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शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

जनवरी १७, सॉनेट, हास्य, सरस्वती, दोहागीत, बुंदेली, हाड़ौती, हिंदी ग़ज़ल, नवगीत

सलिल सृजन जनवरी १७
हास्य सॉनेट
दावत
*
दावत कुबूल कीजिए कविराज! आइए।
नेवता पठा रहीं हैं कवयित्रि जी हुलस।
क्या खूब खयाली पुलाव बना, खाइए।।
खट्टे करेंगीं दाँत एक साथ मिल पुलक।।

लोहे के चने चाब धन्यवाद दीजिए।
दिमाग का दही न सिर्फ दाल में काला।
मौन रह छठी का दूध याद कीजिए।।
किस खेत की मूली से पड़ गया पाला।।

घी में हुईं न अँगुलियाँ, टेढ़ी खीर है।
खट्टे हुए अंगूर पानी घड़ों पड़ गया।
हाय! गुड़ गोबर हुआ, नकली पनीर है।।
जले पे नमक व्यंग्य बाण कह छिड़क दिया।।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद देख लो।
दाल न गली तो तिल का ताड़ मत करो।।
०००
दंत निपोरी
रिक्त स्थान में हाँ या न लिखकर जानेंअपना सच
............ मैं इंसान नहीं, बंदर हूँ।
............ मैं ही पागल हूँ।
............ मेरे दिमाग का कोई इलाज नहीं।
............ मुझे पागलखाना जाना है।
०००
मुक्तक
मत हों अशांत, शांत रहें, शांति पाइए।
भज राधिका के कांत को कुछ कांति पाइए।।
कह देवकीनंदन यशोदा लाल यह रहा-
वसुदेव-नंद की तरह सब साथ आइए।।
१७.१.२०२५
०००
छंद शाला
दोहा २
दोहा में दो की प्रमुखता है।
दोहा ने दोहा सदा, शब्द गाय से अर्थ।
चुनता शब्द सटीक ही, तज अनर्थ या व्यर्थ।।
दोहा में दो पंक्तियाँ, कल-कल भाव प्रवाह।
अलंकार रस मिल करें, चमत्कार पा वाह।।
दो पद दोनों पंक्ति में, जैसे हों दिन-रात।
दो सम दो ही विषम हैं, रवि-शशि जैसे तात।।
विषम चरण आरंभ में, यदि मात्रिक दोहराव।
गति-यति लय की सहजता, सुगठित करें रचाव।।
सम चरणों के अंत में, गुरु-लघु है अनिवार्य।
तीनों लघु से अंत भी, हो सकता स्वीकार्य।।
कारक का उपयोग कम, करिए रहे कसाव।
संयोजक शब्दों बिना, बेहतर करें निभाव।।
सुमिर गुनगुना साधिए, दोहे की लय मीत।
अलंकार लालित्यमय, मोहें करिए प्रीत।।
१७.१.२०२४
•••
विश्व स्वास्थ्य दिवस 
: महत्वपूर्ण मानक :
०१.रक्त चाप : १२०/८० 
०२. नाड़ी : ७०-१०० 
०३. तापमान: ३६.८-३७ 
०४. श्वास: १२-१६
०५. हीमोग्लोबिन: पुरुष - १३.५-२८, स्त्री - ११.५-१६ 
०६.कोलेस्ट्रॉल: १३०-२०० 
०७.पोटेशियम: ३.५-५ 
०८. सोडियम: १३५-१४५ 
०९. ट्राइग्लिसराइड्स: २२० 
१०. शरीर में खून की मात्रा: पीसीवी ३०%-४०%
११. शुगर लेवल: बच्चे ७०-१३०,  वयस्क: ७०-११५ 
१२. आयरन :८-१५  मिलीग्राम
१३. श्वेत रक्त कोशिकाएँ WBC: ४,०००-११,००० 
१४. प्लेटलेट्स: १,५०,०००-४,००,००० 
१५. लाल रक्त कोशिकाएँ आरबीसी: ४.५-६.०  मिलियन।
१६. कैल्शियम: .६-१०.३ mg/dL
१७. विटामिन डी३: २०-५०  एनजी/एमएल।
१८. विटामिन B१२: २००-९०० पीजी/एमएल।
स्वास्थ्य सूत्र :
१:  पानी पिएँ, किसी को पानी पिलाने का विचार छोड़ दें। अधिकांश स्वास्थ्य समस्याएँ शरीर में पानी की कमी से होती हैं। 
२: शरीर से जितना हो सके उतना काम करें, शरीर को चल, तैर या खेल कर गतिशील रखें।
३: भूख से कम खाएँ। ज्यादा खाने की लालसा छोड़ें। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, जीवन सत्व (विटामिन) युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक प्रयोग करें।
४:  वाहन का प्रयोग अत्यंत आवश्यक होने पर ही करें। अधिक से अधिक चलने की कोशिश करें। लिफ्ट, एस्केलेटर पर सीढ़ी को वरीयता दें। ५;  गुस्सा-चिंता करना छोड़ दें। अप्रियबातों को अनदेखा करें। सकारात्मक लोगों से बात करें और उनकी बात सुनें।
६:  छठा निर्देश सबसे पहले धन, स्वाद और ईर्ष्या का मोह त्याग दें। 
७: जो न पा सकें उसे भूल जाइए। दूसरों को क्षमा करें। 
८: धन, पद, प्रतिष्ठा, शक्ति, सौंदर्य, मोह और अहंकार तजें । विनम्र बनें।
९:  सच को स्वीकारें। बुढ़ापा जीवन का अंत नहीं है। पूर्णता की शुरुआत है। आशावादी रहें, परिस्थितियों का आनंद लें। 
***
बुंदेली वंदना
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे!।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउं चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
ध्यान धरूँ आ दरसन देओ।
सुन्दर छबि दिखला दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा माँ पधराओ
तबआगे बढ़ पाऊँ ना।।
थाम अँगुरिया राह दिखाखें।
मंज़िल तक पहुँचा दे रे!।।
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे!।।
***
सॉनेट
कण-कण में जो बस रहा
सकल सृष्टि जो रच रहा
कहिए किसके बस रहा?
बाँच रहा, खुद बँच रहा।
हँसा रहा चुप हँस रहा
लगे झूठ पर सच कहा
जीव पंक में फँस रहा
क्यों न मोह से बच रहा।
काल निरंतर डँस रहा
महाकाल जो नच रहा
बाहुबली में कस रहा
जो वह प्रेमिल टच रहा।
सबको प्रिय निज जस रहा।
कौन कहे टू मच रहा।।
१७-१-२०२२
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती
बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती
ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
१८-११-२०१९
***
मुक्तिका
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
'सुधर जा' संदेश देती है सदा
न हो फिर जो भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका या गीतिका या पूर्णिका
तेवरी का तूल है हिंदी गजल
.
सजल अरु अनुगीत में भी समाहित
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
.
१७.९.२०१८
***
सामयिक लेख
हिंदी के समक्ष समस्याएं और समाधान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल सृष्टि में भाषा का विकास दैनंदिन जीवन में और दैनन्दिन जीवन से होता है। भाषा के विकास में आम जन की भूमिका सर्वाधिक होती है। शासन और प्रशासन की भूमिका अत्यल्प और अपने हित तक सीमित होती है। भारत में तथाकथित लोकतंत्र की आड़ में अति हस्तक्षेपकारी प्रशासन तंत्र दिन-ब-दिन मजबूत हो रहा है जिसका कारण संकुचित-संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ तथा बढ़ती असहिष्णुता है। राजनीति जब समाज पर हावी हो जाती है तो सहयोग, सद्भाव, सहकार और सर्व स्वीकार्यता ​के लिए स्थान नहीं रह जाता। दुर्भाग्य से भाषिक परिवेश में यही वातावरण है। हर भाषा-भाषी अपनी सुविधा के अनुसार देश की भाषा नीति चाहता है। यहाँ तक कि परंपरा, प्रासंगिकता, भावी आवश्यकता या भाषा विकास की संभावना के निष्पक्ष आकलन को भी स्वीकार्यता नहीं है।
निरर्थक प्रतिद्वंद्विता
संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित होने की दिशाहीन होड़ जब-तब जहाँ-तहाँ आंदोलन का रूप लेकर लाखों लोगों के बहुमूल्य समय, ऊर्जा तथा राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश का कारण बनता है। ८वीं अनुसूची में जो भाषाएँ सम्मिलित हैं उनका कितना विकास हुआ या जो भाषाएँ सूची में नहीं हैं उनका कितना विकास अवरुद्ध हुआ इस का आकलन किये बिना यह होड़ स्थानीय नेताओं तथा साहित्यकारों द्वारा निरंतर विस्तारित की जाती है। विडंबना यह है कि 'राजस्थानी' नाम की किसी भाषा का अस्तित्व न होते हुए भी उसे राज्य की अधिकृत भाषा घोषित कर दिया जाता है और उसी राज्य में प्रचलित ५० से अधिक भाषाओँ के समर्थक पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के कारण यह होता देखते रहते हैं।
राष्ट्र भाषा और राज भाषा
राज-काज चलाने के लिए जिस भाषा को अधिसंख्यक लोग समझते हैं उसे राज भाषा होना चाहिए किंतु विदेशी शासकों ने खुद कि भाषा को गुलाम देश की जनता पर थोप दिया। उर्दू और अंग्रेजी इसी तरह थोपी और बाद में प्रचलित रह गयीं भाषाएँ हैं. शासकों की भाषा से जुड़ने की मानसिकता और इनका उपयोग कर खुद को शासक समझने की भ्रामक धारणा ने इनके प्रति आकर्षण को बनाये रखा है। देश का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजीप्रेमी प्रशासक और भारतीय अंग्रेज प्रधान मंत्री के कारण अंग्रेजी का महत्व बना रहा तथा राजनैतिक टकराव में भाषा को घसीट कर हिंदी को विवादस्पद बना दिया गया।
किसी देश में जितनी भी भाषाएँ जन सामान्य द्वारा उपयोग की जाती हैं, उनमें से कोई भी अराष्ट्र भाषा नहीं है अर्थात वे सभी राष्ट्र भाषा हैं और अपने-अपने अंचल में बोली जा रही हैं, बोली जाती रहेंगी। निरर्थक विवाद की जड़ मिटाने के लिए सभी भाषाओँ / बोलियों को राष्ट्र भाषा घोषित कर अवांछित होड़ को समाप्त किया जा सकता है। इससे अनचाहे हो रहा हिंदी-विरोध अपने आप समाप्त हो जाएगा। ७०० से अधिक भाषाएँ राष्ट्र भाषा हो जाने से सब एक साथ एक स्तर पर आ जाएँगी। हिंदी को इस अनुसूची में रखा जाए या निकाल दिया जाए कोई अंतर नहीं पड़ना है। हिंदी विश्व वाणी हो चुकी है। जिस तरह किसी भी देश का धर्म न होने के बावजूद सनातन धर्म और किसी भी देश की भाषा न होने के बावजूद संस्कृत का अस्तित्व था, है और रहेगा वैसे ही हिंदी भी बिना किसी के समर्थन और विरोध के फलती-फूलती रहेगी।
शासन-प्रशासन के हस्तक्षेप से मुक्ति
७०० से अधिक भाषाएँ/बोलियां राष्ट्र भाषा हो जाने पाए पारस्परिक विवाद मिटेगा, कोई सरकार इन सबको नोट आदि पर नहीं छाप सकेगी। इनके विकास पर न कोई खर्च होगा, न किसी अकादमी की जरूरत होगी। जिसे जान सामान्य उपयोग करेगा वही विकसित होगी किंतु राजनीति और प्रशासन की भूमिका नगण्य होगी।
हिंदी को प्रचार नहीं चाहिए
विडम्बना है कि हिंदी को सर्वाधिक क्षति तथाकथित हिंदी समर्थकों से ही हुई और हो रही है। हिंदी की आड़ में खुद के हिंदी-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटनेवाले व्यक्तियों और संस्थाओं ने हिंदी का कोई भला नहीं किया, खुद का प्रचार कर नाम और नामा बटोर तथा हिंदी-विरोध के आंदोलन को पनपने का अवसर दिया। हिंदी को ऐसी नारेबाजी और भाषणबाजी ने बहुत हानि पहुँचाई है। गत जनवरी में ऐसे ही हिंदी प्रेमी भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और सरकार की प्रशंसा में कसीदे पढ़कर साहित्य और भाषा में फूट डालने का काम कर रहे थे। उसी सरकार की हिंदी विरोधी नीतियों के विरोध में ये बगुला भगत चुप्पी साधे बैठे हैं।
हिंदी समर्थक मठाधीशों से हिंदी की रक्षा करें
हिंदी के नाम पर आत्म प्रचार करनेवाले आयोजन न हों तो हिंदी विरोध भी न होगा। जब किसी भाषा / बोली के क्षेत्र में उसको छोड़कर हिंदी की बात की जाएगी तो स्वाभाविक है कि उस भाषा को बोलनेवाले हिंदी का विरोध करेंगे। बेहतर है कि हिंदी के पक्षधर उस भाषा को हिंदी का ही स्थानीय रूप मानकर उसकी वकालत करें ताकि हिंदी के प्रति विरोध-भाव समाप्त हो।
हिंदी सम्पर्क भाषा
किसी भाषा/बोली को उस अंचल के बाहर स्वीकृति न होने से दो विविध भाषाओँ/बोलियों के लोग पारस्परिक वार्ता में हिंदी का प्रयोग करेंगे ही। तब हिंदी की संपर्क भाषा की भूमिका अपने आप बन जाएगी। आज सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को प्रतिस्पर्धी मानकर उसका विरोध कर रही हैं, तब सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को अपना पूरक मानकर समर्थन करेंगी। उन भाषाओँ/बोलियों में जो शब्द नहीं हैं, वे हिंदी से लिए जाएंगे, हिंदी में भी उनके कुछ शब्द जुड़ेंगे। इससे सभी भाषाएँ समृद्ध होंगी।
हिंदी की सामर्थ्य और रोजगार क्षमता
हिंदी के हितैषियों को यदि हिंदी का भला करना है तो नारेबाजी और सम्मेलन बन्द कर हिंदी के शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाएं। इसके लिए हर विषय हिंदी में लिखा जाए। ज्ञान - विज्ञान के हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जाए। हिंदी के माध्यम से वार्तालाप, पत्राचार, शिक्षण आदि के लिए शासन नहीं नागरिकों को आगे आना होगा। अपने बच्चों को अंग्रेजी से पढ़ाने और दूसरों को हिंदी उपदेश देने का पाखण्ड बन्द करना होगा।
हिंदी की रोजगार क्षमता बढ़ेगी तो युवा अपने आप उस ओर जायेंगे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और इस बाजार में आम ग्राहक सबसे ज्यादा हिंदी ही समझता है। ७०० राष्ट्र भाषाएँ तो दुनिया का कोई देश या व्यापारी नहीं सीख-सिखा सकता इसलिए विदेशियों के लिए हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा होगी. स्थिति का लाभ लेने के लिए देश में द्विभाषी रोजगार पार्क पाठ्यक्रम हों। हिंदी के साथ कोई एक विदेशी भाषा सीखकर युवजन उस देश में जाकर हिंदी सिखाने का काम कर सकेंगे। ऐसे पाठ्यक्रम हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के साथ बेरोजगारी कम करेंगे। कोई दूसरी भारतीय भाषा इस स्थिति में नहीं है कि यह लाभ ले और दे सके।
हिंदी में हर विषय की किताबें लिखी जाने की सर्वाधिक जरूरत है। यह कार्य सरकार नहीं हिंदी के जानकारों को करना है। किताबें अंतरजाल पर हों तो इन्हें पढ़ा-समझ जाना सरल होगा। हिंदी में मूल शोध कार्य हों, केवल नकल करना निरर्थक है। तकनीकी, यांत्रिकी, विज्ञान और अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में पर्याप्त साहित्य की कमी तत्काल दूर की जाना जरूरी है। हिंदी की सरलता या कठिनता के निरर्थक व्यायाम को बन्द कर हिंदी की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा। हिंदी अन्य भारतीय भाषाओँ को गले लगाकर ही आगे बढ़ सकती है, उनका गला दबाकर या गला काटकर हिंदी भी आपने आप समाप्त हो जाएगी।
***
मुक्तिका
*
नाव ले गया माँग, बोल 'पतवार तुम्हें दे जाऊँगा'
यह न बताया सलिल बिना नौका कैसे खे पाऊँगा?
.
कहा 'अनुज' हूँ, 'अग्रज' जैसे आँख दिखाकर चला गया
कोई बताये क्या उस पर आशीष लुटाने आऊँगा?
.
दर्पण दरकाया संबंधों का, अनुबंधों ने बरबस
प्रतिबंधों के तटबंधों को साथ नहीं ले पाऊँगा
.
आ 'समीप' झट 'दूर' हुआ क्यों? बेदर्दी बतलाए तो
यादों के डैनों-नीचे पीड़ा चूजे जन्माऊँगा
.
अंबर का विस्तार न मेरी लघुता को सकता है नाप
बिंदु सिंधु में समा, गीत पल-पल लहरों के गाऊँगा
.
बुद्धि विनीतामय विवेक ने गर्व त्याग हो मौन कहा
बिन अवधेश न मैं मिथलेश सिया को अवध पठाऊँगा
.
कहो मुक्तिका सजल तेवरी ग़ज़ल गीतिका या अनुगीत
शब्द-शब्द रस भाव बिंब लय सलिला में नहलाऊँगा
१७-१-२०१७ 
***
समीक्षा:
आश्वस्त करता नवगीत संग्रह 'सड़क पर'
देवकीनंदन 'शांत'
*
[कृति विववरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१८, आकार २१ x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, कलाकार मयंक वर्मा, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com]
*
मुझे नवगीत के नाम से भय लगने लगा है। एक वर्ष पूर्व ५० नवगीत लिखे। नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना जो हमें वर्षों से जानते हैं, ने कई महीनों तक रखने के पश्चात् ज्यों का त्यों हमें मूल रूप में लौटते हुए कहा कि गीत के हिसाब से सभी रचनाएँ ठीक हैं किंतु 'नवगीत' में तो कुछ न कुछ नया होना ही चाहिए। हमने उनके डॉ. सुरेश और राजेंद्र वर्मा के नवगीत सुने हैं। अपने नवगीतों में जहाँ नवीनता का भाव आया, हमने प्रयोग भी किया जो अन्य सब के नवगीतों जैसा ही लगा लेकिन आज तक वह 'आँव शब्द समझ न आया जो मधुकर जी चाहते थे। थकहार कर हमने साफ़-साफ़ मधुकर जी की बात कह दी डॉ. सुरेश गीतकार से जिन्होंने कहा कि सजन्त जी! आप चिंता न करें हमने नवगीत देखे हैं, बहुत सुंदर हैं लेकिन हम इधर कुछ अस्त-व्यस्त हैं, फिर भी शीघ्र ही आपको बुलाकर नवगीत संग्रह दे देंगे। आज ४ माह हो चुके हैं, अब थक हार कर हम बगैर उनकी प्रतिक्रिया लिए वापस ले लेंगे।
यह सब सोचकर 'सड़क पर' अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में हाथ काँप रहा है। तारीफ में कुछ लिखा तो लोग कहेंगे ये ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, छंद और लोकगीत का कवि नवगीत के विषय में क्या जाने? तारीफ पर तारीफ जबरदस्ती किये जा रहा है। यदि कहीं टिप्पणी या आलोचनात्मक बात कह दी तो यही नवगीत के बने हुए आचार्य हमें यह कहकर चुप करा देंगे कि जो नवगीत प्रशंसा के सर्वतः तयोग्य था, उसी की यह आलोचना? आखिर है तो ग़ज़ल और लोक गीतवाला, नवगीत क्या समझेगा? हमें सिर्फ यह सोचकर बताया जाए कि कि नवगीत लिखनेवाले कवि क्या यह सोचकर नवगीत लिखते हैं कि इन्हें सिर्फ वही समझ सकता है जो 'नवगीत' का अर्थ समझता हो?
हम एक पाठक के नाते अपनी बात कहेंगे जरूर....
सर्वप्रथम सलिल जी प्रथम नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" पर निकष के रूप में निम्न साहित्यकारों की निष्पक्ष टिप्पणी हेतु अभिवादन।
* श्री डॉ. सुरेश कुमार वर्मा का यह कथन वस्तुत: सत्य प्रतीत होता है -
१. कि मुचुकुन्द की तरह शताब्दियों से सोये हुए लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है और
२. 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
बीएस एक ही कशिश डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने जो जबलपुर के एक भाषा शास्त्री, व्याख्याता हैं ने अपनी प्रतिक्रिया में "काल है संक्रांति का" सभी गीतों को सहज गीत के रूप में हे ेदेखा है। 'नवगीत' का नाम लेना उनहोंने मुनासिब नहीं समझा।
* श्री (अब स्व.) चन्द्रसेन विराट जो विख्यात कवि एवं गज़लकार के रूप में साहित्य जगत में अच्छे-खासे चर्चित रहे हैं। इंदौर से सटीक टिप्पणी करते दिखाई देते हैं- " श्री सलिल जी की यह पाँचवी कृति विशुद्ध 'नवगीत' संग्रह है। आचार्य संजीव सलिल जी ने गीत रचना को हर बार नएपन से मंडित करने की कोशिश की है। श्री विराट जी अपने कथन की पुष्टि आगे इस वाक्य के साथ पूरी करते हैं- 'छंद व कहन' का नयापन उन्हें सलिल जी के नवगीत संग्रह में स्पष्ट दिखाई देना बताता है कि यह टिप्पणी नवगीतकार की न होकर किसी मंजे हुए कवी एवं शायर की है - जो सलिल के कर्तृत्व से अधिक विराट के व्यक्तित्व को मुखर करता है।
* श्री रामदेवलाल 'विभोर' न केवल ग़ज़ल और घनाक्षरी के आचार्य हैं बल्कि संपूर्ण हिंदुस्तान में उन्हें समीक्षक के रूप में जाना जाता है- " कृति के गीतों में नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा की दृष्टी से लक्षण-व्यंजना शब्द शक्तियों का वैभव भरा है। वे आगे स्पष्ट करते हैं कि बहुत से गीत नए लहजे में नव्य-दृष्टी के पोषक हैं। यही उपलब्धि उपलब्धि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को नवगीतकारों की श्रेणी में खड़ा करने हेतु पर्याप्त है।
* डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई बड़ी साफगोई के साथ रेखांकित कर देते हैं कि भाई 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है "काल है संक्रांति का" कृति। नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना 'सलिल' जी को नवगीतकार मानने हेतु विवश करती है। कृति के सभी नवगीत एक से एक बढ़कर सुंदर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। वे एक सुधी समीक्षक, श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ साहित्यकार हैं लेकिन गीत और नवगीतों दोनों का जिक्र वे करते हैं- पाठकों को सोचने पर विवश करता है।
* शेष समीक्षाकारों में लखनऊ के इंजी. संतोष कुमार माथुर, राजेंद्र वर्मा, डॉ. श्याम गुप्ता तथा इंजी. अमरनाथ जी ने 'गीत-नवग़ीत, तथा गीत-अगीत-नवजीत संग्रह कहकर समस्त भ्रम तोड़ दिए।
* इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार समीक्षक जबलपुर ने अपनी कलम तोड़कर रख दी यह कहकर कि "सलिल जैसे नवगीतकार ही हैं जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को साध रहे हैं और बोध को भी। सलिल जी के गीतों/नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है।
अंत में "सड़क पर", आचार्य संजीव 'सलिल' की नवीनतम पुस्तक की समीक्षा उस साहित्यकार-समीक्षक के माध्यम से जिसने विगत दो दशकों तक नवगीत और तीन दशकों से मधुर लयबढ़ गीत सुने तथा विगत दस माह से नवगीत कहे जिन्हें लखनऊ के नवगीतकार नवगीत इसलिए नहीं मानते क्योंकि यह पारम्परिक मधुरता, सहजता एवं सुरीले लय-ताल में निबद्ध हैं।
१. हम क्यों निज भाषा बोलें? / निज भाषा पशु को भाती / प्रकृति न भूले परिपाटी / संचय-सेक्स करे सीमित / खुद को करे नहीं बीमित / बदले नहीं कभी चोलें / हम क्यों निज भाषा बोलें?
आचार्य संजीव 'सलिल' ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया है कि 'नव' संज्ञा नहीं, विशेषण के रूप में ग्राह्य है। गीत का उद्गम कलकल-कलरव की लय (ध्वन्यात्मक उतार-चढ़ाव) है। तदनुसार 'गीत' का नामकरण लोक गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, भक्ति गीत, जनगीत, आव्हान गीत, जागरण गीत, नव गीत, बाल गीत, युवा गीत, श्रृंगार गीत, प्रेम गीत, विरह गीत, सावन गीत आदि हुआ।
परिवर्तन की 'सड़क पर' कदम बढ़ाता गीत-नवगीत, समय की चुनौतियों से आँख मिलता हुआ लोकाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना है। नव भाव-भंगिमा में प्रस्तुत होनेवाला प्रत्येक गीत नवगीत है जो हमारे जीवन की उत्सानधर्मिता, उमंग, उत्साह, उल्लास, समन्वय तथा साहचर्य के तत्वों को अंगीकार कर एकात्म करता है। पृष्ठ ८६ से ९६ तक के गीतों की बोलिया बताएंगी कि उन्हें "सड़क पर" कदम बढ़ाते नवगीत क्यों न कहा जाए?
सड़क पर सतत ज़िंदगी चल रही है / जमूरे-मदारी रुँआसे सड़क पर / बसर ज़िंदगी हो रहे है सड़क पर / सड़क को बेजान मत समझो / रही सड़क पर अब तक चुप्पी, पर अब सच कहना ही होगा / सड़क पर जनम है, सड़क पर मरण है, सड़क खुद निराश्रित, सड़क ही शरण है / सड़क पर आ बस गयी है जिंदगी / सड़क पर, फिर भीड़ ने दंगे किये / दिन-दहाड़े, लुट रही इज्जत सड़क पर / जन्म पाया था, दिखा दे राह सबको, लक्ष्य तक पहुँचाए पर पहुंचा न पाई, देख कमसिन छवि, भटकते ट्रक न चूके छेड़ने से, हॉर्न सुनकर थरथराई पा अकेला, ट्रॉलियों ने चींथ डाला, बमुश्किल, चल रही हैं साँसें सड़क पर।
सड़क पर ऐसा नवगीत संग्रह है जिसे हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो कवी हो, अकवि हो पर सहृदय हो।
६.१.२०१९
संपर्क: १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष ९९३५२१७८४१
***
समय
*
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
*
समय रहता मौन
गुपचुप देखता सब।
आप माने या न माने
देखता कब?
चाल चलता
बिना पूछे या बताये
हेरते हैं आप
उसकी चाल जब-तब।
वृत्त का आरंभ या
आखिर न देखा
तो कहें क्या
वृत्त ही भास्वर नहीं है?
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है.
*
समय को असमय
करें मत काल-कवलित
समय असमय में
नहीं क्या रहा करता?
सदा सुसमय बन
रहे वह साथ बेहतर
देव कुसमय से
सदा ही मनुज डरता।
समय ने सामर्थ्य दी
तुझको मनुज, ले मान
वह वेटर नहीं है।
है सभी कुछ
समय के आधीन लेकिन
समय डिक्टेटर नहीं है।
१७.१.२०१६
***
नवगीत:
.
कल का अपना
आज गैर है
.
मंज़िल पाने साथ चले थे
लिये हाथ में हाथ चले थे
दो मन थे, मत तीन हुए फिर
ऊग न पाये सूर्य ढले थे
जनगण पूछे
कहें: 'खैर है'
.
सही गलत हो गया अचंभा
कल की देवी, अब है रंभा
शीर्षासन कर रही सियासत
खड़ा करे पानी पर खंभा
आवारापन
हुआ सैर है
.
वही सत्य है जो हित साधे
जन को भुला, तंत्र आराधे
गैर शत्रु से अधिक विपक्षी
चैन न लेने दे, नित व्याधे
जन्म-जन्म का
पला बैर है
===
नवगीत:
.
कल के गैर
आज है अपने
.
केर-बेर सा संग है
जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे
बदला ऐसा रंग है
चाह पूर्ण हों
अपने सपने
.
जो सत्ता के साथ है
उसका ऊँचा माथ है
सिर्फ एक है वही सही
सच नाथों का नाथ है
पल में बदल
गए हैं नपने
.
जैसे भी हो जीत हो
कैसे भी रिपु मीत हो
नीति-नियम बस्ते में रख
मनमाफिक हर रीत हो
रोज मुखौटे
चहिए छपने
.
१६.१. २०१५
***
आइये कविता करें: ५
आज हमारे सम्मुख आभा सक्सेना जी के ३ दोहे हैं।
दोहा द्विपदिक (दो पंक्तियों का), चतुश्चरणिक (चार चरणों का), अर्द्धसम मात्रिक छंद है।
दोहा की दोनों पंक्तियों में १३-११, १३-११ मात्राएँ होती हैं। छंद प्रभाकर के अनुसार तेरह मात्रीय विषम चरणारंभ में एक शब्द में जगण (१२१) वर्जित कहा जाता है। दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं होता। विषम चरणांत में सगण (लघु लघु गुरु), रगण (गुरु लागु गुरु) या नगण (लघु लघु लघु) का विधान है। ग्यारह मात्रीय सम (२,४) चरणों में चरणांत में जगण (लघु गुरु लघु) या तगण (गुरु गुरु लघु) सारतः गुरु लघु आवश्यक है।
लघु-गुरु मात्रा के विविध संयोजनों के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं। दोहा नाम-गुरु मात्रा-लघु मात्रा-कुल वर्ण क्रमशः इस प्रकार हैं: भ्रमर २२-४-२६, भ्रामर २१-६-२७, शरभ २०-८-२८, श्येन १९-१०-२९, मंडूक १८-१२-३०, मर्कट १७-१४-३१ , करभ १६-१६-३२, नर १५-१८-३३, हंस १४- २०-३४, गयंद १३-२२-३५, पयोधर १२-२४-३६, बल ११-२६-३७, पान १०-२८-३८, त्रिकल ९-३०-३९, कच्छप ८-३२-४०, मच्छ ७-३४-४१, शार्दूल ६-३६-४२, अहिवर ५-३८-४३, व्याल ४-४०-४४, विडाल ३-४२-४५, श्वान २-४४-४६, उदर १-४६-४७, सर्प ०-४८-४८।
दोहा की विशेषता १. संक्षिप्तता (कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहना), २. लाक्षणिकता (संकेत या इंगित से कहना, विस्तार की कल्पना पाठक के लिये छोड़ना), ३. मार्मिकता या बेधकता (मन को छूना या भेदना), ४. स्पष्टता (साफ़-साफ़ कहना), ५. सरलता (अनावश्यक क्लिष्टता नहीं), ६. सम-सामयिकता तथा ७. युगबोध है। बड़े ग्रंथों में मंगलाचरण अथवा आरम्भ दोहों से करने की परंपरा रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहा का उपयोग चौपाई समूह के अंत में कड़ी के रूप में किया है।
दोहा कालजयी और सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। दोहा रचना के उक्त तथा नया नियमों का सार यह है की लय भंग नहीं होना चाहिए। लय ही छंद का प्राण है। दोहे में अन्त्यानुप्रास (पंक्त्यांत में समान वर्ण) उसकी लालित्य वृद्धि करता है।
.
१. क्यारी क्यारी खिल रहे, हरे हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, उनसे उनकी जात।।
यह दोहा मात्रिक संतुलन के साथ रचा गया है। द्वितीय पंक्ति में कथ्य में दोष है। 'फूल से' और 'उनसे' दोनों शब्दों का प्रयोग फूल के लिए ही हुआ है, दूसरी ओर कौन पूछ रहा है? यह अस्पष्ट है। केवल एक शब्द बदल देने से यह त्रुटि निराकृत हो सकती है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे हर फूल से, भँवरे उनकी जात
कुछ और बदलाव से इस दोहे को एक विशेष आयाम मिलता है और यह राजनैतिक चुनावों के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट हो जाता है:
क्यारी-क्यारी खिल रहे, हरे-हरे से पात
पूछ रहे जन फूल को, भँवरे नेता जात
.
२. कठिनाई कितनी पड़ें, ना घबराना यार
सुख के दिन भी आयेंगे, दुख आयें जित बार।।
इस दोहे के तीसरे चरण में १४ मात्रा होने से मात्राधिक्य दोष है। खड़ी (टकसाली) हिंदी में 'न' शुद्ध तथा 'ना' अशुद्ध कहा गया है। इस दृष्टि से 'जित' अशुद्ध क्रिया रूप है, शुद्ध रूप 'जितनी' है। कठिनाई 'पड़ती' नहीं 'होती' है। इस दोहे को निम्न रूप देना ठीक होगा क्या? विचार करें:
कितनी हों कठिनाइयाँ, मत घबराना यार
सुख के दिन भी आएँगे, दुःख हो जितनी बार
३. रूखा सूखा खाइके, ठंडा पानी पीव
क्या करें बताइये जब, चाट मांगे जीभ।।
इस दोहे के सम चरणान्त में अन्त्यानुप्रास न मिलने से तुकांत दोष है। 'खाइके' तथा 'पीव' अशुद्ध शब्द रूप हैं। द्वितीय पंक्ति में लय भंग है, चतुर्थ चरण में १० मात्राएँ होने से मात्राच्युति दोष है। कथ्य में हास्य का पुट है किंतु दोहे के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के कथ्य में अंतर्संबंध नहीं है।
रूखा-सूखा जो मिले, खा कर ले जल-पान।
जीभ माँगती चाट दें, प्रगटें दयानिधान।।
यहाँ इंगित सुधार अन्य काव्य विधाओं के लिए भी उपयोगी हैं, इन्हें दोहा तक सीमित मत मानिये।
***
हास्य सलिला:
चाय-कॉफी
*
लाली का आदेश था: 'जल्दी लाओ कॉफ़ी
देर हुई तो नहीं मिलेगी ए लालू जी! माफ़ी'
लालू बोले: 'मैडम! हमको है तुमरी परवाह
का बतलायें अधिक सोनिया जी से तुमरी चाह
चाय बनायी गरम-गरम पी लें, होगा आभार'
लाली डपटे: 'तनिक नहीं है तुममें अक्कल यार
चाय पिला मोड़ों-मोड़िन को, कॉफी तुरत बनाओ
कहे दुर्गत करवाते हो? अपनी जान बचाओ
लोटा भर भी पियो मगर चैया होती नाकाफ़ी
चम्मच भर भी मिले मगर कॉफ़ी होती है काफ़ी'
१७.१.२०१४
***
नवगीत:
सड़क पर....
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा माँगता है.
कलियों से काँटा
डरा-काँपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
१७-१-२०११
***



मंगलवार, 14 जनवरी 2025

जनवरी १४, लोहड़ी, दुल्ला भट्टी, गीत, सॉनेट, संक्रांति, दोहागीत, लघुकथा,

 सलिल सृजन जनवरी १४

संस्कृति
लोहड़ी का गीत : सुंदर मुंदरीए होए
*
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्योहार है। लोहड़ी पर्व पर लोगों के घर जा कर लोहड़ी जलाने के लिए लकड़ियाँ माँगी जाती हैं और दुल्ला भट्टी के गीत गाए जाते हैं। लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं। महिलाएँ आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं। कहते हैं कि अकबर के शासन काल में दुल्ला भट्टी एक लुटेरा था लेकिन वह हिंदू लड़कियों को गुलाम के तौर पर बेचे जाने का विरोधी था। उन्हें बचा कर वह उनकी हिंदू लड़कों से शादी करा देता था। उसे लोग पसंद करते थे। लोहड़ी गीतों में उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।’ कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़क़ीर ने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था। फिर जब लड़की जवान हुई तो उस फ़कीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम कर पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया। इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं। कहा जाता है कि सम्राट अकबर के ज़माने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाक़ों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था। इस गीत का नातालोक नायक दुल्ला भट्टी से ज़रूर है। यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर ख़ूब गया जाता है।
*
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां
***
दोहा सलिला
सूर्य रश्मि लोरी सुना, कहे जगो हे राम!
राजकुमार उठो करो, धन्य धरा भू धाम।।
कोहरा घूँघट ओट से, कर चितवन का वार।
रश्मि निमंत्रण दे करो, सबसे सब दिन प्यार।।
वाक् ब्रह्म है नाद हरि, ताल- थाप शिव जान।
स्वर सरगम शारद-रमा, उमा तान मतिमान।।
योग प्रयोग करें सतत, मिट जाए हर रोग।
हों वियोग अति भोग से, संयम सदा सुयोग।।
मिला मुकद्दर मुफ्त में, मान महज मेहमान।
अवसर-कशिश की कशिश, घरवाली वत जान।।
श्याम पूर्ण हो शुभ्र से, शुभ्र श्याम से पूर्ण।
शुभ न अशुभ बिन शुभ रहे, अशुभ बिना शुभ चूर्ण।।
कर अक्षर आराधना, होगा नहीं अभाव।
भाव शब्द में रस भरे, सब से कर निभाव।।
१४.१.२०२४
शोक गीत
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
प्रकृति प्रेमी चेताते थे, हुआ प्रशासन था बहरा।
शासन ने भी बात न मानी, स्वार्थ-राज अंधा ठहरा।।
जंगल काट लिए धरती माँ का है चीर हरा तुमने।
कच्चे नए पहाड़ों की छाती छलनी की दानव ने।।
दुःशासन-शासन को तरस न आता किस्मत वाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
आँसू बहा रही हैं नदियाँ, चीख रहे पर्वत-टीले।
आर्तनाद करती है जनता, नयन सभी के हैं गीले।।
नेता-अफसर-सेठ काटते माल तिजोरी भरते हैं।
सरकारी धन चारा समझें, बेरहमी से चरते हैं।।
सपने टूट गए, सिर पीटें राहत के पैगाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
चेताया केदारनाथ ने, लेकिन तनिक नहीं चेते।
बना-बना सीमेंट कंठ गिरि-पर्वत के तुमने रेते।।
पॉवर प्लांट बना न्योता है खुद विनाश को तुमने ही।
बर्फ ग्लेशियर पिघल रहे, यह बतलाया इसरो ने भी।।
धँसती धरा' मशीन दानवी है अभिशाप अवाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
विस्फोटों से कँपी दिशाएँ, आसमान भी दहल गया।
भाषण-आश्वासन सुन भोला जनगण- जनमत बहल गया।।
बाँध-सुरंगों को रोको, भू संरक्षण तत्काल करो।
दूब-पौध से आच्छादित कर धरती को नवजीवन दो।।
पूर्ण नाश के पहले सम्हले, शासन जीवन-शाम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
सकल हिमालय की घाटी पर खतरा कम मत आँको तुम।
दोष न औरों को दो, अपने अंतर्मन में झाँको तुम।।
जनगण मन ने किया भरोसा, सिसक रहा है ठगा गया।
गया पुराना भी हाथों से, आया हाथ विनाश नया।।
हाय राम! तुम चीख न सुनते, मुग्ध हुए श्री राम पर।
जोशीमठ बर्बाद कर दिया है विकास के नाम पर।
थू थू थू धृतराष्ट्री शासन थू थू तेरे काम पर।।
१४-१-२०२३
•••
सॉनेट
संक्रांति
*
भुवन भास्कर शत अभिनंदन।
दक्षिणायणी था अब तक पथ।
उत्तरायणी होगा अब रथ।।
अर्पित अक्षत रोली चंदन।।
करूँ पुष्प बंधूक समर्पित।
दो संक्रांति काल को मति-गति।
शारद-रमा-उमा की हो युति।।
विधि-हरि-हर मन-मंदिर अर्चित।।
चित्र गुप्त उज्जवल हो अपना।
शुभ सबका, अब रहे न सपना।
सत-शिव-सुंदर हो प्रभु! नपना।।
पोंगल बैसाखी हँस गाए।
बीहू सबको गले लगाए।
मिल खिचड़ी गुड़ लड्डू खाए।।
१४-१-२०२२
***
सॉनेट
रस
*
रस जीवन का सार है।
रस बिन नीरस जिंदगी।
रसमय प्रभु की बंदगी।।
सरस ईश साकार है।।
नीरसता भाती नहीं।
बरस बरस रस बरसता।
रस पाने मन तरसता।।
पारसता आती नहीं।।
परस मिले प्रिय का सदा।
चरस दूर हो सर्वदा।
दरस ईश का हो बदा।
हो रसलीन करूँ सृजन।।
रसानंद पा कर जतन।।
हो रसनिधि रसखान मन।।
१४-१-२०२२
***
गीत
सरकार
*
बेगानी है सरकार
*
करते न जो कहते तुम
कैसे भरोसा हो?
कहते न जो करते तुम।
जनता को दिया बिसार
अब दीख रहा तुमको
मनमानी में ही सार।
बेगानी है सरकार
*
किस्मत के भरोसे ही
आवाज दे रहे हैं
सुनते ही नहीं बहरे।
सुलझे कैसे तकरार
दूर न करते पीर
अनसुनी रही इसरार।
बेगानी है सरकार
***
दोहागीत
संकट में हैं प्राण
*
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
अफसरशाही मत्त गज
चाहे सके उखाड़
तना लोकमत तोड़ता
जब-तब मौका ताड़
दलबंदी विषकूप है
विषधर नेता लोग
डँसकर आँसू बहाते
घड़ियाली है सोग
ईश्वर देख; न देखता
कैसे होगा त्राण?
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
धनपति चूहे कुतरते
स्वार्थ साधने डाल
शोषण करते श्रमिक का
रहा पेट जो पाल
न्यायतंत्र मधु-मक्षिका
तौला करता न्याय
सुविधा मधु का भोगकर
सूर करे अन्याय
मुर्दों का सा आचरण
चाहें हों संप्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
आवश्यकता-डाल पर
आम आदमी झूल
चीख रहा है 'बचाओ
श्वास-श्वास है शूल
पत्रकार पत्ते झरें
करें शहद की आस
आम आदमी मर रहा
ले अधरों पर प्यास
वादों को जुमला कहे
सत्ता डँस; ले प्राण
लोकतंत्र तरु बचाओ
संकट में हैं प्राण
*
१४-१-२०२१
नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
बाल नवगीत:
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
...
लघुकथा-
पतंग
*
- बब्बा! पतंग कट गयी....
= कट गयी तो कट जाने दे, रोता क्यों है? मैंने दूसरी लाकर रखी है, वह लेकर उड़ा ले।
- नहीं, नयी पतंग उड़ाऊँगा तो बबलू फिर काट देगा।
= काट देगा तो तू फिर नयी पतंग ले जाना और उड़ाना
- लेकिन ऐसा कब तक करूँगा?
= जब तक तू बबलू की पतंग न काट दे। जीतने के लिये हौसला, कोशिश और जुगत तीनों जरूरी हैं। चरखी और मंझा साथ रखना, पतंग का संतुलन साधना, जिस पतंग को काटना हो उस पर और अपनी पतंग दोनों पर लगातार निगाह रखना, मौका खोजना और झपट्टा मारकर तुरंत दूर हो जाना, जब तक सामनेवाला सम्हाले तेरा काम पूरा हो जाना चाहिए। कुछ समझा?
- हाँ, बब्बा! अभी आता हूँ काटकर बबलू की पतंग।
***
लघुकथा -
रफ्तार
*
प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गयी तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।
जश्न मनाने के बहाने हरिया को जमकर पिलाई और बिटिया के फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से करने का वचन ले लिया। उसने नकारा तो पंचायत बुला ली गयी जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेडी उसके पैर में बाँधने वरना जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।
उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।
उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझते हुए भी फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।
***
लघुकथा:
अनजानी राह
*
कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।
इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आयी 'चली आओ'। कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।
***
लघुकथा-
चेतना शून्य
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उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित माँ पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गये।
सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गयी। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा वह हुई जा रही है चेतना शून्य ।
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लघुकथा :
सहारे की आदत
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'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर।
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था।
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।
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लघुकथा-
यह स्वप्न कैसा?
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आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न.
नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरूपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?
सोच रहा हूँ जो कभी साकार न हो सके वह स्वप्न कैसा?
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लघुकथा
जीत का इशारा
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पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।
उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है।
बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा।
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लघुकथा -
संक्रांति
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- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....
= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी।बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।
- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?
= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।
- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?
= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?
- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जायेगा।
= ऐसे कैसे बिखर जायेगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।
१४.१.२०१६
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नवगीत:
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काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
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दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
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उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
६-१-२०१५
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नवगीत:
आओ भी सूरज
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आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
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करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
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खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
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रविवार, ४ जनवरी २०१५
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नवगीत:
संक्रांति काल है
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संक्रांति काल है
जगो, उठो
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प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
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खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
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दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
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सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
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नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
२-१-२०१५
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