दोहा का रंग :होली के संग
कुमार रवीन्द्र
बदल गई घर-घाट की, देखो तो बू-बास।
बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास।१।
उमगे रँग आकाश में, धरती हुई गुलाल।
उषा सुन्दरी घाट पर, बैठी खोले बाल।२।
हुआ बावरा वक्त यह, सुन चैती के बोल।
पहली-पहली छुवन के, भेद रही रितु खोल।३।
बीते बर्फीले समय, हवा गा रही फाग।
देवा एक अनंग है- रहा देह में जाग।४।
पर्व हुआ दिन, किन्तु, है, फिर भी वही सवाल।
'होरी के घर' क्यों भला, अब भी वही अकाल।५।
लोकेश ‘साहिल
होली पर साजन दिखे, छूटा मन का धीर।
गोरी के मन-आँगने, उड़ने लगा अबीर।१।
होली अब के बार की, ऐसी कर दे राम।
गलबहिंया डाले मिलें, ग़ालिब अरु घनश्याम।२।
मनसा-वाचा-कर्मणा, भूल गए सब रीत।
होली के संतूर से, गूँजे ऐसे गीत।३।
इक तो वो मादक बदन, दूजे ये बौछार।
क्यों ना चलता साल भर, होली का त्यौहार।४।
थोड़ी-थोड़ी मस्तियाँ, थोड़ा मान-गुमान।
होली पर 'साहिल' मियाँ, रखना मन का ध्यान।५।
अनवारेइस्लाम
किस से होली खेलिए, मलिए किसे गुलाल।
चहरे थे कुछ चाँद से डूब गए इस साल।१।
नेताओं ने पी रखी, जाने कैसी भंग।
मुश्किल है पहचानना, सब चहरे बदरंग।२।
योगी तो भोगी हुए, संसारी सब संत।
जिनकी कुटियों में रहे, पूरे बरस बसंत।३।
कैसी थीं वो होलियाँ, कैसे थे अहसास।
ज़ख़्मी है अब आस्था, टूट गए विशवास।४।
योगराज प्रभाकर
नाच उठा आकाश भी, ऐसा उड़ा अबीर।
ताज नशे में झूमता,यमुना जी के तीर।१।
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बरसाने की लाठियाँ, खाते हैं बड़भाग।
जो पावै सौगात ये, तन मन बागो बाग़।२।
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तन मन पे यूँ छा गई, होली की तासीर।
राँझे को रँगने चली, ले पिचकारी हीर।३।
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होली के हुडदंग में, योगी राज उवाच।
पटिआले की भांग ने,फेल करी इस्काच।४।
रंग लगावें सालियाँ, बापू भयो जवान।
हुड़ हुड़ हुड़ करता फिरे, बन दबंग सलमान।५।
समीर लाल 'समीर'
होली के हुड़दंग में, नाचे पी कर भाँग।
दिन भर फिर सोते रहे, सब खूँटे पर टाँग।१।
नयन हमारे नम हुए, गाँव आ गया याद।
वो होली की मस्तियाँ, कीचड़ वाला नाद।२।
महेन्द्र वर्मा
निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल।
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।१।
कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।२।
टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात।
लाल, लाज से हो गया, वसन हीन था गात।३।
अमराई की छाँव में, फागुन छेड़े गीत।
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।४।
फागुन और बसंत मिल, करें हास-परिहास।
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।५।
मयंक अवस्थी
सब चेहरे हैं एक से हुई पृथकता दंग।
लोकतंत्र में घुल गया साम्यवाद का रंग।१।
रंग - भंग - हुड़दंग का, समवेती आहंग।
वातायन ढोलक हुआ, मन बन गया मृदंग।२।
आज अबीर-गुलाल में, हुई मनोरम जंग।
इन्द्रधनुष सा हो गया, युद्धक्षेत्र का रंग।३।
वंदना गुप्ता
होली में जलता जिया, बालम हैं परदेश।
मोबाइल स्विच-ऑफ है, कैसे दूँ संदेश।१।
भोर हुई कब की, मगर, बोल रहा ना काग।
बिन सजना इस बार भी, 'फाग' लगेगा 'नाग'।२।
कभी कभी हत्थे चढ़ें, माधव कृष्ण मुरारि।
फिर काहे को छोड़ दें, उन को ब्रज की नारि।३।
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
फागुन में नीके लगें, छींटे औ' बौछार।
सुन्दर, सुखद-ललाम है, होली का त्यौहार।१।
शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार।
प्यार बाँटने आ गया, होली का त्यौहार।२।
पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार।
सीख सिखाता है यही, होली का त्यौहार।३।
रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार।
भेद-भाव को मेंटता, होली का त्यौहार।४।
तन-मन को निर्मल करे, रंग-बिरंगी धार।
लाया नव-उल्लास को, होली का त्यौहार।५।
भंग न डालो रंग में, वृथा न ठानो रार।
देता है सन्देश यह, होली का त्यौहार।६।
छोटी-मोटी बात पर, मत करना तकरार।
हँसी-ठिठोली से भरा, होली का त्यौहार।७।
सरस्वती माँ की रहे, सब पर कृपा अपार।
हास्य-व्यंग्य अनुरक्त हो, होली का त्यौहार।८।
ऋता शेखर ‘मधु’
फगुनाहट की थाप पर,बजा फाग का राग।
पिचकारी की धार पर, मच गइ भागम भाग।१।
कुंजगली में जा छुपे, नटखट मदन गुपाल।
ब्रजबाला बच के चली, फिर भी हो गइ लाल।२।
मने प्रीत का पर्व ये, सद्भावों के साथ।
दो ऐसा सन्देश अब, तने गर्व से माथ।३।
धर्मेन्द्र कुमार ‘सज्जन’
रंगों के सँग घोलकर, कुछ, टूटे-संवाद।
ऐसी होली खेलिए, बरसों आए याद।१।
जाकर यूँ सब से मिलो, जैसे मिलते रंग।
केवल प्रियजन ही नहीं, दुश्मन भी हों दंग।२।
तुमरे टच से, गाल ये, लाल हुये, सरताज।
बोलो तो रँग दूँ तुम्हें, इसी रंग से आज।३।
सूखे रंगों से करो, सतरंगी संसार।
पानी की हर बूँद को, रखो सुरक्षित यार।४।
सौरभ शेखर
लगा गयी हर डाल पर, रुत बसंत की आग।
उड़ा धूल की आंधियां, हवा खेलती फाग।१।
टल पाया ना इस बरस, सलहज का इसरार।
कुगत कराने को स्वयँ, पहुँचे सासू द्वार।२।
जम कर होली खेलिए, बिछा रंग की सेज।
जात धरम ना रंग का, फिर किसलिए गुरेज।३।
पल भर हजरत भूल कर, दुःख,पीड़ा,संताप।
जरा नोश फरमाइए, नशा ख़ुशी का आप।४।
साधना वैद
अबके कुछ ऐसा करो, होली पर भगवान।
हर भूखे के थाल में, भर दो सब पकवान।१।
हिरण्यकश्यप मार कर, करी धर्म की जीत।
हे नरसिँह कब आउगे, जनता है भयभीत।२।
खुशियों का त्यौहार है, खुल कर खेलो फाग।
बैर, दुश्मनी, द्वेष का, दिल से कर दो त्याग।३।
आशा सक्सेना
गहरे रंगों से रँगी, भीगा सारा अंग।
एक रंग ऐसा लगा, छोड़ न पाई संग।१।
विजया सर चढ़ बोलती, तन मन हुआ अनंग।
चंग संग थिरके क़दम, उठने लगी तरंग।२।
राणा प्रताप सिंह
बच्चे, बूढ़े, नौजवाँ, गायें मिलकर फाग।
एक ताल, सुर एक हो, एकहि सबका राग।१।
सेन्हुर, टिकुली, आलता, कब से हुए अधीर।
प्रिय आयें तो फाग में, फिर से उड़े अबीर।२।
महँगाई ने सोख ली, पिचकारी की धार।
गुझिया मुँह बिचका रही, फीका है त्यौहार।३।
अबके होली में बने, कुछ ऐसी सरकार।
छोटा जिसका पेट हो, छोटी रहे डकार।४।
मिली नहीं छुट्टी अगर, मत हो यार उदास।
यारों सँग होली मना, यार बड़े हैं खास।५।
सौरभ पाण्डेय
फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप।
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप।१।
फगुनाई ऐसी चढ़ी, टेसू धारें आग।
दोहे तक तउआ रहे, छेड़ें मन में फाग।२।
भइ! फागुन में उम्र भी, करती जोरमजोर।
फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर।३।
जबसे सिंचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह।४।
बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर।
मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर।५।
धूप खिली, छत, खेलती, अल्हड़ खोले केश।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष।६।
करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव।
होश रहे तो नागरी, जोशीले को ताव ।७।
हम तो भाई देस के, जिसके माने गाँव ।
गलियाँ घर-घर जी रहीं - फगुआ, कुश्ती-दाँव।८।
नये रंग, सुषमा नई, सरसे फाग बहाव ।
लाँघन आतुर, देहरी, उत्सुक के मृदु-भाव।९।
विजेंद्र शर्मा
इंतज़ार के रंग में, गई बावरी डूब।
होली पर इस बार भी, आये ना महबूब।१।
सरहद से आया नहीं, होली पे क्यूँ लाल।
भीगी आँखें रंग से, करती रहीं सवाल।२।
मौक़ा था पर यार ने, डाला नहीं गुलाल।
मुरझाये से ही रहे, मेरे दोनों गाल।३।
कौन बजावे फाग पे, ढोल, नगाड़े, चंग।
कहाँ किसी को चाव है, गायब हुई उमंग।४।
गीली - गीली आँख से, करे शिकायत गाल।
बैरी ख़ुद आया नहीं, भिजवा दिया गुलाल।५।
डा. श्याम गुप्त
गोरे गोरे अंग पै, चटख चढि गये रंग।
रंगीले आँचर उडैं, जैसें नवल पतंग ।१।
लाल हरे पीले रँगे, रँगे अंग-प्रत्यंग।
कज़्ज़ल-गिरि सी कामिनी, चढौ न कोऊ रंग।२।
भरि पिचकारी सखी पर, वे रँग-बान चलायँ।
लौटें नैनन बान भय, स्वयं सखा रँगि जायँ।३।
भ्रकुटि तानि बरजै सुमुखि, मन ही मन ललचाय।
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रँगि जाय।४।
भक्ति ग्यान औ प्रेम की, मन में उठै तरंग।
कर्म भरी पिचकारि ते, रस भीजै अंग-अंग।५।
ऐसी होली खेलिये, जरै त्रिविधि संताप।
परमानन्द प्रतीति हो, ह्रदय बसें प्रभु आप ।६।
महेश चंद्र गुप्ता ‘ख़लिश’
'हो ली’, ’हो ली’ सब करें, मरम न जाने कोय।
क्या हो ली क्या ना हुई, मैं समझाऊँ तोय।१।
हो ली पूजा हस्ति की, माया जी के राज।
हाथी पे परदे पड़े, बिगड़ गए सब काज।२।
हो ली लूट-खसूट बहु, राजा के दरबार।
पहुँचे जेल तिहाड़ में, जुगत भई बेकार।३।
हो ली बहु बिध भर्त्सना, हे चिद्दू म्हाराज।
नहीं नकारो सत्य को, अब तो आओ बाज।४।
हो ली अन्ना की 'ख़लिश', जग में जय जयकार।
शायद उनको हो रही, अब गलती स्वीकार।५।
रविकर
शिशिर जाय सिहराय के, आये कन्त बसन्त ।
अंग-अंग घूमे विकल, सेवक स्वामी सन्त ।१।
मादक अमराई मुकुल, बढ़ी आम की चोप ।
अंग-अंग हों तरबतर, गोप गोपियाँ ओप ।२।
जड़-चेतन बौरा रहे, खोरी के दो छोर ।
पी पी पगली पीवरी, देती बाँह मरोर ।३।
सर्षप पी ली मालती, ली ली लक्त लसोड़ ।
कृष्ण-नाग हित नाचती, सके लाल-सा गोड़ ।४।
ओ री हो री होरियाँ, चौराहों पर साज ।
ताकें गोरी छोरियाँ, अघी अभय अंदाज ।५।
अखिलेश तिवारी
इन्द्र-जाल चहुँ फाग का, रंगों की रस-धार।
हुई राधिका साँवरी, और कृष्ण रतनार।१।
फागुन ने तहजीब पर, तानी जब संगीन।
बरजोरी कर सादगी, हुई स्वयँ रंगीन।२।
क्या धरती? आकाश तक, है होली के संग।
चहरे-चहरे पर टँके, इंद्र-धनुष के रंग।३।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
होली होली हो रही, होगी बारम्बार।
होली हो अबकी बरस, जीवन का श्रृंगार।१।
होली में हुरिया रहे, खीसें रहे निपोर।
गौरी-गौरा एक रंग, थामे जीवन डोर।२।
होली अवध किशोर की, बिना सिया है सून।
जन प्रतिनिधि की चूक से, आशाओं का खून।३।
होली में बृजराज को, राधा आयीं याद।
कहें रुक्मिणी से -'नहीं, अब गुझियों में स्वाद'।४।
होली में कैसे डले, गुप्त चित्र पर रंग।
चित्रगुप्त की चातुरी, देख रहे सबरंग।५।
होली पर हर रंग का, 'उतर गया है रंग'।
जामवंत पर पड़ हुए, सभी रंग बदरंग।६।
होली में हनुमान को, कहें रँगेगा कौन।
लाल-लाल मुँह देखकर, सभी रह गए मौन।७।
होली में गणपति हुए, भाँग चढ़ाकर मस्त।
डाल रहे रँग सूंढ से, रिद्धि-सिद्धि हैं त्रस्त।८।
होली में श्री हरि धरे, दिव्य मोहिनी रूप।
कलशा ले ठंडाइ का, भागे दूर अनूप।९।
होली में निर्द्वंद हैं, काली जी सब दूर।
जिससे होली मिलें, हो, वह चेहरा बेनूर।१०।
होली मिलने चल पड़े, जब नरसिंह भगवान्।
ठाले बैठे मुसीबत, गले पड़े श्रीमान।११।
ज्योत्सना शर्मा [मार्फत पूर्णिमा वर्मन]
भंग चढ़ाकर आ गई, खिली फागुनी धूप ।
कभी हँसे दिल खोलकर, कभी बिगारे रूप।१।
धानी-पीली ओढनी, ओढ धरा मुस्काय ।
सातों रंग बिखेर कर, सूरज भागा जाय ।२।
सतरंगी किरणें रचें, मिलकर उजली धूप।
होली का सद्भाव दे, जग को उज्ज्वल रूप।३।
कितना छिपकर आइये, गोप गोपियों संग ।
राधे से छुपते नहीं, कान्हा तुहरे रंग ।४।
हुई बावरी चहुँ दिशा, मस्ती बरसे रंग।
बाल, वृद्ध नर नार सब, जन-मन सरसे संग।५।
पूर्णिमा वर्मन
रंग-रंग राधा हुई, कान्हा हुए गुलाल।
वृंदावन होली हुआ, सखियाँ रचें धमाल।१।
होली राधा श्याम की, और न होली कोय।
जो मन राँचे श्याम रँग, रंग चढ़े ना कोय।२।
आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज।
मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज।३।
फागुन बैठा देहरी, कोठे चढ़ा गुलाल।
होली टप्पा दादरा, चैती सब चौपाल।४।
महानगर की व्यस्तता, मौसम घोले भंग।
इक दिन की आवारगी, छुट्टी होली रंग।५।
डा. जे. पी. बघेल
बंब बजी, ढोलक बजी, बजे ढोल ढप चंग।
फागुन की दस्तक भई, थिरकन लागे अंग।१।
होरी आई मधु भरी, बूढ़े भये जवान।
रसिया भये अनंग के, मारक तीर कमान।२।
हुरियारे नाचत फिरत, धरे कामिनी वेष।
असर वारुणी, भंग के, भाखा भनत भदेस।३।
गली गली टोली चलीं, उड़त अबीर गुलाल ।
हुरियारे नाचत चलत, ठुमकि ताल बेताल।४।
ब्रज की होरी के रहे, अजब निराले ढंग ।
कहीं कहीं महफिल जमीं, कहीं कहीं हुड़दंग।५।
होली-उत्सव नागरी, लोक-पर्व है धूल ।
ब्रज में होली धूल है, लोक न पाया भूल।६।
नृत्य-गीत, आमोद, रँग, पंकिल धूलि प्रहार ।
ब्रज को प्रिय रज-धूसरण, जग जानी लठमार।७।
राजेन्द्र स्वर्णकार
रँग दें हरी वसुंधरा, केशरिया आकाश !
इन्द्रधनुषिया मन रँगें, होंठ रँगें मृदुहास !१!
होली के दिन भूलिए… भेदभाव अभिमान !
रामायण से मिल’ गले मुस्काए कुरआन !२!
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख का फर्क रहे ना आज !
मौसम की मनुहार की रखिएगा कुछ लाज !३!
पर्व… ईद होली सभी देते यह सन्देश !
हृदयों से धो दीजिए… बैर अहम् विद्वेष !४!
होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार !
मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !५!
नवीन सी. चतुर्वेदी
तुमने ऐसा भर दिया, इस दिल में अनुराग।
हर दिन, हर पल, हर घड़ी, खेल रहा दिल फाग।१।
यही बुजुर्गों से सुनी, इस होली की रीत।
हमें करे बदरंग जो, बढ़े उसी से प्रीत।२।
आभार ज्ञापन
अनुरागी सब आ गये, लिए फाग-अनुराग
ठाले-बैठे ब्लॉग के, खूब खुले हैं भाग
मिल-जुल कर सबने दिया, निज-निज दान यथेष्ठ
कोई भी कमतर नहीं, सब के सब हैं श्रेष्ठ
सुन कर मेरी प्रार्थना, जुटे यहाँ जो मित्र
उन सब को अर्पण करूँ, निज अनुराग पवित्र
जब-जब दुनिया में बढ़ा, कुविचारों का वेग
तब तब ही साहित्य ने, क़लम बनायी तेग
संग्रहकर्ता: नविन च. चतुर्वेदी, आभार ठाले-बैठे
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