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गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २३, मुक्तिका, चंद्रयान, तकनीकी शिक्षा, मुक्तिका, जनक छंद, दोहा, दीप, सलिल

सलिल सृजन अक्टूबर २३
*
मुक्तिका
चंद्रयान को कहो न किस्सा।
है यह नूतन सच का हिस्सा।।
जिस रो में इसरो उस रो में-
जो न खड़ा वह खाए घिस्सा।
भौंचक देखें पाकिस्तानी-
मन ही मन करते हैं गुस्सा।
मिला चंद्र में पानी हमको-
लेकर चलें बाल्टी-रस्सा।
लैंडर-रोवर धूप-छाँव सम
संग रहें ज्यों मिस्सी-मिस्सा।
इसरो ने यह बता दिया है-
नासा का नकली है ठस्सा।
नामकरण शिव-शक्ति अनूठा-
ज्यों कपोल पर सोहे मस्सा।
•••
एक दोहा
अब न पैर फुट लात पग, चरण कमल बलिहार।
रखें न भू पर हों मलिन, सिर पर पैर पखार।।
२३.१०.२०२४
***
मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
निकष पर सलिल
गिरीश पंकज, रायपुर
सलिल जी हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि है, छंद में उनके प्राण बसते है, वे सिद्ध हस्त है।छान्दसिक वातावरण बने रहे, इस दिशा में प्रतिबद्ध हैं।  
अभिषेक 'अभि'
छंद काव्य की दुनिया में अनेक महारथी हुए हैं। बहुतों को पढ़ा भी है और नित् पढता आ रहा हूँ परन्तु वर्त्तमान काल में जिस तरह की छंद काव्य पर पकड़ परम आदरणीय संजीव वर्मा 'सलिल' सर जी के पास है, वो किसी और में मुझे दूर दूर तक नज़र नहीं आती है। केवल छंद ही नहीं, गीत हो या ग़ज़ल, शब्द और इनकी शैली की तारीफ़ करना, ख़ासकर मेरे जैसे अदने से साहित्यप्रेमी के लिए बहुत मुश्किल होता है।
यहाँ तक की इन्होने कई नव छंदों का निर्माण भी किया है और कई समूहों को बनाकर, छंद काव्य प्रेमी और सीखने वालों को मार्गदर्शन भी करते रहते हैं।आपकी ज्यादातर रचनाएँ मैंने पढ़ी है, सिर्फ़ रचनाएँ ही नहीं लेख भी मैंने पढ़े हैं। हिंदी साहित्य पे जो आपकी पकड़ है, वो उत्कृष्ट है, अनमोल है। आप जैसों के वज़ह से ही आज छंद ज़िंदा है और फल-फूल रहा है। 
क्यू एन जिआ
आदरणीय गुरुदेव श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी को कोटिशः नमन। मैं सोचती थी शायद मैं ही भाग्यशाली हूँ। पर मेरे जैसे अनेक भाई बंधुओ पर गुरुदेव की कृपा है। साहित्य जगत की अद्भुत ज्योत को है गुरुदेव। आप केवल दोहे, छंद ही नहीं, गीत हो या ग़ज़ल, शब्द और इनकी शैली की तारीफ़ करना, ख़ासकर मेरे जैसे अदने से साहित्यप्रेमी के लिए बहुत मुश्किल होता है। यहाँ तक की इन्होंने कई नव छंदों का निर्माण भी किया है और कई समूहों को बनाकर, छंद काव्य प्रेमी और सीखने वालों को मार्गदर्शन भी करते रहते हैं। आज के दौर में स्वार्थ से भरे साहित्यकारों मे अद्भुत छवि लिए है गुरुदेव। नमन आपको
सुनीता सिंह, लखनऊ
मैंने संजीव वर्मा 'सलिल' सर से काफी कुछ सीखा है। आपके सहयोग, सुझावों, और मार्गदर्शन से अपनी रचनाओं को कुछ हद तक परिमार्जित और परिष्कृत कर सकी हूँ। मेरी रचनाओं के प्रति मेरा आत्मविश्वास बढ़ाने में भी आपका बड़ा योगदान है। इसके लिए आपकी सदा आभारी रहूंगी।
मनोरमा जैन 'पाखी' भिंड
नमन ऐसी विभूति को और गर्व है कि इनके सानिन्ध्य में हूँ। बस कुछ सीख लूँ तो फिर सोने पे सुहागा।
योगराज प्रभाकर
तकरीबन 8-9 वर्ष पहले मैंने पहली बार ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम पर एक कुण्डलिया छंद लिख मारा था। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने मात्रायों में गड़बड़ी देख मेरी वो खिंचाई की थी कि मैं आजतक मात्रायों की गिनती नहीं भूला। मज़े की बात ये है कि उन्होंने मेरी खिंचाई इसके बावजूद की कि मैं उस वेबसाइट का प्रधान संपादक था।
***
एक लघु कथा - एक चर्चा
खास रिश्ते का स्वप्न
कान्ता राॅय, भोपाल
*
" ये क्या सुना मैने , तुम शादी तोड़ रही हो ? "
" सही सुना तुमने । मैने सोचा था कि ये शादी मुझे खुशी देगी । "
" हाँ ,देनी ही चाहिए थी ,तुमने घरवालों के मर्ज़ी के खिलाफ़, अपने पसंद से जो की थी ! "
" उन दिनों हम एक दुसरे के लिए खास थे , लेकिन आज ....! "
" उन दिनों से ... ! , क्या मतलब है तुम्हारा , और आज क्या है ? "
" आज हम दोनों एक दुसरे के लिये बेहद आम है । "
" ऐसा क्यों ? " उस व्याह की उमंग और उत्तेजना की इस परिणति से वह चकित थी ।
"क्योंकि , दो घंटे रोज वाली पार्क की दोस्ती , पति के रिश्ते में हर दिन औंधे-मुँह गिरता है । "
***
कांता जी!
नमन.
आदर के साथ कहना है कि आप लघुकथेतर कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करें तो उन पर भी वाह-वाह की झड़ी लग जाएगी। पाठक टिप्पणी के पूर्व प्रस्तुत सामग्री को ध्यान से पढ़ लें तथा लघुकथा के तत्वों पर विचार करते हुए टिप्पणी करें तो वे भी पठनीय होंगी।
शादी जन्म-जन्म का बंधन, इस जन्म में अंत तक साथ चलने का संकल्प या अपनी अपेक्षाओं पर खरी न उतरनेवाली बाई, मित्रता या नौकरी को बदलने की तरह जीवन की एक सामान्य घटना???
कथ्य के तौर पर विवाह जैसे गंभीर संस्कार के साथ-साथ यह लघुकथा न्याय नहीं करती।
विवाह भंग का जो कारण दर्शित है यदि उसे ठीक मानें तो शायद हममें से किसी का विवाह अखंड न रहे.
विवाह एक दूसरे को जो जैसा है, वैसा स्वीकारने और एक-दूसरे के अनुरूप ढलने से मजबूत होता है.
विवाह भंग की प्रक्रिया तो अगणित प्रयासों की असफलता का दुष्परिणाम होता है. लघु कथा में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है कि प्रयास किये गए या असफल हुए.
विवाह भंग का जो कारण 'आज हम दोनों एक दूसरे के लिये बेहद आम हैं' दर्शाया गया है. एक-दूसरे के लिये आम अर्थात सहज होना क्यों गलत है? सहज जीवन तो वरेण्य है. किसी 'ख़ास' के आने पर बनावट या कृत्रिमता का प्रवेश होता है, यह परिवर्तन अल्पकालिक होता है और उसके जाते ही फिर सब कुछ पूर्ववत हो जाता है. जैसे घर में मेहमान का आना-जाना।
'आम' का अर्थ विवाह के विशिष्ट सम्बन्ध का कइयों के साथ दुहराव होना है तो यहाँ दोनों के साथ यह स्थिति है, वह एक के द्वारा भंग का आधार नहीं बनती।'
शिल्प के नाते यह मूलत: संवाद कथा है. लघुकथा के कुछ समीक्षक लघुकथा में संवाद को वर्ज्य मानते हैं. मेरी दृष्टि में लघुता आकारिक मानक है और संवाद शैल्पिक, ध्येय कथ्य को पाठक तक पहुँचाना है. गत ३०-३२ वर्षों में मैंने कई बार संवादात्मक लघुकथाएँ लिखी हैं और एव पाठकों तक कथ्य पहुँचाने के साथ-साथ सराही भी गयी हैं।
इस लघुकथा के संदर्भित संवाद में संबंध एक के लिए 'खास' दूसरे के लिए आम होता तो भी अलगाव का कोई कारण बनता।
शुभाकांक्षी - सलिल
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

अक्टूबर २३, नवगीत, दोहा, जनक, मुक्तक, निशा तिवारी, तकनीकी शिक्षा, मुक्तिका, चंद्रयान

सलिल सृजन अक्टूबर २३
*
मुक्तिका

चंद्रयान को कहो न किस्सा।
है यह नूतन सच का हिस्सा।।

जिस रो में इसरो उस रो में-
जो न खड़ा वह खाए घिस्सा।

भौंचक देखें पाकिस्तानी-
मन ही मन करते हैं गुस्सा।

मिला चंद्र में पानी हमको-
लेकर चलें बाल्टी-रस्सा।

लैंडर-रोवर धूप-छाँव सम
संग रहें ज्यों मिस्सी-मिस्सा।

इसरो ने यह बता दिया है-
नासा का नकली है ठस्सा।

नामकरण शिव-शक्ति अनूठा-
ज्यों कपोल पर सोहे मस्सा।
•••
एक दोहा
अब न पैर फुट लात पग, चरण कमल बलिहार।
रखें न भू पर हों मलिन, सिर पर पैर पखार।।
२३.१०.२०२४
***
मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2024

अक्टूबर १०, राजस्थानी, चित्रगुप्त, कजरी, लघुकथा, दोहा, चंद्रयान, मानसिक स्वास्थ्य दिवस

सलिल सृजन अक्टूबर १०
*
आज वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य दिवस 
सॉनेट 
तन वीणा मन तार साथ हों तो जीवन में हो आनंद 
कम न एक से  तनिक दूसरा यही सनातन सत्य सखे!
एक टूटता तो दूजा भी खंडित हो गा सके न छंद 
इसको काँटा अगर चुभे तो वह भी पीड़ित रहे सखे!!
तन हो स्वस्थ्य और मन भी तो उसे रतन टाटा जानो 
जो न कमाया जोड़े; बाँटे खुश हो सुख दे औरों को 
जो जोड़े बिन काम उसे ही दीन-दुखी दानव मानो 
देता-लेता ऊपरवाला माध्यम बना रहा हमको 
सत्य समझ देकर मत दाता होने का घमंड पालो 
मतदाता हो जिसे चुनोगे वही तुम्हें धोखा देगा 
सुत ही आग लगाएगा यह जान उसे देखो-पालो 
तुमने लिया पिता से जैसे वैसे सुत तुमसे लेगा  
हल पल स्वास्थ्य दिवस जीवन में तन  का मन का ध्यान रखो 
अपने साथ दूसरों का भी स्वास्थ्य सुधारो मान रखो 
*** 
कजरी 
हरे रामा! चंद्रयान एक भेजा हरिकोटा से हे रामा!
हरे रामा! बाईस अक्टूबर सन दो हजार अठ हे रामा!
हरे रामा! भूवैज्ञानिक फ़ोटू खनिज रसायन रे रामा!
हरे रामा! सौ किलोमीटर दूरी से खींचे फ़ोटू रामा! 
हरे रामा! हाई रिजोल्यूशन सेन्सिंग रिमोट से की रामा!
हरे रामा! चंद्रयान एक भेजा हरिकोटा से हे रामा!

हरे रामा! चंद्रयान दो भेजा हरिकोटा से हे रामा!
हरे रामा! बाईस जुलाई उन्नीस को उड़ पाया रे रामा! 
हरे रामा! जीएसएलवी तीन करे प्रक्षेपित रे रामा!
हरे रामा! आर्बिटर-रोवर-लैंडर शामिल रे रामा!
हरे रामा! दक्षिण ध्रुव पर क्रेटर पानी पाना रे रामा!
हरे रामा! यान करे प्रक्षेपित रॉकेट बूस्टर रे रामा! 
हरे रामा! डी आरबिटिंग मैनोवर नौ सेकेंड रहा रामा!
हरे रामा! आर्गन चालीस पाया बाहरी मण्डल में रामा!
हरे रामा! साराभाई क्रेटर का खींचा फोटू रामा!
हरे रामा! सात सितंबर उन्नीस लैंडिंग विफल हुई रामा!

हरे रामा! यान तीन एल वी एम थ्री ने लांच किया रामा! 
हरे रामा! चौदह जुलाई तेइस को यह यान उड़ा रामा!
हरे रामा तेइस अगस्त तेइस को शशि पर उतरा रामा!
हरे रामा! सॉफ्ट लैंडिंग दक्षिण ध्रुव पर कीर्तिमान रामा!
हरे रामा! आल्टी मीटर, वेलोसिटी मीटर साथ गए रामा!
हरे रामा! लैंडर और प्रणोदन दो मॉड्यूल जुड़े रामा!
हरे रामा! प्लाज्मा के घनत्व का मापन किया हरे रामा!
हरे रामा! भू पर्पटी-मेंटल संरचना समझी रामा!
हरे रामा! खनिज-मृदा-पानी का किया अध्ययन रे रामा!
हरे रामा! दुनिया लोहा माने भारत कुशल-दक्ष रामा!
हरे रामा! फहर तिरंगा छोड़े चिह्न पदों के हे रामा!
हरे रामा! बिंदु शक्ति-शिव नामित नमन करें हम हे रामा!      
१०.१०.२०२४  
***
राजस्थानी मुक्तिका
*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय
*
गोरा-गोरा गाल
मरते दम मुसकाय
*
नैणा फोटू खैंच
हिरदै लई मँढाय
*
तारां छाई रात
जाग-जगा भरमाय
*
जनम-जनम रै संग
ऐसो लाड़ लड़ाय
*
देवी-देव मनाय
मरियो साथै जाय
१०-१०-२०२०
***
मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
.
संजीव, १०.१०.२०१८
***
वन्दन
शरणागत हम
*
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये।
*
अनहद, अक्षय,अजर,अमर हे!
अमित, अभय,अविजित अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर हटाने
अरुणागत हम
द्वार तिहांरे आये।
*
वर्ण, जात, भू, भाषा, सागर
अनिल, अनल,दिश, नभ, नद,गागर
तांडवरत नटराज ब्रम्ह तुम,
तुम ही बृज-रज के नटनागर।
पैग़ंबर, ईसा,गुरु बनकर
तारों अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो
चरणागत हम
झलक निहारें आये।
*
आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि,कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम।
जन्म-मरण,यश-अपयश चक्रित
छाया-माया,सुख-दुःख हो सम।
द्वेष भुला दो
करुणाकर हे!
सुनों पुकारें, आये।
*****
गुजराती अनुवाद
વન્દના
શરણાગત અમે
શરણાગત અમે
ચિત્રગુપ્ત પ્રભુ
હાથ પસારી આવ્યા .
અમાપ ,અખુંટા ,અજર ,અમર છે
અમિત ,અભય, અવિજયી, અવિનાશી,
નિરાકાર, સાકાર તમે છો
નિર્ગુણ ,સગુણ દેવ આકાશી
પથ -પગ લક્ષ્ય વિજય,યશ તમે છો
તમેજ મત -મતદાતા ,પ્રત્યાશી
અંધકાર મટાવા
સૂર્ય સમક્ષ અમે
દ્વાર તમારે આવ્યા .
વર્ણ ,જાત , ભૂ, ભાષા ,સાગર
અનિલ, અગ્નિ ,ખૂણો ,નભ, નદી ,ગાગર
તાંડવકરનાર નટરાજ બ્રહ્મ તમે
તમેજ બૃજ -રજ ના નટનાગર
પૈગમ્બર,ઈસા, ગુરુ બનીને
તારાજ અંશ શ્રુષ્ટિ છે ભાસ્વર
આત્મા જગાડવાને
ચરણાગત અમે
ઝલક નિહારવાને આવ્યા.
આદિ -અંત ,ક્ષય -ક્ષર વિહીન છે
કટાર-અંજન , કલમ તૂલિકા તમે છો
પારકા નથી કોઈ બધાંજ તમે છો
કાયા માં છે પોતાના બધા અમે
જન્મ -મરણ , યશ-અપયશ ચક્રીત
છાયા-માયા ,સુખ -દુઃખ સર્વ સરખા
દ્વેષ ભુલાવો
કરુણાકર છો
સાંભળો પોકારવાને આવ્યા .
મૂળ રચના :આચાર્ય સંજીવ વર્મા "સલિલ"
ભાવાનુવાદ :કલ્પના ભટ્ટ
***
मुक्तक सलिला
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
क्षणिका :
पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी
दोहा :
तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश अनाथ.
सोरठा :
घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े
जनक छंद :
नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब
हाइकु :
ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता
मुक्तक :
मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला
शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक
१०-१०-२०१६
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें शेष सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.
१०-१०-२०१४
***
दोहा सलिला :
*
शत वंदन मैया सजा, अद्भुत रूप अनूप
पूनम का राकेश हँस, निरखे रूप अरूप
सलिल-धार बरसा रहे, दर्शन कर घन श्याम
किये नीरजा ने सभी, कमल तुम्हारे नाम
मृदुल कीर्ति का कर रहीं, शार्दूला गुणगान
प्रतिभा अनुपम दिव्य तव, सकता कौन बखान
कुसुम किरण जिस चमन में, करती शर संधान
वहाँ बहार न लुट सके, मधुकर करते गान
मैया भारत भूमि को, ऐसे दें महिपाल
श्री प्रकाश से दीप्त हो, जिनका उन्नत भाल
कर महेश की वंदना, मिले अचल आनंद
ॐ प्रकाश निहारिये, रचकर सुमधुर छंद
प्रणव नाद कर भारती से पायें आशीष
सीता-राम सदय रहें, कृपा करें जगदीश
कंकर-कंकर में बसे, असित अजित अमरीश
धूप-छाँव सुख-दुःख तुम्हीं, श्वेत-श्याम अवनीश
ललित लास्य तुम हास्य तुम, रुदन तुम्हीं हो मौन
कहाँ न तुम?, क्या तुम नहीं? कह सकता है कौन?
रहा ज्ञान पर बुद्धि का, अंकुश प्रति पल नाथ
प्रभु-प्रताप से छंद रच, धन्य कलम ले हाथ
प्रभु सज्जन अमिताभ की, किरण छुए आकाश
नव दुर्गा को नमन कर, पाये दिव्य-प्रकाश
स्नेह-सलिल का आचमन, हरता सकल विकार
कलकल छलछल निनादित, नेह नर्मदा धार
१०-१०-२०१३

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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

लाँगुरिया, चंद्रयान, सॉनेट, श्यामलाल उपाध्याय, गीत, दोहा, हाइकु गीत-मुक्तक

सलिल सृजन २१ दिसंबर 
*
|| लाँगुरिया लोकगीत ||
इसरो बारौ धरा छोड़ चंदा पै लैग्यो लाँगुरिया!

ध्वजा तिरंगी एल वी एम पे जिसको ऊजर रंग,
ए टी एल-केल्ट्रॉन-कार्टस खूब निभाओ संग,
धू-धू इंजन जलो, भगो रे रॉकेट राम-बान सम लाँगुरिया!
प्रोपल्शन-इंटर-लैंडर मॉड्यूल ने करो कमाल, 
भू कक्षा में परकम्मा कर सबने कियो धमाल,
इलिप्टिकल पार्किंग ऑर्बिट में घूमो लाँगुरिया!
विक्रम राजा काँध चढ़ो प्रज्ञान बनो बैताल,
मजनू लैला चंदा-द्वारे पहुँचो लै जैमाल,
सॉफ्ट लैंडिंग भई बजाऊत ताली लाँगुरिया!
उतर चाँद पै भारत-ईसरो की दै दई निसानी,
इत-उत घूमे छैल-छबीलो बता रओ है पानी,
गड्ढा देख फलाँगे झट ज्यों वानर लाँगुरिया!
सोलर पैनल च्यवनप्रास घाईं दै ऊर्जा-ताकत,
एन ए वी कैमरा दनादन फोटू लै जग ताकत,
सूर्य छाँव में आओ; थम कें सो गओ लाँगुरिया!
सब दुनिया नें भारत मैया का लोहा लौ मान,
इसरो अभियंता-वैज्ञानिक ठाँड़े सीना तान,
मंगल-सूरज जाबे की जिद ठाने लाँगुरिया!
२१.१२.२०२३
***
सॉनेट
हार
हार का कर हार धारण
जीत तब ही तो वरेगी
तिलक तेरा तब करेगी
हारकर मत बैठ, कर रण
हार को गुपचुप निहारो
कर्म की कर साधना नित
तभी होगा आत्म-परहित
भूल मत भूलो, सुधारो
हार को त्यौहार मानो
बंधु बाँधव मीत जानो
सबक सीखो समर ठानो
हार ही तब हार जाए
जीत तब ही निकट आए
हार से तू जीत पाए
संजीव
२१-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
७•५८,जबलपुर
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दोहा
सलिल हुआ संजीव पा,शशि-किरणों का साथ.
खिल-खिल खिला पलाश भी, उठा-उठाकर हाथ.
***
आचार्य श्याम लाल उपाध्याय के प्रति दोहांजलि
*
निर्मल निश्छल नर्मदा, वाक् अबाध प्रवाह
पाई शारद की कृपा, अग्रज! अगम-अथाह
*
शब्द-शब्द सार्थक कहें, संशय हरें तुरंत
छाया दें वट-वृक्ष सम, नहीं कृपा का अंत
*
आभा-किरण अनंत की, हरे सकल अज्ञान
शारद-सुत प्रतिभा अमित, कैसे सकूँ बखान?
*
तुम विराट के पग कमल, प्रक्षालित कर धन्य
'सलिल' कर रहा शत नमन, करिये कृपा अनन्य
*
'नियति निसर्ग' पढ़े-बढ़े, पाठक करे प्रणाम
धन्य भाग्य साहित्य पा, सार्थक ललित ललाम
*
बाल ह्रदय की सरलता, युवकोचित उत्साह
प्रौढ़ों सा गाम्भीर्य मिल, पाता जग से वाह
*
नियति भेद-निक्षेपते, आपद-विपद तमाम
वैदिक चिंतन सनातन, बाँटें नित्य अकाम
*
गद्य-पद्य के हिमालय, शब्द-पुरुष संजीव
ममता की मूरत मृदुल, वंदन करुणासींव!
*
श्याम-लाल का विलय या, लाल श्याम का मेल?
विद्यासागर! बताओ, करो न हमसे खेल
*
विद्यावारिधि! प्रणत युग, चाह रहा आशीष
करो कृपा अज्ञान हर, बाँटो ज्ञान मनीष
*
गद्य माल है गले में, तिलक समीक्षा भाल
पद्य विराजित ह्रदय में, दूजी कहाँ मिसाल?
*
राष्ट्र चिंतना ही रही, आजीवन तव ध्येय
धूप-छाँव दो पक्ष हों, पूरक और विधेय
*
देश सुखी-सानंद हो, दुश्मन हों संत्रस्त
श्रमी युवा निर्माण नव, करें न हों भयग्रस्त
*
धर्म कर्म का मर्म है, देश-प्रेम ही मात्र
सबल निबल-रक्षक बने, तभी न्याय का पात्र
*
दोहा-दोहा दे रहा, सार्थक-शुभ संदेश
'सलिल' ग्रहण कर तर सके, पाकर दिशा विशेष
*
गति-यति, मात्रा-भार है, सही-संतुलित खूब
पाठक पढ़कर गह सकें, अर्थ पाठ में डूब
*
दोहा-दोहा दुह रहा, गौ भाषा कर प्रीत
ग्रहण करे सन्देश जो, बना सके नव रीत
*
आस्था के अंकुर उगा, बना दिए वट-वृक्ष
सौरभ के स्वर मनोहर, सृजनकार है दक्ष
*
कविता-कानन में उगे, हाइकु संग्रह मौन
कम में कहते हैं अधिक, ज्यों होजान में नौन
*
बहे काव्य मन्दाकिनी, 'सलिल' नित्य अवगाह
गद्य सेतु से हो सके, भू दर्शन की चाह
*
'लोकनाथ' के 'कुञ्ज' में, 'ज्योतिष राय' सुपंथ
निरख 'पर्ण श्री' रच रहे, नित्य सार्थक ग्रंथ
२१-१२-२०१६
***
गीत -
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५
***
कविता क्या???
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कविता ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
***
हाइकु मुक्तक :
जापानी छंद / पाँच सात औ' पाँच / देता आनंद
तजिए द्वंद / सदा कहिए साँच / तजिए गंद
तोड़िए फंद / साँच को नहीं आँच / सूर्य अमंद
आनंदकंद / मन दर्पण काँच / परमानंद
२१-१२-२०१४
***

रविवार, 8 अक्टूबर 2023

कहमुकरी, इसरो, चंद्रयान, दोहा गीत, हाइकु, मुक्तक, लघुकथा, चित्रगुप्त, अलंकार, नवगीत

कहमुकरी
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
विक्रम के काँधे बेताल
प्रश्न पूछता दे-दे ताल
उत्तर देता सीना तान
क्या अज्ञान?
ना, प्रज्ञान।
जहँ जा लिख-पढ़ बनते शिक्षित 
कर घुमाई, बिन गए अशिक्षित 
मानव मति शशि-रवि छू दक्षा 
सखी है शिक्षा?
नहिं सखि कक्षा। 
घटता-बढ़ता, नष्ट न होता 
प्रेम कथाएँ फसलें बोता 
पल में चमके, पल में मंदा 
गोरखधंधा? 
मितवा! चंदा।  
मन कहता हँस पगले! मत रो 
अपने सपने नाहक मत खो 
सपने पूरे होते किस रो? 
फ़ाइलों-पसरो?
नहिं सखि! इसरो। 
नयन मूँदते रूप दिखाया 
ना अपना नहिं रहा पराया
सँग भीगना कँपना तपना 
माला जपना?
नहिं रे! सपना। 
८.१०.२०२३
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
७.१०.२०१३ 
दोहा दुनिया
*
कोरी पाती पर विनय, लिख विक्रम के गीत
सिंह गर्जन कर छुड़ा दे, अरि के छक्के रीत
*
लैला की शॉपिंग हुई, मजनू है बेरंग
खत्म बैंक बेलेंस लख, भागी- मजनू दंग
*
लल्ला-लल्ली पर चढ़ा, झट से प्रेम-बुखार
मिले-जुले; लड़-झगड़ कर, खोजें नूतन प्यार
*
'लिव इन' में बरसों रही, अब 'मी टू' में मस्त
रोजगार यह भी हुआ, टैक्सलगे हों पस्त
*
सरल सुबोध न साध्य है, साध्य सरस है बंधु
निर्झर सरवर साथ है, सार्थक होता सिंधु
*
अंग्रेजी शब्दों बिना, हिंदी रुचे न आज
अंग्रेजी में घोलते, हिंदी लगे न लाज
*
डगर-डगर कवियित्रियाँ, गली-गली कवि खूब
पाठक-श्रोता है नहीं, कविता मरती डूब
*
वर्ण-मात्रा गिन हुए, छंदों के सम्राट
निज मुख कर निज प्रशंसा, बनते साहब लाट
८-१०-२०२२
***
मुक्तक
अधर मौन पर नयन बोलते, अनकहनी भी कहते हैं।
हँसी-ठहाकों के मन में भी, आँसू-झरने बहते हैं।
फूल-शूल जन्मों के साथी, धूप-छाँव, पग-डग सहचर-
'सलिल' निरुपमा चाह-राह पा, संजीवित मन रहते हैं।
८-१०-२०२०
***
हाइकु
*
शेरपा शिखर
सफलता पखेरू
आकर गया
*
शेरपा हौसला
जिंदगी है चढ़ाई
कोशिश जयी
*
सिर हो ऊँचा
हमेशा पहाड़ सा
आकाश छुए
*
नदी बनिए
औरों की प्यास बुझा
खुश रहिए
*
आशा-विश्वास
खुद पर भरोसा
शेरपा धनी
८-१०-१९
***
दोहा गीत
*
ब्रम्ह देव बरगद बसें, देवी नीम निवास
अतिप्रिय शिव को धतूरा, बेलपत्र भी ख़ास
*
देवी को जासौन प्रिय,
श्री गणेश को दूब
नवमी पूजें आँवला
सुख बढ़ता है खूब
हरसिंगार हरि को चढ़े,
हो मनहर श्रृंगार
अधर रचाए पान से
राधा-कृष्ण निहार
पुष्प कदंबी कह रहा, कृष्ण कहीं हैं पास
*
कौआ कोसे ढोर कब,
मरते छोड़ो फ़िक्र
नाशुकरों का क्यों करें
कहो जरा भी जिक्र
खिलता लाल पलाश हो,
महके महुआ फूल
पीपल कहता डाल पर
डालो झूला, झूल
भुनती बाली देख हो, होली का आभास
*
धान झुका सरसों तना,
पर नियमित संवाद
सीताफल से रामफल,
करता नहीं विवाद
श्री फल कदली फल नहीं,
तनिक पलते बैर
पुंगी फल हँस मनाता सदा
सभी की खैर
पीपल ऊँचा तो नहीं, हो जामुन को त्रास
***
दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
८-१०-२०१८
***
लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.
आत्मा क्या है?
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं:
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
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लघुकथा
चट्टान
*
मुझे चैतन्य क्यों नहीं बनाया? वह हमेशा शिकायत करती अपने सृजनहार से। उसे खुद नहीं मालुम कब से वह इसी तरह पड़ी थी, उपेक्षित और अनदेखी। न जाने कितने पतझर और सावन बीत गए लेकिन वह जैसी की तैसी पड़ी रही। कभी कोई भूला-भटका पर्यटक थककर सुस्ताने बैठ जाता तो वह हुलास अनुभव करती किन्तु चंद क्षणों का साथ छूटते ही फिर अकेलापन। इस दीर्घ जीवन-यात्रा में धरती और आकाश के अतिरिक्त उसके साथी थे कुछ पेड़-पौधे, पशु और परिंदे। कहते है सब दिन जात न एक समान। एक दिन कुछ दो पाये जानवर आये, पेड़ों के फल तोड़कर खाये, खरीदी जमीन को समतल कर इमारत खड़ी करने की बात करने लगे।
फिर एक-एक कर आए गड़गड़ - खड़खड़ करते दानवाकार यन्त्र जो वृक्षों का कत्ले-आम कर परिंदों को बेसहारा कर गए, टीलों को खोदने और तालाबों को पाटने लगे। उनका क्रंदन सुनकर उसकी छाती फटने लगी। मरती क्या न करती? उसने बदला लेने की ठानी और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसकी करुण पुकार सुनकर पसीजे मेघराज की छाती फट गयी। बिजली तांडव करना आरम्भ कर तड़तड़ाती हुई जहाँ-तहाँ गिरी। उसने भी प्रकृति के साथ कदमताल करते हुए अपना स्थान छोड़ा। पहाड़ी नदी की जलधार के साथ लुढ़कती हुई वह हर बाधा को पर कर दो पैरोंवाले जानवरों को रौंदते-कुचलते हुए केदारनाथ की शरण पाकर थम गयी।
खुद को महाबली समझनेवाले जानवरों को रुदन-क्रंदन करते देख उसका मन भर आया किंतु उसे विस्मय हुआ यह देखकर कि उन जानवरों ने अपनी गलती न मान, प्रकृति और भगवान को दोष देती कवितायें लिख-लिखकर टनों कागज़ काले कर दिए, पीड़ितों की सहायता के नाम पर अकथनीय भ्रष्टाचार किया और फिर इमारतें तानने की तैयारी आरंभ कर दी। उसे अनुभव हुआ कि इन चैतन्य जानवरों से लाख गुना बेहतर हैं कम चेतन कहे जानेवाले पशु-पक्षी और जड़ कही जानेवाली वह खुद जिसे कहा जाता है चट्टान।
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अलंकार सलिला-
जन मन रंजन :
निम्न चित्रपटीय गीतों में अलंकार बताइए :
१. कहीं दूर जब दिन ढल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आये
मेरे ख्यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाये, नज़र न आये - आनंद
*
२. दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा
ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा
*
३. चाँद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था?
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था
*
४. चाँद सा रौशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा
ये झील सी नीली आँखें, कोई राज है जिनमें गहरा
*
५. चंदन सा वदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना
मुझे दोष न देना जगवालों, हो जाऊँ अगर मैं दीवाना
ये काम-कमान भँवें तेरी, पलकों के किनारे कजरारे
माथे पर सिन्दूरी सूरज, होंठों पे दहकते अंगारे
साया भी जो तेरा पड़ जाए, आबाद हो दिल का वीराना
८.१०.२०१५
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दोहा यमक का
संजीव
*
कल-कल करते कल हुए, कल न हो सका आज
विकल मनुज बेअकल खो कल, सहता कल-राज
कल = आगामी दिन, अतीत, शांति, यंत्र
कल करूंगा, कल करूंगा अर्थात आज का काम पर कल (अगला दिन) पर टालते हुए व्यक्ति खुद चल बसा (अतीत हो गया) किन्तु आज नहीं आया. बुद्धिहीन मनुष्य शांति खोकर व्याकुल होकर यंत्रों का राज्य सह रहा है अर्थात यंत्रों के अधीन हो गया है.
८.१०.२०१३
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हिंदी शब्द सलिला : १
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, अंग.- अंग्रेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा, यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, रामा.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.
अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: १
अ - उप. (सं.) हिंदी वर्ण माला का प्रथम हृस्व स्वर, यह व्यंजन आदि संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर सादृश्य (अब्राम्हण), भेद (अपट), अल्पता (अकर्ण,अनुदार), अभाव (अरूप, अकास), विरोध (अनीति) और अप्राशस्तस्य (अकाल, अकार्य) के अर्थ प्रगट करता है. स्वर से आरम्भ होनेवाले शब्दों के पहले आने पर इसका रूप 'अन' हो जाता है (अनादर, अनिच्छा, अनुत्साह, अनेक), पु. ब्रम्हा, विष्णु, शिव, वायु, वैश्वानर, विश्व, अमृत.
अइल - दे., पु., मुँह, छेद.
अई -
अउ / अउर - दे., अ., और, एवं, तथा.
अउठा - दे. पु. कपड़ा नापने के काम आनेवाली जुलाहों की लकड़ी.
अजब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अजहब - उ.अनोखा, अद्वितीय (वीसल.) -अजब दे. विचित्र, असामान्य.
अजीब -दे. विचित्र, असामान्य, अनोखा, अद्वितीय.
अऊत - दे. निपूता, निस्संतान.
अऊलना - अक्रि., तप्त होना, जलना, गर्मी पड़ना, चुभना, छिलना.
अऋण/अऋणी/अणिन - वि., सं, जो ऋणी/कर्ज़दार न हो, ऋण-मुक्त.
अएरना - दे., सं, क्रि., अंगीकार करना, गृहण करना, स्वीकार करना, 'दियो सो सीस चढ़ाई ले आछी भांति अएरि'- वि.
अक - पु., सं., कष्ट, दुःख, पाप.
अकच - वि., सं., केश रहित, गंजा, टकला दे. पु., केतु गृह.
अकचकाना - दे., अक्रि., चकित रह जाना, भौंचक हो जाना.
अकच्छ - वि., सं., नंगा, लंपट.
अकटु - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो.
अकटुक - वि., सं., जो कटु (कड़वा) न हो, अक्लांत.
अकठोर - वि., सं., जो कड़ा न हो, मृदु, नर्म.
अकड़ - स्त्री., अकड़ने का भाव, ढिठाई, कड़ापन, तनाव, ऐंठ, घमंड, हाथ, स्वाभिमान, अहम्. - तकड़ - स्त्री., ताव, ऐंठ, आन-बान, बाँकपन. -फों - स्त्री., गर्व सूचक चाल, चेष्टा. - वाई - स्त्री., रोग जिसमें नसें तन जाती हैं. -बाज़ - वि., अकड़कर चलनेवाला, घमंडी, गर्वीला. - बाज़ी - स्त्री., ऐंठ, घमंड, गर्व, अहम्.
अकड़ना - अक्रि., सूखकर कड़ा होना, ठिठुरना, तनना, ऐंठना, घमंड करना, स्तब्ध होना, तनकर चलना, जिद करना, धृष्टता करना, रुष्ट होना. मुहा. अकड़कर चलना - सीना उभारकर / छाती तानकर चलना.
अकड़म - अकथह, पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकड़ा - पु., चौपायों-जानवरों का एक रोग.
अकड़ाव - पु., अकड़ने की क्रिया, तनाव, ऐंठन.
अकड़ू - वि., दे., अकड़बाज.
अकडैल / अकडैत - वि., दे., अकड़बाज.
अकत - वि., कुल, संपूर्ण, अ. पूर्णतया, सरासर.
अकती - एक त्यौहार, अखती, वैशाख शुक्ल तृतीया, अक्षय तृतीया, बुन्देलखण्ड में सखियाँ नववधु को छेड़कर उसके पति का नाम बोलने या लिखने का आग्रह करती हैं., -''तुम नाम लिखावति हो हम पै, हम नाम कहा कहो लीजिये जू... कवि 'किंचित' औसर जो अकती, सकती नहीं हाँ पर कीजिए जू.'' -कविता कौमुदी, रामनरेश त्रिपाठी.
अकथह - अकड़म,पु., सं., एक तांत्रिक चक्र.
अकत्थ - वि., दे., अकथ्य, न कहनेयोग्य, न कहा गया.
अकत्थन - वि. सं., दर्फीन, जो घमंड न करे.
....... निरंतर
संस्कारधानी जबलपुर ८.१०.२०१०
***
मुक्तिका...
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
***
लेख :
हिंदी की प्रासंगिकता और हम.
हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है. हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं.
हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा. इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं. वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति असमर्पित हैं. उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है. उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है. कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं. यदि वे न मिलनेवाले शब्द को अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे. जो न मिलें उनके लिये शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है. इससे हिंदी का सतत विकास होगा.
सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते. सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रोक , स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, बोल्डर, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ . बोल्डर के लिये कोई शब्द नहीं है?
रेत के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्द कोष में नहीं मिला. छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा. काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय. कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं. सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं. लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है. निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है. किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है. न्यायलय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है. हर विषय और विधा में यह उलझन है. मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत हा एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सके तो...? सोचें...
भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा. राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है. भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए. लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है. कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे. भाषा का जितना विस्तार इन दिनों ने किया अन्यों ने नहीं. शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं.
चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.
भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है.
***
नवगीत:
आँचल मैला
मत होने दो...
*
ममता का
सागर पाया है.
प्रायः भीगे
दामन में.
संकल्पों का
धन पाया है,
रीते-रिसते
आँचल में.
श्रृद्धा-निष्ठां को
सहेज लो,
बिखरा-फैला
मत होने दो.
आँचल मैला
मत होने दो...
*
माटी से जब
सलिल मिले तो,
पंक मचेगा
दूर न करना.
खिले पंक में
जब भी पंकज,
पुलक-ललककर
पल में वरना.
श्वास-चदरिया
निर्मल रखना.
जीवन थैला
मत होने दो.
आँचल मैला
मत होने दो...
***
आदि शक्ति वंदना
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
८-१०-२०१०
***
होने दो...
***
नमन नर्मदा:
भव्य नर्मदा
शन्नो अग्रवाल
(रचनाकार भारत की बेटी किन्तु वर्तमान में इंग्लैंड निवासिनी हैं. परदेश में भी उनके मन-प्राण में भारत की माटी की खुशबू समाई रहती है. इस रचना में वे सनातन सौन्दर्यमयी नर्मदा के प्रति अपनी भावांजलि निवेदित कर रही हैं- सं.)
*
दिव्य नर्मदा को मैंने जाना जबसे
लिपट गयी हूँ इसके आलिंगन में
कल-कल में इसकी नवगीत भरे
शीतल,निर्मल धारा के स्पंदन में.
भव्य,शान्तिमय नवरूप धारिणी
सरस,सुगम वेग जल की धारा
छवि सुखद अवलोकन मन में कर
ह्रदय का दुख भी बह जाता सारा.
निश्छल,चपल लहरें भिगो के आयें
छूकर स्वप्निल से अटल किनारों को
बार-बार नहलाती हैं वापस आकर
जल बीच में कितनी ही चट्टानों को.
पंछी आते जल पी उड़ते मंडराते ऊपर
अठखेली करके जल से करते गुंजन
कलरव से भर जातीं सभी दिशायें तब
फेनिल जल का लगता चांदी सा तन.
आता पथ में कोई अवरोह तनिक भी
नहीं जरा सा तब गति में अंतर आता
तन-मन सबके धोकर उज्ज्वल करती
मिल प्रवाह में पाप-मैल सब बह जाता.
८-१०-२००९
***