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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

पुरोवाक्, चुनाव चकल्लस, गुरु सक्सेना, हास्य, पिंगल, छंद, घनाक्षरी, सवैया

पुरोवाक्:
'चुनाव चकल्लस' : हास्य रस से लबालब छंद कलश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    'सर्वोत्तम जिंदा रहे' ('सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट') ही सृष्टि में जीवन का मूल सूत्र है। मानवेतर प्राणियों में सर्वोत्तम की पहचान दैहिक बल से होती है। मानव में बुद्धितत्व की प्रधानता तथा भाषा का विकास होने के कारण जीवन का निर्धारण तन, मन तथा मति तीन  आधार पर भी होता है। बुद्धि की प्रधानता विकल्पों को पहचानकर सर्वोत्तम के चयन की कसौटी की दो विधियों संघर्ष और चयन में से दूसरे को प्राथमिकता देती है। इसका कारण संघर्ष से जन-धन की हानि तथा चयन से शांति व विकास होना है। 

                    जीव और जीवन में सामंजस्य, अनुशासन, सुव्यवस्था, विकास तथा शांति के लिए शासक और शासित का होना अपरिहार्य है। मानवेतर जीवों में शासक का चयन संघर्ष से हत्या है जिसमें पर्याय: पराजित के समक्ष प्राणहनी या पलायन के अलावा अन्य विकल्प नहीं होता किंतु बुद्धिजीवी मनुष्य शासक का चयन शांतिपूर्ण तरीके से करने को प्रमुखता दे रहा है। राजनीति शास्त्र में वर्णित विविध शासन पद्धतियों में से लोकतंत्र, प्रजातन्त्र या गणतंत्र (डेमोक्रेसी) शांतिमे शासन व्यवस्था परिवर्तन की श्रेष्ठ और लोकप्रिय पद्धति है। भारत में यह पद्धति वैदिक काल से यत्र-तत्र प्रचलित रही है। वर्तमान में भारत विश्व का सबसे अधिक बड़ा और सबसे अधिक सफल लोकतन्त्र है जिसमें प्रति पाँच वर्ष बाद अगले पाँच वर्षों के लिए चयनित जनप्रतिनिधियों से सबड़े अधिक बड़े समूह द्वारा बहुमत से अगले शासक का चुनाव किया जाता है। अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। इस विशेषता, वृहद आकार तथा विशाल जनसंख्या के कारण चुनाव का अनुष्ठान विविध रोचक दृश्य उपस्थित करता है।

                   मानव भाव्यभिव्यक्ति के लिए गद्य तथा पद्य दो माध्यमों का उपयोग करता है। पद्य की सरसता, सहजता, सरलता, संक्षिप्तता तथा लोकप्रियता रोचक प्रसंगों की अभिव्यक्ति हेतु अधिक उपयुक्त है। हिंदी भाषी काव्य के ९ रसों ( श्रृंगार, हास्य, वीर, भयानक, बीभत्स, रौद्र, अद्भुत, शांत और करुण) में से सर्वाधिक लोकप्रिय हास्य रस है। किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर अथवा किसी काव्य को सुनकर हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास्य कहा जाता है। हास्यजनित आनंद या भाव की  अनुभूति ही हास्य रस है। किसी विचार, व्यक्ति, वस्तु व घटना का स्वरूप वैचित्र्य ही हास्य का जनक है। यह वैचित्र्य विस्मय या आश्चर्य उत्पन्न कार लक्षित व्यक्ति को गुदगुदा जाता है। भरतमुनि के अनुसार 'दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से' ‘हास’ की उत्पत्ति तथा स्मित, हास एवं अतिहसित द्वारा अभिव्यक्ति होती है।' पण्डितराज 'वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से हास ही उत्पत्ति मानते हैं।' डॉ. गणेश दत्त सारस्वत के मत में'हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन के भावों की सुंदरता झलक उठती है।' हास्य वास्तव में निच्छल मन से निकला, मानव मन का वह कवच है जो उद्दात्त भावों को नियंत्रण कर हमें पृथ्वी पर रहने योग्य बनाता है। विश्वप्रसिद्ध लेखक "वाल्तेयर" ने कहा था' जो हँसता नहीं वो लेखक नहीं हो सकता।' मार्क ट्वेन के अनुसार समाज की सही तस्वीर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यंगकार पर ही है।


                   हास्य रस के दो प्रकार आत्मस्थ हास्य रस (किसी व्यक्ति या विषय की विचित्र वेशभूषा, वाणी, आकृति तथा चेष्टा आदि को देखने  से उत्पन्न) तथा परस्थ हास्य रस (हँसते हुए व्यक्ति को देखकर जो उत्पन्न हास्य) हैं। आचार्य केशवदास ने हास के ४ प्रकार मन्दहास, कलहास, अतिहास एवं परिहास माने हैं। आधुनिक काव्यशास्त्र ने हास्य के छ: प्रकार स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित बताए हैं। हास्य रस का  स्थाई भाव- हास (हास्य), आलंबन विभाव-  विकृत वेशभूषा, आकार, क्रियाएँ, चेष्टाएँ आदि,  उद्दीपन विभाव- अनोखा पहनावा और आकार, बातचीत और क्रिया-कलाप, अनुभाव- आश्रय की मुस्कान, आँखों का मिचमिचाना, ठहाका, अट्ठहास आदि  तथा संचारी भाव हँसी, उत्सुकता, चपलता, कंपन, आलस्य आदि हैं। अमिधा-लक्षणा से हास्य तथा लक्षण-व्यंजना से व्यंग्य का सृजन होता है। 

                   भारतीय लोक साहित्य तथा हिंदी साहित्य में पुरातन काल हास्य की समृद्ध परंपरा है। नौटंकी, लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथा,  आख्यायिका, नाटक, गीत, महाकाव्य, पंचतंत्र, जातक कथाएँ, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि में हास्य चिर काल से है। उपनिषदों, पंचतंत्र, जातक कथाओं, पर्व कथाओं, बोध कथाओं, सूर रचित कृष्ण लीला के पदों, पृथ्वीराज रासो में चंदरबरदाई और जयचंद की वार्ता, भारतेंदु हरिश्चंद (अंधेर नगरी, ताजीराते शौहर), गोपालराम 'गहमरी', प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, शिवपूजनसहाय, विश्वभरनाथ शर्मा 'कौशिक', बाबू गुलाबराय, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी',  मुंशी प्रेमचन्द, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, झलकन लाल वर्मा छैल, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, पद्मश्री के.पी. सक्सेना, गुरु सक्सेना (साँड़ नरसिंहपुरी), सुरेश उपाध्याय, सुरेन्द्र शर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी, अशोक चक्रधर, अनूप श्रीवास्तव, संजीव वर्मा 'सलिल', राजेंद्र वर्मा, अरुण अर्णव खरे, इन्द्रबहादुर श्रीवास्तव आदि अगिन साहित्यकारों ने हास्य-व्यंग्य की श्रेष्ठ गाड़ी-पद्य रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया। 

                   हास्य-व्यंगकार हँसते-हँसते सब कुछ कह जाता है और सुनने वाले भी बिना बुरा माने हँसते- हँसते सुनते हैं और फिर सोचने के लिए बाध्य भी होते हैं कि हम खुद की कारस्तानियों , खुद के द्वारा उत्पन्न की हुई परिस्थिति पर स्वयं ही हँस रहे हैं। वास्तव में जो बात क्रोध से, शांति से कहने में समझ नहीं आती वो इंसान हँसी -हँसी में समझ लेता है चूँकि उसका अहम् आहत नहीं होता। इसलिए हास्य-व्यंग्य प्रधान साहित्य से समाज को स्वास्थ्य दिशा दिखाकर सामाजिक परिवर्तन करना संभव हो पाता है।

                   इस पृष्ठ भूमि में सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के हृद प्रदेश के निवासी गुरु सक्सेना जी की नवीनतम कृति 'चुनाव चकल्लस' भारतीय राजनीति, लोकतंत्र तथा जन सामान्य के लिए पथ प्रदर्शक कृति है। गुरु सक्सेना ग्रामीण और नगरीय जीवनशैली, कृषक और शिक्षक वृत्ति, चिंतक और व्यंगकार मनोवृत्ति के कॉकटेल हैं। मसिजीवी कायस्थ कुल (मैं कायस्थ कुलोद्भव मेरे पुरखों ने इतना ढाला, मेरे लोहू में मिश्रित है पचहत्तर प्रतिशत हाला) उत्पन्न गुरु जी शुद्ध शाकाहार और सात्विक आचार-आहार के पक्षधर हैं। गुरु जी के व्यक्तित्व-कृतित्व को 'विचित्र किंतु सत्य' ही कहा जा सकता है।

                   १६ प्रकार के घनाक्षरी छंद (मनहरण, जनहरण, जलहरण, कलाधर, रूप, डमरू, कृपाण, विजया, देव, महीधर, सूर, नीलचक्र अशोक पुष्प मंजरी, सुधा निधि, अनंगशेखर व मत्त मातंग लीलाधर), १० प्रकार के सवैए (सुमुखी, वाम, मुक्तहरा, लवंगलता, मत्तगयंद, मदिरा, मंदारमाला, चकोर अरसात व किरीट)  तथा २१ अन्य छंद रत्नों (सरसी, कनकमंजरी, राधा, विजात, गीतिका, अहीर, दीनबंधु, चंद्र, दिग्पाल, मानव, हाकलि, प्रदीप, लावणी, ताटंक, शिव, भानु, राधिका, सुमेरु, तोटक, द्वि मनोरमा) के छंद विधान एवं उदाहरणों से समृद्ध 'चुनाव चकल्लस' 'एक के साथ एक फ्री' के समय में मनोरंजन के साथ-साथ छंद शास्त्र की पर्याप्त जानकारी भी देती है।   

                   'चुनाव चकल्लस' का रचनाकार कुशल छंदज्ञ, गंभीर विचारक, ओजस्वी मंचीय कवि तथा सहज-सरल व्यक्तित्व का धनी है। अपने आप पर हँसने का माद्दा कम ही लोगों में होता है। गुरु उन्हीं कम लोगों में से एक हैं। वे खुद अपना ही परिचय इस तरह देते हैं- 

करने को कोई काम नहीं
अण्टी में बिलकुल दाम नहीं
भारत माता के नूर हैं हम
हर हालत में मजबूर हैं हम

                   यह 'भारत माता का नूर' देश के राजनैतिक आकाओं को उनकी औकात निम्न पंक्तियों के आईने में दिखाता है-

नदियों से रेत साफ,जंगलों से पेड़ साफ, लड़कियों के भ्रूण साफ, भारत महान है ।
कविता से छंद साफ, नेह के संबंध साफ, सफाई का साफ साफ, हो रहा ऐलान है।
शांति के लगाव साफ, सारे सद्भाव साफ, धरने को देख संविधान परेशान है।
लगता है पूरा देश साफ करके रहेंगे, सड़क सड़क सफाई का अभियान है।

                   कवि गुरु सक्सेना की कलम सच कहने से न तो डरती है, न हिचकती है। सिर पर कफन बाँधकर, शासन-प्रशासन की बखिया उधेड़ने की कला का साहस और परिस्थितियों की विद्रूपता पर करारी चोट करने का कौशल गुरु को 'गुरु' बनाता है। शासन-प्रशासन द्वारा विधि के शासन की परवाह न कर बुलडोजर संस्कृति अपनाने के दौर में सत्य कहने का दुस्साहस करनेवाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला पत्रकार जगत सत्ता-स्तुति को ही लक्ष्य बना चुका है किंतु गुरु का गुरुत्व सत्ता को आईना दिखने से नहीं चूकता - 

यह चुनाव का पर्व मिला है पाँच साल के बाद। 
हे चुनाव का क्षेत्र बना है कुंभ इलाहाबाद।। 
जो भी घाट सामने आया गहरी डुबकी मार। 
पूजा नगद नरायण की कर हो जा सागर पार।। 
रंग रूप दल से क्या मतलब, किसमें क्या है खोट?
कुछ मत देख देखना है तो देख नोट ही नोट।। 
सारे ऐब सहज ढँक जाते जहाँ नोट की छाँव।
नोट बिछाकर सब निकले हैं पड़ने कुर्सी-पाँव।।
                   
                   वर्तमान बाजार संस्कृति 'एक के साथ एक फ्री' के पाखंड रचकर आमजन की जेब खाली कराने को ठगी नहीं, प्रबंध कौशल की संज्ञा देकार जेब खाली करा लेती है। गुरु की छांदस रचनाएँ 'एक (मनोरंजन) के साथ तीन (पिंगल-ज्ञान, कर्तव्य बोध तथा स्वस्थ्य चिंतन) फ्री देकर लोकतंत्र की नींव दृढ़ करने के लिए सजग जनमत बनाने का काम करती हैं। मतदान करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ नवोढ़ा कुलवधुओं को कर्तव्य की सीख देती निम्न घनाक्षरी कवि गुरु जी के सामर्थ्य के परिचायक है-   

रखा रख फट नहीं जाए इस कारण से समय से दूध को उबालना जरूरी है। 
बहू बन घर में आ जाना बड़ी  बात नहीं, तरीके से घर को सम्हालना जरूरी है।।
बच्चे पैदा कर देना कोई बड़ी बात नहीं, फिकर के साथ उन्हें पालना जरूरी है। 
लोकतंत्र मजबूत रहे देश ठीक चले, हर आदमी को वोट डालना जरूरी है।।   

                वर्ण और मात्रा को लक्ष्मण रेखा मानकर किताबी यांत्रिक विधि से नीरस छंद रचे जाने के वर्तमान कल में गुरु जमीन से जुड़कर, छंद सृजन की वाचिक परंपरा के अग्रदूत की तरह सरस छंद रच रहे हैं। भाषा की तथाकथित शुद्धता के पत्थर उछालने-मारनेवाले नासामझों को तर्क नहीं सृजन से उत्तर देते हैं। गुरु के छंदों की भाषा देशज-तद्भव शब्दावली संपन्न है। कथ्य की पतली रस्सी पर गति-यति का बाँस थामे गुरु नट की तरह संतुलन कौशल साधकर श्रोता-पाठक को करतल ध्वनि और वाह वाह करने के लिए विवश कर देते हैं। मुझे भरोसा है कि कॉनवेंटी नई पीढ़ी, नगरीय अपसंस्कृति को जी रहे बाबू साहबों- नव धनाढ्य सेठों तथा ग्राम्य और वन्य क्षेत्रों में रह रहे कुशकों-श्रमिकों  को गुरु जी के इन छंदों से दायित्व बोध होगा तथा वे नकली दूरदर्शनी और मोबाइली दुनिया से निकलकार अपनी माटी से जुड़ने की दिशा ग्रहण कर सकेंगे। इस लोकोपयोगी कृति से विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत कोश को समृद्ध करने के लिए गुरु सक्सेना साधुवाद के पात्र हैं। 
***
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

सोमवार, 5 जून 2017

ankik upmaan

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
संजीव
 *
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
 पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
 इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
 दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
 महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
 तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
 तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
 त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
 चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
 अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
 चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
 पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
 इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
 षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
 अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
 नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
 दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
 ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
 सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
 अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

tribhangi chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा २० :
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी तथा बरवैछंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए त्रिभंगी से.
तीन बार हो भंग त्रिभंगी, तीन भंगिमा दर्शाये
*
त्रिभंगी ३२ मात्राओं का छंद है जिसके हर पद की गति तीन बार भंग होकर चार चरणों (भागों) में विभाजित हो जाती है। प्राकृत पैन्गलम के अनुसार:
पढमं दह रहणं, अट्ठ विरहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं।
अन्ते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वर तरुणं।
जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई।
तिब्भन्गी छंदं, सुक्खाणंदं, भणइ फणिन्दो, विमल मई।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
संकेत : प्रथम यति १० मात्रा पर, दूसरी ८ मात्रा पर, तीसरी ८ मात्रा पर तथा चौथी ६ मात्रा पर हो। हर पदांत में गुरु हो तथा जगण (ISI लघु गुरु लघु ) कहीं न हो।
केशवदास की छंद माला में वर्णित लक्षण:
विरमहु दस पर, आठ पर, वसु पर, पुनि रस रेख।
करहु त्रिभंगी छंद कहँ, जगन हीन इहि वेष।।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
भानुकवि के छंद-प्रभाकर के अनुसार:
दस बसु बसु संगी, जन रसरंगी, छंद त्रिभंगी, गंत भलो।
सब संत सुजाना, जाहि बखाना, सोइ पुराना, पन्थ चलो।
मोहन बनवारी, गिरवरधारी, कुञ्जबिहारी, पग परिये।
सब घट घट वासी मंगल रासी, रासविलासी उर धरिये।
(संकेत: बसु = ८, जन = जगण नहीं, गंत = गुरु से अंत)
सुर काज सँवारन, अधम उघारन, दैत्य विदारन, टेक धरे।
प्रगटे गोकुल में, हरि छिन छिन में, नन्द हिये में, मोद भरे।
त्रिभंगी का मात्रिक सूत्र निम्नलिखित है
"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"
लय सूत्र: धिन ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना।
नाचत जसुदा को, लखिमनि छाको, तजत न ताको, एक छिना।
उक्त में आभ्यंतर यतियों पर अन्त्यानुप्रास इंगित नहीं है किन्तु जैन कवि राजमल्ल ने ८ चौकल, अंत गुरु, १०-८-८-६ पर विरति, चरण में ३ यमक (तुक) तथा जगण निषेध इंगित कर पूर्ण परिभाषा दी है।
गुजराती छंद शास्त्री दलपत शास्त्री कृत दलपत पिंगल में १०-८-८-६ पर यति, अंत में गुरु, तथा यति पर तुक (जति पर अनुप्रासा, धरिए खासा) का निर्देश दिया है।
सारतः: त्रिभंगी छंद के लक्षण निम्न हैं:
१. त्रिभंगी ३२ मात्राओं का (मात्रिक) छंद है।
२. त्रिभंगी समपाद छंद है।
३. त्रिभंगी के हर चरणान्त (चौथे चरण के अंत) में गुरु आवश्यक है। इसे २ लघु से बदलना नहीं चाहिए।
४. त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में १०-८-६-६ पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट ८ चौकल अर्थात ८ बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें २+४+४, ४+४, ४+४, ४+२ के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह २ + (७x ४) + २ = ३२ मात्राएँ हर एक पंक्ति में होती है।
५. त्रिभंगी के चौकल ७ मानें या ८ जगण का प्रयोग सभी में वर्जित है।
६. त्रिभंगी के हर पद में पहले दो चरणों के अंत में समान तुक हो किन्तु यह बंधन विविध पदों पर नहीं है।
७. त्रिभंगी के तीसरे चरण के अंत में लघु या गुरु कोई भी मात्रा हो सकती है किन्तु कुशल कवियों ने सभी पदों के तीसरे चरण की मात्रा एक सी रखी है।
८. त्रिभंगी के किसी भी मात्रिक गण में विषमकला नहीं है। सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है।
९. त्रिभंगी के प्रथम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। इसी तरह अंतिम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। चारों पदों के अंत में समान तुक होने या न होने का उल्लेख कहीं नहीं मिला।
उदाहरण:
१. महाकवि तुलसीदास रचित निम्न पंक्तियों में तीसरे चरण की ८ मात्राएँ अगले शब्द के प्रथम अक्षर पर पूर्ण होती हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है, किन्तु मान्य है।
धीरज मन कीन्हा, प्रभु मन चीन्हा, रघुपति कृपा भगति पाई।
पदकमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना।
सोई पद पंकज, जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी।
जो अति मन भावा, सो बरु पावा, गै पतिलोक अनन्द भरी।
२. तुलसी की ही निम्न पंक्तियों में हर पद का हर चरण आपने में पूर्ण है।
परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तप, पुंज सही।
देखत रघुनायक, जन सुख दायक, सनमुख हुइ कर, जोरि रही।
अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवै, वचन कही।
अतिशय बड़भागी, चरनन लागी, जुगल नयन जल, धार बही।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'प' तथा 'र' लघु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'वै' गुरु तथा 'ल' लघु हैं।
३.महाकवि केशवदास की राम चन्द्रिका से एक त्रिभंगी छंद का आनंद लें:
सम सब घर सोभैं, मुनिमन लोभैं, रिपुगण छोभैं, देखि सबै।
बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं, दिग्गज लाजैं, सुनत जबैं।
जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, बिघन न बढ़हीं, जै जस मढ़हीं, सकल दिसा।
सबही सब विधि छम, बसत यथाक्रम, देव पुरी सम, दिवस निसा।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'भैं' तथा 'जैं' गुरु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'हीं' गुरु तथा 'म' लघु हैं।
४. श्री गंगाप्रसाद बरसैंया कृत छंद क्षीरधि से तुलसी रचित त्रिभंगी छंद उद्धृत है:
रसराज रसायन, तुलसी गायन, श्री रामायण, मंजु लसी।
शारद शुचि सेवक, हंस बने बक, जन कर मन हुलसी हुलसी।
रघुवर रस सागर, भर लघु गागर, पाप सनी मति, गइ धुल सी।
कुंजी रामायण, के पारायण, से गइ मुक्ति राह खुल सी।
टीप: चौथे पद में तीसरे-चौथे चरण की मात्राएँ १४ हैं किन्तु उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता चूंकि 'राह' को 'र'+'आह' नहीं लिखा जा सकता। यह आदर्श स्थिति नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए। इसी तरह 'गई' को 'गइ' लिखना अवधी में सही है किन्तु हिंदी में दोष माना जाएगा।
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त्रिभंगी छंद के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं
०१. री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं।
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं।। --रचनाकार : ज्ञात नहीं
संजीव 'सलिल'
०२. रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया।
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया।।
कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया।
सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया।।
०३. ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले।
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले।।
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले।
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले।।
०४. ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी।
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी।।
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी।
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी।।
०५. ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन।
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
०६. ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा।
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा।।
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने।
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने।।
शम्भुदान चारण
०७. साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा।
दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा।।
जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा।
आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा।।
डॉ. प्राची.सिंह
०८.मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे।
मन बनकर रसधर, पंख प्रखर धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे।।
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये।
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये।।
स्व. सत्यनारायण शर्मा 'कमल'
०९ छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे।
छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे।।
दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अतिशय सोहे।
पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनि मन को मोहे।।
१०. उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल चुप रह लख रे
रति सद्यस्नाता कंचन गाता रूप लजाता दृश्य अरे
मुद सस्मित निरखत रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा छिप रे
हँस गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित मौन ठगा कित रे
११. नम श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे।
नत नयन खुले से निमिष-तजे से अधर मंद मुस्कान भरे।।
उभरे वक्षस्थल जल क्रीडास्थल लहर उछल मन प्राण हरे।
सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे।।
१२. था तन रोमांचित मन आलोड़ित सिकता-कण शत-शत बिखरे।
सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति भी इस पल रे।।
उतरीं जल-परियाँ सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी।
नव दीप-शिखा सी नव-कलिका सी इठलाती हिम-कन्या सी।।
संजीव 'सलिल'
१३. हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे।
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे।।
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे।
भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे।।
१४. अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे।
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे।।
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है।
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है।।
१५. श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें।
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें।।
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें।
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें।।
१६. नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा।
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'।।
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें।।
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें।।
जनश्रुति / क्षेपक- रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.
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सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

prateep alankar

अलंकार सलिला: २५ 
प्रतीप अलंकार
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अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..

उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता हैजब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है

प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं

उदाहरण-

१. प्रथम प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर। 

उदाहरण-

१. यह मयंक तव मुख सम मोहन 

२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
    बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
    मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
    गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती

३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग 
    कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग? 

२. द्वितीय प्रतीप:

जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है

उदाहरण-

१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद 

२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
    चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि

३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य 
   बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य  

3. तृतीय प्रतीप:


जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक 

२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
    गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
    जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
    देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.

३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
    हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये  
   

४. चतुर्थ प्रतीप:

जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है

उदाहरण-

१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।

२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन 
    लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
    समता कर सकता है
    नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?

३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
    इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?

४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
    सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर   

५. पंचम प्रतीप:

जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है

उदाहरण-

१.  का सरवर तेहि देऊँ मयंकू 

२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
    राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..

३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भ हैं.
    पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
    भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
    पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.

४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध 
    पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध  
    

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utpreksha ke prakar

अलंकार सलिला: २४
उत्प्रेक्षा के प्रकार
*

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उत्प्रेक्षा के ३ भेद (प्रकार) होते हैं- १. वस्तूत्प्रेक्षा, २. हेतूत्प्रेक्षा तथा ३. फलोत्प्रेक्षा।








१. वस्तूत्प्रेक्षा: जब एक वस्तु या व्यक्ति में दूसरी वस्तु की सम्भावना (उपस्थिति की अभिव्यक्ति) की जाती है तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. हरखि ह्रदय दशरथ-पुर आई। जनु गृह-दशा दुःसह दुखदाई।।

यहाँ अयोध्या की दुस्सह गृह-दशा में सरस्वती की सम्भावना की गयी है।

२. लखन मंजु मुनिमंडली, मध्य सीय-रघुचंद।
ज्ञान-सभा जनु तनु धरे, भगति सच्चिदानंद।।

यहाँ मुनि-मंडली में ज्ञान सभा की, सीता में भक्ति की और राम में सच्चिदानंद की संभावना की गयी है।

३. प्रात-समय उठि सोवत हरि को, बदन उघार् यो नंद।
स्वच्छ सेज में ते मुख निकस्यो, गयो तिमिर मिटि मंद।।
मानो मथि पय सिंधु फेन फटि, दरिस दिखायो चंद।

यहाँ स्वच्छ शैया में क्षीर-सागर की,चद्दर में फेन की और कृष्ण-मुख में शांद्रमा की संभावना की गयी है। देवों द्वारा सागर-मंथन करने पर जैसे चन्द्रमा निकला वैसे ही नन्द द्वारा सफ़ेद चद्दर हटाने से श्री कृष्ण का मुख दिखाई दिया।

४. नारी में दुर्गा दिखी, किया तुरंत प्रणाम।
नाम रखो तुम कह रहीं, देखे 'सलिल' अनाम।।

५. केश-लट में
सरसराती हुई
नागिन दिखी।

२. हेतूत्प्रेक्षा: जब अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाती है अर्थात जब उसे कारण मान लिया जाता है जो वस्तुत: कारण नहीं होता तब हेतूत्प्रेक्षा अलंकारहोता है।

उदाहरण:

१. अरुण भये कोमल चरण भुवि चलिबें ते मानु।

कोमल चरण मानो पृथ्वी पर चलने से लाल (सूरज की तरह) हो गए। चरण प्राकृतिक रूप से लाल होने पर भी धरती पर चलने से लाल होने कीकी संभावना की गयी है अर्थात जो कारण नहीं है उसे कारण कहा गया है।

२. मुख सम नहिं याते मनों चंदहि छाया छाय।

मानो चंद्रमा मुख के समान नहीं है, इसलिए उसे कालिमा छाये रहती है। चंद्रमा पर कालिमा छाये राख्ने का कारण उसका मुख-समान न होना नहीं है किन्तु कहा गया है।

३. मुख सम नहिं यातें कमल मनु जल रह्यो छिपाइ।

जल में कमल के छिपने का कारण उसका मुख के समान न होना नहीं होने पर भी मान लिया गया है। इसलिए हेतूत्प्रेक्षा है।

४. सोवत सीतानाथ के, भृगु मुनि दीनी लात।
भृगुकुल-पति की गति हरी, मनो सुमिरि वह बात।।

५. अकस्मात् साहित्य के, लौटाते ईनाम।
सामाजिक टकराव का, कहते हैं परिणाम।।

३. फलोत्प्रेक्षा: जो उद्देश्य परिणाम या फल न हो किन्तु मान लिया किन्तु मान लिया जाए तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अफल में फल की सम्भावना फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

१. तव पद समता को कमल, जल-सेवत एक पाँव
तुम्हारे चरणों की समता पाने के लिए कमल एक पैर (कमल नाल) पर खड़ा होकर जल की सेवा कर रहा है।कमल नाल पर खिले कमल का उद्देश्य तप कर चरणों की समानता पाना न होने पर भी मान लिया गया है, इसलिए फलोत्प्रेक्षा है।

२. रोज अन्हात है छीरधि में ससि, तव मुख की समता लहिवे को।

३. शिव से समता के लिये, दुर्गा रखे त्रिनेत्र ।

४. लड़ें चुनाव
जनसेवा के हेतु
नेता औ' दल।

५. नक्सलवाद
गरीब जनता का
रण निनाद
शासन के विरुद्ध,
विषमता मिटाने।
*
फलोत्प्रेक्षा और हेतूत्प्रेक्षा में अंतर:

काव्य में वर्णित कार्य या क्रिया किस उद्देश्य से करी जा रही है? इस प्रश्न का उत्तर मिले तो फलोत्प्रेक्षा अलंकार होगा अन्यथा हेतूत्प्रेक्षा।

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बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

smaran alankar

अलंकार सलिला

: २१ : स्मरण अलंकार








एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद

करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.

जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.

स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.

'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.

स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.

उदाहरण:

१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
    सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
   
   यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.

२. बीच बास कर जमुनहि आये
    निरखि नीर लोचन जल छाये

     यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
    मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर

कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

४. देखता हूँ 
    जब पतला इंद्रधनुषी हलका
    रेशमी घूँघट बादल का 
    खोलती है कुमुद कला
    तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान 
     तब करता अंतर्ध्यान।

    यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
                     त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है 
    सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि 
                     कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है 
    जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन 
                     नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है 
    थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे 
                     हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है 

६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
    याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
    पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
    दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.

७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
    प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता

८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
     तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की

९. सजी सबकी कलाई
   पर मेरा ही हाथ सूना है.
   बहिन तू दूर है मुझसे
   हुआ यह दर्द दूना है.

१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
    माँ! मम आँख तरल हो जाती.
    जब-जब ठोकर लगती मग पर
    तब-तब याद पिता की आती.

११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये 
    मुझे तुम याद आये.

स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है. 

१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं 
     चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं  
     रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं 
     बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं 

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