एक रचना:
संजीव
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
*
२७-६-२०१५
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 27 जून 2021
एक रचना
शनिवार, 21 नवंबर 2020
एक रचना
एक रचना
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
लिए चिंतामणि बाँटे प्यार.
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
***
२१-११-२०१७
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
लिए चिंतामणि बाँटे प्यार.
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
***
२१-११-२०१७
रविवार, 24 मई 2020
एक रचना
एक रचना
*
अधर पर मुस्कान १०
नयनों में निमंत्रण, ११
हाथ में हैं पुष्प, १०
मन में शूल चुभते, ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
ओ अमित शाही इरादों! १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का १४
नीरवों के छिपे प्यादों! १४
जिस तरह भी हो न सत्ता १४
हाथ से जाए। ९
कुर्सियों में जान १०
संसाधन स्व-अर्पण, ११
बात में टकराव, १०
धमकी खुली देते, ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव, १७
खुद को थोप ऊपर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
रक्तरंजित सरहदें क्यों? १४
खोलते हो मैकदे क्यों? १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों? १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए। ९
लिया मन में ठान १०
तोड़े आप दर्पण, ११
दे रहे हो घाव, १०
नफरत रोज सेते, ११
और की गलती गिनाकर मुक्त, १७
ज्यों संतुष्ट शूकर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
२३-५-२०१८
*
अधर पर मुस्कान १०
नयनों में निमंत्रण, ११
हाथ में हैं पुष्प, १०
मन में शूल चुभते, ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
ओ अमित शाही इरादों! १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का १४
नीरवों के छिपे प्यादों! १४
जिस तरह भी हो न सत्ता १४
हाथ से जाए। ९
कुर्सियों में जान १०
संसाधन स्व-अर्पण, ११
बात में टकराव, १०
धमकी खुली देते, ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव, १७
खुद को थोप ऊपर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
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रक्तरंजित सरहदें क्यों? १४
खोलते हो मैकदे क्यों? १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों? १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए। ९
लिया मन में ठान १०
तोड़े आप दर्पण, ११
दे रहे हो घाव, १०
नफरत रोज सेते, ११
और की गलती गिनाकर मुक्त, १७
ज्यों संतुष्ट शूकर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
२३-५-२०१८
शनिवार, 23 फ़रवरी 2019
कविता- जान वेदना
एक रचना
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘लोक प्रतिनिधि
लोक जैसा ही रहे?
करे सेवक मौज,
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘लोक प्रतिनिधि
लोक जैसा ही रहे?
करे सेवक मौज,
मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
***
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