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सोमवार, 10 मार्च 2025

मार्च १०, क्रिकेट, कहमुकरी, लोककथा, कुण्डलिया, होली, घनाक्षरी, गीत, दोहा

सलिल सृजन मार्च १०
*
भारत अविजित
एक एक मिल ग्यारह हों जब, तब बढ़ जाता वेट।
ग्यारह मिल जब एक बनें तो जीतें विश्व क्रिकेट।।
सब सपना देखें 'विराट' मिल, करें उसे साकार।
'शुभ मन' हो तो 'हार्दिक' खुशियाँ, मिलतीं आखिरकार।।
'अक्षर' अक्षय खेल भावना, 'श्रेयस' की हकदार।
'राहुल-रोहित अर्श दीप' ले, 'हर्षित' हर अँधियार।।
तरुण 'वरुण' ले गेंद गरुण सम चकरा दे हर बार। 
'ऋषभ-यशस्वी' दें ताली, 'सुंदर' 'कुलदीप' प्रहार।।    
जड़े 'जडेजा' चौका जीते, न्यूजीलैंड पराजित। 
पाकिस्तानी मुँह लटकाए, 'गौतम' भारत अविजित।। 
शमा जलाकर 'शमी' मिटा दे, हर शंका-संदेह।
ट्राफी लिए चैंपियन की हँस लौटें अपने गेह।।
९.३.२०२३
०००
अनुरोध:
भोजन-स्थान पर निम्न सन्देश लिखवायें / घोषणा करवायें :
१. अन्न देवता का अपमान मत करें
२. भोजन फेंकना पाप है.
३. देवता भोग ग्रहण करते हैं, मनुष्य भोजन खाते हैं, राक्षस फेंकते हैं.
४. भोजन की बर्बादी,भूखे की मौत.
५. जितनी भूख उतना लें, जितना लें, उतना खाएं.
६. इस जन्म में भोजन फेंकें, अगले जन्म में भूखे मरें.
७. खाना खा. फेंक मत.
८. खाने से प्यार, बर्बादी से इंकार
९. खाना बचे, भूखे को दें.
१० जितना खा सकें उससे कुछ कम लें.
११. दाने-दाने पर खानेवाले का नाम
जो दाना फेंका उस पर था आपका नाम
अगले जनम में दाने पर नहीं होगा आपका नाम
तब क्या करेंगे?
१२. जीवनाधार
भोजन का सामान
बर्बादी रोकें.
१३. जितना खाना
परोसें उतना ही
फेकें न दाना
१४. भूखे-मुँह में देना दाना
एक यज्ञ का पुण्य कमाना.
१५. पशु-पक्षी को जूठन डालें
प्रभु से गलती क्षमा करा लें.
१६. कम खाना, कम बीमारी
ज्यादा खाना, मुश्किल भारी.
१७. खाना गैर का, पेट आपका.
१८. खाना सस्ता, इलाज मंहगा.
१९. सरल खाना / कठिन पचाना.
२०. भूख से कम खायें, सेहत बनायें.
२१. बचा हुआ शुद्ध ताजा भोजन अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम अथवा मंदिर के बाहर
भिक्षुकों को वितरित करा दें. जूठा भोजन / जूठन पशुओं को खाने के लिये दें.
***
कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
लोककथा कहावत की
ये मुँह और मसूर की दाल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
एक राजा था, अन्य राजाओं की तरह गुस्से का तेज हुए खाने का शौक़ीन। रसोइया बाँकेलाल उसके चटोरेपन से परेशान था। राजा को हर दिन कुछ नया खाने की लत और कोढ़ में खाज यह कि मसूर मसालेदार दाल की दाल राजा को विशेष पसंद थी। मसूर की दाल बाँकेलाल के अलावा और कोई बनाना नहीं जानता था। इसलिए बांके लाल राजा की मूँछ का बाल बन गया।
एक दिन बाँकेलाल की साली, अपने जीजा के घर आई। उसकी खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए इसलिए बाँकेलाल ने राजा से कुछ दिनों के लिए छुट्टी माँगी।
राजा के पास उसके मित्र पड़ोसी देश के राजा के आगमन का संदेश आ चुका था।
हुआ यह कि राजा ने अपने मित्र राजा से बाँकेलाल की बनाई मसूर की दाल की खूब तारीफ की थी। मित्र राजा अपनी रानी सहित आया, ताकि मसूर की दाल का स्वाद ले सके। इसलिए राजा ने बाँकेलाल की छुट्टी मंजूर नहीं की। बाँकेलाल की साली ने उसका खूब मजाक उड़ाया कि जीजाजी साली से ज्यादा राजा का ख्याल रखते हैं। घरवाली का मुँह गोलगप्पे की तरह फूल गया कि उसकी बहिन के कहने पर भी बाँकेलाल ने उसके साथ समय नहीं बिताया। बाँकेलाल मन मसोसकर काम पर चला गया।
खीझ के कारण उसका मन खाना बनाने में कम था। उस दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा पड़ गया और दाल कुछ कम गली। मेहमान राजा को भोजन में आनंद नहीं आया। नाराज राजा से बाँकेलाल को नौकरी से निकाल दिया। बेरोजगारी ने बाँकेलाल के सामने समस्या खड़ी कर दी। राजा एक रसोइया रह चुका था इसलिए किसी आम आदमी के घर काम करने में उसे अपमान अनुभव होता। घर में रहता तो घरवाली जली-कटी सुनाती।
कहते हैं सब दिन जात न एक समान, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, नगर सेठ मन ही मन राजा से ईर्ष्या करता था। उसे घमंड था कि राजा उससे धन उधार लेकर झूठी शान-शौकत दिखाता था। उसे बाँकेलाल के निकले जाने की खबर मिली तो उसने बाँकेलाल को बुलाकर अपन रसोइया बना लिया और सबसे कहने लगा कि राजा क्या जाने गुणीजनों की कदर करना?
अँधा क्या चाहे दो आँखें, बाँकेलाल ने जी-जान से काम करना आरंभ कर दिया। सेठ को राजसी स्वाद मिला तो वह झूम उठा।
सेठ की शादी की सालगिरह का दिन आया। अधेड़ सेठ युवा रानी को किसी भी कीमत पर प्रसन्न देखना चाहता था। उसने बाँकेलाल से कुछ ऐसा बनाने की फरमाइश की जिसे खाकर सेठानी खुश हो जाए। बाँकेलाल ने शाही मसालेदार मसूर की दाल पकाई। सेठ के घर में इसके पहले मसूर की दाल कभी नहीं बनी थी। सेठ-सेठानी और सभी मेहमानों ने जी भरकर मसूर की दाल खाई। सेठ ने बाँकेलाल को ईनाम दिया। यह देखकर उसका मुनीम कुढ़ गया।
अब सेठ अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मित्रों को दावत देकर वाहवाही पाने लगा।
बाँकेलाल खुद जाकर रसोई का सामान खरीद लाता था इस कारण मुनीम को पहले की तरह गोलमाल करने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। मुनीम बाँकेलाल से बदला लेने का मौका खोजने लगा। बही में देखने पर मुनीम ने पाया की जब से बाँकेलाल आया था रसोई का खर्च लगातार बढ़ था। उसे मौका मिल गया। उसने सेठानी के कान भरे कि बाँकेलाल बेईमानी करता है। सेठानी ने सेठ से कहा। सेठ पहले तो अनसुनी करता रहा पर सेठानी ने दबाव डाला तो उसकी नाराजगी से डरकर सेठ ने बाँकेलाल को बुलाकर डाँट लगाई और जवाब-तलब किया कि वह रसोई का सामान लाने में गड़बड़ी कर रहा है।
बाँकेलाल को काटो तो खून नहीं, वह मेहनती और ईमानदार था। उसने सेठ को मेहमानों और दावतों की बढ़ती संख्या और मसलों के लगातार लगातार बढ़ते बाजार भाव का सच बताया और मसूर की दाल में गरम मसाले और मखाने आदि डलने की जानकारी दी। सेठ की आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। उसने नौकर को भेजकर किरानेवाले को बुलवाया और पूछताछ की। किरानेवाले ने बताया कि बाँकेलाल हमेशा उत्तम किस्म के मसाले पूरी तादाद में लता था और भाव भी काम करते था। बाँकेलाल बेईमानी के झूठे इल्जाम से बहुत दुखी हुआ और सेठ की नौकरी छोड़ने का निश्चय कर अपना सामान उठाने चला गया।
वह जा ही रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी सेठानी नौकर से कह रही थी कि शाम को भोजन में मसूर की दाल बनाई जाए। स्वाभिमानी बाँकेलाल ने यह सुनकर कमरे में प्रवेश कर कहा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। मैं काम छोड़कर जा रहा हूँ।
सेठ-सेठानी मनाते रह गए पाए वन नहीं माना। तब से किसी को सामर्थ्य से अधिक पाने की चाह रखते देख कहा जाने लगा 'ये मुँह और मसूर की दाल'।
••
कुण्डलिया
*
दर्शन के दर्शन बिना, रहता मन बेज़ार
तेवर वाली तेवरी, करे निरंतर वार
करे निरंतर वार, केंद्र में रखे विसंगति
करे कौन मनुहार, बढ़े हर समय सुसंगति
मत करिए वन काम, करे मन जिसका वर्जन
अंतर्मन में झांक, कीजिए प्रभु का दर्शन
*
देवर आए खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रँगा, भागे बिगड़ा काज
भागे बिगड़ा काज, न गुझिया पपड़ी खाई
भौजी की बहिना न, सामने पड़ी दिखाई
रंग हुए बेरंग, उदास हो गए देवर 
लाल पलाश हार, पहनाएँ किसको जेवर 
***
घनाक्षरी
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
१०-३-२०२०
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
१०-३-२०१७
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ..
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ! दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
गीत,
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
१०-३-२०१०
***

मंगलवार, 4 मार्च 2025

मार्च ४, सॉनेट, तितलियाँ, नवगीत, तू, होली, बंधु, जगदीश पंकज, समीक्षा, क्रिकेट

सलिल सृजन मार्च ४
*
सॉनेट
एक गेंद तेरह जन खेलें
टाक रहे दो मौन खड़े रह
एक-एक क्यों सभी न ले लें
थकें झपटने व्यर्थ खड़े रह
काम नहीं जिनको है कोई
देख रहें वह पीटें ताली
कोई कह रहा किस्मत सोई
जो आउट उसको दें गाली
अब्दुल्ला दीवाना जैसे
बेगानी शादी में होता
दर्शक भी दीवाना वैसे
खेल क्रिकेट देख कर होता
सट्टा खेल लुट रहे नाहक
निज विनाश के बनकर गाहक
४.३.२०२५
***
सॉनेट
तितलियाँ
*
तितलियों में हौसला है कम नहीं,
पंख फैला उड़ रही हैं तितलियाँ,
नाप नभ झुक मुड़ रही हैं तितलियाँ,
तितलियों में कौन कहता दम नहीं।
तितलियों की आँख कब नत नम नहीं,
ऊषा से लें नित उजाला तितलियाँ,
धरा को दें नव उजाला तितलियाँ,
तितलियाँ भँवरे कहो क्यों सम नहीं।
परकटी होकर न सिसकें तितलियाँ,
तितलियों के स्वप्न हों साकार सब,
साधना करतीं अहर्निश तितलियाँ।
प्रेम-पंकिल हो न फिसलें तितलियाँ,
तितलियाँ हों सफलता-आगार अब,
कीर्ति पा हँसतीं विनत हो तितलियाँ।
४.३.२०२४
***
मार्च - कब क्या ?
२ - सरोजनी नायडू दिवस, ब्योहार राजेंद्र सिंह निधन १९८८।
३ - वन्य जीवन दिवस, फ़िराक़ गोरखपुरी निधन।
४ - सुरक्षा दिवस, रेणु जयंती।
७ - गोविन्द वल्लभ पंत दिवस, अज्ञेय जयंती।
८ - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
१०. सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि।
११ - वैद्यनाथ जयंती, लोधेश्वर दिवस।
१२- क्रांतिकारी भगवानदास माहौर निधन।
१४ - स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जयंती।
१५ - विश्व उपभोक्ता संरक्षण दिवस, विश्व विकलांग दिवस, रामकृष्ण परमहंस जयंती, कवि इंद्रमणि उपाध्याय निधन।
२० - रानी अवंती बाई बलिदान दिवस।
२१ - विश्व वानिकी दिवस, विश्व आनंद दिवस, विश्व गौरैया दिवस, ओशो संबोधि दिवस, दादूदयाल जयंती, बिस्मिल्लाखाँ जन्म, शिवानी निधन।
२२ - विश्व जल दिवस, राष्ट्रीय शक संवत १९४३ आरंभ। ।
२३ - भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव शहादत दिवस, शहीद हेम कालाणी जन्म, राममनोहर लोहिया जयंती।
२४ - विश्व क्षय रोग दिवस, नवल पंथ योगेश्वर दयाल जयंती।
२५ - गणेश शंकर विद्यार्थी बलिदान दिवस।
२६ - महीयसी महादेवी जयंती।
२७ - सम्राट अशोक जयंती।
२८ - मैक्सिम गोर्की जन्म।
३० - तुकाराम जयंती।
*
सॉनेट
क्या?
खुदी से खुद रहे छिपाते क्या?
आँख फूटी नयन मिलाते क्या?
झूठ को सच रहे बताते क्या?
आग घर में रहे लगाते क्या?
डर से डरते, कभी डराते क्या?
हाथ आकर, न हाथ आते क्या?
स्वार्थ बिन सिर कभी झुकाते क्या?
माथ माटी कभी लगाते क्या?
साथ जो जाए, वही लाते क्या?
देह को गेह कह जलाते क्या?
खो गये जो न याद आते क्या?
साथ जो दिल वही दुखाते क्या?
जो लिखा, 'सलिल' समझ पाते क्या?
बिना समझे ही लिख छपाते क्या?
४-३-२०२२
•••
मुक्तिका
जो गये, याद वही आते क्या?
दर्द पा मौन, मुस्कुराते क्या?
तालियाँ बज रहीं बिना जाने
कोयलें मौन, काग गाते क्या?
बात जन की न कोई सुनता है
बात मन की न सच, सुनाते क्या?
जो निबल लो दबोच उसको तुम
बल सबल पे भी आजमाते क्या?
ऑनलाइन न भूख मिटती है
भुखमरी में तुम्हें खिलाते क्या?
४-३-२०२२
•••
द्विपदी
इश्क है तो जुबां से कुछ न कहें
बोले बिन भी निगाह बोलेगी।
४-३-२०२१
***
मुक्तक:
फूल फूला तो तभी जब सलिल ने दी है नमी
न तो माटी ने, न हवाओं ने ही रखी है कमी
सारे गुलशन ने महककर सुबह अगवानी की
सदा मुस्कान मिले, पास मतआए गमी
४-३-२०१८
***
नवगीत
तू
*
पल-दिन,
माह-बरस बीते पर
तू न
पुरानी लगी कभी
पहली बार
लगी चिर-परिचित
अब लगती
है निपट नई
*
खुद को नहीं समझ पाया पर
लगता तुझे जानता हूँ
अपने मन की कम सुनता पर
तेरी अधिक मानता हूँ
मन में मन से
प्रीति पली जो
कम न
सुहानी हुई कभी
*
कनखी-चितवन
मुस्कानों ने
कब-कब
क्या संदेश दिए?
प्राण प्रवासी
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र
जीवन का
सच, न
कहानी हुई कभी
*
चलते-चलते
कदम थक रहे
लेकिन
प्यास अभी बाकी।
हास सुरा ले
श्वास पात्र में
कर दे
तृप्त श्वास सकी।
हाथ हाथ में
थामें सिहरें
भेंट
हुई ज्यों अभी अभी
***
नवगीत -
याद
*
याद आ रही
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने
जीवन पथ पर कदम धरे हैं
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको
नेह नर्मदा नहा तरे हैं
मैं-तुम हम हैं
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने
लिखी कहानी
याद आ रही
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ
अपनेपन की
पुरवाई सँग
पछुआ आयी
हुलस सुहानी
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ
चहकी चिड़िया, महका महुआ
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ
बीत गयी
पल में ज़िंदगानी
कहते-सुनते
राम कहानी
४-३-२०१६
***
होली की कुण्डलियाँ:
मनाएँ जमकर होली
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता केजरि लालू हैं तैयार
लालू हैं तैयार, ठाकरे शरद न बच्चे
फूँक फूँक रख पाँव, दाँव नहिं चलते कच्चे
कहे 'सलिल' कवि जनता को ठगती हर टोली
जनता बचकर रहे चुनावी भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खाएँ अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव..
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें, करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, खेलिए बचकर होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाए बुद्ध.
माया को भाए सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, स्मृति का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
***
कृति चर्चा:
एक गुमसुम धूप : समय की साक्षी देते नवगीत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: एक गुमसुम धूप, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है. बाबा की / अनपढ़ बखरी में / शब्दों का सूरज ला देंगे, जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे, जीवन केवल / गीत नहीं है / गीता की है प्रत्याशा, चाहे / थके पर्वतारोही / धूप शिखर पर चढ़ती रहती जैसे नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुदों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है. वे कहते हैं: ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते..... जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है... गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है.’
‘कोलाहल हो / या सन्नाटा / कविता सदा सृजन करती है’ कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है: ‘जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे’. नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है: ‘शब्दों का / कद नाप रहे जो/ वक्ता ही बौने होते हैं’.
शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता: ‘शहरी शाहों / से ऊबे तो / गीतों के गाँव चले आये’ किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे ‘ गाँवों की / चौपालों में भी / होरीवाला गाँव कहाँ?’ वातावरण बदल गया है: ‘पल-पल / सपनों को महकाती / फूलों की सेज कसौली है’, कवि चेतावनी देता है: ‘हरियाली मत / हरो गंध की / कविता रुक जाएगी.’, कवि को भरोसा है कल पर: ‘अभी परिंदों / में धड़कन है / पेड़ हरे हैं जिंदा धरती / मत उदास / हो छाले लखकर / ओ माझी! नदिया कब थकती?.’ डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं :’राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है.’
नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं. बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत ‘वेश बदल आतंक आ रहा’. सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है.
‘जो रहबर
खुद ही सवाल हैं,
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?
गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद,
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद.
वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?
बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी
जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?
जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?
जब थाने
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?
.
यह कैसी सिरफिरी हवाएँ शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं. ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं:
उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?
परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं. एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है.’
इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं. बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं. वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते... उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है. ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है. उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं.
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कृति चर्चा :
‘सुनो मुझे भी’ नवगीत की सामयिक टेर
[कृति विववरण: सुनो मुझे भी, नवगीत संग्रह, जगदीश पंकज, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १२०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, वर्ष २०१५, निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, ०९८१०८३७८१४, ०९८१०८३८८३२ गीतकार संपर्क:सोम सदन ५/४१ राजेन्द्र नगर, सेक्टर २ साहिबाबाद jpjend@hyahoo.co.in]
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बहता पानी निर्मला... सतत प्रवाहित सलिल-धार के तल में पंक होने पर भी उसकी विमलता नहीं घटती अपितु निरंतर अधिकाधिक होती हुई पंकज के प्रगटन का माध्यम बनती है. जगदीश वही जो जग के सुख-दुःख से परिचित ही नहीं उसके प्रति चिंतित भी हो. भाई जगदीश पंकज अपने अंत:करण में सतत प्रवाहित नेह नर्मदा के आलोड़न-विलोड़न में बाधक बाधाओं के पंक को साफल्य के पंकज में परिवर्तित कर उनकी नवगीत सुरभि जन गण को ‘तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा’ के मनोभाव से सौंप सके हैं.
नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं. ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति. यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम् ' मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई सुन नहीं रहा.’ मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है. शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है. इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है.’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है:
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी,
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है.
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब सहजग्राह्य है. इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए:
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं. कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है:
जैसा सहा, वैसा कहा
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है.
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है. मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं. कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है:
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है. नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं.
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें:
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
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घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए / जीवन अनुमान में निकल गया, छोड़कर विशेषण सब / ढूँढिए विशेष को / रोने या हँसने में / खोजें क्यों श्लेष को?, आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर / रच रहीं हैं शब्द हरकारे, मत भुनाओ / तप्त आँसू, आँख में ठहरे, कैसा मौसम है / मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती / मिले, विकल्प मिले तो / सीली दियासलाई से, आहटें, / संदिग्ध होती जा रहीं / यह धुआँ है, / या तिमिर का आक्रमण, ओढ़ता मैं शील औ’ शालीनता / लग रहा हूँ आज / जैसे बदचलन जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं.
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है. कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें. वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ.
४-३-२०१५

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