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शनिवार, 16 मई 2009

नज्म: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

वक्त बद-वक्त सही

आसमां सख्त सही...


न कोई ठौर-ठिकाना कहीं ज़माने में,


खुशी की ज़िक्र तक बाकी नहीं फ़साने में,


कब से पोशीदा लिए बैठा हूँ इन ज़ख्मों को,


टूटे दिल को तेरे मरहम की ज़रूरत भी नहीं।


अश्क अब सूख चले आँख के समंदर से-


अब गिला तुझसे नहीं दिल से शिकायत भी नहीं।


वक्त बद-वक्त सही आसमां सख्त सही........


वो ढलती शाम का कहना यहीं रुक जाओ तुम,


जाने कल कौन सा अज़ाब लिए आए सहर।


कल आफ़ताब उगे जाने किसका पी के लहू।


जाने कल इम्तिहाने-इश्क पे आ जाए दहर।


आज बस जाओ इस दिल के गरीबखाने में।

न कोई ठौर-ठिकाना कहीं ज़माने में।


वक्त बद-वक्त सही आसमां सख्त सही........
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सोमवार, 27 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस

आग में डूबा समंदर, नहीं तो फ़िर क्या है,
ज़ीस्त आहों का बवंडर, नहीं तो फ़िर क्या है

तू भी खोया है सनम, माज़ी की रानाईयों में,
आँख में तेरी, वो मंज़र, नहीं तो फ़िर क्या है

मौत की हर अदा, तकलीफ़-ज़दा हो शायद
ज़िन्दगी भी गमे-महशर, नहीं तो फ़िर क्या है

आज आमादा है तू क्यूँ, इसे ढहाने पे
अब मेरा दिल तेरा मन्दिर, नहीं तो फ़िर क्या है

न उजाडो, के हजारों निगाहें रो देंगी,
शज़र, परिंदों का इक घर, नहीं तो फ़िर क्या है

हर शै अरजां है, उस आतिश-निगाह के आगे
हर अदा गोया इक शरर, नहीं तो फ़िर क्या है