थी यह दुनिया अलबेली थी
मन में एक पहेली थी मैं सबके बीच अकेली थी
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियाँ भी न्यारी हैं
माना मैंने युवा काल का जीवन खूब निराला है
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है
किन्तु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना
आ जा बचपन एक बार फिर दे दे अपनी निर्म, शांति
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति
वह भोली सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी 
'माँ माँ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा
मुँह पर थी आल्हाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा
मैंने पूछा यह क्या लाई? बोल उठी वह- "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से मैंने कहा "तुम्हीं खाओ"
पाया मैंने बचपन फिर से प्यारी बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझमें नवजीवन आया
मैं भी उसके साथ खेलती-खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती  हूँ
जिसे खोजती थी बचपन से अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया

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बुधवार, 13 जुलाई 2011

एक कविता- याद आती है -- संजीव 'सलिल'

एक कविता-
याद आती है
संजीव 'सलिल'
*

 याद आती है रात बचपन की...

कभी छत पर,
कभी आँगन में पड़े
देखते थे कहाँ है सप्तर्षि?
छिपी बैठी कहाँ अरुंधति है?
काश संग खेलने वो आ जाये.
वो परी जो छिपी गगन में है.
सोचते-सोचते आँखें लगतीं.
और तब पड़ोसी गोदी में लिये
रहे पहुँचाते थे हमें घर तक.
सभी अपने थे. कोई गैर न था.

तब भी बातें बड़े किया करते-
किसकी आँखों का तारा कौन यहाँ?
कौन किसको नहीं तनिक भाता?
किसकी किससे लड़ी है आँख कहाँ?
किन्तु बच्चे तो सिर्फ बच्चे थे.
झूठ तालाब, कमल सच्चे थे.

हाय! अब बच्चे ही बच्चे न रहे.
दूरदर्शन ने छीना भोलापन.
अब अपना न कोई लगता है.
हर पराया ठगाया-ठगता है.
तारे अब भी हैं
पर नहीं हैं अब
तारों को गिननेवाले वे बच्चे
.
****

रविवार, 5 सितंबर 2010

मुक्तिका: चुप रहो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

चुप रहो...

संजीव 'सलिल'
*

महानगरों में हुआ नीलाम होरी चुप रहो.
गुम हुई कल रात थाने गयी छोरी चुप रहो..

टंग गया सूली पे ईमां मौन है इंसान हर.
बेईमानी ने अकड़ मूंछें मरोड़ी चुप रहो..

टोफियों की चाह में है बाँवरी चौपाल अब.
सिसकती कदमों तले अमिया-निम्बोरी चुप रहो..

सियासत की सड़क काली हो रही मजबूत है.
उखड़ती है डगर सेवा की निगोड़ी चुप रहो..

बचा रखना है अगर किस्सा-ए-बाबा भारती.
खड़कसिंह ले जाये चोरी अगर घोड़ी चुप रहो..

याद बचपन की मुक़द्दस पाल लहनासिंह बनो.
हो न मैली साफ़ चादर 'सलिल' रहे कोरी चुप रहो..

चुन रही सरकार जो सेवक है जिसका तंत्र सब.
'सलिल' जनता का न कोई धनी-धोरी चुप रहो..

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-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम