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रविवार, 14 सितंबर 2025

सितंबर १४, हिंदी दिवस, सॉनेट, भारत, कुण्डलिया, राजस्थानी मुक्तिका, मुक्तक


सलिल सृजन सितंबर १४
*
सॉनेट
भारत में लेकर इकतारा,
यायावरी साधु करते हैं,
अलखनिरंजन कर जयकारा,
नगर गाँव घर घर फिरते हैं।
प्रेमगीत वे प्रभु के गाते,
करते मंगलभाव व्यक्त वे,
जन-मन में शुभ भाव जगाते
समरसता के दूत शक्त वे।
इटली में प्रेमी यायावर,
प्रेम गीत गा रहे घूमते,
प्रेम गीत सॉनेट सुनाकर,
वाद्य बजा लब रहे चूमते।
साथ समय के भारत आया।
सॉनेट ने नवजीवन पाया।।
१४.९.२०२३
•••
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*
दोहा
हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।।
*
विश्व में सर्वाधिक बोले जानेवाली भाषा हिंदी- डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल
*
विश्व में सर्वाधिक बोले जानेवाली भाषा निर्विवाद रूप से हिंदी है। आज हिंदी दिवस पर सभी हिंदीभाषियों का कर्तव्य है कि
१. वे अपना अधिकतम कार्य (सोचना, बोलना, लिखना, पढ़ना आदि) हिंदी में करें।
२. यथा संभव हिंदी में बातचीत करें।
३. अपना हस्ताक्षर हिंदी में करें।
४. बैंक तथा अन्य सरकारी कार्यालयों/विभागों से हिंदी में पत्राचार करें तथा उन्हें दस्तावेज (बैंक लेखा पुस्तिका आदि) हिंदी में देने हेतु अनुरोध करें।
५. अपनी नाम पट्टिका, परिचय पत्रक (विजिटिंग कार्ड) आदि पर हिंदी ही रखें।
६. अभियंता परियोजना संबंधी प्राक्कलन, प्रतिवेदन, मूल्यांकन, देयक, आदि हिंदी में ही बनायें। अधिवक्ता वाद-परिवाद, बहस तथा अन्य न्यायालयीन लिखा-पढ़ी हिंदी में करें। चिकित्सक मरीज से बातचीत करने, औषधि पर्ची तथा रोग का इतिहास आदि लिखने में हिंदी को वरीयता दें। शिक्षक शिक्षण कार्य में हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग करें।
७. आंग्ल/अहिन्दी भाषी विद्यालयों में शिक्षणेतर कार्य (प्रार्थना, शुभकामना आदान-प्रदान, अभिवादन आदि) हिंदी में हो।
८. सभी कार्यों में हिंदी अंकों, प्रतीकाक्षरों आदि का प्रयोग करें। बच्चों को हिंदी संख्याओं का ज्ञान अवश्य दें।
डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल (महानिदेशक, वैश्विक हिन्दी शोध संस्थान, मनोजय भवन, ११५, विष्णुलोक कॉलोनी, तपोवन रोड, देहरादून २४८००८ उत्तराखंड, भारत, चलभाष ९९०००६८७२२, ईमेल: dr.nautiyaljp@gmail.com) ने अपनी शोध में यह सिद्ध किया है कि विश्व में हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
विश्व में भाषाओं की रैंकिंग प्रक्रिया :
विश्व में भाषाओं कि रैंकिंग गैर सरकारी संस्था “एथ्नोलोग” (मुख्यालय अमेरिका) नामक संस्था करती है। यह संस्था, विश्व की भाषाओं के आँकड़े (डेटाबेस) अपने प्रतिनिधियों/प्रतिनिधि संस्थाओं से एकत्र कर; जारी करती है । जिस भाषा के बोलनेवाले संसार में सबसे अधिक होते हैं वह भाषा पहले नंबर पर आती है। भाषा के जानकारों की संख्या को स्थूल रूप में दो वर्गों में रखा जाता है; इन्हें एल-1 और एल-2 कहा जाता है । एल-1 अर्थात वे लोग जिनकी यह मातृभाषा हो अथवा जिन्हें इस भाषा पर दक्षता हासिल हो। एल-2 अर्थात वे लोग जिनकी वह भाषा अर्जित भाषा हो। उदाहरण के लिए हिन्दी के लिए एल-1 के अंतर्गत हिन्दी भाषी प्रदेशों की जनसंख्या और जिन्हें हिन्दी में दक्षता प्राप्त हो उनकी गणना होगी तथा एल-2 के अंतर्गत जो लोग सामन्य (कामचलाऊ) हिन्दी जानते हैं गिने जाएँगे।
हिन्दी विश्व में प्रथम कैसे?
डॉ. नौटियाल द्वारा की गयी शोध के अनुसार हिन्दी का विश्व में पहला स्थान है लेकिन एथ्नोलोग ने अपनी वर्ष २०२१ की रिपोर्ट में अँग्रेजीभाषी 1348 मिलियन (१ अरब ३४ करोड़ ८), मंदारिनभाषी ११२० मिलियन (१अरब १२ करोड़) तथा हिन्दी भाषी ६०० मिलियन (६० करोड़) दर्शाए हैं। वस्तुत: विश्व में हिन्दीभाषी १३५६ मिलियन (१ अरब ३५ करोड़ ६० लाख) हैं। हिन्दीभाषी अँग्रेजीभाषियों से १ करोड़ ५२ लाख अधिक हैं। अतः, हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा, विश्व भाषाओं की रैंकिंग में पहले स्थान पर है।
हिन्दी को तीसरे स्थान पर क्यों दर्शाया जाता है? :
हिन्दी को तीसरे स्थान पर दर्शाये जाने के दो कारण हैं-
१. एथ्नोलोग एक दशक पुरानी जनगणना के सरकारी आंकड़े के आधार पर हिंदीभाषियों की गणना करता है। भारत सरकार ने इस पर आपत्ति नहीं की; न ही एथ्नोलोग के गलत आंकड़े में संशोधन करने में रूचि ली। अन्य भाषा-भाषियों के नवीनतम आंकड़ों के साथ हिंदी भाषा-भाषियों के ११ साल पुराने आँकड़े के आधार पर हिंदी को तीसरी सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा कह दिया गया।
२. अन्य देशों में भाषा-भाषियों की गणना करते समय उस भाषा का अक्षर ज्ञान मात्र होने पर उसे भाषाभाषी गिन लिया जाता है।भारत में हिन्दी के लिए अलग मापदंड बनाकर जिनकी मातृभाषा हिंदी है सिर्फ उन्हें ही हिंदी भाषा-भाषी गिना जाता है। यह भारत और हिंदी की गरिमा घटाने की सोची समझी-चाल है। इसे इस प्रकार समझें-
भारत में अँग्रेजी जाननेवाले सिर्फ ६ % (८ करोड़ ४० लाख) हैं, इसे १०% (१४ करोड़) और कई जगह २०% प्रतिशत (२८ करोड़) दिखा दिया जाता है। भारत में प्रशासन की मानसिकता अंगेरजीभाषियों की संख्या अधिकतम दिखाकर खुद को उन्नत समझने की है।
चीन में ७० से अधिक बोलियाँ है। ये एक दूसरे से बिलकुल नहीं मिलती हैं अर्थात ये आपस में बोधगम्य नहीं हैं। मंदारिनभाषियों में इन बोलियों को बोलनेवालों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर जोड़कर १ अरब १२ करोड़ बताकर, इसे दूसरे नंबर पर दिखाया गया है।
भारत में हिंदी मातृभाषावाले ११ राज्यों (राजभाषा नियम के अनुसार 'क' क्षेत्र) की जनसंख्या ६५ करोड़ ५८ लाख है, एथ्नोलोग हिन्दीभाषियों की संख्या केवल ६० करोड़ दर्शाता है ।
कुछ अन्य राज्यों में जिनकी भाषा हिंदी से मिलती-जुलती है और वहाँ के निवासी हिंदी समझते हैं ('ख' क्षेत्र) की कुल जनसंख्या है २२ करोड़ ४९ लाख। इनमें ९०% प्रतिशत जनता (२० करोड़ २४ लाख) हिंदी जानती है। तीसरा 'ग' क्षेत्र है, हिंदीतर भाषी क्षेत्र जहाँ का प्रचलन कम है लेकिन हिंदी जाननेवाले बड़ी संख्या में हैं। इन राज्यों की कुल जनसंख्या है ४९ करोड़ ९८ लाख जिनमें हिंदी के जानकार हैं २९ करोड़ ७८ लाख। इन तीनों क्षेत्रों को जोड़कर भारत में हिन्दी जाननेवालों की संख्या है: क क्षेत्र में ६५ करोड़ ५८ लाख + ख क्षेत्र २० करोड़ २४ लाख + ग क्षेत्र २९ करोड़ ७८ लाख = १ अरब १६ करोड़।
विश्व में ग हिंदीभाषी- प्रत्येक उर्दूभाषी हिन्दी जानता है। एथ्नोलोग के अनुसार विश्व में उर्दूभाषी १७ करोड़ हैं। एथ्नोलोग के अनुसार विश्व के अन्य देशों में हिन्दी जाननेवालों की संख्या है ४२ लाख। (डॉ. नौटियाल के शोध के अनुसार यह संख्या २ करोड़ है)। भारत में जो अवैध आप्रवासी हिंदी बोलते हैं उनकी संख्या है १करोड़ ६०लाख । इस प्रकार विश्व में हिन्दी भाषा के जानकार हैं : १ अरब ३३ करोड़ (भारत में) + ४२ लाख (अन्य देशों में) + १ करोड़ ६० लाख (अवैध शरणार्थी) = १ अरब ३५ करोड़ से अधिक। यहाँ भी हिंदीभाषियों की संखया कम से कम गिनी गयी है ताकि विवाद न हो ।जिस सिद्धान्त से अँग्रेजी और मंदारिन के आँकड़े लिए गए हैं यदि वही तरीका हिंदी के लिए लें तो विश्व में हिंदीभाषियों की संख्या १ अरब ४५ करोड़ होगी।
क्रम भाषा विश्व में बोलनेवालों की संख्या विश्व में स्थान /रैंकिंग
१. हिंदी १ अरब ३५ करोड़ (१३५० मिलियन ) प्रथम
२. अँग्रेजी १ अरब २६ करोड़ (१२६८ मिलियन ) द्वितीय
३. मंदारिन १ अरब १२ करोड़ (११६८ मिलियन ) तृतीय
रैंकिंग की वर्तमान स्थिति :
डॉ. नौटियाल ने अपनी शोध एथ्नोलोग को भेजी कि वे हिंदी को प्रथम स्थान पर दिखाएँ। एथ्नोलोग ने सुझाव दिया कि हिंदी में उर्दू भाषा को विलीन करने के लिए आइ. एस. ओ. में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इसलिए लाइब्रेरी ऑफ कॉंग्रेस से संपर्क कर आगे की कार्रवाई की जाए। डॉ. नौटियाल ने एथ्नोलोग को उत्तर भेजा कि उर्दू भाषा का अस्तित्व मिटाने कि आवश्यकता नहीं है, सिर्फ उर्दू जाननेवालों कि गणना हिंदी जाननेवालों मे भी की जानी है, जैसे अन्य भाषाओं में किया जाता है। यह तर्क संगत है तथा एथ्नोलोग के मानदंडों के अनुरूप भी है। यह मामला संपादक मण्डल के पास विचारार्थ है । शीघ्र ही वे अपने डाटा बेस में सुधार करके हिंदी को प्रथम स्थान पर दर्शाने की प्रक्रिया आरंभ करेंगे।
कानूनी स्थिति :
हिंदी आज कि तारीख में तथ्यतः (D Facto) विश्व में पहले स्थान पर है व एथ्नोलोग से रैंकिंग बदलने के बाद यह विधितः (D Jure) भी प्रथम स्थान पर होगी। यह मामला कानूनी विशेषज्ञ के पास विधिक राय के लिए भी भेजा गया था। कानूनी विशेषज्ञ ने भी कानूनी रूप से यह पुष्टि की है कि हिंदी का विश्व में पहला स्थान है ।
प्रमाणीकरण :
यह शोध प्रमाणीकरण प्रक्रिया के २० चरण सफलतापूर्वक पूर्ण कर चुकी है, पूरी तरह प्रामाणिक है। राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने इस शोध को “फ़ैक्ट चेक” हेतु केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा को भेजा। संस्थान ने इस शोध के तथ्यों की जाँच के लिए विधिवत विशेषज्ञ नियुक्त किया जिसने इस रिपोर्ट को प्रामाणिक मानते हुए इसकी प्रबल रूप में संपुष्टि की है तथा अपनी विस्तृत सकारात्मक रिपोर्ट दी है। भारत सहित विश्व के शीर्ष १७२ भाषाविदों, विशेषज्ञों व विद्वानों ने इस रिपोर्ट की प्रामाणिकता की पुष्टि की है। संसदीय राजभाषा समिति के माननीय सदस्य राजभाषा निरीक्षणों के दौरान इस शोध की सगर्व चर्चा करते हैं। इस शोध की प्रामाणिकता को देखते हुए वित्त मंत्रालय , वित्तीय सेवाएँ विभाग, भारत सरकार ने बैंकों, वित्तीय संस्थाओं एवं बीमा कंपनियों द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में इसको प्रशिक्षण में अनिवार्य कर दिया है साथ ही उक्त सगठनों द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं में भी इस शोध को प्रकाशित करने के सरकारी आदेश जारी किए हैं। मूल शोध रिपोर्ट, शोध के प्रमाणीकरण संबंधी दस्तावेज़ या इनके प्रमाण डॉ. नौटियाल से प्राप्त किए जा सकते हैं। सुधी पाठकों के सुझावों का स्वागत है ।
***
डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल का अति सूक्ष्म परिचय
जन् ३ मार्च १९५६, देहरादून । शिक्षा- एम.ए. (हिंदी), एम.ए. (अँग्रेजी), पी-एच.डी., डी.लिट, एम.बी.ए., एल-एल.बी. सहित ८१ डिग्री/डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स। से.नि. उपमहाप्रबंधक यूनियन बैंक ऑफ इंडिया। 'विश्व का सर्वाधिक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति' होने का गौरव प्राप्त। आपका बायोडाटा (Resume) विश्व का सबसे वृहद (७ खंड, ४२०० पृष्ठ) एवं अद्वितीय है। इसमें डॉ. नौटियाल की ५०३० उपलब्धियाँ दर्ज हैं। लेखन- ८१ पुस्तकों के लेखन में योगदान, अधिकांश विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तक व संदर्भ पुस्तकें। १८०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। सम्मान- ११२ अवॉर्ड, सम्मान, और पुरस्कार, २२५ प्रशंसा पत्र। राष्ट्र की १४० शीर्ष समितियों में प्रतिनिधित्व। १६५ शोध कार्य। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में ६८६ व्याख्यान। १५० प्रकार के बौद्धिक कार्यों में योगदान। ७३ प्रकार के व्यवसायों/ पदों पर कार्य करने का अनुभव। ९११ से अधिक वेबसाइटों में विवरण उपलब्ध। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी स्थान । हिंदी विकिपीडिया,अंग्रेजी विकिटिया जैसे अन्य पोर्टलों पर विवरण उपलब्ध हैं।
***
हिंदी - कुण्डलिया
हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत
अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-असमी रस घोलें
गुजराती डोगरी, मराठी कन्नड़ बोलें
बृज मलयालम गले मिलें गारो से निर्भय
बोलें तज मतभेद, आज से हिंदी की जय
*
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें समुद ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा, बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूँज उठे, फिर हिंदी की जय..
*
हिंदी की जय बोलिए, तज विरोध-विद्वेष
विश्व नीड़ लें मान तो, अंतर रहे न शेष
अंतर रहे न शेष, स्वच्छ अंतर्मन रखिए
जगवाणी हिंदी अपनाकर, नव सुख गहिए
धरती माता के माथे पर, शोभित बिंदी
मूक हुए 'संजीव', बोल-अपनाकर हिंदी
***
परमपिता ने जो रचा, कहें नहीं बेकार
ज़र्रे-ज़र्रे में हुआ, ईश्वर ही साकार
ईश्वर ही साकार, मूलतः: निराकार है
व्यक्त हुआ अव्यक्त, दैव ही गुणागार है
आता है हर जीव, जगत में समय बिताने
जाता अपने आप, कहा जब परमपिता ने
*
निर्झर - नदी न एक से, बिलकुल भिन्न स्वभाव
इसमें चंचलता अधिक, उसमें है ठहराव
उसमें है ठहराव, तभी पूजी जाती है
चंचलता जीवन में, नए रंग लाती है
कहे 'सलिल' बहते चल,हो न किसी पर निर्भर
रुके न कविता-क्रम, नदिया हो या हो निर्झर
***
राजस्थानी मुक्तिका
*
नेह नर्मदा तैर भायला
बह जावैगौ बैर भायला
गेलो आपूं आप मलैगौ
मंज़िल की सुन टेर भायला
मुश्किल है हरदा सूं खड़बो
तू आवैगो फेर भायला
घणू कठण है कविता करबो
आकासां की सैर भायला
स्कूल गइल पै यार 'सलिल' तू
चाल मेलतो पैर भायला
***
भाषा विविध: दोहा
संस्कृत दोहा: शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान्। / पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान्।।
मैथली दोहा: ब्रम्हदेव शास्त्री
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय? / किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय।।
अवधी दोहा: डॉ. गणेशदत्त सारस्वत
राम रंग महँ जो रँगे, तिन्हहिं न औरु सुहात। / दुनिया महँ तिनकी रहनि, जिमी पुरइन के पात।।
बृज दोहा: महाकवि बिहारी
जु ज्यों उझकी झंपति वदन, झुकति विहँसि सतरात। / तुल्यो गुलाल झुठी-मुठी, झझकावत पिय जात।।
कवि वृंद:
भले-बुरे सब एक सौं, जौ लौं बोलत नांहिं। / जान पडत है काग-पिक, ऋतु वसंत के मांहि।।
बुंदेली दोहा: रामेश्वर प्रसाद गुप्ता 'इंदु'
कीसें कै डारें विथा, को है अपनी मीत? इतै सबइ हैं स्वारथी, स्वारथ करतइ प्रीत।।
पं. रामसेवक पाठक 'हरिकिंकर': नौनी बुंदेली लगत, सुनकें मौं मिठियात। बोलत में गुर सी लगत, फर-फर बोलत जात।।
बघेली दोहा: गंगा कुमार 'विकल'
मूडे माँ कलशा धरे, चुअत प्यार की बूँद। / अँगिया इमरत झर रओ, लीनिस दीदा मूँद।।
पंजाबी दोहा: निर्मल जी
हर टीटली नूं सदा तो, उस रुत दी पहचाण। / जिस रुत महकां बाग़ विच, आके रंग बिछाण।।
-डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल'
हलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदार।/ मतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार।।
गुरुमुखी: गुरु नानक
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस। / हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास।।
भोजपुरी दोहा: संजीव 'सलिल'-
चिउड़ा-लिट्ठी ना रुचे, बिरयानी की चाह।/ नवहा मलिकाइन चली, घर फूँके की राह।।
मालवी दोहा: संजीव 'सलिल'-
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम। /जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम।।
निमाड़ी दोहा: संजीव 'सलिल'-
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार। / गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार।।
छत्तीसगढ़ी दोहा: संजीव 'सलिल'-
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस । / मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस ।।
राजस्थानी दोहा:
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। /ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।।
अंगिका दोहा: सुधीर कुमार
ऐलै सावन हपसलो', लेनें नया सनेस । / आबो' जल्दी बालमां, छोड़ी के परदेश।।
बज्जिका दोहा: सुधीर गंडोत्रा
चाहू जीवन में रही, अपने सदा अटूट। / भुलिओ के न परे दू, अपना घर में फूट।।
हरयाणवी दोहा: श्याम सखा 'श्याम'
मनै बावली मनचली, कहवैं सारे लोग। / प्रेम-प्रीत का लग गया, जिब तै मन म्हं रोग।।
मगही दोहा :
रउआ नामी-गिरामी, मिलल-जुलल घर फोर। / खम्हा-खुट्टा लै चली,
राजस्थानी दोहा:
पुरस बिचारा क्या करै, जो घर नार कुनार। / ओ सींवै दो आंगळा, वा फाडै गज च्यार।।
कन्नौजी दोहा:
ननदी भैया तुम्हारे, सइ उफनाने ताल। / बिन साजन छाजन छवइ, आगे कउन हवाल।।
सिंधी दोहा: चंद्रसिंह बिरकाली
ग्रीखम-रुत दाझी धरा कळप रही दिन रात। / मेह मिलावण बादळी बरस बरस बरसात ।।
दग्ध धरा ऋतु ग्रीष्म से, कल्प रही रही दिन-रात। / मिलन मेह से करा दे, बरस-बरस बरसात।।
गढ़वाली दोहा: कृष्ण कुमार ममगांई
धार अड़ाली धार माँ, गादम जैली त गाड़। / जख जैली तस्ख भुगत ली, किट ईजा तू बाठ।।
सराइकी दोहा: संजीव 'सलिल'
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार। / लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
मराठी दोहा: वा. न. सरदेसाई
माती धरते तापता, पर्जन्यची आस। / फुकट न तृष्णा भागवी, देई गंध जगास।।
गुजराती दोहा: श्रीमद योगिंदु देव
अप्पा अप्पई जो मुणइ जो परभाउ चएइ। / सो पावइ सिवपुरि-गमणु जिणवरु एम भणेइ।।
दोहा दिव्य दिनेश से साभार
*
कार्यशाला
दो कवि एक कुण्डलिया
*
आओ! सब मिलकर रचें, ऐसा सुंदर चित्र।
हिंदी पर अभिमान हो, स्वाभिमान हो मित्र।। -विशम्भर शुक्ल
स्वाभिमान हो मित्र, न टकरायें आपस में।
फूट पड़े तो शत्रु, जयी हो रहे न बस में।।
विश्वंभर हों सदय, काल को जूझ हराओ।
मोदक खाकर सलिल, गजानन के गुण गाओ।। -संजीव 'सलिल'
****
दोहा
हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।।
१४-९-२०१८
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*
***
गीत
*
देश-हितों हित
जो जीते हैं
उनका हर दिन अच्छा दिन है।
वही बुरा दिन
जिसे बिताया
हिंद और हिंदी के बिन है।
*
अपने मन में
झाँक देख लें
क्या औरों के लिए किया है?
या पशु, सुर,
असुरों सा जीवन
केवल निज के हेतु जिया है?
क्षुधा-तृषा की
तृप्त किसी की,
या अपना ही पेट भरा है?
औरों का सुख छीन
बना जो धनी
कहूँ सच?, वह निर्धन है।
*
जो उत्पादक
या निर्माता
वही देश का भाग्य-विधाता,
बाँट, भोग या
लूट रहा जो
वही सकल संकट का दाता।
आवश्यकता
से ज्यादा हम
लुटा सकें, तो स्वर्ग रचेंगे
जोड़-छोड़ कर
मर जाता जो
सज्जन दिखे मगर दुर्जन है।
*
बल में नहीं
मोह-ममता में
जन्मे-विकसे जीवन-आशा।
निबल-नासमझ
करता-रहता
अपने बल का व्यर्थ तमाशा।
पागल सांड
अगर सत्ता तो
जन-गण सबक सिखा देता है
नहीं सभ्यता
राजाओं की,
आम जनों की कथा-भजन है
***
सलिल-लहर से रश्मि मिले तो, झिलमिल हो जीवन नदिया
रश्मि न हो तम छाये दस-दिश, बंजर हो जग की बगिया
रश्मि सूर्य को पूज्य बनाती, शशि को देती रूप छटा-
रश्मि ज्ञान की मिल जाए तो जीवात्मा होती अभया
*
हिंदी दिवस २०१६
***
गीत
*
छंद बहोत भरमाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
वरण-मातरा-गिनती बिसरी
गण का? समझ न आएँ
राम जी जान बचाएँ
*
दोहा, मुकतक, आल्हा, कजरी,
बम्बुलिया चकराएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कुंडलिया, नवगीत, कुंडली,
जी भर मोए छकाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
मूँड़ पिरा रओ, नींद घेर रई
रहम न तनक दिखाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कर कागज़ कारे हम हारे
नैना नीर बहाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ग़ज़ल, हाइकू, शे'र डराएँ
गीदड़-गधा बनाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ऊषा, संध्या, निशा न जानी
सूरज-चाँद चिढ़ाएँ
राम जी जान बचाएँ
१४-९-२०१६
***
कविता का अनुकथन :
हिंदी के किसी प्रसिद्ध कवि की कविता का चयन कर उसके कथ्य को किसी अन्य कवि की शैली में लिखिए। अपनी रचना भी प्रस्तुत कर सकते हैं। शालीनता और मौलिकता आवश्यक है।
रचनाकार: संजीव
*
शैली : बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
राधावत, राधसम हो जा, रे मेरे मन,
पेंग-पेंग पायेगा , राधा से जुड़ता तन
शुभदा का दर्शन कर, जग की सुध दे बिसार
हुलस-पुलक सिहरे मन, राधा को ले निहार
नयनों में नयन देखे मन सितार बज
अग-जग की परवा तज कर, जमुना जल मज्जन
राधावत, राधसम हो जा, रे मेरे मन
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मूल पंक्तियाँ:
अंतर्मुख, अंतर्मुख हो जा, रे मेरे मन,
उझक-उझक देखेगा तू किस-किसके लांछन?
कर निज दर्शन, मानव की प्रवृत्ति को निहार
लख इस नभचारी का यह पंकिल जल विहार
तू लख इस नैष्ठि का यह व्यभिचारी विचार,
यह सब लख निज में तू, तब करना मूल्यांकन
अंतर्मुख, अंतर्मुख हो जा, रे मेरे मन.
हम विषपायी जनम के, पृष्ठ १९
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शैली : वीरेंद्र मिश्र
जमुन तट रसवंत मेला,
भूल कर जग का झमेला,
मिल गया मन-मीत, सावन में विहँस मन का।
मन लुभाता संग कैसे,
श्वास बजती चंग जैसे,
हुआ सुरभित कदंबित हर पात मधुवन का।
प्राण कहता है सिहर ले,
देह कहती है बिखर ले,
जग कहे मत भूल तू संग्राम जीवन का।
मन अजाने बोलता है,
रास में रस घोलता है,
चाँदनी के नाम का जप चाँद चुप मनका।
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मूल रचना-
यह मधुर मधुवन्त वेला,
मन नहीं है अब अकेला,
स्वप्न का संगीत कंगन की तरह खनका।
साँझ रंगारंग है ये,
मुस्कुराता अंग है ये,
बिन बुलाये आ गया मेहमान यौवन का।
प्यार कहता है डगर में,
बाह नहीं जाना लहर में,
रूप कहता झूम जा, त्यौहार है तन का।
घट छलककर डोलता है,
प्यास के पट खोलता है,
टूट कर बन जाय निर्झर, प्राण पाहन का।
अविरल मंथन, सितंबर २०००, पृष्ठ ४४
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शैली : डॉ. शरद सिंह
आ झूले पर संग झूलकर, धरा-गगन को एक करे
जमुना जल में बिंब देखकर, जीवन में आनंद भरें
ब्रिज करील वन में गुंजित है, कुहू कुहू कू कोयल की
जैसे रायप्रवीण सुनाने, कजरी मीठी तान भरे
रंग कन्हैया ने पाया है, अंतरिक्ष से-अंबर से
ऊषा-संध्या मौक़ा खोजें, लाल-गुलाबी रंग भरे
बाँहों में बाँहें डालो प्रिय!, मुस्का दो फिर हौले से
कब तक छिपकर मिला करें, हम इस दुनिया से डरे-डरे
चलो कोर्ट मेरिज कर लें या चल मंदिर में माँग भरूँ
बादल की बाँहों में बिजली, देख-देख दिल जला करे
हममें अपनापन इतना है, हैं अभिन्न इक-दूजे से
दूरी तनिक न शेष रहे अब, मिल अद्वैत का पंथ वरे
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मूल रचना-
रात चाँद की गठरी ढोकर, पूरब-पश्चिम एक करे
नींद स्वप्न के पोखर में से, अँजुरी-अँजुरी स्वप्न भरे
घर के आँगन में फ़ैली है, आम-नीम की परछाईं
जैसे आँगन में बिखरे हों, काले-काले पात झरे
उजले रंग की चादर ओढ़े, नदिया सोई है गुपचुप
शीतल लहरें सोच रही हैं, कल क्या होगा कौन डरे?
कोई जब सोते-सोते में, मुस्का दे यूँ हौले से
समझो उसने देख लिये हैं काले आखर हरे-हरे
बड़ा बृहस्पति तारा चमके, जब मुँडेर के कोने पर
ऐसा लगता है छप्पर ही, खड़ा हुआ है दीप धरे
यूँ तो अपनापन सिमटा है, मंद हवा के झोंकें में
फिर भी कोई अपना आये, कहता है मन राम करे!
१४-९-२०१५

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

सितंबर २, सोरठा, सूर्य, परिवार, क्षणिका, देव, नवगीत, मुक्तक, यमक, दोहा, मुक्तिका, छंद

सलिल सृजन सितंबर २
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सलिल सृजन सितंबर २
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सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२५. दीन दयाल उपाध्याय दिवस 
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
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शोधालेख:
छंद की आधार भूमि काव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
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छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारु रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
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शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
*
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
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कुंडलियां
दिल
दिल दिल से दिल हारकर, बन बैठा दिलदार।
हुई दिल्लगी दिल लगी, पहुँच गई दिल-द्वार।।
पहुँच गई दिल द्वार, न जोड़ा दिल जो तोड़ा।
बेदिल फेवीकोल, न लाई हाथ मरोड़ा।।
दिल बस दिल में बसा, न पाई कर दिल घायल।
दिल डाक्टर दर पहुँच, भर रहा दिल दिल का बिल।।
२-८-२०२३
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सोरठा
रवि भास्कर मार्तण्ड, रश्मिरथी दिनकर दिनद।
लोहित भानु प्रचंड, सूरज सविता सूर्य शुभ।।
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आदिदेव भुवनेश, दीप्त दिवाकर प्रभाकर।
छाया-स्वामी दिनेश, किरणकांत किरणेश हे।।
*
अरुणकांत अरुणेश, त्रिभुवनपति भुवनेsश्वर।
दिवाकान्त दीप्तेश, ज्योतिपुंज जगदीsश्वर।
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रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत।
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत।।
२-९-२०२२
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विमर्श - परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
गणेश चौथ
२-९-२०१९
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क्षणिका: कृपा
"कृपा चाहता हूँ"
न कहना कभी भी,
वरना नहीं तुम
रिहा हो सकोगे।
बहिन है 'कृपा'
इन जज साहिबा की
माँगा जो,
मुश्किल में
ज्यादा फँसोगे।
२.९.२०१८
***
विमर्श - देवता कौन हैं?
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
२-९-२०१६
***
दोहा
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
संविधान को स्वार्थ हित, नेता रहे मरोड़
*
चाँद देखता चाँद को, हवा-चाँदनी मौन
ठगे रह गये पूछते, किससे सुन्दर कौन?
***
नवगीत:
*
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दर्जा सबसे अलग दे दिया
चार-चार शादी कर लें.
पा तालीम मजहबी खुद ही
अपनी बर्बादी वर लें.
अलस् सवेरे माइक गूँजे
रब की नींद हराम करें-
अपनी दुख्तर जिन्हें न देते
उनकी दुख्तर खुद ले लें.
फ़र्ज़ भूल दफ़्तर से भागें
कहें इबादत ही मजहब।
कट्टरता-आतंकवाद से
खुश हो सकता कैसे रब?
बिसरा दी
सूफी परंपरा
बदतर फतवे खाप से.
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
भारत माँ की जय से दूरी
दें न सलामी झंडे को.
दहशतगर्दों से डरते हैं
तोड़ न पाते डंडे को.
औरत को कहते जो जूती
दें तलाक जब जी चाहे-
मिटा रहे इतिहास समूचा
बजा सलामी गुंडे को.
रिश्ता नहीं अदब से बाकी
वे आदाब करें कैसे?
अपनों का ही सर कटवाते
देकर मुट्ठी भर पैसे।
शासन गोवध
नहीं रोकता
नहीं बचाता पाप से
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दो कानून बनाये हैं क्यों?
अलग उन्हें क्यों जानते?
उनकी बिटियों को बहुएँ
हम कहें नहीं क्यों मानते?
दिये जला, वे होली खेलें
हम न मनाते ईद कभी-
मिटें सभी अंतर से अंतर
ज़िद नहीं क्यों ठानते?
वे बसते पूरे भारत में
हम चलकर कश्मीर बसें।
गिले भुलाकर गले मिलें
हँसकर बाँहों में बाँध-गसें।
एक नहीं हम
नज़र मिलायें
कैसे अपने आपसे?
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
(उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा मुस्लिमों से भेदभाव की शिकायत पर)
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
संविधान को स्वार्थ हित, नेता रहे मरोड़
२-९-२०१५
विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पिद्दा साहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. नेयाले ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ती लिए भी? देवबली के नाम पर मरे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है की हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और पानी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारीयों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुंचाएं।
मुक्तक सलिला:
(त्रयोदशी छंद)
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं,
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं,
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने,
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से,
कहते सही उसूल है
२-९-२०१४
***
मुक्तक
देखकर चलिए बुरा है यह जमाना
लगे ठोकर तो न औरों को बताना
दर्द बाँटेगा न कोई, हँसी होगी
बेहतर है चोट चुप सह मुस्कुराना
***
दोहा
रश्मिरथी दिनकर नमन, रवि भास्कर मार्तण्ड
सूरज सूर्य दिनज नमन, लोहित भानु प्रचंड
*
रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत
२-९-२०१३
***
दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
....नहीं द्वार का काम
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
२-९-२०११
***
मुक्तिका
मछलियाँ
*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..
मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..
मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..
मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..
हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
२.९.२०१०
***

बुधवार, 20 अगस्त 2025

अगस्त २०, गीत, मुक्तक, जन्म दिवस, नवगीत

 सलिल सृजन अगस्त २०

*
मुक्तक
आपकी सद्भावना को नमन शत-शत
समय की संभावना को नमन शत-शत
कौन किस पल विदा होगा, कौन जाने?
मीत! मंगल कामना को नमन शत-शत
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जन्मदिन की शुभकामनाएँ!! 🎉🎂 आपके जन्मदिवस पर ============== वन्दनवारों से सजी आज, वीथी में धूम तुम्हारी है।। मंगलकारी हो जन्मदिवस, ऐसी अभिलाष हमारी है।। दिनरात चौगुनी बढ़ती हो, सम्मान तुम्हारे साथ चलें। बरसात खुशी की हो ऐसी, पथ से दुख भागें हाथ मलें।। जीवन फूलों सा महक उठे, सम्पदा विभा से भरी रहे। सूरज सा दमके मुखमण्डल, मुस्कान अधर पर धरी रहे।। अनुराग भावना से पूरित, गा रहा गीत परिवारी है। मंगलकारी हो जन्मदिवस, ऐसी अभिलाष हमारी है।। हर बार सफलता मिले तुम्हें, असफलता नाम निशान न हो। अकलंक कीर्ति फैले जग में, व्याकुलता रोग थकान न हो।। पुरखों की कृपा रहे तुम पर, आशीष बुजुर्गों के बरसें। वरदान देवता देने को , घर परआएँ चलकर हरसें।। हर युग तुम पर अभिमान करे, इच्छित जीवन की पारी है। मंगलकारी हो जन्म दिवस, ऐसी अभिलाष हमारी है।। पा आयु विजय आकाश छुओ, अपने कुल को यश धाम करो। चन्दा - सूरज हों मगन देख, गुरुओं का जग में नाम करो।। आनन्द लुटाती नदी बनो, खुशियों से भरे किनारे हों। हो जन्म सार्थक और सफल, पूरे अरमान तुम्हारे हों ।। हो उम्र हजारी हृष्ट - पुष्ट , कामना "प्राण" की भारी है। मंगलकारी हो जन्मदिवस, ऐसी अभिलाष हमारी है।। गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" "वृत्तायन" 957 स्कीम नंबर 51 इन्दौर पिन -452006 9424044284 / 6265196070
२०-८-२०२५
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जीवेत शरद: शतम् शतम्...
सुदिनं सुदिनं जन्मदिनम्,
भवतु मंगलम् विजयीभव सर्वदा,जन्मदिनस्य हार्दिक शुभेच्छा:
चिरंजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने !
रुपवान्वित्तवांश्चैव श्रिया युक्तश्च सर्वदा ! १ !
मार्कण्डेय नमस्तेस्तु सप्तकल्पान्तजीवन !
आयुआरोग्यसिध्द्यर्थं प्रसीद भगवन्मुने ! २ !
चिरंजीवी यथा त्वं तु मुनिनां प्रवरो द्विज !
कुरुष्व मुनीशार्दुल तथा मां चिरजीविनम ! ३ !
मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पान्तजीवन !
आयुआरोग्यसिध्द्यर्थं अस्माकं वरदो भव ! ४ !
जय देवि जगन्मातर्जगदानन्दकारिणि !
प्रसीद मम कल्याणि नमस्ते षष्ठीदेवते !५!
त्रैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च !
ब्रह्माविष्णुशिवै:सार्थं रक्षां कुर्वन्तु तानि मे ! ६ !
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हर दिन नया जन्म होता है, हर दिन आँख मूँदते हैं हम
साथ समय के जब तक चलते तब तक ही मंजिल वरते हम
सुख-दुःख धूप-छाँव सहयात्री, जब जो पाओ वह स्वीकारें-
साथ न कुछ आता-जाता है, जो छूटे उसका हो क्यों गम??
आपका आभार शत शत।
स्नेह पाकर शीश है नत।।
२०-८-२०२१
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गीत -
*
कब-कब कितने जन्म हुए हैं
मरण हुए कब, कौन बताये?
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
सूर्य उगा, गौरैया चहकी
बादल बरसे, बगिया महकी
खोया-पाया मिथ्या माया
भू की गोदी नभ की छाया
पिता न माता साथ रह गए
भाई-बहिन निज मार्ग पा गए
अर्धांगिनी सर्वांगिनी लेकिन
सच कह मुश्किल कौन बढ़ाये?
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
घर-घर में चूल्हे माटी के
रीति-रिवाजों, परिपाटी के
बेटा बनकर बाप बाप का
जूता पहने एक नाप का
संबंधों की खाली गठरी
श्वास-आस अब तो मत ठग री!
छंद न जिनसे सध पाया वे
छंदहीनता मुकुट सजाये
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
आभासी दुनिया भरमाये
दूर-निकट को एक बनाये
दो दिखता वह सत्य न होता
सत्य न दिखता, खोज थकाये
कथ्य भाव रस लय गति-यति पा
धन्य जन्म शारद से मति पा
चित्र गुप्त प्रभु, झलक दिखा दो
जब चाहो तब निकट बुला लो
राह तकें कब मिले बुलावा
चरण-शरण पा, भव तर पाये
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
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रज ने भेजी है वसुधा को पाती,
संदेसा लाई है धूप गुनगुनाती...
आदम को समझा इंसान बन सके
किसी नैन में बसे मधु गान बन सके
हाथ में ले हाथ
सुबह सुना दे प्रभाती..!!
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मुक्तक
भावभरी शुभकामना, नर्मद नेह पुनीत
सलिल तृप्त संजीव हो, है आभारी मीत
स्नेह समीर प्रवह करे, तन-मन को संप्राण
जीवन को जीवन मिले, हो संकट से त्राण
*
जो हुआ अच्छा हुआ होता रहे
मित्रता की फसल दिल बोता रहे
लाद कर गंभीरता नाहक जिए
मुस्कराहट में थकन खोता रहे
*
कभी तो कोई हमें भी 'मिस' करे
स्वप्न में अपने हमें कोई धरे
यह न हो इस्लाह माँगे और फिर
कर नमस्ते दूर से ही वह फिरे
२०-८-२०२०
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नवगीत
*
खूँटे से बँध
हम विचार-पशु
लात चलाते
सींग मारते।
*
पगुराते हैं
डकराते हैं
बिना बात ही
टकराते हैं
संप्रभुओं प्रति
शीश झुकाते
सत्य कब्र में
रोज गाड़ते
*
पल-पल लिखते
नर अतीत हैं
लिखें गद्य, अड़
कहे गीत हैं
सत्य-ग्रंथ को
चीर-फाड़ते
२०-८-२०१९
ए १/२५ श्रीधाम एक्सप्रेस
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मुक्तक
जो हुआ अच्छा हुआ होता रहे
मित्रता की फसल दिल बोता रहे
लाद कर गंभीरता नाहक जिए
मुस्कराहट में थकन खोता रहे
*
कभी तो कोई हमें भी 'मिस' करे
स्वप्न में अपने हमें कोई धरे
यह न हो इस्लाह माँगे और फिर
कर नमस्ते दूर से ही वह फिरे
गीत-
*
कब-कब कितने जन्म हुए हैं
मरण हुए कब, कौन बताये?
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
सूर्य उगा, गौरैया चहकी
बादल बरसे, बगिया महकी
खोया-पाया मिथ्या माया
भू की गोदी नभ की छाया
पिता न माता साथ रह गए
भाई-बहिन निज मार्ग पा गए
अर्धांगिनी सर्वांगिनी लेकिन
सच कह मुश्किल कौन बढ़ाये?
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
घर-घर में चूल्हे माटी के
रीति-रिवाजों, परिपाटी के
बेटा बनकर बाप बाप का
जूता पहने एक नाप का
संबंधों की खाली गठरी
श्वास-आस अब तो मत ठग री!
छंद न जिनसे सध पाया वे
छंदहीनता मुकुट सजाये
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
*
आभासी दुनिया भरमाये
दूर-निकट को एक बनाये
दो दिखता वह सत्य न होता
सत्य न दिखता, खोज थकाये
कथ्य भाव रस लय गति-यति पा
धन्य जन्म शारद से मति पा
चित्र गुप्त प्रभु, झलक दिखा दो
जब चाहो तब निकट बुला लो
राह तकें कब मिले बुलावा
चरण-शरण पा, भव तर पाये
बिसरा कर सारे सवाल हम
गीतों से मिलकर जी पाये
२०-८-२०१६
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एक रचना :
मानव और लहर
*
लहरें आतीं लेकर ममता,
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झंडे रखता खूब
लहर बहांती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चन्दन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
';कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
२०.८.२०१५
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पंकज के शत दलों का, देव साथ दें साथ.
ज्ञान-परिश्रम-प्रेम के, तीन वेद हों हाथ..
गीत:
आपकी सद्भावना में...
*
आपकी सद्भावना में कमल की परिमल मिली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
उषा की ले लालिमा रवि-किरण आई है अनूप.
चीर मेघों को गगन पर है प्रतिष्टित दैव भूप..
दुपहरी के प्रयासों का करे वन्दन स्वेद-बूँद-
साँझ की झिलमिल लरजती, रूप धरता जब अरूप..
ज्योत्सना की रश्मियों पर मुग्ध रजनी मनचली.
हृदय-कलिका नवल आशा पा पुलककर फिर खिली.....
*
है अमित विस्तार श्री का, अजित है शुभकामना.
अपरिमित है स्नेह की पुष्पा-परिष्कृत भावना..
परे तन के अरे! मन ने विजन में रचना रची-
है विदेहित देह विस्मित अक्षरी कर साधना.
अर्चना भी, वंदना भी, प्रार्थना सोनल फली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
मौन मन्वन्तर हुआ है, मुखरता तुहिना हुई.
निखरता है शौर्य-अर्णव, प्रखरता पद्मा कुई..
बिखरता है 'सलिल' पग धो मलिनता को विमल कर-
शिखरता का बन गयी आधार सुषमा अनछुई..
भारती की आरती करनी हुई सार्थक भली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
२०-८-२०१०
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प्रीतम सबका एक जो, सबसे करता प्रीत.
ध्यान उसी का करें हम, गायें उसी के गीत.