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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

नारीवाद और लोककथा 2023

नारीवाद और लोककथा 2023

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE:%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE_2023#%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%AF

नारीवाद और लोककथा अंतर्राष्ट्रीय लेखन प्रतियोगिता है जिसका आयोजन विकिपीडिया पर प्रतिवर्ष फ़रवरी और मार्च के महीने में किया जाता है। इसका आयोजन विकिपीडिया पर लोक संस्कृति और महिला संबंधित विषयों पर अधिक से अधिक लेख बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। यह परियोजना फोटोग्राफी अभियान विकी लव्स फोकलोर (डब्ल्यूएलएफ) का विकिपीडिया संस्करण है जो दुनिया भर में लोककथाओं की परंपराओं का दस्तावेजीकरण करने के लिए विकिमीडिया कॉमन्स पर आयोजित किया जाता है।

प्रतियोगिता का मूल उद्देश्य दुनिया भर में मुक्त विश्वकोश विकिपीडिया और अन्य विकिमीडिया फाउंडेशन परियोजनाओं में मानव सांस्कृतिक विविधता पर लेख एकत्र करना है। इस प्रतियोगिता के सहारे हम दुनिया भर में लोक संस्कृति पर ध्यान केंद्रित करेंगे और इसके साथ ही इसमे लिंग भेद को कम करने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।

प्रतिभागी बनें

अनुक्रम- 1 विषय, 2 आयोजक 3 समय 4 नियम 5 प्रतिभागी सूची 6 पुरस्कार 7 परिणाम 8 उपयोगी लिंक 9 संबंधन

विषय

इस वर्ष विकिपीडिया पर नारीवाद और लोककथा नारीवाद, महिलाओं की जीवनियाँ और लिंग-आधारित विषयों पर ध्यान केन्द्रित करेगा।

लोककथा-दुनिया भर के लोक उत्सवों, लोक नृत्यों, लोक संगीत, लोक गतिविधियों, लोक खेलों, लोक व्यंजनों, लोक परिधानों, परी कथाओं, लोक नाटकों, लोक कलाओं, लोक धर्म और पौराणिक कथाओं पर आप लेख बना सकते हैं हालाँकि, विषय इतने तक ही सीमित नहीं हैं।

नारीवाद- लोककथाओं में वर्णित महिलाएँ, लोक कलाकार, लोक नर्तक, लोक गायक, लोक संगीतकार, लोक खेल खिलाडी, पौराणिक कथाओं में महिलाएँ, लोककथाओं में महिला योद्धा, परियों की कहानी इत्यादि विषयों पर भी आप लेख बना सकते हैं।

आयोजकJ ansari
कन्हाई प्रसाद चौरसिया
रोहित साव27किसी भी प्रकार की सहायता या असमंजस की स्थिति में कृपया वार्ता पृष्ठ पर सम्पर्क करें।

समय

1 फ़रवरी 2023 00:01 UTC - 31 मार्च 2023 11:59 UTC

नियमलेख नए हो अथवा लेखों का पर्याप्त विस्तार हुआ हो। इनका निर्माण/विस्तार 1 फ़रवरी 2022 00:01 UTC - 31 मार्च 2022 11:59 UTC के मध्य ही होना चाहिए।
लेखों की लंबाई कम से कम 3,000 बाइट्स की होनी चाहिए।
लेखों का विस्तार भी 3,000 बाइट्स तक होना चाहिए।।
लेख उल्लेखनीय विषयों एवं मानदंडों पर ही बने होने चाहिए।
लेख उचित सन्दर्भ के साथ बने होना चाहिए और संदिग्ध या विवादास्पद बयानों वाले लेख उचित तथा सत्यापित करने योग्य सन्दर्भ के साथ होने चाहिए।
लेख पूरी तरह मशीनी भाषा में किए गए अनुवाद की जगह उचित भाषा में होने चाहिए।
लेख सूची की तरह ना हो।
लेख जानकारी पूर्ण हो।
लेख का विषय नारीवाद और लोककथाओं पर होना चाहिए।
कोई कॉपीराइट उल्लंघन और अक्षमता के मुद्दे नहीं होने चाहिए।


अपने लेख यहाँ जमा करें

प्रतिभागी सूचीबलवीर जालंधर शहर पंजाब
Bijendra Hansda Purudhul (वार्ता) 15:20, 15 फ़रवरी 2023 (UTC)[http://उत्तर दें]
RJ Raawatfyh 122.15.17.82 (वार्ता) 09:55, 26 फ़रवरी 2023 (UTC)[उत्तर दें]गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” girishbillore@gmail.com गिरीशबिल्लोरे 12:07, 20 फ़रवरी 2023 (UTC)

पुरस्कार

शीर्ष योगदानकर्ताओं के लिए पुरस्कार (अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर)प्रथम पुरस्कार: 300 अमरीकी डॉलर
द्वितीय पुरस्कार: 200 अमरीकी डॉलर
तृतीय पुरस्कार: 100 अमरीकी डॉलर
सांत्वना पुरस्कार शीर्ष 10 विजेता: प्रत्येक को 10 अमरीकी डॉलर

परिणाम

सॉनेट,मुक्तक,पद,बुंदेली,शारदा,मुक्तिका

सॉनेट
माणिक जब बन गया मुसाफिर
मिला जवाहर तरुण अचानक
कृष्ण पथिक कर पकड़े फिर-फिर
दे गोपाल मधुर छवि अनथक
रोटी-कमल द्वार पर सोहे
हेमलता का मधुर हास जब
संगीता होकर मन मोहे
नवनीता अस्मिता आस तब
आस्था के शतदल शत महके
यादों के पलाश हँसते हैं
मिल यात्राओं की तलाश में
ज्वाल गीत गा पग बढ़ते हैं
तमसा के दिन करो नमन
तमसा के दिनकरो नमन
मुक्तक
जय जयंत की बोलिए जय का कभी न अंत हो
बन बसंत हँस डोलिए रंग कुसुम्बी संत हो
बरस बरस रस कह रहा तरस नहीं डूब जा
बाहर क्यों खोजता है विदेह देह-कन्त हो
पद
मौली पा मयूर मन नाचे
करे अर्चना मीरा मधु निशि, कांत कल्पना क्षिप्रा बाँचे
सदा शुभागत हो प्रबोध, पंकज पीयूष पान कर छककर
हो सुरेश शशिकांत तथागत, तरुणा अरुणा रुके न थककर
नमन शिवानी विहँस प्रियंका, गरिमा करतल ध्वनि कर साँचे
मौली पा मयूर मन नाचे
बुंदेली सारद वंदना
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउ चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
ध्यान धरूँ आ दरसन देओ।
सुन्दर छबि दिखला दे रे।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा माँ पधराओ
तबआगे बढ़ पाऊँ ना।।
थाम अँगुरिया राह दिखाखें ।
मंज़िल तक पहुँचा दे रे।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
सॉनेट
चूहे को पंजे में दाब शेर मुस्काए।
चीं-चीं कर चूहा चाहे निज जान बचाए।
शांति वार्ता का नाटक जग के मन भाए।।
बंदर झूल शाख पर जय-जयकार गुँजाए।।
'भैंस उसी की जिसकी लाठी' अटल सत्य है।
'माइट इज राइट' निर्बल ही पीटता आया।
महाबली जो करे वही होता सुकृत्य है।।
मानव का इतिहास गया है फिर दुहराया।।
मनमानी को मन की बात बताते नेता।
देश नहीं दल की जय-जय कर चमचे पाले।
जनवाणी जन की बातों पर ध्यान न देता।।
गुटबंदी सीता को दोषी बोल निकाले।।
निज करनी पर कहो बेशरम कब शरमाए।
चूहे को पंजे में दाब शेर मुस्काए।।
२८-२-२०२२
मुक्तिका
*
इसने मारा, उसने मारा
इंसानों को सबने मारा

हैवानों की है पौ बारा
शैतानों का जै-जैकारा

सरकारों नें आँखें मूँदीं
टी वी ने मारा चटखारा

नफरत द्वेष घृणा का फोड़ा
नेताओं ने मिल गुब्बारा

आम आदमी है मुश्किल में
खासों ने खुद को उपकारा

भाषणबाजों लानत तुम पर
भारत माता ने धिक्कारा

हाथ मिलाओ, गले लगाओ
अब न बहाओ आँसू खारा
२८-२-२०२०

सोरठा सतसई विमोचित

संक्षिप्त समाचार

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर

४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर

 हिंदी की प्रथम दो सोरठा सतसई विमोचित

जबलपुर, २६-२-२०१३। ''सोरठा हिंदी का विशिष्ट छंद है जिसका लालित्य अनन्य है। आधुनिक काल में दोहा, चौपाई, आल्हा, हरिगीतिका आदि छंदों पर प्रचुर कार्य हुआ किंतु सोरठा अपेक्षाकृत कम चर्चित हुआ है। संस्कारधानी का गौरव है कि हिंदी को ५०० से अधिक नवीन छंदों की सौगात देनेवाले संजीव वर्मा 'सलिल' ने सोरठा को केंद्र में रखकर स्वयं 'सरस सोरठा छंद' शीर्षक से सोरठा सतसई की रचना की तथा अपनी शिष्या डॉ. संतोष शुक्ला का मार्गदर्शन कर 'छंद सोरठा ख़ास' सोरठा सतसई लिखवाई। इन दोनों छंद साधकों ने सर्वाधिक सोरठा-लेखन का कीर्तिमान बना दिया है।'' उक्त विचार अध्यक्षीय आसंदी से वरिष्ठ भाषाविद, उपन्यासकार डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने व्यक्त किए। उल्लेखनीय है कि हिंदी वांग्मय में इसके पूर्व कोई सोरठा सतसई नहीं लिखी गई है। 

इसके पूर्व सरस्वती पूजा-वंदन तथा अतिथि स्वागत के पश्चात् कृति विमोचन अतिथियोन के कर कमलों से डॉ. नमिता तिवारी तथा डॉ. आशीष तिवारी ने संपन्न कराया। मुख्य वक्ता आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी ने वर्तमान काल में छांदस कविता की प्रासंगिकता प्रतिपादित करते हुए, संस्कारधानी में छंद साधना पर प्रकाश डालते हुए हिंदी की प्रथम दो सोरठा सतसई संस्कारधानी से प्रकाशित होने पर हर्ष व्यक्त किया। वैदिक साहित्य मर्मज्ञ डॉ. इला घोष ने काव्य तथा छंद के साथ को ईश और जीव के साथ जैसा अटूट तथा कालजयी बताया। विदुषी डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव ने सोरठा छंद के लालित्य तथा चारुत्व को अन्यतम बताते हुए छंद-साधना का महत्व प्रतिपादित किया। वरिष्ठ पत्रकार श्री मोहन शशि ने कृति के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला।

विश्ववाणी हिंदी संस्थान के सभापति छंदाचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने छंद को नाद ब्रह्म प्रणीत उच्चार से जन्मा बताते हुए वर्ण तथा मात्रा को उसका भौतिक लक्षण बताया। सोरठा छंद के इतिहास तथा महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए वक्ता ने कलबाँट पर प्रकाश डाला। कृति के विमोचन पर्व पर कृति के विविध पक्षों का विवेचन संस्थाध्यक्ष नवगीतकार बसंत शर्मा, छाया सक्सेना 'प्रभु', डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव दतिया, डॉ. संगीता भारद्वाज भोपाल, रश्मि चतुर्वेदी दिल्ली, निशि शर्मा दिल्ली सरला वर्मा भोपाल ने किया। कार्यक्रम का सरस संचालन बसंत शर्मा ने, सरस्वती वंदना का गायन अर्चना गोस्वामी ने तथा आभार प्रदर्शन डॉ. मुकुल तिवारी ने किया।

कार्यक्रम का समापन कविगोष्ठी से हुआ जिसमें सर्वश्री अजय मिश्रा के संचालन और श्री विनोद नयन की अध्यक्षता में नगर के प्रमुख कवियों ने काव्य पाठ किया।

*
सरस सोरठा छंद
*
वंदन गुरु-विघ्नेश, प्रणति वास-कुल देव को।
हे शारद-इष्टेश, चित्रगुप्त प्रभु वरद हो।।
नमन नर्मदा मात, गढ़ा-मंडला भू नमन।
मिला सलिल को गात, नगर जबलपुर आ बसा।।
हे पिंगल आचार्य, करें कृपा नंदिकेश्वर।
सध पाए शुभ कार्य, हो सहाय शब्दाsक्षर।।
हैं सुरेश अध्यक्ष, रक्षण वर्मा कर रहे।
कृष्ण कांत ले पक्ष, शशि अमृत बरसा रहे।।
इला कर रहीं धन्य, सु मन सुमन लालित्य मय।
छाया मुकुल बसंत, तरुण अरुण शैली नवल।।
हरि सहाय है आज, आशा पा अमरेंद्र से।
छंद सोरठा खास, रचें-सुनें संतोष हो।
सरस सोरठा छंद, सोरठ की है विरासत।
दे अनुपम आनंद, झूम सहेजें अमानत।।
सोरठ भूमि पवित्र, जन्म सोरठा को दिया।
जैसे महके इत्र, वैसे महका सोरठा।।
सौराष्ट्री दोहा मिला, डिंगल में शुभ नाम।
हिन्दी अञ्चल में खिला, ले लालित्य ललाम।।
छंद सोरठा खास, प्रति पद चौबीस मात्रा।
भाव रचाते रास, शब्द करें नव यात्रा।।
दो पद हैं दिन-रात, चार चरण वर्ण-आश्रम।
रुद्र-शुद्धि यति भात, वरे सोरठा विषम-सम।।
लिए सोरठा छंद, सम संख्या के चौ चरण।
जग जीवन आनंद, क्रम बदलें सम-विषम का।।
ग्यारह-तेरह बाद, हो विराम या यति रखें।
गुरु-लघु रखिए तात, विषम चरण के अंत में।।
सम चरणों के अंत, तुकबंधन होता नहीं।
सम-सम में है तंत, विषम-विषम रखिए कला।।
द्वै-त्रै-चौ दुहराव, कला कलाकारी करे।
खे लय-नद रस-नाव, गति-यति साधे कवि तरे।।
बन जाता रच मीत, दोहा उल्टे सोरठा।
काव्य-सृजन शुभ रीत, कविगण रचकर लुभाते।।
रचिए विविध प्रकार, न्यून न हो लालित्यता। 
करें भाव साकार, मन मोहे चारुत्वता।।
सम तुकांतता साध, चारों चरण अगर रचें। 
कथ्य प्रथम आराध, लय-गण दोषों से बचें।।
सम तुकांत अनिवार्य, गुरु-लघु विषम पदांत में। 
पूरा करिए कार्य, हो संतोष तभी तनिक।।
  
शब्द वर्ण उच्चार, त्रय तुकांत ले सोरठा। 
लिखिए विविध प्रकार, पढ़िए-गुनिए ले मजा।।
दोहे के इक्कीस, हैं प्रकार सब जानते। 
एक न उन्निस-बीस, सब प्रकार मन मोहते।।
*
गुरु रख दो से बीस, रच इक्कीस प्रकार के। 
छंद सोरठा टीस, मन में शेष न रह सके।।
 
हर रस करता रास, साथ सोरठा छंद के। 
हरता कवि का त्रास, दे अनुपम आनंद भी।।
साक्षी नौ सौ साल, गाथा सोनल की करुण।
गा-रो पीटे भाल, छंद सोरठा विलक्षण।।
श्रेष्ठ सोरठाकार, तुलसीदास-रहीम हैं।
कालजयी उद्गार, व्यक्त बिहारी ने किए।।
हिंदी रत्नागार, रत्न सोरठा सतसई।
पाकर दे उजियार, नित नव रचनाकार को।।
चले सतत अभियान, छंद सृजन का अहर्निश।
रचें छंद -रस-खान, हों रस-निधि रस-लीन हम।।
अनगिन दोहाकार, दोहावलियाँ लिख गए।
मिलें अनेक प्रकार, सहस्त्रई-सतसई भी।।
दिखी सोरठावली, हिन्दी में मुझको नहीं।
लिखी-लिखा सतसई, सलिल संग संतोष ने।।
‘प्रज्ञा’ प्रज्ञावान, लगनशील हैं; श्रमी भी।
शिष्या हैं मतिमान, ग्रहण करें संकेत हर।।
युवकोचित उत्साह, बाधक उम्र न हो सके।
मिले न धीरज-थाह, कदम-कदम बढ़ती चलें।।
कच्छप अरु खरगोश, है जीवित दृष्टांत यह।
हुआ पराजित जोश, संयम ने पाई विजय।।
है सचमुच संतोष, नया काम कुछ हो सका।
हिंदी शारद-कोष, हो समृद्ध कोशिश यही।।
गुरु देते आशीष, शिष्य शतगुण यशी हो।
कृपा करें जगदीश, नित मनचाहा पा सकें।।  
• ३४ 
सोरठा

सोरठा छंद अर्धसममात्रिक छंद हैं, सोरठा छंद के विषम अर्थात प्रथम और तृतीय चरणों में ११-११ मात्राएँ तथा सम अर्थात दूसरे और चौथे चरणों में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। इसलिए कहते हैं 'दोहा उलटे सोरठा'। तदनुसार सोरठा के प्रथम और तृतीय चरण के अंत में एक गुरु और एक लघु होता है। दूसरे- चौथे चरण के अंत में लघु गुरु या तीन लघु होते है, किंतु गुरु-लघु वर्जित है। सोरठा का पदांत रगण (२१२)से हो तो ले सहज होती है |

भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने पूर्वज श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था-

तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः।
भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:॥


सोरठा में पहले तथा–तीसरे चरणों की समान तुक अनिवार्य है पर दूसरे-चौथे चरणों में समतुकांत स्वैच्छिक है। सोरठे में कल बाँट दोहे की ही तरह अर्थात समकल-समकल या विषमकल विषमकल होना चाहिए।

जिहि सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

कुंद इंदु सम देह , उमा रमन करुनायतन ।
जाहि दीन पर नेह , करहु कृपा मर्दन मयन ॥

तुलसीदास जी ने सोरठों में विषम चरण में सम तुकांत रखने के साथ सम चरणों में भिन्न सम तुकांत रखा है किंतु महाकवि रहीम ने सैम चरण में सम तुकांत नहीं रखा है।

रहिमन मोहि न सुहाय , अमिय पियावत मान बिन। जो विष देत बुलाय , प्रेम सहित. मरिबो भलो ||

रोला और सोरठा, दोनों में २४-२४ मात्राएँ तथा ११-१३ मात्राओं पर विराम होता है, अंतर यह है कि रोला सममात्रिक छंद है, सोरठा अर्धसममात्रिक छंद हैं।

अपवाद

तुलसी के एक सोरठे में विषम चरण में भी भिन्न तुकांत है -

सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुणा अयन, चितै जानकी लखन तन॥

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

सॉनेट, शारदा,तुम,श्रीमद्भागवत रसामृतम्,विनोद शास्त्री,मुक्तक, त्रयोदशी छंद,नवगीत,दोहा,नदी,अमरनाथ,श्यामलाल उपाध्याय,

सॉनेट
शारदा
*
हृदय विराजी मातु शारदा
सलिल करे अभिषेक निरंतर
जन्म सफल करता नित यश गा
सुमति मिले विनती सिर, पग धर

वीणा अनहद नाद गुँजाती
भव्य चारुता अनुपम-अक्षय
सातों स्वर-सरगम दे थाती
विद्या-ज्ञान बनाते निर्भय

अपरा-परा नहीं बिसराएँ
जड़-चेतन में तुम ही तुम हो
देख सकें, नित महिमा गाएँ
तुमसे आए, तुममें गुम हों

सरस्वती माँ सरसवती हे!
भव से तार, दिव्य दर्शन दे
४-२-२०२३
•••
पुस्तक परिचय
श्रीमद्भागवत रसामृतम् - सनातन मूल्यों एवं मान्यताओं का कोष
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण - श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विधा आध्यात्मिक समालोचना, लेखक - व्याकरणाचार्य डॉ. विनोद शास्त्री, आवरण सजिल्द क्लॉथ बाइंडिंग, आकार २५ से.मी. x २१ से.मी., द्वितीय संस्करण बसंत पंचमी २०२१, पृष्ठ संख्या ८००, मूल्य रु ७४०/-, प्रकाशक भागवत पीयूषधाम समिति दिल्ली।]
*
पुस्तकें मनुष्य की श्रेष्ठ मित्र और मार्गदर्शक हैं। मानव जीवन के हर मोड़ पर पुस्तकों की उपादेयता होती है। अधिकांश पुस्तकें जीवन के एक सोपान पर उपयोगी होने के पश्चात् अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं किन्तु कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती है जो सतत सनातन ज्ञान सलिला प्रवाहित करती हैं। ऐसी पुस्तकें मित्र मात्र नहीं पथ प्रदर्शक और व्यक्तित्व विकासक भी होती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है 'श्रीमद्भागवत रसामृतम्'। वास्तव में यह ग्रंथराज है। महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत श्रीमद्भागवत महापुराण पर की कथा को सात भागों में विभाजित कर साप्ताहिक कथा वाचन की उद्देश्य पूर्ति इस ग्रंथ ने की है। ग्रंथकार डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत पर ही शोधोपाधि प्राप्त की है। यह ग्रंथ प्रामाणिक और सरस बन पड़ा है।
ग्रंथारंभ में श्रीगोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती आशीष देते हुए लिखते हैं- 'डॉ. विनोद शास्त्री महाभागके द्वारा विरचित श्रीमद्भागवत रसामृतम् (साप्ताहिक कथा) आस्थापूर्वक अध्ययन, अनुशीलन और श्रवण करने योग्य है। श्री शास्त्री जी ने अत्यंत गहन विषय को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में शब्द विमर्श सहित तात्विक विवेचन के माध्यम से दार्शनिक भाव व्यक्त किए गए हैं।' रमणरेती गोकुल से जगद्गुरु कार्ष्णि श्री गुरु शरणानंद जी महामंडलेश्वर के शब्दों में - 'ग्रंथ में दुरूह स्थलों एवं प्रसंगों को अत्यंत सरल शब्दों एवं भावों में व्यक्त किया गया है। बीच-बीच में संस्कृत श्लोकों की व्याख्या एवं वैयाकरण सौरभ दृष्टिगोचर होता है। रणचरित मानस एवं भगवद्गीता के उद्धरण देने से ग्रंथ की उपादेयता और भी बढ़ गई है। जगद्गुरु द्वाराचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्रदास जी के अनुसार 'श्री वंशीधरी आदि टीकाओं का भाव, सभी प्रसंगों का सरल तात्विक विवेचन, प्रत्येक स्कंध, अध्याय, प्रमुख श्लोकों का व्याख्यान इस ग्रंथ का अनुपम वैशिष्ट्य है। इस अनुपम ग्रंथ की श्री गोदा हरिदेव पीठाधीश्वर जगद्गुरु देवनारायणाचार्य, स्वामी श्री किशोरीरमणाचार्य जी, मारुतिनन्दन वागीश जी, कृष्णचन्द्र शास्त्री जी जैसे विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
ग्रंथ में श्रीमद्भागवद माहात्म्य के पश्चात् बारह स्कन्धों में कथा का वर्णन है। माहत्म्य के अंतर्गत नाद-भक्ति संवाद, भक्ति का कष्ट विमोचन, गोकर्ण की कथा, धुंधकारी की मुक्ति तथा सप्ताह यज्ञ की विधि वर्णित है। प्रथम स्कंध में भगवद्भक्ति का माहात्म्य, अवतारों का वर्ण, व्यास-नारद संवाद, भागवत रचना, द्रौपदी-सुतों का वध, अश्वत्थामा का मान मर्दन, परीक्षित की रक्षा, भीष्म का देह त्याग, कृष्ण का द्वारका में स्वागत, परीक्षित जन्म, धृतराष्ट्र-गांधारी का हिमालय गमन, परीक्षित राज्याभिषेक, पांडवों का स्वर्ग प्रस्थान, परीक्षित की दिग्विजय, कलियुग का दमन, शृंगी द्वारा शाप तथा शुकदेव द्वारा उपदेश वर्णित हैं। दूसरे स्कंध में ध्यान विधि, विराट स्वरूप, भक्ति माहात्म्य, शुकदेव द्वारा सृष्टि वर्णन, विराट रूप की विभूति का वर्णन, अवतार कथा, ब्रह्मा द्वारा चतुश्लोकी भगवत तथा भागवत के दस लक्षण समाहित हैं। तृतीय स्कंध में उद्धव-विदुर भेंट, कृष्ण की बाल लीला, विदुर - मैत्रेय संवाद, ब्रह्मा की उत्पत्ति, सृष्टि व काल का वर्णन, वाराह अवतार, जय-विजय कथा, हिरण्याक्ष- हिरण्यकशिपु प्रसंग, देवहूति-कर्दम प्रसंग, कपिल जन्म, सांख्ययोग, अष्टांग योग, भक्तियोग आदि प्रसंग हैं। चतुर्थ स्कंध में स्वायंभुव मनु प्रसंग, शंकर-दक्ष प्रसंग, ध्रुव की कथा, वेन, पृथु तथा पुरंजन की कथाओं का विवेचन किया गया है। पंचम स्कंध में प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि, ऋषभदेव, भारत, राजा रहूगण के प्रसंग, गंगावतरण, भारतवर्ष, षडद्वीप, लोकलोक पर्वत, सूर्य, राहु तथा नरकादि का वर्णन किया गया है। षष्ठ स्कंध में अजामिल आख्यान, नारद-दक्ष प्रसंग, विश्वरूप प्रसंग, दधीचि प्रसंग, वृत्तासुर वध, चित्रकेतु प्रसंग तथा अदिति व दिति प्रसंगों की व्याख्या की गई है।
नारद-युधिष्ठिर संवाद, जय-विजय कथा, हिरण्यकशिपु-प्रह्लाद-नृसिंह प्रसंग, मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, सन्यास धर्म तथा गृहस्थाश्रम महत्व का वर्णन सप्तम स्कंध में है। आठवें स्तंभ में मन्वन्तरों का वर्णन, गजेंद्र प्रसंग, समुद्र मंथन, शिव द्वारा विष-पान, देवासुर प्रसंग, वामन-बलि प्रसंग तथा मत्स्यावतार की कथा मही गयी है। नौवें स्कंध में वैवस्वत मनु, महर्षि च्यवन, रहा शर्याति, अम्ब्रीश, दुर्वासा, इक्ष्वाकु वंश, मान्धाता, त्रिशंकु, हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, श्री राम, निमि, चन्द्रवंश, परशुराम, ययाति, पुरु वंश, दुष्यंत, भरत आदि प्रांगण पर प्रकश डाला गया है। दसवें स्कंध के पूर्वार्ध में वासुदेव-देवकी विवाह, श्री कृष्ण जन्म, पूतनादि उद्धार, ब्रह्मा को मोह, कालिय नाग, चीरहरण, गोवर्धन-धारण, रासलीला, अरिष्टासुर वध, कुब्जा पर कृपा, भ्रमर गीत आदि पतसंग हैं। दसवें स्कंध के उत्तरार्ध में जरासंध वध, द्वारका निर्माण, कालयवन-मुचुकुंद प्रसंग, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न जन्म, शंबरासुर वध, जांबवती व सत्यभाभा के साथ विवाह, सीमन्तक हरण. भौमासुर उद्धार, रुक्मि वध, उषा-अनिरुद्ध प्रसंग, श्रीकृष्ण-बाणासुर युद्ध, राजसूय यज्ञ, शिशुपाल उद्धार, शाल्व उद्धार, सुदामा प्रसंग, वसुदेव यज्ञोत्सव, त्रिदेव परीक्षा लीलाविहार आदि प्रसंगों का वर्णन है। ग्यारहवें स्कंध में यदुवंश को ऋषि-शाप, कर्म योग निरूपण, अवतार कथा, अवधूत प्रसंग, भक्ति योग की महिमा, भगवन की विभूतियों का वर्णन, वर्ण धर्म, ज्ञान योग, सांख्य योग, क्रिया योग, परमार्थ निरूपण आदि प्रसंगों का विश्लेषण है। अंतिम बारहवें स्कंध में कलियुग के राजाओं का वर्णन, प्रलय, परीक्षित प्रसंग, अथर्ववेद की शाखाएँ, मार्कण्डेय प्रसंग, श्रीमद्भागवत महिमा आदि का समावेश है।
डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत के विविध प्रसंगों का वर्णन मात्र नहीं किया अपितु उनमें अन्तर्निहित गूढ़ सिद्धांतों, सनातन मूल्यों आदि का सहल-सरल भाषा में सम्यक विश्लेषण भी किया है। श्रीमद्भागवत के हर प्रसंग का समावेश इस ग्रंथ में है। अध्यायों में प्रयुक्त श्लोकों का शब्द विमर्श, पाठक को श्लोक के हर शब्द को समझकर अर्थ ग्रहण करने में सहायक है। शब्द विमर्श में श्लोक का अर्थ, समास, व्युत्पत्ति आदि का अध्ययन कर पाठक अपने ज्ञान, भाषा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की गुणवत्ता वृद्धि कर सकता है। विविध प्रांगण पर प्रकाश डालते समय श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामचरित मानस से संबंधित उद्धरणों का समावेश कथ्य के मूलार्थ के साथ-साथ भावार्थ, निहितार्थ को भी समझने में सहायक है। दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों को जन सामान्य के लिए सुग्राह्य तथा सहज बोधगम्य बनाने के लिए विनोद जी ने मुख्य आख्यान के साथ-साथ सहायक उपाख्यानों का यथास्थान सटीक प्रयोग किया है। किसी मांगलिक कार्य का श्री गणेश करने के पूर्व ईश वंदना की सनातन परंपरा का पालन करते हुए कृत्यारंभ में मंगलाचरण के अंतर्गत बारह श्लोकों में देव वंदना की गई है। ग्रंथ की श्रेष्ठता का पूर्वानुमान विद्वान् जगद्गुरुओं द्वारा दिए गए शुभाशीष संदेशों से किया जा सकता है।
विनोद जी द्वारा प्रयुक्त शैली के परिचयार्थ स्कंध १, अध्याय ४ से 'विरक्त' का तात्पर्य प्रसंग प्रस्तुत है-
'विष्णो: रक्त: विरक्त:' अर्थात भगवन की भक्ति में अनुरक्त होकर जीवन यापन करो। 'जीवस्यतत्वजिज्ञासा' (भाग. १/२/१०) - जीवन का लक्ष्य है परमात्मा के स्वरूप (तत्व) का ज्ञान करना।
विवेकेन भवत्किं में पुत्रं देहि ब्लादपि।
नोचेत्तयजाम्यहं प्राणांस्त्वदग्रे शोकमूर्छित:।। ३७
आत्मदेव ने कहा- मुझे विवेक से क्या मतलब है? मुझे तो संतान दें। यदि मेरे भाग्य में संतान नहीं है तो अपने भाग्य से दें, नहीं तो मैं शोक मूर्छित हो प्राण त्याग करता हूँ। आत्मदेव - मरने के बाद मेरा पिंडदान कौन करेगा? सन्यासी ने कहा- केवल इतनी सी बात के लिए प्राण त्याग करना चाहते हो। संतान बुढ़ापे में सेवा करेगी, इसकी क्या गारंटी है? आशा ही दुख का कारण है। दशरथ जी के चार पुत्र थे लेकिन अंतिम समय में कोई पास में नहीं था। २० दिन तक तेल की कढ़ाई में शव रखा रहा। इसलिए इस शरीर रूपी पिंड को भगवद्कार्य (सेवा) में समर्पित करो।
उद्धरेदात्म नात्मानं नात्मानमवसादयेत्। (गीता) ६/५
आत्मा से ही आत्मा का उद्धार होगा। याद रखो संतान से तुम्हें सुख मिलनेवाला नहीं है। सन्यासी ने कहा पुत्र ही पिंडदान करेगा, ऐसी आशा छोड़ दो। परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तमेव विदित्वा अति मृत्युं एति नान्य: पंथा: विद्यते अनयाय। शास्त्रों में कहा है- ऋते ज्ञानान्नमुक्ति: बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं मिलती। अपना पिंडदान अपने हाथ से करो। सन्यासी के उपदेश का आत्मदेव के मन पर कोइ प्रभाव नहीं हुआ। तब सन्यासी को ब्राह्मण पर दया आ गई और उन्होंने आम का एक फल आत्मदेव के हाथ में दिया और कहा- जाओ अपनी पत्नी को यह फल खिला दो।
इदं भक्षय पत्न्या त्वं तट: पुत्रो भविष्यति। ४१
सत्यं शौचं दयादानमेकभक्तं तू भोजनम्।। ४२
इस फल के खाने से तुम्हारी स्त्री के गर्भ से एक सुंदर सात्विक स्वभाववाला पुत्र होगा।
वर्षावधि स्त्रिया कार्य तेन पुत्रोsतिनिर्मल:।। ४२
तुम्हारी स्त्री को सत्य, शौच, दया, एक समय नियम लेना होगा। यह कहकर सन्यासी (योगिराज) चले गए। ब्राम्हण ने घर आकर वह फल अपनी पत्नी (धुंधली) के हाथ में दिया और स्वयं किसी कार्यवश बाहर चला गया। कुटिल पत्नी अपनी सखी से रो-रोकर अपनी व्यथा कहने लगी, बोली- फल खाकर गर्भ रहने पर मेरा पेट बढ़ेगा। मैं अस्वस्थ्य हो जाऊँगी। मेरी जैसी कोमल सुकुमार स्त्री से एक वर्ष तक नियम पालन नहीं होगा। उसने उस फल को नहीं खाया, अपने पति से असत्य कह दिया कि मैंने फल खा लिया है।
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं चेति तयेरितं। ५०
धुंधली को पुत्र (फल) प्राप्त करने की इच्छा तो है किंतु बिना दुःख झेले। मनुष्य पुण्य करना नहीं, फल भोगना चाहता है। शास्त्र न जानने के कारण धुंधली ने अनर्थ किया। आत्मा पर बुद्धि का वर्चस्व आ जाता है तो सर्वनाश हो जाता है। पत्नी यदि परमात्मा की और चले तो कल्याण होता है।
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीमं। (दुर्गा सप्तशती)
सरस्वती की कृपा होने पर गृहस्थ को अच्छी पत्नी मिलती है। संतों पर सरस्वती की कृपा होने पर विद्वान बनते हैं। भारतीय पत्नी को पति में ही नारायण के दर्शन होते हैं। पति की सेवा नारायण सेवा ही है। प्रसंग में आगे धुंधकारी कौन है (दार्शनिक भाव), आत्मदेव का चरित्र (दार्शनिक भाव) जोड़ते हुए अंत में धुंधकारी के चरित्र से शिक्षा वर्णित है। विनोद जी ने पौराणिक प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए व्यावहारिक उपयोगिता बनाये रखने में सफलता पाई है।
मानव वह जो कोशिश करता।
कदम-कदम नित आगे बढ़ता।
गिर-गिर, उठ-उठ फिर-फिर चलता।।
असफल होकर वरे सफलता।।
मानव ऐंठे नहीं अकारण।
लड़ बाधा का करे निवारण।
शरणागत का करता तारण।।
संयम-धैर्य करें हँस धारण।।
मानव सुर सम नहीं विलासी।
नहीं असुर सम वह खग्रासी।
कुछ यथार्थ जग, कुछ आभासी।।
आत्मोन्नति हित सदा प्रयासी।।
मानव सलिल-धार सम निर्मल।
करे साधना सतत अचंचल।।
२७-२-२०२२
•••
मुक्तक
हम मतवाले पग पगडंडी पर रख झूमे।
बाधाओं को जय कर लें मंज़िल पग चूमे।।
कंकर को शंकर कर दें हम रखें हौसला-
मेहनत कोशिश लगन साथ ले सब जग घूमे।।
*
मंज़िल की मत फ़िक्र करो हँस कदम बढ़ाओ।
राधा खुद आए यदि तुम कान्हा बन जाओ।।
शिव न उमा के पीछे जाते रहें कर्मरत-
धनुष तोड़ने काबिल हो तो सिय को पाओ।।
*
यायावर राही का राहों से याराना।
बिना रुके आगे, फिर आगे, आगे जाना।।
नई चुनौती नित स्वीकार उसे जय करना-
मंज़िल पर पग धर झट से नव मंज़िल वरना।।
*
काव्य मंजरी छंद राज की जय जय गाए।
काव्य कामिनी अलंकार पर जान लुटाए।।
रस सलिला में नित्य नहा, आनंद पा-लुटा-
मंज़िल लय में विलय हो सके श्वास सिहाए।।
*
मंज़िल से याराना अपना।
हर पल नया तराना अपना।।
आप बनाते अपना नपना।
पूरा करें देख हर सपना।।
२७-२-२०२१
***

छंद सलिला
२९ मात्रिक महायौगिक जातीय, १६ कला त्रयोदशी छंद
*
विधान :
प्रति पद प्रथम / विषम चरण १६ कला (मात्रा)
प्रति पद द्वितीय / सम चरण १३ कला
नामकरण संकेत: कला १६, त्रयोदशी तिथि १३
यति १६ - १३ पर, पदांत गुरु ।
*
लक्षण छंद:
कला कलाधर से गहता जो, शंकर प्रिय तिथि साथी।
सोलह-तेरह पर यति सज्जित, फागुन भंग सुहाती।।
उदाहरण :
शिव आभूषण शशि रति-पति हँस, कला सोलहों धारता।
त्रयोदशी पर व्रत कर चंदा, बाधा-संकट टारता।।
तारापति रजनीश न भूले, शिव सम देव न अन्य है।
कालकूट का ताप हर रहा, शिव सेवा कर धन्य है।।
२२.४.२०१९
*
मुक्तक
सरहद पर संकट का हँसकर, जो करता है सामना।
उसकी कसम तिरंगा कर में, सर कटवाकर थामना।।
बड़ा न कोई छोटा होता, भला-बुरा पहचानना-
वह आदम इंसान नहीं जो, करे किसी का काम ना।।
***
दोहा सलिला
*
नदी नेह की सूखती, धुँधला रहा भविष्य
महाकाल का हो रहा, मानव आप हविष्य
*
दोहा सलिला निर्मला, प्रवहित सतत अखंड
नेह निनादित नर्मदा, रखिए प्रबल प्रचंड
*
कलकल सलिल प्रवाहमय, नदी मिटाती प्यास
अमल विमल जल कमल दल, परिमल हरते त्रास
*
नदी तीर पर सघन वन, पंछी कलरव गान
सनन सनन प्रवहे पवन, पड़े जान में जान
*
नदी न गंदी कीजिए, सविनय करें प्रणाम
मैया कह आशीष लें, स्वर्ग बने भू धाम
*
नदी तीर पर सभ्यता, जन्मे विकसे नित्य
नदी मिटा खुद भी मिटे, अटल यही है सत्य
*
नद निर्झर सर सरोवर, ईश्वर के वरदान
करे नष्ट खुद नष्ट हो, समझ सँभल इंसान


२७-२-२०२०
*#करुण रस चित्रपटीय गीतों में*
*गायक_तलत_महमूद जन्मतिथि २४फरवरी*
~~~~~~~~~~~~~~~~
*दृश्य – ०१ कालजयी फिल्म *‘देवदास’* में शीर्षक भूमिका निभाने वाले *‘दिलीप कुमार’* नदी के किनारे एकाकी बैठे *'पारो'* को याद करते हुये गा रहे हैं...
मितवा, लागी रे ये कैसी
अनबुझ आग
मितवा, मितवा, मितवा... नही आई
लागी रे ये कैसी
व्याकुल जियरा व्याकुल नैना
एक एक चुप में सौ सौ बैना
रह गये आँसू लुट गये रात
मितवा मितवा मितवा...
*दृश्य – ०२ *‘पतिता’* फिल्म में सदाबहार अभिनेता *‘देव आनंद’* अपनी पत्नी बनी अदाकारा *‘उषा किरण’* के सर को अपनी गोद में लेकर सांत्वना देते हुये गा रहे हैं...
हैं सबसे मधुर वो गीत
जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती हैं ख़ुशी
आंसू भी छलकते आते हैं...
*दृश्य – ०३ फिल्म *‘बेवफ़ा’* में हर दिल अजीज *‘राज कपूर’* अभिनेत्री *‘नर्गिस’* के घर के बाहर बैठे उसका इंतजार करते हुये गा रहे हैं...
तू आये न आये तेरी ख़ुशी
हम आस लगाये बैठे हैं...
*दृश्य – ०४ फिल्म *‘सुजाता’* में शीर्षक भूमिका निभा रही संजीदा अदाकारा *‘नूतन’* को एक फोन आता हैं और दूसरी तरह संवेदनशील अदाकार *‘सुनील दत्त’* गा रहे हैं...
जलते हैं जिसके लिये तेरी आँखों के दिये
ढूंढ लाया हूँ वही गीत मैं तेरे लिये...
*दृश्य – ०५ फिल्म *‘एक साल’* हिंदी साइन जगत के महान कलाकार दादामुनि *‘अशोक कुमार’* कमरे में अकेले हैं तभी उन्हें अहसास होता हैं कि कमरे में उनकी आत्मा भी हैं जो उन्हें उनकी भूल का अहसास दिलाने ये गीत गा रही हैं...
करते रहे ख़िज़ाँ से हम सौदा बहार का
बदला दिया तो क्या ये दिया उनके प्यार का
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया?
दिन में अगर चराग जलाए तो क्या किया?*

***
एक रचना
*
जब
जिद, हठधर्मी और
गुंडागर्दी को
मान लिया जाए
एक मात्र राह,
जब
अनदेखी-अनसुनी
बना ली जाए
अंतर्मन की चाह,
तब
विनाश करता है
नंगा नाच
जब
कमर कसकर कोई
दृढ़संकल्पी
उतरता है
जमीन पर,
जब
होता है भरोसा
नायक को
सही दिशा और
गति का
तब
लोगों में सद्भावना
जागती है

भाषणबाज नेताओ
अपने आप पर
शर्म करो
पछताओ
तुम सब सिद्ध हुए
हो नाकारा
और कायर,
अब नहीं है
कोई गाँधी
हम
भारत की संतानें
भाईचारा
मजबूत करें
न डराएँ,
न डरें
राजनीति-दलनीति
जिम्मेदार हैं
दूरियों के लिए
हम बढ़ाएँ
नजदीकियाँ
घृणा की आँधी
रोकें
हमें
अंकित शर्मा के
बलिदान की
कसम है
हम जागें
भड़कानेवाले
नेताओं को
दिखाएँ ठेंगा
देश में कायम करें
अमन-शांति
देश हमारा और
हम देश के हैं
***
कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
तुम्हें पुकारे लेखनी, पकड़ नाम की डोर ।
हे बजरंगी जानिए, तिमिर घिरा चहुँ ओर ।। - आशा शैली
तिमिर घिरा चहुँ ओर, हाथ को हाथ न सूझे
दूर निराशा करें, देव! हल अन्य न सूझे
सलिल बुझाने प्यास, तुम्हारे आया द्वारे
आशा कर दो पूर्ण, लेखनी तुम्हें पुकारे - सलिल
*
२७-२-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुंडलिया
*
तुम्हें पुकारे लेखनी, पकड़ नाम की डोर ।
हे बजरंगी जानिए, तिमिर घिरा चहुँ ओर ।। - आशा शैली
तिमिर घिरा चहुँ ओर, हाथ को हाथ न सूझे
दूर निराशा करें, देव! हल अन्य न सूझे
सलिल बुझाने प्यास, तुम्हारे आया द्वारे
आशा कर दो पूर्ण, लेखनी तुम्हें पुकारे - सलिल
***
सवैया
विधान : प्रति पद २४ वर्ण, पदांत मगण
*
छंद नहीं स्वच्छंद, नहीं प्रच्छंद सहज छा पाते हैं, मन भाते हैं
सुमन नहीं निर्गंध, लुटाएँ गंध, सु मन मुस्काते हैं, जी जाते हैं
आप करें संतोष, न पाले रोष, न जोड़ें कोष, यहीं रह जाते हैं
छंद मिटाते प्यास, हरें संत्रास, लुटाते हास, होंठ हँस पाते हैं
२७-२-२०२०
***
सावरकर
*
सावरकर को प्रिय नहीं, रही स्वार्थ अनुरक्ति
उन सा वर कर पंथ हम, करें देश की भक्ति
वीर विनायक ने किया, विहँस आत्म बलिदान
डिगे नहीं संकल्प से, कब चाहा प्रतिदान?
भक्तों! तजकर स्वार्थ हों, नीर-क्षीर वत एक
दोषारोपण बंद कर, हों जनगण मिल एक
मोटी-छोटी अँगुलियाँ, मिल मुट्ठी हों आज
गले लगा-मिल साधिए, सबके सारे काज
२६-२-२०२०
•••
समीक्षा
दोहा सलिला निर्मला : संदर्भ ग्रंथ की तरह पठनीय-संग्रहणीय संकलन
समीक्षक- अमरनाथ, लखनऊ
*
[ दोहा सलिला निर्मला, सामूहिक दोहा संकलन, संपादक-द्वय श्री संजीव वर्मा ‘सलिल’ एवं डॉ. साधना वर्मा, २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, प्रकाशक: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, समन्वय प्रकाशन, अभियान, जबलपुर।]
*
विषय वस्तु:
इस संकलन में १५ दोहाकार के दोहे संकलित हैं, जिनमें ४ महिलायें हैं, सुश्री नीता सैनी, रीता सिवानी, शचि भवि, तथा सरस्वती कुमारी। शेष ११ दोहाकार है सर्वश्री- अखिलेश खरे 'अखिल', अरुण शर्मा, उदयभानु तिवारी मधुकर, ओम प्रकाश शुक्ल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. नीलमणि दुबे, बसंत शर्मा, रामकुमार चतुर्वेदी, शोभित वर्मा, हरि फैजाबादी, हिमकर श्याम। इन १५ दोहाकारों में ०७ म.प्र. से, ०२ दिल्ली, ०२ उ.प्र. व एक-एक महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, अरुणांचल तथा झारखंड प्रदेश से हैं। प्रत्येक दोहाकार के लगभग १००-१०० दोहे संकलित किए गये हैं। पहले दो पृष्ठों में प्रत्येक दोहाकार का विस्तृत परिचय दिया गया है। इनमें ११ दोहाकार के १००-१००, दो के ९९-९९ तथा दो के १०१-१०१ दोहे हैं। इस प्रकार पूरी कृति में सहभागियों के १५०० दोहे हैं। १६० पृष्ठीय इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे एक-एक दोहा संपादक द्वारा स्वयं लिखा गया है जो इस पुस्तक रूपी रमणी के पैरों में पाजेब की तरह छनछना रहे हैं। पुस्तक के प्रारंभ में काव्य रसों और दोहे के वैशिष्ट्य पर सुंदर आलेख संपादक द्वारा दिया गया है। मुखावरण बहुरंगी और सुंदर है। मूल्य २५० रुपये है।
इन दोहों में प्रेम के दोनों रूप, नारी सौंदर्य, राष्ट्रीय चेतना, भारतीय कानून, राजनीति, भ्रष्टाचार, आरक्षण, भारतीय देवी-देवता, भक्ति, गंगा-यमुना, जल और जल संरक्षण, प्रदूषण, गुरु महिमा, चाय, योग, वेदांत और अध्यात्म, ऋतुएँ, बरसात, सावन, त्योहार, हिंदी भाषा, रंगमंच, मोबाइल, सामाजिक सरोकार, सामाजिक रिश्ते, सर्वजन हिताय, हितोपदेश आदि विविध विषयों पर कलम सहभागियों की कलम चली है।
भाव पक्षः-
दोहा ही एकमात्र ऐसा छंद है जिसे जितना दुहा जाए, यह उतना ही मक्खन देता है। वीरगाथा काल के दोहों में वीर रस की प्रधानता थी तो भक्ति काल में भक्ति रस और नैतिकता की। रीतिकाल ने श्रृंगार में डुबोया तो इस आधुनिक काल में जीवन की दैनंदिनी, सामाजिक सरोकार,और जीवन की विषमतायें फूट-फूट कर सामने आने लगी हैं। इस पुस्तक के अधिकांश दोहों में वीर, श्रृंगार और भक्ति का तो कहीं-कहीं छींटा मात्र है। सामाजिक समस्याएँ, समुद्री लहरों की तरह उद्वेलित होती हुई नजर आ रही हैं। गिरते हुए नैतिक मूल्य ढोल पीट रहे हैं और प्रदूषण की सुरसा अपना मुख खोले हुए खड़ी नजर आ रही है। अत्यंत उच्चकोटि का भाव संप्रेषण है इन दोहों में। आइए एक-एक रचनाकार को देखते हैं-ं
१.श्री अखिलेश खरे 'अखिल'
अखिल जी ने अपने दोहों में विविध रंग बिखेरे हैं। ऋतु, सामाजिक विसंगतियाँ, मानवीय चरित्र, ग्रामीण जीवन, वृ़क्ष संरक्षण नशा आदि को लेखनी का विषय बनाया है। इनके दोहों में शाब्दिक मनोहरता है और प्रेरणा भी।
गाँव, शहर जब से बना, दुआ-सलामी गोल।
गलियों-गलियों पर चढ़े, कंकरीट के खोल।।
श्रम-सीकर से बन गया, कुर्ते पर जो चित्र।
भारत का नक्शा बना, कुर्ता हुआ पवित्र।।
नशे-नशे में हो गई, बहुत नशीली बात।
घूँसों की होने लगी, बेमौसम बरसात।।
२. श्री अरुण शर्माः-
अपवादों को छोड़कर, आपकी भाषा सामान्यतः प्रांजल और संस्कारित है। आपने वेदांत, नैतिकता, परोपकार और मानवीय प्रेम को अपनी रचना का आधार बनाया है। यत्र-तत्र अन्य विषय भी छुए हैं।
अंतर में छलछद्म है, बाह्य आचरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध?
ढल जाएँगें एक दिन, उम्र, रूप मृदु देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, है मिट्टी का गेह।।
राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोच समझकर पैर रख, राह नहीं अनुकूल।।
३. श्री उदयभानु तिवारी मधुकरः-
आप एक मात्र दोहाकार हैं जिन्होंने केवल एक विषय चुना है और वह है कृष्ण रासलीला। बहुत माधुर्य बिखेरा है उन्होंने अपने दोहों में। उनके एक दोहे की बानगी देखिये जिसमें अनुप्रास, यमक और उपमा की बेजोड़ त्रिवेणी बहा दी है।
नृत्यलीन घनश्याम जी, लगते ज्यों घनश्याम।
गोरी सखियाँ दामिनी, सोहें रजनी याम।।
४. श्री ओमप्रकाश शुक्लः-
आपके दोहों में जहाँ एक ओर सहजता व मधुरता है वहीं व्यंग्य और स्पष्टवादिता भी है। भारतीय राजनीति, भारतीय संविधान, भारतीय रिश्ते, नदी-प्रदूषण, चापलूसी जैसे बिंदुओं पर अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य और अनुप्रास का एक सुंदर उदाहरण देखें।
वाह वाह का दौर है, वाह वाह बस वाह।
झूठ-मूठ की आह है, झूठ-मूठ की चाह।।
भारतीय राजनीति पर आपका व्यंग्य-
लूटें दोनों हाथ से, दोनों पक्ष विपक्ष।
सगा देश का कौन है, प्रश्न बना यह यक्ष।।
५. श्री जयप्रकाश श्रीवास्तवः- आपके दोहों में बिंब, प्रतीक और अलंकारों का समावेश नए ढंग से किया गया है जो नई कविता की ओर इंगित करता है। शहद जैसी मिठास है आपके दोहों में। प्रकृति, ऋतु. पानी, मँहगाई, सामाजिक नैतिक मूल्यों का पतन आदि विषयों को आपने अपने दोहों की देह बनाया है। आपके दोहों की बानगी देखिये।
पानी-पानी हो गया, मौसम पानीदार।
पानी पानी से मिला, पानी सब संसार।।
किरणों की ले पालकी, सूरज बना कहार।
ऊषा कुलवधु सी लगे, धूप लगे गुलनार।।
हवा हो गई बाँसुरी, बादल हुआ मृदंग।
बिजली पायल बाँधकर, नाचे बरखा संग।।
६. सुश्री नीता सैनी:-
माँ, बेटी, गंगा और हिंदी भाषा पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। अन्य विषय भी छुए हैं। सरलता और स्पष्टवादिता आपकी लेखन शैली में है। वसुधैव कुटुम्बकम! की भावना भी दृष्टिगोचर होती है। उपमा और भक्ति के सम्मिश्रण पर उनकी रचना की बानगी देखिये।
माँ गंगा की धार है, तन-मन करे पवित्र।
ममता से बढ़ कौन सा, इस दुनिया में इत्र।।
कन्या-हत्या पर उनका आक्रोश काबिले-तारीफ है।
जो कन्या को मारते, उनका सत्यानास।
जो कन्या को पूजते, वे सच्चे हरिदास।।
हिंदी बिंदी हिंद की, मस्तक की है शान।
झंकृत मन के तार कर, करे शांति का गान।।
७. डॉ.नीलमणि दुबे:-
बसंत, होली, वर्षा, नवसंवत्सर, भ्रष्टाचार, नवदुर्गा, दिन, ग्रामीण जीवन, आदि विषयों पर आपकी विद्वता देखते ही बनती है। आपने बघेली दोहे भी लिखे हैं। भाषा सरल और मधुरिमायुक्त है। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग कुशलता के साथ किया है। अपनी बात को समझाने के लिए नए-नए बिंबों का प्रयोग किया है।
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
गाँव-गाँव पीड़ा बसी, गली-गली संत्रास।
शहर-शहर आतंक है, नयन-नयन में प्यास।।
एक बघेली दोहा भी देखें-
कनिहाँ टूटै देत माँ, लेत नहीं परहेज।
फइला कोढ़ समाज के, घिनहाँ बहुत सहेज।।
८. श्री बसंत कुमार शर्मा-
हिंदू देवी देवता, धर्मान्धता, आरक्षण, जवान, बारिश, गरीबी, भारतीय जीवन शैली, आदि अनेक विषयों पर आपने अपनी कलम चलाई है। दोहों में छंद विधान को अपनाने में सजगता बरती गई है। अलंकारों का चमत्कारिक प्रयोग किया गया है। यमक की छटा तो देखते ही बनती है।
चाँद निरखता चाँद को, मधुर सुहानी रात।
आपके व्यंग्य की एक बानगी देखें-
नालों के भी आजकल, बढ़े हुए है भाव।
जबरन घर में घुस हमें, दिखा रहें हैं ताव।।
९.श्री राम कुमार चतुर्वेदी-
आपके दोहे हास्य रस प्रधान है।। मूलतः चमचागिरी पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। आपके जीवन परिचय को पढ़ने पर एक कालजयी व्यक्तित्व के दर्शन हुए। असाधारण जीवट समेटे हुए है यह मटियारी देह।
तिस पर हास्य। ग़ज़ब है, नमन है इस जीवटता को। आपकी रचनाओं में व्यंग्य और हास्य की संतुलित कॉकटेल है। विनोद, चुटीलापन और कचोट की त्रिवेणी बह रही है आपकी रचनाओं में। अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है।
चम्मच जिनके पास है, चम्मच उनके खास।
जिनसे चम्मच दूर है, उनको मिलता त्रास।।
गधे भर रहे चौकड़ी, कुत्ते मारें लात।
दबी फाइलें खोल दें, चम्मच में औकात।।
१०. सुश्री रीता सिवानी:-
हिंदी भाषा, हिंदू देवी-देवता, नारी, जल संरक्षण, मित्रता, योग आदि विषयों पर आपने बड़ी बेबाकी से लिखा है आपने। आपकी रचनायें भावप्रधान और यथार्थ का पुट लिए हुए है। सामाजिक कुरीतियों पर चोट की है।
हिंदी बिंदी हिंद की, सजी हिंद के भाल।
बैठी लेकिन ओढ़ कर, अंग्रेजी का शाल।।
घबराना मत हार से, नींव जीत की हार।
बिना दूध मंथन किए, मक्खन बने न यार।।
११. सुश्री शुचि भविः-
आपने लगभग सभी दोहों में अपने भवि नाम का उपयोग किया है। भ्रष्टाचार, मोबाइल, वेदांत, खाद्य प्रदूषण, संवत्सर, आदि विविध विषयों पर दोहे लिखे हैं। यथार्थ, तथ्य और सत्य को सपाटबयानी से कहना आपकी विशिष्टता है।
नाकाफ़ी इस दौर में, ‘भवि’ जी तोड़ प्रयास।
चाटुकारिता के बिना, रखो नहीं कुछ आस।।
कथनी-करनी है अलग, जिनकी मेरे ईश।
न्याय करेंगे किस तरह, ‘भवि’ वो न्यायाधीश।।
१२. श्री शोभित वर्माः-
माता-पिता, गुरु, वृक्ष संरक्षण, राष्ट्रीय चेतना, राजनीति, कर्म, आयुर्वेद आदि विषयों पर आपने उत्तम श्रेणी के दोहे लिखे हैं। आपकी रचनाओं में संचेतना, प्रेरणा और राष्ट्रीय चेतना भी है।
दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप।
देश बदलना है अगर, यत्नशील हों आप।।
किसे फिक्र है वतन की, बनते सभी नवाब।
रोटी चुपड़ी चाहिए, मिलता रहे कबाब।।
जाति-धर्म के नाम पर, मचते रहे बवाल।
जाति-धर्म इसे क्या मिले, पूछो जरा सवाल।।
दोंहों में कहीं-कहीं भावों का दुहराव भी है।
महाशक्ति भारत बने, (पृष्ठ १२५ पर पर दो बार), दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप। (पृष्ठ १२३),
मढ़ें दोष सरकार पर, करते नित्य विलाप। (पृष्ठ १२६)
१३. श्रीमती सरस्वती कुमारी:-
गुरु, नारी, माँ-बाप, विरह, मिलन, शादी, क्षणभंगुरता आदि विषयों पर आपने दोहे लिखे हैं। श्रृंगार रस में लिखे दोहों को पढ़कर महाकवि बिहारी जी की याद आ जाती है। अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है।
पिया मिलन की रात री! होगा मृदु अभिसार।
घूँघट का पट खोलकर, दूँगी तन-मन वार।।
गुल गुलाब पर है फिदा, गुल गुलाब हैरान।
गुल से गुल है कह रहा, तू ही मेरी जान।
१४. डॉ.हरि फैजाबादी:-
हिंदू देवी-देवता, पारस्परिक व्यवहार, मित्रता,सामाजिक विद्रूपता आदि विषयों पर अपनी रचनाधर्मिता निबाही है। स्पष्टवादिता, सरलता और सादगी के साथ ही भाषा पर पकड़ देखते ही बनती है। आपके दोहों में उर्दू का प्रयोग अधिक है।
कुत्तों को भी आदमी, जैसी ही तकदीर।
कोई जूठन खा रहा, कोई मुर्ग-पनीर।।
रिश्ता यूँ होता नहीं, कोई अमर-बुलंद।
गुल मरते हैं तब कहीं, बनता है गुलकंद।।
१५. .हिमकर श्याम:-
राष्ट्रीय चेतना, वोट, नदी प्रदूषण, धर्म निरपेक्षता, दीवाली, मजदूर, हिंदी भाषा आदि विषयों पर दोहे लिखे हैं। उनके दोहों में सामाजिक विद्रूपता व आक्रोश स्पष्ट झलकता है।
आँखों का पानी मरा, कहाँ बची है शर्म?
सब नेता बिसरा रहे, जनसेवा का कर्म।।
हिंदी हिंदुस्तान की, सदियों से पहचान।
हिंदी जन मिलकर करें, हिंदी का उत्थान।।
भूखे बच्चों के लिए, क्या होली,क्या रंग?
फीके रंग गुलाल हैं, जीवन है बदरंग।।
कला पक्ष:-
इस पुस्तक के दोहों के भाव उच्च कोटि के होते हुए भी जगह-जगह शिल्प की कमी नजर आती है। चूँकि अधिकांश रचनाकार अभी छंद की सीढ़ियों पर चढ़ ही रहे हैं अतः शिल्प में कमी होना स्वाभाविक है। कहीं-कहीं थोड़े और अभ्यास की जरूरत महसूस हो रही है। इसके विपरीत बहुत सारे दोहे उच्च कोटि के उच्चतम पायदान पर भी हैं। नई शैली, नव कथ्य, नए-नए विषय, नवीन बिंब-योजना, नये-नये उपमान, अलंकारों और रसों के
संतुलित प्रयोग ने इन दोहों को किसी सिद्ध दोहाकार के दोहों से टक्कर लेने योग्य बना दिया है। शिल्प की कमियों में कुछ कमियाँ प्रूफरीडिंग की भी हैं। जहाँ कहीें भी ब्रह्म या ब्रह्मा शब्द का प्रयोग हुआ है, सभी जगह गलत टाइप किया हुआ है। ब्रम्ह या ब्रम्हा ही प्रयुक्त हुआ है। शिल्प की अन्य कमियाँ निम्नवत हैं-
१. दोहे की ११वीं मात्रा लघु न होना- दोहे के दोनों समचरणों की ११ वीं मात्रा को बहुधा दोहाकार लघु रखते चले आ रहे हैं। कतिपय दोहाकार विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु रखने के तर्क को नहीं मानते। श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘भानुकवि‘ ने अपने छंद प्रभाकर में दोहे के विषम चरण के आदि में जगण का स्पष्ट निषेध किया और इसके अंत में ‘सरन‘ अर्थात सगण रगण, नगण के प्रयोग की सलाह दी जिससे स्वतः ही विषम चरण की ११ वीं मात्रा लघु होती ही है। इससें दोहे की लय भी सुधरती है। आगे भी जब भानुकवि ने दोहे के २३ भेदों को समझाते हुए हरेक के उदाहरण स्वरूप दोहे लिखे हैं तो उनमें भी किसी भी दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा दीर्घ नहीं रखी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु ही रखने में बेहतर लय प्राप्त होगी। अतः, मेरे विचार में दोहे के विषम चरणों की ११ वी मात्रा को लघु ही रखा जाना चाहिए।
श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- झाड़-फूँक की जड़ें हैं पृष्ठ १३, श्री अरुण शर्मा- दशरथ जैसे पिता सौ पृष्ठ २४, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- थकीं गोपियाँ टिकाया पृष्ठ ३४, श्री ओम प्रकाश शुक्ल- माँ-माँ करते बिताया- पृष्ठ ४६, श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव- भोर बाँटती फिरे है पृष्ठ ५३, रात महकने लगी है पृष्ठ ५७, फागुन तन-मन भिगाता, कान पकड़ कर हवा को पृष्ठ ५८, जिन्हें देखकर जरा भी पृष्ठ ५९, सुश्री नीता सैनी- हर घर की है जरूरत, पिएँ अतिथि को पिलाएँ पृष्ठ ६५, माँ शारद की कृपा से, आ! चल कचरा उठाएँ , भू में नीचे उतारे पृष्ठ ६९, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे - लील सड़क पुल इमारत पृष्ठ ७५, नहा मगर मन लगा मत, हँस सूरज ढल जाएगा, शस्य श्यामला धरा ने, प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों पृष्ठ ७६, आँसू में बह जाएगा पृष्ठ ७७, चौराहे पर खड़ा हो, मधुवन-विषधर डँसे री पृष्ठ ७८, श्री रामकुमार चतुर्वेदी भक्ति भाव में रमे है पृष्ठ ९६, नेता चम्मच बताते पृष्ठ ९७, लुढ़के शेयर धड़ाधड़ पृष्ठ ९८, सुश्री रीता सिवानी- स्वार्थ साध बस गया वह पृष्ठ १०७, श्री शोभित वर्मा राम राम जप निरंतर पृष्ठ १२५, राग-द्वेष सब भुला दो पृष्ठ १२७, गीदड़ रहते डरे से, जनता ने तो चुनी थी-पृष्ठ १२९, क्या जनमत का सुनेगा, भारत जैसा मिलेगा, घूम रहे हैं विदेशी पृष्ठ १३०, सुश्री सरस्वती कुमारी- नज़र,नज़र से मिली, जब पृष्ठ १३७, स्वस्थ निरोगी सुखी हों पृष्ठ१४०, डॉ. हरि फैजाबादी- तुम्हें एक त्रुटि बताता पृष्ठ १४४, श्री हिमकर श्याम- हुए न पूरे अभी तक पृष्ठ १५८, माँ श्री उतरी धरा पर, निरख रही माँ यशोदा पृष्ठ १५९ ने ११ वीं मात्रा लघु नहीं रखी है।
२. मात्रा विचलन- दोहे के प्रत्येक विषम चरण में १३ तथा सम चरण में ११ मात्रायें होनी चाहिए। लेकिन कहीं-कहीं दोहाकार इस विधान से चूके हैं।
श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- दुल्हिन सी खेती खड़ी पृष्ठ १५, दरिया दुल्हिन सी सहम पृष्ठ १८, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- पाकर कृष्ण स्पर्श पृष्ठ ३५, राजन मिला न ल़क्ष्मी पृष्ठ ३६, हरि कर-कमल स्पर्श से पृष्ठ ३७, काम धाम अरु चेष्टा पृष्ठ ३८, श्री ओमप्रकाश शुक्ल- निर्णय करता ईश्वर, मध्य रात्रि घनश्याम पृष्ठ ४६, काजल सो नैनन बस्यो पृष्ठ ५०, श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव- नदी गाय सी मरती पृष्ठ ५६, प्रीत हिंडोला झूलती पृष्ठ ५८, सुश्री नीता सैनी- सौर ऊर्जा काम ले पृष्ठ ६९, संस्कार गायब हुए पृष्ठ ७०, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे-
कर सिंगार सकुचा गई, हरसिंगार की डार पृष्ठ ७३, बुद्धि-चित्त विकृत भ्रमित पृष्ठ ७४, सिझा-सिंका जीवन बहुत, अब अमृत बौछार पृष्ठ ७६, जिव्हा अक्सर फिसलती, रवि तनया स्मृति नवल पृष्ठ ७७, लय अनुसारिणी अथच ज्यों पृष्ठ ७९, अइंठ अइंठ रह जांय पृष्ठ ८०, सुश्री रीता सिवानी- बनाने को मजदूर पृष्ठ १०५, भूली अपनी संस्कृति पृष्ठ १०७, पीड़ित दुख दारिद्रय से पृष्ठ ११४, सुश्री सरस्वती कुमारी- रंग रंगीली राधिका पृष्ठ १३३, वर्ण, मात्रा मेल से पृष्ठ १३७, श्री हिमकर श्याम- पर्यावरण की सुरक्षा पृष्ठ १५६, बरसे अमृतधार, अमृतमय पय-पान पृष्ठ १५९।
३. तुकांत दोड्ढ-ंउचय अधिकतर दोहे बहुत अच्छे तुकांत लेकर रचे गये है।लेकिन कहीं-ंकहीं पर समतुकांती बनाने में दोहाकार चूके भी हैं।
श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- छुन्न-किन्न, हर्ष-स्पर्श, युक्त,सिक्त, आभास-सकाश पृष्ठ ३४,३५, ४०। सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे- घाव-छाँव पृष्ठ ७४। श्री रामकुमार चतुर्वेदी पान-पान, दाँव-अलगाव, बाँट-चाट, देश-कैश पृष्ठ ९३-९४, सुश्री सरस्वती कुमारी मौन-गौण पृष्ठ १४०।
४. भाषागत दोष- यद्यपि सभी दोहों में भाषा की शुद्धता का ध्यान रखा गया है, फिर भी कहीं-कहीं कलम चूकी है। अधिकतर दोहाकारों ने अनुस्वार और अनुनासिक में भेद नहीं किया। रंग और रँग तथा संग और सँग एक ही
अर्थ में प्रयोग किया है। जबकि सँग कोई शब्द ही नहीं है। इसी प्रकार 'रंग' (पेंट) संज्ञा है और रँग (टु पेंट) क्रिया है अर्थात रँगना। रंग में तीन मात्रा है तो रँग में दो। केवल मात्रा संतुलन के लिए ही ऐसा किया गया है।
पृष्ठ ३३ पर दो उदाहरण देखें- सुन्दरता निधि संग से, हुआ मनोरथ पूर्ण।, निज देवी सँग देवगण, प्रकटे दिव्य शरीर। -श्री उदय भानु तिवारी मधुकर जी। इन दोनों चरणों में संग और सँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के
लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
पृष्ठ ४३ पर श्री ओमप्रकाश शुक्ल जी का दोहा देखें- ऊषा फगुवा रँग रँगी, संध्या रँगी बसंत।
इसी प्रकार पृष्ठ ५९ पर श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव जी का दोहा देखें-
फूलों के रँग में घुली, मादकता की गंध।
फागुन लेकर आ गया, रंग अबीर गुलाल।।
यहाँ भी रंग और रँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
अधिकतर कवियों ने इसी प्रकार दुःख और दुख शब्द के साथ भी खिलवाड़ किया है। जबकि दुःख में तीन मात्रा और दुख में दो मात्रायें है। हिन्दी कविता में जहाँ तक सम्भव हो केवल हिन्दी शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए।
आँचलिक या अन्य भाषाओं के षब्दों को केवल अपरिहार्यता, उस विशेष शब्द की गुणग्राहकता के कारण ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए या उनको हिंदी ने अपना लिया हो। उर्दू,अंग्रेजी या सधुक्कड़ी शब्दों को हिन्दी कविता में अनावश्यक ठूँसने की बलात कोशिश हिंदी के साथ बलात्कार से कम नहीं मानी जानी चाहिए। नीचे कुछ शब्द दिए / उद्धृत किए जा रहें हैं जो हिन्दी भाषा के नहीं हैं।
अंग्रेजी भाषा के शब्द- बेस्ट, टेस्ट, मूड, फूड, रेट, एजेंट, टेंट, कोचिंग, संडे, नेट, सेट, कंट्रोल, फेसवाश, फेस, बेस।
उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुत किया गया है, लेकिन नुक्ते का ध्यान नहीं रखा गया। कत्लेआम, करार, ख्वाब, गुल, गुलशन, जेहाद, दफ्न, दहशतगर्द, नफीस, नबेर, फिदा, बेपर्द, माकूल, मिजाज, वादे, हद।
नए शब्द जिनका अर्थ नहीं दिया गया- छुन्नक छुन्न, किन्नक किन्न, मुरंद, अथच, इरखा,
अशुद्ध / शुद्ध शब्द- सानिन्ध्य / सान्निध्य पृष्ठ २५, शुद्धीकरण / शुद्धिकरण पृष्ठ ५९, श्रृंगार / शृंगार पृष्ठ६०, १५९, दारिद्र्य / दारिद्रय पृष्ठ ६७, ११४, आल्हाद / आह्लाद पृष्ठ ७३, शरीखी / सरीखी पृष्ठ ११०, कलेश / क्लेश पृष्ठ ६८, १२३।
५. जगण दोष- हिंदी कविता में विशेष तौर से प्रारंभ में जगण शब्दों के प्रयोग को अच्छा नहीं माना गया है। एक स्थान को छोड़, कहीं पर भी इस नियम को भंग नहीं किया गया है। इसीलिए सबसे मधुर, है मन का संगीत। डॉ. हरि फैजाबादी पृष्ठ १४३।
६. लय भंग- दोहे के १३ मात्रिक विषम चरणों में ४, ४, ३, २ अथवा ३, ३, २, ३, २ तथा सम चरणों में ४, ४, ३ अथवा ३, ३, २, ३ मात्राओं का क्रम अपनाया जाए तथा सम-विषम और लघु-गुरु नियमों का ध्यान रखा जाए तो लय भंग होने की सम्भावना नगण्य हो जाती है। अधिकतर दोहे पूर्ण लययुक्त हैं लेकिन कहीं-ंकहीं चूक भी हुई है। मूल लय / वैकल्पिक लय चाल फागुनी पवन सी / चाल पवन सी फागुनी पृष्ठ १८, मिलकर कोशिश यदि करें / यदि मिलकर कोशिश करें या कोशिश मिलकर यदि करें पृष्ठ २९, थोड़ा हर सकते न तो / हर सकते थोड़ा नहीं? पृष्ठ ४७, ओस-बूँद भागी, भिगा, कली कली का रूप / ओस-बूँद भागी, भिगो,कली कली का रूप पृष्ठ ५५, आना जाना सतत है / आना जाना है सतत पृष्ठ ७५।
निम्न परिवर्तन करने से ११ वी मात्रा लघु हो गयी है।
पृष्ठ ७५- नहा,मगर मन लगा मत / नहा, मगर, मन मत लगा पृष्ठ ७८- चौराहे पर खड़ा हो चौराहे पर हो
खड़ा, पृष्ठ ९६- भक्ति भाव में रमे हैं / भक्ति भाव में हैं रमे, पृष्ठ ९८- लुढ़के शेयर धड़ाधड़ / धड़ाधड़ लुढ़के, पृष्ठ १०७- स्वार्थसाध बस गया वह / स्वार्थ साध वह बस गया, पृष्ठ १२७- राग-द्वेष सब भुला दो / राग द्वेष भुला सब दो, पृष्ठ १४०- स्वस्थ,निरोगी सुखी हो / सुखी, निरोगी, स्वस्थ हों।
७. आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग- कवि का सबसे पहला धर्म यह होता है कि उसकी रचना के किसी भी वाक्य या शब्द से किसी व्यक्ति ,समुदाय, जाति विशेष या धर्म को चोट न पहुँचे। पूरी पुस्तक में दो ऐसे दृष्टांत हैं जो किसी किसी वर्ग विशेष को आहत कर सकते हैं - सर्द हवायें आधुनिक, नारी सी उद्दंड (श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव पृष्ठ ५५) तथा कुल कलंक ही हो गये, हरियाणा के जाट (श्री बसंत कुमार शर्मा पृष्ठ ८५) ऐसे वाक्यों से बचा जाना चाहिए।
इसी प्रकार श्री उदयभानु तिवारी मधुकर जी का पृष्ठ ३६ पर दोहा थोड़ा अश्लीलता का पुट लिए है।
हरि के तन से टिक गई, फिर ले उनका हाथ।
निज कुच पर झट रख लिया, झुका लिया लज माथ।।
८. दोहों की पुनरावृत्ति- दो कवियों ने दो-दो दोहे लगभग समान भाव और समान शब्दों को लेकर रचे हैं।
मन के मन में झाँककर, मन से मन की बात। / करो मिलेगी प्रेम की, फिर मनहर सौगात।। श्री उदयभानु तिवारी मधुकर पृष्ठ ४३, , इनका ही पृष्ठ ४५ पर दूसरा दोहा देखें- मन से मन में झाँक कर, कर लो मन की बात।
/ मिल जाएगी आपको, पुनः प्रेम सौगात।।
इसी प्रकार सुश्री शुचि भवि जी के दो दोहे देखें - कृपा सभी पर कीजिए, ईश हमेशा आप। / सद्गुण सबको दीजिये, करे न कोई पाप।। पृष्ठ ११६ एवं ११७।
९. अस्पष्ट दोहा- निम्न दोहे के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है, स्पष्ट नहीं हो सका।
चाय बिना आती नहीं, खुलती नींद, न राम।
चाय के बिना कवि की नींद नहीं खुलती या नींद नहीं आती? यह स्पष्ट नहीं हो सका।
१०. अन्य कमियाँ- व्याकरण सम्बन्धित सामान्य त्रुटियाँ जगह-जगह दृष्टिगत हैं। प्रश्नवाचक, सम्बोधन, आश्चर्यबोधक संयोजक चिह्नों पर अधिकतर असावधानी बरती गयी है। किसी भी कवि ने विषयवार दोहे संकलित नहीं किए। एक विषय पर एक ही कवि द्वारा लिखे गये सभी दोहे एक साथ रखने पर उस विषय को और अधिक गहराई से समझा जा सकता था और तारतम्यता भी भंग नहीं होती। पुस्तक के प्रारंभ मेंदी गई अनुक्रमणिका पर अगर हरेक कवि के नाम के आगे उसके रचित दोहों की संख्या दर्शा दी जाती तो यह स्पष्ट हो जाता कि पुस्तक में कुल कितने दोहे हैं। इसी प्रकार जहाँ पर दोहे प्रकाशित किए गए हैं प्रत्येक दोहे का क्रमांक अंकित होना चाहिए था ताकि किसी विशेष दोहे को उसके क्रमांक के साथ उद्धृत किया जा सके।
उपसंहार- १५ नए और पुराने रचनाकारों को समेटे यह कृति निःसंदेह नवागंतुकों के लिए एक मील का पत्थर है। दोहा लेखन कला से लेकर नवीन बिंब योजना तक है, इस पुस्तक में।
वर्ण, मात्रा मेल से, बनता छंद विधान।
यति गति लय के मिलन से, बढ़ता भाव निधान। (सुश्री सरस्वती कुमारी, पृष्ठ १३७)
चार चरण दो पंक्तियाँ, मात्राएँ चौबीस।
तेरह ग्यारह, बाद यति, दोहा लिखे नफीस।। (श्री बसंत शर्मा, पृष्ठ ८७)
यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय तो है ही, साथ ही नवागंतुकों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ की तरह उपयोगी भी है। इसका स्वागत होना ही चाहिए।
संपर्क: ४०१ उदयन१, बंगला बाजार, लखनऊ
***
एक रचना
यमराज मिराज ने
*
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
कठपुतली सरकार के
बनकर खान प्रधान
बोल बोलते हैं बड़े,
बुद्धू कहे महान
लिए कटोरा भीख का
साड़ी दुनिया घूम-
पाल रहे आतंक का
हर पगलाया श्वान
भारत से कर शत्रुता
कोढ़ पाल ली खाज ने
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
कोई साथ न दे रहा
रोज खा रहे मार
पाक हुआ दीवालिया
फ़ौज भीरु-बटमार
एटम से धमका रहा
पाकर फिर-फिर मात
पाठ पढ़ा भारत रहा
दे हारों का हार
शांति कपोतों से घिरा
किया समर्पण बाज ने
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
*
सैबरजेटों को किया
था नैटों ने ढेर
बोफ़ोर्सों ने खदेड़ा
करगिल से बिन देर
पाजी गाजी डुबो दी
सागर में रख याद
छेड़ न, छोड़ेंगे नहीं
अब भारत के शेर
गीदड़भभकी दे रहा
छोड़ दिया क्या लाज ने?
छोड़ दिए अनालास्त्र
यमराज बने मिराज ने
२६-२-२०१९
***
एक गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद जो
रण जीते
संसद वह हारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
एक रचना :
मानव और लहर
*
लहरें आतीं लेकर ममता,
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटाती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झण्डे रखता खूब
लहर बहाती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चंदन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
'कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
२७-२-२०१८
***
पुस्तक चर्चा
भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी. x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं। वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं। प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।
कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं।
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार।
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।।
आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं। भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है। छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है। 'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।
विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है। उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।
सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।
विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं। ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।
इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।
संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार
यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश
देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान
शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]
यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप
भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ
लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान
लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह
विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।
इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
२७-२-२०१७
***
नवगीत:
जब तुम आईं
*
कितने रंग
घुले जीवन में
जब तुम आईं।
*
हल्दी-पीले हाथ द्वार पर
हुए सुशोभित।
लाल-लाल पग-चिन्ह धरा को
करें विभूषित।
हीरक लौंग, सुनहरे कंगन
करें विमोहित।
स्वर्ण सलाई ले
दीपक की
जोत मिलाईं।
*
गोर-काले भाल-बाल
नैना कजरारे।
मैया ममता के रंग रंगकर
नजर उतारे।
लिये शरारत का रंग देवर
नकल उतारे।
लिए चुहुल का
रंग, ननदी ने
गजल सुनाईं।
*
माणिक, मूंगा, मोती, पन्ना,
हीरा, नीलम,
लहसुनिया, पुखराज संग
गोमेद नयन नम।
नौरत्नों के नौ रंगों की
छटा हरे तम।
सतरंग साड़ी
नौरंग चूनर
मन को भाईं।
*
विरह-मिलन की धूप-छाँव
जाने कितने रंग।
नाना नाते नये जुड़े जितने
उतने संग।
तौर-तरीके, रीति-रस्म के
नये-नये ढंग।
नीर-क्षीर सी मिलीं, तनिक
पहले सँकुचाईं
२७-२-२०१६
***
*
नवगीत:
.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
महुआ महका,
टेसू दहका,
अमुआ बौरा खूब.
प्रेमी साँचा,
पनघट नाचा,
प्रणय रंग में डूब.
अमराई में,
खलिहानों में,
तोता-मैना झूम
गुप-चुप मिलते,
खुस-फुस करते,
सबको है मालूम.
चूल्हे का
दिल भी हुआ
हाय! विरह से लाल.
कुटनी लकड़ी
जल मरी
सिगड़ी भई निहाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
.
सड़क-इमारत
जीवन साथी
कभी न छोड़ें हाथ.
मिल खिड़की से,
दरवाज़े ने
रखा उठाये माथ.
बरगद बब्बा
खों-खों करते
चढ़ा रहे हैं भाँग.
पीपल भैया
शेफाली को
माँग रहे भर माँग.
उढ़ा
चमेली को रहा,
चम्पा लकदक शाल.
सदा सुहागन
छंद को
सजा रही निज भाल.
सूरज
मुट्ठी में लिये,
आया लाल गुलाल.
देख उषा के
लाज से
हुए गुलाबी गाल.
२६.२.२०१५
***

शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

कैसे बोलें? श, ष और स

विमर्श-

कैसे बोलें? श, ष और स

श, ष और स वर्णो के उच्चारण में, उच्चारण स्थानों में और नामों में परस्पर अंतर है।

• वर्ण श,ष और स- ऊष्म ( संघर्षी) स्पर्श व्यंजन हैं। इन्हें ऊष्म या संघर्षी व्यंजन इसलिए कहते हैं, क्योंकि इनके उच्चारण के समय अंदर से आती हुई हवा तालू,मसूढ़े,दाँत और जीभ से रगड़ कर ऊष्मा पैदा करती हुई निकलती है।(बोलकर देखिए)

• वर्ण- श,ष और स को स्पर्श व्यंजन इसलिए कहते हैं ,क्योंकि जब ‘' का उच्चारण करते हैं तब जीभ तालू का स्पर्श करती है ओर इस ‘श’ को तालव्य ‘श' कहते हैं।

जब ष का उच्चारण करते हैंउस समय जीभ मूर्धा का स्पर्श करती है और इसे मूर्धन्य ‘ष' कहते हैं।

जब वर्ण ‘स' का उच्चारण करते हैं, तब जीभ दाँतों का स्पर्श करती है,इसलिए इसे दन्त्य ‘स' कहते हैं।

इस प्रकार तीनों के अलग-अलग नाम इस प्रकार हैं-

1 . तालुव्य -श

इ, ई, च,छ,ज,झ,ञ, य वर्ण भी तालुव्य वर्ण हैं।

(संस्कृत का सूत्र है-इचुयशानाम तालु़ः इस सूत्र से इन्हें आसानी से याद किया जा सकता है)

2. मूर्धन्य- ष

( ऋट,ठ,ड,ढ,ण,र भी मूर्धन्य वर्ण हैं

-ऋटुरषाणाम मूर्धा)

3. दन्त्य - स

लृ,त,थ,द,ध,न,ल भी दंत्य वर्ण हैं।

- लृतुलसानाम दन्ता)

अब इनका उच्चारण अभ्यास-

सबसे पहले इन 5 वर्णों का तीन-चार बार उच्चारण कीजिए और ध्यान दीजिए कि जीभ किस स्थान का स्पर्श करती है—

वर्ण हैं—क, च, ट, त, प

आपने अनुभव किया होगा कि अंदर से आती हुई हवा के साथ‘ क' के उच्चारण में जीभ कंठ का,’च, के उच्चारण में तालू का,’ ट' के उच्चारण में मूर्धा का, ‘त' में दाँत का और ‘ प' के उच्चारण में जीभ होठों का स्पर्श करती है। जीभ क्रमशः बाहर की तरफ अर्थात कंठ से शुरू होकर,तालू,मूर्धा ,दाँत और होठों की ओर आती है।

उच्चारण-अभ्यास—

• पहले इन 8 वर्णों का भी इसी प्रकार 3–4 बार उच्चारण कीजिए —इ, ई, च,  , ज, झ, ञ, य ।

जीभ तालू का स्पर्श कर रही है। ये तालुवय व्यंजन हैं। तालव्य श का उच्चारण भी इन वर्णों जैसा ही होगा। आप जैसे च,छ,ज,झ,ञ, का उच्चारण करते हैं वैसे ही श का उच्चारण करें । जीभ तालू का स्पर्श करे।

अब अभ्यास—

• इ,ई,च,छ,ज,झ,ञ,य,श ( कम से कम १०-१० बार जीभ का ध्यान रख कर अभ्यास करें)

अब इनका बार-बार अभ्यास करें—

इ श,ई श, च श,छ श,ज श,झ श,ञ श,य श

ध्यान इस बात का रखें कि श के उच्चारण में जीभ तालू का स्पर्श करे।

(लगातार अभ्यास से सही उच्चारण करने लगेंगे)

• अब ऐसे ही ‘ट वर्ग'— ट, ठ,ड,ढ,ण और ऋ,र का उच्चारण करें। इनके उच्चारण में जीभ मूर्धा का स्पर्श कर रही होगी। ये मूर्धन्य व्यंजन हैं। इसी प्रकार मूर्धन्य ष का उच्चारण करें।

अभ्यास—

1• ऋ,ट, ठ,ड,ढ,ण,ष, र(१०-१० बार)

2•  ष,  ष,ठ ष,ड ष,ढ ष,ण ष, र ष।

• इसी प्रकार जीभ त वर्ग—त,थ,द,ध,न और लृ, ल के उच्चारण में दाँतों को स्पर्श करती है( ये दन्त्य व्यंजन हैं),वहीं से ही दन्त्य स का उच्चारण करें।

अभ्यास -

1.लृ, त,थ,द,ध,न,ल,स

2• त स,,थ स,द स,ध स, न सल स।

(बंगाली भाषा में ‘स' का उच्चारण ‘श' के समान है । अतः उन्हें हिन्दी के ‘ स'के शुद्ध उच्चारण में सावधानी की आवश्यकता होती है ।)