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रविवार, 25 मई 2025

मई २५, बिटिया, दुर्गा भाभी, हिंदी, जाति, विवाह, स्वरबद्ध दोहे, हाइकु, अंगिका,

 सलिल सृजन मई २५

*
एक रचना
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
पहला पैर रखा धरती पर
खड़े न रहकर
गिरे धम्म से।
कदम बढ़ाया चल न सके थे
बार बार
कोशिश की हमने।
'इकनी एक' न एक बार में
लिख पाए हम
तो न करें गम।
'अ अनार का' बार बार
लिख गलत
सही सीखा था हमने।
नहीं विफलता से घबराया
जो उसने ही
मंजिल पाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
उड़ा न पाता जो पतंग वह
कर अभ्यास
उड़ाने लगता।
गोल न रोटी बनती गर तो
आंटा बेलन
तवा न थकता।
बार बार गिरती मकड़ी पर
जाल बनाए बिना
न रुकती।
अगिन बार तिनके गिरते पर
नीड़ बिना
पाखी कब रुकता।
दुखी न हो, संकल्प न छोड़ो
अश्रु न मीत
न सखी रुलाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
कुंडी बार बार खटकाओ
तब दरवाजा
खुल पाता है।
अगणित गीत निरंतर गाओ
तभी कंठ-स्वर
सध पाता है।
श्वास ट्रेन पर आस मुसाफिर
थके-चुके बिन
चलते रहता।
प्रभु सुन ले या करें अनसुनी
भक्त सतत
भजता जाता है।
रुके न थक जो
वह तरुणाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
२५-५-२०२३
***
दुर्गा भाभी और हम
*
विधि की विडंबना किअंग्रेजो से माफी माँगनेवाले स्वातंत्र्य वीर और प्रधान मंत्री हो गए किन्तु जान हथेली पर रखकर अंग्रेजों की नाक में दम करनेवाले किसी को याद तक नहीं आते।
एक वो भी थे जो देश हित कुर्बान हो गए।
एक हम हैं जो उनको याद तक नहीं करते।।
दुर्गा भाभी साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजो की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गई थीं। इनके पति क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है किचंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में दुर्गा भाभी द्वारा दी गई माउजर पिस्तौल थी।
१४ अक्टूबर १९९९ में वो इस दुनिया से चुपचाप ही विदा हो गईं।
आज तक उस वीरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रही चाहे वो सरकार हो या जनता।
एक स्मारक तक उनके नाम पर नहीं है, कहीं कोई मूर्ति नहीं है उनकी। सरकार, पत्रकार और जनता किसी को नहीं आती उनकी याद। कितने कृतघ्न हैं हम?
***
दोहा दुनिया
कर उपासना सिंह की, वन में हो तव धाक
सिर नीचा पर समझ ले, तेरी ऊँची नाक
*
दोहा प्रगटे आप ही, मेरा नहीं प्रयास
मातु शारदा की कृपा, अनायास सायास
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, तभी प्रगट हो सत्य
बाकी मायाजाल है, है असत्य भी सत्य
*चाह चाहकर हो चली, जर्जर देह विदेह
वाह वाह कर ले तनिक, हो संजीव अगेह
***
मुक्तिका
*
परिंदे मिल कह रहे हैं ईद मुबारक
सेठ दौलत तह रहे हैं ईद मुबारक
कामगर बेकाम भूखे पेट मर रहा
दे रहे हैं कर्ज बैंक ईद मुबारक
खेत की छाती पे राजमार्ग बन गया
है नहीं दरख्त-कुआँ ईद मुबारक
इंजीनियर मजदूर की है कद्र कुछ नहीं
नेता पुलिस की बोलिए जय ईद मुबारक
जा आइने के सामने मिलिए गले खुद से
आँखों नें आँख डाल कहें ईद मुबारक
***
हिंदी के सोरठे
*
हिंदी मोतीचूर, मुँह में लड्डू सी घुले
जो पहले था दूर, मन से मन खुश हो मिले
हिंदी कोयल कूक, कानों को लगती भली
जी में उठती हूक, शब्द-शब्द मिसरी डली
हिंदी बाँधे सेतु, मन से मन के बीच में
साधे सबका हेतु, स्नेह पौध को सींच के
मात्रिक-वर्णिक छंद, हिंदी की हैं खासियत
ज्योतित सूरज-चंद, बिसरा कर खो मान मत
अलंकार है शान, कविता की यह भूल मत
छंद हीन अज्ञान, चुभा पेअर में शूल मत
हिंदी रोटी-दाल, कभी न कोई ऊबता
ऐसा सूरज जान, जो न कभी भी डूबता
हिंदी निश-दिन बोल, खुश होगी भारत मही
नहीं स्वार्थ से तोल, कर केवल वह जो सही
२२-५-२०२०
***
अनुलोम-विलोम
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण
*
अनुलोम अर्थात रचना की किसी पँक्ति को सीधा पढ़ने पर भी अर्थ निकले और विलोम अर्थात् उल्टा (पीछे से ) पढ़ने पर भी अर्थ दे ।
संस्कृत के कई कवियों तथा रीतिकालीन हिन्दी के आचार्य कवि केशव दास ने भी ऐसी रचनाएँ की हैं ।
नीचे लिखी रचना में अनुलोम लावणी में और विलोम ताटंक छन्द में बन पड़ा है।
अनुलोम
=======
क्यों दी रोक सार कह नारी गोधारा नीलिमा नदी ।
क्यों दी मोको तालि लय जया माता मम कालिमा पदी ।।
विलोम
=====
दीन मालिनी राधा गोरी नाहक रसा करोदी क्यों ?
दीप मालिका ममता माया जयललिता को मोदी क्यों ?
अनुलोम का अर्थ
===
हे नारी तूने नीलिमा ( यमुना ) नदी की बहती हुई गो धारा क्यों रोक दी ।ऐसा ही करना था तो उस काले पैरों वाली ( कालिमापदी) मेरी जया माता ने मुझे लय और ताल क्यों दी ? यह बता ।
विलोम का अर्थ
====
दीन गरीब मालिनी ने राधा गोरी से पूछा कि तू नाहक धरती क्यों कुरेद रही है पता लगा कि तेरे होते हुए आजकल ये दीप मालिका सी ममता माया व जयललिता को मोदी क्यों चाहिए ?
***
चिंतन:
जाति, विवाह और कर्मकांड
*
जात कर्म = जन्म देने की क्रिया, जातक = नज्म हुआ बच्चा, जातक कथा = विविध योनियों में अवतार लिए बुद्ध की कथाएं.
विविध योनियों में बुद्ध कौन थे यह पहचान उनकी जाति से हुई. जाति = गुण-धर्म.
'जन्मना जायते शूद्रो' के अनुसार हर जातक जन्मा शूद्र होता है.
कर्म के अनुसार वर्ण होता है. 'चातुर्वण्य मया सृष्टम गुण कर्म विभागश:' कृष्ण गीता में.
सनातन धर्म में एक गोत्र, एक कुल, पिता की सात पीढ़ी और माँ की सात पीढ़ी में, एक गुरु के शिष्यों में, एक स्थान के निवासियों में विवाह वर्जित है. यह 'जेनेटिक मिक्सिंग' का भारतीय रूप ही है.
इनमें से हर आधार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है.
जो अव्यक्त है, वह निराकार है. जो निराकार है उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात चित्र गुप्त है. यह चित्रगुप्त कौन है?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनाम' चित्रगुप्त सर्व प्रथम प्रणाम के योग्य हैं जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं'
'कायास्थिते स: कायस्थ:' वह (चित्रगुप्त या परमात्मा) जब किसी काया का निर्माण कर उसमें स्थित (आत्मा रूप में) होता है तो कायस्थ कहलाता है.
जैसे कुँए में जल, बाल्टी में निकाला तो जल, लोटे में भरा तो जल, चुल्लू से पिया तो जल, उसी प्रकार परमात्मा का अंश हर आत्मा भी काया धारण कर कायस्थ है.इसीलिये कायस्थ किसी एक वर्ण में नहीं है.
तात्पर्य यह कि सनातन चिंतन में वह है ही नहीं जो समाज में प्रचलन में है. आवश्यकता चिंतन को छोड़ने की नहीं सामाजिक आचार को बदलने की है. जो परिवर्तन की दिशा में सबसे आगे चले वह अग्रवाल, जिसके पास वास्तव में श्री हो वह श्रीवास्तव. जब दोनों का मेल हो तो सत्य और श्रेष्ठ ही बढ़ेगा.
विवाह दो जातकों का होता है, उनके रिश्तेदारों, परिवारों, प्रतिष्ठा या व्यवसाय का नहीं होता. पारस्परिक ताल-मेल, समायोजन, सहिष्णुता और संवेदनशीलता हो तो विवाह करना चाहिए अन्यथा विग्रह होना ही है.
पंडा, पुजारी, मुल्ला, मौलवी, ग्रंथी, पादरी होना धंधा है. जब कोई दूकानदार, कोई मिल मालिक हमें नियंत्रित नहीं करता करे तो हम स्वीकारेंगे नहीं तो कर्मकांड का व्यवसाय करनेवालों की दखलंदाजी हम क्यों मानते हैं? कमजोरी हमारी है, दूर भी हमें ही करना है.
२५-५-२०१७
***
स्वरबद्ध दोहे :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद
*
इश्वाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार
उच्छ्वासित उज्जवल उतरु, उजला उत्थ उकार
*
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश
*
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
२५-५-२०१६
***
एक दोहा
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
***
मुक्तिका:
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं
कमल-दल सम, भा गयीं
*
ज़िन्दगी के मंच पर
बन्दगी बन छा गयीं
*
विरह-गीतों में विहँस
मिलन-रस बिखरा गयीं
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं
*
हर कहानी अनकही
बिन कहे फरमा गयीं
***
मुक्तिका:
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है
*
जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***
हाइकु चर्चा : १.
*
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है. हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं. मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी.
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है.
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ haikai no renga सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है. 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है. हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है.
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं.
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
Write a Haiku Poem Step 2.jpgपारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं. अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं. समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं. अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं. इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है. ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है. हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है. अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है. अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
२५-५-२०१४
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
२३-५-२०१५
***
नवगीत:
लौटना मत मन...
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.
फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.
आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
*
क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?
सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
२५.५.२०१४
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२१-५-२०१३
===
गीत:
संजीव 'सलिल'
*
साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....
*
थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....
*
टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
२५-५-२०१०
***

शनिवार, 25 मई 2024

मई २५, बिटिया, दुर्गा भाभी, अनुलोम विलोम, मुक्तिक, दोहा, नवगीत, जाति, शकुन्तला खरे

सलिल सृजन मई २५
*
एक रचना
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
पहला पैर रखा धरती पर
खड़े न रहकर
गिरे धम्म से।
कदम बढ़ाया चल न सके थे
बार बार
कोशिश की हमने।
'इकनी एक' न एक बार में
लिख पाए हम
तो न करें गम।
'अ अनार का' बार बार
लिख गलत
सही सीखा था हमने।
नहीं विफलता से घबराया
जो उसने ही
मंजिल पाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
उड़ा न पाता जो पतंग वह
कर अभ्यास
उड़ाने लगता।
गोल न रोटी बनती गर तो
आंटा बेलन
तवा न थकता।
बार बार गिरती मकड़ी पर
जाल बनाए बिना
न रुकती।
अगिन बार तिनके गिरते पर
नीड़ बिना
पाखी कब रुकता।
दुखी न हो, संकल्प न छोड़ो
अश्रु न मीत
न सखी रुलाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
कुंडी बार बार खटकाओ
तब दरवाजा
खुल पाता है।
अगणित गीत निरंतर गाओ
तभी कंठ-स्वर
सध पाता है।
श्वास ट्रेन पर आस मुसाफिर
थके-चुके बिन
चलते रहता।
प्रभु सुन ले या करें अनसुनी
भक्त सतत
भजता जाता है।
रुके न थक जो
वह तरुणाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
२५-५-२०२३
***
दुर्गा भाभी और हम
*
विधि की विडंबना किअंग्रेजो से माफी माँगनेवाले स्वातंत्र्य वीर और प्रधान मंत्री हो गए किन्तु जान हथेली पर रखकर अंग्रेजों की नाक में दम करनेवाले किसी को याद तक नहीं आते।
एक वो भी थे जो देश हित कुर्बान हो गए।
एक हम हैं जो उनको याद तक नहीं करते।।
दुर्गा भाभी साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजो की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गई थीं। इनके पति क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है किचंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में दुर्गा भाभी द्वारा दी गई माउजर पिस्तौल थी।
१४ अक्टूबर १९९९ में वो इस दुनिया से चुपचाप ही विदा हो गईं।
आज तक उस वीरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रही चाहे वो सरकार हो या जनता।
एक स्मारक तक उनके नाम पर नहीं है, कहीं कोई मूर्ति नहीं है उनकी। सरकार, पत्रकार और जनता किसी को नहीं आती उनकी याद। कितने कृतघ्न हैं हम?
***
दोहा दुनिया
कर उपासना सिंह की, वन में हो तव धाक
सिर नीचा पर समझ ले, तेरी ऊँची नाक
*
दोहा प्रगटे आप ही, मेरा नहीं प्रयास
मातु शारदा की कृपा, अनायास सायास
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, तभी प्रगट हो सत्य
बाकी मायाजाल है, है असत्य भी सत्य
*चाह चाहकर हो चली, जर्जर देह विदेह

वाह वाह कर ले तनिक, हो संजीव अगेह
***
मुक्तिका
*
परिंदे मिल कह रहे हैं ईद मुबारक
सेठ दौलत तह रहे हैं ईद मुबारक
कामगर बेकाम भूखे पेट मर रहा
दे रहे हैं कर्ज बैंक ईद मुबारक
खेत की छाती पे राजमार्ग बन गया
है नहीं दरख्त-कुआँ ईद मुबारक
इंजीनियर मजदूर की है कद्र कुछ नहीं
नेता पुलिस की बोलिए जय ईद मुबारक
जा आइने के सामने मिलिए गले खुद से
आँखों नें आँख डाल कहें ईद मुबारक
***
हिंदी के सोरठे
*
हिंदी मोतीचूर, मुँह में लड्डू सी घुले
जो पहले था दूर, मन से मन खुश हो मिले
हिंदी कोयल कूक, कानों को लगती भली
जी में उठती हूक, शब्द-शब्द मिसरी डली
हिंदी बाँधे सेतु, मन से मन के बीच में
साधे सबका हेतु, स्नेह पौध को सींच के
मात्रिक-वर्णिक छंद, हिंदी की हैं खासियत
ज्योतित सूरज-चंद, बिसरा कर खो मान मत
अलंकार है शान, कविता की यह भूल मत
छंद हीन अज्ञान, चुभा पेअर में शूल मत
हिंदी रोटी-दाल, कभी न कोई ऊबता
ऐसा सूरज जान, जो न कभी भी डूबता
हिंदी निश-दिन बोल, खुश होगी भारत मही
नहीं स्वार्थ से तोल, कर केवल वह जो सही
२२-५-२०२०
***
अनुलोम-विलोम
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण
*
अनुलोम अर्थात रचना की किसी पँक्ति को सीधा पढ़ने पर भी अर्थ निकले और विलोम अर्थात् उल्टा (पीछे से ) पढ़ने पर भी अर्थ दे ।
संस्कृत के कई कवियों तथा रीतिकालीन हिन्दी के आचार्य कवि केशव दास ने भी ऐसी रचनाएँ की हैं ।
नीचे लिखी रचना में अनुलोम लावणी में और विलोम ताटंक छन्द में बन पड़ा है।
अनुलोम
=======
क्यों दी रोक सार कह नारी गोधारा नीलिमा नदी ।
क्यों दी मोको तालि लय जया माता मम कालिमा पदी ।।
विलोम
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दीन मालिनी राधा गोरी नाहक रसा करोदी क्यों ?
दीप मालिका ममता माया जयललिता को मोदी क्यों ?
अनुलोम का अर्थ
===
हे नारी तूने नीलिमा ( यमुना ) नदी की बहती हुई गो धारा क्यों रोक दी ।ऐसा ही करना था तो उस काले पैरों वाली ( कालिमापदी) मेरी जया माता ने मुझे लय और ताल क्यों दी ? यह बता ।
विलोम का अर्थ
====
दीन गरीब मालिनी ने राधा गोरी से पूछा कि तू नाहक धरती क्यों कुरेद रही है पता लगा कि तेरे होते हुए आजकल ये दीप मालिका सी ममता माया व जयललिता को मोदी क्यों चाहिए ?
***
चिंतन:
जाति, विवाह और कर्मकांड
*
जात कर्म = जन्म देने की क्रिया, जातक = नज्म हुआ बच्चा, जातक कथा = विविध योनियों में अवतार लिए बुद्ध की कथाएं.
विविध योनियों में बुद्ध कौन थे यह पहचान उनकी जाति से हुई. जाति = गुण-धर्म.
'जन्मना जायते शूद्रो' के अनुसार हर जातक जन्मा शूद्र होता है.
कर्म के अनुसार वर्ण होता है. 'चातुर्वण्य मया सृष्टम गुण कर्म विभागश:' कृष्ण गीता में.
सनातन धर्म में एक गोत्र, एक कुल, पिता की सात पीढ़ी और माँ की सात पीढ़ी में, एक गुरु के शिष्यों में, एक स्थान के निवासियों में विवाह वर्जित है. यह 'जेनेटिक मिक्सिंग' का भारतीय रूप ही है.
इनमें से हर आधार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है.
जो अव्यक्त है, वह निराकार है. जो निराकार है उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात चित्र गुप्त है. यह चित्रगुप्त कौन है?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनाम' चित्रगुप्त सर्व प्रथम प्रणाम के योग्य हैं जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं'
'कायास्थिते स: कायस्थ:' वह (चित्रगुप्त या परमात्मा) जब किसी काया का निर्माण कर उसमें स्थित (आत्मा रूप में) होता है तो कायस्थ कहलाता है.
जैसे कुँए में जल, बाल्टी में निकाला तो जल, लोटे में भरा तो जल, चुल्लू से पिया तो जल, उसी प्रकार परमात्मा का अंश हर आत्मा भी काया धारण कर कायस्थ है.इसीलिये कायस्थ किसी एक वर्ण में नहीं है.
तात्पर्य यह कि सनातन चिंतन में वह है ही नहीं जो समाज में प्रचलन में है. आवश्यकता चिंतन को छोड़ने की नहीं सामाजिक आचार को बदलने की है. जो परिवर्तन की दिशा में सबसे आगे चले वह अग्रवाल, जिसके पास वास्तव में श्री हो वह श्रीवास्तव. जब दोनों का मेल हो तो सत्य और श्रेष्ठ ही बढ़ेगा.
विवाह दो जातकों का होता है, उनके रिश्तेदारों, परिवारों, प्रतिष्ठा या व्यवसाय का नहीं होता. पारस्परिक ताल-मेल, समायोजन, सहिष्णुता और संवेदनशीलता हो तो विवाह करना चाहिए अन्यथा विग्रह होना ही है.
पंडा, पुजारी, मुल्ला, मौलवी, ग्रंथी, पादरी होना धंधा है. जब कोई दूकानदार, कोई मिल मालिक हमें नियंत्रित नहीं करता करे तो हम स्वीकारेंगे नहीं तो कर्मकांड का व्यवसाय करनेवालों की दखलंदाजी हम क्यों मानते हैं? कमजोरी हमारी है, दूर भी हमें ही करना है.
२५-५-२०१७
***
स्वरबद्ध दोहे :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद
*
इश्वाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार
उच्छ्वासित उज्जवल उतरु, उजला उत्थ उकार
*
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश
*
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
२५-५-२०१६
***

एक दोहा
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
***

मुक्तिका:
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं
कमल-दल सम, भा गयीं
*
ज़िन्दगी के मंच पर
बन्दगी बन छा गयीं
*
विरह-गीतों में विहँस
मिलन-रस बिखरा गयीं
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं
*
हर कहानी अनकही
बिन कहे फरमा गयीं
***

मुक्तिका:
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है
*
जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***


हाइकु चर्चा : १.
*
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है. हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं. मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी.
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है.
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ haikai no renga सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है. 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है. हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है.
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं.
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
Write a Haiku Poem Step 2.jpgपारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं. अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं. समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं. अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं. इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है. ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है. हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है. अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है. अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
२५-५-२०१४
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
२३-५-२०१५
***

नवगीत:
लौटना मत मन...
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.
फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.
आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
*
क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?
सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
२५.५.२०१४
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२१-५-२०१३
===
गीत:
संजीव 'सलिल'
*
साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....
*
थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....
*
टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
२५-५-२०१०
***

शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

जाति, विंध्याचल, अवनीश त्रिपाठी, दोहे,








दोहे 
*
देकर यह ही समझिए, कभी अपने दी न 
देकर सकझ रहे दिया, तो सचमुच हैं दीन 
*
दिल से जिसको चाहते, क्या उसको है भान?
अगणहीन तो व्यर्थ है, उससे कहना 'भा न' 
*
उसको मृण्मय जानिए, जिसने खो दी आन 
मत उसको मनुहारिए, 'जा मत संग निभा न' 
*
जब तक मन उन्मन न हो, तब तक तन्मय हो न
शांति वरण करना अगर, कुछ अशान्ति भी बो न
*
तब तक कुछ मिलता कहाँ, जब तक तुम कुछ खो न.
दूध पिलाती माँ नहीं, बच्चा जब तक रो न.
*
खोज-खोजकर थक गया, किंतु मिला इस सा न.
और सभी कुछ मिला गया, मगर मिला उस सा न.
*
बहुत हुआ अब मानिए, रूठे रहिए यों न.
नीर-क्षीर सम हम रहे, मिल आपस में ज्यों न.
***
चौपाल चर्चाः -
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं.
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके.
२८-७-२०२०
***
कृति समीक्षा :
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के
मटमैलेपन में
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की
परिभाषा का विश्लेषण कर लो।
साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है।
स्वर्ग निरंतर
उत्सव में है
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े
आशा का अन्वेषण कर लो।
मिट्टी के संशय को समझो
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।
हठधर्मी सूरज के
सम्मुख
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।
मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है।
नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-
गुदगुदाकर
मंजरी को
खुश्बूई लम्हे खिले,
पंखुरी के
पास आई
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।
कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-
"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ
कवि के मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ-
अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।
अलंकार ले
चलती कविता
सर से पाँव लदी।
अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।
सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है-
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा
किस सनातन सत्य से संवाद हो
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो
और
चुप्पियों ने मर्म सारा
लिख दिया जब चिट्ठियों में,
अक्षरों को याद आए
शक्ति के संचार की
अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -
क्यों जगाकर
दर्द के अहसास को
मन अचानक मौन होना चाहता है?
पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं-
फिर हठीला
ज्ञान रसवंती नदी में
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।
नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है-
रामचरित की
कथा पुरानी
काट रही है कन्नी
साखी-शबद
रमैनी की भी
कीमत हुई अठन्नी
तीसमारखाँ
मंचों पर अब
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी
याद आ गई नानी।
और
आज तलक
साहित्य जिन्होंने
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों
पर उगती अब
कविताओं की रेखा।
नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं-
मात्रापतन
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं
इनके नव प्रयोग से सहमीं
कवितायेँ घायल हैं
गले फाड़ना
फूहड़ बातें
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं
नहीं दूसरा सानी।
'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है? अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं-
स्वप्नों की
समिधायें लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर
आओ, हवं करें।
शमित सूर्य को
बोझल तर्पण
ायासित संबोधन,
आवेशित
कुछ घनी चुप्पियाँ
निरानंद आवाहन।
निराकार
साकार व्यवस्थित
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी
क्षितिज चयन करें।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है-
त्रुटियों का
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ
अर्थहीन वाचन की पद्धति
चिंतन-मनन करें।
और
संस्कृत-सूक्ति
विवेचन-दर्शन
सूत्र-न्याय संप्रेषण
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था
बौद्धिक यजन करें।
बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -
पीड़ाओं
की झोली लेकर
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
.... हे कविता!
जीवंत जीवनी
तुमने मुझको गीत बनाया।
सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।
वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।
समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।
'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है-
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से,
उस गड़ही के तीर .
नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है-
चेत गए हैं अब तो भैया
कलुआ और कदीर।
यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब
गीत धधकने लगता है तब
और
खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें
विश्व भारती उगने दें हम
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ
नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेति अवनीश त्रिपाठी बढ़ाई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा।
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]
२८-७-२०१९
***
नवगीत
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
२८-७-२०१५
***
चौपाल चर्चाः
अनुगूँजा सिन्हाः मैं आपके प्रति पूरे सम्मान के साथ आपको एक बात बताना चाहती हूँ कि मैं जाति में यकीन नही रखती हूँ और मैं कायस्थ नहीं हूँ।
अनुगून्जा जी!
आपसे सविनय निवेदन है कि-
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं.
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. समय और परिस्थितियों ने शब्दों के अर्थ भुला दिये, अर्थ का अनर्थ अज्ञानता के दौर में हुआ. अब ज्ञान सुलभ है, हम शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करें तो समरसता स्थापित करने में सहायक होंगे। दुर्भाग्य से जन प्रतिनिधि इसमें बाधक और दलीय स्वार्थों के साधक है.
२८-७-२०१४
***