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रविवार, 21 मई 2023

दोहा, कान, नाक, वास्तु, नवगीत, मुक्तिका,इमारत, औरत, पुरुष विमर्श

मुक्तिका
*
मुश्किल कोई डगर नहीं है
बेरस कोई बहर नहीं है
किस मन में मिलने-जुलने की
कहिए उठती लहर नहीं है
सलिल-नलिन हैं रात-चाँद सम
इस बिन उसकी गुजर नहीं है
हो ऊषा तुम गृहाकाश की
तुम बिन होती सहर नहीं है
हूँ सूरज श्रम करता दिन भर
बिन मजदूरी बसर नहीं है
***
***
औरत
*
औरत होती नहीं रिटायर
करती रोज पुरुष को टायर
माँ बन आँचल में दुबकाए
बहना बन पहरा दिलवाए
सखी अँगुलि पर नाच नचाए
भौजी ताने नित्य सुनाए
बीबी सहयोगिनी कह आए
पर गृह की स्वामिन बन जाए
बेटी चिंता-फिक्र बढ़ाए
पल-पुस कर झट फुर हो जाए
बहू छीन ले आकर कमरा
वृद्धाश्रम की राह दिखाए
कहो न अबला, नारी सबला
तबला नर को बना बजाए
नर बेचारा समझ रहा यह
तम में आशा दीप जलाए
शारद-रमा-उमा नित पूजे
घर न घाट का पर रह जाए
२१-५-२०२०
***
मुक्तिका: जिंदगी की इमारत
जिंदगी की इमारत में, नींव हो विश्वास की।
प्रयासों की दिवालें हों, छत्र हों नव आस की।
*
बीम संयम की सुदृढ़, मजबूत कॉलम नियम के।
करें प्रबलीकरण रिश्ते, खिड़कियाँ हों हास की।।
*
कर तराई प्रेम से नित, छपाई कर नीति से।
ध्यान धरना दरारें बिलकुल न हों संत्रास की।।
*
रेत कसरत, गिट्टियाँ शिक्षा, कला सीमेंट हो।
फर्श श्रम का, मोगरा सी गंध हो वातास की।।
*
उजाला शुभकामना का, द्वार हो सद्भाव का।
हौसला विद्युतिकरण हो, रौशनी सुमिठास की।।
*
फेंसिंग व्यायाम, लिंटल मित्रता के हों 'सलिल'।
बालकनियाँ पड़ोसी अपनत्व के अहसास की।।
*
वरांडे हो मित्र, स्नानागार सलिला सरोवर।
पाकशाला तृप्ति, पूजास्थली हो सन्यास की।।
***
***
मुक्तिका
.
शब्द पानी हो गए
हो कहानी खो गए
.
आपसे जिस पल मिले
रातरानी हो गए
.
अश्रु आ रूमाल में
प्रिय निशानी हो गए
.
लाल चूनर ओढ़कर
क्या भवानी हो गए?
.
नाम के नाते सभी
अब जबानी हो गए
.
गाँव खुद बेमौत मर
राजधानी हो गए
.
हुए जुमले, वायदे
पानी पानी हो गए
२१-५-२०१७
...


एक गीत
*
मात्र मेला मत कहो
जनगण हुआ साकार है।
*
'लोक' का है 'तंत्र' अद्भुत
पर्व, तिथि कब कौन सी है?
कब-कहाँ, किस तरह जाना-नहाना है?
बताता कोई नहीं पर
सूचना सब तक पहुँचती।
बुलाता कोई नहीं पर
कामना मन में पुलकती
चलें, डुबकी लगा लें
यह मुक्ति का त्यौहार है।
*
'प्रजा' का है 'पर्व' पावन
सियासत को लगे भावन
कहीं पण्डे, कहीं झंडे- दुकाने हैं
टिकाता कोई नहीं पर
आस्था कब है अटकती?
बुझाता कोई नहीं पर
भावना मन में सुलगती
करें अर्पित, पुण्य पा लें
भक्ति का व्यापार है।
*
'देश' का है 'चित्र' अनुपम
दृष्ट केवल एकता है।
भिन्नताएँ भुला, पग मिल साथ बढ़ते
भुनाता कोई नहीं पर
स्नेह के सिक्के खनकते।
स्नान क्षिप्रा-नर्मदा में
करे, मानें पाप धुलते
पान अमृत का करे
मन आस्था-आगार है।
*
***

मुक्तिका
*
मखमली-मखमली
संदली-संदली
.
भोर- ऊषा-किरण
मनचली-मनचली
.
दोपहर है जवाँ
खिल गयी नव कली
.
साँझ सुन्दर सजी
साँवली-साँवली
.
चाँद-तारें चले
चन्द्रिका की गली
.
रात रानी न हो
बावली-बावली
.
राह रोके खड़ा
दुष्ट बादल छली
***
(दस मात्रिक दैशिक छन्द
रुक्न- फाइलुन फाइलुन)
२१-५-२०१६


***
अमीर खुसरो के रोचक घरेलू नुस्खे
अमीर खुसरो ने वैद्यराज खुसरो के रुप में काव्यात्मक घरेलू नुस्खे भी लिखे हैं-
1 हरड़-बहेड़ा आँवला, घी सक्कर में खाए!
हाथी दाबे काँख में, साठ कोस ले जाए!!
2 मारन चाहो काऊ को, बिना छुरी बिन घाव!
तो वासे कह दीजियो, दूध से पूरी खाए!!
3 प्रतिदिन तुलसी बीज को, पान संग जो खाए!
रक्त-धातु दोनों बढ़े, नामर्दी मिट जाय!!
4 माटी के नव पात्र में, त्रिफला रैन में डारी!
सुबह-सवेरे-धोए के, आँख रोग को हारी!!
5 चना-चून के-नोन दिन, चौंसठ दिन जो खाए!
दाद-खाज-अरू सेहुवा-जरी मूल सो जाए!!
6 सौ-दवा की एक दवा, रोग कोई न आवे!
खुसरो-वाको-सरीर सुहावे, नित ताजी हवा जो खावे!!


***
दोहा सलिला- कान
वाद-विवाद किये बिना, करते चुप सहयोग
कान धीर-गंभीर पर, नहीं चाहते शोर
*
कान कतरना चाहती, खुद को स्याना मान
अपने ही माँ-बाप के, 'सलिल' आज सन्तान
*
कान न भरिये किसी के, मत तोड़ें विश्वास
कान-दान मत कीजिए, पायेंगे संत्रास
*
कर्ण न हो तो श्रवण, रण, ज्यामिति शोभाहीन
कर्ण-शूल बेचैन कर, अमन चैन ले छीन
*
कान न हों तो सुन सकें, हम कैसे आवाज?
हो न सके संवाद तो, रुक जाएँ जग-काज
*


कान मकान दूकान से, बढ़ते क्रिया-कलाप
नहीं एक भी हो अगर, जीवन बने विलाप
*

कान-नाक से जुड़ा है, नाज़ुक नाड़ी-तन्त्र
छेद-कीलते विज्ञ जन, स्वस्थ्य रहे तन-यंत्र
*
आँखें चश्मा हीन हों, अगर नहीं हों कान
कान पकड़ चश्मा सजे, मगर न घटता मान

*
कान कटे जिसके लगे, श्रीयुत भी श्री हीन
नकटी शूर्पनखा लगे, नहीं श्रेष्ठ अति दीन
*
कान खींचना ही नहीं, भूलों का उपचार
मार्ग प्रदर्शन भी करें, तब हो बेडा पार
*
कनबहरी करिए नहीं, अवसर जाता चूक
व्यर्थ विवादों की दवा, लेकिन यही अचूक
*
आन गाँव का कनफटा, लगता जोगी सिद्ध
कौन बताये कब कहाँ, रहा मोह में बिद्ध
*
छवि देखें मुख चन्द्र की, कर्ण फूल के साथ
शतदल पाटल मध्य ज्यों, देख मुग्ध शशिनाथ
*

कान खड़े कर सुन रहा, जो न समय की बात
कान बंद कर जो रहा, दोनों की है मात
*
जो जन कच्चे कान के, उनसे रहें सतर्क
अफवाहों पर भरोसा, करें- न मानें तर्क
*
रूप नहीं गुण देखते, जो- वे हैं मतिमान
सुनें सतासत कान पर, दें न असत पर ध्यान
*
सूपे जैसे नख लिये, गई सुपनखा हार
सूप-कार्टन ले गणपति, पुजें सकल संसार
*


तेल कान में डालकर, बैठे सत्तासीन
कौन सुधारे देश को, सब स्वार्थों में लीन
*
स्वर्णहार ले आओ तो, विहँस कंठ में धार
पहना दूँ पल में तुम्हें, झट बाँहों का हार
*
रक्त कमल दल मध्य है, मुक्ता मणि रद-पंक्ति
आप आप पर रीझते, नयन गहें भव-मुक्ति
*

मिले अकेलापन कभी, खुद से खुद कर भेंट
'सलिल' व्यर्थ बिखराव को, होकर मौन समेट
***
षटपदी के रंग नाक के संग
*
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखे, न कटे जंजाल तो नाक़ चढ़ा लें
२१-५-२०१५
***
वास्तु सूत्र
*
(१ ) भवन के मुख्य द्वार पर किसी भी ईमारत, मंदिर, वृक्ष, मीनार आदि की छाया नहीं पड़नी चाहिए।
(२ ) मुख्य द्वार के सामने रसोई बिलकुल नहीं होनी चाहिए।
(३ ) रसोई घर, पूजा कक्ष तथा शौचालय एक साथ अर्थात लगे हुए न हों। इनमे अंतर होना चाहिए।
(४ ) वाश बेसिन, सिंक, नल की टोंटी, दर्पण आदि उत्तरी या पूर्वी दीवार के सहारे ही लगवाएं।
(५) तिजोरी (केश बॉक्स या सेफ) दक्षिण या पश्चिमी दीवार में लगवाएं ताकि उसका दरवाजा उत्तर या पूर्व में खुले।
(६) भवन की छत एवं फर्श नैऋत्य में ऊँचा रखें एवं शान में नीचा रखें।
(७) पूजा स्थान इस तरह हो कि पूजा करते समय आपका मुँह पूर्व, उत्तर या ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा में हो।
(८) जल स्रोत (नल, कुआँ, ट्यूब वेल आदि), जल-टंकी ईशान में हो।
(९) अग्नि तत्व (रसोई गृह) भूखंड के आग्नेय में हो। चूल्हा, ओवन, बिजली का मीटर आदि कक्ष के दक्षिणआग्नेय में हों।
(१०) नैऋत्य दिशा में भारी निर्माण जीना, ममटी आदि तथा भारी सामान हो। घर की चहार दीवारी नैऋत्य में अधिक ऊँची व मोटी तथा ईशान में दीवार कम नीची व कम मोटी अर्थात पतली हो।
(११) वायव्य दिशा में अतिथि कक्ष, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, कारखाने का उत्पादन कक्ष रखें। यहाँ सेप्टिक टैंक बना सकते हैं। टैक्सी सर्विस वाले यहाँ वहां रखें तो सफलता अधिक मिलेगी।
२१-५-२०१३
***
एक दोहा
प्राची से होती प्रगट, खोल कक्ष का द्वार.
अलस्सुबह ऊषा पुलक, गुपचुप झाँक-निहार..
२१-५-२०१२
***
नव गीत:
*
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
शांति-शिष्टता,
धैर्य-भद्रता,
जीवट की पहचान.
शांत सतह के
नीचे हलचल,
मचल रहे अरमान.
श्वेत-शयन लख
यह मत समझो
रंगों से अनजान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
ऊपर-नीचे
सब जानें पर
ऊँच-नीच से दूर.
दिक्-दिगंत पर
नजर जमाये
आशान्वित भरपूर.
मुस्कानों से
'सलिल' न होगा
पीड़ा का अनुमान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
उत्तर का
प्रत्युत्तर देना
बहुत सहज आसान.
कह न अनर्गल
मौन साधना
क्या जानें नादान?
जो सचमुच
है बड़ा, 'सलिल' वह
नहीं दिखता शान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
२१-५-२०१०
*

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

पुरुष विमर्श

 पुरुष विमर्श 

ट्रेन में समय गुजारने के लिए बगल में बैठे बुजुर्ग से बात करना शुरु किया मेरी पत्नी नीति नें " आप कहाँ तक जाएंगे दादा जी "

" इलाहाबाद तक । " बुजुर्ग ने जवाब दिया.

उसने (पत्नी) ने मजाक में कहा " कुंभ लगने में तो अभी बहुत टाइम है बाबा। "

" वहीं तट पर बेठकर इंतजार करेंगे कुंभ का ,बेटी ब्याह लिए हैं , अब तो जीवन में कुंभ नहाना ही रह गया है । "

" अच्छा बाबा परिवार में कौन कौन है । "

" कोई नहीं बस एक बेटी थी पिछले हफ्ते उसका भी ब्याह कर दिया । "

" अच्छा ! आपका दामाद क्या करता है । "

" उ हमरी बेटी से पियार करता है । " कहते हुए उन्होंने नम आंखें पंखे पर टिका दी ।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जब पत्नी नीति ने उनके कंधे पर हाथ रखकर धीरे से कहा " दुख बांटने से कम होता है बाबा" तो आंखों से आँसुओ का सैलाब उमड़ पड़ा उनकी । थोडा शांत होने के बाद उन्होंने बताया " बेटी ने कहा अगर उससे शादी नहीं हुई तो जहर खा लेगी । बिन मां की बच्ची थी उसकी खुशी के लिए सबकुछ जानते हुए भी मैंने हां कह दी, और पूरे धूमधाम से शादी की व्यवस्था में जुट गया जो कुछ मेरे पास था सब गहने जेवर आवभगत की तैयारियों में लगा दिया ।

तभी ऐन शादी के एक दिन पहले समधी पधारे ,और दहेज की मांग रख दी । जब मैंने मना किया तो बेटी ने कहा, आपके बाद तो सब मेरा ही है तो क्यों नहीं अभी दे देते । तो हमने घर और जमीन बेचकर नगद की व्यवस्था कर दी । "

" सबकुछ तो उसका ही था बेबकूफ लडकी, आपको मना करना चाहिए था, कह देते आपके मरने के बाद सब बेचकर ले जाए " नीति ने कसमसाते हुए कहा

बुजुर्ग मुस्कुरा उठे नीति के इस तर्क पर " कोई बाप अपने सुख के लिए बेटी के गृहस्थी में क्लेश नहीं चाहता बेटा । "

" हद है मतलब की, उस लडकी के दिल में आपके लिए जरा भी प्यार नहीं था । "

" नहीं ऐसा नहीं है विदाई के वक्त बहुत रोई थी । "

"और आप "

उन बुजुर्ग ने एक फीकी मुस्कान बिखेरी और बोले" हम तो निष्ठुर आदमी है हमारी पत्नी सुधा जब उसको हमरी गोद में छोडकर अर्थी पर लेटी थी,उसकी लाश सामने रखी थी और तब भी हम रोने के बदले चुल्हे के पास बैठकर बेटी के लिए दूध गरम कर रहे थे । " यह कहकर बुजुर्ग सुनी आंखों से शून्य में देखने लगे.

साभार कोरा 

*

साहित्य संस्कार के पुरुष विमर्श विशेषांक हेतु निम्न लघुकथा प्रकाशन हेतु सादर प्रेषित है| घोषणा करता हूँ ये नितान्त मौलिक व अब तक अप्रकाशित हैं, उम्मीद है आपको पसंद आएंगी:

थोड़ी कैकयी – थोड़ा राम

"सुनो, ये भाईसाहब कह रहे हैं कि माँ नहीं रही।" उसने अपनी पत्नी से कहा।
पत्नी के चेहरे पर चौंकने के भाव आए लेकिन दो सेकण्ड में ही वह संभल कर  बोली,
"तो! जब तुम्हारी माताजी ने दूसरे दोनों बेटों को उनकी सारी प्रोपर्टी दे दी, तो वे ही करेंगे जो करना है। हम सब को तो तो निकाल दिया था न। कितना भटके हम बेघर... आज इतने सालों से मुश्किल से रुपये जोड़कर हम बेटी की शादी करवा पा रहे हैं। इसमें मुझे कोई मनहूसियत नहीं चाहिए।"
"हाँ... वो तो है, लेकिन मैं बड़ा हूँ और आखिरी वक़्त में मुझे बहुत याद कर रही थी, ये बता रहे हैं।" पति ने बाहर से आए व्यक्ति की तरफ इशारा कर कहा।
"अच्छा!! कैकयी का कलयुगी रूप थी तुम्हारी माँ। पहले तो बेकसूर बेटे के परिवार को घर से ही निकाल दो, और फिर जब अंतिम संस्कार हो तो...हुंह।" पत्नी ने अपने माथे पर टीका पहनते हुए आगे कहा कि,"तुम अपनी बेटी की शादी में आओगे कि नहीं।"
"कन्यादान तो करूंगा ही। लेकिन..."
"लेकिन? मैं वहाँ नहीं जाने दूंगी।" पत्नी ने दरवाज़े की तरफ इशारा करते हुए कहा।
"नहीं मैं जाऊंगा भी नहीं। माँ की परिणति शायद यही है।"
पति ने थूक निगलते हुए आगे कहा कि, "लेकिन मैं यहाँ भी पार्टी वगैरह में शरीक नहीं हो पाऊंगा।"
"क्यों?" पत्नी ने तेज़ आवाज़ में पूछा।
पति ने भारी आवाज़ में उत्तर दिया,
"जब कैकयी किसी न किसी रूप में आ रही है तो राम भी तो थोड़ा-बहुत..."
-0-

मेरा संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:
नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
शिक्षा: विद्या वाचस्पति (Ph.D.)
सम्प्रति: सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)
साहित्यिक लेखन विधा: कविता, लघुकथा, बाल कथा, कहानी
12 पुस्तकें प्रकाशित, 8 संपादित पुस्तकें
32 शोध पत्र प्रकाशित
21 राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त
फ़ोन: 9928544749
ईमेल:  chandresh.chhatlani@gmail.com
डाक का पता: 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002
यू आर एल:  https://sites.google.com/view/chandresh-c/about
ब्लॉग:  http://laghukathaduniya.blogspot.in/
***

शनिवार, 25 जून 2022

सॉनेट, राम कब हुए, गीत, मुक्तक, दीप्ति,दोहागीत,मुक्तिका, पुरुष विमर्श

सॉनेट 
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।

हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य  न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।

अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।

हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी। 
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में  ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,०००  वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।

वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ  लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसी लिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान


गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।


दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।


हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।


बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।


ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।


जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह, लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पाएँ चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बाँहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५-६-२०१३

***

दोहागीत :

मनुआ बेपरवाह.....

*

मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

*

ठेंगे पर दुनिया सकल,

जो कहना है- बोल.

अपने मन की गाँठ हर,

पंछी बनकर खोल..

गगन नाप ले पवन संग

सपनों में पर तोल.

कमसिन है लेकिन नहीं

संकल्पों में झोल.

आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

*

मौन करे कोशिश सदा,

कभी न पीटे ढोल.

जैसा है वैसा दिखे,

चाहे कोई न खोल..

बात कर रहा है खरी,

ज्ञात शब्द का मोल.

'सलिल'-धर में मीन बन,

चंचल करे किलोल.

कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.

झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....

२५-६-२०११

***

मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***

रविवार, 16 अगस्त 2020

गीत

गीत
*
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपने गीत बताओ रे!
किसके-किसके हाथ पिऊँ मैं, जीवन-जाम बताओ रे!!
*
चंद्रमुखी थी जो उसने हो, सूर्यमुखी धमकाया है
करी पंखुड़ी बंद भ्रमर को, निज पौरुष दिखलाया है
''माँगा है दहेज'' कह-कहकर, मिथ्या सत्य बनाया है
किसके-किसके कर जोड़ूँ, आ मेरी जान बचाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपनी पीर बताओ रे!!
*
''तुम पुरुषों ने की रंगरेली, अब नारी की बारी है
एक बाँह में, एक चाह में, एक राह में यारी है
नर निश-दिन पछतायेगा क्यों की उसने गद्दारी है?''
सत्यवान हूँ हरिश्चंद्र, कोई आकर समझाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि की जागीर बताओ रे!!
*
महिलायें क्यों करें प्रशंसा?, पूछ-पूछ कर रूठ रही
खुद सवाल कर, खुद जवाब दे, विषम पहेली बूझ रही
द्रुपदसुता-सीता का बदला, लेने की क्यों सूझ रही?
झाड़ू, चिमटा, बेलन, सोंटा कोई दूर हटाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ अपनी तकदीर बताओ रे!!
*
देवदास पारो को समझ न पाया, तो क्यों प्यार किया?
'एक घाट-घर रहे न जो, दे दगा', कहे कर वार नया
'सलिल बहे पर रहता निर्मल', समझाकर मैं हार गया
पंचम सुर में 'आल्हा' गाए, 'कजरी' याद दिलाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ जिव्हा-शमशीर बताओ रे!!
*
मुकुल, सुमन, वीणा, सुषमा, संतोष, पुनीता आएँगी
'पत्नी को परमेश्वर मानो', पाखी पाठ पढ़ाएँगी
पत्नीव्रती न जो कवि होगा, उससे कलम छुड़ाएँगी
कोई भी मौसम हो तुम गुण पत्नी के ही गाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि आहत वीर बताओ रे!!
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बुधवार, 28 सितंबर 2016

बात से बात

कार्य शाला
बात से बात
*
चलो तुम बन जाओ लेखनी ... लिखते हैं मन के काग़ज पर ... जिंदगी के नए '' फ़लसफ़े ''!! - मणि बेन द्विवेदी
*
कभी स्वामी, कभी सेवक, कलम भी जो बनाते हैं
गज़ब ये पुरुष से खुद को वही पीड़ित बताते हैं
फलसफे ज़िन्दगी के समझ कर भी नर कहाँ समझे?
जहाँ ठुकराए जाते हैं, वहीँ सर को झुकाते हैं -संजीव
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doha

एक दोहा-
*
जब चाहा स्वामी लगा, जब चाहा पग-दास 
कभी किया परिहास तो, कभी दिया संत्रास
*