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शनिवार, 31 मार्च 2012

मुक्तिका संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
मिले मिलाये पिया न नैना, लगे कि चंदा गहन में आये.
बसी बसायी लुटी नगरिया, अमावसी तम सहन में आये.

उठी निगाहें गिरी बिजुरिया, न चाक हो दिल तो फिर करे क्या?
मिली नजरिया छुरी चल गयी, सजन सनम के सपन में आये.

समा गयी है नयन में जबसे, हसीन सूरत करार गुम है.
पलक किवारे खुले जरा तो, हुए लापता मरण में आये.

गया दिलरुबा बजा दिलरुबा, न राग जानूँ न रागिनी ही.
कहूँ किस तरह विरह न भाये, लगन लगी कब लगन में आये.

जुदा किया क्यों नहीं बताये?, जुदा रखा ना गले लगाये.
खुदी न चाहे 'सलिल' खुदाया, कि आप मन के सदन में आये.

अनहद छेडूँ अलस्सुबह, कर लिये मँजीरा सबद सुनाऊँ.
'सलिल'-तरंगें कलकल प्रवहित, मनहर छवि हर भजन में आये.

'सलिल' लगा दिल न दिलरुबा से, तुझे न जो भव पार कराये.
अना की चादर उतर फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये.

*******

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

मुक्तिका: --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
अपनी गलती ढांक रहे हैं.
गप बेपर की हांक रहे हैं.

हुई एकता नारंगी सी.
अन्दर से दो फांक रहे हैं.

नित आशा के आसमान में
कोशिश-तारे टांक रहे हैं.

खैनी घिसें चुनावों में फिर
संसद में जा फांक रहे हैं.

औरों को आंका कम करके.
खुद को ज्यादा आंक रहे हैं.

*******




Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शनिवार, 24 मार्च 2012

काव्य सलिला: हम --संजीव 'सलिल'

काव्य सलिला:
हम
संजीव 'सलिल'
*
हम कहाँ हैं?
पूछता हूँ, खोजता हूँ.
चुप पहेली बूझता हूँ.
*
यहाँ मैं हूँ.
वहाँ तुम हो.
यहाँ यह है.
वहाँ वह है.
सभी कंकर.
कहाँ शंकर?
*
द्वैत मिटता ही नहीं है.
अहं पिटता ही नहीं है.
बिंदु फैला इस तरह कि
अब सिमटता ही नहीं है.
तर्क मण्डन, तर्क खंडन
तर्क माटी, तर्क चन्दन.
सच लिये वितर्क भी कुछ
है सतर्क कुतर्क भी अब.
शारदा दिग्भ्रमित सी है
बुद्धि भी कुछ श्रमित सी है.
हार का अब हार किसके
गले डाले भारती?
*
चलो, नियमों से परे हों.
भावनाओं पर खरे हों.
मिटेगा शायद तभी तम.
दूर होंगे दिलके कुछ गम.
आइये अब साथ हो लें.
हाथ में फिर हाथ हो लें.
आँख करिए व्यर्थ मत नम.
भूलिए मैं-तुम
बनें हम..
*

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गुरुवार, 22 मार्च 2012

गीत सलिला: तुम --संजीव 'सलिल'

गीत सलिला:
तुम
संजीव 'सलिल'
*
कौन हो तुम?
पूछता हूँ हो विकल
पर मौन हो तुम.
कभी परछाईं बने सँग-साथ आते.
कभी छलिया की तरह मुझको छकाते.
कभी सारी पीर पल में दूर करते-
कभी ठेंगा दिखाकर हँसते खिझाते.
कभी विपदा तुम्हीं लगते
कभी राई-नौन हो तुम.
कौन हो तुम?
*
आँख मूँदी तो लगे आकर गले.
आँख खोली गुम, कि ज्यों सूरज ढले.
विपद में हो विकल चाहा 'लग जा गले'-
खुशी में चाहा कि अब  मिलना टले.
मिटा दो अंतर से अंतर
जब, जहाँ हो,जौन हो तुम.
कौन हो तुम?
*

 .
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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बुधवार, 21 मार्च 2012

मुक्तिका: --संजीव 'सलिल'






मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
दिल से निकली दिल की बातें दिल तक जो पहुँचाती है.
मीत! गीत कहिए या कविता, सबको वही लुभाती है..

दीपक जलता, शलभ निछावर कर देता निज जीवन को.
कब चिंता करता कि भावना किसको तनिक सुहाती है?.

नाम कोई हो, धाम कोई हो, अक्षर-शब्द न तजते अर्थ.
व्यर्थ मनुज को उहापोह या शंका क्यों मन भातीं हैं?.

कथ्य-शिल्प पूरक होते हैं, प्रतिस्पर्धी मत मानें.
फूल भेंट दें या गुलदस्ता निहित स्नेह की पाती है..

जो अनुरागी वही विरागी, जो अमूल्य बहुमूल्य वही.
खोना-पाना, लेना-देना, जग-जीवन की पाती है..

'सलिल' न निंदा की चट्टानों से घबराकर दूर रहो.
जो पत्थर को फोड़ बहे, नर्मदा तार-तर जाती है..

**

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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कविता: मैं ---संजीव 'सलिल'

कविता
मैं
संजीव 'सलिल'
*
माँ की आँखों में झलकते
वात्सल्य में पाया
अपना अस्तित्व.
घुटनों चला तो आसमान की तरह
सिर उठते ही मिला
पिता का साया.
बही, बहिनों और साथियों के
अपनत्व में मिला
सहभागिता, समन्वय और
सामंजस्य का सहारा.
दर्पण में दिखा
एक बिम्ब.
बेहतर आधे भाग के नयनों से
छलकते अनुराग ने
अर्पण-समर्पण के ढाई आखर पढ़ाकर
अनुभूति कराई अभिन्नता की.
संतानों की अबोध दृष्टि ने दी
देकर पाने की अनुभूति.
समय सलिला के तीर पर
श्रांत-क्लांत काया लिये
धुंधली-मिचमिचाती
क्षितिज को निहारती दृष्टि
पूछ रही है
'इनमें कहाँ नहीं हूँ मैं?'
लेकिन कह नहीं पाती
'बस यहीं... और यही हूँ मैं.
*
door
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मंगलवार, 20 मार्च 2012

व्यंग्य मुक्तिका: ---संजीव 'सलिल'

व्यंग्य मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
दुनिया में तो वाह... वाह... बस अपनी ही होती है.
बहुत खूब खुद को कह तृष्णा तुष्टि बीज बोती है..
आत्मतुष्टि के दुर्लभ पल हैं सुलभ 'सलिल' तनिक मत चूको.
आत्म-प्रशंसा वृत्ति देह के पिंजर की तोती है..
प्रिय सच कह, अप्रिय सच मत कह, नीति सनातन सच है.
सच की सीता हो निर्वासित किस्मत पर रोती है..
दीप्ति तेज होती चहरे की, जब घन श्याम गरजते.
नहीं बरसते, पर आशा बाधा-कीचड़ धोती है..
निंदा-स्तुति सिक्के के दो पहलू सी लगती हैं.
लुटा-सहेजें चाह सभी की, सच खोती खोती है..
वाह... वाह... कह बहुत खूब कहलाना सच्चा सौदा.
पोती ही दादी बनती, दादी बनती पोती है..
***

सोमवार, 19 मार्च 2012

होली का रंग रोटेरियन के सँग --संजीव 'सलिल'

होली का रंग रोटेरियन के सँग
संजीव 'सलिल'
*
रोटेरियन का ब्याह भया तो, हमें खुसी भई खासी.
नाच रहे पी झूम बाराती, सुन-गा भीम पलासी..
मैके जाती भौजी ने, चुपके से हमसे पूछा-
'इनखों ख़त में का लिक्खें?' बतलाओ सुने न दूजा..
मैं बोलो: 'प्रानों से प्यारे' सबसे पहले लिखना.
आखिर में 'चरणों की दासी', लिख ख़त पूरा करना..
पत्र मिला तो रोटेरियन पर छाई गहन उदासी.
हमने पूछो: 'काय! भओ का? बोले आफत खासी.
'चरणदास' लिख बिनने भेजी, चिट्ठी सत्यानासी.
कोढ़ खाज में, लिखो अंत में' प्रिय-प्रानों की प्यासी'..
*
जो तुरिया रो-रो टरी, बाखों जम गओ रंग.
रुला-झिंकाकर खसम खों, कर डरो बदरंग.

कलप-कलपकर क्लब बना, पतिगण रोना रोंय.
इक-दूजे के पोंछकर आँसू, मुस्का सोंय..

जे 'आ-आ' हँस कह रहीं, बे 'हट-हट' कह मौन.
आहत-चाहत की ब्यथा-कथा बताये कौन?

अंग्रेजी के फूल ने, दे हिंदी का फूल.
फूल बनाकर सच कहा, चुभा शूल तज भूल..

खोते सिक्के चल रहे, खरे चलन से दूर.
भाभी की आरति करें, भैया बढ़ता नूर..
*
पिटता पति जितना अधिक, उतना जाता फूल.
वापरती पत्नी अगर, टूट जाए स्टूल.

कभी गेंद, बल्ला कभी बलम बाने स्टंप.
काँधे चढ़कर मरती, पत्नि ऊँचा जंप..

करते आँखें चार जब, तब थे उनके ठाठ.
दोनों को चश्मा चढ़ा, करते आँखें आठ..
*
फागुन में गुन बहुत हैं, लाया फाग-अबीर.
टिके वही मैदान में, जिसके मन में धीर..
जिसके मन में धीर, उसे ही संत कहेंगे.
दीक्षित जो बीवी से, उसको कंत कहेंगे.
तंत न भिड़ पिटने में, चापो चरण शगुन में.
रोटेरियन धोते हैं धोती हँस फागुन में..
*Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 18 मार्च 2012

अवधी हाइकु सलिला: --संजीव 'सलिल'

अवधी हाइकु सलिला:  

संजीव 'सलिल'

*
*
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*

शनिवार, 17 मार्च 2012

हिंदी ग़ज़ल: नमन में आये -- संजीव 'सलिल'

हिंदी ग़ज़ल:
नमन में आये
संजीव 'सलिल'
*
पुनीत सुन्दर सुदेश भारत, है खुशनसीबी शरण में आये.
यहाँ जनमने सुरेश तरसें, माँ  भारती के  नमन में आये..

जमीं पे ज़न्नत है सरजमीं ये, जहेनसीबी वतन में आये.
हथेलियों पे लिए हुए जां ,शहीद होने चमन में आये..

कहे कलम वो कलाम मौला, मुहावरा बन कहन में आये..
अना की चादर उतर फेंकें,  मुहब्बतों के चलन में आये..

करे इनायत कोई न हम पर, रवायतों के सगन में आये.
भरी दुपहरी बहा पसीना, शब्द-उपासक सृजन में आये..

निशा करे क्यों निसार सपने?, उषा न आँसू 'सलिल गिराये.
दिवस न हारे, न सांझ रोये, प्रयास-पंछी गगन में आये..

मिले नयन से नयन विकल हो, मन, उर, कर, पग 'सलिल' मिलाये.
मलें अबीरा सुनें कबीरा,  नसीहतों के हवन में आये..

**************************************
बह्र: बहरे मुतकारिब मकबूज़ असलम मुदायाफ़
रदीफ़: में आये, काफिया: अन  

 

आलेख: ई-शिक्षा डॉ. नीलाभ तिवारी

आलेख:

ई-शिक्षा

डॉ. नीलाभ तिवारी
*
 ई-शिक्षा (ई-लर्निंग) को सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक समर्थित शिक्षा और अध्यापन के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो स्वाभाविक तौर पर क्रियात्मक होते हैं और जिनका उद्देश्य शिक्षार्थी के व्यक्तिगत अनुभव, अभ्यास और ज्ञान के सन्दर्भ में ज्ञान के निर्माण को प्रभावित करना है. सूचना एवं संचार प्रणालियां, चाहे इनमें नेटवर्क की व्यवस्था हो या न हो, शिक्षा प्रक्रिया को कार्यान्वित करने वाले विशेष माध्यम के रूप में अपनी सेवा प्रदान करती हैं[1].
ई-शिक्षा अनिवार्य रूप से कौशल एवं ज्ञान का कंप्यूटर एवं नेटवर्क समर्थित अंतरण है. ई-शिक्षा इलेक्ट्रॉनिक अनुप्रयोगों और सीखने की प्रक्रियाओं के उपयोग को संदर्भित करता है. ई-शिक्षा के अनुप्रयोगों और प्रक्रियाओं में वेब-आधारित शिक्षा, कंप्यूटर-आधारित शिक्षा, आभासी कक्षाएं और डिजीटल सहयोग शामिल है. पाठ्य-सामग्रियों का वितरण इंटरनेट, इंट्रानेट/एक्स्ट्रानेट, ऑडियो या वीडियो टेप, उपग्रह टीवी, और सीडी-रोम (CD-ROM) के माध्यम से किया जाता है. इसे खुद ब खुद या अनुदेशक के नेतृत्व में किया जा सकता है और इसका माध्यम पाठ, छवि, एनीमेशन, स्ट्रीमिंग वीडियो और ऑडियो है.
ई-शिक्षा के समानार्थक शब्दों के रूप में सीबीटी (CBT) (कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षा ), आईबीटी (IBT) (इंटरनेट-आधारित प्रशिक्षा ) या डब्ल्यूबीटी (WBT) (वेब-आधारित प्रशिक्षा ) जैसे संक्षिप्त शब्द-रूपों का इस्तेमाल किया जा सकता है. आज भी कोई व्यक्ति ई-शिक्षा (ई-लर्निंग/e-learning) के विभिन्न रूपों, जैसे - elearning, Elearning, और eLearning (इनमें से प्रत्येक - ईलर्निंग/ईशिक्षा), के साथ-साथ उपरोक्त शब्दों का भी इस्तेमाल होता देख सकता है.

लाभ ई-शिक्षा इससे जुड़े संगठनों एवं व्यक्तियों को लाभ प्रदान कर सकता है.
1. संशोधित प्रदर्शन : अमेरिकी शिक्षा विभाग द्वारा किए गए 12 वर्षों के अनुसन्धान के एक मेटा-विश्लेषण से पता चला कि आम तौर पर प्रत्यक्ष पाठ्यक्रमों का अनुसरण करके उच्चतर शिक्षा के लिए अध्ययन करने वाले छात्रों की तुलना में ऑनलाइन अध्ययन करने वाले छात्रों का प्रदर्शन काफी बेहतर था.[2]
2. वर्धित उपयोग : सबसे अधिक बुद्धि वाले प्रशिक्षक अपनी हदों के बाहर भी अपने ज्ञान का साझा कर सकते हैं, जिससे छात्रगण अपने शारीरिक, राजनीतिक, और आर्थिक के बाहर भी इन पाठ्यक्रमों का लाभ उठा सकते हैं. मान्यता प्राप्त विशेषज्ञों के पास किसी भी इच्छुक व्यक्ति को न्यूनतम लागत पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सूचना उपलब्ध कराने का अवसर होता है. उदाहरण के लिए, एमआईटी ओपनकोर्सवेयर (MIT OpenCourseWare) कार्यक्रम ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और व्याख्यान के पर्याप्त अंशों को मुफ्त ऑनलाइन उपलब्ध करा दिया है.
3. शिक्षार्थियों की सुविधा एवं नम्यता : कई परिस्थितियों में, ईलर्निंग/ईशिक्षा खुद से भी किया जाता है और इसका शिक्षा सत्र 24x7 उपलब्ध रहता है. शारीरिक रूप से कक्षाओं में भाग लेने के लिए शिक्षार्थी किसी विशेष दिन/समय के अधीन नहीं होते हैं. वे अपनी सुविधानुसार शिक्षा सत्रों को कुछ देर के लिए रोक भी सकते हैं. सभी ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए उच्च प्रौद्योगिकी की आवश्यकता नहीं होती है. इसके लिए आम तौर पर केवल बुनियादी इंटरनेट उपयोग, ऑडियो, और वीडियो की जानकारी होना ही काफी है.[3] इस्तेमाल किए जाने वाले प्रौद्योगिकी के आधार पर छात्र काम के वक़्त भी अपना पाठ्यक्रम शुरू कर सकते हैं और इस पाठ्यक्रम को किसी दूसरे कंप्यूटर पर अपने घर में भी पूरा कर सकते हैं.
4. ख़ास तौर पर 21वीं सदी में शिक्षार्थियों के अनुशासन, पेशे या करियर में आवश्यक डिजीटल साक्षरता कौशल की मौजूदगी को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कौशल एवं क्षमताओं को विकसित करना : बेट्स (2009)[4] कहते हैं कि ई-शिक्षा के हित में एक प्रमुख तर्क यह है कि यह पाठ्यक्रम के भीतर सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों के उपयोग को अंतःस्थापित कर ज्ञान के आधार पर काम करने वाले लोगों के लिए आवश्यक कौशल को विकसित करने में शिक्षार्थी को समर्थ बनाता है. वह यह भी तर्क देते हैं कि इस तरह से ई-शिक्षा के उपयोग में शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रम डिजाइन और मूल्यांकन का प्रमुख आशय निहित होता है.
पारंपरिक कक्षा प्रशिक्षा पर कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षा के अतिरिक्त लाभों में निम्नलिखित कार्य करने की क्षमता शामिल है:
1. प्रति क्रेडिट घंटे के हिसाब से कम भुगतान करना
2. समग्र प्रशिक्षा समय को कम करना
3. समय की विस्तारित अवधि (महीना भी) के ऊपर प्रशिक्षा का प्रसार करना
4. प्रगति को चिह्नित करना (कंप्यूटर छात्र के छोड़े गए स्थान को याद रखता है ताकि वे वहां से अपने पाठ्यक्रम को फिर से शुरू कर सकें)
5. एक जगह रहना (उदाहरणार्थ, घर, कार्यालय, हवाई अड्डा, कॉफ़ी की दूकान, इत्यादि) जहां किसी यात्रा की आवश्यकता न हो (शारीरिक कक्षाओं और फायदेमंद वातावरण के परिवहन की लागत को भी कम करता है).
6. सुविधानुसार कक्षा की गतिविधियों में भाग लेना (कक्षा की बैठक के समय से बंधा नहीं)
7. वेबकास्ट या अन्य पाठ्यक्रम सामग्री जैसे सार्वजनिक पाठ्यक्रम का उपयोग करना
8. विभिन्न प्रकार के स्थानों से पाठ्यक्रमों का उपयोग करना[citation needed]

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

भोजपुरी होली गीत -आनन्द पाठक,

एगो भोजपुरी होली गीत
आनन्द पाठक,जयपुर
 
काहे नS रंगवा लगउलु हो गोरिया ...काहे नS रंगवा लगउलु ?
 
अपने नS अईलु न हमके बोलऊलु ,’कजरीके हाथे नS चिठिया पठऊलु  
 होली में मनवा जोहत रहS गईलस. केकरा से जा के तू रंगवा लगऊलु
 
रंगवा लगऊलु......तू रंगवा लगऊलु... काहे केS मुँहवा फुलऊलु संवरिया
 काहे केS मुँहवा बनऊलु ?
 
रामS के संग होली सीता जी खेललीं ,’राधा जी खेललीं तS कृश्ना से खेललीं
होली के मस्ती में डूबलैं सब मनई नS अईलु तS तोरे फ़ोटुए से खेललीं
 
फोटुए से खेललीं... हो फ़ोटुए से खेललीं.... अरे ! केकराS से चुनरी रंगऊलु ?, 
 सँवरिया ! केकरा से चुनरी रंगऊलु ?
 
रमनथवाखेललस रमरतियाके संगे, ’मनतोरनी खेललस संघतिया के संगे
दुनिया नS कहलस कछु होली के दिनवा ,खेललस जमुनवा’ ’सुरसतियाके संगे
 
सुरसतिया के संगे.....सुर सतिया के संगे.... केकरा केS डर से तू बाहर नS अईलु  ,
 S अंगवा से अंगवा लगउलु
 
काहें गोड़धरिया करऊलु संवरिया..... काहें गोड़धरिया करऊलु.?..............काहें न रंगवा लगऊलु ?  
 

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गुरुवार, 8 मार्च 2012

दोहा पिचकारी लिये - -संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला:

दोहा पिचकारी लिये                                                                           
संजीव 'सलिल'
*
दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग..
*
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग..
*
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग..
*
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग..
*
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग..
*
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग..
*
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग..
*
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग..
*
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'..
*
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग..
*
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग..
*
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'..
*
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग..
*
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग..
*
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी,

होली पर राधा-माधव -- शार्दुला


होली पर राधा- माधव 

 शार्दुला

*
 
जमुना के तीर, रंग उड़े न अबीर, राधा होती रे अधीर, कान्हा जान लो! 
सुभ सुवर्ण सरीर, नैना नील तुनीर, ता में  रँगे जदुवीर, राधा मान लो!   
 
लख-लख हुरिहार*, टेसू परस अंगार, राधा जाए न सिधार, कान्हा जान लो!         
हिरदय त्यौहार, कब तिथि के उधार, ये तो जग-व्यवहार, राधा मान लो!
 
निकसे  कन्हाई, काहे प्रीत लगाई, होती जग में हंसाई, कान्हा जान लो!
आखर अढ़ाई, मन-आतम बंधाई, माधो-श्यामा परछाईं, राधा मान लो!   
 
दुनु कमलक फूल, जाएं अलगल कूल, बिंधे बिरह त्रिसूल,  कान्हा जान लो! **
तन छनिक दुकूल, तोरे दुःख निरमूल, प्रीति तारे भव-शूल, राधा मान लो!
 
********
 
*  हुरिहार = होली खेलने वाले
**  मिथिला के एक खेल 'अटकन-मटकन' से प्रेरित, जिसमें बीच में  कहते हैं "कमलक फूल दुनु अलगल जाय".

मंगलवार, 6 मार्च 2012

होली पे विशेष- कबीरा सा...रा...रा...रा... --संजीव 'सलिल'

होली पे विशेष-
कबीरा सा...रा...रा...रा...
संजीव 'सलिल'
*
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...
पिचकारी ले कलम की, शब्द-रंग के सँग,
फगुआ के अगुआ कमल, चढ़ा रहे हैं भंग..
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...
ठंडाई छिप छानते, मिल अनूप-घनश्याम.
झपट-छीन गायब हुईं, शार्दूला हे राम.. 
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...
किसने किसके गाल को रंगा, बताये कौन?
श्रीप्रकाश-अमिताभ हँस, ढोल बजायें मौन..
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...
कुसुम रंग राकेश पर, आतिश रहे उछाल.
खुद के रंग से खुद रंगे, खिलखिलाए महिपाल..
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

मंजु मँजीरा मुदित मन, बजा रहीं हैं झूम.
होरी गाकर दीप्ति ने, मचा रखी है धूम.
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

नीले थे हो गये हैं, पीले-लाल महेश.
गौरा ने रंग दिया या, मदन-विजय-मद शेष?
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

पाठक के आनंद की, किरण अचल संतोष.
सज्जन हुरियारे हुए, मौसम को दें दोष.
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

सँग सुरेन्द्र-गोविंद का, बनकर रास-हुलास.
श्यामल को गौरा कहें, कर मुकेश परिहास..
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

खाट खड़ी कर फूँकते, होली जला प्रताप.
'सलिल' घोल हर रंग को, अपना लेता आप..
कबीरा सा..रा..रा..
अबीरा मल दो यारा...

****

 

 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 5 मार्च 2012

फागुन के मुक्तक --संजीव 'सलिल'

फागुन के मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*

:)) laughing बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
=D> applause बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
:)) laughing चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
=D> applause रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
:)) laughing दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
=D> applause अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
:)) laughing वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
=D> applause करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
:)) laughing फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
=D> applause किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
:)) laughing माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
=D> applause भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
*

मुक्तिका फितरत है यही फकीरों की --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
फितरत है यही फकीरों की
संजीव 'सलिल'
*
फितरत है यही फकीरों की प्रभु नाम-पान को जाम करो.
खुद मुफलिस रहकर दुनिया के दर्दों का का तमाम करो..

अपनी मस्ती में मस्त रहो ले राम नाम आराम रहो.
उसको पाना है तो भूलो खुद को जग में गुमनाम करो..

जो किया पाप या पुण्य समर्पित प्रभु को कर निष्काम रहो.
फल की चिंता को भूल, सभी के हित में अर्पित काम करो..

माँगो तो रबसे ही माँगों, सब नामी तुम बेनाम रहो.
भू खटिया, नभ कंबल कर लो, चादर सूरज की घाम करो. 


जग वार और हथियार बने फिर भी तुम नम्र प्रणाम रहो.

वासना अगर वामांगी हो तो 'सलिल' न हारो वाम रहो..

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रविवार, 4 मार्च 2012

होली की कुण्डलियाँ: मनायें जमकर होली --संजीव 'सलिल'

होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
संजीव 'सलिल'
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान.. 
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल. 
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भायी सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
देव! दूर कर बला हर, हो न करबला और.
जयी न हो अन्याय फिर, चले न्याय का दौर..
*
'सलिल' न हो नवजात की, अब कोइ नव जात.
मानव मानव एक हों, भेद नहीं हो ज्ञात..
*
मन असमंजस में पड़ा, सुनकर खाना शब्द.
खा या खा ना क्या कहा?, सोच रहा नि:शब्द..
*
किस उधेड़-बुन में पड़े, फेरे मुँह चुपचाप.
फिर उधेड़-बुन कर सकें, स्वेटर पूरा आप..
*
होली हो ली हो रही, होगी नहीं समाप्त.
रंग नेह का हमेशा, रहे जगत में व्याप्त..
*
खाला ने खाली दवा, खाली शीशी फेंक.
देखा खालू दूर से, आँख रहे हैं सेंक..
*
आपा आपा खो नहीं, बिगड़ जायेगी बात.
जो आपे में ना रहे, उसकी होती मात..
*
स्वेद सना तन कह रहा, प्रथा सनातन खूब.
वरे सफलता वही जो, श्रम में जाए डूब..
*
साजन सा जन दूसरा, बिलकुल नहीं सुहाय.
सजनी अपलक रात में, जागे नींद न आय..
*
बाल-बाल बच गये सब, ग्वाल बाल रह मौन.
बाल किशन के खींचकर, भागी बाला कौन?
*
बाला का बाला चमक, बता गया चुप नाम.
मैया से किसने करी, चुगली लेकर नाम..
*

शनिवार, 3 मार्च 2012

दोहा का रंग :होली के संग


दोहा का रंग :होली के संग
 
 कुमार रवीन्द्र

बदल गई घर-घाट की, देखो तो बू-बास।

बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास।१।


उमगे रँग आकाश में, धरती हुई गुलाल।
उषा सुन्दरी घाट पर, बैठी खोले बाल।२।

 
हुआ बावरा वक्त यह, सुन चैती के बोल।
पहली-पहली छुवन के, भेद रही रितु खोल।३।


बीते बर्फीले समय, हवा गा रही फाग।

देवा एक अनंग है- रहा देह में जाग।४।


पर्व हुआ दिन, किन्तु, है, फिर भी वही सवाल।

'होरी के घर' क्यों भला, अब भी वही अकाल।५।


लोकेश ‘साहिल

होली पर साजन दिखे, छूटा मन का धीर।

गोरी के मन-आँगने, उड़ने लगा अबीर।१।


होली अब के बार की, ऐसी कर दे राम।

गलबहिंया डाले मिलें, ग़ालिब अरु घनश्याम।२।


मनसा-वाचा-कर्मणा, भूल गए सब रीत।

होली के संतूर से, गूँजे ऐसे गीत।३।


इक तो वो मादक बदन, दूजे ये बौछार।

क्यों ना चलता साल भर, होली का त्यौहार।४।


थोड़ी-थोड़ी मस्तियाँ, थोड़ा मान-गुमान।

होली पर 'साहिल' मियाँ, रखना मन का ध्यान।५।


अनवारेइस्लाम

किस से होली खेलिए, मलिए किसे गुलाल।

चहरे थे कुछ चाँद से   डूब  गए इस साल।१।


नेताओं ने पी  रखी, जाने कैसी भंग।

मुश्किल है पहचानना, सब चहरे बदरंग।२।


योगी तो भोगी हुए, संसारी सब संत।

जिनकी कुटियों में रहे, पूरे बरस बसंत।३।


कैसी थीं वो होलियाँ, कैसे थे अहसास।

ज़ख़्मी है अब आस्था, टूट गए विशवास।४।



योगराज प्रभाकर

नाच उठा आकाश भी, ऐसा उड़ा अबीर।

ताज नशे में झूमता,यमुना जी के तीर।१।

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बरसाने की लाठियाँ, खाते हैं बड़भाग।

जो पावै सौगात ये, तन मन बागो बाग़।२।

.

तन मन पे यूँ छा गई, होली की तासीर।

राँझे को रँगने चली, ले पिचकारी हीर।३।

. 
 होली के हुडदंग में, योगी राज उवाच।
पटिआले की भांग ने,फेल करी इस्काच।४।


रंग लगावें सालियाँ, बापू भयो जवान।

हुड़ हुड़ हुड़ करता फिरे, बन दबंग सलमान।५।


समीर लाल 'समीर'

होली के हुड़दंग में, नाचे पी कर भाँग।

दिन भर फिर सोते रहे, सब खूँटे पर टाँग।१।


नयन हमारे नम हुए, गाँव आ गया याद।

वो होली की मस्तियाँ,  कीचड़ वाला नाद।२।

महेन्द्र वर्मा

निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल।

इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।१।

 
कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।२।


टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात।

लाल, लाज से हो गया, वसन हीन था गात।३।


अमराई की छाँव में, फागुन छेड़े गीत।

बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।४।


फागुन और बसंत मिल, करें हास-परिहास।

उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।५।


मयंक अवस्थी

सब चेहरे हैं एक से हुई पृथकता दंग।

लोकतंत्र में घुल गया साम्यवाद का रंग।१।


रंग - भंग - हुड़दंग का, समवेती आहंग।

वातायन ढोलक हुआ, मन बन गया मृदंग।२।


आज अबीर-गुलाल में, हुई मनोरम जंग।

इन्द्रधनुष सा हो गया, युद्धक्षेत्र का रंग।३। 
 
वंदना गुप्ता

होली में जलता जिया, बालम हैं परदेश।
मोबाइल स्विच-ऑफ है, कैसे दूँ संदेश।१।

भोर हुई कब की, मगर, बोल रहा ना काग।
बिन सजना इस बार भी, 'फाग' लगेगा 'नाग'।२।

कभी कभी हत्थे चढ़ें, माधव कृष्ण मुरारि।
फिर काहे को छोड़ दें, उन को ब्रज की नारि।३।

रूपचन्द्र शास्त्री मयंक


फागुन में नीके लगें, छींटे औ' बौछार।

सुन्दर, सुखद-ललाम है, होली का त्यौहार।१।


शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार।

प्यार बाँटने आ गया, होली का त्यौहार।२।


पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार।

सीख सिखाता है यही, होली का त्यौहार।३।


रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार।

भेद-भाव को मेंटता, होली का त्यौहार।४।


तन-मन को निर्मल करे, रंग-बिरंगी धार।

लाया नव-उल्लास को, होली का त्यौहार।५।


भंग न डालो रंग में, वृथा न ठानो रार।

देता है सन्देश यह, होली का त्यौहार।६।


छोटी-मोटी बात पर, मत करना तकरार।

हँसी-ठिठोली से भरा, होली का त्यौहार।७।


सरस्वती माँ की रहे, सब पर कृपा अपार।

हास्य-व्यंग्य अनुरक्त हो, होली का त्यौहार।८।

 
ऋता शेखर ‘मधु’

फगुनाहट की थाप पर,बजा फाग का राग।

पिचकारी की धार पर, मच गइ भागम भाग।१।


कुंजगली में जा छुपे, नटखट मदन गुपाल।

ब्रजबाला बच के चली, फिर भी हो गइ लाल।२।


मने प्रीत का पर्व ये, सद्‌भावों के साथ।

दो ऐसा सन्देश अब, तने गर्व से माथ।३।

 
धर्मेन्द्र कुमार ‘सज्जन’

रंगों के सँग घोलकर, कुछ, टूटे-संवाद।

ऐसी होली खेलिए, बरसों आए याद।१।


जाकर यूँ सब से मिलो, जैसे मिलते रंग।

केवल प्रियजन ही नहीं, दुश्मन भी हों दंग।२।


तुमरे टच से, गाल ये, लाल हुये, सरताज।

बोलो तो रँग दूँ तुम्हें, इसी रंग से आज।३।


सूखे रंगों से करो, सतरंगी संसार।

पानी की हर बूँद को, रखो सुरक्षित यार।४।


सौरभ शेखर

लगा गयी हर डाल पर, रुत बसंत की आग।

उड़ा धूल की आंधियां, हवा खेलती फाग।१।


 टल पाया ना इस बरस, सलहज का इसरार।

कुगत कराने को स्वयँ, पहुँचे सासू द्वार।२।


जम कर होली खेलिए, बिछा रंग की सेज।

जात धरम ना रंग का, फिर किसलिए गुरेज।३।


पल भर हजरत भूल कर, दुःख,पीड़ा,संताप।

जरा नोश फरमाइए, नशा ख़ुशी का आप।४।
साधना वैद

अबके कुछ ऐसा करो, होली पर भगवान।

हर भूखे के थाल में, भर दो सब पकवान।१।


 हिरण्यकश्यप मार कर, करी धर्म की जीत।

हे नरसिँह कब आउगे, जनता है भयभीत।२।


खुशियों का त्यौहार है, खुल कर खेलो फाग।

बैर, दुश्मनी, द्वेष का, दिल से कर दो त्याग।३।
आशा सक्सेना

गहरे रंगों से रँगी, भीगा सारा अंग।

एक रंग ऐसा लगा, छोड़ न पाई संग।१। 
 

 विजया सर चढ़ बोलती, तन मन हुआ अनंग।
चंग संग थिरके क़दम, उठने लगी तरंग।२।


राणा प्रताप सिंह

बच्चे, बूढ़े, नौजवाँ, गायें मिलकर फाग।
एक ताल, सुर एक हो, एकहि सबका राग।१।

सेन्हुर, टिकुली, आलता, कब से हुए अधीर।
प्रिय आयें तो फाग में, फिर से उड़े अबीर।२।

महँगाई ने सोख ली, पिचकारी की धार।
गुझिया मुँह बिचका रही, फीका है त्यौहार।३।

अबके होली में बने, कुछ ऐसी सरकार।
छोटा जिसका पेट हो, छोटी रहे डकार।४।

मिली नहीं छुट्टी अगर, मत हो यार उदास।
यारों सँग होली मना, यार बड़े हैं खास।५।

सौरभ पाण्डेय


फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप।

भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप।१।


फगुनाई ऐसी चढ़ी,  टेसू धारें आग।

दोहे तक तउआ रहे,  छेड़ें मन में फाग।२।


 भइ! फागुन में उम्र भी, करती जोरमजोर।

फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर।३।


जबसे सिंचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।

मन में फागुन झूमता, चैताती है देह।४।


बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर।

मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर।५।


धूप खिली, छत, खेलती, अल्हड़ खोले केश।

इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष।६।


करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव।

होश रहे तो नागरी,  जोशीले को ताव ।७।


हम तो भाई देस के,  जिसके माने गाँव ।

गलियाँ घर-घर जी रहीं - फगुआ, कुश्ती-दाँव।८।

 
नये रंग, सुषमा नई, सरसे फाग बहाव ।
लाँघन आतुर, देहरी, उत्सुक के मृदु-भाव।९।


विजेंद्र शर्मा

इंतज़ार   के  रंग  में, गई   बावरी   डूब।
होली पर इस बार भी, आये  ना महबूब।१।

सरहद से  आया नहीं,  होली  पे  क्यूँ   लाल।
भीगी  आँखें  रंग से,  करती   रहीं    सवाल।२।

मौक़ा था पर यार ने, डाला नहीं गुलाल।
मुरझाये से  ही  रहे,  मेरे  दोनों   गाल।३।

कौन बजावे फाग पे,  ढोल, नगाड़े, चंग।
कहाँ किसी को चाव है, गायब हुई उमंग।४।

गीली - गीली आँख से, करे शिकायत गाल।
बैरी ख़ुद आया नहीं, भिजवा दिया गुलाल।५।
 
डा. श्याम गुप्त

गोरे गोरे अंग पै, चटख चढि गये रंग।
रंगीले आँचर उडैं, जैसें नवल पतंग ।१।

 लाल हरे पीले रँगे, रँगे अंग-प्रत्यंग।
कज़्ज़ल-गिरि सी कामिनी, चढौ न कोऊ रंग।२।

भरि पिचकारी सखी पर, वे रँग-बान चलायँ।
लौटें नैनन बान भय, स्वयं सखा रँगि जायँ।३।

भ्रकुटि तानि बरजै सुमुखि, मन ही मन ललचाय।
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रँगि जाय।४।

भक्ति ग्यान औ प्रेम की, मन में उठै तरंग।
कर्म भरी पिचकारि ते, रस भीजै अंग-अंग।५।

ऐसी होली खेलिये, जरै त्रिविधि संताप।
परमानन्द प्रतीति हो, ह्रदय बसें प्रभु आप ।६।
 
महेश चंद्र गुप्ता ‘ख़लिश’

'हो ली’, ’हो ली’ सब करें, मरम न जाने कोय।
क्या हो ली क्या ना हुई, मैं समझाऊँ तोय।१।

हो ली पूजा हस्ति की, माया जी के राज।
हाथी पे परदे पड़े, बिगड़ गए सब काज।२।

हो ली लूट-खसूट बहु, राजा के दरबार।
पहुँचे जेल तिहाड़ में, जुगत भई बेकार।३।

हो ली बहु बिध भर्त्सना, हे चिद्दू म्हाराज।
नहीं नकारो सत्य को, अब तो आओ बाज।४।

हो ली अन्ना की 'ख़लिश', जग में जय जयकार।
शायद उनको हो रही, अब गलती स्वीकार।५।

रविकर


शिशिर जाय सिहराय के, आये कन्त बसन्त ।

अंग-अंग घूमे विकल, सेवक स्वामी सन्त ।१।
 
 मादक अमराई मुकुल, बढ़ी आम की चोप ।
अंग-अंग हों तरबतर, गोप गोपियाँ ओप ।२।


जड़-चेतन बौरा रहे, खोरी के दो छोर ।

पी पी पगली पीवरी, देती बाँह मरोर ।३।


सर्षप पी ली मालती, ली ली लक्त लसोड़ ।

कृष्ण-नाग हित नाचती, सके लाल-सा गोड़ ।४।


ओ री हो री होरियाँ, चौराहों पर साज ।

ताकें गोरी छोरियाँ, अघी अभय अंदाज ।५।


अखिलेश तिवारी


इन्द्र-जाल चहुँ फाग का, रंगों की रस-धार।

हुई राधिका साँवरी, और कृष्ण रतनार।१।


फागुन ने तहजीब पर, तानी जब संगीन।

बरजोरी कर सादगी, हुई स्वयँ रंगीन।२।


क्या धरती? आकाश तक, है होली के संग।

चहरे-चहरे पर टँके, इंद्र-धनुष के रंग।३।


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


होली होली हो रही, होगी बारम्बार।
होली हो अबकी बरस, जीवन का श्रृंगार।१।


होली में हुरिया रहे, खीसें रहे निपोर।

गौरी-गौरा एक रंग, थामे जीवन डोर।२।


होली अवध किशोर की, बिना सिया है सून।

जन प्रतिनिधि की चूक से, आशाओं का खून।३।


 होली में बृजराज को, राधा आयीं याद।

कहें रुक्मिणी से -'नहीं, अब गुझियों में स्वाद'।४।


होली में कैसे डले, गुप्त चित्र पर रंग।

चित्रगुप्त की चातुरी, देख रहे सबरंग।५।


होली पर हर रंग का, 'उतर गया है रंग'।

जामवंत पर पड़ हुए, सभी रंग बदरंग।६।


होली में हनुमान को, कहें रँगेगा कौन।

लाल-लाल मुँह देखकर, सभी रह गए मौन।७।


होली में गणपति हुए, भाँग चढ़ाकर मस्त।

डाल रहे रँग सूंढ से, रिद्धि-सिद्धि हैं त्रस्त।८।


होली में श्री हरि धरे, दिव्य मोहिनी रूप।

कलशा ले ठंडाइ का, भागे दूर अनूप।९।


होली में निर्द्वंद हैं, काली जी सब दूर।

जिससे होली मिलें, हो, वह चेहरा बेनूर।१०।


होली मिलने चल पड़े, जब नरसिंह भगवान्।

ठाले बैठे  मुसीबत, गले पड़े श्रीमान।११।


ज्योत्सना शर्मा [मार्फत पूर्णिमा वर्मन]


भंग चढ़ाकर आ गई, खिली फागुनी धूप ।
कभी हँसे दिल खोलकर, कभी बिगारे रूप।१।


धानी-पीली ओढनी, ओढ धरा मुस्काय ।

सातों रंग बिखेर कर, सूरज भागा जाय ।२।


सतरंगी किरणें रचें, मिलकर उजली धूप।

होली का सद्भाव दे, जग को उज्ज्वल रूप।३।


कितना छिपकर आइये, गोप गोपियों संग ।

राधे से छुपते नहीं, कान्हा तुहरे रंग ।४।


हुई बावरी चहुँ दिशा, मस्ती बरसे रंग।

बाल, वृद्ध नर नार सब, जन-मन सरसे संग।५।


पूर्णिमा वर्मन

रंग-रंग राधा हुई, कान्हा हुए गुलाल।

वृंदावन होली हुआ, सखियाँ रचें धमाल।१।


होली राधा श्याम की, और न होली कोय।

जो मन राँचे श्याम रँग, रंग चढ़े ना कोय।२।


आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज।

मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज।३।


फागुन बैठा देहरी, कोठे चढ़ा गुलाल।

होली टप्पा दादरा, चैती सब चौपाल।४।


महानगर की व्यस्तता, मौसम घोले भंग।
इक दिन की आवारगी, छुट्टी होली रंग।५।

 
डा. जे. पी. बघेल
 
बंब बजी,  ढोलक बजी, बजे  ढोल ढप चंग।
फागुन की दस्तक भई, थिरकन लागे अंग।१।
 
होरी  आई  मधु भरी,  बूढ़े  भये  जवान।
रसिया भये अनंग के, मारक तीर कमान।२।
 
हुरियारे नाचत फिरत, धरे  कामिनी  वेष।
असर वारुणी, भंग के, भाखा भनत भदेस।३।
 
गली गली टोली चलीं, उड़त अबीर गुलाल ।
हुरियारे नाचत चलत, ठुमकि ताल बेताल।४।
 
ब्रज की होरी  के  रहे,   अजब  निराले  ढंग ।
कहीं कहीं महफिल जमीं, कहीं कहीं हुड़दंग।५।

होली-उत्सव   नागरी,  लोक-पर्व  है   धूल ।
ब्रज में होली धूल है, लोक न पाया भूल।६।

नृत्य-गीत, आमोद,  रँग,  पंकिल  धूलि  प्रहार ।
ब्रज को प्रिय रज-धूसरण, जग जानी लठमार।७।

राजेन्द्र स्वर्णकार

रँग दें हरी वसुंधरा, केशरिया आकाश ! 
इन्द्रधनुषिया मन रँगें, होंठ रँगें मृदुहास !१!
                       
होली के दिन भूलिए… भेदभाव अभिमान !
रामायण से मिल’ गले मुस्काए कुरआन !२!
                     
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख का फर्क रहे ना आज !
मौसम की मनुहार की रखिएगा कुछ लाज !३!

पर्व… ईद होली सभी देते यह सन्देश !
हृदयों से धो दीजिए… बैर अहम् विद्वेष !४!
  
होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार !
मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !५!
 
नवीन सी. चतुर्वेदी
 
तुमने ऐसा भर दिया, इस दिल में अनुराग।
हर दिन, हर पल, हर घड़ी, खेल रहा दिल फाग।१।


यही बुजुर्गों से सुनी, इस होली की रीत।

हमें करे बदरंग जो, बढ़े उसी से प्रीत।२।

आभार ज्ञापन 


अनुरागी सब आ गये, लिए फाग-अनुराग   
ठाले-बैठे ब्लॉग के, खूब खुले हैं भाग
 
 मिल-जुल कर सबने दिया, निज-निज दान यथेष्ठ  
कोई भी कमतर नहीं, सब के सब हैं श्रेष्ठ

सुन कर मेरी प्रार्थना, जुटे यहाँ जो मित्र
उन सब को अर्पण करूँ, निज अनुराग पवित्र


जब-जब दुनिया में बढ़ा, कुविचारों का वेग
तब तब ही साहित्य ने, क़लम बनायी तेग 
 
संग्रहकर्ता: नविन च. चतुर्वेदी, आभार ठाले-बैठे
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