कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

Sonnet (सोंनेट) श्रीमती शन्नो अग्रवाल

Sonnet (सोंनेट)

( अंगरेजी साहित्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण छंद सोंनेट पर इंग्लॅण्ड निवासी श्रीमती शन्नो अग्रवाल ने दिव्य नर्मदा के लिए विशेष आलेख भेजा है. पाठक ईसे पढें और सोंनेट लिखने का प्रयास करें. -सं.)

Sonnet अंग्रेजी में कविता का एक रूप है. यह शब्द.....''sonnet'' एक Italian शब्द sonetto से बना है जिसका मतलब है ''little song'' मतलब.....छोटा सा गाना. तेरहवीं शताब्दी में आते-आते यह 14 लाइनों वाली कविता हो गया. इसके कुछ खास नियम हैं लय व लिखने के ढंग पर. इसके रचयिता को sonneteers कहते हैं. इसके इतिहास में समय-समय पर लिखने वाले कुछ न कुछ वदलाव करते रहे हैं. Sonnets लिखने वालों में सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम है......William Shakespeare का जिन्होंने 154 सोंनेट्स लिखे जो iambic pentameter में लिखे गये. उनके sonnets में जो लय का तरीका था वह ABAB CDCD EFEF GG था. जिसमे आखिरी दो लाइनें (GG) couplet की होती थीं. English couplets के बारे में दोहे की एक कक्षा में बताया जा चुका है की: Couplets दो लाइनों की iambic pentameter में लिखी आखिर के शब्दों में लय लिये हुये अंग्रेजी में कविता होती है.
John Milton भी sonneteers थे लेकिन उन्होंने सोंनेट लिखने में कई जगह Italian लय का तरीका अपनाया.
सोलहवीं शताब्दी में Thomas Wyatt द्वारा English sonnets लिखे गये, लेकिन जिनमें अधिकतर Wyatt ने इटैलियन व फ्रेंच सोंनेट्स का अनुवाद किया था.
Shakespearean sonnets को भी English sonnets कहा जाता है....जो तीन बार चार-चार लाइनों के समूह में लिखे जाते थे और समाप्ति एक couplet से होती थी. अधिकतर Sonnets का विषय उन दिनों प्रेम से सम्बंधित होता था. लन्दन में 1590 में जब प्लेग फैला था तो सभी थियेटर बंद हो गये थे और सभी लिखने वालों को stage पर ड्रामा खेलने से रोक दिया गया था. उसी समय के दौरान Shakespeare ने अपने sonnets लिखे थे. लेकिन 1670 के बाद काफी समय तक सोंनेट्स लिखने का फैशन उठ गया. लेकिन फिर French Revolution के आने पर अचानक sonnets फिर लिखे जाने लगे और Wordsworth, Milton, keats और Shelley आदि ने भी sonnets लिखे.

तो आइये देखें Sonnet (सोंनेट) कैसे लिखा जाता है:

1. सोंनेट अंग्रेजी में 14 लाइनों की एक कविता होती है.
2. इसकी पहली 12 लाइनें चार-चार लाइनों के समूह (stanza) में लिखी जाती हैं.
3. हर समूह की पहली लाइन की तीसरी लाइन से, व दूसरी लाइन की चौथी लाइन से लय (rhyme) मिलनी चाहिये.
4. बाकी आखिर की दो लाइनें couplet होती हैं. जिनमें दोनों लाइनों के अंत की लय एक समान होती है.
5. सोंनेट की हर लाइन iambic pentameter में लिखी होती है.

अब देखें iambic pentameter क्या होता है:

1. iambic pentameter कविता की वह लाइन है जिसके शब्द 10 हिस्से (syllables) में बँटे होते हैं.
2. इसमें 5 हिस्सों (pairs) पर कम जोर से (unstressed) उच्चारण किया जाता है. व 5 हिस्सों पर अधिक जोर से (stressed) उच्चारण होता है.

यहाँ पर unstressed और stressed syllables की ताल (rhythm या beat) का उदाहरण Shakespeare द्वारा लिखी दो लाइनों में देखिये:

If mu - / -sic be / the food / of love, / play on
Is this / a dag - /- ger I / see be - / - fore me.

तो Syllables के हर pair को iambus कहते हैं. और हर iambus एक unstressed और एक stressed ताल से बनता है.

William Shakespeare के लिखे एक सोंनेट का उदाहरण देखिये:
(With rhyme scheme in four stanzas)

A Shall I compare thee to a summer's day?
B Thou art more lovely and more temperate:
A Rough winds do shake the darling buds of May
B And summer's lease hath all too short a date:

C Sometimes too hot the eye of heaven shines,
D And often is his gold complexion dimm'd;
C And every fair from fair sometime declines,
D By chance or nature's changing course untrimm'd;

E But thy eternal summer shall not fade
F Nor loose possession of that fair thou ow'st;
E Nor shall death brag thou wand'rest in his shade,
F When in eternal lines to time thou grow'st:

G So long as men can breathe or eyes can see,
G So long lives this, and this gives life to thee.

इसी ऊपर वाले सोंनेट का अब सरल अंग्रेजी में अनुवाद देखिये
(Divided in four line stanzas)

If I compare you to a summer's day
I'd have to say you are more beautiful and serene
By comparison, summer is rough on budding life
And doesn't last longer; once it has been;
At times the summer sun (heaven's eye) is too hot
And at other times clouds dim its brilliance
Everything fair in nature becomes less fair from time to time
No one can change (trim) nature or chance;
However, you yourself will not fade
Nor loose ownership of your fairness
Not even death will claim you
Because these lines I write will immortalize you;
Your beauty will last as long as men breathe and see,
As long as this sonnet lives and gives you life.

इसी सोंनेट का मैंने हिंदी अनुवाद भी किया है:

अगर मैं तुम्हारी तुलना एक ग्रीष्म दिवस से करुँ
तो तुममें उससे कहीं अधिक शांति और सुन्दरता है
तुम्हारी तुलना में यह मई का खिला सा महीना भी
देर तक नहीं रुकेगा और जल्दी ही मुरझा सकता है.
कभी-कभी सूरज इतना तपता हुआ होता है
और कभी बादलों के पीछे जाकर छिप जाता है
समय के साथ प्रकृति भी फीकी हो जाती है
और अचानक वाली बातों पर जोर नहीं होता है.
फिर भी तुम अपने में कभी नहीं मुर्झाओगी
ना ही तुम्हारी सुन्दरता में कोई कमी आयेगी
यहाँ तक की मृत्यु भी तुम्हे कभी नहीं छू पायेगी
क्योंकि मेरी यह पंक्तियाँ तुम्हें अमर बना देंगीं.
जब तक पुरुष साँसें लेगा और आँखें देख सकेंगी
और जब तक यह sonnet रहेगा तुम भी रहोगी.

एक और सोंनेट का उदाहरण देखिये जो Edmund Spencer ने लिखा है:

One day I wrote her name upon the strand,
but came the waves and washed it away:
Again I wrote it with a second hand,
But came the tide, and made my pains his prey.
Vain man, said she, that doest in vain assay
A mortal thing so to immortalize,
For I myself shall like to this decay,
And eek my name he wiped out likewise.
Not so (quothI), let baser things devise
To die in dust, but you shall live by fame;
My verse your virtues rare shall eternize,
And in the heavens write your glorious name.
Where when as Death shall all the world subdue,
Out love shall live, and later life renew.

इसी सोंनेट का गध में हिंदी अनुवाद मैंने किया है:

Edmund Spencer ने इस सोंनेट को अपनी पत्नी के लिये लिखा था. जिसमें वह समुद्र के किनारे बैठा हुआ अपनी कल्पना में खोया है की वह एक युवती के संग बातचीत कर रहा है और चाहता है की वह सुनहरा समय वहीँ थम जाये और फिर रेत में उसका नाम लिखकर उसे अमर बनाना चाहता है. किन्तु समुन्द्र की निर्मम लहरों ने ऐसा नहीं होने दिया और उस लिखे नाम को अपने संग बहा ले गईं, जैसा की समय की निर्ममता अक्सर इंसान की बनी चीज़ों को मिटा देती है. लेकिन फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता है और दूसरे तरीके से अपने प्रेम को अमर बनाना चाहता है..... और वह है......कविता के रूप में लिखकर.....उस नाम को पृथ्वी से उठाकर स्वर्ग में अमर बना देना चाहता है......जहाँ हमेशा के लिये प्रेम का नाम अमर हो जाये और सारा संसार या मृत्यु भी कुछ ना बिगाड़ सके. जैसा की पहले बताया था तो यह sonnet भी अधिकतर sonnets की तरह प्रेम के विषय पर लिखा गया है. यह प्रेम, कविता और धर्म की भावनाओं का मिश्रण है.

लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ परिवर्तन आये और लिखने वाले लोग नियम भूल कर अपने ही तरीके से कप्लेट्स व सोंनेट्स लिखने लगे.

अब यहाँ आधुनिक ढंग से एक सोंनेट मैंने भी लिखा है:

Sometimes the path of life becomes thorny
And the truth is sometimes hard to take
The people you know may be so corny
To save the hurt some will lie and fake,
Pain and happiness are the part of life
One's ignorance might numb the pain
Bitter words are always sharp as a knife
The battle of emotions all goes in a vain,
Hidden fury of nature whenever explodes
It wipes earth's beauty with both hands
There is a warning that comes in codes
Not known when death's hand expands.
Life is like a river and we float like a swan
Strange twist of fate can make us a pawn.

और अपने सोंनेट का मैंने हिंदी अनुवाद भी किया है:

कभी-कभी जीवन की पगडंडियाँ हो सकती हैं काँटों से भरी
सचाई को निगलना कभी बहुत कठिन भी हो सकता है
लोग जिन्हें तुम जानते हो उनमें हो सकती है भावुकता भरी
दर्द छिपाने को कोई बहाना होता है या कोई झूठ बोलता है.
दर्द और ख़ुशी हैं एक सच और बने हैं जीवन का हिस्सा
किसी की अज्ञानता उसके दर्द को कभी कर देती है कम
शब्दों का नुकीलापन सदा चुभता है छुरी जैसा और कड़वा सा
भावनाएँ मन में उलझती रहती हैं पर न कम होता है गम.
जब-जब प्रकृति अपने कोप का भयानक रूप दिखाती है
वह मिटा देती है अपने दोनों हाथों से धरती की सुन्दरता
लेकिन पहले से ही चेतावनी कुछ इशारों से मिल जाती है
अचानक मृत्यु के खुले हाथों की अनुभव होती है निकटता.
जीवन एक नदी की तरह है जिसमें हम हंस बन तैरते हैं
कभी तकदीर के खेल में हम मोहरा बन भी फिसलते हैं.

और यह रहा एक और सोंनेट इसे भी मैंने ही लिखा है:

The word MUM doesn't echo in the house these days
Reading your text the tears ran down my cheeks
But to know you are sound and safe gives me relief
To see and hug you I have to wait a few more weeks.
I knew the day will come when you spread your wings
You will go to places and the world will be at your feet
To love children also means they enjoy some freedom
Also learn to calm down in the moments of heat.
You will have to make decisions that matter in life
You have grown to be sensible, thoughtful and wise
In life wheather there is a gentle breeze or a storm
But each day you wake up to find a new surprise.
You are a pure joy to me and I can't ask for more
I wish you the joys and the success be at your door.

ऊपरी सोंनेट का भी हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है:

''माँ'' शब्द न गूंजा कबसे घर में कितना है खालीपन
टेक्स्ट तुम्हारा पढ़कर यह आँखें मेरी निर्झर बन जातीं
जहाँ कहीं हो ठीक-ठाक हो जानके खुश हो जाता है मन
देखूँगी बेटे को फिर से सोच के जलती नयनों की बाती.
पता मुझे था कबसे एक दिन पंख तुम्हारे जब फैलेंगे
एक जगह से उड़कर तुम दुनिया भर में भ्रमण करोगे
नेह करो बच्चों से तो उन पर के कुछ बंधन भी टूटेंगे
अगर कभी कुछ बुरा लगे तो अपने को तुम शांत रखोगे.
बहुत जटिल है यह जीवन ढंग से ही कोई निश्चय करना
समझदार और बुद्धिमान हो समझबूझ के कदम उठाना
सरस हवा सहलाएगी पर यदि आंधी आये तो ना डरना
नयी भोर लायेगी संग अपने एक नयी उमंग का सपना.
मेरी आँखों के तारे तुम, और खुशिओं का एक खजाना
द्वार सफलता दस्तक दे, हर दिन हो खुशिओं का आना.

शन्नो अग्रवाल

शिवानन्द वाणी

शिवानन्द वाणी


सावधानी और अन्तरावलोकन द्वारा सदा मानसिक
परिस्थितियों का ध्यान रखना चाहिए। मन में किसी
प्रकार का निषेधात्मक या अनिश्चित भाव प्रकट नहीं
होने देना चाहिए। कलुषित भावना को शुद्ध भावना
में बदल देना चाहिए।


YOU SHOULD BE EVER WATCHING THE
MENTAL STATES THROUGH CAREFUL AND
VIGILANT INTROSPECTION, AND SHOULD NOT
ALLOW ANY NEGATIVE AND UNDESIRABLE
BHAVA TO MANIFEST. YOU MUST
IMMEDIATELY CHANGE THE EVIL BHAVA
BY THINKING OF THE OPPOSITE BHAVA.
(Swami Sivananda)

अंतर अवलोकन करें, कलुषित तजें विचार.
शुद्ध-सुनिश्चित भाव से, हरि के हों दीदार. दोहानुवाद-सलिल


__
SERVE ALL CREATURES OF GOD. THE SERVICE OF SERVANTS OF GOD IS HIS REAL WORSHIP

रविवार, 27 सितंबर 2009

विजया दशमी पर दोहे

विजया दशमी पर दोहे




आचार्य संजीव 'सलिल'



भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.

स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..



आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.

फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..



मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.

हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..



शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.

जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..



राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.

जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..



दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.

दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..



सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.

पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..



हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.

विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..



कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.

परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..



हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.

इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..



रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.

स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..



अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच.

धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच..



राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत.

सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत..



दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.

राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.



आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास.

द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास..



रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति.

राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति..



मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम.

शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम..



शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्.

शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात..



माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.

लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..



सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व.

'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व..



कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब.

उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब..



सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन.

बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन..



शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य.

सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य..



सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार.

अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार..



जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ.

कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ.



जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल.

छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल..



रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ.

रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ..



देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ.

बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ..



निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम.

रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम..



राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम.

'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम..



**************************************************

शनिवार, 26 सितंबर 2009

चिंतन कण : अंतिम सत्य -मृदुल कीर्ति

चिंतन कण :




अंतिम सत्य



मृदुल कीर्ति


जगत को सत मूरख कब जाने .

दर-दर फिरत कटोरा ले के, मांगत नेह के दाने,

बिनु बदले उपकारी साईं, ताहि नहीं पहिचाने.

आपुनि-आपुनि कहत अघायो, वे सब अब बेगाने.

निज करमन की बाँध गठरिया, घर चल अब दीवाने.

रैन बसेरा, जगत घनेरा, डेरा को घर जाने.

जब बिनु पंख , हंस उड़ जावे, अपने साईं ठिकाने.

पात-पात में लिखा संदेशा , केवल पढ़ही सयाने.

आज बसन्ती, काल पतझरी, अगले पल वीराने.

बहुत जनम धरि जनम अनेका, जनम-जनम भटकाने.

मानुष तन धरि, ज्ञान सहारे, अपनों घर पहिचाने.

विनत

मृदुल

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

sainik school puruliya, west bengal

ACHIEVEMENTS



1. The school follows CBSE system and affiliated to Sainik Schools Society. This school has been achieving excellent result in class X and XII Board Examinations for the last five years. The pass percentage of class X and XII have been 100% in the last five years. Needless to say that there are no failures from this school.



2. Rotary Club of Purulia facilitated first three toppers of class X & XII for their excellent performance in Board Exams- 2009.



3. 15 cadets of the school joined Defence Services in the year 2008-09. In the year 2009-10, till now 08 cadets have joined Defence Services.



4. In the East Zone Sainik Schools Sports & Co-curricular Championship for the year 2009-10, Sainik School Purulia’s positions are as under :-



Overall – First
Champions in Hockey.
Champions in Volleyball.
Champions in Basketball.
Champions in Co-Curricular activities.


5. In Zonal volleyball bal competition Sainik School Purulia bagged 2nd position out of all Sainik Schools.



6. Participating cadets of the school received Prizes and Appreciation Certificates in the following workshops and other activities:-



(a) Physics Workshop organized by District Science Centre, Purulia.



(b) Workshop on Climate Changes & Pridiversity organized by WWF.



(c) All India Essay Writing Contest on Road Safety, organized by the United Schools Organisation of India, New Delhi & Ministry of Shipping, Road Transport & Highways.



(d) Science Seminar on Water Management.



(e) IQ Workshop for class XII.



(f) District Level Debate Contest.



(g) CBSE Maths Olympiad Contest.



(h) Inter- Schools Quiz Contest organized by Rotary Club of Purulia.



(j) District Level Tai-Kwon-Do contest – Won Champions Trophy.



7. 09 cadets of Sainik School Purulia NCC have been awarded scholarhsip from Cadet Welfare Society and 07 cadets have been awarded scholarship from Sahara Group of Companies for their heart breaking peformance in board exams in the year 2008.

Contd…p/2



(2)



08. One cadet of class X visited Japan in the month of Dec 08 on YOUTH EXCHANGE PROGRAMME [JAPAN- EAST ASIA NETWORK OF EXCHANGE FOR STUDENTS AND YOUTH PROGRAMME (JENESYS)]conducted by Ministry of Human Resource Development, Govt of India. He was the only cadet amongst all the Sainik Schools to be selected for the said programme.



09. Shri Nishi Saha, Asst Master (Maths) was selected to visit Japan as Escort Teacher in the month of May 09 on YEP (JENESYS) conducted by Ministry of Human Resource Development, Govt of India.



10. Shri AK Saha, Ex- Senior Master of this school who retired in April 2009 has been awarded the National Teacher Award for the year 2008-09. Earlier the same award was received by Mr. BB Giri, Master in Biology in the year 2005. The later is still serving in Sainik School Purulia.



11. Sainik School Purulia has received the Certificate of Honour by the “Telegraph School Awards” within West Bengal in two categories i.e. Best Maintained School for the year 2009 & Best School in Social Service for the year 2009 on 22 Aug 09 and was nominated for best award in both the categories. On 29th Aug 2009, this school received the “Award for Best School in Social Service- 2009” by “Telegraph School Awards” at Science City, Kolkata.



12. On successful completion of the eye camp conducted on 10 May 09 by interact Club of Sainik School Purulia in association with Rotary Club of Purulia, a Project report was submitted to the Rotary International, Kolkata. Our school bagged 1st prize in the medical related project category and was felicitated at a prize distribution ceremony held on 28 Jun 09 at Kolkata.



13. Education for Dropouts among the General Employees: There are huge number of dropout among the General Employees and the nearby villages, those due to financial reason or due to non availability of facilities. The members of the Interact Club used to visit the villages and identify the dropout and make them aware about importance of education in today’s world. It is due to the cadets of Interact Club of Sainik School Purulia, four dropouts out of the General Employees of this school were admitted to Rabindra National Open School at Purulia Centre to continue higher studies. Two of them are doing their class XII and rest two is doing class X.



14. Motivation Lectures by Defence Officers and eminent personalities have been organized for the benefit of students and staff as well.



15. Motivational Tours to different Defence Establishments like National Defence Academy, Khadakwalsa, Pune, AF Station, Kalaikunda, GRSE Kolkata etc. are planned every year for the cadets of the school.



16. The following Eminent Personalities visited the school during the year:-



Maj Gen AM Verma, SM, VSM (Ex- GOC, Bengal Area) in the year 2008.
Maj Gen RP Dastane, VSM, GOC Bengal Area on 15 Jul 09.
Hon’ble Education Minister Shri Partha De in the year 2008.
Gp Capt VT Parnaik, Inspecting Officer, Sainik School Society, New Delhi in the year 2008.
Hon’ble MP of Purulia Shri Narahari Mahato in the year 2008.
Ms Nayantara Pal Choudhury, Governor, Roatary Club International, Kolkata in Jan 2009.
Shri Santanu Basu, IAS, District Magistrate, Purulia on 28 Jul 09.


------xxxxx------

चिंतन: शिवानंद वाणी

विकट परिस्थितियों पर विजय पाने और सफल बनने
के लिए दृढ़ लगन और अनहत धैर्य की आवश्यकता है।
साधारण सी घटना से विचलित नहीं होना चाहिए
और न ही धैर्य का त्याग करना चाहिए

UNWAVERING FIRMNESS AND PATIENCE
ARE NEEDED TO TIDE OVER CRITICAL
SITUATIONS AND GAIN SUCCESS. DO NOT
PERTURBED ON SMALL HAPPENINGS
AND NEVER LOSE PATIENCE.
(Swami Sivananda)

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

सामयिक प्रश्न: नमाज़ या शक्ति प्रदर्शन?

सामयिक प्रश्न:

नमाज़ या शक्ति प्रदर्शन?


दिल्ली गुडगाँव एक्सप्रेस वे एन .एच 8 पर मुसलमानों द्वारा पढ़ी गई नमाज के सन्दर्भ में आज (22-09-2009) के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार व फोटो देखकर एहसास हुआ कि मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग या यूँ कहें कि पूरा मुस्लिम समाज कट्टरवाद का शिकार हो रहा है l आज से कुछ वर्ष पूर्व गली मुहल्लों की मस्जिदों में पढ़ी जाने वाली नमाज अब सडको , मुख्या मार्गो में पढ़ी जा रही है .

आखिर इससे क्या साबित किया जा रहा है ?
कही यह हिंदुस्तान में तालिबान की संरचना का एक अंग तो नहीं ?
हिन्दुओ के धार्मिक आयोजनों के लिए प्रशासनिक अनुमति की अनिवार्यता , इनके लिए कोई कानून नहीं ?

ये सब होता रहा और प्रशासन मूक बनकर देखता रहा .

हिंदुस्तान को पाकिस्तान , साउदी अरब बनने से रोकने के लिए हमे ऐसे आयोजनों (कट्टरता) का विरोध करना होगा अन्यथा वह समय दूर नहीं जब रोज नमाज के समय हमे अपने घरो में ही रहना पड़ेगा .

www.rashtrawadisena.org

कृपया देश हित में इस सन्देश को अधिक से अधिक लोगो तक भेजे.

संलग्न - टाईम्स ऑफ़ इंडिया एवं दैनिक जागरण में प्रकाशित समाचार.


Prayer or show of force
News and photos published in various newspapers today (22-09-2009) shows the prays of muslim community on Delhi Gurgaon National Highway no – 8 , Which shows that Whole muslim society is following fundamentalism and Jihad under proper planning, by showing their unwanted strength.
What they want to prove?
Is this a India or Pakistan?
Number of permissions are required for Shree Ram leelas or for any jagran, chonki , but there is not a single law for these people ?
We have to stop this by strongly oppsosing it and to save our country from becoming next Pakistan.
www.rashtrawadisena.org
Attached - Published news in Times of India and Dainik Jagran.
-------------
WRONG WRONG WRONG...all so called secular countries do have a religion, but it is kept away from politics.
Only India is stupid to abolish ..erode...supress Hinduism and promote Islam and Christianity.
India is a country with NO religion !!

courtsey: rashtravadi sena

**********************
poetry :

-- DR.RAM SHARMA

1.

CHILDHOOD MEMORIES

I still remember my childhood,
Love, affection and chide of my mother,
Weeping in a false manner,
Playing in the moonlight,
Struggles with cousins and companions,
Psuedo-chide of my father,
I still have everything with me,
But i miss,
Those childhood memories


2

OCTOPUS
Man has become octopus,
entangled in his own clutches,
fallen from sky to earth,
new foundation was made,
of rituals, customs and manners,
tried to come out of the clutches,
but not
waiting for doom`s day

********************

चिंतन: शिवानन्द वाणी

सदाचारी मनुष्य बुद्धिवादी से कहीं अधिक शक्तिमान है। चरित्र
की उन्नति होने से नाना प्रकार की सिद्धियों और गुप्त शक्तियों
की प्राप्ति होती है। जो सदाचार में उन्नति करते हैं, नव-निधियां
उनके चरणों में लोटती है, वे सदा उनकी सेवा में प्रस्तुत रहती है
सच्चरित्रता आध्यात्मिकता के साथ-साथ चलती है।

An ethical man is more powerful than an intellectual man.
Ethical culture brings in various sorts of Sidhis or occult
powers. The nine Ridhis(accomplishments) roll under
the feet of an ethically developed man. They are ready
to serve him. Morality goes hand in hand with spirituality.
(Swami Sivananda)

बुधवार, 23 सितंबर 2009

चिंतन कण: शिवानन्द वाणी

चिंतन कण: शिवानन्द वाणी

अपने दैवी वैभवों को पहचानो। ब्रह्म की महिमा का अनुभव करो।
अपनी स्वतन्त्रता, अपना सच्चिदानन्द स्वभाव, अपना महाकेन्द्र,
आदर्श और लक्ष्य कभी न भूलो। उस प्रकाश, ज्ञान, प्रेम, शान्ति,
सुख और आनन्द के समुंद्र में सदा आनन्दमग्न रहो।

ASSERT YOUR DIVINE MAJESTY. RECOGNISE THE
BRAHMIC GLORY. REALISE YOUR FREEDOM AND
SATCHIDANANDA NATURE, YOUR CENTRE, IDEAL,
GOAL AND HERITAGE. REST IN THAT OCEAN OF
LIGHT, KNOWLEDGE, LOVE, PEACE, JOY AND BLISS
(Swami Sivananda)

स्मृति गीत- पितृव्य हमारे नहीं रहे.... आचार्य संजीव 'सलिल'

स्मृति गीत-

पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

आचार्य संजीव 'सलिल'

*

वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....

*

सोमवार, 21 सितंबर 2009

कायस्थ युवक-युवती परिचय सम्मलेन

कायस्थ युवक-युवती परिचय सम्मलेन भिलाई

13दिसम्बर2009

आयोजक

चित्रांश चर्चा मासिक एवं चित्रांश चेतना मंच

पंजीयन शुल्क रु. 151/-

अन्य विवरण के लिए संपर्क

दूरभाष: श्री देवेन्द्र नाथ - 0788-2290864

श्री अरुण श्रीवास्तव 'विनीत'09425201251

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

नवगीत: लोकतंत्र के शहंशाह की जय... --आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

लोकतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
राजे-प्यादे
कभी हुए थे.
निज सुख में
नित लीन मुए थे.
करवट बदले समय
मिटे सब-
तनिक नहीं संशय.
कोपतंत्र के
शहंशाह की जय....
*
महाकाल ने
करवट बदली.
गायब असली,
आये नकली.
सिक्के खरे
नहीं हैं बाकि-
खोटे हैं निर्भय.
लोभतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
जन-मत कुचल
माँगते जन-मत.
मन-मथ,तन-मथ
नाचें मन्मथ.
लोभ, हवस,
स्वार्थ-सुख हावी
करुनाकर निर्दय.
शोकतंत्र के
शहंशाह की जय....

******

चिंतन : शिवानन्द वाणी

जब कभी तुम उभय-संभव तर्क में पड़ जाओ, तो तुम्हें
मार्ग निश्चित करने के लिए निपुण बनना चाहिए,
जिससे तुम्हे सीधी सफलता प्राप्त हो सके। इसके लिए
बुद्धि अति सूक्षम और कुशाग्र रहनी चाहिए।

YOU MUST BECOME AN EXPERT IN DECIDING
A LINE OF ACTION, WHEN YOU ARE IN A
DILEMMA, THAT CAN BRING SURE SUCCESS.
YOU MUST KEEP THE INSTRUMENT(BUDHHI)
VERY VERY SUBTLE AND SHARP.
(Swami Sivananda)

सोमवार, 14 सितंबर 2009

स्वामी शिवानन्द वाणी

स्वामी शिवानन्द वाणी

भावनाओं की प्रचुरता और बुलबुले के समान
उठने वाली उत्तेजनाओं के प्रवाह में बह न जाओ।
उनको वश में करो। आखिर संकट आया क्यों, यह
झंझट बरसी कैसे-इस पर मनन करो। परिस्थितियों
पर विजय पाने के लिए अनेकों प्रभावशाली और
आसान तरीकों की सदैव गुंजाईश रहती है।

व्यवहार और दृढ़ता, लगन और ध्यान, धैर्य और
अप्रतिहत प्रयत्न, विश्वास और स्वावलम्बन
मनुष्य को ख्यातिमान बना देते हैं।


Do not be carried away by undue sentiments
and bubbling emotions. Control them.
Reflect how the calamity or trouble or
catastrophe has come. There is always
scope for suitable, effective, easy methods
to tide over the crisis or trying situation.

******************

APPLICATION AND TENACITY, INTEREST AND
ATTENTION, PATIENCE AND PERSEVERANCE,
FAITH AND SELF-RELIANCE, CAN MAKE A MAN
A WONDERFUL WORLD-FIGURE.

******************

SERVE ALL CREATURES OF GOD. THE SERVICE OF SERVANTS OF GOD IS HIS REAL WORSHIP.

विजय अनंत, अनंत सेवाश्रम, ७८८ सेक्टर १६, पंचकुला ०९८१५९००१५९ , http://vijayanant.blogspot.com

नवगीत: संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...

निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.

घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.

ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...

हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.

जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?

इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.

कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...

अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.

देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.

हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

श्लोक ११ से १५ मेघदूत ..अनुवाद प्रो सी बी श्रीवास्तव

कर्तुं यच च प्रभवति महीम उच्चिलीन्ध्राम अवन्ध्यां
तच च्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः
आ कैलासाद बिसकिसलयच्चेदपाथेयवन्तः
संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥१.११॥

सुन कर्ण प्रिय घोष यह प्रिय तुम्हारा
जो करता धरा को हरा , पुष्पशाली
कैलाश तक साथ देते उड़ेंगे
कमल नाल ले हंस मानस प्रवासी



आपृच्चस्व प्रियसखम अमुं तुङ्गम आलिङ्ग्य शैलं
वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैर अङ्कितं मेखलासु
काले काले भवति भवतो यस्य संयोगम एत्य
स्नेहव्यक्तिश चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम॥१.१२॥

जगतवंद्य श्रीराम पदपद्म अंकित
उधर पूततट शैल उत्तुंग से मिल
जो वर्ष भर बाद पा फिर तुम्हें
विरह दुख से खड़ा स्नेहमय अश्रुआविल


मर्गं तावच चृणु कथयतस त्वत्प्रयाणानुरूपं
संदेशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम
खिन्नः खिन्नः शिहरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र
क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य॥१.१३॥

तो घन सुनो मार्ग पहले गमन योग्य
फिर वह संदेशा जो प्रिया को सुनाना
थके और प्यासे , प्रखर गिरि शिखर पर
जहां निर्झरों से तृषा है बुझाना

अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किं स्विद इत्य उन्मुखीभिर
दृष्टोत्साहश चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः
स्थानाद अस्मात सरसनिचुलाद उत्पतोदङ्मुखः खं
दिङ्नागानां पथि परिहरन स्थूलहस्तावलेपान॥१.१४॥

यहां से दिशा उत्तर प्रति उड़ो
इस तरह से कि लख तेज गति यह तुम्हारी
सिद्धांगनायें भी अज्ञान के वश
भ्रमित हों कि यह वायु गिरितुंगधारी


रत्नच्चायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद
वल्मीकाग्रात प्रभवति धनुःखण्डम आखण्डलस्य
येन श्यामं वपुर अतितरां कान्तिम आपत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः॥१.१५॥

यथा कृष्ण का श्याम वपु गोपवेशी
सुहाता मुकुट मोरपंखी प्रभा से
तथा रत्नछबि सम सतत शोभिनी
कान्ति पाओगे तुम इन्द्र धनु की विभा से

रविवार, 13 सितंबर 2009

ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति

आत्मीय पाठकों!

वन्दे मातरम.

सनातन भारतीय मूल्यों के कालजयी वाहक उपनिषदों को संस्कृत में होने के कारण आम जन पढ़ नहीं पाते. विश्वविख्यात विदुषी डॉ. मृदुल कीर्ति जी जिनका साक्षात्कार विगत सप्ताह आपने पढ़ा, आज से हरको क सोमवार को किसी एक उपनिषद का हिंदी काव्यानुवाद का उपहार जनता जनार्दन को समर्पित कर हमें धन्य करेंगी.

दिव्यनर्मदा परिवार डॉ. मृदुल कीर्ति जी का ह्रदय से आभारी है, इस अनुपम और सर्वोपयोगी कार्य के लिए. -- सं.

जन्म स्थान पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत

कुछ प्रमुख कृतियाँ :

सामवेद का पद्यानुवाद (1988),

ईशादि नौ उपनिषद (1996),

अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),

ईहातीत क्षण (1991),

श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001)

विविध "ईशादि नौ उपनिषद" - आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।

सम्पर्क: mridulkirti@hotmail.com



ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति



समर्पण

परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?


शान्ति मंत्र

पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते



परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।




ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥

ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]



कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥


कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]



असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥


अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]



अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥


है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]



तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥


चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥


प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]



यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥


सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]



स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥


प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥


अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]



अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥


क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]


विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥


जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥


जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]



अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥


प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]



संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥


जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]



हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥


अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]


पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥


हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]



वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥


यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]



अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥


हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]

*********************************************************

मेघदूत अनुवाद ...आगे... द्वारा.. प्रो.सी बी श्रीवास्तव

जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद दूरबन्धुर गतो ऽहं
याच्ञा मोघा वरम अधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥१.६॥

कहा पुष्करावर्त के वंश में जात ,
सुरपति सुसेवक मनोवेशधारी
मैं दुर्भाग्यवश दूर प्रिय से पड़ा हूं
हो तुम श्रेष्ठ इससे है विनती हमारी
संतप्त जन के हे आश्रय प्रदाता
जलद! मम प्रिया को संदेशा पठाना
भली है गुणी से विफल याचना पर
बुरी नीच से कामना पूर्ति पाना



संतप्तानां त्वमसि शरणं तत पयोद प्रियायाः
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य
गन्तव्या ते वसतिर अलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या॥१.७॥

मैं , धनपति के श्राप से दूर प्रिय से
है अलकावती नाम नगरी हमारी
यक्षेश्वरों की, विशद चंद्रिका धौत
प्रासाद , है बन्धु गम्या तुम्हारी


त्वाम आरूढं पवनपदवीम उद्गृहीतालकान्ताः
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययाद आश्वसन्त्यः
कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्य उपेक्षेत जायां
न स्याद अन्यो ऽप्य अहम इव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥

गगन पंथ चारी , तिम्हें देख वनिता
स्वपति आगमन की लिये आश मन में
निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस
अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें
मुझ सम पराधीन जन के सिवा कौन
लखकर सघन घन उपस्थित गगन में
विरह दग्ध कान्ता की अवहेलना कब
करेगा कोई जन भला किस भवन में


त्वां चावश्यं दिवसगणनातत्पराम एकपत्नीम
अव्यापन्नाम अविहतगतिर द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्य अङ्गनानां
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥१.९॥

अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल
पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी
तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से
सुमानी पपीहा हरेगा उदासी
आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका
समय इष्ट लख गर्भ के हित , गगन में
करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर
स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में


मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां
वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः
गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.१०॥

लखोगे सुनिश्चित विवश जीवशेषा
तो गिनते दिवस भ्रात की भामिनी को
आशा ही आधार , पति के विरह में
सुमन सम सुकोमल सुनारी हृदय को

शनिवार, 12 सितंबर 2009

मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद श्लोक १ से ५ पद्यानुवादक .. प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "

मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद
महा कवि कालिदास कृत संस्कृत ..मेघदूतम्

हिन्दी पद्यानुवादक .. प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
संपर्क ओबी ११ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मोबा. ०९४२५८०६२५२, फोन ०७६१२६६२०५२



पूर्वमेघः


कश्चित कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः
यक्षश चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्चायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१.१॥

पदच्युत , प्रिया के विरहताप से
वर्ष भर के लिये , स्वामिआज्ञाभिशापित
कोई यक्ष सीतावगाहन सलिलपूत
घन छांह वन रामगिरि में निवासित




तस्मिन्न अद्रौ कतिचिद अबलाविप्रयुक्तः स कामी
नीत्वा मासान कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघम आश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श॥१.२॥

बिताते कई मास दौर्बल्य के वश
कनकवलय शोभा रहित हस्तवाला
प्रथम दिवस आषाढ़ के अद्रितट
वप्रक्रीड़ी द्विरद सम लखी मेघमाला




तस्य स्थित्वा कथम अपि पुरः कौतुकाधानहेतोर
अन्तर्बाष्पश चिरम अनुचरो राजराजस्य दध्यौ
मेघालोके भवति सुखिनो ऽप्य अन्यथावृत्ति चेतः
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर दूरसंस्थे॥१.३॥

हुआ स्तब्ध , चिंतित , प्रिया स्व्पन में रत
उचित जिन्हें लख विश्व चांच्ल्य पाता
उन आषाढ़घन के सुखद दर्शनो से
प्रियालिंगनार्थी हृदय की दशा क्या ?



प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन प्रवृत्तिम
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै
प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार॥१.४॥

पर धैर्य धारे शुभेच्छुक प्रिया का
कुशल वार्ता भेजने मेघ द्वारा
गिरि मल्लिका के नये पुष्प से...
पूजकर , मेघ प्रति बोल , सस्मित निहारा

निर्बलता दूर करने के उपाय : डॉ. कृष्णमोहन निगम, जबलपुर

निर्बलता दूर करने के उपाय : डॉ. कृष्णमोहन निगम, जबलपुर

-- बिदारीकंद को पीस-छान कर समान भर खांड (शक्कर) मिलाकर रख लें. एक-एक चम्मच गौ-दुग्ध के साथ सेवन करने से निर्बलता दूर होगी.

-- दो-दो अंजीर सुबह-शाम गौ-दुग्ध में औंटाकर सेवन करें तो यौन निर्बलता घटेगी.

-- पाँच मुनक्के गौ-दुग्ध में पकाकर सुबह-शाम सेवन करने स एशारिरिक निर्बलता दूर होगी.

-- पुनर्नवा कि जड़ तथा छाल को मिलाकर प्रातःकाल निहारे पेट दुग्ध के साथ सेवन करें तो शारीरिक निर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति बढेगी.
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पर 5:48 PM 0 टिप्पणियाँ
लेबल: ayurved, gharelu nuskhe, kmjoree, nirbalta

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

आलेख: भारत की राजनीति और गृह योग -प० राजेश कुमार शर्मा

शनि+बुध+सूर्य+शुक्र का योग भारत के राजनैतिक व्यक्तियो कें लिये शुभ नहीं


शनि 9 सितंबर 2009 को रात्री में 12 (24) बजे कन्या राशि में प्रवेश करेगे और 16 सितंबर 2009 को 23बजकर 23 मिनट पर सूर्य कन्या राशि मे प्रवेश कर रहे हैं। 15 सितंबर 2009 को 20बजकर 39मिनट पर सिहं राशि में प्रवेश कर रहे हैं। राशियों का योग सितंबर माह में बनने जा रहा है। यह योग भारत के राजनैतिक व्यक्तियो कें लिये शुभ नहीं हैं अगस्त माह मे भी यह योग बना था जिसके परिणाम स्वरूप देश में चारो ओर प्रत्येक क्षेत्र में आमजनता को महंगाई का सामना करना पडा और राजनैतिक क्षेत्रो मे उठापटक हो गई हैं। वर्तमान में यह योग कुछ न कुछ अशुभ होने के सकेत दे रहा हैं। आम जन भी इस योग के कारण परेशानियों का सामना करेगा। चार राशियों का योग अक्टूबर माह में बन रहा हैं। यह योग अमावस्या को बनरहा हैं। शनि+बुध+सूर्य+शुक्र ये चार ग्रह का योग क्या रगं लायेगा ज्योतिष शास्त्रो में इसयोग को सुभिक्षा-दुभिक्ष योग कहां गया हैं इस वर्ष दीपावली भी शनिवार के दिन पड रहीं हैं यह भी अशुभ सकेत का कारक हैं इस पर ज्यादा लिखा जाना ठिक नहीं है। हम यहां पर शनि के कारण आनेवाली समस्याओ को आपके सामने रख रहें है।

कुंभ राशि को छोड़कर सभी राशियों के लिये यह सुखदायी होगा भारतवर्ष की वृष लग्न की कुंडली में कर्क राशि होने के कारण फिलहाल साढ़े साती का प्रभाव है। बुधवार की मध्यरात्रि को यह प्रभाव समाप्त हो जायेगा, जो देश के साथ देशवासियों के लिये भी शुभ है। कर्क व सिंह राशि वाले लोग पिछले सालो से कष्टों से पीडि़त हैं लेकिन इस बदलाव के बाद उनके कष्टों का स्वत: निवारण होने लगेगा।

शनि के कारण आनेवाली समस्याओ के निवारण

शनि की व्याधियां

आयुर्वेद में वात का स्थान विशेष रूप से अस्थि माना गया है। शनि वात प्रधान रोगों की उत्पत्ति करता है आयुर्वेद में जिन रोगों का कारण वात को बताया गया है उन्हें ही ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभाव से होना बताया गया है। शनि के दुष्प्रभाव से केश, लोम, नख, दंत, जोड़ों आदि में रोग उत्पन्न होता है। आयुर्वेद अनुसार वात विकार से ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं।

प्रशमन एवं निदान

ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं

माषाश्च तैलं विमलेन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम्।

कृष्णा च धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनन्दनाय॥

तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं, वे ही आयुर्वेद में अष्टांगहृदय में कहे गए हैं। अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो शनि के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं। इस प्रकार शनि से उत्पन्न विकारों की चिकित्सा आसान हो जाएगी।

शनि ग्रह रोग के अतिरिक्त आम व्यवहार में भी बड़ा प्रभावी रहता है लेकिन इसका डरावना चित्र प्रस्तुत किया जाता है जबकि यह शुभफल प्रदान करने वाला ग्रह है। शनि की प्रसन्नता तेलदान, तेल की मालिश करने से, हरी सब्जियों के सेवन एवं दान से, लोहे के पात्रों व उपकरणों के दान से, निर्धन एवं मजदूर लोगों की दुआओं से होती है।

मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्न शनि मंत्र का 108 जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है। ढैया सा साढ़े साती शनि होने पर भी पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है।

शनि मंत्र : ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।

॥ शनिवार व्रत ॥

आकाशगंगा के सभी ग्रहों में शनि ग्रह का मनुष्य पर सबसे हानिकारक प्रकोप होता है। शनि की कुदृष्टि से राजाओं तक का वैभव पलक झपकते ही नष्ट हो जाता है। शनि की साढ़े साती दशा जीवन में अनेक दु:खों, विपत्तियों का समावेश करती है। अत: मनुष्य को शनि की कुदृष्टि से बचने के लिए शनिवार का व्रत करते हुए शनि देवता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारंभ करने का विशेष महत्व है।

शनिवार का व्रत कैसे करें?

* ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी या कुएँ के जल से स्नान करें।

* तत्पश्चात पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें।

* लोहे से बनी शनि देवता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएँ।

* फिर इस मूर्ति को चावलों से बनाए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें।

* इसके बाद काले तिल, फूल, धूप, काला वस्त्र व तेल आदि से पूजा करें।

* पूजन के दौरान शनि के निम्न दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर।

* पूजन के बाद पीपल के वृक्ष के तने पर सूत के धागे से सात परिक्रमा करें।

* इसके पश्चात निम्न मंत्र से शनिदेव की प्रार्थना करें-

शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।

केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव।।

* इसी तरह सात शनिवार तक व्रत करते हुए शनि के प्रकोप से सुरक्षा के लिए शनि मंत्र की समिधाओं में, राहु की कुदृष्टि से सुरक्षा के लिए दूर्वा की समिधा में, केतु से सुरक्षा के लिए केतु मंत्र में कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ, काले तिल से 108 आहुति प्रत्येक के लिए देनी चाहिए।

* फिर अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर लौह वस्तु धन आदि का दान अवश्य करें।

नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।

छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥

शनि का व्रत करने से लाभ

* शनिवार की पूजा सूर्योदय के समय करने से श्रेष्ठ फल मिलता है।

* शनिवार का व्रत और पूजा करने से शनि के प्रकोप से सुरक्षा के साथ राहु, केतु की कुदृष्टि से भी सुरक्षा होती है।

* मनुष्य की सभी मंगलकामनाएँ सफल होती हैं।

* व्रत करने तथा शनि स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में धन, संपत्ति, सामाजिक सम्मान, बुद्धि का विकास और परिवार में पुत्र, पौत्र आदि की प्राप्ति होती है।

प० राजेश कुमार शर्मा भृगु ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र सदर मेरठ 194/14शान्ति कुन्ज निकट रामा फलोर मिल सदर मेरठ कैन्ट

मोबईल न 9359109683 www.bhragujyotish.blogspot.com

बुधवार, 9 सितंबर 2009

महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं -acharya sanjiv 'salil'



महाशोक:
डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' दिवंगत  
संस्कारधानी जबलपुर, ८ सितंबर २००९, बुधवार. सनातन सलिल नर्मदा तीर पर स्थित महर्षि जाबाली, महर्षि महेश योगी और महर्षि रजनीश की तपस्थली संस्कारधानी जबलपुर में आज सूर्य नहीं उगा, चारों ओर घनघोर घटायें छाई हैं. आसमान से बरस रही जलधाराएँ थमने का नाम ही नहीं ले रहीं. जबलपुर ही नहीं पूरे मध्य प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण अकाल की सम्भावना को देखते हुए लगातार ४८ घंटों से हो रही इस जलवृष्टि को हर आम और खास वरदान की तरह ले रहा है. यहाँ तक की २४ घंटों से अपने उड़नखटोले से उपचुनाव की सभाओं को संबोधित करने के लिए आसमान खुलने की राह देखते रहे और अंततः सड़क मार्ग से राज्य राजधानी जाने के लिए विवश मुख्यमंत्री और राष्ट्र राजधानी जाने के लिए रेल मार्ग से जाने के लिए विवश वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी इस वर्षा के लिए भगवन का आभार मान रहे हैं किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात है कि भगवान ने देना-पावना बराबर कर लिया है. समकालिक साहित्य में सनातन मूल्यों की श्रेष्ठ प्रतिनिधि डॉ. चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को अपने धाम ले जाकर प्रभुने इस क्षेत्र को भौगोलिक अकाल से मुक्त कर उसने साहित्यिक बौद्धिक अकाल से ग्रस्त कर दिया है.
ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से
सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.
ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.
चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.
द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.
श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' ( २ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.
उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.
स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.
उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.
उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''
चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''
चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.
'महाभारती में चित्रा जी ने प्रौढ़ दृष्टि और सारगर्भित भाषा बंध से आम पाठकों ही नहीं दिग्गज लेखकों से भी सराहना पाई. मांसलतावाद के जनक डॉ . रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार- ''पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी लेखिका ने द्रौपदी कि आलोकमयी छवि को जिस समग्रता से उभरा है वह औपन्यासिकता की कसौटी पर निर्दोष उतरता है. डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के मत में- ''द्रौपदी के रूप में उत्सर्ग्शीला नारी के वर्चस्व को अत्यंत उदात्त रूप में उभरने का यह लाघव प्रयत्न सराहनीय है.''
श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''
स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.
द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी.
किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.
नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''
चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.
वे अत्यंत सरल स्वभाव की मृदुभाषी, संकोची, सहज, शालीन तथा गरिमामयी महिला थीं. सदा श्वेत वस्त्रों से सज्जित उनका आभामय मुखमंडल अंजन व्यक्ति के मन में भी उनके प्रति श्रृद्धा की भाव तरंग उत्पन्न कर देता था. फलतः, उनके कोमल चरणों में प्रणाम करने के लिए मन बाध्य हो जाता था.
मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.
'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'
चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं ' क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.
वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.
अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.
वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.
उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...
चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.
***************

साक्षात्कार: कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

*************************************

रविवार, 6 सितंबर 2009

कर दर्शन मंत्र हिन्दी पद्यानुवाद

कर दर्शन मंत्र हिन्दी पद्यानुवाद


कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले च शक्ति: प्रभाते करदर्शनम्॥


अर्थ: उंगलियों के पोरों में लक्ष्मी जी निवास करती हैं, हथेली के मध्य भाग में सरस्वती जी और हथेली के मूल में देवी शक्ति। सवेरे-सवेरे इनका दर्शन करना पुण्यप्रद है।
विधि: प्रात:काल उठते ही दोनों हाथ खोलकर उनके दर्शन करने चाहिए।
लाभ: दिनभर चित्त प्रसन्न रहता है और कार्यो में सफलता मिलती है।


हिन्दी भावानुवाद

द्वारा ..... प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
लक्ष्मी ,सरस्वती ,शक्ति के ," कर" में हैं स्थान
करिये प्रातः हथेली का , प्रिय दर्शन-ध्यान !!

शनिवार, 5 सितंबर 2009

गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'

गीतिका

संजीव 'सलिल'

हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.

व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.

दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.

बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.

जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.

सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.

मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.

ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.

दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे

'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.

***************************

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे

दुखद स्थिति है कि जब हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में जन मान्यता मिलनी थी तब भाषाई राजनीति की गई और यह संवैधानिक व्यवस्था हो गई कि जब तक एक भी राज्य नही चाहेगा तब तक हिन्दी वैकल्पिक बनी रहेगी .. विगत वर्षो में ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अंग्रेजी को बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला और हिन्दी उपेक्षित होति गई .. पर अब जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे जिससे सभी भारत वासी हिन्दी जाने समझें .. यह तो मानना ही पड़ेगा कि चाहे देवगौड़ा हो या सोनिया ..इस देश से जुड़ने के लिये सबको हिन्दी सीखनी ही पड़ी है .
vivek ranjan shrivastava...jabalpur

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।

हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।
मुस्कुराये हर जिंदगी कोई भी न तरसे।।

बड़ी ही खूबसूरत फिज़ा हर दिशायें।
सुना रहीं तराने जहाँ भर हवायें।
हर एक अंजुमन में मनायें सब जलसे।।

बाग़बाँ हो ज़िन्दगी लबों पे हँसी हो।
जिधर नज़र घुमायें, खुशी ही खुशी हो।
इन्सानियत की बस्ती बसे हर तरफ से।।

खुदा करे हिफाज़त सभी की ये मिन्नत।
हिन्दुस्ताँ जहाँ में जैसे कि मानो जन्नत।
महफूज़ हो जायें सभी हर तरह से।।

Ansh Lal Pandre

एक शेर: संजीव 'सलिल'

काफिर से हरदम मिले,
खुद आकर भगवान।
उसे ज्ञात ठगता नहीं,
यह सच्चा इन्सान..

कविता: मानव मन: देवेन्द्र कुमार

मानव मन पर नहीं है बंधन,
किस पर कब आ जाये ।
मनोभावनाएं सृजन कर,
अपना उसे बनाये ।।

कुछ न सोचे, कुछ न समझे,
कुछ का कुछ हो जाये ।
चलते-चलते जीवन पथ पर,
राह कहीं खोजाये।।

रंग न देखे, रूप न देखे,
आयु, जाति, रिस्तेदारी।
गुरू-शिष्य वैराग्य न देखे,
प्रेम है इन सब पर भारी।।

प्रेम में अंधा होकर प्राणी,
क्या कुछ न कर जाये ।
ठगा ठगा महसूस करे,
अंजाम देख पछताये ।।

जब टूट जाये विश्वास,
खो जाये होशोहवास।
जीवन वन जाये अभिशाप,
रिस्तों में आजाये खटास ।।

सब जानता इंसान ,
अनजान बन जाये ।
प्रेममयी माया के छटे,
गर्दिश में अपने को पाये ।।

कलंकित होकर समाज में,
खुली साँस न ले पाये ।
आत्मग्लानि से मायूस,
लज्जित हो शर्माये।।

गलतियाँ सभी से होतीं,
फिर से न दुहराओ ।
पश्चाताप करो उनका,
सपना मान भूल जाओ।।

संस्कृति की लक्ष्मण रेखा,
न नाको मेरे यार,
मर्यादा से जीवन में ,
आती रहे बहार।।

***************

गीतिका: संजीव 'सलिल'

शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥

सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥

कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥

खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥

'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥

********************