कुल पेज दृश्य

नर्मदाष्टक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नर्मदाष्टक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 1 जून 2025

जून १, कब क्या, मुक्तिका, माँ, अमरूद, नर्मदाष्टक, सरस्वती, समीक्षा, चंद्र विजय अभियान

सलिल सृजन जून १ 
जून कब?... क्या??...
०१. विश्व माता-पिता दिवस, विश्व दुग्ध दिवस, विश्व डायनासौर दिवस 
०२. तेलंगाना दिवस, इटली गणतंत्र दिवस
०३. विश्व साइकिल दिवस 
०४. हिंसा पीड़ित बच्चों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस      
०५. विश्व पर्यावरण दिवस 
०६. विश्व कीट दिवस 
०७. विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस 
०८. विश्व महासागर दिवस विश्व ब्रेन ट्यूमर दिवस  
०९. विश्व प्रत्यायन (एक्रेडिटेशन) दिवस 
१०. राष्ट्रीय जड़ी-बूटी एवं मसाला दिवस 
११. केबीजी सिंड्रोम जागरूकता दिवस  
१२. विश्व बाल-श्रम निषेध दिवस, रक्षत्रीय लाल गुलाब दिवस  
१३. विश्व रंगहीनता जागरूकता दिवस,  
१४. विश्व रक्तदाता दिवस
१५. विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस, पिता दिवस 
१६. अंतर्राष्ट्रीय पारिवारिक प्रेषण (रेमिटेन्स) दिवस 
१७. विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस
१८. अंतर्राष्ट्रीय वनभोज (पिकनिक) दिवस
१९. विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस 
२०. विश्व शरणार्थी दिवस 
२१. विश्व संगीत दिवस  
२२. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस, विश्व वर्षा वन दिवस  
२३. अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक दिवस,  अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस 
२४. रानी दुर्गावती  बलिदान दिवस  
२५. विश्व नाविक दिवस  
२६. अंतरराष्ट्रीय नशा निषेध दिवस , अंतरराष्ट्रीय यातना पीड़ित समर्थन में दिवस  
२७. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग दिवस 
२९. राष्ट्रीय सांख्यिकी दिवस  
३०. विश्व क्षुद्र गृह (एस्‍टेरॉयड) दिवस 
***
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाऊन, जबलपुर ४८२००१
विश्व कीर्तिमान रचता काव्य संकलन ''चंद्र विजय अभियान'' लोकार्पित
*
जबलपुर, ३१ मई। "चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर आरोहण कर भारत को विश्व में प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित करने वाले अभियंताओ, वैज्ञानिकों और तकनीकविदों के सम्मान में 'चंद्र विजय अभियान' नामक संकलन की संकल्प हिंदी साहित्य में अपनी तरह का प्रथम और महत्वपूर्ण प्रयोग है। ऐसा समय साक्षी साहित्य भावी पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन करता है। इस हेतु विश्व वाणी हिंदी संस्थान था संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के साथ सभी २१३ सहभागी साधुवाद के पात्र हैं। अभियांत्रिकी शिक्षा में हिंदी का प्रयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है किंतु अभी भी कठनाइयाँ बहुत हैं। कई शाखाओं में हिंदी में पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं।'' डॉ. राजीव चाँडक प्राचार्य शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर ने उक्त विचार सारस्वत अतिथि की आसंदी से विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे काव्य संकलन 'चंद्र विजय अभियान' का लोकार्पण करते हुए व्यक्त किए। इसके पूर्व जानकी रमण महाविद्यालय में संस्था की कार्यकारिणी बैठक में ऑपरेशन सिंदूर पर एक स्मारिका द्वारा सेनाओं का अभिनंदन करने तथा पर्यावरण चेतना जाग्रत करने हेतु फुलबगिया काव्य संकलन द्वारा पर्यावरण चेतन जाग्रत करने की घोषणा डॉ. मुकुल तिवारी ने की। आरंभ में सरस्वती वंदना तथा बांग्ला कविता का सुमधुर पाठ श्रीमती क्षिप्रा सेन ने किया। हैदराबाद से पधारी श्रीमती सुनीता परसाई ने भुआणी में काव्य पाठ किया। नव पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हुए सुश्री ईशिता मिश्रा ने भी काव्य पाठ किया।


कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ख्यात दंत शल्यज्ञ डॉ. रोहित मिश्र ने हिंदी में विज्ञान और तकनीक संबंधी लेखन को युग की जरूरत बताते हुए दंत चिकित्सा के अध्ययन हिंदी बनाए जाने से सहमति व्यक्त की तथा संकल्प किया कि दंत विज्ञान की एक पुस्तक हिंदी में यात्री शीघ्र लिखेंगे। संकलन में सम्मिलित जबलपुर के ४० रचनाकारों को ससम्मान कृति भेंट करते हुए प्रसिद्ध छंद शास्त्री-समीक्षक इं. संजीव वर्मा 'सलिल' चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर ने केंद्र तथा राज्य शासन से सभी तकनीकी तथा विज्ञान संबंधी पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से पढ़ाए जाने को आदिवासी, श्रमिक, दलित तथा निम्न वर्ग के बच्चों की उन्नति के लिए आवश्यक बताया। अपनी मारिशस यात्रा के अनुभव सुनाते हुए वक्ता ने हिंदी के तकनीकी पाठ्यक्रम उन देशों में भी आरंभ किए जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की जहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय हैं। सद्य लोकार्पित काव्य संग्रह में ५ देशों के २१३ रचनाकारों द्वारा ५२ भाषा-बोलिओं में २७० रचनाएँ एक वैज्ञानिक परियोजना पर लिखे जाने का ऐतिहासिक सारस्वत अनुष्ठान ने संस्कारधानी की गौरव वृद्धि की है।


''हिंदी में विज्ञान परक लेखन - दशा और दिशा' विषय पर बोलते हुए सारगर्भित संगोष्ठी में श्रीमती छाया शुक्ला ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अद्यतन वैज्ञानिक प्रगति के अनुरूप ही नहीं भावी विकास को दृष्टि में रखते हुए परिवर्तन किए जाने को आवश्यक बताया। युवा कवि अजय मिश्र ने हिंदी में विज्ञान परक लेखन को अपर्याप्त मानते हुए इस दिशा में प्रचुर प्रयास किए जाने पर बल दिया। जानकी रमन महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी ने विज्ञान तथा अभियांत्रिकी शिक्षा संबंधी पाठ्य क्रमों में नव वैज्ञानिक प्रगति के अनुरूप निरंतर परिवर्तन किए जाने के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाए जाने की जरूरत प्रतिपादित की। आभार प्रदर्शन गजलकार मीना भट्ट ने किया। आयोजन को सफल बनाने में डॉ. अस्मिता शैली, डॉ. अल्पना श्रीवास्तव, इं. सुरेन्द्र सिंह पवार, एड. सलप नाथ यादव, काली दास ताम्रकार, मदन श्रीवास्तव, डॉ. सुरेन्द्र साहू 'निर्विरोध', आदि ने सराहनीय योगदान किया।

***
सरस्वती वंदना
*
प्रार्थना
कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।
बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।
सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।
तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
* ***
Book Review
Showers to the Bowers : Poetry full of emotions
(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )
Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.
The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'
'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.
According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'
Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.
Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'
In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.
१-६-२०१९
***
मुक्तक
कभी दुआ तो कभी बद्दुआ से लड़ते हुए
जयी जवान सदा सरहदों पे बढ़ते हुए .
उठाये हाथ में पत्थर मिले वतनवाले
शहादतों पे चढ़ा पुष्प, चित्र मढ़ते हुए .
*
चरण छुए आशीष मिल गया, किया प्रणाम खुश रहो बोले
नम न नयन थे, नमन न मन से किया, हँसे हो चुप बम भोले
गले मिल सकूँ हुआ न सहस, हाथ मिलाऊँ भी तो कैसे?
हलो-हलो का मिला न उत्तर, हाय-हाय सुन तनिक न डोले
१-६-२०१७
***
मुक्तक
न मन हो तो नमन मत करना कभी
नम न हो तो भाव मत वरना कभी
अभावों से निभाओ तो बात है
स्वभावों को विलग मत करना कभी
१-६-२०१६
***
नवगीत:
*
उत्तरायण की
सदा चर्चा रही है
*
तीर शैया पर रही सोती विरासत
समय के शर बिद्ध कर, करते बगावत
विगत लेखन को सनातन मान लेना
किन्तु आगत ने, न की गत से सखावत
राज महलों ने
न सत को जान पाया
लोक-सीता ने
विजन वन-मान पाया
दक्षिणायण की
सतत अर्चा रही है
*
सफल की जय बोलना ही है रवायत
सफलता हित सिया-सत बिन हो सियासत
खुरदुरापन नव सृजन पथ खोलता है
साध्य क्यों संपन्न को ही हो नफासत
छेनियों से, हथौड़ी से
दैव ने आकार पाया
गढ़ा मूरतकार ने पर
लोक ने पल में भुलाया
पूर्वायण की
विकट वर्चा रही है
***
१५-११-२०१४
कालिंदी विला लखनऊ
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शकुंतला खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
***
मुक्तक
खुद पर हो विश्वास, बहुत है
पूरी हो कुछ आस, बहुत है
चिर अतृप्ति या तृप्ति न चाहूँ
लगे-बुझे नित प्यास, बहुत है
*
राजीव बिन शोभा न सलिल-धार की
वास्तव में श्री अमर है प्यार की
सृजन पथ पर अक्षरी आराधना
राह है संसार से उद्धार की
*
बिंदु-सिन्धु सा खुद में और खुदा में अंतर
कंकर-शंकर किये समाहित सच का मंतर
आप आत्म, परमात्म आप है, द्वैत नहीं कुछ
जो देखे अद्वैत मलिन हो कभी न अंतर
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश
ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*
बाधाएँ अनगिन आयेंगीं, करना तनिक उजास बहुत है
तपिश झेलने को मन में मधुबन का हो आभास बहुत है
तिमिर अमावस का लाया है खबर जल्द राकेश आ रहा
फिर पूनम-चंदा चमकेगा बस इतना विश्वास बहुत है
*
ममता-समता पाने खातिर जी भर करें प्रयास बहुत है
प्रभु सुमिरन से बने एकता किंचित हो आभास बहुत है
करें प्रार्थना पर न याचना, पौरुष-कोशिश कभी न त्यागें-
कर्मयोग ही फलदायक है, करिए कुछ विश्वास बहुत है. *
*
'जैसी करनी वैसी भरनी' अगर नहीं तो न्याय कहाँ?
लेख-जोखा अगर नहीं तो असत-सत्य का दाय कहाँ?
छाँह न दे तो बेमानी छाता हो जाता क्यों रखिए-
कुछ न करे तो शक्तिमान का किंचित भी अभिप्राय कहाँ?
*
१-६-२०१५
***
संस्मरण
'नेताजी के साथ मैंने भी हिटलर से हाथ मिलाया'
कर्नल निज़ामुद्दीन
मुबारकपुर, आज़मगढ़ के पास के गाँव ढकुआ में रहने वाले 'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने सुभाष चंद्र बोस के साथ बिताए दिनों की याद ताज़ा की.
अभी तक आप उनके उन दावों को पढ़ चुके हैं कि कैसे वह नेताजी के ड्राइवर बने और कैसे उन्होंने नेताजी की ओर जा रहीं तीन गोलियों को अपनी पीठ पर ले लिया था.
उन्होंने वो याद भी ताज़ा की थी जिसके अनुसार रंगून में नेताजी बोस ने आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर की मज़ार को पक्का करवाया था.
बीबीसी से हुई बातचीत में निज़ामुद्दीन ने ये भी बताया कि कैसे रोज़ शाम को चार बजे के आसपास नेताजी अपने सहयोगियों से साथ बैठ कर आज़ादी की बात किया करते थे.
हिटलर
हिटलर
'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने ये भी बताया कि नेताजी बोस के साथ कई देशों की यात्रा के दौरान वो नामचीन लोगों से भी मिले.
उन्होंने बताया, "एक दफ़ा मैं नेताजी के साथ जापान गया था, जहाँ नेताजी की मुलाक़ात जर्मनी के चांसलर हिटलर से हुई. उस मीटिंग के दौरान जर्मनी के फील्ड मार्शल रोमेल भी मौजूद थे. मुझे भी हिटलर से हाथ मिलाने का मौका मिला था".
हालांकि सुभाष चंद्र बोस और उनकी मौत से जुड़े रहस्य पर शोध करने वाले अनुज धर निज़ामुद्दीन के इस दावे पर दूसरी राय रखते हैं.
उन्होंने कहा, "हो सकता है 100 से ज़्यादा उम्र होने के चलते निज़ामुद्दीन ये भूल रहे हों कि हिटलर और नेताजी की मुलाक़ात जर्मनी में हुई थी न कि जापान में. दूसरी बात ये कि नेताजी के साथ आईएनए के दूसरे बड़े अफ़सर जाया करते थे".
नाराज़गी
नेताजी सुभाषचंद्र बोस
'कर्नल' निज़ामुद्दीन बताते हैं कि जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्ति पर था तब नेताजी ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सभी सदस्यों को छुप कर आदेश दिए थे.
उन्होंने कहा, "विमान हादसे में नेताजी बोस की मौत की ख़बर ग़लत थी क्योंकि उन्होंने 1945 के बाद भी आईएनए के सदस्यों को सभी दस्तावेज़ नष्ट करने के लिए कहा था ताकि बाद में उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई न हो सके".
निज़ामुद्दीन का दावा है कि नेताजी कांग्रेस के अपने पुराने सहयोगियों से खासे आहत रहते थे जिसमे सभी शीर्ष नेता शामिल थे.
हालांकि नेताजी बोस पर 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवरअप' लिखने वाले अनुज धर के अनुसार निज़ामुद्दीन को अपने इन दावों के प्रमाण दिखाने की ज़रुरत है.
कश्मकश
अनुज धर
अनुज धर ने कहा, "अगर हिटलर से हाथ मिलाते हुए नेताजी बोस की तस्वीर मौजूद है तो उसमे निज़ामुद्दीन तो कहीं नहीं दिखते. न ही निज़ामुद्दीन सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर जांच के लिए बनी खोसला कमिटी या शाहनवाज़ कमीशन के समक्ष पहुंचे और न ही उनके पास दस्तावेज़ हैं".
मैं खुद भी इस कश्मकश में हूँ कि आख़िर सच क्या है.
'कर्नल' निज़ामुद्दीन के गाँव में तीन घंटे बिताने पर मुझे ये तो समझ में आया कि उन्हें कम से कम सात भाषाओं की समझ है और उनकी आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी बर्मा में बीती है.
नेताजी के साथ उनके सहयोग के दावों का सच निज़मुद्दीन के अलावा शायद अब कोई नहीं बता सकता.
उन्होंने कहा, "बर्मा में नेताजी की बहुत इज़्ज़त थी. आज़ाद हिन्द फ़ौज का अपना रेडियो स्टेशन था, अपना बैंक था और हमारे अपने नोट भी छपते थे."
लेकिन 104 वर्ष की उम्र में भी निज़ामुद्दीन उस बात को याद करके भावुक हो उठते हैं, जिसके अनुसार नेताजी बोस को जंगलों में जगहें बदल-बदल कर रातें गुज़ारनी पड़ती थीं.
सुभाष चंद्र बोस की हत्या हुई या मृत्यु?
उन्होंने बताया, "हवाई बमबारी का ख़तरा हमेशा रहता था, इसलिए सुभाष चंद्र बोस हर रात बर्मा के जंगलों में कम से कम दो जगह बदलते थे. मैं ख़ुद उनको रात में उठाता था, ये कहते हुए कि उठिए अंडा (बम) गिर सकता है. इसलिए हमें निकलना चाहिए."
निज़ामुद्दीन के अनुसार, सुभाष हर बार नींद से उठाए जाने पर जवाब देते थे, "नींद से अच्छी तो मौत है."
निज़ामुद्दीन के मुताबिक़, नेताजी बोस अपने सहयोगियों को लेकर इतने मिलनसार थे कि अक्सर उनके जूठे गिलास में भी पानी पी लिया करते थे.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस
'कर्नल' निज़ामुद्दीन ने 1940 के दशक की याद करते हुए बताते हैं कि, "उन दिनों ऐसा ही लगता था कि भारत को आज़ाद हिंद फ़ौज ही आज़ादी दिलाएगी."
उन्होंने बताया कि सुभाष बोस ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई.
वो बताते हैं, "ज़फर की कब्र को नेताजी बोस ने ही पक्का करवाया था. वहाँ कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई थी. मैं ख़ुद नेताजी के साथ कई मर्तबा ज़फर की मज़ार पर गया हूँ."
निज़ामुद्दीन के अनुसार, उन्होंने अपनी सौ वर्ष से भी ज़्यादा की उम्र में सुभाषचंद्र बोस जैसा दिलदार आदमी नहीं देखा.
विमान हादसा
गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस
इतिहास के मुताबिक़, सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु अगस्त, 1945 में फॉरमोसा, ताइवान में एक विमान हादसे हुई थी.
हालांकि 'कर्नल' निज़ामुद्दीन इस बात का खंडन करते हैं.
उन्होंने बताया, "जापान ने नेताजी को तीन हवाई जहाज़ दिए थे. जब मैंने उन्हें सितांग नदी के किनारे वर्ष 1947 में आख़िरी बार छोड़ा तब वो जापानी अफसरों के साथ मोटरबोट पर बैठने के पहले भावुक हो गए थे. मैंने कहा, मुझे भी अपने साथ ले चलिए, लेकिन उन्होंने कहा कि, तुम यहीं रुको जिससे दूसरों का ख़्याल रखा जा सके."
वैसे नेताजी बोस की मृत्यु से जुड़ी जानकारी जुटाने वाले और 'इंडियाज़ बिगेस्ट कवरअप' नामक किताब लिखने वाले अनुज धर का भी मानना है कि सुभाष चंद्र बोस उस विमान में थे ही नहीं जिसका हादसा हुआ था.
लेकिन अनुज धर निज़ामुद्दीन के उन दावों को ख़ारिज करते हैं, जिनमें कहा गया है कि नेताजी 1945 से लेकर 1947 तक बर्मा में थे.
दावों पर सवाल
नेताजी क़िताब
सुभाष बोस की रहस्यमई मृत्यु पर लेखक अनुज धर की किताब ने कई सवाल खड़े किए हैं.
उन्होंने कहा, "जितने दस्तावेज़ मिले हैं उनके हिसाब से नेताजी इस दौरान रूस में थे. रही बात निज़ामुद्दीन की तो उन्हें कम से कम एक फ़ोटो या कोई प्रमाण तो दिखाना चाहिए अपने और नेताजी के दिनों का."
अब सच्चाई क्या है इसे पता लगाने में अनुज धर जैसे तमाम लोग लगे हैं.
कुछ दिन पहले ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पोती आजमगढ़ में निज़ामुद्दीन से मिलकर लौटीं हैं.
***
हिन्दी काव्यानुवाद सहित नर्मदाष्टक : १ --संजीव 'सलिल'
भगवत्पादश्रीमदाद्य शंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं
सविंदुसिंधु-सुस्खलत्तरंगभंगरंजितं, द्विषत्सुपापजात-जातकारि-वारिसंयुतं
कृतांतदूत कालभूत-भीतिहारि वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .१.
त्वदंबु लीनदीन मीन दिव्य संप्रदायकं, कलौमलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकं
सुमत्स्य, कच्छ, तक्र, चक्र, चक्रवाक् शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .२.
महागभीर नीरपूर - पापधूत भूतलं, ध्वनत समस्त पातकारि दारितापदाचलं.
जगल्लये महाभये मृकंडुसूनु - हर्म्यदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .३.
गतं तदैव मे भयं त्वदंबुवीक्षितं यदा, मृकंडुसूनु शौनकासुरारिसेवितं सदा.
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धि दु:खवर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .४.
अलक्ष्य-लक्ष किन्नरामरासुरादि पूजितं, सुलक्ष नीरतीर - धीरपक्षि लक्षकूजितं.
वशिष्ठ शिष्ट पिप्पलादि कर्ममादिशर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .५.
सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपादि षट्पदै, घृतंस्वकीय मानसेषु नारदादि षट्पदै:,
रवींदु रन्तिदेव देवराज कर्म शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .६.
अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष सार सायुधं, ततस्तु जीव जंतु-तंतु भुक्ति मुक्तिदायकं.
विरंचि विष्णु शंकर स्वकीयधाम वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .७.
अहोsमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे, किरात-सूत वाडवेशु पण्डिते शठे-नटे.
दुरंत पाप-तापहारि सर्वजंतु शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .८.
इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये यदा, पठंति ते निरंतरं न यांति दुर्गतिं कदा.
सुलक्ष्य देह दुर्लभं महेशधाम गौरवं, पुनर्भवा नरा न वै विलोकयंति रौरवं. ९.
इति श्रीमदशंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं
श्रीमद आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टक : हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा संजीव 'सलिल'
उठती-गिरती उदधि-लहर की, जलबूंदों सी मोहक-रंजक
निर्मल सलिल प्रवाहितकर, अरि-पापकर्म की नाशक-भंजक
अरि के कालरूप यमदूतों, को वरदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.१.
दीन-हीन थे, मीन दिव्य हैं, लीन तुम्हारे जल में होकर.
सकल तीर्थ-नायक हैं तव तट, पाप-ताप कलियुग का धोकर.
कच्छप, मक्र, चक्र, चक्री को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.२.
अरिपातक को ललकार रहा, थिर-गंभीर प्रवाह नीर का.
आपद पर्वत चूर कर रहा, अन्तक भू पर पाप-पीर का.
महाप्रलय के भय से निर्भय, मारकंडे मुनि हुए हर्म्यदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.३.
मार्कंडे-शौनक ऋषि-मुनिगण, निशिचर-अरि, देवों से सेवित.
विमल सलिल-दर्शन से भागे, भय-डर सारे देवि सुपूजित.
बारम्बार जन्म के दु:ख से, रक्षा करतीं मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.४.
दृश्य-अदृश्य अनगिनत किन्नर, नर-सुर तुमको पूज रहे हैं.
नीर-तीर जो बसे धीर धर, पक्षी अगणित कूज रहे हैं.
ऋषि वशिष्ठ, पिप्पल, कर्दम को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.५.
सनत्कुमार अत्रि नचिकेता, कश्यप आदि संत बन मधुकर.
चरणकमल ध्याते तव निशि-दिन, मनस मंदिर में धारणकर.
शशि-रवि, रन्तिदेव इन्द्रादिक, पाते कर्म-निदेश सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.६.
दृष्ट-अदृष्ट लाख पापों के, लक्ष्य-भेद का अचूक आयुध.
तटवासी चर-अचर देखकर, भुक्ति-मुक्ति पाते खो सुध-बुध.
ब्रम्हा-विष्णु-सदा शिव को, निज धाम प्रदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.७.
महेश-केश से निर्गत निर्मल, 'सलिल' करे यश-गान तुम्हारा.
सूत-किरात, विप्र, शठ-नट को,भेद-भाव बिन तुमने तारा.
पाप-ताप सब दुरंत हरकर, सकल जंतु भाव-पार शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.८.
श्रद्धासहित निरंतर पढ़ते, तीन समय जो नर्मद-अष्टक.
कभी न होती दुर्गति उनकी, होती सुलभ देह दुर्लभ तक.
रौरव नर्क-पुनः जीवन से, बच-पाते शिव-धाम सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.९.
श्रीमदआदिशंकराचार्य रचित, संजीव 'सलिल' अनुवादित नर्मदाष्टक पूर्ण.
१-६-२०१४
***
अमरूद - फल भी , दवा भी
अमरूद एक बेहतरीन स्वादिष्ट फल है। अमरूद कई गुणों से भरपूर है। अमरूद में प्रोटीन 10.5 प्रतिशत, वसा 0. 2 कैल्शियम 1.01 प्रतिशत बी पाया जाता है। अमरूद का फलों में तीसरा स्थान है। पहले दो नम्बर पर आंवला और चेरी हैं। इन फलों का उपयोग ताजे फलों की तरह नहीं किया जाता, इसलिए अमरूद विटामिन सी पूर्ति के लिए सर्वोत्तम है।
विटामिन सी छिलके में और उसके ठीक नीचे होता है तथा भीतरी भाग में यह मात्रा घटती जाती है। फल के पकने के साथ-साथ यह मात्रा बढती जाती है। अमरूद में प्रमुख सिट्रिक अम्ल है 6 से 12 प्रतिशत भाग में बीज होते है। इसमें नारंगी, पीला सुगंधित तेल प्राप्त होता है। अमरूद स्वादिष्ट फल होने के साथ-साथ अनेक गुणों से भरा से होता है।
यदि कभी आपका गला ज्यादा ख़राब हो गया हो तो अमरुद के तीन -चार ताज़े पत्ते लें ,उन्हें साफ़ धो लें तथा उनके छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ लें | एक गिलास पानी लेकर उसमे इन पत्तों को डाल कर उबाल लें , थोड़ा पकाने के बाद आंच बंद कर दें | थोड़ी देर इस पानी को ठंडा होने दें ,जब गरारे करने लायक ठंडा हो जाये तो इसे छानकर ,इसमें नमक मिलाकर गरारे करें , याद रखें कि इसमें ठंडा पानी नहीं मिलना है |
अमरूद के ताजे पत्तों का रस 10 ग्राम तथा पिसी मिश्री 10 ग्राम मिलाकर 21 दिन प्रात: खाली पेट सेवन करने से भूख खुलकर लगती है और शरीर सौंदर्य में भी वृद्धि होती है।
अमरूद खाने या अमरूद के पत्तों का रस पिलाने से शराब का नशा कम हो जाता है। कच्चे अमरूद को पत्थर पर घिसकर उसका एक सप्ताह तक लेप करने से आधा सिर दर्द समाप्त हो जाता है। यह प्रयोग प्रात:काल करना चाहिए। गठिया के दर्द को सही करने के लिए अमरूद की 4-5 नई कोमल पत्तियों को पीसकर उसमें थोड़ा सा काला नमक मिलाकर रोजाना खाने से से जोड़ो के दर्द में काफी राहत मिलती है।
डायबिटीज के रोगी के लिए एक पके हुये अमरूद को आग में डालकर उसे भूनकर निकाल लें और भुने हुई अमरुद को छीलकर साफ़ करके उसे अच्छे से मैश करके उसका भरता बना लें, उसमें स्वादानुसार नमक, कालीमिर्च, जीरा मिलाकर खाएं, इससे डायबिटीज में काफी लाभ होता है। ताजे अमरूद के 100 ग्राम बीजरहित टुकड़े लेकर उसे ठंडे पानी में 4 घंटे भीगने दीजिए। इसके बाद अमरूद के टुकड़े निकालकर फेंक दें। इस पानी को मधुमेह के रोगी को पिलाने से लाभ होता है।
जब भी आप फोड़े और फुंसियों से परेशान हो तो अमरूद की 7-8 पत्तियों को लेकर थोड़े से पानी में उबालकर पीसकर पेस्ट बना लें और इस पेस्ट को फोड़े-फुंसियों पर लगाने से आराम मिल जाएगा। चार हफ्तों तक नियमित रूप से अमरूद खाने से भी पेट साफ रहता है व फुंसियों की समस्या से राहत मिलती है।
***
घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
*
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
१-६-२०११
***
गीत
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
अब तक मुझको दिया रंज ना.
अब क्यों सुनते बात न मेरी?
पूछ रही है विकल रंजना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
१-६-२०१०
***
मुक्तिका
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं।
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता।
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं।।
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो।
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताते हाट रहे हैं।।
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं।।
पट्टी बाँधे गांधारी सी, न्याय-व्यवस्था निज आँखों पर।
धृतराष्ट्री हैं न्यायमूर्तियाँ, अधिवक्तागण भाट रहे हैं।।
राजमार्ग निज-हित के चौड़े, जन-हित की पगडंडी सँकरी।
जात-पाँत के ढाबे-सम्मुख ऊँच-नीच के खाट रहे हैं।।
'सेवा से मेवा' ठुकराकर 'मेवा हित सेवा' के पथ पर।
पग रखनेवाले सेवक ही नेता-साहिब लाट रहे हैं।।
'मन की बात' करें मनमानी, जन की बात न तंत्र सुन रहा।
लोकतंत्र के शव से धनपति लोभ खाई को पाट रहे हैं।।
मिथ्या मान-प्रतिष्ठा की दे रहे दुहाई बैठ खाप में।
'सलिल' अत्त के सभी सयाने मिल अपनी जड़ काट रहे हैं।।
*
हाट = बाज़ार, भारत की न्याय व्यवस्था की प्रतीक मूर्ति की आँखों पर पट्टी चढ़ी है, लाट साहिब = बड़े अफसर, खाप = पंचायत, जन न्यायालय, अत्त के सयाने = हद से अधिक होशियार = व्यंगार्थ वास्तव में मूर्ख।
१-६-२०१०

*

बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

२० फरवरी,हास्य पद,तेवरी,उल्लाला, नर्मदाष्टक,श्रृंगार गीत,मुक्तक,हिंदी आरती,शे'र,सॉनेट,दोहा यमक

सलिल सृजन २० फरवरी
*
गले मिले दोहा यमक
*
धमक यमक की जब सुने, चमक-दमक हो शांत।
अटक-मटक मत मति कहे, सटक न होना भ्रांत।।
*
नौ कर आप न चाहते, पर नौकर की चाह।
हो न कलेजा चाक रब, चाकर कर परवाह।।
*
हो बस अंत असंत का, यही तंत है तात।
संत बसंत सजा सके, सपनों की बारात।।
*
यम कब यमक समझ सके, सोच यमी हैरान।
तमक बमक कर ले न ले, लपक जान की जान।।
***
सॉनेट
शुभकामना
सुमन करते आपका स्वागत।
भाल पर शोभित तिलक चंदन।
सफलता है द्वार पर आगत।।
हृदय करते आपका वंदन।।
अनिल कर दे श्वास हर सुरभित।
जया दे जय, जयी हो हर आस।
अनल से पा तेज हों प्रमुदित।।
धरा-नभ दे धैर्य शौर्य हुलास।।
सलिल सिंचित माथ हो गर्वित।
वरद हों कर, हृदय करुणापूर्ण।
दिशाएँ वर दें रहो चर्चित।।
हर विपद कर कोशिशें दें चूर्ण।।
वह मिले जो चाहते हैं आप।
यश युगों तक सके जग में व्याप।।
२०-२-२०२२
•••
अशआर
*
अदीब खुदा की नेमत।
मिले न जिसको उसकी शामत।।
*
खुद खुदा हो सको अगर अपने।
पूरे होंगे तभी तेरे सपने।।
*
चाह ही चाह से निकलती है।
आह ही अश्क बन पिघलती है।।
*
साथ किसके हमेशा कौन रहा?
लब न बोले जवाब मौन रहा।।
***
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
२०.२.२०२०
***
एक रचना
नामवर
*
लीक से हटकर चला चल
काम कर।
रोकता चाहे जमाना
नाम वर।।
*
जोड़ता जो, वह घटा है
तोड़ता जो, वह जुड़ा है
तना दिखता पर झुका है
पथ न सीधा हर मुड़ा है
श्वास साकी, आस प्याला
जाम भर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
जो न जैसा, दिखे वैसा
जो न बदला, वह सड़ा है
महत्तम की चाह मत कर
लघुत्तम सचमुच बड़ा है
कह न मरता कोई किंचित
चाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
बात पूरी नहीं हो कह
'जो गलत, वे तोड़ मानक'
क्यों न करता पूर्ण कहकर
'जो सही, मत छोड़ मानक'
बन सिपाही, जान दे दे विहँस सच के
लाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
२०.२.२०१९
***
एक रचना
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.
***
मुक्तक
बीत गईँ कितनी ऋतुएँ, बीते कितने साल
कोयल तजे न कूकना, हिरन न बदले चाल
पर्व बसंती हो गया, वैलेंटाइन आज
प्रेम फूल सा झट झरे, सात जन्म कंगाल
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.
'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'
'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-
'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'
माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.
राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.
आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप
हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-
हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप
हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ
बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज
हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप
तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग
देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं.
संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.
कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात
जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत
ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर
महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेरश जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद
मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान
कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज
घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम
सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-
होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण
कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान
किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
२०.२.२०१७
===
श्रृंगार गीत:
.
चाहता मन
आपका होना
.
शशि ग्रहण से
घिर न जाए
मेघ दल में
छिप न जाए
चाह अजरा
बने तारा
रूपसी की
कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
द्वार पर
आ गया बौरा
चीन्ह भी लो
तनिक गौरा
कूक कोयल
गाए बन्ना
सुना बन्नी
आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
माँग इतनी
माँग भर दूँ
आप का
वर-दान कर दूँ
मिले कन्या-
दान मुझको
जिंदगी को
गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
२०.२.२०१५
.
॥नर्मदाष्टक मणिप्रवाल।।
हिंदी काव्यानुवाद॥
*
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी ।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।।
सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला,
.भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।।
नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला ।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।।
सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।।
ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।।
अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।।
षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६।।
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके!
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके!
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।।
कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।।
भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा.
१२-१०-२०१४
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२०.२.२०१४
***
तेवरी
*
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।
मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।
सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।
ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।
डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?
नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
२०.२.२०१३
***
हास्य पद:
जाको प्रिय न घूस-घोटाला
*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो, न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..
२०.२.२०११
***

बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

अष्ट मात्रिक छंद, सॉनेट, समीक्षा, सुनीता सिंह, नर्मदाष्टक, दोहा,

सॉनेट
बजट  
*
जनगण  का धन, धनपति पाएँ। 
आम लोग हों निर्धन ज्यादा। 
सरकारों का यही इरादा।।
श्रमिक-कृषक भूखे सो जाएँ।।  

आँखों को सपने दिखला दो।
हाथों में झुनझुना थमाकर। 
भूखा सो जा पैर मोड़कर।।  
राम नाम लेकर बहका दो।।

रोजी छिनी, न शोर मचाओ। 
थाम कटोरा, दर-दर जाओ। 
रोटी माँगो, लाठी खाओ। 

क्या थे?, क्या हो? भेद भुलाओ।।
मंत्री जी की जय-जय गाओ।।
टुकड़े पाकर पूँछ हिलाओ।।
२-२-२०२२ 
***
पुरोवाक
ओस की बूँद - भावनाओं का सागर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सर्वमान्य सत्य है कि सृष्टि का निर्माण दो परस्पर विपरीत आवेगों के सम्मिलन का परिणाम है। धर्म दर्शन का ब्रह्म निर्मित कण हो या विज्ञान का महाविस्फोट (बिग बैंग) से उत्पन्न आदि कण (गॉड पार्टिकल) दोनों आवेग ही हैं जिनमें दो विपरीत आवेश समाहित हैं। इन्हें पुरुष-प्रकृति कहें या पॉजिटिव-निगेटिव इनर्जी, ये दोनों एक दूसरे से विपरीत (विरोधी नहीं) तथा एक दूसरे के पूरक (समान नहीं) हैं। इन दोनों के मध्य राग-विराग, आकर्षण-विकर्षण ही प्रकृति की उत्पत्ति, विकास और विनाश का करक होता है। मानव तथा मानवेतर प्रकृति के मध्य राग-विराग की शाब्दिक अनुभूति ही कविता है। सृष्टि में अनुभूतियों को अभियक्त करने की सर्वाधिक क्षमता मनुष्य में है। अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए मनुष्य को संघर्ष, सहयोग और सृजन तीनों चरणों से साक्षात करना होता है। इन तीनों ही क्रियाओं में अनुभूत को अभिव्यक्त करना अपरिहार्य है। अभिव्यक्ति में रस और लास्य (सौंदर्य) का समावेश कला को जन्म देता है। रस और लास्य जब शब्दाश्रित हों तो साहित्य कहलाता है। मनुष्य के मन की रमणीय, और लालित्यपूर्ण सरस अभिव्यक्ति लय (गति-यति) के एककारित होकर काव्य कला की संज्ञा पाती हैं। काव्य कला साहित्य (हितेन सहितं अर्थात हित के साथ) का अंग है। साहित्य के अंग बुद्धि तत्व, भाव तत्व, कल्पना तत्व, कला तत्व ही काव्य के तत्व हैं।
काव्य प्रकाशकार मम्मट के अनुसार "तद्दौषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वापि" अर्थात काव्य ऐसी जिसके शब्दों और अर्थों में दोष नहीं हो किन्तु गुण अवश्य हों, चाहे अलंकार कहीं कहीं न भी हों। जगन्नाथ के मत में "रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्" रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाले शब्द ही काव्य हैं। अंबिकादत्त व्यास के शब्दों में "लोकोत्तरआनंददाता प्रबंधक: काव्यानामभक्" जिस रचना का वचन कर लोकोत्तर आनंद की प्राप्ति हो, वही काव्य है। विश्वनाथ के मत में "रसात्मकं वाक्यं काव्यं" रसात्मक वाक्य ही काव्य हैं।
हिंदी के शिखर समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है।
मेरे विचार से काव्य वह भावपूर्ण रसपूर्ण लयबद्ध रचना है जो मानवानुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक-श्रोता के ह्रदय को प्रभावित क्र उसके मन में अलौकिक आनंद का संचार करती है। मानवानुभूति स्वयं की भी हो सकती है जैसे 'मैं नीर भरी दुःख की बदली, उमड़ी थी कल मिट आज चली .... ' नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली - महादेवी वर्मा या किसी अन्य की भी हो सकती है यथा 'वह आता पछताता पथ पर आता, पेट-पीठ दोनों हैं मिलकर एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को, मुँह फ़टी पुरानी झोली का फैलाता -निराला। कविता कवि की अनुभूति को पाठकों - श्रोताओं तक पहुँचाती है। वह मानव जीवन की सरस् एवं हृदयग्राही व्याख्या कर लोकोत्तर आनंद की सृष्टि ही नहीं वृष्टि भी करती है। इह लोक (संसार) में रहते हुए भी कवि हुए पाठक या श्रोता अपूर्व भाव लोक में विचरण करने लगता है। काव्यानंद ही न हो तो कविता बेस्वाद या स्वाधीन भोजनकी तरह निस्सार प्रतीत होगी, तब उसे न कोई पढ़ना चाहेगा, न सुनना।
काव्यानंद क्या है? भारतीय काव्य शास्त्रियों ने काव्यानंद को परखने के लिए काव्यालोचन की ६ पद्धतियों की विवेचना की है जिन्हें १. रस पद्धति, २. अलंकार पद्धति, ३. रीति पद्धति, ४. वक्रोक्ति पद्धति, ५. ध्वनि पद्धति तथा ६. औचित्य पद्धति कहा गया है। साहित्य शास्त्र के प्रथम तत्वविद भरत तथा नंदिकेश्वर ने नाट्य शास्त्र में रूपक की विवेचना करते हुए रस को प्रधान तत्व कहा है। पश्चात्वर्ती आचार्य काव्य के बाह्य रूप या शिल्पगत तत्वों तक सीमित रह गए। दण्डी के अनुसार 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' अर्थात काव्य की शोभा तथा धर्म अलंकार है। वामन रीति (विशिष्ट पद रचना, शब्द या भाव योजना) को काव्य की आत्मा कहा "रीतिरात्मा काव्यस्य"। कुंतक ने "वक्रोक्ति: काव्य जीवितं" कहकर उक्ति वैचित्र्य को प्रमुखता दी। ध्वनि अर्थात नाद सौंदर्य को आनंदवर्धन ने काव्य की आत्मा बताया "काव्यस्यात्मा ध्वनिरीति"। क्षेमेंद्र की दृष्टि में औचित्य ही काव्य रचना का प्रमुख तत्व है "औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं"। भरत के मत का अनुमोदन करते हुए विश्वनाथ ने रस को काव्य की आत्मा कहा है। अग्नि पुराणकार "वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं" कहकर रस को ही प्रधानता देता है। स्पष्ट है कि शब्द और अर्थ काव्य-पुरुष के आभूषण हैं जबकि रस उसकी आत्मा है।
शिल्प पर कथ्य को वरीयता देने की यह सनातन परंपरा जीवित है युवा कवयित्री सुनीता सिंह के काव्य संग्रह 'ओस की बूँद' में। सुनीता परंपरा का निर्वहन मात्र नहीं करतीं, उसे जीवंतता भी प्रदान करती हैं। ईश वंदना से श्री गणेश करने की विरासत को ग्रहण करते हुए 'शिव धुन' में वे जगतपिता से सकल शूल विनाशन की प्रार्थना करती हैं -
पाशविमोचन भव गणनाथन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
महाकाल सुरसूदन कवची!
पीड़ा तक परिणति जा पहुँची।
गिरिधन्वा गिरिप्रिय कृतिवासा!
दे दो हिय में आन दिलासा ॥
पशुपतिनाथ पुरंदर पावन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
पाशविमोचन भव गणनाथन! कर दो सारे शूल विनाशन॥
शिव राग और विराग को सम भाव से जीते हैं। कामारि होते हुए भी अर्धनारीश्वर हैं। शिवाराधिका को प्रणय का रेशमी बंधन लघुता में विराट की अनुभूति कराता है-
नाजुक सी रेशम डोरी से, मन के गहरे सागर में।
बांध रहे हो प्राण हमारे, प्रियतम किरणों के घर में।।
अंतरतम में चिर - परिचित सा,
अक्स उभरता किंचित सा।
सदियों का ये बंधन लगता,
लघुता में भी विस्तृत सा।।
अब तक की सारी सुलझन भी, उलझ गई इस मंजर में।
बांध रहे हो प्राण हमारे, प्रियतम किरणों के घर में।।
तुम मुझको याद आओगे, शीर्षक गीत श्रृंगार के विविध पक्षों को शब्दायित करते हैं।
सुनीता की नारी समाज के आहतों स्त्री-गौरव की अवहेलना देखकर आक्रोशित और दुखी होती है। "नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना" कहकर नारी की वंदना करनेवाले समाज में बालिका भ्रूण हत्या का महापाप होते देख कवयित्री 'कन्या भ्रूण संवाद' में अपनी मनोवेदना को मुखर करती है -
चलती साँस पर भी चली जब,
कैचियों की धारियां, ये तो बताओ।
एक-एक कर कट रहे सभी,
अंग की थी बारियाँ, ये तो सुनाओ।
फिर मौन चीखो से निकलता,
आह का होगा धुआं, क्या कह सकोगी?
क्या सोच कर, आयी यहाँ पर,
और क्या तुमको मिला, क्या कह सकोगी?
इस संकलन का वैशिष्ट्य उन पहलुओं को स्पर्श करना है जो प्राय: गीतकारों की दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। काम काजी माँ के बच्चे की व्यथा कथा कहता गीत 'खड़ा गेट पर' मर्मस्पर्शी है -
खड़ा गेट पर राह तुम्हारी, देखा करता हूँ मैं माँ ।
शाम हो गई अब आओगी, ऑफिस से जानू मैं माँ ॥
रोज सवेरे मुझे छोड़ कर,
कैसे आखिर जाती हो
कैसे मेरे रोने पर भी,
तुम खुद को समझाती हो ?
बिना तुम्हारे दिन भर रहना, बहुत अखरता मुझको माँ ।
खड़ा गेट पर राह तुम्हारी, देखा करता हूँ मैं माँ ॥
सावन को मनभावन कहा गया है। सुनीता सावन को अपनी ही दृष्टि से देखती हैं। सावनी बौछारों से मधु वर्षण, मृदा का रससिक्त होना, कण-कण में आकर्षण, पत्तों का धुलना, अवयवों का नर्तन करना, धरा का हरिताम्बरा होना गीत को पूर्णता प्रदान करता है।
मृदा आसवित, वर्षा जल को,
अंतःतल ले जाती।
तृण की फैली, दरी मखमली,
भीग ओस से जाती।
बादल से घन, छनकर दशहन, निर्झर झरते जाते।
हर क्षण कण-कण, में आकर्षण, सरगम भरते जाते।
गीतिकाव्य का उद्गम दर्द या पीड़ा से मान्य है। कवयित्री अंतिम खत कोरा रखकर अर्थात कुछ न कहकर भी सब कुछ कह देने को ही काव्य कला का चरम मानती हैं। ग़ालिब कहते हैं 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना'। अति क्रंदन के पार उतर कर ही दिल को हँसते पाती हैं।
शब्दहीन था कोरा-कोरा, मौन पीर का था गठजोरा।
इतना पीड़ा ने झकझोरा, छोड़ दिया अंतिम खत कोरा।।
अंधियारे में बादल बनकर,
अखियाँ बरसीं अंतस कर तर।
राहें सूझें भी तो कैसे
जड़ जब होती रूह सिहरकर।।
अति क्रंदन के पार उतर ही, खोल हँसा दिल पोरा- पोरा।
'हृदय तल के गहरे समंदर में तैरें, / ये ख्वाबों की मीने मचलती बड़ी हैं' , 'मैं लिखती नहीं गीत लिख जाता है' , 'दर्द का मोती सजाए / ह्रदय की सीपी लहे', 'क्षण-प्रतिक्षण नूतन परिवर्तन / विस्मय करते नित दृग लोचन', 'प्रीत चुनरिया सिर पर ओढ़ी / बीच रंग के कोरी थोड़ी', 'झंझा की तम लपटों से, लड़कर भी जीना सीखो / तीखा मीठा जो भी है, जीवन रस पीना सीखो', 'सन सनन सन वायु लहरे, घन घनन घन मेघ बरसे / मन मयूरा पंख खोले', मौसमों को देख हरसे', 'तकते - तकते नयना थकते, मन सागर बीहड़ मथते, प्राण डगर अमृत वर्षा के, धुंध भरी पीड़ा चखते' जैसी अभिव्यक्तियाँ आश्वस्त करती हैं कि कवयित्री सुनीता का गीतकार क्रमश: परिपक्व हो रहा है। गीत की कहन और ग़ज़ल की तर्ज़े-बयानी के अंतर को समझकर और अलग-अलग रखकर रचे ेगयी रचनाएँ अपेक्षाकृत अधिक प्रभावमय हैं।
इन गीतों में भक्ति काल और रीतिकाल को गलबहियां डाले देखना सुखद है। सरस्वती, शिव, राम, कृष्ण आदि पर केंद्रित रचनाओं के साथ 'प्रीत तेरी मान मेरा, रूह का परिधान है / हाथ तेरा हाथ में जब, हर सफर आसान है', 'देख छटा मौसम की मन का, मयूर - नर्तन करता है' जैसी अंतर्मुखी अभिव्यक्तियों के साथ बहिर्मुखता का गंगो-जमुनी सम्मिश्रण इन गीतों को पठनीय और श्रणीय बनाता है।
कर में लेकर, गीली माटी,
अगर कहो तो।
नव प्रयोग भी, करने होंगे
माटी की संरचनाओं में।
सांचे लेकर, कुम्हारों के
रंग भरेंगे घटनाओं में।
किरण-किरण को, भर कण-कण में
रौशन भी कर, दूं रज खाटी,
अगर कहो तो।
यह देखना रुचिकर होगा कि सुनीता की यह सृजन यात्रा भविष्य में किस दिशा में बढ़ती है? वे पारम्परिक गीत ही रचती हैं या नवगीत की और मुड़ती हैं। उनमें संवेदना, शब्द भंडार तथा अभिव्यक्ति सामर्थ्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। इन रचनाओं में व्यंग्योक्ति और वक्रोक्ति की अनुपस्थिति है जो नवगीत हेतु आवश्यक है। सुनीता की भाषा प्रकृति से ही आलंकारिक है। उन्हें अलंकार ठूँसना नहीं पड़ते, स्वाभाविक रूप से अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा अपनी छटा बखेरते हैं। प्रसाद गुण सम्पन्न भाषा गीतों को माधुर्य देती है। युवा होते हुए भी अतिरेकी 'स्त्री विमर्श', राजनैतिक परिदृश्य और अनावश्यक विद्रोह से बच पाना उनके धीर-गंभीर व्यक्तित्व के अनुकूल होने के साथ उनकी गीति रचनाओं को संतुलित और सारगर्भित बनाता है। मुझे विश्वास है यह संकलन पाठकों और समलीचकों दोनों के द्वारा सराहा जायेगा।
==
***
नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल मूलपाठ॥
॥नर्मदाष्टक ॥मणिप्रवाल हिंदी काव्यानुवाद॥
संजीव वर्मा "सलिल"
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी ।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।।
.
सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
*
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।।
.
नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
*
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला ।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।।
.
सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
*
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।।
.
ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
*
मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।।
.
अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
*
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।।
.
षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६॥
*
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके!
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके!
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।।
.
कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
*
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।।
.
भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
*
॥साभारःनर्मदा कल्पवल्ली, ॐकारानंद गिरि॥
***
गंगा पर दोहे
*
गंगा को गंदा करें, वे हो जो हैं भक्त
आँखें रहते सूर हैं, ईश्वर करो अशक्त
*
गंगा को दें भुला हम, हों जाएँ यदि दूर
निर्मल होगी आप ही, पायेगी नव नूर
*
नगर न गंगा निकट हों, दोनों तट वट झाड़
चलो लगायें हम सभी, बाढ़ कमे पा बाड़
*
तल गहरा तट उच्च हों, हरियाली भरपूर
पंछीगण कलरव करें, हो अशुद्धि हर दूर
*
गंगा को चंगा करे, गतिमय सलिल प्रवाह
बाँध बना जल उठा कर, छोड़ें विपुल अथाह
*
जोड़ नदी को नदी से, जल का करें प्रबंध
बाढ़ रुके, सूखा मिटे, वनमय हों तटबंध
*
भले न पूजें कीजिए, मिल गंगा को साफ़
नहीं किया तो करेगी, हमें न गंगा माफ़
*
जगह जगह हों फुहारें, मिले ओषजन खूब
जीव जलीय जियें तभी, जब तट पर हो दूब
*
नीम बाँस रुद्राक्ष तरु, गंगा तट पर रोप
जल औषधिमय मिले पी, मिटे रोग का कोप
*
मन मंदिर में पूजिये, तन घर में कर साफ़
नहा न मैली गंग हो, तब होगा इंसाफ
*
गंगा जैसी हर नदी, जीवनदात्री मात
हों सपूत रख स्वच्छ हम, उज्जवल हो हर प्रात
२-२-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा में दोष और निवारण
दोहा लिखते समय निम्न दोषों से बचें- १. कथ्य दोष, २. तथ्य दोष, ३. क्रम दोष, ४. वचन दोष, ५. लिंग दोष, ६. काल दोष, ७. कारक दोष, ८. उपमा दोष, ९. बिंब दोष।
*
गीत
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
टीचर-प्रीचर के क्या फीचर?
ऐसे मत हों जैसे क्रीचर
रोजी-रोटी साध्य न केवल
अंतर्मन है बाध्य व बेकल
कहता-सुनता
बात अधूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
शिक्षक अगर न खुद सीखा तो
समझहीन सब सा दीखा तो
कुछ मौलिकता, कुछ अन्वेषण
करे ग्रहण नित, नित कुछ प्रेषण
पढ़े-पढ़ाये
बिन मजबूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रिमिउर टेक्निकल इन्स्तित्युत
कौन बताये आदि कहाँ है?
कोई न जाने अंत कहाँ है?
झुक जाते हैं वहीं अगिन सर
पड़ जाते गुरु-चरण जहाँ हैं
सत्य बात
समझाये पूरी
गुरु में होना
ज्ञान जरूरी
*
४-१२-२०१६
प्रीमिअर टेक्निकल इंस्टीटयूट जबलपुर

***

अष्ट मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
यही है वचन
करेंगे जतन
न भूलें कभी
विधाता नमन
न हारे कभी
हमारा वतन
सदा हो जयी
सजीला चमन
करें वंदना
दिशाएँ-गगन
*
२. पदादि मगण
जो बोओगे
वो काटोगे
जो बाँटोगे
वो पाओगे
*
चूं-चूं आई
दाना लाई
खाओ खाना
चूजे भाई
चूहों ने भी
रोटी पाई
बिल्ली मौसी
है गुस्साई
*
३. पदादि तगण
जज्बात नए
हैं घाट नए
सौगात नई
आघात नए
ऊगे फिर से
हैं पात नए
चाहें बेटे
हों तात नए
गायें हम भी
नग्मात नए
*
४. पदादि रगण
मीत आइए
गीत गाइए
प्रीत बाँटिए
प्रीत पाइए
नेह नर्मदा
जा नहाइए
जिंदगी कहे
मुस्कुराइए
बन्दगी करें
जीत जाइए
*
५. पदादि जगण
कहें कहानी
सदा सुहानी
बिना रुके ही
कमाल नानी
करें करिश्मा
कहें जुबानी
बुजुर्गियत भी
उम्र लुभानी
हुई किसी की
न राजधानी
*
६. पदादि भगण
हुस्न जहाँ है
इश्क वहाँ है
बोल-बताएँ
आप कहाँ हैं?
*
७. पदादि नगण
सुमन खिला है
गगन हँसा है
प्रभु धरती पर
उतर फँसा है
श्रम करता जो
सुफल मिला है
फतह किया क्या
व्यसन-किला है
८. पदादि सगण
हम हैं जीते
तुम हो बीते
जल क्या देंगे
घट हैं रीते?
सिसके जनता
गम ही पीते
कहता राजा
वन जा सीते
नभ में बादल
रिसते-सीते
२-२-२०१७
***