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शुक्रवार, 28 जून 2019

नवगीत तुम

एक रचना: 
तुम 
*
तुम मुस्काईं 
तो ऊषा के 
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल। 

२८-६-२०१७
*

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

गीत तुम

चित्र पर रचना:
तुम



*
तुम हो या साकार है
बेला खुशबू मंद
आँख बोलती; देखती
जुबां; हो गयी बंद
*
अमलतास बिंदी मुई, चटक दहकती आग
भौंहें तनी कमान सी, अधर मौन गा फाग
हाथों में शतदल कमल 
राग-विरागी द्वन्द 
तुम हो या साकार है 
मद्धिम खुशबू मंद
*
कृष्ण घटाओं बीच में, बिजुरी जैसी माँग
अलस सुबह उल्लसित तुम, मन गदगद सुन बाँग
खनक-खनक कंगन कहें
मधुर अनसुने छंद
तुम हो या साकार है 
मनहर खुशबू मंद
*
पीताभित पुखराज सम, मृदुल गुलाब कपोल
जवा कुसुम से अधरद्वय, दिल जाता लख डोल 
हार कहें भुज हार दो
बनकर आनंदकंद
तुम हो या साकार है 
मन्मथ खुशबू मंद
*
संवस, १५.४.२०१९ 

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

गीत

एक रचना-
हो अभिन्न तुम 
*
हो अभिन्न तुम 
निकट रहो 
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
*

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

एक रचना

एक रचना 
*
आकर भी तुम आ न सके हो 
पाकर भी हम पा न सके हैं 
जाकर भी तुम जा न सके हो 
करें न शिकवा, हो न शिकायत
*
यही समय की बलिहारी है
घटनाओं की अय्यारी है
हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो
किसे दोष दे, करें बगावत
*
अपने-सपने आते-जाते
नपने खपने साथ निभाते
तपने की बारी आई तो
साये भी कर रहे अदावत
*
जो जैसा है स्वीकारो मन
गीत-छंद नव आकारो मन
लेना-देना रहे बराबर
इतनी ही है मात्र सलाहत
*
हर पल, हर विचार का स्वागत
भुज भेंटो जो दर पर आगत
जो न मिला उसका रोना क्यों?
कुछ पाया है यही गनीमत
***

बुधवार, 28 जून 2017

गीत

एक रचना:
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे  
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।  
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली    
हुई दुपहरी प्रखर हठीली  
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर      
निशा नशीली चाल।  
तुम हुलसाईं
अपने सपने  
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*



बुधवार, 28 सितंबर 2016

navgeet

नवगीत  
*
क्यों न फुनिया कर 
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
भीड़ में घिर
हो गया है मन अकेला
धैर्य-गुल्लक
में, न बाकी एक धेला
क्या कहूँ
तेरे बिना क्या-क्या न झेला?
क्यों न तू
आकर बना ले मुझे चेला?
मान भी जा
आज सुन फरियाद मेरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
प्रेम-संसद
विरोधी होंगे न मैं-तुम
बोल जुमला
वचन दे, पलटें नहीं हम
लाएँ अच्छे दिन
विरह का समय गुम
जो न चाहें
हो मिलन, भागें दबा दुम
हुई मुतकी
और होने दे न देरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
२४-२५ सितंबर २०१६

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

navgeet

एक नव गीत :
उत्सव का मौसम.....
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भरमाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....


***********

बुधवार, 15 जून 2016

navgeet

नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो 
हुई नाक में  
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर 
एक-दूसरे को 
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे 
दिल दुखते हैं  
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें  
एक-दूसरे बिन  
ढलते हम।
*
 तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर 
जब मैं-तुम  
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं 
एक-दूसरे में 
खो-पा हम।
*****
१०-६-२०१६ 
TIET JABALPUR

 


  

रविवार, 29 मई 2016

navgeet

नवगीत
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
[ आदित्य जातीय, तोमर छन्द]
२९-५-२०१६

शुक्रवार, 27 मई 2016

navgeet

गीत सलिला:
तुमको देखा  
तो मरुथल मन 
हरा हो गया।  
*
चंचल चितवन मृगया करती 
मीठी वाणी थकन मिटाती। 
रूप माधुरी मन ललचाकर -
संतों से वैराग छुड़ाती। 
खोटा सिक्का 
दरस-परस पा 
खरा हो गया।   
तुमको देखा  
तो मरुथल मन 
हरा हो गया।  
*
उषा गाल पर, माथे सूरज 
अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता। 
चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट 
शारद-रमा-उमा संयुक्ता।  
ध्यान किया तो 
रीता मन-घट 
भरा हो गया। 
तुमको देखा  
तो मरुथल मन 
हरा हो गया।  
*
सदा सुहागन, तुलसी चौरा 
बिना तुम्हारे आँगन सूना। 
तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं 
तुम्हें सुमिरता है मन दूना। 
साथ तुम्हारे  गगन 
हुआ मन, दूर हुईं तो 
धरा हो गया। 
तुमको देखा  
तो मरुथल मन 
हरा हो गया।  
*
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एन्ड टेक्नोलॉजी 
जबलपुर, २६.५.२०१६ 

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

नवगीत

एक रचना-
अभिन्न
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो 
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर

रविवार, 27 मार्च 2016

navgeet

नवगीत
*
ताप धरा का 
बढ़ा चैत में 
या तुम रूठीं?
लू-लपटों में बन अमराई राहत देतीं। 
कभी दर्प की उच्च इमारत तपतीं-दहतीं।
बाहों में आ, चाहों ने हारना न सीखा-
पगडंडी बन, राजमार्ग से जुड़-मिल जीतीं।
ठंडाई, लस्सी, अमरस 
ठंडा खस-पर्दा-
बहा पसीना 
हुई घमौरी 
निंदिया टूटी।
*
सावन भावन 
रक्षाबंधन 
साड़ी-चूड़ी।
पावस की मनहर फुहार  मुस्काई-झूमी।
लीक तोड़कर कदम-दर-कदम मंजिल चूमी।
ध्वजा तिरंगी फहर हँस पड़ी आँचल बनकर- 
नागपंचमी, कृष्ण-अष्टमी सोहर-कजरी।
पूनम-एकादशी उपासी 
कथा कही-सुन-
नव पीढ़ी में 
संस्कार की
कोंपल फूटी। 
*
अन्नपूर्णा!
शक्ति-भक्ति-रति 
नेह-नर्मदा।
किया मकां को घर, घरनी कण-कण में पैठीं।
नवदुर्गा, दशहरा पुजीं लेकिन कब ऐंठीं?
धान्या, रूपा, रमा, प्रकृति कल्याणकारिणी-
सूत्रधारिणी सदा रहीं छोटी या जेठी। 
शीत-प्रीत, संगीत ऊष्णता 
श्वासों की तुम- 
सुजला-सुफला 
हर्षदायिनी 
तुम्हीं वर्मदा।
*
जननी, भगिनी 
बहिन, भार्या 
सुता नवेली।
चाची, मामी, फूफी, मौसी, सखी-सहेली।
भौजी, सासू, साली, सरहज छवि अलबेली-
गति-यति, रस-जस,लास-रास नातों की सरगम-
स्वप्न अकेला नहीं, नहीं है आस अकेली। 
रुदन, रोष, उल्लास, हास, 
परिहास,लाड़ नव- 
संग तुम्हारे 
हुई जिंदगी ही
अठखेली।
*****

बुधवार, 16 मार्च 2016

navgeet

एक रचना
तुम बिन 
*
तुम बिन नेह, न नाता पगता
तुम बिन जीवन सूना लगता
*
ही जाती तब दूर निकटता
जब न बाँह में हृदय धड़कता
दिपे नहीं माथे का सूरज
कंगन चुभे, न अगर खनकता
तन हो तन के भले निकट पर
मन-गोले से मन ही दगता
*
फीकी होली, ईद, दिवाली
हों न निगाहें 'सलिल' सवाली
मैं-तुम हम बनकर हर पल को
बाँटें आजीवन खुशहाली
'मावस हो या पूनम लेकिन
आँख मूँद, मन रहे न जगता
*
अपना नाता नेह-खज़ाना
कभी खिजाना, कभी लुभाना
रूठो तो लगतीं लुभावनी
मानो तो हो दिल दीवाना
अब न बनाना कोई बहाना
दिल न कहे दिलवर ही ठगता
***

navgeet- fagun

नवगीत:
फागुन 
*
फागुन की 
फगुनौटी के रंग 
अधिक चटख हैं 
तुम्हें देखकर 
*
फूला पहले भी पलाश पर 
केश लटों सम कब झूमा था?
आम्र पत्तियों सँग मौर यह 
हाथ थामकर कब लूमा था?
कोमल कर पल्लव गौरा का 
थामे बौरा कब घूमा था?
होरा, गेहूँ-
बाली के रंग  
अधिक हरित हैं 
तुम्हें देखकर 
*
दाह होलिका की ज्यादा है 
डाह जल रही सिसक-सिसक कर 
स्नेह-प्रेम की पिचकारी ने 
गात भिगाया पुलक-पुलक कर 
गाते हैं मन-प्राण बधाई 
रास-गीत हैं युगल अधर पर 
ढोलक, झाँझें  
और मँजीरा  
अधिक मुखर हैं 
तुम्हें देखकर 
*
पँचरंगी गुलाल उड़ता है 
सतरंगी पिचकारी आयी 
नवरंगी छवि अजब तिहारी
बिजुरी बिन बरसात गिरायी 
सदा आनंद रहें ये द्वारे  
कोयल कूकी, टेर लगायी 
मनबसिया 
चंचल चितवन चुप  
अधिक चपल है  
हमें देखकर 
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 
​९४२५१ ८३२४४
​ / ०७६१ २४१११३१ ​

salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

शनिवार, 12 मार्च 2016

navgeet

नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला 
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे  
संग सलोने।
***

गुरुवार, 10 मार्च 2016

navgeet

नवगीत:
तुम्हीं से
*
जीवन का हर रंग
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
तुम हरियाली तीज हो
केसर हरसिंगार
तुम ही करवाचौथ हो
रंगपंचमी-धार
तुम ही हरछट हो प्रिया
स्वीकारो भुज-हार
जीवन में सुख-संग
तुम्हीं से 
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
तुम सातें संतान की
तुम अष्टमी अहोई
महा-अष्टमी हो तुम्हीं
जन्माष्टमी गोई
हो नौमी श्री राम की
विजयादशमी सोई
ठंडाई में भंग
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
*
धनतेरस पर हँसी तुम
रूप चतुर्दशी पूज
दीप अमावस पर जला  
गोवर्धन हो खूब
भाई-बहिन दूज पर
मिलें स्नेह में डूब
गुंजित घंटी-शंख
तुम्हीं से
जीवन पावन
गंग तुम्हीं से
***

मंगलवार, 1 मार्च 2016

navgeet

नवगीत:
तुम रूठीं 
*
तुम रूठीं तो 
मन-मंदिर में 
घंटी नहीं बजी।
रहीं वन्दना,
भजन, प्रार्थना
सारी बिना सुनी।
*
घर-आँगन में
ऊषा-किरणें
बिन नाचे उतरीं।
ना चहके-
फुदके गौरैया
क्या खुद से झगड़ी?
गौ न रँभायी
श्वान न भौंका
बिजली गोल हुई।
कविताओं की
गति-यति-लय भी
अनजाने बिगड़ी।
सुड़की चाय
न लेकिन तन ने
सुस्ती तनिक तजी।
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
दफ्तर में
अफसर से नाहक
ठानी ठनाठनी ।
बहक चके-
यां के वां घूमे
गाड़ी फिसल भिड़ी.
राह काट गई
करिया बिल्ली
तनिक न रुकी मुई।
जेब कटी तो
अर्थव्यवस्था
लडखडाई तगड़ी।
बहुत हुआ
अनबोला अब तो
लो पुकार ओ जी!
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
१-३-२०१६

navgeet

एक रचना- 
लौट घर आओ 
*
लौट घर आओ. 
मिल स्वजन से 
सुख सहित पुनि
लौट घर आओ.
*
सुता को लख
बिलासा उमगी बहुत होगी
रतनपुर में
आशिषें माँ से मिली होंगी
शंख-ध्वनि सँग
आरती, घंटी बजी होगी
विद्यानगर में ख़ुशी की
महफ़िल सजी होगी
लौट घर आओ.
*
हवाओं में फिजाओं में
बस उदासी है.
पायलों के नूपुरों की
गूँज खासी है
कंगनों की खनक सुनने
आस प्यासी है
नर्मदा में बैठ आतीं
सुन हुलासी है
लौट घर आओ.
*
गुनगुनाहट धूप में मिल
खूब निखरेगी
चहचहाहट पंछियों की
मंत्र पढ़ देगी
लैम्ब्रेटा महाकौशल
पहुँच सिहरेगी
तुहिन-मन्वन्तर मिले तो
श्वास हँस देगी
लौट घर आओ.
*
२९-२-२०१६

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

navgeet

नवगीत:
हो मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित 
निर्मल नेह-नर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित 
घहरित-हहरित 
बूँद-बूँद में मुखरित 
चंचल-चपल शर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित 
हर्षित-कुसुमित 
कुंद इंदु सम अर्चित 
अर्पित अचल वर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित 
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित 
वन्दित विमल धर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

doha salila;

दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
संजीव 'सलिल'
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'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
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'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
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'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
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'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
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'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
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'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
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'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक. 
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
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'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
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'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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