डॉ. मधुसूदन
सूचना: एकाग्रता बनाए
रखे, और कुछ समझते समझते, धीरे-धीरे पढें, मैं मेरी ओर से पूरा प्रयास करूंगा, विषय को सरल बनाने के लिए। –धन्यवाद।
(१) अर्थवाही भारतीय
शब्द
तेल शब्द कहांसे
आया? तो पढ़ा हुआ स्मरण है, कि तेल शब्द का मूल ”तिल” है। अब तिल को निचोड़ने से जो द्रव निकला उसे 'तैल' कहा गया। यह प्रत्ययों
के नियमाधीन बनता है। जैसे
मिथिला से मैथिल, और फिर मैथिली, विदर्भ से बना वैदर्भ, और फिर
वैदर्भी तो उसी प्रकार तिल से
बना हुआ इस अर्थ में तैल कहा गया। मूलतः तिल से निचोड़कर
निकला इसलिए, उसे तैल कहा, फिर हिन्दी में तैल से तेल हो गया, बेचनेवाला तेली हो गया। इस तेल का अर्थ विस्तार भी हुआ, और आज सरसों, नारियल, अरे मिट्टी का भी तेल
बन गया।
हाथ को
’कर’ भी कहा जाता है, क्यों कि हाथों से काम ”करते” हैं। पैरों को चरण, क्यों कि पैरों से विचरण किया जाता है। आंखों को
’नयन’, इसी लिए, कि वे हमें गन्तव्य की
ओर (नयन करते) ले जाते हैं। ऐसे ऐसे हमारे शब्द बनते चले जाते हैं। यास्क मुनि
निरुक्त लिख गए हमारे लिए।
(२) शब्द कलेवर में
अर्थ
ऐसे, कुछ परम्परा गत शब्दों के उदाहरणों
से, शब्दों के कलेवर में कैसे अर्थ भरा गया
है, यह विशद करना चाहता हूँ। शब्द अपने गठन में अपना अर्थ ढोते हुए चलता
है, या अर्थ वहन कर चलता
है। इस लिए हमारी बहुतेरी शब्द रचना प्रमुखतः अर्थवाही (अर्थ ढोनेवाली)
है। जब शब्द ही
अर्थवाही, (अर्थ-सूचक) हो, तो उसका अर्थ शब्द के उच्चारण से ही प्रकट हो जाता है।
इस कारण, पारिभाषिक शब्दों की
व्याख्याओं को रटना नहीं पड़ता और देवनागरी के कारण स्पेलिंग भी रटना नहीं
पड़ता।
(३) लेखक की
समस्या
कठिनाई यह है, कि जिन उदाहरणों द्वारा, समझाने का प्रयास होगा, उन्हें समझने में भी कुछ शुद्ध हिन्दी या संस्कृत का
ज्ञान आवश्यक है। स्वतंत्रता के बाद संस्कृत को (और हिन्दी) को भी बढ़ावा देना तो
दूर, उसकी घोर उपेक्षा ही हुयी, इसी कारण आप पाठकॊं को भी मेरी बात, स्वीकार करने में शायद कठिनाई हो सकती
है। फिर भी इस विषय पर
लिखने के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं। अतः एकाग्रता बनाए
रखे, और कुछ समझने के लिए धीरे-धीरे पढ़ें, मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास करूंगा, विषय को सरल बनाने के
लिए। इस लेख में कुछ
परिचित, और प्रति दिन बोले जाने
वाले शब्दों के उदाहरण लेता हूँ। पारिभाषिक शब्दों के
उदाहरण, कभी आगे लेख में दिए जा
सकते हैं।
(४) नदी, की शब्दार्थ वहन की
शक्ति
नदी, सरिता, तरंगिणी सारे जल प्रवाह के ही नाम है। नदी का बीज धातु
नद है। संस्कृत में, ”या नादति सा नदी” ऐसी व्याख्या करेंगे। नाद का अर्थ, है ध्वनि या
गर्जना। यहां अर्थ
हुआ, जो प्रवाह कल कल छल छल नाद करता हुआ बहता
है, उसे नदी कहा
जाएगा।
नदी ऐसा नाद किस कारण
करती है? भूगोल में आप ने पढ़ा होगा, कि जब एक प्रवाह पर्वत की ऊँचाई से गिरता
है, तो अल्हड़ बालिका की भाँति, शिलाओं पर टकराते-टकराते एक कर्ण मधुर नाद करता
हुआ, उछल -कूद करते नीचे उतरता है। इस कर्ण मधुर गूँज को ही
नाद संज्ञा दी गयी है। और ऐसी ध्वनि करते करते जो प्रवाह बहता
है, उसे ही नदी कहा जाता है: 'या नादयति सा नदी।' -जो नाद करती
है, वह नदी है। अतः नदी शब्द के अंतर्गत नाद अक्षर जुड़े होना
ही उसका अर्थ वहन माना जा सकता है। इसे ही शब्दार्थ वहन की शक्ति कहा गया है। तो
बंधुओं नदी, जल-वहन ही नहीं पर अपना अर्थ भी वहन कर रही है। अर्थ को
भी ढो रही है। यह हमारी देव वाणी संस्कृत का चमत्कार है। अब यदि आप
पूछेंगे, कि नदी को सरिता क्यों कहा जाता
है?
(५) सरिता
सरिता का शब्द बीज धातु
'सृ' है। अब जब ऊपरी नदी का जल प्रवाह पहाड़ों से समतल भूमि पर उतर आता
है, तो ढलान घटने के कारण, उसकी गति धीमी होती जाती है, और जब और भूमि सपाट होने लगती है, तो, बहाव की गति और धीमी हो जाती है, तो वह प्रवाह सरने लगता है, जैसे कोई सर्प सर रहा
है तो अब उसे नदी नहीं
सरिता नाम से जानेंगे और संस्कृत में व्याख्या करेंगे, ”या सरति सा सरिता”। हिन्दी में, जो सरते-सरते (सरकते-सरकते) बहती है, वह सरिता है। तो पाठकों, बोलचाल की भाषा में हम
सरिता और नदी में भेद नहीं करते पर शब्द बीज दोनों के अलग हैं। इसलिए वास्तव में
अर्थ भी अलग है।
(६)
तरंगिणी
वैसे तथाकथित नदी को
तरंगिणी भी कहा जाता है। किस नदी को तरंगिणी कहा जाएगा?
लहरों को, आप जानते होंगे, तरंग भी कहते हैं। 'तरंग' शब्द भी अपना तैरने का अर्थ साथ लेकर ही है। जो जल-पृष्ठ
पर तैरता है वह तरंग है। यह 'तृ' बीज-धातु से निकला हुआ शब्द है: 'यः तरति सः तरंगः' अर्थ होगा, जिस नदी पर लहरें नाच रही है, उसे तरंगिणी कहा जाएगा। यह सारे शब्द, तरंग, तरंगिणी, तारक, तरणी, अवतार 'तॄ' धातु से निकले
हुए हैं।
”निघंटु” में (नदी) के लिए ३७
नाम गिनाए गए हैं।
निघंटु के पश्चात भी
पाणिनीय विधि से और भी नाम है। निघंटु वेदों के शब्दों का संग्रह है। उसके शब्दों
की व्युत्पत्तियों का शोध करने वाले ग्रन्थों को निरुक्त कहते हैं। यास्क मुनि ने
अतीव तर्क शुद्ध निरुक्त लिखा है।
(७) अर्थ
परिवर्तन
उक्त उदाहरणों से
निष्कर्ष निकलता है कि अर्थ में परिवर्तन
होता रहता है किन्तु यह परिवर्तन की प्रक्रिया सर्वथा ऊटपटांग नहीं होती। अर्थ
विस्तार एक प्रकार की प्रक्रिया है। जो तिल से तेल बनने की प्रक्रिया में दर्शाई
गयी है और भी बहुत उदाहरण
है। कुछ उदाहरण संक्षेप में प्रस्तुत करता हूँ।
(८)प्रवीण
अब, प्रवीण शब्द का विश्लेषण करते हैं। शब्द को देखने से पता
चलता है, कि, यह शब्द वीणा शब्द के अंश 'वीण' के साथ 'प्र' उपसर्ग जोड़कर बना है। प्र+वीण=प्रवीण। संस्कृत में कहेंगे,–>’प्रकृष्टो वीणायाम्’, अर्थ हुआ, 'वीणा बजाने में कुशल व्यक्ति'। इस प्रवीण शब्द का अर्थ विस्तार
हुआ, और किसी भी कला, शास्त्र, या काम में निपुण व्यक्ति को, प्रवीण कहा जाने लगा। कोई झाड़ू देने में
प्रवीण, कोई भोजन पकाने में प्रवीण, कोई व्यापार में प्रवीण। चाहे इन लोगों ने कभी वीणा को
छुआ तक ना हो, फिर भी वे प्रवीण कहाने
लगे।
(९)
कुशल
ऐसा ही दूसरा अर्थ
विस्तृत शब्द हैं, कुशल। कुशल शब्द का अर्थ था
’कुश लानेवाला’ कुश उखाड़ने में सतर्कता से काम लेना पड़ता है। एक तो उसकी
सही पहचान करना, और दूसरे उखाड़ते समय सावधानी बरतना, नहीं तो उसके नुकीले अग्रभाग से उँगलियों के छिद जाने का
भय बना रहता है। आरम्भ में 'कुशल' केवल कुश सावधानी से उखाड़लाने की चतुराई का वाचक था पर
पश्चात किसी भी प्रकार की चतुराई का वाचक बन गया। अब किसी भी काम में चतुर व्यक्ति
को कुशल कहा जाता है। कुश, कुशल, कुशलता, कौशल्य इसी जुडे हुए
शब्द है।
(१०)
कुशाग्रता
इसी कुश से जुडा हुआ
शब्द है ”कुशाग्रता”। कुश का अग्र भाग नुकीला, पैना होता
है। ऐसी पैनी बुद्धि को
कुशाग्रता और ऐसे व्यक्ति को कुशाग्र बुद्धिवाला कहा
जाएगा।
(११) गोरज
मूहूर्त
मुझे और एक शब्द जो
प्रिय है, वह है गोरज मुहूर्त। सन्ध्या का समय है। गांव के बाहर
दूर गौएं, बछड़े इत्यादि चराके वापस लाए जा रहें हैं और गौओं के चरणों तले से रज-धूलि उड़ रही है। इस रजके उड़ने की जो समय घटिका
है, उसका हमारे जिन पुरखों ने 'गोरज-मूहूर्त' नामकरण किया।
वे आज के किसी भी कवि से
कम नहीं होंगे। मुझे तो लिखते-लिखते भी भावुकता से हृदय गदगद हो जाता
है।
(७)संध्या, या
संध्याकाल।
शब्द ही क्या-क्या भाव
जगाता है?
दिवस का अन्त और रात्रि का
आगमन। रात्रि-दिवस का मिलन या सन्धि काल, सन्ध्या कहते ही अर्थ
प्रकट।
(१२) मनः अस्ति स
मानवः
मानव शब्द की व्याख्या
है, 'वही मानव है, जिसे मन है'। मन विचार करने के लिए होता है। संस्कृत
व्याख्या होगी- 'मनः अस्ति स मानवः'। आप जानते होंगे
कि, मन होने के कारण मानव विचार कर सकता है। अन्य प्राणी
विचार करने में असमर्थ है, वे जन्म-जात (Instinct) वृत्ति लेकर जन्म लेते
हैं।
एक दूसरी भी
व्याख्या दी जाती है, मानव की। वह है मनु के पुत्र के नाते ,मानव। जैसे पांडु के पुत्र पांडव, कुरू के कौरव, रघु के पुत्र सारे
राघव। ठीक वैसे ही मनु के पुत्र मानव कहाए।
(१३) उधार शब्द क्यों नहीं?
जो शब्द अंग्रेज़ी
से, उधार लिए जाते हैं, उन में यह गुण होता नहीं है, और होता भी है, तो उसका संदर्भ परदेशी लातिनी या यूनानी होने से हमारी
भाषाओं में वैसा शब्द लड़खड़ाते चलता है। पता चल जाता है, कि शब्द लंगड़ा रहा है, उच्चारण लड़खड़ा रहा है। दूसरा कारण, उस शब्द पर हमारे उपसर्ग, प्रत्यय, समास, सन्धि इत्यादिका वृक्ष (संदर्भ: शब्द वृक्ष) खड़ा नहीं
किया जा सकता। शब्द अकेला ही स्वीकार कर के, स्पेलिंग और व्याख्या
भी रटनी पड़ती है। शब्द अर्थवाही नहीं होता।
(१४) व्यक्ति (अव्यक्त
व्यक्त व्यक्ति )
उसी प्रकार अन्य शब्द
व्यक्ति है, परमात्मा की उत्तम कृति जहाँ व्यक्त होती है, वह व्यक्ति है। जन्म के पहले हम अव्यक्त
थे, जन्मे तो व्यक्त हुए, और मृत्यु के बाद फिर से अव्यक्त में विलीन हो जाएंगे।
इतना बडा सत्य जब हम किसी को 'व्यक्ति' कहते हैं, तो व्यक्त करते
हैं। अंग्रेज़ी में जब हम
इसका अनुवाद Individual करते हैं, तो क्या यह अर्थ व्यक्त होता है? नहीं, नहीं।
ऐसे बहुत सारे उदाहरण
दिए जा सकते हैं।
(१५)
वृक्ष
वृक्ष को वृक्ष क्यों
कहते हैं? 'वृक्ष् वृक्षते'। वृक्ष धातु बीज का अर्थ होता
है, वेष्टित करना, आवरित करना, आवरण प्रदान करना। तो अर्थ हुआ ”जो आवरण करते हैं, वे वृक्ष” है। आवरण के कारण छाया
भी देते हैं। छाया देने का अर्थ वृक्ष के साथ जुड़ा हुआ
है।
(१६) भारतीय शब्द-व्युत्पत्ति
भारतीय शब्द
व्युत्पत्ति के आधार पर रचा जाता है। व्युत्पत्ति का अर्थ है 'विशेष
उत्पत्ति'।
अंग्रेज़ी शब्दों की
Etymology होती है। Etymology का अर्थ होता है, शब्द का प्रवास ढूँढना। शब्द किस भाषा में
जन्मा, वहां से और किन-किन भाषाओं में गया, और अंत में अंग्रेज़ी
में कैसे आया। उसे आप शब्द-प्रवास कह सकते हैं।
(१७) गुणवाचक संस्कृत
शब्द
संस्कृत में
, गुणवाचक अर्थ भरकर शब्द रचने की परम्परा है। लातिनी की
परम्परा नहीं है, ऐसा नहीं, पर हमारी परम्परा बहुत ही समृद्ध है और हमारे लिए लातिनी
परम्परा का उपयोग नहीं, जब तक हम कुछ लातिनी भी न सीख ले। इससे उलटे संस्कृत
परम्परा है।आप जैसे वस्तुओं के गुण वर्णित करेंगे, वैसा शब्द संस्कृत आपको देने में समर्थ है। आपको केवल
गुण दर्शाने होंगे। संस्कृत शब्द गुण-वाचक, अर्थ-वाचक, अर्थ-बोधक, अर्थ-वाही होता
है।
(१८) अंग्रेज़ी का
शब्द
अंग्रेज़ी का शब्द किसी
वस्तु पर आवश्यकता पड़ने पर आरोपित किया जाता है। अंग्रेज़ी शब्द का इतिहास ढूँढा जाता
है, कि किस भाषासे वह लिया गया है? संस्कृत शब्द मूलतः
गुणवाचक होता है। अपने गुणों को उसके अर्थ को साथ वहन करता है। अंग्रेज़ी ने कम से
कम पचास भाषाओं से शब्द लिए, इस लिए उसकी खिचड़ी बनी हुयी है। उसके उच्चारण का भी कोई
एक सूत्रता नहीं, नियम नहीं। इस विषय में कभी हमारे अंग्रेज़ी के दीवानों
ने सोचा है?
___________________________-
| arthwahi-term-composition-dr- |