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सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर दोहा सलिला- बजा कर्म की बाँसुरी: --संजीव 'सलिल'

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर दोहा सलिला-                                             
बजा कर्म की बाँसुरी:
संजीव 'सलिल'
*
बजा कर्म की बाँसुरी, रचा आस सँग रास.
मर्म धर्म का समझ ले, 'सलिल' मिटे संत्रास..
*
मीरां सी दीवानगी, राधा जैसी प्रीत.
द्रुपदसुता सी नेह की, थाती परम पुनीत..
*
चार पोर की बाँसुरी, तन-चारों पुरुषार्थ.
फूँक जोर से साँस री, दस दिश हो परमार्थ..
*
श्वास-बाँसुरी पर गुँजा, लास-हास के गीत.
रास- काम निशाकाम कर, पाल ईश से प्रीत..
*
प्रभु अर्पित हो पार्थ सम, बनें आप सब काम.
त्याग वासना-कामना, भुला कर्म-परिणाम..
*
श्वास किशन, है राधिका आस, जिंदगी रास.
प्यास मिटा नवनीत दे, जब हो सतत प्रयास..
*
मन मीरां तन राधिका, नटनागर संकल्प.
पार्थ प्रबल पुरुषार्थ का, यश गाते शत कल्प..
*
मनमोहन मुरली बजा, छेड़ें मधुमय तान.
कन्दुक क्रीड़ा कर किया, वश में कालिय नाग..
*
दुर्योधन से दिन कठिन, दु:शासन सी रात.
संध्या है धृतराष्ट्र सी, गांधारी सा प्रात..
*
करें मित्रता कृष्ण सी, श्रीदामा सा स्नेह.
अंतर्मन से एक हों, बिसरा तन-धन-गेह..
*
आत्म-राधिका ध्यान में, कृष्णचन्द्र के लीन.
किंचित ओझल हों किशन, तड़पे जल बिन मीन..
*
बाल कृष्ण को देखते, सूरदास बिन नैन.
नैनावाले आँधरे, तड़प रहे दिन-रैन..
*
श्री की सार्थकता तभी, साथ रहें श्रीनाथ.
नाथ रहित श्री मोह मन, करती आत्म-अनाथ..
*
'सलिल' न सम्यक आचरण, जब करता इंसान.
नियति महाभारत रचे, जग बनता शमशान..
*
शांति नगर हो विश्व यदि, संजय-विदुर प्रधान.
सेवक पांडवगण रहें, रक्षक भीष्म प्रधान..
*
सच से आँखें मूँद लीं, आया निकट विनाश.
नाश न होता देखती, गांधारी सच काश..
*
श्रवण, भीष्म, श्री राम की, पितृ-भक्ति अनमोल.
तीन लोक की सम्पदा, सके न किंचित तोल..
*
दिशा बोध दायित्व जब, लगा द्रोण के हाथ.
एकलव्य-राधेय का, झुका जीतकर माथ..
*
नेत्रहीन धृतराष्ट्र को, दिशा दिखाये कौन?
बांधे पट्टी आँख पर, गांधारी यदि मौन..
*
भृष्टाचारी कंस को, अन्ना कृष्ण समान.
हुई सोनिया पूतना, दिल्ली कुरु-मैदान..
*
Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

राखी सुहावन पर्व पावन -- आलोक सीतापुरी

हरिगीतिका:
१
सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
२
भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|  
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||
३
सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है||       
४
बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है||



































































































































































राखी सुहावन पर्व पावन
आलोक सीतापुरी
हरिगीतिका छंद :

सावन सुहावन आज पूरन पूनमी भिनसार है,
भैया बहन खुश हैं कि जैसे मिल गया संसार है|
राखी सलोना पर्व पावन, मुदित घर परिवार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||

भाई बहन के पाँव छूकर दे रहा उपहार है,
बहना अनुज के बाँध राखी हो रही बलिहार है|
टीका मनोहर भाल पर शुभ मंगलम त्यौहार है
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है ||

सावन पुरातन प्रेम पुनि-पुनि, सावनी बौछार है,
रक्षा शपथ ले करके भाई, सर्वदा तैयार है|
यह सूत्र बंधन तो अपरिमित, नेह का भण्डार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है||

बहना समझना मत कभी यह बन्धु कुछ लाचार है,
मैंने दिया है नेग प्राणों का कहो स्वीकार है |
राखी दिलाती याद पावन, प्रेम मय संसार है,
आलोक भाई की कलाई पर बहन का प्यार है

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक... --संजीव 'सलिल'

गले मिले दोहा यमक
*
गले मिले दोहा यमक, झपक लपक बन मीत.
गले भेद के हिम शिखर, दमके श्लेष सुप्रीत..
गले=कंठ, पिघले.

पीने दे रम जान अब, ख़त्म हुआ रमजान.
कल पाऊँ, कल का पता, किसे? सभी अनजान..
रम=शराब, जान=संबोधन, रमजान=एक महीना, कल=शांति, भविष्य.

अ-मन नहीं उन्मन मनुज, गँवा अमन बेचैन.
वमन न चिंता का किया, दमन सहे क्यों चैन??
अ-मन=मन रहित, उन्मन=बेचैन, अमन=शांति, वमन=उलटना, वापिस फेंकना, दमन=दबाना.

जिन्हें सूद प्यारा अधिक, और न्यून है मूल.
वे जड़ जाते भूल सच, जड़ न बढ़े बिन मूल..
मूल=मूलधन, उद्गम, जड़=मंदबुद्धि, पौधे की जड़.

है अजान सच से मगर, देता रोज अजान.
अलग दीखते इसलिए, ईसा रब भगवान..
अजान=अनजान, मस्जिद से की जानेवाली पुकार.

दस पर बस कैसे करे, है परबस इंसान.
दाना पाना चाहता, बिन मेहनत नादान ..
पर बस= के ऊपर नियंत्रण, परबस=अन्य के वश में.
श्लेष अलंकार:
दस=दस इन्द्रियाँ, जन्म से १० वें दिन होने वाली क्रियाएँ या दश्तौन, मृत्यु से १० वें दिन होनेवाली क्रियाएँ या प्रेत-कृत्य, दसरंग मलखंब की कसरत,
दाना=समझदार, अनाज का कण.

दहला पा दहला बहुत, हाय गँवाया दाँव.
एक मिला पाली सफल, और न चाहे ठाँव..
दहला=ताश का पता, डरा,
श्लेष अलंकार: एक=इक्का, ईश्वर. पाली=खेल की पारी, जीवन की पारी.
***

Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 26 जुलाई 2011

दोहा सलिला: रवि-वसुधा के ब्याह में... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
रवि-वसुधा के ब्याह में...
संजीव 'सलिल'
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..

सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..

इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..

'दूधमोगरा' पड़ोसी,  हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..

भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..

मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..

हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..

हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..

'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..

बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..

कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
*

Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 24 जुलाई 2011

घनाक्षरी सलिला : छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग. -- संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला :
छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग.
संजीव 'सलिल'
*
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया के बोझिया, पिपल्या के छाँव..
अगोर पुरवईया, बटोर माछी भइया, अंजोर बैल-गइया, कुठरिया के ठाँव.
नमन माटी मइया, गले लगाये सइयां , बढ़ाव बैल-गइया, सुरग होथ गाँव....
*
देस के बिकास बर, सबन उजास बर, सुरसती दाई माई, दया बरसाय दे.
नव-नवा काम होथ, देस स्वर्ग धाम होथ, धरती म धान बोथ, फसल उगाय दे..
टूरा-टूरी गुणी होथ, मिहनती-धुनी होथ, हिरदा से नेह होथ, सलीका सिखाय दे.
डौका-डौकी चाह पाल, भाड़ मा दें डाह डाल, ऊँचा ही रखें कपाल, रीत नव बनाय दे..
*
रचना विधान: वर्णात्मक छंद, चार पद, हर पद में चार चरण, हर चरण में ८-८-८-७ पर यति, चरणान्त दीर्घ,  
Acharya Sanjiv Salil

शनिवार, 23 जुलाई 2011

दोहा सलिला: यमक दमकता सूर्य सम संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक दमकता सूर्य सम
संजीव 'सलिल'
*
खींची-छोड़ी रास तो, लगीं दिखाने रास.
घोड़ी और पतंग का, 'सलिल' नहीं विश्वास..
रास = लगाम/डोर, नृत्य.

मोह न मोहन अब अधिक, सोहन सोह न और.
गह न गहन को कभी भी, अगहन मिले न ठौर..

'रोक न, जाने दे' उसे, था इतना आदेश.
'रोक, न जाने दे' समझ, समझा गया विशेष..

था 'आदेश' विदेश तज, तू अब तो 'आ देश'.
खाया याकि सुना गया, जब पाया संदेश..
आदेश = आज्ञा, देश आ.
संदेश = बंगाली मिठाई, निर्देश. -श्लेष अलंकार.

'खाना' या 'खा ना' कहा, 'आना' या 'आ ना'.
'पा ना' कह 'पाना' दिया, 'गा ना' कह 'गाना'  

नाना ने नाना दिये, स्नेह सहित उपहार.
ना-ना कहकर भी करे, हमने हँस स्वीकार..  

नाक कटी साबित रही, लेकिन फिर भी नाक.
कान करे नापाक जो, कहलाये वह पाक..

नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुंफकार.
नाग गरजकर बरसता, होता हाहाकार..
नाग = हाथी, पर्वत, एक प्रकार का साँप, बादल.

नाम अनाम सुनाम हो, किन्तु न हो बदनाम.
हो सकाम-निष्काम पर, 'सलिल' न हो बेकाम..
*

Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

घनाक्षरी सलिला: संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
बुन्देली-
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए.
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए..
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए.
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए..
*
छत्तीसगढ़ी-
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
निमाड़ी-
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लू की दुम हुयो.
मनख को सुभाव छे, नहीं सहे अभाव छे, करे खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो.. 
टीला पाणी झाड़ नद्दी, हाय खोद रए पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो.
'सलिल' आँसू वादला, धरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा,  दूर मातम हुयो..
*
मालवी: 
दोहा:
भणि ले  म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम.
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम.

शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, गगन से फूल झरे, बिजुरी भू पे गिरे.
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे.
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे..
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे..
*
राजस्थानी:
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलमठेला, मोड़ तरां-तरां का.
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का...
चाल्यो बीच बजारा क्यों?, आवारा बनजारा क्यों?, फिरता मारा-मारा क्यों?, हार माने दुनिया .
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का....
*
छंद विधान : चार पद, हर पद में चार चरण, ८-८-८-७ पर यति,  

Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 29 जून 2011

दोहा सलिला: अधर हुए रस लीन --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                                 
अधर हुए रस लीन
संजीव 'सलिल'
*
अधर अधर पर जब धरे, अधर रह गये मूक.
चूक हुई कब?, क्यों?, कहाँ?, उठी न उर में हूक..
*
अधर अबोले बोलते, जब भी जी की बात.
अधर सुधारस घोलते, प्रमुदित होता गात..
*
अधर लरजते देखकर, अधर फड़ककर मौन.
किसने-किससे क्या कहा?, 'सलिल' बताये कौन??
*
अधर रीझकर अधर पर, सुना रहा नवगीत.
अधर खीझकर अधर से, कहे- मौन हो मीत..
*
तोता-मैना अधर के, किस्से हैं विख्यात.
कहने-सुनने में 'सलिल', बीत न जाये रात..
*
रसनिधि पाकर अधर में, अधर हुए रसलीन.
विस्मित-प्रमुदित हैं अधर, देख अधर को दीन..
*
अधर मिले जब अधर से, पल में बिसरा द्वैत.
माया-मायाधीश ने, पल में वरा अद्वैत..
*
अधरों का स्पर्श पा, वेणु-शंख संप्राण.
दस दिश में गुंजित हुए, संजीवित निष्प्राण..
*
तन-मन में लेने लगीं, अनगिन लहर लिहोर.
कहा अधर ने अधर से, 'अब न छुओ' कर जोर..
*
यह कान्हा वह राधिका, दोनों खासमखास.
श्वास वेणु बज-बज उठे, अधर करें जब रास..
*
ओष्ठ, लिप्स, लब, होंठ दें, जो जी चाहे नाम.
निरासक्त योगी अधर, रखें काम से काम..
*
अधर लगाते आग औ', अधर बुझाते आग.
अधर गरल हैं अमिय भी, अधर राग औ' फाग..
*
अधर अधर को चूमकर, जब करते रसपान.
'सलिल' समर्पण ग्रन्थ पढ़, बन जाते रस-खान..
*
अधराराधन के पढ़े, अधर न जब तक पाठ.
तब तक नीरस जानिए, उनको जैसे काठ..
*
अधर यशोदा कान्ह को, चूम हो गये धन्य.
यह नटखट झटपट कहे, 'मैया तुम्हीं अनन्य'..
*
दरस-परस कर मत तरस, निभा सरस संबंध.
बिना किसी प्रतिबन्ध के, अधर करे अनुबंध..
*
दिया अधर ने अधर को, पल भर में पैगाम.
सारा जीवन कर दिया, 'सलिल'-नाम बेदाम..
*

Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 24 जून 2011

दोहा सलिला : मन भरकर करिए बहस संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
मन भरकर करिए बहस
संजीव 'सलिल'
*
मन भरकर करिए बहस, 'सलिल' बात-बेबात.
जीत न मानें जीतकर, हार न मानें मात..

मधुर-तिक्त, सच-झूठ या, भला-बुरा दिन रात.
कुछ न कुछ तो बोलिए, मौन न रहिये तात..

हर एक क्रिया-कलाप पर, कर लेती सरकार.
सिर्फ बोलना ही रहा, कर-विमुक्त व्यापार..

नेता, अफसर, बीबियाँ, शासन करते बोल.
व्यापारी नित लूटते, वाणी में रस घोल..

परनिंदा सुख बिन लगे, सारा जीवन व्यर्थ.
निंदा रस बिन काव्य में, मिलता कोई न अर्थ..

द्रुपदसुता, मंथरा की, वाणी जग-विख्यात.
शांति भंग पल में करे, लगे दिवस भी रात..

सरहद पर तैनात हो, महिलाओं की फ़ौज.
सुन चख-चख दुश्मन भगे, आप कीजिये मौज..

सुने ना सुने छात्र पर, शिक्षक बोलें रोज.
क्या कुछ गया दिमाग में, हो इस पर कुछ खोज..

पंडित, मुल्ला, पादरी, बोल-बोल लें लूट.
चढ़ा भेंट लुटता भगत, सुनकर बातें झूठ..

वाणी से होती नहीं, अधिक शस्त्र में धार.
शस्त्र काटता तन- फटे, वाणी से मन यार..

बोल-बोल थकती नहीं, किंचित एक जुबान.
सुन-सुन थक जाते 'सलिल', गुमसुम दोनों कान..

*************

शुक्रवार, 17 जून 2011

छंद सलिला: नवीन चतुर्वेदी


 
 अमृत ध्वनि छन्‍द - उन्नत धारा प्रेम की

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज  किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||


=============================================================

घनाक्षरी कवित्त - ढूँढ के छली को पेश कीजै दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

==============================
 
सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द - 
 
तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में
ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें| 

उत्थान दें
 जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें| 

मान दें
 मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें| 

तान दें
 पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||
====================================================== 

ग़ज़ल - फगुआ उमंग तरंग में

 सजावटें बनावटें बुनावटें घुमावटें|
चिठिया में होंवो लिखावटें हरें सकलअकुलाहटें||

मृदुहास मयपरिहास भीवही खास आस जगा गया|
मधुमास कीअभिलाष मेंअतिशय ढ़ी झुँझलाहटें||

यदि प्रेम हैडरिए नहींअभिव्यक्त भी करिए सजन|
फगुआ उमंग तरंग मेंक्यूँ  लूटें साथ तरावटें||

अनुपमअमितअविरलअगमअभिनवअकथअनिवार्य सा|
अमि-रस भरायहु प्रेम-पथ चलें यहाँ कडुवाहटें||

गुरुवार, 16 जून 2011

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल

सामयिक दोहा मुक्तिका:

संदेहित किरदार.....

संजीव 'सलिल

*

लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.

असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.

नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.

आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.

शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.

देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.

काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.

कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.

श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.

सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.

'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.

अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

मंगलवार, 14 जून 2011

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल * लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार. असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार.. योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार. नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार.. आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार. आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार.. बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार. शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार.. राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार. देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार.. अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार. काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार.. जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार. कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार? सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार. श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार.. सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार. सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार.. लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार. 'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार.. 'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार. अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार.. *************

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

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शनिवार, 11 जून 2011

सामयिक दोहे: ------- संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे:
संजीव 'सलिल'
*
अर्ध रात्रि लाठी चले, उठते हैं हथियार.
बचा न सकता राज्य पर, पल में सकता मार..

शर्म करे कुछ तो पुलिस, जन-रक्षा है धर्म.
धर्म भूल कर कर रही, अनगिन पाप-कुकर्म..

बड़ा वही जो बचाता, मारे जो वह हीन.
क्षमा करे जो संत वह, माफी मांगे दीन..

नहीं एक कानून है, नहीं एक है नीति.
आतंकी पर प्रीति है, और संत हित भीति..

होता हावी लोक पर, जब-जब शासन-तंत्र.
तब-तब होता है दमन, बचा न सकता मंत्र..

लोक जगे मिल फूँक दे, शासन बिना विचार.
नेता को भी दंड दें,  तब सुधरे सरकार..

आई. ए. एस. अफसर करें, निश-दिन भ्रष्टाचार.
इनके पद हों ख़त्म तब, बदलेगी सरकार..

जनप्रतिनिधि को बुला ले, जनगण हो अधिकार.
नेता चले सुपंथ पर, तब तजकर अविचार..

'सलिल' न हिम्मत हारिये, करिए मिल संघर्ष.
बलिपंथी ही दे सके, जनगण-मन को हर्ष..


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सोमवार, 6 जून 2011

घनाक्षरी छंद : सामयिक नीतिपरक : .... राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये.. - संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
--संजीव 'सलिल'

*
(८-८-८-७)
सामयिक नीतिपरक : ....
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..

धन परदेश में जो, गया इसी देश का है, देश-हित चाहते तो, देश में ले आइए
बाबा रामदेव जी ने, बात ठीक-ठीक की है, जन-मत चाहिए तो, उनको मनाइए..
कुमति हुई है मति, कोंगरेसियों की आज, संत से असंत को न, आप लड़वाइए.
सम्हल न पाये बात, इतनी बिगाड़ें मत, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
कुटिल कपिल ने जो, किया है कमीनापन, देख देश दुखी है न, सच झुठलाइए.
'मन' ने अमन को क्यों, खतरे में आज डाला?, भूल को सुधार लें, न नाश को बुलाइए..
संत-अपमान को न, सहन करेगा जन, चुनावी पराजय की, न सचाई भुलाइए.
'सलिल' सलाह मान, साधुओं का करें मान, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
काला धन जिनका है, क्यों न उनको फाँसी हो?, देश का विकास इसी, धन से कराइए.
आरती उतारते हैं, लुच्चे-लोफरों की- कुछ, शर्म करें नारियों का, मान न घटाइए.
पैदा तुम को भी किया, नारी ने ही पाल-पोस, नारी की चरण-रज, माथ से लगाइए..
नेता सेठ अफसर,  बुराई की जड़ में हैं, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 3 जून 2011

दोहे : -- फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़िराक़ गोरखपुरी के दोहे


फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन-रात
होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं, कोई भी संजोग
होता आया है सदा, मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर-दर ठोकर खाय

जगत-धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन-भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़
दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन-मन्दिर की यात्रा,मूरख चारों धाम

वेद,पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई , इक बच्चे की निगाह
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आभार : सृजनगाथा

सोमवार, 30 मई 2011

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त --- योगराज प्रभाकर

 घनाक्षरी / मनहरण कवित्त  
योगराज प्रभाकर 
Encyclopedia of Sikh Literature
Guru Shabd Ratnakar
Mahaan-Kosh
By Bhai Kahan Singh Nabha ji.
Excerpts from page no. 1577-1579



(अ) घनाक्षरी : यह छंद "कबित्त" का ही एक रूप है, लक्षण - प्रति चरण ३२ अक्षर, ८-८ अक्षरों पर विश्राम, अंत २ लघु !


निकसत म्यान ते ही, छटा घन म्यान ते ही
कालजीह लह लह, होय रही हल हल,
लागे अरी गर गेरे, धर पर धर सिर,
धरत ना ढहर चारों, चक्क परैं चल चल !

(आ) घनाक्षरी का दूसरा रूप है "रूप-घनाक्षरी", लक्षण: प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) दीर्घ, बत्तीसवां (३२ वाँ ) लघु !
मिसाल :

अबिचल नगर उजागर सकल जग
जाहर जहूर जहाँ जोति है जबर जान
खंडे हैं प्रचंड खर खड़ग कुवंड धरे
खंजर तुफंग पुंज करद कृपान बान !

(इ) घनाक्षरी का तीसरा रूप है "जलहरण", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३२ अक्षर, १६-१६ पर दो विश्राम, इक्त्तीस्वां (३१ वाँ) लघु, बत्तीसवां (३२ वाँ ) दीर्घ, !

देवन के धाम धूलि ध्व्स्न कै धेनुन की
धराधर द्रोह धूम धाम कलू धांक परा
साहिब सुजन फ़तेह सिंह देग तेग धनी
देत जो न भ्रातन सो सीस कर पुन्न हरा !

(ई) घनाक्षरी का चौथा रूप है "देव-घनाक्षरी", लक्षण: रूप है प्रति चरण ३३ अक्षर, तीन विश्राम ८ पर, चौथा ९ पर, अंत में "नगण " !

सिंह जिम गाजै सिंह,
सेना सिंह घटा अरु,
बीजरी ज्यों खग उठै,
तीखन चमक चमक

शनिवार, 28 मई 2011

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल'
*
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.

इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है.

घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है. ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है. किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं. इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है. यह कवि के चयन पर निर्भर है. १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं. 

मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है. कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है. कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है.

सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६+१५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा. फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा. यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?

उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं. उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी. हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए. इसलिए मैंने प्रचालन के अनुसार कुछ त्रुटि रखते हुए रचना भेजी ताकि पाठक पढ़कर सुधारें और ऐसा न हों पर नवीन जी से अनुरोध किया कि वे सुधारें. पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोडा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है.

अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है. ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरी ही माँना जा सकता है. नियम तो नियम होते हैं. नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि दोष ही कहलायेगा. किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता. शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है.

घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है,
शत्रुओं को घेर घाट मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
हास्य घनाक्षरी
 सत्ता जो मिली है तो जनता को लूट खाओ,
मोह होता है बहुत घूस मिले धन का|

नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा,
चाल चल लूट लेना धन जन-जन का|

घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को,
फागुन लगे है भला, साली-समधन का|

विजया भवानी भली, साकी रात-रानी भली,
चौर्य कर्म भी भला है आँख-अंजन का||

बुधवार, 18 मई 2011

मुक्तक: भारत संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
भारत
संजीव 'सलिल'
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
*
तम हरकर प्रकाश पा-देने में जो रत है.
दंडित उद्दंदों को कर, सज्जन हित नत है..
सत-शिव-सुंदर, सत-चित-आनंद जीवन दर्शन-
जिसका है वह देश जगत-प्यारा भारत है..
*
भारत को भाता है जीवन सीधा-सच्चा.
नहीं सुहाता देना या लेना नित गच्चा..
धीर वीर गंभीर रहा नेतृत्व हमारा-
'सलिल' नासमझ समझ रहा है हमको कच्चा..
*

कुण्डलिनी: ---- संजीव 'सलिल'

कुण्डलिनी
संजीव 'सलिल'
हरियाली ही हर सके, मन का खेद-विषाद.
मानव क्यों कर रहा है, इसे नष्ट-बर्बाद?
इसे नष्ट-बर्बाद, हाथ मल पछतायेगा.
चेते, सोचे, सम्हाले, हाथ न कुछ आयेगा.
कहे 'सलिल' मन-मोर तभी पाये खुशहाली.
दस दिश में फैलायेंगे जब हम हरियाली..
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रविवार, 24 अप्रैल 2011

एक षटपदी : भारत के गुण गाइए ---संजीव 'सलिल'

एक षटपदी :



संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, बढ़े देख का नाम ..
बढ़े देख का नाम प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..


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