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बुधवार, 15 नवंबर 2023

झारखंड दिवस १५ नवंबर

झारखंड दिवस १५ नवंबर  
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                      झारखंड का वनक्षेत्र आज़ादी के पूर्व कोल्हान कहलाता था। वर्तमान पश्चिम सिंहभूम में चक्रधरपुर के निकट एक गाँव में १५ नवम्बर १८७५ को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। चाईबासा में प्रारंभिक पढ़ाई कर उन्होंने मुंडा समाज को एकत्रित किया और २० वर्ष की उम्र में ४०० लोगों की सेना बना अंग्रेजों से जा भिड़े। उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत थी क्योंकि भयंकर अकाल के बाद भी अंग्रेज़ लगान माफ नहीं कर रहे थे। छापामारी युद्ध कला से इन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था इतिहास में यह आंदोलन 'उलगुलान' के नाम से जाना जाता है। चक्रधरपुर और राँची के बीच भयानक घाटियां हैं पहाड़ियाँ और सघन वन हैं। सोनुआ, करई केला इत्यादि स्थान बिरसा मुंडा के प्रमुख क्षेत्र थे। डोम्बारी घाटी में पैदल तीरधारी मुंडाओं और बंदूकधारी घुड़सवार अंग्रेज़के बीच हुए घमासान युद्ध मेंअंग्रेज़ी सेना के सैंकड़ों जवान हताहत हुए थे। वर्ष १८९७ से १९०० के मध्य बिरसा के नेतृत्व में मुँड़ाओं की अंग्रेजों से कई मुठभेड़ें हुईं। सन १९०० में उन्हें चक्रधरपुर से गिरफ्तार किया गया। कुछ दिनों बाद ही 25 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु हैजा से हो गयी। झारखंड में बिरसा मुंडा को बिरसा भगवान के नाम से जाना जाता है। उन्होंने बिना किसी संसाधन के आज़ादी हेतु किए संघर्ष में अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए। उनकी यह कुर्बानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णाक्षरों से लिखी गयी है। आज उनके जन्म दिन पर उनको नमन। झारखंड पृथक राज्य की स्थापना भी इसी लिए बिरसा मुंडा दिवस पर १५ नवम्बर को ही की गई।

                      कालांतर में छोटा नागपुर और संथाल परगना के आदिवासियों के हित की रक्षा के लिए १९३८ में आदिवासी महासभा का गठन जयपाल सिंह मुंडा ने किया एवं अलग राज्य की माँग की। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि अगर यह माँगअभी की जाएगी तो स्वतंत्रता के आंदोलन में अड़चन आएगी। अतः, आज़ादी के बाद अलग राज्य की बात सुनेंगे। जब देश आजाद हुआ तो आदिवासी महासभा में गैर आदिवासी के समावेश के लिए निर्णय लिया गया। वर्ष १९५० नए दल का गठन कार उसकी कमान जयपाल सिंह ने अपने जिगरी दोस्त सीताराम जी जगतरामका को दी जिनका परिवार १८४० में कोल्हान के वनक्षेत्र चक्रधरपुर में आ बसा था और कराईकेला में उनकी रियासत थी। सीताराम जी स्थानीय भाषाओं के अच्छे जानकार थे और संथाली, मुंडारी कुशलता से बोलते थे। अच्छे संगठन कर्ता थे , झारखंड नाम भी उन्होंने सुझाया था।  १९५० में झारखंड पार्टी का जन्म हुआ जयपाल सिंह सभापति और सीताराम जी उपसभापति बने। १९५२ के चुनाव में सीताराम जी ने संगठन का नेतृत्व किया और झारखंड क्षेत्र की ४८में से ३२ सीटों पर विजय प्राप्त की। विधान सभा में झारखंड पार्टी मुख्य विपक्षी दल बना। सीताराम जी को एमएलसी बना कर विधान परिषद में भेजा गया एवं वे विपक्ष के नेता बने। १९६१ में सर्व प्रथम विधान सभा के पटल पर उन्होंने अलग राज्य का प्रस्ताव रखा उस रेजोलुसन को बहस के लिए मंजूर किया गया। भारतीय संविधान में भाषा के अनुसार राज्य बनाने का नियम था और मुंडारी और संथाल भक्षियों की संख्या पर्याप्त न होने के कारण प्रस्ताव गिर गया। अपने व्यक्तव्य में सीताराम जी ने बहुत अच्छी तरह बताया कि झारखण्ड तो प्रकृति ने अलग बनाया है बिहार की प्राकृतिक संरचना से यह बिल्कुल अलग है।

                      १९६२ के चुनाव में झारखंड पार्टी को २० सीट मात्र मिली और वह मुख्य विपक्षी पार्टी नहीं रही। १९६३ में सीताराम जी के विरोध के बावजूद जयपाल सिंह जी ने पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया । उन्हें केंद्र में मंत्रिपद मिला और सीतारामजी को राज्य में। पर वे ६ महीने भी कांग्रेस की कल्चर में एडजस्ट नहीं हो सके और राजनीति से सन्यास ले लिया। उनकी मित्रता जयपाल सिंह से बनी रही घनिष्ठता इतनी थी कि जब जयपाल सिंह जी का मतभेद उनकी पत्नी से होता तो दोनों सीताराम बाबू के पास ही सुलह के लिए आते। सीतारामजी राजनीति से सन्यास ले चुके थे और आदिवासी नहीं थे। धीरे धीरे उन्हें भुला दिया गया, आज कोई नहीं जानता कि झारखंड गठन में कौन मुख्य भूमिका में था।  वर्ष २०००  में जब झारखण्ड राज्य बना तब तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें बुलाकर राज्यसभा में सम्मानित अवश्य किया था। उनका निधन २००४ में ९५ वर्ष की आयु में हुआ।
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बुधवार, 9 जून 2021

बिरसा मुंडा



क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा आदिवासियों के 'भगवान' : अग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सभाली थी कमान
रांची. 28 अगस्त 1998 को देश की सर्वोच्च संस्था संसद भवन के परिसर में बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में बिरसा मुंडा को आदिवासी अधिकारों के आरंभिक प्रवर्तक संरक्षक तथा विदेशी सत्ता और दासता के आगे कभी न झुकने वाले योद्धा के रूप में याद करते हुए एक असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी थी। 16 अक्टूबर, 1989 इसी संसद भवन के केंद्रीय हॉल में बिरसा मुंडा की भव्य तस्वीर को स्थापित कर देश के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में बिरसा मुंडा को प्रथम आदिवासी नेता को महत्ता दी गई।
इस अवसर पर वक्ताओं ने बिरसा मुंडा को एक महान समाज सुधारक, रचनात्मक प्रतिभा के धनी और सबसे अधिक उत्साही राष्ट्रवादी बताते हुए ऐसा महान स्वतंत्रता सेनानी कहा जिसने जीवन पर्यंत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 15 नवंबर, 1989 को बिरसा मुंडा पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। गौरतलब है कि 19-20 मार्च 1940 में रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस के महाधिवेशन स्थल का मुख्य द्वार बिरसा मुंडा के नाम पर रखा गया था।
बिरसा मुंडा के संदर्भ में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने दर्शाया कि देश में चल रहे अन्य राष्ट्रीयता स्वाधीनता संग्राम की भांति ही बिरसा का उलगुलान (आंदोलन) ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी था। बिरसा संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। ऐसी स्वतंत्रता जो राजनीतिक और धार्मिक हो। जिसके लिए पूर्व में छेड़े गए सरदार आंदोलन की सीमाओं से आगे बढ़कर 22 दिसंबर, 1889 की सर्द रात में अपने चुने हुए साथियों की उपस्थिति में संपूर्ण उलगुलान की घोषणा की। अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए दुराग्रही इतिहास और दर्शन अभी भी लोगों के मानस पटल से नहीं हटाया जा सका है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार व मानव शास्त्री कुमार सुरेश जैसे कई अन्य वरिष्ठ मनीषियों ने गांव-गांव घूमकर गहन अध्ययन विश्लेषण से बिरसा मुंडा अन्य आदिवासी नायकों व उनके आंदोलनों पर तथ्य व तर्कसंगत विवेचन प्रस्तुत कर नई विचार दृष्टि प्रदान की।
यह उलगुलान था तत्कालीन देशी-विदेशी शोषणकारी सत्ता और शक्तियों से शोषित-वंचित आदिवासी समुदाय को सम्मान-स्वतंत्रता और अधिकार दिलाने के लिए। जिनकी अन्यायकारी शासन व्यवस्था ने पूरे ग्रामीण के साथ-साथ जनजातीय अर्थव्यवस्था के भयावह विघटन तथा आदिवासी समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव की कगार पर पहुंचा दिया था। इस उलगुलान के कई महत्वपूर्ण आयाम थे। सामाजिक कूरीतियों के प्रती किया जागरुक
एक ओर जमीन तथा जंगलों से अन्य ग्रामीण व आदिवासी समुदाय को जबरन बेदखल कर जमीन, फसल तथा प्राकृतिक संसाधनों पर फौजी संगीनों के बल पर कायम साम्राज्य का जोरदार प्रतिरोध था तो दूसरी ओर आदिवासी समाज में जड़ जमाई नशाखोरी, अंधविश्वास, कुरीतियों व ओझागीरी इत्यादि गलत प्रवृत्तियों व आदतों के खिलाफ जबरदस्त सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण। यह पूरा का पूरा आंदोलन अनुकरणात्मक से अधिक प्रतिरोधात्मक था।
बिचौलिया के खिलाफ आंदोलन
सरदार आंदोलन जो मुख्य रूप से बिचौलिया एवं दिकुओं के खिलाफ था। बिरसा द्वारा छेड़े गए उलगुलान ने समस्त आदिवासी एवं अन्य देशज समुदायों पर भी गहरा असर डालकर उनमें जागरूकता लाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। जो उस समय बाहरी आक्रमणों के साथ-साथ अपने समुदाय की भीतर की आंतरिक कमजोरियों से लगातार टूटते और बिखरते जा रहे थे। इसका ही ऐतिहासिक दुष्परिणाम हुआ कि अंग्रेज शासकों द्वारा पुरस्कार के प्रलोभन दिए जाने पर बंदगांव के कुछ लोगों ने विश्वासघात कर धोखे से बिरसा को पकड़वाने का कृत्य कर डाला।कहा था मैं लौट कर आउंगा
आज बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस से लेकर उनके जन्मदिवस पर बड़े-बड़े कार्यक्रम के आयोजन से लेकर उनके नाम पर संस्था, स्थान, सड़क व चौराहों इत्यादि के नामकरण की होड़-सी मची हुई है। लेकिन बिरसा के विचारों और मूल्य-दर्शन को स्वयं के अंदर तथा समाज में विस्थापित करने वाले कितने ईमानदार लोग खड़े हैं बिरसा मुंडा भी जानते थे कि यह लड़ाई आखिरी नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि-मैं लौट कर आऊंगा! क्योंकि उलगुलान का अभी अंत नहीं हुआ है, उलगुलान जारी है...अबुआ दिसुम, अबुआ राज का सफर जारी है!