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गुरुवार, 1 मार्च 2018

स्व. श्यामलाल उपाध्याय जी को जन्मतिथि पर सादर श्रृद्धा-सुमन समर्पित.
*













हिंदी हित श्वास-श्वास जिए श्यामलाल जी,
याद को नमन सौ-सौ बार कीजिए.
प्रेरणा लें हम जगवाणी हिंदी को करेंगे,
हिंदी ही दीवाली होगी, हिंदी-होली भीजिए.
काव्य मंदाकिनी न रुके बहती रहे,
सलिल संजीव सँग संकल्प लीजिए.
श्याम की विरासत न बिसराइए कभी.
श्याम की संतानों ये शपथ आज लीजिए.
अभिन्न सखा
संजीव 'सलिल'
७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४
www.divyanarmada.in
salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

samiksha



पुस्तक चर्चा


भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी.  x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
                            परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य   श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं।  वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं।  प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।    

                            कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं।  
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार। 
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।। 

                            आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं।  भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है।  छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है।  'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।

                            विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है।  उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।                    

                             आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु  प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।

                             सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।

                                  विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं।  ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।

                                  इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।

                                  संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार  
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार 

यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश 
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश 

देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान  
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान 

शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष 
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष 
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]

यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप 
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप 

                                         भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ 
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ 

लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान 
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान 

लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह 
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह 
         
                                        विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।  

                                        इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
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-समन्वयम, विश्व वाणी हिंदी संस्थान,  ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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नवगीत: 
रंगों का नव पर्व बसंती

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

**********
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):                                                            

दोहा का रंग होली के संग :

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार. 
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार. 
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
****************

रविवार, 26 दिसंबर 2010

आचार्य श्यामलाल उपाध्याय. कोलकाता का काव्य संग्रह ''नियति न्यास''

नव वर्ष पर विशेष उपहार:                                                               
आचार्य श्यामलाल उपाध्याय. कोलकाता का काव्य संग्रह 
''नियति न्यास''

१. कवि-मनीषी 


साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.

अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी.


*


२.  पथ-प्रदर्शक                                                           


मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया 
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.

कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.

पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक.


***************


३.    उपेक्षा                                                                             


वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.

नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.


***************


४.        कुण्ठा


अस्पताल के पीछे                                                                    
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.


*******************

५. शोध


अनेक शोधों के अश्चत                                                                                    
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.

चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ प् र्पदी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट.


***************

६.   शिष्टता के मानदंड 

 गीतांजलि एक्सप्रेस
रिजर्वेशन
बर्थ रिजर्वेशन
सुपर चार्ज
बॉम्बे कांग्रेस
मिशन-मीट
क्रिसमस इन बॉम्बे
एक्स्ट्रा कोच
फोर्टी टु फिफ्टी
एलोटमेंट
कम्पार्टमेंट में.
मिस्टर घोष एंड पार्टी-
यस, दिस इज माई सीट.
नो, दैट इज माइन.


भाग-दौड़
टी.टी.ई. समवेत उद्घोष
'चलिए! समय हो गया
सीट छोड़ दीजिये.
खेद, जड़ता,
आक्रोश, स्वार्थपरता
अव्यवस्थितचित्तता,
बस, ये ही रहे
आज की शिष्टता के मान दंड....


************************


७.      उपक्रम
                                                                                                            

वर्णमाला से वृक्ष
शिशिर में सिमटे
हिम की मार से
और खर-शर-विद्ध पत्र
विदा ले रहे तरु से.

भय से भयातुर वृक्ष
मौन ऋषि से खड़े
जानने को उत्सुक
और पाने को  वर
खड़े खोल रहे शतमुख.

मधु संचार से पा रहे
कोमल मसृण कोंपलें
वसंत की, मत्त ग्रीष्म
ऊर्जा से ये पादप
पाने को जीवन्तता
नई वसुधा बसाने को.

बस यही क्रम
जो चलाता
इस जीवन को-
रजनी-दिवस, साँझ और प्रात
ग्रीष्म-वर्षा, शीत-वसंत
अवसाद-आल्हाद
मृत्यु और जीवन.


*****************
८. काव्य प्रलाप 
 
विद्या मन्दिर मेंआसनगत मित्र से उत्तर मिला-
अद्यतन परिप्रेक्ष्य में
काव्य बंग भोगी का-
अंक गणित, ज्यामिति,
त्रिकोण अथवा और कुछ.
गोपन उद्घोष क्लांत
भोजन-वस्त्र-आवास
काव्य-सृष्टि गौड
और मूल प्रश्न-
जीवन -यापन
जटिल से जटिलतर
की भावे चालानों जावे नीजे-नीजे संसार
एइ जीवनेर बड़ भाग्य
एइ जिजीविषार गभीर प्रश्न
एइ जीवनेर आलाप
एइ जन मानुषेर प्रलाप.


***********************


९.     विक्षिप्तता
                                                                                                     

अलीपुर के
मुद्राभवन का सिंहद्वार
डायमण्ड हार्बर का जनपथ -
विक्षिप्तता का आवास.

विक्षिप्तता-  नाम से लक्ष्मी
डायमण्ड की दीपिका
सरकारी कारिंदे ने
अपहृत कर उसकी भूमि
कर दिया थ निर्वासित
वही आज बनी है- विक्षिप्तता.

उसके पति-नारायण का
छः मॉस पूर्व अपहरण.
विक्षिप्तता की, विभ्रम की
चरमावस्था;
हाय! हाय!
एक करुण
कथा के साथ
विक्षिप्तता का
बस-प्रवेश.

कुछ क्षण पश्चात्
टिकिट! टिकिट!
हाय! नारायण कहाँ आई?
चल हट, महावीर तल्ला.
हाय! हाय!
महावीर महाबली हनुमान,
त्रेता की सीता के उद्धारक!
आज कलि के नर-नारायण
अपहृत, निरुद्देश्य.

वे थे शेषशायी
ये हैं पथशायी.
सहस्त्र दलस्थ थे वे
पर्ण-पथशायी ये.
बली महावीर-
तुमसे आशाएं अनेक
कारण- तुम्हारी अपेक्षा
नर-नारायण श्री राम ने की,
क्योंकि तुम
नर नहीं वानर थे-
कितने सजग आस्थावान
कृतज्ञ, स्वामिभक्त, विश्वासपात्र
जिनकी छाया से
आज का मानव अति दूर-
वंचित-प्रवंचित
प्रताड़ित-उपेक्षित.

चतुर्दिक
वाह! वाह! के घोर
अट्टहास,
पर मध्य में हाय! हाय! के
असहाय स्वर की
अबाध अनुगूँज.
मात्र नब्बे घटिकाओं के
करुण क्रंदन पश्चात्
नारायण की खोज में
विक्षिप्त लक्ष्मी भी अपहृत.

एक सज्जन  के
आग्रह पर दैनिकी की अनुगूँज-
एका अर्ध वयसा
मध्योच्च गौरी
नामोच्चार लक्ष्मीति अभिहिता  
त्रिदिवस पूर्वे अपहृता

संधान-
बली महावीर 
मिसिंग परसंस स्क्वेड,
भवानी भवन, कोलकाता.


*******************************


१०.      गंतव्य
                                                                                                       

कर्कश ध्वांक्ष नील
धूमिल आकाश
सप्तमी के शिरस्थ
कृष्णपक्षीय
चन्द्रमा का तिरोधान.

छ्या के कंकाल दो
खड़कती खिडकियों पर
प्रत्यूष के तिमिर पुत्र
प्रातः मध्यान्ह गोधूली में
निमज्जित
अट्टहास गर्जन को प्रस्तुत
प्रकृति के प्रांगण में.

प्रेतात्मा, काल अथवा मृत्यु!
वृक से विकराल
तीव्रता से तीव्र
अंडज, पिंडज
ऊष्म्ज, स्थावर
या जंगम के अबाध पे=राशन.
युग्म कंकाल अदृश्य
नगर के निर्विवाद
कोलाहल के सडांध से.
निद्रा स्वप्न शनैः-शनैः
गंतव्य की ओर
कवि का लोक
आलोकित-
सुरभित नवलोक तुमुल
हास और कृन्दनयुक्त,
पर काल कि विभीषिका
मात्र एक प्रश्न से आक्रांत
सदय मत्स्य न्याय
नीर-क्षीर-विवेक
प्रेमालिंगन
नपुन्सन पुंसन वा.


********************

११. संचय कीट 

धरती की कोख को
चीरकर तुम्हारा वह
छोटा सा सृष्टि-बीज
दर्शन को उत्सुक
बलवती इच्छा-आकांक्षा से
उल्लास लिए पनपा
पल्लवित-पुष्पित हुए
फल के भार से तुम
 सदा झुकते रहे.

आदान-प्रदान का रहस्य जान
अनवरत कर्ण-हरिश्चंद्र जैसे
फल-दान करते रहे,
पर दैव योग से
वर्षा, ग्रीष्म, शीत की विषमता
वा संचय प्रवृत्ति-आग्रह की
अपेक्षा की तुमने.

अपने कृपणता बरती-
फलों पर स्वायत्तता
की मुहर लगा दी.
तब उन्हीं फलों के
कीटाणुओं ने शरीर में
प्रवेश कर तुम्हारी
नित्यता समाप्त कर दी.

अतः, पूर्व जन्म में
यह न भूलोगे कि
ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरंतन नैसर्गिक रहस्य.

ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान,
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरन्तन नैसर्गिक रहस्य.


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१२.  उन्मेष
                                                                                           

अभाव के कोटर में साधन-विहीन
कालांतर से बैठा निरुद्देश्य जन
ढोता रहा अबाध
अतीत के रोदन प्रलाप
दुर्निवार काल कर्कशता-
जनित विषाद.

आशा के डिम्ब से
संतोष के रसायन प्रलेप
कर्म-साधना की ऊष्मा
और जिजीविषा की
शक्ति से संचालित
सरसे यह जीवन.

हरने को अवसाद
नव प्रात से सँजोया मन
खिले रस मिश्रित
उस मधुमय वसंत से
झंझावात शक्तिहीन सौरभ संपन्न मन
नाचे मयूंर उस मधुश्री की छाँव में.

जन-मन की शक्ति से
भागे भयजनित भीति
उठे वह वर्ग जो
पड़ा है शताब्दियों से.
समाज की कठोरता से
पीड़ित-प्रकंपित, प्रताड़ित-उपेक्षित
अभिशप्त-परित्यक्त.


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१३. चिर पिपासु
                                                                                                  


चिरन्तन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.

निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.

निर्विवाद नियति नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग-आड़ोलित
उस पत्रस्थ पिपलिक का.

मैं एकाकी
विपन्न विक्षिप्त स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्राप्त के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व-दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.


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१५.  विवेक

                                                                                                  
मेरा परिचय-
मैं विवेक
पर अब मैं कहाँ?
चल में, न अचल में,
न तल में, न अतल में,
या रसातल-पटल में.
मेरा आवास रहा
मानव के मन की
मात्र एक कोर में.

मन, चित्त-अहंकार की
साधना बन
सबको सचेतन की
अग्नि में तपाकर
स्फूर्त होता मुखर बन
वाणी के जोर से.
मानव से उपेक्षित
परित्यक्त मैं रहता.

कहाँ सूक्ष्म अभिजात्य
मेरा प्रवेश फिर कैसे
मनुज को मानव बनाये?
जब किरीट का अकली
परीक्षित से
मुक्तिबोध की
याचना करे;
पर मनुज का परीक्षित
कुत्सित हो दंभ साढ़े
मौन व्रत का
आव्हान करता मानव से.

फिर मेरा आवास
क्या पूछ रहे?
मानव की कुंठा से
मैं चिर प्रवासी विवेक
गृह-स्कन्ध स्वर्ण के
पैरों तले कभी का
कुचला, अंतिम साँसें
लेने को मात्र
जीता रहा.

मानव की जिजीविषा से
केवल सूक्ष्मता को
धारण किये वरन
में नहीं, कहीं भी नहीं
सब कुछ है पर
मेरा सर्वस्व पारदर्शी
कहीं कुछ में नहीं
न होने को जिसे
तुम देख रहे हो-
वह है विज्ञानं.

अब कोइ राम आये
विरति की सीता
और विवेक के जटायु को
दशमुख के
दमन-चक्र से बच्ये
जो दशरथ की
शुचिता की
पाखंड-सृष्टि करता.

सीता तो भूमिगत
श्रृद्धा-विश्वास जड़,
पर सहृदयता की
गरिमा का जटायु
चिन्न-पक्ष आज्हत
पड़ा मुक्ति के सुयोग की
प्रतीक्षा में, हे राम!
अमिन तुम्हारा कृपा-भाजन 
विवेक.


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१६.   विज्ञानं
  
मैं हूँ, केवल मैं
भू लोक से अन्तरिक्ष तक
मात्र मेरा प्रसार
पद तल भूगोल
कर-तल आकाश
यश के गीत
मन के भाव
युद्ध और शांति
काल और क्रांति
अस्त्र-शस्त्र छद्मवेश
विविध ब्रम्हास्त्र
अग्निशर प्रक्षेपक
शोणित का तर्पण
व्यथा विश्व की बढ़ाने को-
त्रास, भय, ह्रास
मुमूर्षा और विथकन.

पर दृष्टि-भेद से
ऋषि सा अवधूत
मेरी पताका कीर्ति
यत्र-तत्र-सर्वत्र
विविध तकनीकी प्राचुर्य-
अनु, ऊष्मा, औषध
प्रजनन, प्रत्यारोपण
भूगर्भ, अर्णव, अन्तरिक्ष
शिक्षा का माध्यम
गति-अनुगति का प्रेरक
केशर,गुलाब से
पुष्पित वसुधा तल
वायु के बिखरने को
सुरभि प्रसार
यही मेरे रचना विधान.

विश्व के नियामक
नए प्राण, नई स्फूर्ति
चेतना नव्या, कायाकल्प
भावगम्य, भव्य
अनादी पुरुष जर्जर
पर नव्या के
नूतन श्रृंगार से
वसुधा बसाने को
मैं हूँ, केवल मैं-
विज्ञान.

अक्षरशः सत्य
विज्ञानं देव और सुनें-
सुना उद्घोष स्वर
एक दिव्य वाणी का-
देवाधिदेव विज्ञानं
सक्षम प्रशांत-
बुद्धि के त्यौहार
देवलोक के चीत्कार,
क्षुब्ध खिन्न मलिन
और भय से भयातुर
हैं स्वर्ग के सम्राट.
मात्र केवल एक प्रश्न-
आशंका आपतन की.
यह क्या विज्ञान देव,
या कहें पिशाच देव,
कह लें धर्मराज या
यम कहें मन से?

वृत्ति सात्विक शमित
घोर तामस के तमिस्र में
सब कुछ सर्वत्र रहा
आश्रित विज्ञानं के.
मानव की महान यात्रा
लोक चंद्रलोक से
गतिमय मंगल की ओर.

देव दानव युद्ध में
कल और छल ले
नय और नीति से
दानव विजित पर
मानव-देव युद्धरत
घोर कलिकाल में.

सारे देव वर्ग के
रखे रह जायेंगे
कौतुक अपार वे
विजय होगी स्वप्न
पर मानव से मुक्ति
नहीं देवों के वश में.

नर-सुर संग्राम में
देवता पराजित हैं
अपराजेय मानव से.
फलतः, देव वर्ग आज
मानव का क्रीतदास
जीता सर्वहारा बन.

मनु-संतानों की इन्गिति पर
बना दारु योषित
फिर भी मन-वाणी से
भूरि-भूरि प्रस्तुत आशीष को.
घोर रावानात्व ने
पोषित मनुजत्व से
कर दी समाप्त मर्यादा
रामत्व की.

मुहुर्मुहुर अट्टहास-
निर्वासित त्रेता के राम
द्वापर राम निःशस्त्र
कलकीराम काल के रहे
कल्पित, उपेक्षित अज्ञात.

गीता के सुघोष
मूक स्वर में
विज्ञानं शमित
ऐसे सुने जाते
छोड़ धर्म-कर्म सारे
नीति नय अस्त्र-शस्त्र
हो प्रपन्न कर ग्रहण
प्रनत-पाल विज्ञान.

पाप-पुण्य मुक्त हों
अहि से अहल्या
पुष्प वृष्टि हो रही
दुन्दुभि के उच्च स्वर
सरगम के माध्यम से
शंकर के डमरू से
मात्र ये विवेक श्रुत
स्वस्ति देव! स्वस्ति
तवास्तु विज्ञानं देव!
कृष्णार्पण, कृष्णार्पण



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१७.    युव सेनानी

शक्तिधर देश कोई
शत्रु बन दल-बल
युद्ध की भयानक
विभीषिका ले उतरे
भूमि पर भयानक
दुकाल आ पसर जाए 
अथवा विभीषक
प्रदूषण रोग आ धमके.

देश का अजस्र शक्ति
धारित युव सेनानी
हाथ पट हाथ धरे
बैठा रह जाएगा.
निर्भय रण दुन्दुभी से
वैरी दस्यु सम जान
अतुलित पराक्रम में
शीघ्र जुट जाएगा.

रुकने का नाम कभी
जान क्या सका है वह?,
लड़कर वैरी से
उसके छक्के
छुडाएगा.

छोड़ेगा अजस्र शक्ति का
वह अमोघ अस्त्र
भय से भयानक
कपाली बन जाएगा.
सारी शत्रु सेना का
दल-बल मान मर्दित कर
यश-ख्याति अर्जित
देश-भक्त कहलायेगा.
किंचित दशा में वह
असफल अपने को जान
जीवित मृतक बन
नाक न कटाएगा. 

बनकर तूफ़ान मेघ
चिरचिरी की ज्वाला बन
सबको मिटाकर वह
आप मिट जाएगा,
यह्व स्वातंत्र्य-वेदिका पर
प्राण अर्पित कर
देही बिन देह हो
सदेह स्वर्ग जाएगा.


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१८.    नियति-न्यास
                                                                                                 

जनन के व्यापार अगणित
क्यों मरण व्यापार?
संध्या सुषमा, अलख जीवन
हास प्रातः चिर अशाश्वत
जनन अगणित अंत फिर-फिर
रक्त नीलम, अश्रु-छादन
मरण के व्यापार
क्यों जनन व्यापार?

कहाँ हैं वे प्राण-व्यान,
अपान और उड़ान
कह सामान कहाँ रहे वे
राजहठ आक्रांत?
मलिन, दूषित, तृषित मन यों
पीड़, क्षुब्ध, मलीन
ऋषि-मनीष, महर्षि-योगी
भोग के ही सीम.

देव-दानव गर्जना का
घोर हाहाकार
रक्तपात निपात मानव
निहत-आहत साथ
नटी कृष्णा सुख-सुरभि से
लिए प्रत्याहार
दीन मानव शक्ति साधक
बन सबल समुदाय.
ले रही वह न्यास यों ही
नियति के उस पार
मन विशन्न तृषित क्षुधित
अधीर आठों याम.
नित नवीन प्रबुद्ध मानव
कर सप्रीत विकास
हेतु मन की लालसा
पर मात्र केवल ह्रास.

ऊर्ध्व गति का लास ले
मानव अनुक्षण धीर
बन रहा अनवरत साधक
निष्ठ विपुल प्रकृष्ट.
पर सदा बनकर पराजित
काल के यों हाथ
मृत्यु से कैसे बचे
निर्मुक्त हो निष्काम.


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१९. अर्पिता
                                                                                                              
मेरे पति कि दूरी मुझसे बहुत दूर
पर वे हैं मेरे पास निकट छाया से.
जीवन दोनों का प्रवासमय
मैं केरल की हूँ प्रवासिनी कलकत्ता में
वे केरल के पर प्रवास उनका सुदूर
अति मध्यपूर्व में.

मन भर आता, गद-गद होता
आँखें भरतीं, आँसू ढलते
स्नेह छलक कर मोती बनते
नहीं चाहिए ऐसे मोती
बहुरूपी बन करें प्रवंचित
अमित स्नेह-श्रद्धा से अर्पित
प्रेम हमारा जन्म-जन्म का
सदा सनातन.

बदले जब भी जीर्ण कलेवर
बानी रहूँ मैं सदा पुजारिन
उनका मेरा जन्म-जन्म का
साथ सदा है और रहेगा
स्नेह और श्रद्धा से अर्पित,
सदा समर्पित
बनी रहूँ मैं सदा सुहागिन
सदा पुजारिन अपने पति की.


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२४. प्रस्तर खंड                                                         
                                                                                                     
हे कालदूत! तुम शिला-खण्ड
निरवधि असीम भीषण प्रचण्ड
चिरकाल निरंतर देवदूत
प्रसारित दिगंत के जड़ अखण्ड
पाताल मूल धृत भूमंडल
अम्बुधि आलोड़ित निर्भय बन.
शरचंड मरुत के वायुवेग
झंझा झकोर धर
मेघ मालिका के खरशर सह
शंतिदांस ए वृष्टि सुधा सम
कर अजस्र जल.
सागर कि उत्त ऊर्मी से
मर्दित घर्षित
जगती-विहास सागर-प्रलाप को
आत्मसात कर
सृष्टि नियति का ध्यान
कराते कर्मठतावश.
कहीं मेखला बन भू की
विकसित विशाल चट्टान सुदृढ़
जीवन-जल से, जीव-जन्तु से
गुल्म-वृक्ष से, विविधौषध से
करते तुम जग का पालन.
जाग्रत सुषुप्त तुम बने एक
तव एकाकी जीवन महान
करते तप-चर्या निशि-वासर
बन समय शिला के दूत काल.


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बुधवार, 17 मार्च 2010

कविता: सिद्धि -श्यामलाल उपाध्याय

पूना का रेजिमेंट

जिसमें कथा की

पूर्णाहुति.

व्यास महाराज को

यथाशक्ति दान-दक्षिणा,

इसे बीच श्वेत

अधिकारी का प्रवेश

श्रद्धावनत विनयभाव

व्यास की अनुमति से

जिज्ञासा जनित एक प्रश्न-

मात्र स्थानान्तरण का.



व्यास कथा-वाचक का

मौन मूक चिंतन और

श्वास पर आधारित

लग्न-वेला-मेलापक पर

शांत सस्वर उत्तर-

कार्य-सिद्धि

मात्र सप्ताह में-

अंतिम निर्णय.



श्वेत अधिकारी का

कमीशंड अधिकारी को

इंगिति-

व्यास की व्यस्था और

श्वेत अधिकारी का

साभार प्रस्थान.

व्यास के मस्तिष्क में

विचारों के आरोह-अवरोह

जीवन संकट-ग्रस्त प्रभो!

धारित अवधि में यदि

कार्य-सिद्धि न हुई-

मात्र एक प्रश्न से आक्रांत,

पर वेला में आहुति के

कोई भी वचन मृषा

होता भी तो कैसे/

फिर भी यदि साधना

हुई न साकार.


जागा विवेक

सुन उद्घोष अंतर का

चित्त एकाग्र और

वालिश वृत्ति त्यागकर

ध्यान कर दुर्गा का.



व्यास ने संध्या को

ग्रहण किया आसान

प्रतीची मुख ध्यान में

प्रारंभ किया जप को

प्रातः उठ प्राच्य मुख

न्यौछावर कर सर्वस्व

दुर्गा मातेश्वरी को

ध्यान किया ब्राम्हण ने

एकनिष्ठ भाव से,

पर आशंका पिशाचिन की

विकल करती व्यास को.

साधना में सिद्धि का

अभाव रहा किंचित

तो पथ-भ्रष्ट, पदच्युत

प्रवंचना अनर्थ और

लोक-वेद च्युति

देव योग अथवा

एकाग्रता ने व्यास की

द्वादश प्रहर अंतराल पहुँचाया

एक पत्र उस रेजिमेंट में.



श्वेत अधिकारी नाम-

रेजिमेंट का स्थानान्तरण

मात्र चौबीस घंटों में

जर्मन-फ्रांस सीमा पार.

श्वेत अधिकारी

अपने सहायक को

शीघ्र सावधान कर

चला पास ब्राम्हण के.

विनय-युक्त भाव से

टोपी उतारकर

बोल उठा- महाराज!

आपने तपोबल से

कर दी मेरी कामना पूर्ण,

साधना की सिद्धि

जो प्राप्त हुई मुझको.

श्वेत अधिकारी ने

विदा दी ब्राम्हण को

और मंत्रसिक्त जल से

संवेग मार्जन कर

व्यास ने तिलक दिया-

शुभास्ते पन्थानं .

भारत के मंत्र-तंत्र

अध्यात्म, साधनाबल

करते हठात आव्हान

निज ईश का

इनकी अनुरक्ति-भक्ति

होती इतनी प्रबल

कि देव वर्ग होता

बलात उनके वश में.

देखे मैंने कितने देश

घूमे देशांतर

पर ऐसा देश, ऐसा स्थान

मिला नहीं मुझको .


देश का आकर्षण

और ममता इस देश की

भूलता फिर कैसे?

यही मेरी अंतिम इच्छा

पाऊँ अन्य जन्म यदि

गाऊँ गीत ईश के

बिकाकर हाथ दुर्गा के.

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