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शनिवार, 2 जुलाई 2022

द्विपदि, दोहा, छंद ​सवाई, छंद समान,मुक्तिका, दोस्त, सूरज, पोयम

***
छंद चर्चा:
दोहा गोष्ठी:
*
सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल के लें विश्राम।।
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
२-७-२०१८
***
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।
***
छंद सलिला:
​सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।

लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन

उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन

२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक


३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापि
२-७-२०१३
***
दोस्त / FRIEND




दोस्त






POEM : FRIEND




You came into my life as an unwelcome face,


Not ever knowing our friendship, I would one day embrace.


As I wonder through my thoughts and memories of you,


It brings many big smiles and laughter so true.








I love the special bond that we beautifully share,


I love the way you show you really care,


Our friendship means the absolute world to me,


I only hope this is something I can make you see.




Thankyou for opening your mind and your souls,


I wiee do all I can to help heal your hearts little holes.


Remember, your secrects are forever safe within me,


I will keep them under the tightest lock and key.




Thankyou for trusting me right from the start.


You truely have got a wonderful heart.


I am now so happy I felt that embrace.


For now I see the beauty of my best friend's face...




*********************








***
SMILE ALWAYS


Inside the strength is the laughter.
Inside the strength is the game.
Inside the strength is the freedom.
The one who knows his strength knows the paradise.
All which appears over your strengths is not necessarily Impossible,
but all which is possible for the human cannot be over your strengths.


Know how to smile :


What a strength of reassurance,
Strength of sweetness, peace,
Strength of brilliance !
May the wings of the butterfly kiss the sun
and find your shoulder to light on...
to bring you luck
happiness and cheers
smile always
२-७-२०१२
***
-: मुक्तिका :-
सूरज - १
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..


धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..


पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..


अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..


भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..


नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.


करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..


*
सूरज - २


चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..


तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..


सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?


समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..


न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने,
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..


लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..


'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३


शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..


भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..


किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..


युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..


प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..


चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..


न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
२-७-२०११
***
गीत:
प्रेम कविता...
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
२-७-२०१०
*

गुरुवार, 23 जून 2022

सॉनेट, मुक्तक,बाल गीत,द्विपदि, काल है संक्रांति का,मुक्तिका, नवगीत

सॉनेट 
विधायक 
अंधेर नगरी चौपट राजा
बिकें टके के तीन विधायक 
रुपै सेर भाजी, टके सेर खाजा
सत्ता-पद-मद हुए नियामक 

आपन मुख आपन प्रभुताई
निज कवित्त ही लागे नीका
भले अंत में हो रुसवाई 
कर निज माथे पर खुद टीका

संविधान को दिखला ठेंगा 
लोकतंत्र का गला घोंट दे
नाग-साँप कुर्सी पर बैठा
जो विषधर तू उसे वोट दे

पंडे झंडे डंडे की जय
बोलो, अंडे खाओ निर्भय
२३-६-२०२२
•••
दो दुम का दोहा
उषा सूर्य कर गह कहे, जगो हो गई भोर।
आलस तजकर थाम लो, श्रम-कोशिश की डोर।।
सफलता तभी मिलेगी
कहानी नई बनेगी
मुक्तक
*************************
हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर
पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर
कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष
किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. *
तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में
पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में
याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी
सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में
***
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
२३-६-२०१७
***
कुछ द्विपदियाँ :
वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.
राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..
*
चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.
शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..
*
रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.
रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..
*
मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.
'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..
*
खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी राहतें.
झुग्गियों में जो बसे, सुधरी नहीं उनकी गतें..
*
थक गए उपदेश देकर, संत मुल्ला पादरी.
सुन रहे प्रवचन मगर, छोड़ें नहीं श्रोता लतें.
*
२३-६-२०१०
***
पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेदनात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधार, आपदा निवारण व शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं।
इंजीनियर्स फोरम (भारत) के महामंत्री के रूप में अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सार्थक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं।
अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के प्रति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिपा माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति के उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिन उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ता फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'मत हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायें दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका
देश-हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जन-हित का
भार करों का इतना ही हो दरक न जाएँ दीवारें
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५
***
मुक्तिका
*
साँझ शर्मा गयी, गुलाल हुई
क्या कहूँ?, हाय! बेमिसाल हुई
*
एक पल में हँसी वो बच्ची सी
दूसरे पल मचल, धमाल हुई
*
फ़िक्र में माँ दुपहरी दुबलाई
रात दादी मिली, निहाल हुई
*
चाँद माथे सजा, लगे सूरज
चाँदनी जिस्म-ढल कमाल हुई
*
होंठ हैं या कमल की पंखुड़ियाँ?
मुस्कुराहट भ्रमर-रसाल हुई
*
ओढ़नी-टाँक ओढ़कर तारे
ज़ुल्फ़ काली नची निढाल हुई
*
अँजुरी में 'सलिल' लिया बरबस
रूप देखे नज़र सवाल हुई
२३-६-२०१५
***
विमर्श:
जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद ३७०
संजीव
*
भारत की स्वतंत्रता के समय भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के अनुसार भारतीय रियासतों को छूट थी कि वे भारत या पाकिस्तान में से जिसके साथ चाहें विलय करें या दोनों में से किसी से विलय न कर स्वतंत्र रहें। कश्मीर, हैदराबाद तथा जूनागढ़ को छोड़कर शेष रियासतों ने अधिमिलन पत्र हस्ताक्षरित कर भारत के साथ मिलन स्वीकार कर लिया। जूनागढ़ की जनता ने नवाब से विद्रोह कर भारत में विलय की घोषणा कर दी तो नवाब पाकिस्तान भाग गया। हैदराबाद में जनता भारत चाहती थी जबकि नवाब पाकिस्तान में। तब सरदार पटेल ने सैन्य कार्यवाही कर जनता के चाहे अनुसार नवाब को भारत में विलय स्वीकारने हेतु बाध्य कर दिया।
जम्मू-कश्मीर के एक भाग में मुस्लिम जनसँख्या अधिक थी तो दूसरे में हिंदू, राजा हिन्दू तो वज़ीर मुसलमान। मुसलमान वज़ीर शेख अब्दुल्ला तथा जनता भारत में विलय के पक्ष में थे, पाकिस्तान मुस्लिम आबादी का आधार लेकर अपना दावा कर रहा था, जबकि महाराज हरिसिंह स्वतंत्र देश के रूप में रहना चाहते थे। पाकिस्तान ने अनिश्चितता का लाभ उठाने की नियत से फ्रोंटियर के पठानों को शस्त्र देकर कश्मीर पर हमलाकर कब्ज़ा करने के लिए भेजा। अपना बचाव करने में असमर्थ होकर २६-१०-१९४७ को महाराज ने भारत सरकार के पास विलय पत्र भेजा।
महाराज तथा भारत सरकार के बीच वार्ता में महाराजा ने जनप्रतिनिधियों के सहयोग से उत्तरदायी सरकार बनाकर वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कराना तथा कश्मीरी संविधान निर्माण हेतु विधान सभा बनाना स्वीकार कर ५-३-१९४८ को उद्घोषणा जारी की।महाराज के स्थान सत्तासीन युवराज कर्णसिंह ने २५-११-१९४९ को एक उद्घोषणा जारी की जिसके आधार पर संविधान के भाग २१ में अनुच्छेद ३७० अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध सम्मिलित कर ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा दिया है। इसके अनुसार अनुच्छेद २३८ के उपबंध जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। इस राज्य के सम्बन्ध में भारत की कानून बनाने की शक्ति उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति राज्य सरकार से परामर्श कर अधिमिलन पत्र में निर्दिष्ट ऐसे विषय के रूप घोषित कर दे उक्त जिस पर भारत कानून बना सकता है।
अतः संसद को जम्मू -कश्मीर के सम्बन्ध में स्वरक्षा, यातायात, मुद्रा (सिक्का) तथा विदेश नीति के सम्बन्ध में ही कानून बनाने का अधिकार है. अन्य विषयों पर कानून कश्मीर सरकार की सहमति से ही बनाया जा सकता है। राष्ट्रपति ने संविधान जम्मू-कश्मीर में प्रभावशील होने का आदेश १९५० में जारी तथा १९५४ में परिवर्तित किया। अनुच्छेद २४६ के अनुसार अवशिष्ट शक्तियाँ संसद को नहीं कश्मीर विधान सभा को है।
इस अनुच्छेद के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विविध वादों में निर्गत निर्णयों के अनुसार यह अनुच्छेद अस्थायी है किन्तु इसे राज्य विधान सभा की सहमति से ही समाप्त किया जा सकता है।
इसी अनुच्छेद में गुजरात, महाराष्ट्र, नागालैंड, सिक्किम मिजोरम आदि सम्बन्धी विशेष उपबंधों की चर्चा है।
***
गीत:
मौसम बदल रहा है…
*
मौसम बदल रहा है
टेर रही अमराई
परिवर्तन की आहट
पनघट से भी आई...
*
जन आकांक्षा नभ को
छूती नहीं अचंभा
छाँव न दे जनप्रतिनिधि
ज्यों बिजली का खंभा
आश्वासन की गर्मी
सूरज पीटे डंका
शासन भरमाता है
जनगण मन में शंका
अपचारी ने निष्ठा
बरगद पर लटकाई
सीता-द्रुपदसुता अब
घर में भी घबराई...
*
मौनी बाबा गायब
दूजा बड़बोला है
रंग भंग में मिलकर
बाकी ने घोला है
पत्नी रुग्णा लेकिन
रास रचाये बुढ़ापा
सुत से छोटी बीबी
मिले शौक है व्यापा
घोटालों में पीछे
ना सुत, नहीं जमाई
संसद तकती भौंचक
जनता है भरमाई...
*
अच्छे दिन आए हैं
रखो साल भर रोजा
घाटा घटा सकें वे
यही रास्ता खोजा
हिंदी की बिंदी भी
रुचे न माँ मस्तक पर
धड़क रहा दिल जन का
सुन द्वारे पर दस्तक
क्यों विरोध की खातिर
हो विरोध नित भाई
रथ्या हुई सियासत
निष्कासित सिय माई...
२३-६-२०१४
***
नवगीत:
करो बुवाई...
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
२३-६-२०११
***
मुक्तिका:
आँख का पानी
*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..
शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुआँ है आँख का पानी..
द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..
मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..
हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..
किया मुजरा, मिला नजराना न तो बोले-
जहन्नुम जाए मुआ! खो आँख का पानी..
देवकी राधा यशोदा कभी विदुरानी.
रुक्मिणी कुंती बुआ है आँख का पानी..
देख चन्दा याद आतीं रोटियाँ जिनको
दिखे सूरज में पुआ बन आँख का पानी..
भजन प्रवचन सबद साखी साधना बानी
'सलिल' पुरखों की दुआ है आँख का पानी..
२३-६-२०१०
***

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

द्विपदियाँ,दोहा मुक्तिका,भोजपुरी दोहा,२१ बुंदेली लोक कथाएँ,रामायण एक मुक्तकी, दुर्गा, साधना

देवी गीत -
*
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
नीले गगनवा से उतरो हे मैया! २१
धरती पे आओ तनक छू लौं पैंया। २१
माँगत हौं अँचरा की छैंया। १६
न मो खों मैया बिसारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
खेतन मा आओ, खलिहानन बिराजो २१
पनघट मा आओ, अमराई बिराजो २१
पूजन खौं घर में बिराजो १५
दुआरे 'माता!' गुहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
साजों में, बाजों में, छंदों में आओ २२
भजनों में, गीतों में मैया! समाओ २१
रूठों नें, दरसन दे जाओ १६
छटा संतानें निहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
***
एक मुक्तकी रामायण
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
तार शबरी, मार रावण, सिंधु बाँधा, पूज शिव।
सिय छुड़ा, आ अवध, जन आकांक्षा पूरी करी।।
यह विश्व की सबसे छोटी रामायण है।
'रामायण' = 'राम का अयन' = 'राम का यात्रा पथ', अयन यात्रापथवाची है।
दोहा सलिला
ऊग पके चक्की पिसे, गेहूँ कहे न पीर।
गूँथा-माढ़ा गया पर, आँटा हो न अधीर।।
कनक मुँदरिया से लिपट, कनक सराहे भाग।
कनकांगिनि कर कमल ले, पल में देती त्याग।।
लोई कागज पर रचे, बेलन गति-यति साध।
छंदवृत्त; लय अग्नि में, तप निखरे निर्बाध।।
दरस-परस कर; मत तरस, पाणिग्रहण कर धन्य।
दंत जिह्वा सँग उदर मन, पाते तृप्ति अनन्य।।
ग्रहण करें रुचि-रस सहित, हँस पाएँ रस-खान।
रस-निधि में रस-लीन हों, संजीवित श्रीमान।।
९-४-२०२२
***
कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश : लोक में नैतिकता अब भी हैं शेष
समीक्षक ; प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
*
कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी लेमिनेटेड पेपरबैक, पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स नई दिल्ली।
*
लोक कथाएँ ग्राम्यांचलों में पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रहीं ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें लोक जीवन, लोक मूल्यों और लोक संस्कृति की झलक अंतर्निहित होती है। ये कहानियाँ श्रुतियों की तरह मौखिक रूप से कही जाते समय हर बार अपना रूप बदल लेती हैं। कहानी कहते समय हर वक्ता अपने लिए सहज शब्द व स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करता है। इस कारण इनका कोई एक स्थिर रूप नहीं होता। इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्य साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने देश के केंद्र में स्थित प्रांत मध्य प्रदेश की एक प्रमुख लोकभाषा बुंदेली में कही-सुनी जाती २१ लोक कथाएँ प्रस्तुत की हैं। पुस्तकारंभ में प्रकाशक नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में देश के सभी २८ राज्यों और ९ केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित नारी मन, बाल मन, युवा मन और लोक मन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना की जानकारी दी है।

पुरोवाक के अन्तर्गत सलिल जी ने पाठकों की जानकारी के लिये लोक कथा के उद्गम, प्रकार, बुंदेली भाषा के उद्भव तथा प्रसार क्षेत्र की लोकोपयोगी जानकारी दी है। लोक कथाओं को चिरजीवी बनाने के लिए सार्थक सुझावों ने संग्रह को समृद्ध किया है। लोक कथा ''जैसी करनी वैसी भरनी'' में कर्म और कर्म फल की व्याख्या है। लोक में जो 'बोओगे वो काटोगे' जैसे लोकोक्तियाँ चिरकाल से प्रचलित रही हैं। 'भोग नहीं भाव' में राजा सौदास तथा चित्रगुप्त जी की प्रसिद्ध कथा वर्णित है जिसका मूल पदम् पुराण में है। यहाँ कर्म में अन्तर्निहित भावना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। लोक कथा 'अतिथि देव' में गणेश जन्म की कथा वर्णित है. साथ ही एक उपकथा भी है जिसमें अतिथि सत्कार का महत्व बताया गया है। 'अतिथि देवो भव' लोक व्यवहार में प्रचलित है ही। सच्चे योगी की पहचान संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिए एक राज द्वारा किए गए प्रयास और मिली सीख पर केंद्रित है लोक कथा 'कौन श्रेष्ठ'। 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' का आशीर्वाद नव वधुओं के घर के बड़े देते रहे हैं। छठ मैया का पूजन बुंदेलखंड में बहुत लोक मान्यता रखता है। यह लोक कथा छठ मैया पर ही केंद्रित है।

लोक कथा 'जंगल में मंगल' में श्रम की प्रतिष्ठा और राज्य भक्ति (देश भक्ति) के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा का संदेश समाहित है। राजा हिमालय की राजकुमारी पार्वती द्वारा वनवासी तपस्वी शिव से विवाह करने के संकल्प और तप पर केंद्रित है लोक कथा 'सच्ची लगन'। यह लोक कथा हरतालिका लोक पर्व से जुडी हुई है। मंगला गौरी व्रत कथा में प्रत्युन्नमतित्व तथा प्रयास का महत्व अंतर्निहित है। यह संदेश 'कोशिश से दुःख दूर' शीर्षक लोक कथा से मिलता है। आम जनों को अपने अभावों का सामना कर, अपने उज्जवल भविष्य के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होते हैं। यह प्रेरक संदेश लिए है लोककथा 'संतोषी हरदम सुखी'। 'पजन के लड्डू' शीर्षक लघुकथा में सौतिया डाह तथा सच की जीत वर्णित है। किसी को परखे बिना उस पर शंका या विश्वास न करने की सीख लोक कथा 'सयाने की सीख' में निहित है।

भगवान अपने सच्चे भक्त की चिंता स्वयं ही करते हैं, दुनिया को दिखने के लिए की जाती पिजा से प्रसन्न नाहने होते। इस सनातन लोक मान्यता को प्रतिपादित करती है लोक कथा 'भगत के बस में हैं भगवान'। लोक मान्यता है की पुण्य सलिला नर्मदा शिव पुत्री हैं। 'सुहाग रस' नामित लोक कथा में भक्ति-भाव का महत्व बताते हुए इस लोक मान्यता के साथ लोक पर्व गणगौर का महत्व है। मध्य प्रदेश के मालवांचल के प्रतापी नरेश विक्रमादित्य से जुडी कहानी है 'मान न जाए' जबकि 'यहाँ न कोई किसी का' कहानी मालवा के ही अन्य प्रतापी नरेश राजा भोज से संबंधित है। महाभारत के अन्य पर्व में वर्णित किन्तु लोक में बहु प्रचलित सावित्री-सत्यवान प्रसंग को लेकर लिखी गयी है 'काह न अबला करि सकै'। मनुष्य को किसी की हानि नहीं करनी चाहिए और समय पर छोटे से छोटा प्राणी भी काम आ सकता है। यह कथ्य है 'कर भला होगा भला' लोक कथा का। गोंडवाना के पराक्रमी गोंड राजा संग्रामशाह द्वारा षडयंत्रकारी पाखंडी साधु को दंडित करने पर केंद्रित है लोक कथा 'जैसी करनी वैसी भरनी'। 'जो बोया सो काटो' …
९-४-२०२२
***
मुक्तिका
*
मेहनत अधरों की मुस्कान
मेहनत ही मेरा सम्मान
बहा पसीना, महल बना
पाया आप न एक मकान
वो जुमलेबाजी करते
जिनको कुर्सी बनी मचान
कंगन-करधन मिले नहीं
कमा बनाए सच लो जान
भारत माता की बेटी
यही सही मेरी पहचान
दल झंडे पंडे डंडे
मुझ बिन हैं बेदम-बेजान
उबटन से गणपति गढ़ दूँ
अगर पार्वती मैं लूँ ठान
सृजन 'सलिल' का है सार्थक
मेहनतकश का कर गुणगान
२०-४-२१
***
दोहा मुक्तिका
*
झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
*
आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
*
खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
द्विपदियाँ
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
९-४-२०१०

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

द्विपदि शे'र

द्विपदि सलिला (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढून्ढ-ढून्ढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
***