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मंगलवार, 1 मार्च 2011

मुक्तिका : बड़े नेता... -- संजीव 'सलिल'



मुक्तिका:

बड़े नेता...

संजीव 'सलिल'
*
बड़े नेता.
सड़े नेता. .


मरघटों में
गड़े नेता..

स्वहित हेतु
अड़े नेता..

जड़, बिना जड़
जड़े नेता..

साध्य सत्ता. 
अड़े नेता..

जड़, बिना जड़
जड़े नेता..

साध्य सत्ता.                                                                 
लड़े नेता..

पग-तलों में                                             
पड़े नेता..

भुला हर सच
खड़े नेता..

पत्थरों से
 कड़े नेता..

बिना पेंदी
घड़े नेता..
सड़े फल हैं
झड़े नेता..                                                                       

दल, कहीं हैं
धड़े नेता..

*********

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

दोहा सलिला मुग्ध है संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला मुग्ध

संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..

चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..

नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..

सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..

वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..

देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..

दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..

वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..

रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..

रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..

कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..

रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..

गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..

जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..

**************************

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

हास्य पद: जाको प्रिय न घूस-घोटाला -- संजीव 'सलिल'

हास्य पद:

जाको प्रिय न घूस-घोटाला

संजीव 'सलिल'

*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो,  न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..

                           ****************
(महाकवि तुलसीदास से क्षमाप्रार्थना सहित)
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


मेरी एक कविता : और सुबह हो गई -------- कुसुम सिन्हा

मेरी एक कविता

और सुबह हो गई

कुसुम  सिन्हा  
*
 पर्वतों की ओट से
सुनहरी  किरने झाँकने लगीं
तभी सूर्य ने  खिलखिलाकर हँसते हुए
अपने सात रंगों से
धरती को  नहला दिया
शर्म से लाल हो गई धरती
सूर्य ने धरती को अपनी बाँहों में बांध  लिया
धरती लजाई  शरमाई मुस्कुराई  फिर
सूरज को सौप दिया अ
नदी की लहरें  नाचने लगीं
हवा इठला इठलाकर चलने लगीं
वृक्ष  आनंद मगन हो
झुमने लगे
रात्रि का अंधकार
चुपचाप भागकर कहीं छुप  गया
कलियों ने हंसकर
भाबरों को बुलाया
मन में उठने लगी
प्रेम की उमंग
एक मोहक अंगड़ाई ले
जाग उठी धरती
और सुबह हो गई
                                                                          (आभार: ई कविता)
***************              
<kusumsinha2000@yahoo.com>

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: जिसे मैं भाया ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
जिसे मैं भाया, मुझे वो भायेगी.
श्वास के संग आस नगमे गायेगी..

जिंदगी औ' बंदगी की फिक्र क्या.
गयी भी तो लौट कर फिर आयेगी..

कौन मुझको जानता संसार में.
लेखनी पहचान बन रह जायेगी..

प्रीत की, मनमीत की बातें अजब.
याद कर गालों पे लाली छायेगी..

कौन है जो 'सलिल' बिन रह ना सके?
सिर्फ यह परछाईं ना रह पायेगी..
************

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: कहने को संसार कहे ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका: 

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

संजीव 'सलिल'
*
सार नहीं कुछ परंपरा में, रीति-नीति निस्सार कहे.
हम कैसे इस बात को मानें, कहने को संसार कहे..

रिश्वत ले मुस्काकर नेता, उसको शिष्टाचार कहे.
जैसे वैश्या काम-क्रिया को, साँसों का सिंगार कहे..

नफरत के शोले धधकाकर, आग बर्फ में लगा रहा.
छुरा पीठ में भोंक पड़ोसी, गद्दारी को प्यार कहे..

लूट लिया दिल जिसने उसपर, हमने सब कुछ वार दिया.
अब तो फर्क नहीं पड़ता, युग इसे जीत या हार कहे..

चेला-चेली पाल रहा भगवा, अगवाकर श्रृद्धा को-
रास रचा भोली भक्तन सँग, पाखंडी उद्धार कहे..

जिनसे पद शोभित होता है, ऐसे लोग नहीं मिलते.
पद पा शोभा बढ़ती जिसकी, 'सलिल' उसे बटमार कहे..

लेना-देना लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य हुआ.
फिर क्यों 'सलिल' प्रशासन कहते?, क्यों न महज व्यापार कहे?

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मुक्तिका: तोड़ दिया दर्पण ------- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

तोड़ दिया दर्पण

संजीव 'सलिल'
*

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
मुझको तो ये मुल्क चाट का ठेला लगता है.

खबर चटपटी अख़बारों में रोज छप रही है.
सत्य खोजना सचमुच बहुत झमेला लगता है..

नेता-अफसर-न्यायमूर्ति पर्याय रिश्वतों के.
संसद का हर सत्र यहाँ अलबेला लगता है..

रीति-नीति सरकारों की बिन रीढ़, पिलपिली है.
गटपट का दौना जैसे पँचमेला लगता है..

साया-माया साथ न दे पर साथ निभाते हैं.
भीड़ बहुत, मुश्किल में देश अकेला लगता है..

ज्वर क्रिकेट का चढ़ा सभी को, लाइलाज है मर्ज़.
घूँटी में किरकिट ही खाया-खेला लगता है..

'सलिल'शक्ल बदसूरत देखी, तोड़ दिया दर्पण. 
शंकर भी कंकर माटी का डेला लगता है.

**************************************

मुक्तिका: अनसुलझे मसले हैं हम.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                             

अनसुलझे मसले हैं हम..

संजीव 'सलिल'

*

सम्हल-सम्हल फिसले हैं हम.

फिसल-फिसल सम्हले हैं हम..

खिले, सूख, मुरझाये भी-

नहीं निठुर गमले हैं हम..

सब मनमाना पीट रहे.

पिट-बजते तबले हैं हम..

अख़बारों में रोज छपे

घोटाले-घपले हैं हम..

'सलिल' सुलझ कर उलझ रहे.

अनसुलझे मसले हैं हम..

*******************

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: हाथ में हाथ रहे... संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                       
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..

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******

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: आँखों जैसी गहरी झील - संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..

********************

मुक्तिका ; पटवारी जी ---- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
पटवारी जी                                                                                             
संजीव 'सलिल'
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..

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रविवार, 16 जनवरी 2011

बाल गीत: "कितने अच्छे लगते हो तुम " -- संजीव वर्मा 'सलिल'

बाल गीत:

"कितने अच्छे लगते हो तुम "

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ  चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते  हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |

***************************

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

कविता: विरसा संजीव 'सलिल'

कविता:
विरसा
संजीव 'सलिल'
*
तुमने
विरसे में छोड़ी है
अकथ-कथा
संघर्ष-त्याग की.
हमने
जीवन-यात्रा देखी
जीवट-श्रम,
बलिदान-आग की.
आये थे अनजान बटोही
बहुतों के
श्रृद्धा भाजन हो.
शिक्षा, ज्ञान, कर्म को अर्पित
तुम सारस्वत नीराजन हो.
हम करते संकल्प
कर्म की यह मशाल
बुझ ना पायेगी.
मिली प्रेरणा
तुमसे जिसको
वह पीढ़ी जय-जय गायेगी.
प्राण-दीप जल दे उजियारा
जग ज्योतित कर
तिमिर हरेगा.
सत्य सहाय जिसे हो
वह भी-
तरह तुम्हारी लक्ष्य वरेगा.
*****
 

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

व्यंग गीत: कथनी-करनी संजीव 'सलिल'

व्यंग

गीत:                                                                      

कथनी-करनी

संजीव 'सलिल'
*
कथनी-करनी एक न हो,
जाग्रत कभी विवेक न हो.....
*
साधु-संत सुत हों पड़ोस में,
अपना नेता-अफसर हो.
मीरां-काली तेरे घर हो,
श्री-समृद्धि मेरे घर हो.
एक राह है, एक चाह है-
हे हरि! लक्ष्य अ-नेक न हो.....
*
पूजें हम रैदास-कबीरा.
चाहें खुद हों धन्नामल.
तुम त्यागी-वैरागी हो, हम-
व्यापारी हों निपुण-कुशल.
हमको कुर्सी, गद्दी, आसन
तुम्हें नसीबित टेक न हो.....
*
हमको पूड़ी, तुमको रोटी.
तुमको सब्जी, हमको बोटी.
विफल पैंतरे रहें तुम्हारे-
'सलिल' सफल हों अपनी गोटी.
जो रचना को नहीं सराहे
चोट लगे पर सेक न हो.....
******

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: पथ पर पग संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:


पथ पर पग


संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..

हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..

ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..

दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..

हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..

शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..

गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..

स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..

मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..

हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..

चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
************************

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

लेख : मुक्तिका क्या है? --संजीव 'सलिल'

लेख : मुक्तिका क्या है?


संजीव 'सलिल'
*
- मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

************************

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

मुक्तिका : .......क्यों है? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :

.......क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
काम रहजन का करे नाम से रहबर क्यों है?
मौला इस देश का नेता हुआ कायर क्यों है??

खोल अखबार- खबर सच से बेखबर क्यों है?
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदर क्यों है?

जो है खूनी उकाब उसको अता की ताकत.
भोला-मासूम परिंदा नहीं जबर क्यों है??

जिसने पैदा किया तुझको तेरी औलादों को.
आदमी के लिए औरत रही चौसर क्यों है??

एक ही माँ ने हमें दूध पिलाकर पाला.
पीठ हिन्दोस्तां की पाक का खंजर क्यों है??

लाख खाता है कसम रोज वफ़ा की आदम.
कर न सका आज तलक बोल तो जौहर क्यों है??

पेट पलता है तेरा और मेरा भी जिससे-
कामचोरी की जगह, बोल ये दफ्तर क्यों है??

ना वचन सात, ना फेरे ही लुभाते तुझको.
राह देखा किया जिसकी तू, वो कोहबर क्यों है??

हर बशर चाहता औरत तो पाक-साफ़ रहे.
बाँह में इसको लिए, चाह में गौहर क्यों है??

पढ़ के पुस्तक कोई नादान से दाना न हुआ.
ढाई आखर न पढ़े, पढ़ के निरक्षर क्यों है??

फ़ौज में क्यों नहीं नेताओं के बेटे जाते?
पूछा जनता ने तो नेता जी निरुत्तर क्यों है??

बूढ़े माँ-बाप की खातिर न जगह है दिल में.
काट-तन-पेट खड़ा तुमने किया घर क्यों है??

तीन झगड़े की वज़ह- जर, जमीन, जोरू हैं.
ये अगर सच है तो इन बिन न रहा नर क्यों है??

रोज कहते हो तुम: 'हक समान है सबको"
ये भी बोलो, कोई बेहतर कोई कमतर क्यों है??

अब न जुम्मन है, न अलगू, न रही खाला ही.
कौन समझाए बसा प्रेम में ईश्वर क्यों है??

रुक्न का, वज्न का, बहरों का तनिक ध्यान धरो.
बा-असर थी जो ग़ज़ल, आज बे-असर क्यों है??

दल-बदल खूब किया, दिल भी बदल कर देखो.
एक का कंधा रखे दूसरे का सर क्यों है??

दर-ब-दर ये न फिरे, वे भी दर-ब-दर न फिरे.
आदमी आम ही फिरता रहा दर-दर क्यों है??

कहकहे अपने उसके आँसुओं में डूबे हैं.
निशानी अपने बुजुर्गों की गुम शजर क्यों है??

लिख रहा खूब 'सलिल', खूबियाँ नहीं लेकिन.
बात बेबात कही, ये हुआ अक्सर क्यों है??

कसम खुदा की, शपथ राम की, लेकर लड़ते.
काले कोटों का 'सलिल', संग गला तर क्यों है??

बेअसर प्यार मगर बाअसर नफरत है 'सलिल'.
हाय रे मुल्क! सियासत- जमीं बंजर क्यों है??

************************************************
रहजन = राह में लूटनेवाला, रहबर = राह दिखानेवाला, मौला = ईश्वर, उकाब = बाज, अता करना = देना, जबर = शक्तिवान, बशर = व्यक्ति, गौहर = अपने समय की सर्वाधिक प्रसिद्ध वैश्या, नादान = नासमझ,  दाना = समझदार, रुक्न = लयखंड, वज्न = पदभार , बहर = छंद, बेअसर = प्रभावहीन, बा-असर = प्रभावपूर्ण, शजर = वृक्ष, जमीं = भूमि.

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

बाल गीत: माँ-बेटी की बात --संजीव 'सलिल'

बाल गीत:

माँ-बेटी की बात

संजीव 'सलिल'
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.

झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..

बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.

पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..

गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.

लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.

मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?

क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''

खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.

अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..

रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.

आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.

तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.

जल्दी उठाना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''

बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'

क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?

जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?

बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''

मुझे डांटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.

पापा बोलें झूठ, न उनको डांट लगाती हो.

मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.

नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..

हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..

***************



गुरुवार, 30 सितंबर 2010

सामयिक कविता: फेर समय का........ संजीव 'सलिल'

सामयिक कविता:

फेर समय का........

संजीव 'सलिल'
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..

फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह पायेगा..

फेर समय का यह विवाद अब लखनऊ से दिल्ली जायेगा.
फेर समय का आम आदमी देख ठगा सा रह जायेगा..
फेर समय का फिर पचास सालों तक यूँ ही वाद चलेगा.
फेर समय का नासमझी का चलन देश को पुनः छलेगा..

फेर समय का नेताओं की फितरत अब भी वही रहेगी.
फेर समय का देश-प्रेम की चाहत अब भी नहीं जगेगी..
फेर समय का जातिवाद-दलवाद अभी भी नहीं मिटेगा.
फेर समय का धर्म और मजहब में मानव पुनः बँटेगा..



फेर समय का काले कोटोंवाले फिर से छा जायेंगे.
फेर समय का भक्तों से भगवान घिरेंगे-घबराएंगे..
फेर समय का सच-झूठे की परख तराजू तौल करेगी.
फेर समय का पट्टी बांधे आँख ज़ख्म फिर हरा करेगी..



फेर समय का ईश्वर-अल्लाह, हिन्दू-मुस्लिम एक न होंगे.
फेर समय का भक्त और बंदे झगड़ेंगे, नेक न होंगे..
फेर समय का सच के वधिक अवध को अब भी नहीं तजेंगे.
फेर समय का छुरी बगल में लेकर नेता राम भजेंगे..


फेर समय का अख़बारों-टी.व्ही. पर झूठ कहा जायेगा.
फेर समय का पंडों-मुल्लों से इंसान छला जायेगा..
फेर समय का कब बदलेगा कोई तो यह हमें बताये?
फेर समय का भूल सियासत काश ज़िंदगी नगमे गाये..


फेर समय का राम-राम कह गले राम-रहमान मिल सकें.
फेर समय का रसनिधि से रसलीन मिलें रसखान खिल सकें..
फेर समय का इंसानों को भला-बुरा कह कब परखेगा?
फेर समय का गुणवानों को आदर देकर कब निरखेगा?


फेर समय का अब न सियासत के हाथों हम बनें खिलौने.
फेर समय का अब न किसी के घर में खाली रहें भगौने..
फेर समय का भारतवासी मिल भारत की जय गायें अब.
फेर समय का हिन्दी हो जगवाणी इस पर बलि जाएँ सब..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

तरही मुक्तिका २ : ........ क्यों है? ------ संजीव 'सलिल'

तरही मुक्तिका २  :

........ क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
आदमी में छिपा, हर वक़्त ये बंदर क्यों है?
कभी हिटलर है, कभी मस्त कलंदर क्यों है??

आइना पूछता है, मेरी हकीकत क्या है?
कभी बाहर है, कभी वो छिपी अंदर क्यों है??

रोता कश्मीर भी है और कलपता है अवध.
आम इंसान बना आज छछूंदर क्यों है??

जब तलक हाथ में पैसा था, सगी थी दुनिया.
आज साथी जमीं, आकाश समंदर क्यों है??

उसने पर्वत, नदी, पेड़ों से बसाया था जहां.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यों है??

गुरु गोरख को नहीं आज तलक है मालुम.
जब भी आया तो भगा दूर मछंदर क्यों है??

हाथ खाली रहा, आया औ' गया जब भी 'सलिल'
फिर भी इंसान की चाहत ये सिकंदर क्यों है??

जिसने औरत को 'सलिल' जिस्म कहा औ' माना.
उसमें दुनिया को दिखा देव-पुरंदर क्यों है??

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